मध्य प्रदेश में नगरीय निकायों के चुनाव में उम्मीदवारी तय करने में बीजेपी और काँग्रेस ने लोकतंत्र के सभी उसूलों को ताक पर धर दिया है । दोनों ही पार्टियों ने उम्मीदवारों की काबीलियत से ज़्यादा उसकी हैसियत को तरजीह दी है । प्रमुख दलों की "नूरा कुश्ती" ने महापौर,स्थानीय निकाय के अध्यक्षों और पार्षदों की तकदीर का फ़ैसला टिकट देते वक्त ही कर दिया है । आपसी तालमेल और सामंजस्य का इससे बेहतर उदाहरण क्या होगा कि सत्ताधारी दल के कई उम्मीदवारों के खिलाफ़ गुमनाम और अनजान चेहरे चुनावी मैदान में उतारे गये हैं । आम मतदाता दलों की चालबाज़ियों को बखूबी जान-समझ रहा है , लेकिन लोकतंत्र के नाम पर ठगे जाने को अपनी नियति मान कर हताश और निराश है | लोकतंत्र के नाम पर खुले आम चल रहे "लूटतंत्र" को रोकने में नाकाम लोग खुद को बेबस पा रहे हैं ।
नगरीय निकायों के चुनाव को लेकर भाजपा ने इस बार नेताओं के रिश्तेदारों की बजाय कार्यकर्ताओं को उम्मीदवार बनाने का ऐलान किया था।भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने एक बार फिर तय किए गए सारे मापदंडों की धज्जियाँ उड़ा दी हैं । पार्टी के तमाम नेताओं की घोषणा के बावजूद महापौर पद के 13 में से चार उम्मीदवार ऐसे हैं जो सीधे तौर पर नेताओं के रिश्तेदार हैं। ये चारों ही महिला उम्मीदवार हैं। पार्टी की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज ने भी सूबे में घूम-घूम कर महिला कार्यकर्ता सम्मेलनों में ऎलान किया था कि टिकट पाने के लिये कार्यकर्ताओं की सक्रियता ही एकमात्र पैमाना होगी ना कि किसी की रिश्तेदारी । लेकिन टिकट बँटवारे की फ़ेहरिस्त का खुलासा होने के बाद पार्टी का आम और सक्रिय कार्यकर्ता गुस्से से उबल रहा है । हर बार नेताओं के चहेतों,चमचों और रिश्तेदारों की उम्मीदवारी तय होती देख कार्यकर्ता समझ ही नहीं पा रहा कि पार्टी में उसका भविष्य क्या होगा ?
प्रदेश में नगरीय निकाय का पहला ऐसा चुनाव है जिसमें 50 प्रतिशत पद महिलाओं के लिए आरक्षित है। भाजपा ने नगरीय प्रशासन मंत्री बाबूलाल गौर की पुत्रवधू कृष्णा गौर को भोपाल से महापौर पद का उम्मीदवार बनाया है । कृष्णा पिछड़े वर्ग से आती हैं,जबकि ये सीट सामान्य वर्ग की महिला के लिये है। सामान्य वर्ग के उम्मीदवार के रूप में भाजपा महिला मोर्चा की प्रदेश अध्यक्ष सीमा सिंह, महिला समाज कल्याण बोर्ड की अध्यक्ष उषा चतुर्वेदी के अलावा सरिता देशपांडे जैसे तगड़े दावेदारों को दरकिनार कर कृष्णा गौर को टिकट दिया गया है । बीजेपी उम्मीदवार की पहचान यह है कि वे बाबूलाल गौर के बेटे की विधवा हैं । जब गौर "खड़ाऊ मुख्यमंत्री" बने थे,तभी उनके इकलौते पुत्र की मौत हो गई । पुत्रवधू को वैधव्य के दुख से बाहर लाने के लिये गौर ने कृष्णा गौर को आनन-फ़ानन में मप्र पर्यटन विकास निगम के अध्यक्ष पद का झुनझुना थमा दिया । हालाँकि तगड़े विरोध के कारण गौर को अपने कदम पीछे लेना पड़े और मुख्यमंत्री की कुर्सी भी गँवाना पड़ी । भोपाल की फ़िज़ा में ससुर-बहू की इस अलबेली जोड़ी के कई किस्से कहे-सुने जाते हैं । बहू को गद्दीनशीन देखने के ख्वाहिशमंद गौर ने भोपाल के उपनगर कोलार में नगरपालिका बना डाली,लेकिन दाँव उल्टा पड़ गया और ख्वाब की तामीर नहीं हो सकी ।
पटवा-सारंग गुट के इस खास सिपहसालार ने इस बार पार्टी ही नहीं विरोधी खेमे को भी बखूबी साध लिया है । तभी तो काँग्रेस ने कई मज़बूत महिला नेताओं की दावेदारी को खारिज करते हुए आभा सिंह जैसे अनजान चेहरे पर दाँव लगाया है । मतदाता खुद को ठगा महसूस कर रहा है और जानकार इसे मतदान से पहले ही बीजेपी के लिये जीत का जश्न मनाने का मौका बता रहे हैं । बीजेपी ने आदिम जाति कल्याण मंत्री विजय शाह की पत्नी भावना शाह को खण्डवा,वरिष्ठ नेता नरेश गुप्ता की पुत्रवधू समीक्षा गुप्ता को ग्वालियर और वर्तमान महापौर अतुल पटेल की पत्नी माधुरी पटेल को बुरहानपुर से महापौर पद का उम्मीदवार बनाया है। महापौर पद के लिए घोषित किए गए 13 में से अधिकांश उन्हीं लोगों को उम्मीदवार बनाया गया है जिनके परिवार का कोई सदस्य पहले से ही पार्टी में सक्रिय है। इस मसले पर भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष विजेंद्र सिंह सिसौदिया की कैफ़ियत है कि रिश्तेदारों को टिकट नहीं देने का आशय यह था कि जो राजनीति में सक्रिय नहीं है उन्हें उम्मीदवार नहीं बनाया जाएगा। उन्होंने स्पष्ट किया कि जिन्हें महापौर का उम्मीदवार बनाया गया है वे भले ही किसी के रिश्तेदार हों मगर पार्टी में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। उनकी उम्मीदवारी का आधार सक्रियता है।
नेताओं ने टिकट बँटवारे में नैतिकता के सभी मूल्यों को बड़ी ही बेहयाई से दरकिनार कर दिया है । मौजूदा राजनीति में व्यक्तित्व और कार्यकुशलता गौण और रिश्ते हावी होते जा रहे हैं । प्रमुख दलों में चहेतों को रेवड़ी बाँटने की परंपरा सी बन गई है । आपसदारी की राजनीति ने लोकतंत्र की जड़ों को खोखला कर दिया है । प्रभावी व्यक्तित्व और विकास के खुले नज़रिये के बगैर क्या ये सिफ़ारिशी चेहरे शहरों की कायापलट कर सकेंगे ? क्या रिश्तेदारों के कँधों पर सवार होकर "लोकतंत्र की पाठशाला" में दाखिल होने वाले लोग बीमार स्थानीय निकायों को भ्रष्टाचार और अव्यवस्थाओं के दलदल से निजात दिला सकेंगे ? या फ़िर ये नाकाबिल नुमाइंदे जनादेश के बहाने अपने आकाओं की मेहरबानी का सिला देने के लिये महज़ "कठपुतली" बन कर रह जाएँगे । अगर यही हाल रहा तो आने वाले वक्त में सियासी कार्यकर्ता ऊपर वाले से यही दुआ माँगते सुनाई देंगे - " जो अब किये हो दाता ऎसा ना कीजो , अगले जनम मोहे नेता का रिश्तेदार ही कीजो ........!"
शनिवार, 28 नवंबर 2009
बुधवार, 11 नवंबर 2009
गैस पीड़ितों की कब्रगाह पर खिलेगा चमन
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में 25 साल पहले हुए दुनिया के सबसे बड़े औद्योगिक हादसे को लोग अभी तक नहीं भूल पाए हैं लेकिन गैस त्रासदी पर राजनीति का रंग कुछ इस कदर चढ़ चुका है कि अब प्रभावितों की ज़िन्दगी की दुश्वारियों का चर्चा भी नहीं होता । प्रदेश सरकार केन्द्र और केन्द्र सरकार राज्य के पाले में गेंद डालकर अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेने की कवायद में जुटे रहते हैं । तीन दिसम्बर को भोपाल में सरकारी और गैर सरकारी तौर पर साल दर साल बड़े-बड़े आयोजन होते हैं । बहुराष्ट्रीय कंपनियों और सरकार की नाइंसाफ़ी को जी भर कर लानतें भेजी जाती हैं । गैस कांड की बरसी पर यूनियन कार्बाइड , वॉरेन एंडरसन और अब डाउ केमिकल को जी भरकर कोसने का दस्तूर सा बन गया है । आगामी 3 दिसंबर को भोपाल गैस त्रासदी को 25 साल पूरे हो जाएंगे। गैस पीड़ितों के बीच काम करने वाले संगठन और राज्य सरकार दुर्घटना की पच्चीसवीं बरसी बड़े पैमाने पर मनाने की तैयारी में जुट गये हैं । बरसों से वीरान पड़े कारखाने में चहल-पहल बढ़ाने के लिये राज्य सरकार ने इसे बीस नवम्बर से आम जनता के लिये खोलने का अजीबो गरीब फ़ैसला लिया है । त्रासदी के 25 साल पूरे होने के मौके पर यूनियन कार्बाइड कारखाने को आम लोगों के लिए खोला जा रहा है।
हैरत की बात है कि पिछले महीने ही केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश के कारखाने में ज़हरीले रसायन मौजूद होने की बात को सिरे से खारिज करने वाले बयान पर गैस राहत मंत्री बाबूलाल गौर ने कड़ी आपत्ति दर्ज़ कराई थी , लेकिन अब गौर का कहना है कि कारखाने को आम लोगों के लिए खोलने के पीछे मकसद यह है कि लोग जान सकें कि कारखाने में खतरनाक रासायनिक कचरा नहीं है। उन्होंने स्पष्ट किया कि विभिन्न वैज्ञानिक संगठन कचरे का परीक्षण कर स्पष्ट कर चुके हैं कि कारखाने में मौजूद अपशिष्ट खतरनाक नहीं है। इतना ही नहीं कारखाने परिसर में लगे वृक्ष और घास-फूस भी अपशिष्ट के खतरनाक नहीं होने की पुष्टि करते हैं। गैस राहत मंत्री का कहना है कि अब आम लोग उस यूनियन कार्बाइड कारखाने को करीब से देख सकेंगे, जिससे हुए गैस रिसाव से हज़ारों लोग मारे गए थे। यह कारखाना कैसा है ? हादसे के वक्त कहां से गैस रिसी थी ? मौत का वह कुआं कौन सा है,जिसमें से कई शव निकाले गए थे । इसे आम लोगों ने अब तक देखा नहीं है।
जानकार राज्य सरकार के फ़ैसले और बदले पैंतरे पर हैरानी जता रहे हैं । गैस पीड़ितों के हक की लड़ाई लड़ रहे,भोपाल गैस पीडित महिला उद्योग संगठन के संयोजक अब्दुल जब्बार इसे मूल मुद्दों से ध्यान हटाने की कवायद बताते हैं । उनका कहना है कि इंसाफ़ की आस लगाये गैस पीड़ित एक-एक कर दुनिया से कूच करते जा रहे हैं । इनके इलाज के कोई कारगर इंतज़ाम नहीं हैं । उखड़ती साँसों, छलनी हो चुके सीनों और कमज़ोर हो चुके जिस्मों के सहारे मौत से बदतर ज़िदगी गुज़ार रहे पीड़ितों के रोज़गार और पुनर्वास की ओर अब तक किसी का ध्यान ही नहीं गया है । वे कहते हैं कि हादसे के शिकार ज़्यादातर लोग ग़रीब तबके के हैं । लिहाज़ा उनकी किसी भी स्तर पर कोई सुनवाई नहीं हो रही है ।
कारखाना खोलने का कदम राज्य सरकार की नीयत पर सवाल खड़े करता है । यदि कचरा ज़हरीला नहीं है, तो अपनी ही पार्टी के एक वरिष्ठ नेता के रिश्तेदार की कंपनी को कचरा हटाने का ठेका क्यों दिया गया ? यदि रासायनिक कचरा नुकसानदेह नहीं है ,तो फ़िर धार की अदालत ने पीथमपुर में कचरा खुले में फ़ेंकने और नदी के पानी को प्रदूषित करने के मामले में इस कंपनी को दोषी करार क्यों दिया ? अगर वास्तव में कचरा इलाके के लोगों की सेहत के लिये खतरनाक नहीं है, तो एक महीने पहले गौर साहब ने जयराम रमेश के इसी तरह के बयान का विरोध क्यों किया ? और इसे हटाने के लिये अभी एक करोड़ रुपए और खर्च करने की आखिर क्या ज़रुरत है ?
सरकार भोपाल गैस पीडितों के साथ भद्दा मजाक करती दिख रही है। पीडितों को मुआवजे और पुनर्वास कार्यक्रम के तहत राहत देना हो, सम्बन्धित कंपनी और दोषी अघिकारियों पर कार्रवाई हो या फिर यूनियन कार्बाइड को डंप करने की बात हो, सभी में सरकार ने अब तक के क्रियान्वयन में केवल आंकड़ों की बाजीगरी ही दिखाई है। जमीनी स्तर पर सच्चाई इसके विपरीत है। पुनर्वास कार्यक्रम के नाम पर ऊंट के मुंह में जीरा वाली कहावत चरितार्थ होती दिख रही है। कुछ मकान बनाकर वितरित किए गए जो आवश्यकता से काफी कम है। स्वच्छ जल आपूर्ति की व्यवस्था नहीं हो सकी है। सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार से इस कार्यक्रम को नुकसान ही हुआ है। गैस कांड के पीड़ित विभिन्न गंभीर बीमारियों से जूझ रहे हैं। कोई कैंसर से तो कोई अपंगता से। इनके इलाज के लिए जो चिकित्सकीय सुविधाएं और चिकित्सक उपलब्ध कराए गए हैं वे भी नाकाफी हैं। पर्याप्त उपकरण तक नहीं हैं, जिससे मरीजों का ठीक से चेकअप हो सके। अस्पतालों में अव्यवस्थाएं हैं। विधवा पेंशन मे भी गड़बडियां हैं।
हादसे के प्रति सरकारों की गंभीरता का अंदाज़ा लगाने के लिये ये जान लेना ही काफ़ी होगा कि सड़क और रेल हादसों , प्राकृतिक आपदाओं में मरने वालों और ज़ख्मी होने वालों को लाखों रुपए का मुआवज़ा दिया जाता है लेकिन गैस हादसे के पीड़ितों के लिये ना तो केन्द्र और ना ही राज्य सरकार ने आज तक एक धेला खर्च किया है । बल्कि हो यह रहा है कि यूनियन कार्बाइड से समझौते के तहत मिले पैसे से सरकारें अपने खर्च निकालती रही हैं ।
इतनी बड़ी त्रासदी पर सरकार का जो रूख है वह सरकारी असंवेदनशीलता और उदासीनता को दर्शाता है। ऎसा शर्मनाक उदाहरण शायद ही कहीं और देखने को मिले। मंत्री की घोषणा के अनुसार पीड़ितों के लिए स्मारक बनाया जा रहा है, जिस पर 110 करोड़ रूपए की राशि खर्च की जा रही है। यह राशि जरूरत से कहीं ज्यादा है। इसके बजाय पीड़ितों को राहत के लिए जो योजनाएं बनी हैं उनका क्रियान्वयन हो, इसके लिए पर्याप्त बजट दिया जाए। बेगैरत हो चुके राजनेताओं के बयान गैस पीड़ितों के ज़ख्मों पर मरहम की बजाय तेज़ाब छिड़कने का काम करते हैं । पीड़ित कहते हैं कि गैस पीड़ितों का दर्द राजनेताओं को आखिर यह समझ में क्यों नहीं आता कि हमारी लड़ाई एक ऎसी अमेरिकन कंपनी के खिलाफ है , जिसने लाखों लोगों को तबाह कर दिया। उनका यह कहना कि मलबा जहरीला नहीं है, बहुत शर्मनाक है। न्याय देने के बजाय समय-समय पर नेताओं के इस तरह के बयानों से हम गैस पीडितों को ठेस पहुंचती है। सरकार संवेदनशील और सकारात्मक रवैया अपनाते हुए हमारे साथ न्याय करे, न कि हमारा मजाक बनाए।
हैरत की बात है कि पिछले महीने ही केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश के कारखाने में ज़हरीले रसायन मौजूद होने की बात को सिरे से खारिज करने वाले बयान पर गैस राहत मंत्री बाबूलाल गौर ने कड़ी आपत्ति दर्ज़ कराई थी , लेकिन अब गौर का कहना है कि कारखाने को आम लोगों के लिए खोलने के पीछे मकसद यह है कि लोग जान सकें कि कारखाने में खतरनाक रासायनिक कचरा नहीं है। उन्होंने स्पष्ट किया कि विभिन्न वैज्ञानिक संगठन कचरे का परीक्षण कर स्पष्ट कर चुके हैं कि कारखाने में मौजूद अपशिष्ट खतरनाक नहीं है। इतना ही नहीं कारखाने परिसर में लगे वृक्ष और घास-फूस भी अपशिष्ट के खतरनाक नहीं होने की पुष्टि करते हैं। गैस राहत मंत्री का कहना है कि अब आम लोग उस यूनियन कार्बाइड कारखाने को करीब से देख सकेंगे, जिससे हुए गैस रिसाव से हज़ारों लोग मारे गए थे। यह कारखाना कैसा है ? हादसे के वक्त कहां से गैस रिसी थी ? मौत का वह कुआं कौन सा है,जिसमें से कई शव निकाले गए थे । इसे आम लोगों ने अब तक देखा नहीं है।
जानकार राज्य सरकार के फ़ैसले और बदले पैंतरे पर हैरानी जता रहे हैं । गैस पीड़ितों के हक की लड़ाई लड़ रहे,भोपाल गैस पीडित महिला उद्योग संगठन के संयोजक अब्दुल जब्बार इसे मूल मुद्दों से ध्यान हटाने की कवायद बताते हैं । उनका कहना है कि इंसाफ़ की आस लगाये गैस पीड़ित एक-एक कर दुनिया से कूच करते जा रहे हैं । इनके इलाज के कोई कारगर इंतज़ाम नहीं हैं । उखड़ती साँसों, छलनी हो चुके सीनों और कमज़ोर हो चुके जिस्मों के सहारे मौत से बदतर ज़िदगी गुज़ार रहे पीड़ितों के रोज़गार और पुनर्वास की ओर अब तक किसी का ध्यान ही नहीं गया है । वे कहते हैं कि हादसे के शिकार ज़्यादातर लोग ग़रीब तबके के हैं । लिहाज़ा उनकी किसी भी स्तर पर कोई सुनवाई नहीं हो रही है ।
कारखाना खोलने का कदम राज्य सरकार की नीयत पर सवाल खड़े करता है । यदि कचरा ज़हरीला नहीं है, तो अपनी ही पार्टी के एक वरिष्ठ नेता के रिश्तेदार की कंपनी को कचरा हटाने का ठेका क्यों दिया गया ? यदि रासायनिक कचरा नुकसानदेह नहीं है ,तो फ़िर धार की अदालत ने पीथमपुर में कचरा खुले में फ़ेंकने और नदी के पानी को प्रदूषित करने के मामले में इस कंपनी को दोषी करार क्यों दिया ? अगर वास्तव में कचरा इलाके के लोगों की सेहत के लिये खतरनाक नहीं है, तो एक महीने पहले गौर साहब ने जयराम रमेश के इसी तरह के बयान का विरोध क्यों किया ? और इसे हटाने के लिये अभी एक करोड़ रुपए और खर्च करने की आखिर क्या ज़रुरत है ?
सरकार भोपाल गैस पीडितों के साथ भद्दा मजाक करती दिख रही है। पीडितों को मुआवजे और पुनर्वास कार्यक्रम के तहत राहत देना हो, सम्बन्धित कंपनी और दोषी अघिकारियों पर कार्रवाई हो या फिर यूनियन कार्बाइड को डंप करने की बात हो, सभी में सरकार ने अब तक के क्रियान्वयन में केवल आंकड़ों की बाजीगरी ही दिखाई है। जमीनी स्तर पर सच्चाई इसके विपरीत है। पुनर्वास कार्यक्रम के नाम पर ऊंट के मुंह में जीरा वाली कहावत चरितार्थ होती दिख रही है। कुछ मकान बनाकर वितरित किए गए जो आवश्यकता से काफी कम है। स्वच्छ जल आपूर्ति की व्यवस्था नहीं हो सकी है। सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार से इस कार्यक्रम को नुकसान ही हुआ है। गैस कांड के पीड़ित विभिन्न गंभीर बीमारियों से जूझ रहे हैं। कोई कैंसर से तो कोई अपंगता से। इनके इलाज के लिए जो चिकित्सकीय सुविधाएं और चिकित्सक उपलब्ध कराए गए हैं वे भी नाकाफी हैं। पर्याप्त उपकरण तक नहीं हैं, जिससे मरीजों का ठीक से चेकअप हो सके। अस्पतालों में अव्यवस्थाएं हैं। विधवा पेंशन मे भी गड़बडियां हैं।
हादसे के प्रति सरकारों की गंभीरता का अंदाज़ा लगाने के लिये ये जान लेना ही काफ़ी होगा कि सड़क और रेल हादसों , प्राकृतिक आपदाओं में मरने वालों और ज़ख्मी होने वालों को लाखों रुपए का मुआवज़ा दिया जाता है लेकिन गैस हादसे के पीड़ितों के लिये ना तो केन्द्र और ना ही राज्य सरकार ने आज तक एक धेला खर्च किया है । बल्कि हो यह रहा है कि यूनियन कार्बाइड से समझौते के तहत मिले पैसे से सरकारें अपने खर्च निकालती रही हैं ।
इतनी बड़ी त्रासदी पर सरकार का जो रूख है वह सरकारी असंवेदनशीलता और उदासीनता को दर्शाता है। ऎसा शर्मनाक उदाहरण शायद ही कहीं और देखने को मिले। मंत्री की घोषणा के अनुसार पीड़ितों के लिए स्मारक बनाया जा रहा है, जिस पर 110 करोड़ रूपए की राशि खर्च की जा रही है। यह राशि जरूरत से कहीं ज्यादा है। इसके बजाय पीड़ितों को राहत के लिए जो योजनाएं बनी हैं उनका क्रियान्वयन हो, इसके लिए पर्याप्त बजट दिया जाए। बेगैरत हो चुके राजनेताओं के बयान गैस पीड़ितों के ज़ख्मों पर मरहम की बजाय तेज़ाब छिड़कने का काम करते हैं । पीड़ित कहते हैं कि गैस पीड़ितों का दर्द राजनेताओं को आखिर यह समझ में क्यों नहीं आता कि हमारी लड़ाई एक ऎसी अमेरिकन कंपनी के खिलाफ है , जिसने लाखों लोगों को तबाह कर दिया। उनका यह कहना कि मलबा जहरीला नहीं है, बहुत शर्मनाक है। न्याय देने के बजाय समय-समय पर नेताओं के इस तरह के बयानों से हम गैस पीडितों को ठेस पहुंचती है। सरकार संवेदनशील और सकारात्मक रवैया अपनाते हुए हमारे साथ न्याय करे, न कि हमारा मजाक बनाए।
शनिवार, 7 नवंबर 2009
"चीं" बोल चुकी बीजेपी का ई-आंदोलन
चुनावों में "चीं" बोलने वाला दल ई-आंदोलन की तैयारी में जुट गया है । इंटरनेट की बदौलत संसद में बहुमत पा जाने का सपना चकनाचूर होने के बाद भी लगता है बीजेपी की अकल पर पड़े ताले की चाबी कहीं खो गई है । संसदीय चुनाव के बाद हुए तीन राज्यों में भी मुँह की खाने के बावजूद पार्टी के होश ठिकाने पर नहीं आ सके हैं । तभी तो केंद्रीय सरकार की नीतियों के खिलाफ भाजपा की आईटी सेल ई-आंदोलन की तैयारी कर रही है। आई-टी सेल के प्रदेश महामंत्री सचिन खरे ने बताया कि 9 नवंबर से मध्यप्रदेश के सभी जिलों में सेल के सदस्य आंदोलन में भाग लेंगे। आंदोलन के दौरान केंद्र सरकार की सभी ई-मेल, वेबसाइट, इंटरनेट, सोशल साइट, फेस बुक, ऑरकुट, ट्विटर और ब्लॉग पर जनजागरूकता अभियान चलाया जाएगा। उन्होंने बताया कि इसके बाद भी यदि नीतियों को लेकर केंद्र सरकार नहीं जागी तो नेताओं के मोबाइल पर असीमित एसएमएस भेजे जाएंगे। आंदोलन में करीब दस हजार सदस्य भाग लेंगे।
इधर अपनी ही पीठ थपथपाने में माहिर प्रदेश के भाजपा नेता ना जाने किस खुशफ़हमी में जी रहे हैं । प्रदेश में ना बिजली है और ना ही पानी । गड्ढ़ों में सड़कों के अवशेष तलाश करना भूसे के ढ़ेर में सुई ढ़ूँढ़्ने से भी ज़्यादा दुरुह काम हो चुका है । सूबे के मुखिया का घोषणाएँ करने का विश्व रिकॉर्ड बनाकर नाम गिनीज़ बुक में दर्ज़ कराने पर आमादा हैं और फ़िर भी प्रदेश में अमन - चैन है । शिवराज भरी सभा में मान चुके हैं कि पूरे सूबे पर तरह-तरह के माफ़ियाओं ने कब्ज़ा कर लिया है । मगर फ़िर भी बीजेपी के नेता मानते हैं कि प्रदेश में रामराज्य की कल्पना को शिवराज ने पूरी तरह साकार कर दिखाया है ।
वन विभाग के नये मंत्री सरताजसिंह ने आते ही महकमे में चल रही पोलपट्टियाँ खोलकर रख दी हैं । गृहमंत्री खुद मान चुके हैं कि प्रदेश में कानून-व्यवस्था बुरी तरह चरमरा रही है । मगर छह साल से शासन कर रहे दल के इन मंत्री महोदय की महानता तो देखिये वे इसका पूरा श्रेय अब भी काँग्रेस को देना नहीं भूलते । हाल ही में भाजपा प्रदेश कार्यसमिति की दो-दिवसीय बैठक बालाघाट में हुई। इसमें सभी नेताओं ने घोषणावीर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की शान में कसीदे पढ़े । वृंदावली गाने वालों ने प्रदेश में दूसरी बार सरकार बननेका श्रेय एक सुर से चौहान को ही दे डाला । आखिर अभी दो मंत्री पद खाली हैं और निगम-मंडलों में अध्यक्षों की नियुक्तियाँ भी होना हैं ।
प्रवचन की शैली में जनता को अपने कर्तव्यों का पाठ पढ़ाने वाले शिवराज मलाई अपने ईष्ट मित्रों के साथ सूँतना चाहते हैं और काम का बोझ जनता के कँधे पर डाल देना चाहते हैं । अफ़सर भी इस चालाकी को अच्छी तरह भाँप चुके हैं, तभी तो वे पीपीपी(पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) के नाम पर ऎसी स्कीम बना कर लाते हैं जो नेता का भला तो करें ही, वे भी बहती गंगा में ना सिर्फ़ हाथ धो सकें , बल्कि अच्छी तरह मल-मल कर नहा-धो सकें ।
प्रदेश में मंत्रिमंडल का विस्तार बताता है कि केन्द्रीय नेतृत्व ने शिवराज को समझा दिया है कि बात की कीमत जाये चूल्हे में, दागी का मसला गया तेल लेने, खिसकते जनाधार को देखते हुए माल अँटी में करो और बढ़ लो , लिहाज़ा हम सब एक हैं की शैली ने सभी विरोधों को भुला कर हर गुट को बराबर मौका दिया है । इसीलिये भूमाफ़ियाओं को जेल की सलाखों के पीछे भेजने का एलान करने वाले मुख्यमंत्री ने झुग्गियों और मंदिरों के ज़रिये बेशकीमती ज़मीने कबाडने वालों को ऎलानिया संरक्षण दे रहे नेता को गृह मंत्री का ताज पहना दिया । सरकारी ज़मीनॊम की उद्योगपतियों और नेताओं की मिली भगत से लूट खसोट जारी है , मगर जनता चुप है । मेहमूद गज़नवी को पानी पी-पी कर कोसने वाले लोगों ज़रा इन गज़नवियों की फ़ौज पर भी नज़रे इनायत करें और बतायें कि साधु के भेष में दाखिल हुए इन लुटेरों से कैसे निजात पायें ?
इधर अपनी ही पीठ थपथपाने में माहिर प्रदेश के भाजपा नेता ना जाने किस खुशफ़हमी में जी रहे हैं । प्रदेश में ना बिजली है और ना ही पानी । गड्ढ़ों में सड़कों के अवशेष तलाश करना भूसे के ढ़ेर में सुई ढ़ूँढ़्ने से भी ज़्यादा दुरुह काम हो चुका है । सूबे के मुखिया का घोषणाएँ करने का विश्व रिकॉर्ड बनाकर नाम गिनीज़ बुक में दर्ज़ कराने पर आमादा हैं और फ़िर भी प्रदेश में अमन - चैन है । शिवराज भरी सभा में मान चुके हैं कि पूरे सूबे पर तरह-तरह के माफ़ियाओं ने कब्ज़ा कर लिया है । मगर फ़िर भी बीजेपी के नेता मानते हैं कि प्रदेश में रामराज्य की कल्पना को शिवराज ने पूरी तरह साकार कर दिखाया है ।
वन विभाग के नये मंत्री सरताजसिंह ने आते ही महकमे में चल रही पोलपट्टियाँ खोलकर रख दी हैं । गृहमंत्री खुद मान चुके हैं कि प्रदेश में कानून-व्यवस्था बुरी तरह चरमरा रही है । मगर छह साल से शासन कर रहे दल के इन मंत्री महोदय की महानता तो देखिये वे इसका पूरा श्रेय अब भी काँग्रेस को देना नहीं भूलते । हाल ही में भाजपा प्रदेश कार्यसमिति की दो-दिवसीय बैठक बालाघाट में हुई। इसमें सभी नेताओं ने घोषणावीर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की शान में कसीदे पढ़े । वृंदावली गाने वालों ने प्रदेश में दूसरी बार सरकार बननेका श्रेय एक सुर से चौहान को ही दे डाला । आखिर अभी दो मंत्री पद खाली हैं और निगम-मंडलों में अध्यक्षों की नियुक्तियाँ भी होना हैं ।
प्रवचन की शैली में जनता को अपने कर्तव्यों का पाठ पढ़ाने वाले शिवराज मलाई अपने ईष्ट मित्रों के साथ सूँतना चाहते हैं और काम का बोझ जनता के कँधे पर डाल देना चाहते हैं । अफ़सर भी इस चालाकी को अच्छी तरह भाँप चुके हैं, तभी तो वे पीपीपी(पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) के नाम पर ऎसी स्कीम बना कर लाते हैं जो नेता का भला तो करें ही, वे भी बहती गंगा में ना सिर्फ़ हाथ धो सकें , बल्कि अच्छी तरह मल-मल कर नहा-धो सकें ।
प्रदेश में मंत्रिमंडल का विस्तार बताता है कि केन्द्रीय नेतृत्व ने शिवराज को समझा दिया है कि बात की कीमत जाये चूल्हे में, दागी का मसला गया तेल लेने, खिसकते जनाधार को देखते हुए माल अँटी में करो और बढ़ लो , लिहाज़ा हम सब एक हैं की शैली ने सभी विरोधों को भुला कर हर गुट को बराबर मौका दिया है । इसीलिये भूमाफ़ियाओं को जेल की सलाखों के पीछे भेजने का एलान करने वाले मुख्यमंत्री ने झुग्गियों और मंदिरों के ज़रिये बेशकीमती ज़मीने कबाडने वालों को ऎलानिया संरक्षण दे रहे नेता को गृह मंत्री का ताज पहना दिया । सरकारी ज़मीनॊम की उद्योगपतियों और नेताओं की मिली भगत से लूट खसोट जारी है , मगर जनता चुप है । मेहमूद गज़नवी को पानी पी-पी कर कोसने वाले लोगों ज़रा इन गज़नवियों की फ़ौज पर भी नज़रे इनायत करें और बतायें कि साधु के भेष में दाखिल हुए इन लुटेरों से कैसे निजात पायें ?
लेबल:
बीजेपी,
भूमाफ़ियाओं,
शिवराज,
संसदीय चुनाव
गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009
बेमानी हैं पीटी ऊषा के आँसू
भोपाल में उड़नपरी के चार आँसू क्या ढ़लके,मीडिया ने पूरा जहान सिर पर उठा लिया । पीटी ऊषा को भोपाल आने का न्यौता आखिर किसने दिया था ? किसने भेजे थे पीले चावल ? क्यों कि राज्य सरकार का तो साफ़ कहना है कि उन्हें ऊषा के आने की कोई जानकारी ही नहीं थी । राज्य सरकार का दावा है कि अगर पीटी ऊषा उन्हें इत्तला देती,तो राज्य अतिथि का दर्ज़ा पाने की हकदार हो सकती थीं । उधर साई भी अपना दामन बचा रहा है । केन्द्रीय खेल मंत्री गिल साहब भी साई के अधिकारियों को क्लीन चिट दे चुके हैं । कुल मिलाकर समझने वाली बात सिर्फ़ इतनी ही है कि दोष ना सरकार का है और ना ही अधिकारियों का । गल्ती है तो केवल ऊषा की,जो बिना कुछ सोचे-समझे मुँह उठाए चली आईं । आने से पहले कम से कम राजनीतिक हालात की बारीकी से पड़ताल तो कर ली होती ।
केन्द्र में काँग्रेस और प्रदेश में बीजेपी,ऎसे में ये फ़जीहत होना तय ही था । यूँ भी कौन से तीर मार दिये हैं इस फ़र्राटा गर्ल ने । खुद से पूछ कर तो देखें । भोपाल में आवभगत कराने के लिये जितने भी गुणों की ज़रुरत है क्या उनमें से एक भी ऊषा के पास है । क्या वे प्रदेश सरकार को अपनी मुट्ठी में रखने वाले प्रकाश झा की किसी फ़िल्म की हिरोइन हैं । मैदान में पसीना बहा-बहा कर क्या सूरत बना ली है । वे कोई कैटारीना,करीना या ऎश्वर्या तो हैं नहीं कि नेता और अफ़सर स्वागत में पलक पावड़े बिछा देंगे । फ़िर उनका रौब-रुतबा अबू सलेम सरीखा भी नहीं । अबू सलेम ने फ़र्ज़ी पासपोर्ट बनवाकर जो झंडे गाड़े , उसी का नतीजा है कि चार एक की सुरक्षा टुकड़ी के साथ आए दिन भोपाल पधारते हैं । रेलवे स्टॆशन पर अगवानी के लिये पुलिस का पुख्ता इंतज़ाम होता है । सेवा में गाड़ियों का काफ़िला हाज़िर रहता है । कई पुलिसिये तो अबु साहब को गुलदस्ते भी भॆंट कर देते हैं,निगाहों में बने रहने के लिये । क्या पता कल अबु साहब संसद के गलियारों की शॊभा बढ़ाने लगें । ऎसे में आज के संबंध ही तो काम आयेंगे ।
ऊषा को बुरा मानने का कोई हक नहीं जाता,क्योंकि पदकों के नाम पर चंद धातु के टुकड़े जमा करके उन्होंने देश पर कोई एहसान नहीं किया है । आसाराम जैसे गुण भी तो नहीं हैं उनके पास । जो भक्तों को सब कुछ त्याग देने की सलाह देकर अपना खज़ाना भर ले । वो बाबा रामदेव भी नहीं । योग से रोग भगाने का नुस्खा देते देते खुद ही भोगी बन बैठे और अब स्कॉटलैंड में एक टापू की मिल्कियत के मालिक बन गये हैं । लोगों के मन से शनि महाराज का खौफ़ दूर भगाने के एवज़ में अकूत दौलत हासिल करने वाले दाती मदन महाराज राजस्थानी से भी तो पीटी ऊषा ने कोई सबक नहीं लिया ।
ईमानदारी से देश सेवा का जुनून पालने वालों का इस देश में यही हश्र होना है । इसलिये किसी को भी उनके अपमान का दोषी करार देना कतई ठीक नहीं है । अगर मान-सम्मान,खातिर-तवज्जो चाहिये तो वैसे गुण भी पैदा करो । देश को लूटो-खसोटो सरकारी खज़ाने को बपौती समझो । फ़िर देखो दुनिया कैसे कदमों में बिछती है ।
कलयुग में सज्जनों की नहीं दुर्जनों-दुष्टों की पूछ परख है । सच भी है भय बिन होत ना प्रीति । लिहाज़ा पीटी ऊषा और उनके जैसे लोगों को इस कड़वी सच्चाई को मान ही लेना चाहिये कि उन्होंने ऎसा कोई काम देश के लिये नहीं किया है जिस पर नाज़ किया जा सके । सरकार और समाज की नज़रों में ऊँचा उठने के लिये खुद को गर्त में ढ़केलना वक्त की माँग है,जो ऎसा करने का जज़्बा और हिम्मत दिखायेगा देश का हर तबका उसको ही शीश नवायेगा । इस सबके बावजूद एक सच ये भी है कि स्वाभिमान की रक्षा करने वालों का कभी अपमान हो ही नहीं सकता ।
केन्द्र में काँग्रेस और प्रदेश में बीजेपी,ऎसे में ये फ़जीहत होना तय ही था । यूँ भी कौन से तीर मार दिये हैं इस फ़र्राटा गर्ल ने । खुद से पूछ कर तो देखें । भोपाल में आवभगत कराने के लिये जितने भी गुणों की ज़रुरत है क्या उनमें से एक भी ऊषा के पास है । क्या वे प्रदेश सरकार को अपनी मुट्ठी में रखने वाले प्रकाश झा की किसी फ़िल्म की हिरोइन हैं । मैदान में पसीना बहा-बहा कर क्या सूरत बना ली है । वे कोई कैटारीना,करीना या ऎश्वर्या तो हैं नहीं कि नेता और अफ़सर स्वागत में पलक पावड़े बिछा देंगे । फ़िर उनका रौब-रुतबा अबू सलेम सरीखा भी नहीं । अबू सलेम ने फ़र्ज़ी पासपोर्ट बनवाकर जो झंडे गाड़े , उसी का नतीजा है कि चार एक की सुरक्षा टुकड़ी के साथ आए दिन भोपाल पधारते हैं । रेलवे स्टॆशन पर अगवानी के लिये पुलिस का पुख्ता इंतज़ाम होता है । सेवा में गाड़ियों का काफ़िला हाज़िर रहता है । कई पुलिसिये तो अबु साहब को गुलदस्ते भी भॆंट कर देते हैं,निगाहों में बने रहने के लिये । क्या पता कल अबु साहब संसद के गलियारों की शॊभा बढ़ाने लगें । ऎसे में आज के संबंध ही तो काम आयेंगे ।
ऊषा को बुरा मानने का कोई हक नहीं जाता,क्योंकि पदकों के नाम पर चंद धातु के टुकड़े जमा करके उन्होंने देश पर कोई एहसान नहीं किया है । आसाराम जैसे गुण भी तो नहीं हैं उनके पास । जो भक्तों को सब कुछ त्याग देने की सलाह देकर अपना खज़ाना भर ले । वो बाबा रामदेव भी नहीं । योग से रोग भगाने का नुस्खा देते देते खुद ही भोगी बन बैठे और अब स्कॉटलैंड में एक टापू की मिल्कियत के मालिक बन गये हैं । लोगों के मन से शनि महाराज का खौफ़ दूर भगाने के एवज़ में अकूत दौलत हासिल करने वाले दाती मदन महाराज राजस्थानी से भी तो पीटी ऊषा ने कोई सबक नहीं लिया ।
ईमानदारी से देश सेवा का जुनून पालने वालों का इस देश में यही हश्र होना है । इसलिये किसी को भी उनके अपमान का दोषी करार देना कतई ठीक नहीं है । अगर मान-सम्मान,खातिर-तवज्जो चाहिये तो वैसे गुण भी पैदा करो । देश को लूटो-खसोटो सरकारी खज़ाने को बपौती समझो । फ़िर देखो दुनिया कैसे कदमों में बिछती है ।
कलयुग में सज्जनों की नहीं दुर्जनों-दुष्टों की पूछ परख है । सच भी है भय बिन होत ना प्रीति । लिहाज़ा पीटी ऊषा और उनके जैसे लोगों को इस कड़वी सच्चाई को मान ही लेना चाहिये कि उन्होंने ऎसा कोई काम देश के लिये नहीं किया है जिस पर नाज़ किया जा सके । सरकार और समाज की नज़रों में ऊँचा उठने के लिये खुद को गर्त में ढ़केलना वक्त की माँग है,जो ऎसा करने का जज़्बा और हिम्मत दिखायेगा देश का हर तबका उसको ही शीश नवायेगा । इस सबके बावजूद एक सच ये भी है कि स्वाभिमान की रक्षा करने वालों का कभी अपमान हो ही नहीं सकता ।
लेबल:
उड़नपरी,
केन्द्रीय खेल मंत्री,
पीटी ऊषा,
भोपाल
रविवार, 20 सितंबर 2009
जैसे कलावती के दिन फ़िरे...............
विदर्भ की कलावती के दिन जल्दी ही फ़िरने वाले हैं । इस बात का एहसास तो उसी दिन हो गया था , जब सत्यनारायण के कलयुगी अवतार यानी राहुल बाबा ने गरीब महिला के द्वार पर दस्तक दी थी । सुना है भगवान कोई भी रुप धर कर आ सकते हैं । कथा पुराण और पुजारियों से सुना है कि भक्तवत्सल नारायण हरि रुखी-सूखी खाकर धन-धान्य के भंडार भरने का आशीर्वाद दे जाते हैं । हमने लीलावती-कलावती की सत्यनारायण व्रत कथा भी हज़ारों मर्तबा सुनी है । कथा में भी सत्यनारायण की महिमा बखानने के लिये लीलावती-कलावती की दुर्दशा के वृतांत का सहारा लिया गया है ।
दैवीय दंड से दुखी भक्त आर्तभाव से भगवान को पुकारता है । धूमधाम से उद्यापन का आश्वासन पाते ही दोनों हाथों से वरदान लुटाकर सत्यनारायणदेव अंतर्ध्यान हो जाते हैं । सांसारिक चक्करों में उलझे भक्त भगवान को भुला बैठते हैं और नाव में भरा अनमोल खज़ाना लता-पत्र में तब्दील हो जाता है । एक बार फ़िर भक्त की पुकार पर दयानिधान प्रकट होते हैं और भक्त को उसकी गलती का एहसास कराने के लिये उठाये गये कड़े कदम वापस ले लेते हैं । इस तरह भगवान की महिमा बनी रहती है और भक्त भी कभी ना खत्म होने वाली इच्छाओं का पिटारा खोले ही रहता है । यानी "इस हाथ ले उस हाथ दे" का सिलसिला अनवरत चलता रहता है ।
विदर्भ की कलावती के घर राहुल का पदार्पण शबरी के घर करुणानिधान भगवान के आगमन से कम नहीं । तभी तो कल तक गुमनामी की ज़िन्दगी जी रही कलावती का ज़िक्र संसद में गूँजा । कलावती और उस जैसे करोड़ों लोगों को बेहतर ज़िन्दगी का भरोसा दिलाकर राहुल ने राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मीडिया की खूब वाहवाही बटोरी ।
जनतंत्र में राजतंत्र तलाशने के आदी लोगों के कलेजे को भी ठंडक मिल गई कि सोनिया के बाद काँग्रेस लावारिस नहीं रहेगी । राजकुमार ने गद्दी सम्हालने के गुर सीखना शुरु कर दिया है। गरीबी,भुखमरी और बेरोज़गारी की लाइलाज बीमारी ने देश की राजनीति में काँग्रेस को एक बार फ़िर जीवनदान दे दिया । सत्ता में कद बढ़ने के साथ ही अब लोग राहुल में भावी प्रधानमंत्री तलाशने लगे हैं ।
लगता है सतयुग की सत्यनारायण कथा ने मौजूदा दौर में नया ट्विस्ट ले लिया है । अब विदर्भ की कलावती श्रीहरि के किरदार में है और काँग्रेस लीलावती-कलावती , जो दरिद्रनारायण को प्रसन्न करने के लिये हर चुनाव से पहले बड़े-बड़े वादे करती है । जीत मिलने के बाद अपने वादों को भूल जाती है , बिल्कुल सत्यनारायण व्रतकथा की ही तरह । इस रोज़-रोज़ की खींचतान से आज़िज़ आकर लगता है अब की बार नारायण ने खुद ही मोर्चा सम्हालने की ठानी है ।
कलावती किसानों के लिये काम करने वाले संगठन विदर्भ जनआंदोलन समिति के टिकट पर यवतमाल के वणी से विधान सभा चुनाव लड़ेगी । वैसे भारतीय राजनीति का अब तक इतिहास गवाह है कि जिसने भी संसद,विधानसभा,नगर निगम चुनाव तो क्या ग्राम पंचायत का चुनाव भी जीता है उसका लखपति-करोड़पति होना तय है, फ़िर चाहे वो किसी भी तबके से क्यों ना आता हो । इस तरह राहुल बाबा के चरणरज ने कलावती के दिन फ़ेर ही दिये। हम तो यही कहेंगे कि जैसे भगवान कलावती पर प्रसन्न हुए ऎसे हर पाँच साल में हर गरीब पर अपनी कृपादृष्टि बरसायें,ताकि आने वाले सालों में देश की गरीबी समूल मिट जाए ।
दैवीय दंड से दुखी भक्त आर्तभाव से भगवान को पुकारता है । धूमधाम से उद्यापन का आश्वासन पाते ही दोनों हाथों से वरदान लुटाकर सत्यनारायणदेव अंतर्ध्यान हो जाते हैं । सांसारिक चक्करों में उलझे भक्त भगवान को भुला बैठते हैं और नाव में भरा अनमोल खज़ाना लता-पत्र में तब्दील हो जाता है । एक बार फ़िर भक्त की पुकार पर दयानिधान प्रकट होते हैं और भक्त को उसकी गलती का एहसास कराने के लिये उठाये गये कड़े कदम वापस ले लेते हैं । इस तरह भगवान की महिमा बनी रहती है और भक्त भी कभी ना खत्म होने वाली इच्छाओं का पिटारा खोले ही रहता है । यानी "इस हाथ ले उस हाथ दे" का सिलसिला अनवरत चलता रहता है ।
विदर्भ की कलावती के घर राहुल का पदार्पण शबरी के घर करुणानिधान भगवान के आगमन से कम नहीं । तभी तो कल तक गुमनामी की ज़िन्दगी जी रही कलावती का ज़िक्र संसद में गूँजा । कलावती और उस जैसे करोड़ों लोगों को बेहतर ज़िन्दगी का भरोसा दिलाकर राहुल ने राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मीडिया की खूब वाहवाही बटोरी ।
जनतंत्र में राजतंत्र तलाशने के आदी लोगों के कलेजे को भी ठंडक मिल गई कि सोनिया के बाद काँग्रेस लावारिस नहीं रहेगी । राजकुमार ने गद्दी सम्हालने के गुर सीखना शुरु कर दिया है। गरीबी,भुखमरी और बेरोज़गारी की लाइलाज बीमारी ने देश की राजनीति में काँग्रेस को एक बार फ़िर जीवनदान दे दिया । सत्ता में कद बढ़ने के साथ ही अब लोग राहुल में भावी प्रधानमंत्री तलाशने लगे हैं ।
लगता है सतयुग की सत्यनारायण कथा ने मौजूदा दौर में नया ट्विस्ट ले लिया है । अब विदर्भ की कलावती श्रीहरि के किरदार में है और काँग्रेस लीलावती-कलावती , जो दरिद्रनारायण को प्रसन्न करने के लिये हर चुनाव से पहले बड़े-बड़े वादे करती है । जीत मिलने के बाद अपने वादों को भूल जाती है , बिल्कुल सत्यनारायण व्रतकथा की ही तरह । इस रोज़-रोज़ की खींचतान से आज़िज़ आकर लगता है अब की बार नारायण ने खुद ही मोर्चा सम्हालने की ठानी है ।
कलावती किसानों के लिये काम करने वाले संगठन विदर्भ जनआंदोलन समिति के टिकट पर यवतमाल के वणी से विधान सभा चुनाव लड़ेगी । वैसे भारतीय राजनीति का अब तक इतिहास गवाह है कि जिसने भी संसद,विधानसभा,नगर निगम चुनाव तो क्या ग्राम पंचायत का चुनाव भी जीता है उसका लखपति-करोड़पति होना तय है, फ़िर चाहे वो किसी भी तबके से क्यों ना आता हो । इस तरह राहुल बाबा के चरणरज ने कलावती के दिन फ़ेर ही दिये। हम तो यही कहेंगे कि जैसे भगवान कलावती पर प्रसन्न हुए ऎसे हर पाँच साल में हर गरीब पर अपनी कृपादृष्टि बरसायें,ताकि आने वाले सालों में देश की गरीबी समूल मिट जाए ।
लेबल:
कलावती,
राहुल,
विधानसभा चुनाव,
संसद,
सत्यनारायण कथा
शनिवार, 19 सितंबर 2009
पितरों के "मोक्ष" में निवालों की तलाश
सर्वपितृ मोक्ष अमावस्या के साथ ही पितरों को याद करने के पर्व का समापन हो गया । धार्मिक ग्रंथों में पितृ पक्ष को लेकर कई आख्यान हैं,जिनमें कहा गया है कि इन सोलह दिनों में पितरों का द्वार खुला रहता है या यूं कहें कि पितर बंधनों से मुक्त होकर पृथ्वी लोक में स्वजनों के पास आते हैं । पूर्णिमा से अमावस्या तक पितर स्वजनों के आसपास सूक्ष्म रूप से विद्यमान रहते हैं । शास्त्रों में पितृ तर्पण की तमाम विधियाँ भी बताई गई हैं । भौतिकवादी समाज में बाज़ारवाद का बोलबाला है । घर - परिवार में बिखराव का दौर जारी है । बूढ़े माँ बाप अपने ही बच्चों की दरिंदगी का शिकार हो रहे हैं । हैरानी की बात है कि जिस देश में मृत आत्माओं को तृप्त करने की परंपरा हो,वहाँ बुज़ुर्गों के सिर पर छत कायम रखने के लिये सरकार को कानून बनाना पड़ा । अब तो वृद्ध आश्रम खोलने के लिये सरकारी कोशिशों के साथ ही निजी क्षेत्र भी दिलचस्पी ले रहा है ।
बाज़ार और मीडिया की कोशिश से ज्योतिष और धर्म का कारोबार भी खूब फ़लफ़ूल रहा है । तेज़ रफ़्तार ज़िन्दगी में हर छोटी-बड़ी नाकामी के लिये पितृ दोष का हाथ बताने वाले भविष्यवक्ताओं की बाढ़ आ गई है। यही वजह है कि
नासिक,गया,कुरुक्षेत्र,उज्जैन, इलाहाबाद,हरिद्वार जैसे धार्मिक स्थल पर अपने पूर्वजों को तृप्त करने आने वालों का सैलाब उमड़ने लगा है । बिहार के गया में तो इस बार ऑनलाइन यानी ई-तर्पण की सुविधा उपलब्ध कराई गई । कितनी अजीब बात है कि कई ऎसे बुज़ुर्ग जिन्हें जीते जी भरपेट भोजन भी नसीब नहीं हुआ, मगर उनके श्राद्ध में परिजन पूरी-पकवान बनाये जाते हैं,पंडों-पुजारियों को मनुहार कर खिलाने के बाद भरपूर दान-दक्षिणा भी देते है । उनकी इस कोशिश में अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का भाव नहीं,बल्कि अपने कामों में आ रही रुकावटों से पिंड छुड़ाने की जल्दी रहती है ।
सुनकर कुछ अजीब लग सकता है लेकिन एक खबर ने झकझोर कर रख दिया । गरीबी की मार झेल रहे कई लोग मृत आत्मा की शांति के लिये बनाये जाने वाले पिंडों से अपना पेट भरने को मजबूर हैं । बिहार के गया जिले में कई गरीब परिवार पितरों को अर्पित पिंड से गायों को खाने के लिए दिया जाने वाला भोजन खा कर अपनी और अपने परिवार के पेट की आग बुझा रहे हैं। भगवान विष्णु की तपोस्थली और भगवान बुद्ध की ज्ञानस्थली बिहार के गया जिले में पितृ पक्ष के दौरान मेला लगता है । पंद्रह दिन तक चलने वाले इस मेले में देश-विदेश से आए लाखों लोग अपने पितरों के मोक्ष के लिए पिंडदान, श्राद्ध और तर्पण करते हैं। पिंडदान के बाद पितरों को अर्पित पिंड का कुछ भाग गाय को खिलाया जाता है। यह पिंड जौ अथवा चावल के आटे के बने होते हैं। मोक्षस्थली गयाधाम स्थित विष्णुपद मंदिर के देवघाट पर पिंडदान करने वाले तीर्थयात्री पितरों को अर्पित पिंड गाय नहीं मिलने पर अक्सर फल्गू नदी में प्रवाहित कर देते हैं।
नदी में बहते इन पिंडों को गरीब लोग घर ले जाते हैं। धूप में सुखाने के बाद पीसकर रोटी बनाई जाती है। पिंडदान के बाद पितरों को अर्पित पिंड किसे दिया जाए , इस बारे में शास्त्रों में विधान है । जगत गुरुस्वामी राघवाचार्य के मुताबिक हेमाद्री ऋषि के ग्रंथ चतुरवर्ग चिंतमणि में वर्णित श्राद्धकल्प के एक सूत्र में ‘विप्राजगावा’ का प्रावधान है। इसमें पिंडदान, तर्पण और श्राद्ध के बाद पान के पत्ते पर पिंड रख कर बकरी को तथा पितरों को अर्पित पिंड गाय को देने की बात कही गई है । गाय नहीं मिलने की सूरत में पिंड नदी में प्रवाहित करने का उल्लेख है । पिंडदान,तर्पण और श्राद्ध के दौरान उपयोग में लाई गई अन्य वस्तुओं पर ब्राह्मण का अधिकार होता है।
देवघाट पर पितरों को अर्पित पिंड को इकट्ठा करने वाली बुज़ुर्ग महिला जगियाभूनि का कहना है कि गरीबी और भूख से विवश हो कर गाय के हिस्से के पिंड खाना पडता है। विष्णुपद मंदिर के देवघाट पर पिंड इकट्ठा करने के काम में कई परिवार सुबह से जुट जाते हैं । ये लोग बरसों से यही काम करते आ रहे हैं। उनके पिता और दादा भी पिंड एकत्र कर परिवार का भरण पोषण करते थे। इन लोगों का कहना है कि न तो उसके परिवार का नाम बीपीएल सूची में शामिल है और न ही जिला प्रशासन उन्हें सरकार द्वारा गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों दी जाने वाली सहायता देता है। गया में करीब 25 परिवार ऐसे हैं जो लंबे समय से इन पिंडों को जमा कर उनकी रोटी बनाकर अपने पेट की आग बुझाने को विवश हैं।
बाज़ार और मीडिया की कोशिश से ज्योतिष और धर्म का कारोबार भी खूब फ़लफ़ूल रहा है । तेज़ रफ़्तार ज़िन्दगी में हर छोटी-बड़ी नाकामी के लिये पितृ दोष का हाथ बताने वाले भविष्यवक्ताओं की बाढ़ आ गई है। यही वजह है कि
नासिक,गया,कुरुक्षेत्र,उज्जैन, इलाहाबाद,हरिद्वार जैसे धार्मिक स्थल पर अपने पूर्वजों को तृप्त करने आने वालों का सैलाब उमड़ने लगा है । बिहार के गया में तो इस बार ऑनलाइन यानी ई-तर्पण की सुविधा उपलब्ध कराई गई । कितनी अजीब बात है कि कई ऎसे बुज़ुर्ग जिन्हें जीते जी भरपेट भोजन भी नसीब नहीं हुआ, मगर उनके श्राद्ध में परिजन पूरी-पकवान बनाये जाते हैं,पंडों-पुजारियों को मनुहार कर खिलाने के बाद भरपूर दान-दक्षिणा भी देते है । उनकी इस कोशिश में अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का भाव नहीं,बल्कि अपने कामों में आ रही रुकावटों से पिंड छुड़ाने की जल्दी रहती है ।
सुनकर कुछ अजीब लग सकता है लेकिन एक खबर ने झकझोर कर रख दिया । गरीबी की मार झेल रहे कई लोग मृत आत्मा की शांति के लिये बनाये जाने वाले पिंडों से अपना पेट भरने को मजबूर हैं । बिहार के गया जिले में कई गरीब परिवार पितरों को अर्पित पिंड से गायों को खाने के लिए दिया जाने वाला भोजन खा कर अपनी और अपने परिवार के पेट की आग बुझा रहे हैं। भगवान विष्णु की तपोस्थली और भगवान बुद्ध की ज्ञानस्थली बिहार के गया जिले में पितृ पक्ष के दौरान मेला लगता है । पंद्रह दिन तक चलने वाले इस मेले में देश-विदेश से आए लाखों लोग अपने पितरों के मोक्ष के लिए पिंडदान, श्राद्ध और तर्पण करते हैं। पिंडदान के बाद पितरों को अर्पित पिंड का कुछ भाग गाय को खिलाया जाता है। यह पिंड जौ अथवा चावल के आटे के बने होते हैं। मोक्षस्थली गयाधाम स्थित विष्णुपद मंदिर के देवघाट पर पिंडदान करने वाले तीर्थयात्री पितरों को अर्पित पिंड गाय नहीं मिलने पर अक्सर फल्गू नदी में प्रवाहित कर देते हैं।
नदी में बहते इन पिंडों को गरीब लोग घर ले जाते हैं। धूप में सुखाने के बाद पीसकर रोटी बनाई जाती है। पिंडदान के बाद पितरों को अर्पित पिंड किसे दिया जाए , इस बारे में शास्त्रों में विधान है । जगत गुरुस्वामी राघवाचार्य के मुताबिक हेमाद्री ऋषि के ग्रंथ चतुरवर्ग चिंतमणि में वर्णित श्राद्धकल्प के एक सूत्र में ‘विप्राजगावा’ का प्रावधान है। इसमें पिंडदान, तर्पण और श्राद्ध के बाद पान के पत्ते पर पिंड रख कर बकरी को तथा पितरों को अर्पित पिंड गाय को देने की बात कही गई है । गाय नहीं मिलने की सूरत में पिंड नदी में प्रवाहित करने का उल्लेख है । पिंडदान,तर्पण और श्राद्ध के दौरान उपयोग में लाई गई अन्य वस्तुओं पर ब्राह्मण का अधिकार होता है।
देवघाट पर पितरों को अर्पित पिंड को इकट्ठा करने वाली बुज़ुर्ग महिला जगियाभूनि का कहना है कि गरीबी और भूख से विवश हो कर गाय के हिस्से के पिंड खाना पडता है। विष्णुपद मंदिर के देवघाट पर पिंड इकट्ठा करने के काम में कई परिवार सुबह से जुट जाते हैं । ये लोग बरसों से यही काम करते आ रहे हैं। उनके पिता और दादा भी पिंड एकत्र कर परिवार का भरण पोषण करते थे। इन लोगों का कहना है कि न तो उसके परिवार का नाम बीपीएल सूची में शामिल है और न ही जिला प्रशासन उन्हें सरकार द्वारा गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों दी जाने वाली सहायता देता है। गया में करीब 25 परिवार ऐसे हैं जो लंबे समय से इन पिंडों को जमा कर उनकी रोटी बनाकर अपने पेट की आग बुझाने को विवश हैं।
बुधवार, 16 सितंबर 2009
गरीब को बख्शो
आरुषि-हेमराज मामला एक बार फ़िर सुर्खियों में है । करीब अठारह महीने बाद अचानक चमत्कारिक रुप से आरुषि का मोबाइल बरामद होने से ठंडे पड़ चुके मामले ने एक बार फ़िर तूल पकड़ लिया है । लेकिन मोबाइल मिलने की टाइमिंग कई सवाल खड़े करती है । दर असल जब-जब मीडिया असली कातिल की ओर कदम बढ़ाता प्रतीत होता है , तब-तब मामले को भटकाने के लिये इस तरह की कारस्तानियाँ की जाती रही हैं । आरूषि की मौत के दिन से लेकर अब तक का घटनाक्रम खुद ही ये कहानी बयान करता है कि हत्यारा कोई आम नहीं बेहद रसूख वाला है । इतना कि ना केवल उसे तफ़्तीश से जुड़े हर पहलू की जानकारी होती है,बल्कि उसे दिशा मोड़ने का अख्तियार भी हासिल है ।
मुझे तो इस पूरे मामले में सबसे ज़्यादा दोषी मीडिया ही दिखाई देता है,जो हत्यारों को चैन की बँसुरी बजाने ही नहीं देता । अगर मीडिया ने बेवजह हो-हल्ला नहीं मचाया होता , तो नोएडा पुलिस की मदद से कब का मामला रफ़ा- दफ़ा कर दिया जाता । लेकिन इन दिलजलों को चैन कहाँ ? लाइव टेलीकास्ट के चक्कर में टिका दिये कैमरे और चना-चबैना लेकर डेरा डाल दिया जलवायु विहार के बाहर । दिन-रात की चौकसी के कारण हेमराज की लाश को ठिकाने लगाने का मौका ही नहीं मिल पाया । वरना हेमराज को आरुषि का कातिल बनाकर उसे फ़रार घोषित कर फ़ाइल के फ़ीते कस दिये जाते,लेकिन बुरा हो इन मीडियाई जोंकों का,जो पीछा ही नहीं छोड़तीं ।
वैसे इस केस के स्क्रिप्ट राइटर को तो मानना ही पड़ेगा । एक रिटायर्ड घाघ पुलिस अधिकारी ने क्या लाजवाब प्लाट तैयार किया कि मीडिया भी अब तक उसकी असलियत नहीं समझ सका । आए दिन चैनल पर आकर वह जाँच को थोड़ा और भटकाकर चला जाता है । हैरानी है कि मीडिया के धुरंधर उसकी कारस्तानी को आज तक भाँप नहीं सके ।
पूरा देश इसे मध्यमवर्गीय परिवारों की बदलती सोच और मान्यताओं से जोड़्कर देख रहा है । यह मामला सत्ता और समाज के संघर्ष को भी बयान करता है । अब तक की तहकीकात को बारीकी से समझें तो पायेंगे कि यह रसूखदार अमीर और संघर्षशील गरीब तबके की रस्साकशी में तब्दील हो चुका है । डेढ़ साल की प्रक्रिया को देखने वालों में से सबसे ज़्यादा नासमझ शख्स भी इस बात को बता सकता है कि सबूतों के साथ छेड़छाड़ सीबीआई की लापरवाही नहीं सोची-समझी चाल है ।
आईबीएन सेवन ने पिछले कुछ दिनों से एक बार फ़िर आरुषि मामले पर बहस शुरु कर दी । इससे बौखलाकर दिल्ली पुलिस के ज़रिये मोबाइल जब्त करने की बात कहकर मामइस मामले को दिशा से भटकाने की कोशिश की गई है । काबिले गौर पहलू ये भी है कि इस मामले से दिल्ली पुलिस का दूर-दूर तक कोई वास्ता ही नहीं,तब उस तक मोबाइल का आईईएमआई नम्बर कैसे और क्यों पहुँचा ? आखिर वो कौन है जिसके इशारों पर नोएडा के ज़िला अस्पताल के डॉक्टरों से लेकर सीबीआई के आला अधिकारी तक काम करते दिखाई देते हैं ? क्या देश में हालात इतने बदल चुके हैं कि सामान्य लोग भी इनसे अपने मनमुताबिक काम करा सकें । क्या इस मामले में आरोपी बनाये गये कृष्णा,राजकुमार और मंडल का रसूख इतना बड़ा है ?
मीडिया से गुज़ारिश है कि या तो सीधे-सीधे मुहिम छेड़ दे असली कातिल को बेनकाब करने की या फ़िर भगवान के लिये इससे पल्ला झाड़ ले क्योंकि जब भी यह म्मुद्दा उछलेगा ताकतवर एकजुट होकर कानून का हवाला देकर निर्दोष गरीबों को फ़ँसायेंगे चाहे फ़िर वो कुसुम , रामभुल या व्यास हो । मीडिया वालों दम है तो खुल कर सामने आओ अपने फ़ायदे के लिये इन बेचारे गरीबों की ज़िन्दगियों से खिलवाड़ मत करो । गरीब को उसकी ज़िन्दगी जीने दो । मीडिया और सीबीआई गरीब को बख्शो ।
मुझे तो इस पूरे मामले में सबसे ज़्यादा दोषी मीडिया ही दिखाई देता है,जो हत्यारों को चैन की बँसुरी बजाने ही नहीं देता । अगर मीडिया ने बेवजह हो-हल्ला नहीं मचाया होता , तो नोएडा पुलिस की मदद से कब का मामला रफ़ा- दफ़ा कर दिया जाता । लेकिन इन दिलजलों को चैन कहाँ ? लाइव टेलीकास्ट के चक्कर में टिका दिये कैमरे और चना-चबैना लेकर डेरा डाल दिया जलवायु विहार के बाहर । दिन-रात की चौकसी के कारण हेमराज की लाश को ठिकाने लगाने का मौका ही नहीं मिल पाया । वरना हेमराज को आरुषि का कातिल बनाकर उसे फ़रार घोषित कर फ़ाइल के फ़ीते कस दिये जाते,लेकिन बुरा हो इन मीडियाई जोंकों का,जो पीछा ही नहीं छोड़तीं ।
वैसे इस केस के स्क्रिप्ट राइटर को तो मानना ही पड़ेगा । एक रिटायर्ड घाघ पुलिस अधिकारी ने क्या लाजवाब प्लाट तैयार किया कि मीडिया भी अब तक उसकी असलियत नहीं समझ सका । आए दिन चैनल पर आकर वह जाँच को थोड़ा और भटकाकर चला जाता है । हैरानी है कि मीडिया के धुरंधर उसकी कारस्तानी को आज तक भाँप नहीं सके ।
पूरा देश इसे मध्यमवर्गीय परिवारों की बदलती सोच और मान्यताओं से जोड़्कर देख रहा है । यह मामला सत्ता और समाज के संघर्ष को भी बयान करता है । अब तक की तहकीकात को बारीकी से समझें तो पायेंगे कि यह रसूखदार अमीर और संघर्षशील गरीब तबके की रस्साकशी में तब्दील हो चुका है । डेढ़ साल की प्रक्रिया को देखने वालों में से सबसे ज़्यादा नासमझ शख्स भी इस बात को बता सकता है कि सबूतों के साथ छेड़छाड़ सीबीआई की लापरवाही नहीं सोची-समझी चाल है ।
आईबीएन सेवन ने पिछले कुछ दिनों से एक बार फ़िर आरुषि मामले पर बहस शुरु कर दी । इससे बौखलाकर दिल्ली पुलिस के ज़रिये मोबाइल जब्त करने की बात कहकर मामइस मामले को दिशा से भटकाने की कोशिश की गई है । काबिले गौर पहलू ये भी है कि इस मामले से दिल्ली पुलिस का दूर-दूर तक कोई वास्ता ही नहीं,तब उस तक मोबाइल का आईईएमआई नम्बर कैसे और क्यों पहुँचा ? आखिर वो कौन है जिसके इशारों पर नोएडा के ज़िला अस्पताल के डॉक्टरों से लेकर सीबीआई के आला अधिकारी तक काम करते दिखाई देते हैं ? क्या देश में हालात इतने बदल चुके हैं कि सामान्य लोग भी इनसे अपने मनमुताबिक काम करा सकें । क्या इस मामले में आरोपी बनाये गये कृष्णा,राजकुमार और मंडल का रसूख इतना बड़ा है ?
मीडिया से गुज़ारिश है कि या तो सीधे-सीधे मुहिम छेड़ दे असली कातिल को बेनकाब करने की या फ़िर भगवान के लिये इससे पल्ला झाड़ ले क्योंकि जब भी यह म्मुद्दा उछलेगा ताकतवर एकजुट होकर कानून का हवाला देकर निर्दोष गरीबों को फ़ँसायेंगे चाहे फ़िर वो कुसुम , रामभुल या व्यास हो । मीडिया वालों दम है तो खुल कर सामने आओ अपने फ़ायदे के लिये इन बेचारे गरीबों की ज़िन्दगियों से खिलवाड़ मत करो । गरीब को उसकी ज़िन्दगी जीने दो । मीडिया और सीबीआई गरीब को बख्शो ।
बुधवार, 19 अगस्त 2009
बीजेपी को करना ही होगा "सच का सामना"
बीजेपी के बुज़ुर्ग नेता जसवंत सिंह की बेतरह बिदाई ने एक बार फ़िर पार्टी की अंतर्कलह और अंतर्द्वंद्व को सरेराह ला खड़ा किया है । जिन्ना मुद्दे पर पार्टी लाइन से अलग हटकर अपनी बेबाक राय जगज़ाहिर करने का खमियाज़ा आखिरकार जसवंत सिंह को भुगतना ही पड़ा । लेकिन चिंतन बैठक के नाम पर बीजेपी की पार्लियामेंटरी कमेटी का आनन फ़ानन में लिया गया फ़ैसला हैरान करने वाला है । साथ ही यह भी बताता है कि कॉडर बेस्ड पार्टी के तमगे से नवाज़ी जाने वाली पार्टी में बौद्धिक विचार विमर्श की गुँजाइश पूरी तरह खत्म हो चुकी है । पार्टी पर चाटुकार,चापलूस और खोखा-पेटी समर्पित करने का माद्दा रखने वालों का कब्ज़ा हो चुका है ।
जसवंत सिंह की पुस्तक उनकी निजी राय है । वे खुद भी कई बार इस मुद्दे पर अपनी स्थिति स्पष्ट कर चुके हैं । ऎसे में किताब आने के बाद आनन फ़ानन में जसवंत की बिदाई और वो भी बेहद शर्मनाक तरीके से,बीजेपी के मानसिक दीवालियेपन को उजागर करती है । लगातार दो बार से केन्द्र में पराजय का मुँह देखने के बावजूद बीजेपी अपनी खामियों का पता लगाकर उनकी जड़ तक पहुँचने की बजाय शुतुरमुर्गी रवैया अख्तियार कर आत्मघात पर आमादा है । मध्यप्रदेश की ही बात की जाये तो शिवराज जैसे चिरकुट नेताओं की बन आई है,जो अपने नाकारापन को छिपाने के लिये केन्द्रीय नेतृत्व को खुश करने के तरीके आज़मा कर सरकारी खज़ाने को खाली किये दे रहे हैं ।
राष्ट्र भक्ति का दम भरने वाले आरएसएस में भी ऎसे कार्यकर्ताओं का बोलबाला हो चुका है , जो येनकेन प्रकारेण सत्तासुख में भागीदार हो जाना चाहते हैं । बरसों खून पसीना एक कर बीजेपी को इस मुकाम तक लाने वाले कार्यकर्ताओं की बजाय दलाल और गुंडा तत्वों के हावी हो जाने से वैचारिकता का संकट गहराने लगा है । विरोध के स्वर उठाने वालों को खरीद लो या तोड़ दो की नीति पर चलने वाली इस नई भाजपा का अंत सुनिश्चित जान पड़ता है । जिन्ना पर लिखी गई किताब एक संकेत मात्र है , जो बताता है कि हम सभी में "सच का सामना" करने की क्षमता आज तक विकसित नहीं हो सकी है ।
एक नागरिक और विचारवान व्यक्तित्व की हैसियत से जसवंत सिंह को अपनी बात रखने का पूरा हक है । उनके तर्कों पर सहमति-असहमति ज़ाहिर की जा सकती है , लेकिन इतिहास के पन्नों में दर्ज़ तारीख को मिटाया या बदला नहीं जा सकता । इतिहास के सटीक विश्लेषण और पुरानी गल्तियों से सबक लेकर ही आगे की राह आसान बनाई जा सकती है । किसी मसले से नज़रें चुराकर या उससे दामन बचाकर निकलने से मुश्किलें खत्म नहीं होतीं , बल्कि वो नई शक्ल में पहले से कहीं ज़्यादा खतरनाक ढ़ंग से सामने आ खड़ी होती हैं । अटल बिहारी वाजपेयी के परिदृश्य से हटने और आडवाणी के कमज़ोर पड़ने के बाद से पार्टी पर दलाल किस्म के लोग काबिज़ हैं । अपनी कुर्सी बचाने और दूसरे को निपटाने में माहिर ये नेता सियासी दाँवपेंचों की बजाय खो-खो के खेल में जुटे हैं । उमा, कल्याण और अब जसवंत सरीखे नेताओं को घसीट कर बाहर फ़ेंक देने की कवायद पार्टी में खत्म होते लोकतंत्र की हकीकत बयान करते हैं ।
बीजेपी को वाकई आगे बढ़ना है , तो कई पहलुओं पर एक साथ काम करना होगा । मौजूदा दौर का बीजेपी मार्का " हिन्दुत्व" जिन्ना के जिन्न से कमतर नहीं । अपना हित साधने के लिये गले में भगवा कपड़ा डालकर गुंडई करने वालों के हिन्दुत्व से पार्टी को निजात दिलाना पहली ज़रुरत है । ये बात सही है कि फ़ंड के बिना पार्टियाँ नहीं चलतीं , लेकिन जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा लूटने की नीयत से सत्ता में काबिज़ लोगों से भी पार्टियाँ ज़्यादा दूर तक नहीं चल सकतीं । पार्टी की दिशा और दशा तय करने वालों को इस बारे में भी सोचना होगा ।
राष्ट्र की ज़मीन, हवा,पानी, जंगल को बेरहमीं से बेच खाने पर आमादा लोग ना तो राष्ट्र भक्त हो सकते हैं और ना ही हिन्दू । इस तथ्य को सामने रख कर ही पार्टी को बचाया और बनाया जा सकता है । वरना फ़िलहाल बीजेपी की स्थिति काँग्रेस के बेहूदा और घटिया संस्करण से इतर कुछ नहीं । इन सत्ता लोलुपों की जमात पर जल्दी ही काबू नहीं पाया गया,तो "यादवी कलह" बीजेपी को पूरी तरह खत्म कर देगी ।
जसवंत सिंह की पुस्तक उनकी निजी राय है । वे खुद भी कई बार इस मुद्दे पर अपनी स्थिति स्पष्ट कर चुके हैं । ऎसे में किताब आने के बाद आनन फ़ानन में जसवंत की बिदाई और वो भी बेहद शर्मनाक तरीके से,बीजेपी के मानसिक दीवालियेपन को उजागर करती है । लगातार दो बार से केन्द्र में पराजय का मुँह देखने के बावजूद बीजेपी अपनी खामियों का पता लगाकर उनकी जड़ तक पहुँचने की बजाय शुतुरमुर्गी रवैया अख्तियार कर आत्मघात पर आमादा है । मध्यप्रदेश की ही बात की जाये तो शिवराज जैसे चिरकुट नेताओं की बन आई है,जो अपने नाकारापन को छिपाने के लिये केन्द्रीय नेतृत्व को खुश करने के तरीके आज़मा कर सरकारी खज़ाने को खाली किये दे रहे हैं ।
राष्ट्र भक्ति का दम भरने वाले आरएसएस में भी ऎसे कार्यकर्ताओं का बोलबाला हो चुका है , जो येनकेन प्रकारेण सत्तासुख में भागीदार हो जाना चाहते हैं । बरसों खून पसीना एक कर बीजेपी को इस मुकाम तक लाने वाले कार्यकर्ताओं की बजाय दलाल और गुंडा तत्वों के हावी हो जाने से वैचारिकता का संकट गहराने लगा है । विरोध के स्वर उठाने वालों को खरीद लो या तोड़ दो की नीति पर चलने वाली इस नई भाजपा का अंत सुनिश्चित जान पड़ता है । जिन्ना पर लिखी गई किताब एक संकेत मात्र है , जो बताता है कि हम सभी में "सच का सामना" करने की क्षमता आज तक विकसित नहीं हो सकी है ।
एक नागरिक और विचारवान व्यक्तित्व की हैसियत से जसवंत सिंह को अपनी बात रखने का पूरा हक है । उनके तर्कों पर सहमति-असहमति ज़ाहिर की जा सकती है , लेकिन इतिहास के पन्नों में दर्ज़ तारीख को मिटाया या बदला नहीं जा सकता । इतिहास के सटीक विश्लेषण और पुरानी गल्तियों से सबक लेकर ही आगे की राह आसान बनाई जा सकती है । किसी मसले से नज़रें चुराकर या उससे दामन बचाकर निकलने से मुश्किलें खत्म नहीं होतीं , बल्कि वो नई शक्ल में पहले से कहीं ज़्यादा खतरनाक ढ़ंग से सामने आ खड़ी होती हैं । अटल बिहारी वाजपेयी के परिदृश्य से हटने और आडवाणी के कमज़ोर पड़ने के बाद से पार्टी पर दलाल किस्म के लोग काबिज़ हैं । अपनी कुर्सी बचाने और दूसरे को निपटाने में माहिर ये नेता सियासी दाँवपेंचों की बजाय खो-खो के खेल में जुटे हैं । उमा, कल्याण और अब जसवंत सरीखे नेताओं को घसीट कर बाहर फ़ेंक देने की कवायद पार्टी में खत्म होते लोकतंत्र की हकीकत बयान करते हैं ।
बीजेपी को वाकई आगे बढ़ना है , तो कई पहलुओं पर एक साथ काम करना होगा । मौजूदा दौर का बीजेपी मार्का " हिन्दुत्व" जिन्ना के जिन्न से कमतर नहीं । अपना हित साधने के लिये गले में भगवा कपड़ा डालकर गुंडई करने वालों के हिन्दुत्व से पार्टी को निजात दिलाना पहली ज़रुरत है । ये बात सही है कि फ़ंड के बिना पार्टियाँ नहीं चलतीं , लेकिन जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा लूटने की नीयत से सत्ता में काबिज़ लोगों से भी पार्टियाँ ज़्यादा दूर तक नहीं चल सकतीं । पार्टी की दिशा और दशा तय करने वालों को इस बारे में भी सोचना होगा ।
राष्ट्र की ज़मीन, हवा,पानी, जंगल को बेरहमीं से बेच खाने पर आमादा लोग ना तो राष्ट्र भक्त हो सकते हैं और ना ही हिन्दू । इस तथ्य को सामने रख कर ही पार्टी को बचाया और बनाया जा सकता है । वरना फ़िलहाल बीजेपी की स्थिति काँग्रेस के बेहूदा और घटिया संस्करण से इतर कुछ नहीं । इन सत्ता लोलुपों की जमात पर जल्दी ही काबू नहीं पाया गया,तो "यादवी कलह" बीजेपी को पूरी तरह खत्म कर देगी ।
लेबल:
चिंतन बैठक,
जसवंत सिंह,
जिन्ना,
बीजेपी,
मध्यप्रदेश,
हिन्दुत्व
शनिवार, 15 अगस्त 2009
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
स्वाधीनता दिवस पर मन उदास है या बेचैन कह पाना बड़ा ही मुश्किल है । ख्याल आ रहा है कि राष्ट्रीय त्यौहार के मौके पर मन में उत्साह की गैर मौजूदगी कहीं नकारात्मकता और निरुत्साह का संकेत तो नहीं । सड़क पर सैकड़ों चौपहिया वाहनों की रैली में "सरफ़रोशी की तमन्ना लिये बाज़ू ए कातिल" को ललकारते आज के रणबाँकुरों का मजमा लगा है , मगर उनका यह राष्ट्रप्रेम मन में उम्मीद जगाने की बजाय खिन्नता क्यों भर रहा है ? खुली आर्थिक नीतियों और सामाजिक खुलेपन के बावजूद पिछले कुछ सालों से चारों तरफ़ जकड़न क्यों महसूस होने लगी है ? क्या यह वहीं देश है जिसे आज़ाद देखने के लिये हमारे पुरखों ने जान की बाज़ी लगा दी ? क्या हम सचमुच आज़ादी के मायने समझ सके हैं ? क्या हम आज़ाद कहलाने के काबिल रह गये हैं ?
लोकसभा में तीन सौ से ज़्यादा सांसद करोड़पति हैं और तमाम कोशिशों के बावजूद अपराधियों का संसद तथा विधानसभाओं की दहलीज़ में प्रवेश पाने का सिलसिला थमता नज़र नहीं आ रहा । देश का कृषि मंत्री क्रिकेट की अंतरराष्ट्रीय संस्था का प्रमुख बनने के लिये पैसा जुटाने की हवस में देश की ग़रीब जनता के मुँह से निवाला छीन लेने पर आमादा है । शरद पवार ने जब से विभाग संभाला है,तब से बारी-बारी रोज़मर्रा की ज़रुरत की चीज़ों के दामों में बेतहाशा उछाल आया है । एक बार कीमतें ऊपर जाने के बाद नीचे फ़िर कभी नहीं आ सकीं । जिस देश में अस्सी फ़ीसदी से ज़्यादा लोग बीस रुपए रोज़ से कम में गुज़ारा करने को मजबूर हैं,वहाँ दाल-रोटी तो दूर की बात चटनी-रोटी, नमक-रोटी या फ़िर प्याज़-रोटी की बात भी बेमानी हो चली है ।
नेता दिन - दूनी रात- चौगुनी रफ़्तार से अमीरी की पायदान पर फ़र्राटा भर रहे हैं और आम जनता जो संविधान के मुताबिक देश की ज़मीन , जंगल और प्राकृतिक संसाधनों की असली मालिक है,छोटी-छोटी ज़रुरतों से महरुम है । सरकारी ज़मीनों पर मंदिरों और झुग्गियों के नाम पर नेताओं का ही कब्ज़ा है । हम सब मुँह बाये कारवाँ गुज़रता देख रहे है । सरकारी खज़ाने की बँदरबाँट का सिलसिला दिनोंदिन तेज़ होता जा रहा है,मगर हम चुप हैं । बदलाव की आग सबके सीने में है,शुरुआत कब कौन और कैसे करे,ये सवाल सभी के कदम रोके हुए है ।
हाल ही में यात्रा के दौरान ट्रेन में 88 वर्षीय श्री झूमरलाल टावरीजी से बातचीत का मौका मिला । गौसेवा को अपना मिशन बना चुके टावरी जी गाँधी के ग्रामीण भारत के सपने को टूटता देखकर काफ़ी खिन्न हैं । आज के हालात पर चर्चा के ज़ार- ज़ार रोते टावरी जी ने माना कि ये वो देश नहीं जिसके लिये लोगों ने अपने प्राणों की आहूति दे दी । इसी दौरान महाराष्ट्र पुलिस और जीआरपी के जवानों का ट्रुप,जो छत्तीसगढ़ के घने जंगलों में नक्सलियों की तलाश में बीस दिन गुज़ारने के बाद नेताओं के निर्देश पर खाली हाथ लौटने की छटपटाहट बयान कर रहे थे । वे बता रहे थे कि किस तरह नक्सलियों के करीब पहुँचते ही उन्हें वापसी का हुक्म सुना दिया जाता है । नेताओं की साँठगाँठ का नतीजा है नक्सलवाद और बिगड़ती कानून व्यवस्था ।
क्या इसी का नाम आज़ादी है । मीडिया चिल्ला रहा है कि चीन भारत के टुकड़े- टुकड़े करने की साज़िश रच रहा है । क्या वाकई......??? चीन को इतनी ज़हमत उठाने की ज़रुरत ही क्या है । ये देश तो यहाँ के नेताओं ने कई हिस्सों में कब से तकसीम कर दिया है । अखबार और समाचार चैनल इस बात की पुष्टि करते हैं । राज्यों के बाद अब छॊटे राज्यों का सवाल उठ खड़ा हुआ ।
भाषा के नाम पर हम वैसे ही अलग हैं । धर्म की बात तो कौन कहे । अब तो वर्ग,उपवर्गों पर भी संगठन बनाने का भूत सवार है । अगड़ों के कई संगठनों के साथ ही अग्रसेन,वाल्मिकी,आम्बेडकर,रविदास,सतनामी जैसे असंख्य वर्ग और उनकी राजनीति .....। देश है ही कहाँ ...??? लगता है आज़ादी हमारे लिये अभिशाप बन गई है । हे प्रभु ( यदि तू सचमुच है तो ) या तो किसी दिन पूरी उपस्थिति वाली संसद और विधान सभाओं पर आकाशीय बिजली गिरा दे या समाज से नेता की नस्ल का सफ़ाया ही कर दे । अगर ऎसा करने में तेरी हिम्मत भी जवाब दे जाती हो,तो हमें वो रहनुमा दे जो देश को इन काले अँग्रेज़ों से मुक्ति दिला सके ।
क्यों हर फूल अपनी
गंध के लिए चिंतित है यहां,
क्यों अपने स्वाद के लिए
नदी का पानी चिंतित है,
मछलियां चिंतित हैं
रसायनों की मार से,
चिंतित हैं मोर अपने मधुवनों के लिए,
वन खुद चिंतित हैं कि गायब
हो रही है उनकी हरियाली,
खेत भी कम चिंतित नहीं हैं
अपनी फसलों के लिए ।
सबके चेहरे उतरे हुए हैं,
डबडबाई हुई है सबकी आंख,
होंठ सूखे और बानी अवाक ।
लोकसभा में तीन सौ से ज़्यादा सांसद करोड़पति हैं और तमाम कोशिशों के बावजूद अपराधियों का संसद तथा विधानसभाओं की दहलीज़ में प्रवेश पाने का सिलसिला थमता नज़र नहीं आ रहा । देश का कृषि मंत्री क्रिकेट की अंतरराष्ट्रीय संस्था का प्रमुख बनने के लिये पैसा जुटाने की हवस में देश की ग़रीब जनता के मुँह से निवाला छीन लेने पर आमादा है । शरद पवार ने जब से विभाग संभाला है,तब से बारी-बारी रोज़मर्रा की ज़रुरत की चीज़ों के दामों में बेतहाशा उछाल आया है । एक बार कीमतें ऊपर जाने के बाद नीचे फ़िर कभी नहीं आ सकीं । जिस देश में अस्सी फ़ीसदी से ज़्यादा लोग बीस रुपए रोज़ से कम में गुज़ारा करने को मजबूर हैं,वहाँ दाल-रोटी तो दूर की बात चटनी-रोटी, नमक-रोटी या फ़िर प्याज़-रोटी की बात भी बेमानी हो चली है ।
नेता दिन - दूनी रात- चौगुनी रफ़्तार से अमीरी की पायदान पर फ़र्राटा भर रहे हैं और आम जनता जो संविधान के मुताबिक देश की ज़मीन , जंगल और प्राकृतिक संसाधनों की असली मालिक है,छोटी-छोटी ज़रुरतों से महरुम है । सरकारी ज़मीनों पर मंदिरों और झुग्गियों के नाम पर नेताओं का ही कब्ज़ा है । हम सब मुँह बाये कारवाँ गुज़रता देख रहे है । सरकारी खज़ाने की बँदरबाँट का सिलसिला दिनोंदिन तेज़ होता जा रहा है,मगर हम चुप हैं । बदलाव की आग सबके सीने में है,शुरुआत कब कौन और कैसे करे,ये सवाल सभी के कदम रोके हुए है ।
हाल ही में यात्रा के दौरान ट्रेन में 88 वर्षीय श्री झूमरलाल टावरीजी से बातचीत का मौका मिला । गौसेवा को अपना मिशन बना चुके टावरी जी गाँधी के ग्रामीण भारत के सपने को टूटता देखकर काफ़ी खिन्न हैं । आज के हालात पर चर्चा के ज़ार- ज़ार रोते टावरी जी ने माना कि ये वो देश नहीं जिसके लिये लोगों ने अपने प्राणों की आहूति दे दी । इसी दौरान महाराष्ट्र पुलिस और जीआरपी के जवानों का ट्रुप,जो छत्तीसगढ़ के घने जंगलों में नक्सलियों की तलाश में बीस दिन गुज़ारने के बाद नेताओं के निर्देश पर खाली हाथ लौटने की छटपटाहट बयान कर रहे थे । वे बता रहे थे कि किस तरह नक्सलियों के करीब पहुँचते ही उन्हें वापसी का हुक्म सुना दिया जाता है । नेताओं की साँठगाँठ का नतीजा है नक्सलवाद और बिगड़ती कानून व्यवस्था ।
क्या इसी का नाम आज़ादी है । मीडिया चिल्ला रहा है कि चीन भारत के टुकड़े- टुकड़े करने की साज़िश रच रहा है । क्या वाकई......??? चीन को इतनी ज़हमत उठाने की ज़रुरत ही क्या है । ये देश तो यहाँ के नेताओं ने कई हिस्सों में कब से तकसीम कर दिया है । अखबार और समाचार चैनल इस बात की पुष्टि करते हैं । राज्यों के बाद अब छॊटे राज्यों का सवाल उठ खड़ा हुआ ।
भाषा के नाम पर हम वैसे ही अलग हैं । धर्म की बात तो कौन कहे । अब तो वर्ग,उपवर्गों पर भी संगठन बनाने का भूत सवार है । अगड़ों के कई संगठनों के साथ ही अग्रसेन,वाल्मिकी,आम्बेडकर,रविदास,सतनामी जैसे असंख्य वर्ग और उनकी राजनीति .....। देश है ही कहाँ ...??? लगता है आज़ादी हमारे लिये अभिशाप बन गई है । हे प्रभु ( यदि तू सचमुच है तो ) या तो किसी दिन पूरी उपस्थिति वाली संसद और विधान सभाओं पर आकाशीय बिजली गिरा दे या समाज से नेता की नस्ल का सफ़ाया ही कर दे । अगर ऎसा करने में तेरी हिम्मत भी जवाब दे जाती हो,तो हमें वो रहनुमा दे जो देश को इन काले अँग्रेज़ों से मुक्ति दिला सके ।
क्यों हर फूल अपनी
गंध के लिए चिंतित है यहां,
क्यों अपने स्वाद के लिए
नदी का पानी चिंतित है,
मछलियां चिंतित हैं
रसायनों की मार से,
चिंतित हैं मोर अपने मधुवनों के लिए,
वन खुद चिंतित हैं कि गायब
हो रही है उनकी हरियाली,
खेत भी कम चिंतित नहीं हैं
अपनी फसलों के लिए ।
सबके चेहरे उतरे हुए हैं,
डबडबाई हुई है सबकी आंख,
होंठ सूखे और बानी अवाक ।
शुक्रवार, 14 अगस्त 2009
मध्यप्रदेश के जंगल बेचने की तैयारी
देश-दुनिया में टाइगर स्टेट के रुप में ख्याति पाने वाले मध्यप्रदेश को बाघ विहीन करने के लिये कुख्यात वन विभाग ने अब प्रदेश के जंगलों पर हाथ साफ़ करने का मन बनाया है । बरसों सरकारी तनख्वाह के साथ - साथ जंगल की कमाई खाने वाले अफ़सरों और नेताओं की नीयत एक बार फ़िर डोल गई है । प्रदेश के गठन के वक्त करीब चालीस फ़ीसदी वन क्षेत्र को साफ़ कर आठ प्रतिशत तक पहुँचाने वालों की निगाह अब जंगल की ज़मीन पर पड़ गई है ।
अफ़सरों ने मुख्यमंत्री और मंत्री को पट्टी पढ़ा दी है कि मंदी के दौर में अगर सरकार की आमदनी बढ़ानी है ,तो जंगल की ज़मीन निजी हाथों में सौंपने से बढ़िया कोई और ज़रिया नहीं है । जनता की ज़मीन को नेता ,अधिकारी और उद्योगपति अपनी बपौती मान बैठे हैं और इस दौलत की बंदरबाँट की तैयारी में जुट गये हैं । टाइगर रिज़र्व के नाम पर अरबों- खरबों रुपए फ़ूँकने के बाद बाघों को कागज़ों में समेट देने वालों को जंगल का सफ़ाया करके भी चैन नहीं आ रहा । अब वे औद्योगिक घरानों की मदद से घने जंगल तैयार करने की योजना को अमली जामा पहनाने में जुट गये हैं ।
इसी सिलसिले में कुछ तथाकथित जानकारों की राय जानने के लिये भोपाल में वन विभाग ने संगोष्ठी का आयोजन किया ,जिसमें रिलायंस, टाटा, आईटीसी, रुचि सोया जैसी नामी गिरामी कम्पनियों के प्रतिनिधि मौजूद थे । कार्यशाला का लब्बो लुआब यही था कि अगर वनों को बचाना है , तो इन्हें निजी हाथों में सौंप देना ही एकमात्र विकल्प है । क्योटो प्रोटोकॉल, क्लीन डेवलपमेंट मैकेनिज़्म के तहत वनीकरण और पुनर्वनीकरण परियोजनाओं पर केन्द्रित कार्यशाला में मुख्यमंत्री ने दलील दी कि सरकार प्राकृतिक संसाधनों की कीमत पर औद्योगिकीकरण नहीं करना चाहती । सरकार की कोशिश है कि जंगल बचाकर उद्योग-धंधे विकसित किये जाएँ । एक्सपर्ट ने एक सुर में सलाह दे डाली कि जंगल बचाना है ,तो निजी भागीदारी ज़रुरी है । यानी प्रदेश में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के ज़रिये जंगल बचाये और बढ़ाये जाने की बात हो रही है ।
सूबे के मुखिया शिवराज सिंह चौहान का मानना है कि पर्यावरण और प्राकृतिक संतुलन कायम रखना समाज की ज़िम्मेदारी है । मुख्यमंत्री हर काम की ज़िम्मेदारी जनता और समाज पर डालते रहे हैं । सवाल यही है कि जब हर काम समाज को ही करना है ,तो सरकार की ज़रुरत ही क्या है ? बँटाढ़ार करने,मलाई सूँतने के लिये मंत्री और सरकारी अमला है और कर का बोझा ढ़ोने तथा काम करने के लिये जनता है ।
उधर "अँधेर नगरी के चौपट राजा" के नवरत्नों की सलाह पर जंगल के निजीकरण के पक्ष में वन विभाग का तर्क है कि प्रदेश के करीब 95 लाख हैक्टेयर वन क्षेत्र में से 36 लाख हैक्टेयर की हालत खस्ता है । उसे फ़िर से विकसित करने के लिये करोड़ों रुपयों की दरकार होगी । सरकार के पास इतना पैसा नहीं है कि वह अपने दम पर जंगल खड़ा कर सके । उनकी नज़र में धन्ना सेठों से बेहतर इस ज़िम्मेदारी को भला कौन अच्छे ढंग से अंजाम दे सकता है ? लिहाज़ा सरकार ने प्रदेश के जंगलों को प्राइवेट कंपनियों के हवाले करने का मन बना लिया है । वह दिन दूर नहीं जब प्रदेश के विशाल भू भाग के जंगल औद्योगिक घरानों की मिल्कियत बन जाएँगे । वैसे यहाँ इस बात का ज़िक्र बेहद ज़रुरी हो जाता है कि जनता की ज़मीन को ठिकाने लगाने की रणनीति जंगल विभाग के आला अफ़सरान काफ़ी लम्बे समय से तैयार करने में जुटे थे । करीब छह महीने पहले वन विभाग ने इसका खाका तैयार कर लिया था ।
सरकार को मंदी से उबारने के लिये अफ़सरों ने सुझाव दे डाला कि प्रदेश में जंगलों के नाम पर हज़ारों एकड़ ज़मीन बेकार पड़ी है ,यह ज़मीन ना तो विभाग के लिये उपयोगी है और ना ही किसी अन्य काम के लिये । रायसेन, विदिशा, ग्वालियर, शिवपुरी, कटनी सहित कई ज़िलों में हज़ारों एकड़ अनुपयोगी ज़मीन है । इसी तरह शहरों के आसपास के जंगलों की अनुपयोगी ज़मीन को व्यावसायिक उपयोग के लिये बेच कर चार से पाँच हज़ार करोड़ रुपए खड़े कर लेने का मशविरा भी दे डाला । इसके लिये केन्द्र सरकार से अनुमति लेकर बाकायदा नियम कायदे बनाने तक की बात कही गई थी ।
गौरतलब है कि मध्यप्रदेश में वर्ष 1956-57 के दौरान करीब 39.5 फ़ीसदी वन क्षेत्र था , जो अब महज़ 8 प्रतिशत रह गया है । एक सर्वे के मुताबिक पिछले चार दशकों में प्रदेश के 18 हज़ार 98 वर्ग किलोमीटर से भी ज़्यादा वनों का विनाश हुआ है । पूरे देश में वनों के विनाश की तुलना में अकेले मध्यप्रदेश में 43 फ़ीसदी जंगलों का सफ़ाया कर दिया गया । इस बीच वन अमला कार्यों से ज़्यादा अपने कारनामों के लिये सुर्खियों में रहा है । वन रोपणियों के संचालन पर करोड़ों रुपए फ़ूँकने के बावजूद ना आमदनी बढ़ी और ना ही वन क्षेत्रों में इज़ाफ़ा हो सका ।
वन विभाग में आमतौर पर इमारती लकड़ी, बांस तथा खैर के व्यवसाय से होने वाली आय में प्रति वर्ष 15 फीसदी तक की बढ़ोत्तरी होती है लेकिन इस साल ऐसा नहीं हुआ। यह आय बढ़ने की बजाय पिछले वर्ष की तुलना में लगभग 3 करोड़ रुपए घट गई। इसके विपरीत विभाग का खर्च 10 करोड़ बढ़ गया। वह तो भला हो तेंदूपत्ता व्यापार का, अनुकूल स्थिति के चलते उसकी आय में इजाफा हुआ और वन विभाग को अपनी इज्जत ढ़ाँकने का मौका मिल गया। इमारती लकड़ी, बांस तथा खैर के राजकीय व्यापार की आय में कमी से वन विभाग के आला अफसरों की मंशा पर उंगली उठने लगी है। आय में कमी की वजह अफसरों एवं ठेकेदारों के बीच सांठगांठ को माना जा रहा है।
विभागीय सूत्रों के अनुसार वर्ष 2008 में वन विभाग को इमारती लकड़ी के राजकीय व्यापार से 483 करोड़, बांस से 37 तथा खैर के व्यापार से लगभग एक करोड़ रुपए अर्थात कुल 521 करोड़ रुपए की आय हुई थी। लेकिन वर्ष 2009 की जो आय वन राज्य मंत्री राजेंद्र शुक्ल ने विधानसभा में बताई वह इमारती लकड़ी के व्यापार से 489 करोड़, बांस से 28 करोड़ तथा खैर के व्यापार से लगभग एक करोड़ है। आमतौर पर वन विभाग में इन मदों से होने वाली आय में 15 फीसदी की बढ़ोत्तरी होती है, इस लिहाज से आय 599 करोड़ होना चाहिए थी।
आय में कमी को बड़े घपले के रूप में देखा जा रहा है । हर वर्ष बढ़ने वाली यह आय क्यों नहीं बढ़ी, इसे लेकर विभाग के जानकार हैरान हैं । उनका कहना है, तेंदूपत्ता के व्यापार में तो प्रकृति का असर पड़ता है लेकिन इमारती लकड़ी, बांस और खैर पर प्राकृतिक प्रकोप असरकारी नहीं होता। मजेदार तथ्य यह भी है कि "आमदनी अठन्नी ,खर्चा रुपय्या" की तर्ज़ पर विभाग का खर्च 84 करोड़ से बढ़ कर 95 करोड़ हो गया । विधानसभा में दिये गये विभागीय आय के ब्यौरे से पता चलता है कि विभाग की इज्जत तेंदूपत्ता व्यापार की आमदनी ने बचाई।
जंगलों में बरसों से काबिज़ आदिवासियों को बेदखल करने में जुटी सरकार अफ़सरों की सलाह पर जनता की ज़मीन औद्योगिक घरानों को सौंपने जा रही है । वक्त रहते लोग नहीं चेते , तो वो दिन दूर नहीं साँस लेने के लिये विशुद्ध हवा लेने के भी दाम चुकाना होंगे और संभव है राज्य सरकार विशुध्द प्राणवायु देने के एवज़ में कर वसूली करने लगे ।
अफ़सरों ने मुख्यमंत्री और मंत्री को पट्टी पढ़ा दी है कि मंदी के दौर में अगर सरकार की आमदनी बढ़ानी है ,तो जंगल की ज़मीन निजी हाथों में सौंपने से बढ़िया कोई और ज़रिया नहीं है । जनता की ज़मीन को नेता ,अधिकारी और उद्योगपति अपनी बपौती मान बैठे हैं और इस दौलत की बंदरबाँट की तैयारी में जुट गये हैं । टाइगर रिज़र्व के नाम पर अरबों- खरबों रुपए फ़ूँकने के बाद बाघों को कागज़ों में समेट देने वालों को जंगल का सफ़ाया करके भी चैन नहीं आ रहा । अब वे औद्योगिक घरानों की मदद से घने जंगल तैयार करने की योजना को अमली जामा पहनाने में जुट गये हैं ।
इसी सिलसिले में कुछ तथाकथित जानकारों की राय जानने के लिये भोपाल में वन विभाग ने संगोष्ठी का आयोजन किया ,जिसमें रिलायंस, टाटा, आईटीसी, रुचि सोया जैसी नामी गिरामी कम्पनियों के प्रतिनिधि मौजूद थे । कार्यशाला का लब्बो लुआब यही था कि अगर वनों को बचाना है , तो इन्हें निजी हाथों में सौंप देना ही एकमात्र विकल्प है । क्योटो प्रोटोकॉल, क्लीन डेवलपमेंट मैकेनिज़्म के तहत वनीकरण और पुनर्वनीकरण परियोजनाओं पर केन्द्रित कार्यशाला में मुख्यमंत्री ने दलील दी कि सरकार प्राकृतिक संसाधनों की कीमत पर औद्योगिकीकरण नहीं करना चाहती । सरकार की कोशिश है कि जंगल बचाकर उद्योग-धंधे विकसित किये जाएँ । एक्सपर्ट ने एक सुर में सलाह दे डाली कि जंगल बचाना है ,तो निजी भागीदारी ज़रुरी है । यानी प्रदेश में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के ज़रिये जंगल बचाये और बढ़ाये जाने की बात हो रही है ।
सूबे के मुखिया शिवराज सिंह चौहान का मानना है कि पर्यावरण और प्राकृतिक संतुलन कायम रखना समाज की ज़िम्मेदारी है । मुख्यमंत्री हर काम की ज़िम्मेदारी जनता और समाज पर डालते रहे हैं । सवाल यही है कि जब हर काम समाज को ही करना है ,तो सरकार की ज़रुरत ही क्या है ? बँटाढ़ार करने,मलाई सूँतने के लिये मंत्री और सरकारी अमला है और कर का बोझा ढ़ोने तथा काम करने के लिये जनता है ।
उधर "अँधेर नगरी के चौपट राजा" के नवरत्नों की सलाह पर जंगल के निजीकरण के पक्ष में वन विभाग का तर्क है कि प्रदेश के करीब 95 लाख हैक्टेयर वन क्षेत्र में से 36 लाख हैक्टेयर की हालत खस्ता है । उसे फ़िर से विकसित करने के लिये करोड़ों रुपयों की दरकार होगी । सरकार के पास इतना पैसा नहीं है कि वह अपने दम पर जंगल खड़ा कर सके । उनकी नज़र में धन्ना सेठों से बेहतर इस ज़िम्मेदारी को भला कौन अच्छे ढंग से अंजाम दे सकता है ? लिहाज़ा सरकार ने प्रदेश के जंगलों को प्राइवेट कंपनियों के हवाले करने का मन बना लिया है । वह दिन दूर नहीं जब प्रदेश के विशाल भू भाग के जंगल औद्योगिक घरानों की मिल्कियत बन जाएँगे । वैसे यहाँ इस बात का ज़िक्र बेहद ज़रुरी हो जाता है कि जनता की ज़मीन को ठिकाने लगाने की रणनीति जंगल विभाग के आला अफ़सरान काफ़ी लम्बे समय से तैयार करने में जुटे थे । करीब छह महीने पहले वन विभाग ने इसका खाका तैयार कर लिया था ।
सरकार को मंदी से उबारने के लिये अफ़सरों ने सुझाव दे डाला कि प्रदेश में जंगलों के नाम पर हज़ारों एकड़ ज़मीन बेकार पड़ी है ,यह ज़मीन ना तो विभाग के लिये उपयोगी है और ना ही किसी अन्य काम के लिये । रायसेन, विदिशा, ग्वालियर, शिवपुरी, कटनी सहित कई ज़िलों में हज़ारों एकड़ अनुपयोगी ज़मीन है । इसी तरह शहरों के आसपास के जंगलों की अनुपयोगी ज़मीन को व्यावसायिक उपयोग के लिये बेच कर चार से पाँच हज़ार करोड़ रुपए खड़े कर लेने का मशविरा भी दे डाला । इसके लिये केन्द्र सरकार से अनुमति लेकर बाकायदा नियम कायदे बनाने तक की बात कही गई थी ।
गौरतलब है कि मध्यप्रदेश में वर्ष 1956-57 के दौरान करीब 39.5 फ़ीसदी वन क्षेत्र था , जो अब महज़ 8 प्रतिशत रह गया है । एक सर्वे के मुताबिक पिछले चार दशकों में प्रदेश के 18 हज़ार 98 वर्ग किलोमीटर से भी ज़्यादा वनों का विनाश हुआ है । पूरे देश में वनों के विनाश की तुलना में अकेले मध्यप्रदेश में 43 फ़ीसदी जंगलों का सफ़ाया कर दिया गया । इस बीच वन अमला कार्यों से ज़्यादा अपने कारनामों के लिये सुर्खियों में रहा है । वन रोपणियों के संचालन पर करोड़ों रुपए फ़ूँकने के बावजूद ना आमदनी बढ़ी और ना ही वन क्षेत्रों में इज़ाफ़ा हो सका ।
वन विभाग में आमतौर पर इमारती लकड़ी, बांस तथा खैर के व्यवसाय से होने वाली आय में प्रति वर्ष 15 फीसदी तक की बढ़ोत्तरी होती है लेकिन इस साल ऐसा नहीं हुआ। यह आय बढ़ने की बजाय पिछले वर्ष की तुलना में लगभग 3 करोड़ रुपए घट गई। इसके विपरीत विभाग का खर्च 10 करोड़ बढ़ गया। वह तो भला हो तेंदूपत्ता व्यापार का, अनुकूल स्थिति के चलते उसकी आय में इजाफा हुआ और वन विभाग को अपनी इज्जत ढ़ाँकने का मौका मिल गया। इमारती लकड़ी, बांस तथा खैर के राजकीय व्यापार की आय में कमी से वन विभाग के आला अफसरों की मंशा पर उंगली उठने लगी है। आय में कमी की वजह अफसरों एवं ठेकेदारों के बीच सांठगांठ को माना जा रहा है।
विभागीय सूत्रों के अनुसार वर्ष 2008 में वन विभाग को इमारती लकड़ी के राजकीय व्यापार से 483 करोड़, बांस से 37 तथा खैर के व्यापार से लगभग एक करोड़ रुपए अर्थात कुल 521 करोड़ रुपए की आय हुई थी। लेकिन वर्ष 2009 की जो आय वन राज्य मंत्री राजेंद्र शुक्ल ने विधानसभा में बताई वह इमारती लकड़ी के व्यापार से 489 करोड़, बांस से 28 करोड़ तथा खैर के व्यापार से लगभग एक करोड़ है। आमतौर पर वन विभाग में इन मदों से होने वाली आय में 15 फीसदी की बढ़ोत्तरी होती है, इस लिहाज से आय 599 करोड़ होना चाहिए थी।
आय में कमी को बड़े घपले के रूप में देखा जा रहा है । हर वर्ष बढ़ने वाली यह आय क्यों नहीं बढ़ी, इसे लेकर विभाग के जानकार हैरान हैं । उनका कहना है, तेंदूपत्ता के व्यापार में तो प्रकृति का असर पड़ता है लेकिन इमारती लकड़ी, बांस और खैर पर प्राकृतिक प्रकोप असरकारी नहीं होता। मजेदार तथ्य यह भी है कि "आमदनी अठन्नी ,खर्चा रुपय्या" की तर्ज़ पर विभाग का खर्च 84 करोड़ से बढ़ कर 95 करोड़ हो गया । विधानसभा में दिये गये विभागीय आय के ब्यौरे से पता चलता है कि विभाग की इज्जत तेंदूपत्ता व्यापार की आमदनी ने बचाई।
जंगलों में बरसों से काबिज़ आदिवासियों को बेदखल करने में जुटी सरकार अफ़सरों की सलाह पर जनता की ज़मीन औद्योगिक घरानों को सौंपने जा रही है । वक्त रहते लोग नहीं चेते , तो वो दिन दूर नहीं साँस लेने के लिये विशुद्ध हवा लेने के भी दाम चुकाना होंगे और संभव है राज्य सरकार विशुध्द प्राणवायु देने के एवज़ में कर वसूली करने लगे ।
मंगलवार, 11 अगस्त 2009
गोडसे ने नहीं मारा गाँधी को ......
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के शरीर में लगी गोलियाँ गोडसे के रिवॉल्वर की नहीं थीं। अदालत के फैसले में इस बात का उल्लेख उनकी हत्या पर कई सवाल ख़ड़े करता है। गाँधीगीरी शब्द बौद्धिक लुच्चापन है। फिल्म में इसका प्रयोग कोई खास बात नहीं है। कुछ इस तरह के सवाल उठाए हैं गाँधीवादी चिंतक प्रो. कुसुमलता केडिया ने।
सुश्री केडिया गाँधी विद्या संस्थान वाराणसी की निदेशक हैं। समाज विज्ञान और अर्थशास्त्र की जानकार सुश्री केडिया संस्था प्रज्ञा प्रवाह द्वारा गाँधीजी की पुस्तक "हिन्द स्वराज्य" के शताब्दी वर्ष पर आयोजित कार्यक्रम में भाग लेने इंदौर आई थीं । उन्होंने नईदुनिया के साथ बातचीत में गाँधीवाद की सरेआम उड़ाई जा रही धज्जियों पर कड़ा एतराज़ जताया । चर्चा के कुछ अंश-
आप जिस कार्यक्रम में आई हैं, वह संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की है। गाँधीजी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को संघ की विचारधारा से प्रेरित माना जाता है। क्या गाँधीवादी लोगों ने संघ को स्वीकारना प्रारंभ कर दिया है?
एक अखबार में दी गई जानकारी के अनुसार गाँधी हत्याकांड के फैसले में उल्लेख है कि गाँधीजी को जो गोलियाँ लगी थीं वे गोडसे के रिवॉल्वर की नहीं थीं। गोडसे की स्वीकारोक्ति भी कानूनी रूप से वैध नहीं है। इस हत्याकांड में चश्मदीद गवाह के परीक्षण में मनु और आभा की गवाही भी नहीं हुई थी। गोली रिवॉल्वर की नहीं बंदूक की थी। ऐसी परिस्थितियों के बाद गाँधीजी की हत्या के इस फैसले पर देश में व्यापक चर्चा नहीं होना दुर्भाग्य की बात है। न गाँधीवादी और न ही कोई अन्य संगठन सच को सामने लाने का प्रयास कर रहा है। दूसरा पहलू यह है कि हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध तो लगा दिया गया था पर एफआईआर दर्ज नहीं की गई थी। बाद में इसे बिना शर्त के समाप्त कर दिया गया था। संघ कहाँ दोषी था इस बात की जानकारी नहीं है।
आपने इसके लिए क्या प्रयास किए?
कई बार गाँधीवादी लोगों को फैसले की प्रति के लिए पत्र लिखे।
गाँधीगीरी के नाम पर राजनीति चल रही है। क्या युवाओं के बीच गाँधी को लाने का यह सही तरीका है?
गाँधीगीरी शब्द बौद्धिक लुच्चापन है। फिल्म में इसका उपयोग खास बात नहीं है। लेकिन शासक वर्ग द्वारा इसे सिर च़ढ़ाना बौद्धिक दिवालियापन है। इसकी बजाए युवाओं को राष्ट्रपिता की देशभक्ति व स्वाभिमान से परिचित कराया जाए तो उन्हें सही मार्गदर्शन मिलेगा।
गाँधीजी के प्रखर हिन्दुत्व के चेहरे को क्यों नहीं उजागर किया गया?
भारत के विभाजन के बाद देश में प्रचंड हिन्दू आक्रोश जागा था। जनमत भी शरणार्थियों की विपदा देख कर शासन के विरुद्ध हो गया था। शासन में बने रहने के लिए ऐसे तत्वों के समर्थन की जरूरत थी जिनकी हिन्दू संवेदना क्षीण हो किंतु देश को भी स्वीकार हो। इसलिए प्रयोजनपूर्वक गाँधीजी के प्रखर हिन्दुत्व के चेहरे को ढँका गया। मशीन विरोध, वकील विरोध को उभारा गया। जिससे गाँधीजी अप्रासंगिक हो जाएँ।
देश में नेता पवित्र खादी को पहन कर काले कारनामे कर रहे हैं, जबकि आम आदमी इससे दूर है।
नेताओं ने खादी छो़ड़ दी है। बहुत सारे नेता अब इसका उपयोग डिजाइनर ड्रेस के रूप में कर रहे हैं। पहले खादी राजनीतिक पहचान होती थी। आजकल फैशन का पर्याय बनती जा रही है।
देश के सरकारी ऑफिसों में गाँधीजी की तस्वीर के नीचे खुलेआम रिश्वत ली जा रही है। गाँधीवादी इसे हटाने की माँग क्यों नहीं करते हैं?
रिश्वत, व्यवस्था के नंगेपन को उजागर कर रही है। सरकारी कार्यालयों में गाँधीजी की तस्वीर लगी होने के कारण ही देश ठाठ से चल रहा है। यहाँ पर गाँधीजी के साथ स्वामी विवेकानंद व सुभाषचंद बोस की तस्वीर भी लगा दी जानी चाहिए। जिससे नंगापन दिखाने वालों को कुछ शर्म आए।
गरीबी दूर करने व गाँवों के विकास में गाँधी दर्शन कितना प्रासंगिक है?
देश में पिछले ६० सालों में आर्थिक समृद्धि ब़ढ़ी है। गरीबी के हल के लिए गाँधी के सिद्धांतों की जरूरत नहीं है। शासक वर्ग को संयमित व संतुलित कर दिया जाए तो देश संपन्न हो जाएगा। कांग्रेस ने पिछले २० सालों में गाँधी के ग्राम स्वावलंबन के सिद्धांत को लागू नहीं किया है। उन्होंने पंचायती राज व्यवस्था को लागू किया। यह ग्राम स्वराज्य से भिन्न है। इससे गाँवों का विकास नहीं विनाश हुआ है।
गाँधीवादी सिद्धांतों के बारे में आप क्या सोचती हैं?
देश का शासक वर्ग गाँवों को मजबूत करने की बजाए शहरों को मजबूत करने में लगा है। गाँधीजी के विचारों के विपरीत माहौल है। जबकि प्राणवान (देश व समाज को चलाने वाला) वर्ग गाँधी परंपरा के अनुरूप कार्य कर रहा है।
नईदुनिया से साभार
सुश्री केडिया गाँधी विद्या संस्थान वाराणसी की निदेशक हैं। समाज विज्ञान और अर्थशास्त्र की जानकार सुश्री केडिया संस्था प्रज्ञा प्रवाह द्वारा गाँधीजी की पुस्तक "हिन्द स्वराज्य" के शताब्दी वर्ष पर आयोजित कार्यक्रम में भाग लेने इंदौर आई थीं । उन्होंने नईदुनिया के साथ बातचीत में गाँधीवाद की सरेआम उड़ाई जा रही धज्जियों पर कड़ा एतराज़ जताया । चर्चा के कुछ अंश-
आप जिस कार्यक्रम में आई हैं, वह संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की है। गाँधीजी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को संघ की विचारधारा से प्रेरित माना जाता है। क्या गाँधीवादी लोगों ने संघ को स्वीकारना प्रारंभ कर दिया है?
एक अखबार में दी गई जानकारी के अनुसार गाँधी हत्याकांड के फैसले में उल्लेख है कि गाँधीजी को जो गोलियाँ लगी थीं वे गोडसे के रिवॉल्वर की नहीं थीं। गोडसे की स्वीकारोक्ति भी कानूनी रूप से वैध नहीं है। इस हत्याकांड में चश्मदीद गवाह के परीक्षण में मनु और आभा की गवाही भी नहीं हुई थी। गोली रिवॉल्वर की नहीं बंदूक की थी। ऐसी परिस्थितियों के बाद गाँधीजी की हत्या के इस फैसले पर देश में व्यापक चर्चा नहीं होना दुर्भाग्य की बात है। न गाँधीवादी और न ही कोई अन्य संगठन सच को सामने लाने का प्रयास कर रहा है। दूसरा पहलू यह है कि हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध तो लगा दिया गया था पर एफआईआर दर्ज नहीं की गई थी। बाद में इसे बिना शर्त के समाप्त कर दिया गया था। संघ कहाँ दोषी था इस बात की जानकारी नहीं है।
आपने इसके लिए क्या प्रयास किए?
कई बार गाँधीवादी लोगों को फैसले की प्रति के लिए पत्र लिखे।
गाँधीगीरी के नाम पर राजनीति चल रही है। क्या युवाओं के बीच गाँधी को लाने का यह सही तरीका है?
गाँधीगीरी शब्द बौद्धिक लुच्चापन है। फिल्म में इसका उपयोग खास बात नहीं है। लेकिन शासक वर्ग द्वारा इसे सिर च़ढ़ाना बौद्धिक दिवालियापन है। इसकी बजाए युवाओं को राष्ट्रपिता की देशभक्ति व स्वाभिमान से परिचित कराया जाए तो उन्हें सही मार्गदर्शन मिलेगा।
गाँधीजी के प्रखर हिन्दुत्व के चेहरे को क्यों नहीं उजागर किया गया?
भारत के विभाजन के बाद देश में प्रचंड हिन्दू आक्रोश जागा था। जनमत भी शरणार्थियों की विपदा देख कर शासन के विरुद्ध हो गया था। शासन में बने रहने के लिए ऐसे तत्वों के समर्थन की जरूरत थी जिनकी हिन्दू संवेदना क्षीण हो किंतु देश को भी स्वीकार हो। इसलिए प्रयोजनपूर्वक गाँधीजी के प्रखर हिन्दुत्व के चेहरे को ढँका गया। मशीन विरोध, वकील विरोध को उभारा गया। जिससे गाँधीजी अप्रासंगिक हो जाएँ।
देश में नेता पवित्र खादी को पहन कर काले कारनामे कर रहे हैं, जबकि आम आदमी इससे दूर है।
नेताओं ने खादी छो़ड़ दी है। बहुत सारे नेता अब इसका उपयोग डिजाइनर ड्रेस के रूप में कर रहे हैं। पहले खादी राजनीतिक पहचान होती थी। आजकल फैशन का पर्याय बनती जा रही है।
देश के सरकारी ऑफिसों में गाँधीजी की तस्वीर के नीचे खुलेआम रिश्वत ली जा रही है। गाँधीवादी इसे हटाने की माँग क्यों नहीं करते हैं?
रिश्वत, व्यवस्था के नंगेपन को उजागर कर रही है। सरकारी कार्यालयों में गाँधीजी की तस्वीर लगी होने के कारण ही देश ठाठ से चल रहा है। यहाँ पर गाँधीजी के साथ स्वामी विवेकानंद व सुभाषचंद बोस की तस्वीर भी लगा दी जानी चाहिए। जिससे नंगापन दिखाने वालों को कुछ शर्म आए।
गरीबी दूर करने व गाँवों के विकास में गाँधी दर्शन कितना प्रासंगिक है?
देश में पिछले ६० सालों में आर्थिक समृद्धि ब़ढ़ी है। गरीबी के हल के लिए गाँधी के सिद्धांतों की जरूरत नहीं है। शासक वर्ग को संयमित व संतुलित कर दिया जाए तो देश संपन्न हो जाएगा। कांग्रेस ने पिछले २० सालों में गाँधी के ग्राम स्वावलंबन के सिद्धांत को लागू नहीं किया है। उन्होंने पंचायती राज व्यवस्था को लागू किया। यह ग्राम स्वराज्य से भिन्न है। इससे गाँवों का विकास नहीं विनाश हुआ है।
गाँधीवादी सिद्धांतों के बारे में आप क्या सोचती हैं?
देश का शासक वर्ग गाँवों को मजबूत करने की बजाए शहरों को मजबूत करने में लगा है। गाँधीजी के विचारों के विपरीत माहौल है। जबकि प्राणवान (देश व समाज को चलाने वाला) वर्ग गाँधी परंपरा के अनुरूप कार्य कर रहा है।
नईदुनिया से साभार
सोमवार, 10 अगस्त 2009
वाकई जानलेवा है स्वाइन फ़्लू .....?
आखिरकर मीडिया की छह महीने की मेहनत रंग ले ही आई । एक बार तो लगा था कि हो हल्ला मचाने में माहिर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का हर वार ,हर पैंतरा इस बार खाली ही चला जाएगा और स्वाइन फ़्लू के जीवाणु को गुमनामी की मौत ही मर जाना होगा । लेकिन देर से ही सही भारत की जनता ने स्वाइन फ़्लू के जीवाणु के आगे घुटने टेक ही दिये । अब अमीर देशों की दवा कंपनियों की चाँदी है और मास्क बनाने वाले कुटीर उद्योग के ज़रिये लाखों हाथों को मंदी के दौर में काम मिल गया है ।
स्वाइन फ़्लू जानलेवा है या नहीं यह अब भी बहस का मुद्दा बना हुआ है । मगर उससे मौत का आँकड़ा एकाएक बढ़ना वाकई चौंकाने वाला है । मीडिया एक बार फ़िर या तो अंतरराष्ट्रीय दबाव के आगे बौना साबित हो गया या बड़ी दवा कंपनियों और विदेशी ताकतों से आर्थिक लाभ लेने के लालच में फ़ँस कर देश की आम जनता को गुमराह करने का काम कर रहा है ।
ज़्यादा वक्त नहीं गुज़रा है ,जब आर्थिक तरक्की की राह पर कुलाँचे भर रहे चीन की रफ़्तार थामने के लिये उस पर "सार्स" फ़ैलाने की तोहमत जड़ी गई थी । आज सार्स का जीवाणु कहाँ है ,कोई नहीं जानता । इसी तरह बर्ड फ़्लू के नाम पर मीडिया की मिलीभगत से हौव्वा खड़ा किया गया था । कहा जाता है कि युवाओं की चिकन में बढ़ती दिलचस्पी ने रेड मीट के कारोबार को ठंडा कर दिया था । माँस व्यवसायियों ने अपना धंधा चमकाने के लिये मीडिया की मदद से लाखों - करोडों मुर्गियों को तंदूर और कड़ाही में भुनने की बजाय गड्ढ़ों में दफ़्न होने के लिये माहौल बना दिया ।
बहरहाल मुझे लगता है कि इससे डरने की कतई ज़रुरत नहीं है । इन दिनों दाल काफ़ी महँगी चल रही है , ऎसे में दाल का नाम लेने से भी बजट बिगड़ता सा लगता है । मगर फ़िर भी कहना ही पड़ेगा कि स्वाइन फ़्लू के मामले में दाल में कुछ काला तो ज़रुर है । वैसे आप मेरे बात पर ऎतबार ना करना चाहें , तो मर्ज़ी आपकी । मीडिया की बात पर गौर करते हुए सावधानी बरतना चाहें ,तो कोई हर्ज़ भी नहीं ।
वैसे स्वाइन फ़्लू का होम्योपैथी से इलाज करने का मुम्बई के एक मेडिकल प्रैक्टिशनर ने दावा किया है। डॉ. मुकेश बत्रा का दावा है कि टैमीफ्लू ही इस बीमारी के उपचार की एकमात्र दवा नहीं है। लोग स्वाइन फ्लू से बचाव और उपचार के लिए होम्योपैथी की दवाएं ले सकते हैं। इन दवाओं को चिकित्सकीय परीक्षण में कारगर पाया गया है।
डॉ. बत्रा के अनुसार, ‘ओसिलोकोकिनियम 30’ और ‘इन्फ्लूएंजियम 200’ नाम की दवाएं स्वाइन फ्लू की रोकथाम के साथ शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ाती हैं। एक और होम्योपैथिक दवा ‘जेलसेमियम 30’ को भी फ्रांस के डॉक्टरों ने स्वाइन फ्लू के इलाज में कारगर पाया है। इस बात के प्रमाण ब्रिटिश पत्रिका क्लीनिकल मेडिसिन में भी मौजूद हैं। बत्रा ने कहा कि 1917-18 के दौरान फैले स्पैनिश फ्लू के समय होम्योपैथी की दवा के कारण इस बीमारी से मरने वालों की दर 30 से घटकर एक फीसदी रह गई थी।
उधर पीने वालों को पीने का बहाना खोजने वालों के लिये भी खुशखबरी है । रूस में स्वाइन फ्लू से निपटने के लिए एक नया तरीका इजाद किया गया है। रूसी फुटबाल फैंस एसोसिएशन ने खेल प्रेमियों को स्वाइन फ्लू से बचने के लिए व्हिस्की पीने की सलाह दी है। अब खुद ही तय कर लीजिये कि इस अजीबो ग़रीब बीमारी से दो-दो हाथ करने के लिये आप कौन सा तरीका अख्तियार करना पसंद करेंगे ।
बावजूद इसके ,यह याद रखना ज़रुरी है कि आदमी मौत से नहीं मौत के खौफ़ से मात खा जाता है । बीमारी से मरने वालों की तादाद शायद उतनी नहीं होती ,जितनी बीमारी से खौफ़ज़दा होकर दम तोड़ने वालों की । बाबू मोशाय , ज़िन्दगी और मौत ऊपर वाले के हाथ में है । कोई डर नहीं । मास्क लगाकर नहीं खुलकर साँस लीजिये । तीन लेयर वाले ये मास्क दमघोंट देने के लिये काफ़ी हैं ।
( करीब दो महीने बाद ब्लॉग जगत में वापसी हो सकी है । अपने बड़े बेटे दुष्यन्त के लिये बेहतर भविष्य की तलाश की व्यस्तता ने कुछ और सोचनेका मौका ही नहीं दिया । देश में तरह- तरह के कोटे सामान्य श्रेणी के प्रतिभावान छात्रों के लिये अभिशाप बन चुके हैं । कट ऑफ़ में रियायत देने के बावजूद करीब पचास फ़ीसदी सीटें रिज़र्व करने का औचित्य समझ से परे है । कुछ साल पहले तक समाज के जो वर्ग सामान्य थे वो लालू,मुल्लू ,पासवान जैसे लोगों की बदौलत अब पिछड़े वर्ग की आरक्षण की मलाई सूंतने में लग गये हैं । बहरहाल , दुष्यन्त राँची के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ फ़ाउंड्री एंड फ़ोर्ज टेक्नॉलॉजी में मेटलरजी ब्राँच मे दाखिला पा चुके हैं । पंद्रह दिनों में दो बार राँची जाना हुआ । काफ़ी अच्छा शहर है और वहाँ के लोग भी बेहद सहज- सरल तथा मददगार लगे । )
स्वाइन फ़्लू जानलेवा है या नहीं यह अब भी बहस का मुद्दा बना हुआ है । मगर उससे मौत का आँकड़ा एकाएक बढ़ना वाकई चौंकाने वाला है । मीडिया एक बार फ़िर या तो अंतरराष्ट्रीय दबाव के आगे बौना साबित हो गया या बड़ी दवा कंपनियों और विदेशी ताकतों से आर्थिक लाभ लेने के लालच में फ़ँस कर देश की आम जनता को गुमराह करने का काम कर रहा है ।
ज़्यादा वक्त नहीं गुज़रा है ,जब आर्थिक तरक्की की राह पर कुलाँचे भर रहे चीन की रफ़्तार थामने के लिये उस पर "सार्स" फ़ैलाने की तोहमत जड़ी गई थी । आज सार्स का जीवाणु कहाँ है ,कोई नहीं जानता । इसी तरह बर्ड फ़्लू के नाम पर मीडिया की मिलीभगत से हौव्वा खड़ा किया गया था । कहा जाता है कि युवाओं की चिकन में बढ़ती दिलचस्पी ने रेड मीट के कारोबार को ठंडा कर दिया था । माँस व्यवसायियों ने अपना धंधा चमकाने के लिये मीडिया की मदद से लाखों - करोडों मुर्गियों को तंदूर और कड़ाही में भुनने की बजाय गड्ढ़ों में दफ़्न होने के लिये माहौल बना दिया ।
बहरहाल मुझे लगता है कि इससे डरने की कतई ज़रुरत नहीं है । इन दिनों दाल काफ़ी महँगी चल रही है , ऎसे में दाल का नाम लेने से भी बजट बिगड़ता सा लगता है । मगर फ़िर भी कहना ही पड़ेगा कि स्वाइन फ़्लू के मामले में दाल में कुछ काला तो ज़रुर है । वैसे आप मेरे बात पर ऎतबार ना करना चाहें , तो मर्ज़ी आपकी । मीडिया की बात पर गौर करते हुए सावधानी बरतना चाहें ,तो कोई हर्ज़ भी नहीं ।
वैसे स्वाइन फ़्लू का होम्योपैथी से इलाज करने का मुम्बई के एक मेडिकल प्रैक्टिशनर ने दावा किया है। डॉ. मुकेश बत्रा का दावा है कि टैमीफ्लू ही इस बीमारी के उपचार की एकमात्र दवा नहीं है। लोग स्वाइन फ्लू से बचाव और उपचार के लिए होम्योपैथी की दवाएं ले सकते हैं। इन दवाओं को चिकित्सकीय परीक्षण में कारगर पाया गया है।
डॉ. बत्रा के अनुसार, ‘ओसिलोकोकिनियम 30’ और ‘इन्फ्लूएंजियम 200’ नाम की दवाएं स्वाइन फ्लू की रोकथाम के साथ शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ाती हैं। एक और होम्योपैथिक दवा ‘जेलसेमियम 30’ को भी फ्रांस के डॉक्टरों ने स्वाइन फ्लू के इलाज में कारगर पाया है। इस बात के प्रमाण ब्रिटिश पत्रिका क्लीनिकल मेडिसिन में भी मौजूद हैं। बत्रा ने कहा कि 1917-18 के दौरान फैले स्पैनिश फ्लू के समय होम्योपैथी की दवा के कारण इस बीमारी से मरने वालों की दर 30 से घटकर एक फीसदी रह गई थी।
उधर पीने वालों को पीने का बहाना खोजने वालों के लिये भी खुशखबरी है । रूस में स्वाइन फ्लू से निपटने के लिए एक नया तरीका इजाद किया गया है। रूसी फुटबाल फैंस एसोसिएशन ने खेल प्रेमियों को स्वाइन फ्लू से बचने के लिए व्हिस्की पीने की सलाह दी है। अब खुद ही तय कर लीजिये कि इस अजीबो ग़रीब बीमारी से दो-दो हाथ करने के लिये आप कौन सा तरीका अख्तियार करना पसंद करेंगे ।
बावजूद इसके ,यह याद रखना ज़रुरी है कि आदमी मौत से नहीं मौत के खौफ़ से मात खा जाता है । बीमारी से मरने वालों की तादाद शायद उतनी नहीं होती ,जितनी बीमारी से खौफ़ज़दा होकर दम तोड़ने वालों की । बाबू मोशाय , ज़िन्दगी और मौत ऊपर वाले के हाथ में है । कोई डर नहीं । मास्क लगाकर नहीं खुलकर साँस लीजिये । तीन लेयर वाले ये मास्क दमघोंट देने के लिये काफ़ी हैं ।
( करीब दो महीने बाद ब्लॉग जगत में वापसी हो सकी है । अपने बड़े बेटे दुष्यन्त के लिये बेहतर भविष्य की तलाश की व्यस्तता ने कुछ और सोचनेका मौका ही नहीं दिया । देश में तरह- तरह के कोटे सामान्य श्रेणी के प्रतिभावान छात्रों के लिये अभिशाप बन चुके हैं । कट ऑफ़ में रियायत देने के बावजूद करीब पचास फ़ीसदी सीटें रिज़र्व करने का औचित्य समझ से परे है । कुछ साल पहले तक समाज के जो वर्ग सामान्य थे वो लालू,मुल्लू ,पासवान जैसे लोगों की बदौलत अब पिछड़े वर्ग की आरक्षण की मलाई सूंतने में लग गये हैं । बहरहाल , दुष्यन्त राँची के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ फ़ाउंड्री एंड फ़ोर्ज टेक्नॉलॉजी में मेटलरजी ब्राँच मे दाखिला पा चुके हैं । पंद्रह दिनों में दो बार राँची जाना हुआ । काफ़ी अच्छा शहर है और वहाँ के लोग भी बेहद सहज- सरल तथा मददगार लगे । )
लेबल:
मास्क,
राँची,
स्वाइन फ़्लू,
होम्योपैथिक दवा,
होम्योपैथी
गुरुवार, 11 जून 2009
नशे में कौन नहीं है,मुझे बताओ ज़रा...!
नशा शराब में होता तो नाचती बोतल......। सदी के महानायक ने अपनी पहली पारी की मशहूर फ़िल्म "शराबी" में देवताओं के प्रिय पेय यानी सुरा की पैरवी करते हुए ऎसा ज़बरदस्त तर्क दिया कि आज तक उसका तोड़ कोई नहीं ढ़ूँढ़ पाया । अपने चारों ओर नज़र घुमाकर देखो तो "शराबी" की बात में दम दिखाई देता है । मदिराप्रेमी तो बेचारे मुफ़्त ही बदनाम हैं । नशा कहाँ नहीं और किसका नहीं है । यकीन ना हो तो वामपंथियों से पूछ देखिये । कार्ल मार्क्स के अनुयायी आपको बतायेंगे कि धर्म एक अफ़ीम है जो धार्मिक आस्था में डूबे लोगों को रोज़मर्रा की जद्दोजहद से दूर ले जाकर हमेशा गा़फ़िल रखती है ।
मुझे भी अब इन सब बातों पर यकीन सा हो चला है । आजकल भोपाल में किस्म-किस्म के नशे में चूर लोग आमने-सामने हैं । धर्म के ठेकेदार शराब ठेकेदारों के खिलाफ़ लामबंद होकर सत्ता के अड़तियों ललकार रहे हैं । प्रदेश में शराब सस्ती और पानी दुर्लभ है । आलम ये है कि पुण्य कमाने के लिये प्याऊ खोलने वालों का टोटा पड़ गया है । पानी का पाउच महँगा और लाल पानी सस्ता है । हर चौराहे पर पानी की टंकी मिले ना मिले, देशी-विदेशी शराब की दुकान देर रात खुली मिलने की पूरी गारंटी है । आखिर हो भी क्यों ना ! बोतल में भरी शराब का नशा तो गले से नीचे उतरने पर ही चढ़ता है लेकिन सत्ता के मद में चूर नेताओं की शराब ठेके बढाने की नीति का जवाब भला है किसी के पास ?
जब से बीजेपी ने सत्ता संभाली है प्रदेश में तीन चीज़ें बेतहाशा बढ़ी हैं- सड़क किनारे गुमटियाँ,कदम-कदम पर मंदिर और गली-मोहल्लों में शराब की दुकानें । अब हालत ये है कि इधर सिंदूर पुते गोलमटोल हनुमानजी बिराजे हैं और उधर सड़कों पर लोट लगाते सुराप्रेमी हैं । इधर बोतल गटकते बच्चे-बूढ़े और जवान हैं,तो उधर शिंगनापुर से पधारे न्याय के देवता शनिदेव सौ रुपए लीटर तक जा पहुँचे सरसों के तेल से मल-मल कर अंगराग कर रहे हैं । कायदे से देखा जाये तो एक ही जगह सभी की पसंद का ख्याल रखा गया है । आप चाहें तो अंगूर की बेटी से दोस्ती कर लें या फ़िर धर्म की अफ़ीम चाटकर दानपेटी के रास्ते अपने पाप धो लें । हर मढ़िया पर जंज़ीरों में जकड़ी ताले की पहरेदारी में रखा दानपात्र दुनिया का हर पाप कर्म धोकर "सुपर रिन की चमकार" का भरोसा दिलाता है ।
घोड़ी नहीं चढ़े तो क्या बारातें तो खूब देखी हैं । कहने का मतलब ये कि शराब के हैंगओवर से बाहर आने के लिये पियक्कड़ तरह- तरह की तरकीब आज़माते हैं । इसी तरह धर्म की अफ़ीम को हेरोइन,ब्राउन शुगर और कोकेन में तब्दील करने के लिये यज्ञ,हवन,प्रवचन,प्राणप्रतिष्ठा और शोभायात्रा की भट्टी चढ़ाई जाती है ।
आजकल अपनी ज़िम्मेदारियों से जी चुराकर भागे लोगों में भगवा चोला धारण करने का चलन कुछ ज़्यादा ही बढ़ गया है । इन निठल्ले और निकम्मे लोगों ने जगह-जगह मंदिर तान लिये हैं । एक अनुमान के मुताबिक पिछले पाँच सालों में केवल भोपाल में चालीस हज़ार करोड़ रुपए से ज़्यादा की सरकारी ज़मीन मंदिर माफ़ियाओं के कब्ज़े में जा चुकी है । ठेला लगाकर रोज़ी-रोटी कमाने वालों पर नगर निगम की गाज गिरने में वक्त नहीं लगता । राजधानी के न्यू मार्केट, एमपी नगर , कमलापार्क जैसे कई व्यस्ततम इलाकों में करोड़ों की ज़मीन पर रातों रात पक्के मंदिर खड़े हो गये और नगर निगम को पता भी नहीं चला ....?????
हद तो तब हो गई, जब भोपाल की संस्कृति को सजाने-सँवारने का दावा पेश करने वाले समाचार पत्र राजस्थान पत्रिका ने इन मंदिरों के रखरखाव के लिये आर्थिक मदद की माँग कर डाली । इन मंदिरों की तस्वीर के साथ खबर छाप कर अखबार कौन सी संस्कृति तैयार कर रहा है ? जिन अतिक्रमणकारियों और उनके खैरख्वाहों को जेल में ठूँस कर कोड़ों से उधेड़ देना चाहिये,धर्म की आड़ लेकर उनकी वकालत करना कहाँ की समझदारी है ?
हाल ही में दम तोड़ चुके बड़े तालाब को आखिरी सलाम देने के लिये लेक व्यू रोड के रास्ते पर बने सरकारी श्रमदान (शर्मदान) स्थल पर जाने का मौका मिला । देखकर हैरानी हुई कि कल तक जहाँ पानी हिलोरें मारता था वहाँ बड़ा भारी पक्का चबूतरा बन चुका है । कई सिंदूर पुते पत्थर सजीव हो चले हैं । गौर करने वाली बात ये है कि यहाँ नगर निगम का अमला रोज़ सैकड़ों ट्रक मिट्टी निकालने का काम करता है । आये दिन मुख्यमंत्री,मंत्री,आला अधिकारी और नेता श्रमदान के फ़ोटो सेशन के लिये पधारते रहते हैं ।
बहरहाल, अतिक्रमणकारी छद्म बाबाओं ने आजकल शराब की दुकाने हटाने के मुद्दे को लेकर राजधानी में बवाल मचा रखा है । मेरी राय में सरकार को शराब की दुकान हटाने से पहले सभी मंदिरों को नेस्तनाबूद कर देना चाहिये । मुफ़्त की रोटियाँ तोड़-तोड़कर ये निठल्ले लोग गर्रा गये हैं । गुर्राने से शुरु हुए ये निकम्मे अब गरियाने लगे हैं । भोपाल को अपनी रियासत समझकर दरबार सजाने वाले नगरीय प्रशासन मंत्री बाबूलाल गौर से भी सवाल है कि भोपाल को स्विटज़रर्लैंड बनाने का ख्वाब दिखाने के बाद पिछले छह सालों में क्या दिया उन्होंने ? चारों तरफ़ गड्ढे, बेतहाशा बढ़ते झुग्गियों के जंगल और बिल्डरों के लालच के चलते डायनामाइट के विस्फ़ोट में अपना अस्तित्व गवाँ चुकी खूबसूरत पहाडियाँ ...???? नशे में कौन नहीं है,मुझे बताओ ज़रा...!
मुझे भी अब इन सब बातों पर यकीन सा हो चला है । आजकल भोपाल में किस्म-किस्म के नशे में चूर लोग आमने-सामने हैं । धर्म के ठेकेदार शराब ठेकेदारों के खिलाफ़ लामबंद होकर सत्ता के अड़तियों ललकार रहे हैं । प्रदेश में शराब सस्ती और पानी दुर्लभ है । आलम ये है कि पुण्य कमाने के लिये प्याऊ खोलने वालों का टोटा पड़ गया है । पानी का पाउच महँगा और लाल पानी सस्ता है । हर चौराहे पर पानी की टंकी मिले ना मिले, देशी-विदेशी शराब की दुकान देर रात खुली मिलने की पूरी गारंटी है । आखिर हो भी क्यों ना ! बोतल में भरी शराब का नशा तो गले से नीचे उतरने पर ही चढ़ता है लेकिन सत्ता के मद में चूर नेताओं की शराब ठेके बढाने की नीति का जवाब भला है किसी के पास ?
जब से बीजेपी ने सत्ता संभाली है प्रदेश में तीन चीज़ें बेतहाशा बढ़ी हैं- सड़क किनारे गुमटियाँ,कदम-कदम पर मंदिर और गली-मोहल्लों में शराब की दुकानें । अब हालत ये है कि इधर सिंदूर पुते गोलमटोल हनुमानजी बिराजे हैं और उधर सड़कों पर लोट लगाते सुराप्रेमी हैं । इधर बोतल गटकते बच्चे-बूढ़े और जवान हैं,तो उधर शिंगनापुर से पधारे न्याय के देवता शनिदेव सौ रुपए लीटर तक जा पहुँचे सरसों के तेल से मल-मल कर अंगराग कर रहे हैं । कायदे से देखा जाये तो एक ही जगह सभी की पसंद का ख्याल रखा गया है । आप चाहें तो अंगूर की बेटी से दोस्ती कर लें या फ़िर धर्म की अफ़ीम चाटकर दानपेटी के रास्ते अपने पाप धो लें । हर मढ़िया पर जंज़ीरों में जकड़ी ताले की पहरेदारी में रखा दानपात्र दुनिया का हर पाप कर्म धोकर "सुपर रिन की चमकार" का भरोसा दिलाता है ।
घोड़ी नहीं चढ़े तो क्या बारातें तो खूब देखी हैं । कहने का मतलब ये कि शराब के हैंगओवर से बाहर आने के लिये पियक्कड़ तरह- तरह की तरकीब आज़माते हैं । इसी तरह धर्म की अफ़ीम को हेरोइन,ब्राउन शुगर और कोकेन में तब्दील करने के लिये यज्ञ,हवन,प्रवचन,प्राणप्रतिष्ठा और शोभायात्रा की भट्टी चढ़ाई जाती है ।
आजकल अपनी ज़िम्मेदारियों से जी चुराकर भागे लोगों में भगवा चोला धारण करने का चलन कुछ ज़्यादा ही बढ़ गया है । इन निठल्ले और निकम्मे लोगों ने जगह-जगह मंदिर तान लिये हैं । एक अनुमान के मुताबिक पिछले पाँच सालों में केवल भोपाल में चालीस हज़ार करोड़ रुपए से ज़्यादा की सरकारी ज़मीन मंदिर माफ़ियाओं के कब्ज़े में जा चुकी है । ठेला लगाकर रोज़ी-रोटी कमाने वालों पर नगर निगम की गाज गिरने में वक्त नहीं लगता । राजधानी के न्यू मार्केट, एमपी नगर , कमलापार्क जैसे कई व्यस्ततम इलाकों में करोड़ों की ज़मीन पर रातों रात पक्के मंदिर खड़े हो गये और नगर निगम को पता भी नहीं चला ....?????
हद तो तब हो गई, जब भोपाल की संस्कृति को सजाने-सँवारने का दावा पेश करने वाले समाचार पत्र राजस्थान पत्रिका ने इन मंदिरों के रखरखाव के लिये आर्थिक मदद की माँग कर डाली । इन मंदिरों की तस्वीर के साथ खबर छाप कर अखबार कौन सी संस्कृति तैयार कर रहा है ? जिन अतिक्रमणकारियों और उनके खैरख्वाहों को जेल में ठूँस कर कोड़ों से उधेड़ देना चाहिये,धर्म की आड़ लेकर उनकी वकालत करना कहाँ की समझदारी है ?
हाल ही में दम तोड़ चुके बड़े तालाब को आखिरी सलाम देने के लिये लेक व्यू रोड के रास्ते पर बने सरकारी श्रमदान (शर्मदान) स्थल पर जाने का मौका मिला । देखकर हैरानी हुई कि कल तक जहाँ पानी हिलोरें मारता था वहाँ बड़ा भारी पक्का चबूतरा बन चुका है । कई सिंदूर पुते पत्थर सजीव हो चले हैं । गौर करने वाली बात ये है कि यहाँ नगर निगम का अमला रोज़ सैकड़ों ट्रक मिट्टी निकालने का काम करता है । आये दिन मुख्यमंत्री,मंत्री,आला अधिकारी और नेता श्रमदान के फ़ोटो सेशन के लिये पधारते रहते हैं ।
बहरहाल, अतिक्रमणकारी छद्म बाबाओं ने आजकल शराब की दुकाने हटाने के मुद्दे को लेकर राजधानी में बवाल मचा रखा है । मेरी राय में सरकार को शराब की दुकान हटाने से पहले सभी मंदिरों को नेस्तनाबूद कर देना चाहिये । मुफ़्त की रोटियाँ तोड़-तोड़कर ये निठल्ले लोग गर्रा गये हैं । गुर्राने से शुरु हुए ये निकम्मे अब गरियाने लगे हैं । भोपाल को अपनी रियासत समझकर दरबार सजाने वाले नगरीय प्रशासन मंत्री बाबूलाल गौर से भी सवाल है कि भोपाल को स्विटज़रर्लैंड बनाने का ख्वाब दिखाने के बाद पिछले छह सालों में क्या दिया उन्होंने ? चारों तरफ़ गड्ढे, बेतहाशा बढ़ते झुग्गियों के जंगल और बिल्डरों के लालच के चलते डायनामाइट के विस्फ़ोट में अपना अस्तित्व गवाँ चुकी खूबसूरत पहाडियाँ ...???? नशे में कौन नहीं है,मुझे बताओ ज़रा...!
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शनिवार, 6 जून 2009
पर्यावरण की चिंता या चिंता का नाटक
देश- दुनिया में कल का दिन पर्यावरण के नाम रहा । लोगों ने बिगड़ते पर्यावरण पर खूब आँसू बहाये, बड़े होटलों में सेमिनार किये, भारी भरकम शब्दावली के साथ बिगड़ते मौसम की चिंता की,मिनरल वॉटर के साथ सेंडविच-बर्गर का स्वाद लिया और इतनी थका देने वाली कवायद के साथ ही दुनिया की आबोहवा में खुशनुमा बदलाव आ गया । देश-दुनिया का तो पता नहीं लेकिन हमारे भोपाल में तो नौकरशाह और नेताओं में पर्यावरण के प्रति जागरुकता लाने की होड़ सी मची रही । नेता वृक्ष लगाते हुए फ़ोटो खिंचा कर ही संतुष्ट नज़र आए वहीं स्वयंसेवी संगठनों की राजनीति कर रहे वरिष्ठों की सफ़लता से प्रेरणा लेते हुए कुछ नौकरशाहों ने पर्यावरण के बैनर वाली दुकान सजाने की तैयारी कर ली ।
हमारे शहर का चार इमली (वास्तविक नाम चोर इमली) नौकरशाहों के बसेरे के लिये जाना जाता है । जिस जगह इन आला अफ़सरों की आमद दर्ज़ हो जाती है,उसके दिन फ़िरना तो तय है । इसलिये चार इमली का सुनसान इलाका अब चमन है और कई खूबसूरत पार्कों से घिरा है । पास ही एकांत पार्क है,कई किलोमीटर में फ़ैला यह उद्यान नौकरशाहों की पहली पसंद है और यहाँ की "सुबह की सैर" का रसूखदार तबके में अपना ही महत्व है । लिहाज़ा लोग दूर-दूर से मॉर्निंग वॉक के लिये मँहगी सरकारी गाड़ियों में सवार होकर पार्क पहुँचते हैं और हज़ारों लीटर पेट्रोल फ़ूँकने के बाद ये लोग गाड़ी से उतर कर पार्क में चर्बी जलाते हैं । मज़े की बात है कि सुबह की शुद्ध हवा में पेट्रोल-डीज़ल के धुएँ का ज़हर घोलने वाले ही कुछ खास मौकों पर पर्यावरण के सबसे बड़े पैरोकार बन जाते हैं ।
बहरहाल नौकरशाहों और रसूखदार लोगों की संस्था ग्रीन प्लेनेट साइकिल राइडर्स एसोसिएशन ने कल का दिन नो कार-मोटर बाइक डे के रुप में मनाया । इसके लिये अपने संपर्कों और रसूख का इस्तेमाल करते हुए संचार माध्यमों के ज़रिये माहौल बनाया गया । ऑस्ट्रेलिया से आयातित साइकलों पर सवार होकर मंत्रालय जाते हुए वीडियो तैयार कराये गये । सेना को भी इस मुहिम में शामिल किया गया । सो सेना के ट्रकों में लाद कर रैली स्थल तक साइकलें पहुँचाई गई । भोपाल से दिल्ली तक इस रैली की फ़ुटेज और आयोजक की बाइट दिखाई गई । लेकिन सवाल फ़िर वही कि क्या वास्तव में ये लोग पर्यावरण को लेकर गंभीर हैं ? क्या सचमुच बिगड़ता मौसम इन्हें बेचैन करता है या यह भी व्यक्तिगत दुकान सजाकर रिटायरमेंट के बाद का पक्का इंतज़ाम करने और प्रसिद्धि पाने की कवायद मात्र है ।
प्रदेश में हर साल बरसात में हरियाली महोत्सव मनाया जाता है । ज़ोर-शोर से बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण समारोह होते हैं । मंत्री और अधिकारी पौधे लगाते हुए फ़ोटो खिंचवाते हैं । हर ज़िले के वृक्षारोपण के लम्बे चौड़े आँकड़े अखबारों की शोभा बढ़ाते हैं । यदि इन में से चौथाई पेड़ भी अस्तित्व में होते, तो अब तक मध्यप्रदेश में पैर रखने को जगह मिलना मुश्किल होता । इधर मुख्यमंत्री जी कह रहे हैं कि वे और उनके मंत्रिमंडल के सभी सदस्य अब हर समारोह की शुरुआत पेड़ लगा कर करेंगे । लेकिन मुद्दे की बात यह भी है कि केवल पौधा लगा देने ही से तो काम नहीं बनता । शुरुआती सालों में उसकी देखभाल का ज़िम्मा कौन लेगा ? जंगलों में राजनीतिक संरक्षण में चल रही कटाई को कौन रोकेगा ?
बाघों और अन्य वन्य प्राणियों की मौतों के बढ़ते ग्राफ़ के लिये चर्चा में रहने वाले वन विभाग ने भी जानवरों के बाद अब पेड़ों को गोद देने की स्कीम तैयार की है । मध्यप्रदेश सरकार में इन दिनों एक अजीब सी परंपरा चल पड़ी है । घोषणावीर मुख्यमंत्री ने कहना शुरु कर दिया है कि हर काम सरकार के बूते की बात नहीं । जनता को भी आगे बढ़कर सहयोग करना होगा । ये बात कुछ हज़म नहीं हुई । जनता के पैसों पर सत्ता- सुख भोगें आप ,सरकारी खज़ाने को दोनों हाथों से लूटे सरकार और आखिर में काम करे जनता.....!!! ऎसे में सरकार या नेताओं की ज़रुरत ही कहाँ है ? जनता से सहयोग चाहिये,तो योजनाओं का पैसा सीधे जनता के हाथों में सौंपा जाए ।
मैं आज तक यह समझ नहीं पाई कि सड़कों पर नारे लगाने,रैली निकालने या सेमिनार करने से कोई भी समस्या कैसे हल हो पाती है । पर्यावरण नारों से नहीं संस्कारों से बचाया जा सकता है । बच्चों को शुरु से ही यह बताने की ज़रुरत होती है कि इंसानों की तरह ही हर जीव और वनस्पति में भी प्राण होते हैं । हमारी ही तरह वे सब भी धरती की ही संतानें हैं । इस नाते धरती पर उनका भी उतना ही हक है जितना हमारा ...???
हमें समझना होगा की प्रकृति और इंसानी संसार में ज़मीन आसमान का फ़र्क है । पर्यावरण तभी सुधरेगा जब हम अपने खुद के प्रति ईमानदार होंगे । हमारी दुनिया में हर चीज़ पैसे के तराज़ू पर तौली जाती है,लेकिन प्रकृति ये भेद नहीं जानती । वह कहती है कि तुम मुझसे से भरपूर लो लेकिन ज़्यादा ना सही कुछ तो लौटाओ । अगर वो भी ना कर सको तो कम से कम जो है उसे तो मत मिटाओ ।
खैर, प्राकृतिक संसाधनों और धरोहरों को सहेजने का जज़्बा रखने वाले लोगों को प्रकृति किस तरह नवाज़ती है । इसकी बानगी देखी जा सकती है जमशेदपुर में , जहाँ तालाब करा रहा है गरीब कन्याओं का विवाह -
पैसे के लिए अपनों से भी बैरभाव को आम बात मानने वाले इस भौतिकवादी युग में आपसी सहयोग और सहकारिता की अनूठी मिसाल पेश करने वाला एक गांव ऐसा है जहाँ स्वयं की निर्धनता को भूल ग्रामीण पिछले लगभग डे़ढ़ दशक से सामूहिक मछलीपालन के जरिए गरीब लडकियों की शादी करा रहे हैं। झारखंड के नक्सल प्रभावित पूर्वी सिंहभूम जिले के ब़ड़ाजु़ड़ी गांव के ग्रामीणों ने यह अनुकरणीय मिसाल पेश की है। लीज पर लिये सरकारी तालाब में मछलीपालन के जरिए अब तक एक सौ से अधिक निर्धन लड़कियों के हाथ पीले किये गये हैं । ७९ सदस्यों की प्रबंधन कमेटी संयुक्त बैंक खाते में जमा रकम की देखरेख करती है। ग्रामीणों ने तालाब में सामूहिक मछलीपालन की योजना लगभग पंद्रह साल पहले उस समय बनाई थी जब पैसे के अभाव में एक गरीब कन्या के विवाह में कठिनाई पैदा हो गई थी। गांव के कुछ लोगों की पहल पर तालाब लीज पर लिया गया तथा प्रबंधन कमेटी बनाई गई। इस कमेटी ने मछलीपालन की कमाई से पहले ही साल सात निर्धन कन्याओं की शादी कराई थी। अब तक यह आंक़ड़ा एक सौ की संख्या को पार कर गया है। ग्रामीण बुलंद हौसले के साथ अब भी इस नेक काम में लगे हैं।
हमारे शहर का चार इमली (वास्तविक नाम चोर इमली) नौकरशाहों के बसेरे के लिये जाना जाता है । जिस जगह इन आला अफ़सरों की आमद दर्ज़ हो जाती है,उसके दिन फ़िरना तो तय है । इसलिये चार इमली का सुनसान इलाका अब चमन है और कई खूबसूरत पार्कों से घिरा है । पास ही एकांत पार्क है,कई किलोमीटर में फ़ैला यह उद्यान नौकरशाहों की पहली पसंद है और यहाँ की "सुबह की सैर" का रसूखदार तबके में अपना ही महत्व है । लिहाज़ा लोग दूर-दूर से मॉर्निंग वॉक के लिये मँहगी सरकारी गाड़ियों में सवार होकर पार्क पहुँचते हैं और हज़ारों लीटर पेट्रोल फ़ूँकने के बाद ये लोग गाड़ी से उतर कर पार्क में चर्बी जलाते हैं । मज़े की बात है कि सुबह की शुद्ध हवा में पेट्रोल-डीज़ल के धुएँ का ज़हर घोलने वाले ही कुछ खास मौकों पर पर्यावरण के सबसे बड़े पैरोकार बन जाते हैं ।
बहरहाल नौकरशाहों और रसूखदार लोगों की संस्था ग्रीन प्लेनेट साइकिल राइडर्स एसोसिएशन ने कल का दिन नो कार-मोटर बाइक डे के रुप में मनाया । इसके लिये अपने संपर्कों और रसूख का इस्तेमाल करते हुए संचार माध्यमों के ज़रिये माहौल बनाया गया । ऑस्ट्रेलिया से आयातित साइकलों पर सवार होकर मंत्रालय जाते हुए वीडियो तैयार कराये गये । सेना को भी इस मुहिम में शामिल किया गया । सो सेना के ट्रकों में लाद कर रैली स्थल तक साइकलें पहुँचाई गई । भोपाल से दिल्ली तक इस रैली की फ़ुटेज और आयोजक की बाइट दिखाई गई । लेकिन सवाल फ़िर वही कि क्या वास्तव में ये लोग पर्यावरण को लेकर गंभीर हैं ? क्या सचमुच बिगड़ता मौसम इन्हें बेचैन करता है या यह भी व्यक्तिगत दुकान सजाकर रिटायरमेंट के बाद का पक्का इंतज़ाम करने और प्रसिद्धि पाने की कवायद मात्र है ।
प्रदेश में हर साल बरसात में हरियाली महोत्सव मनाया जाता है । ज़ोर-शोर से बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण समारोह होते हैं । मंत्री और अधिकारी पौधे लगाते हुए फ़ोटो खिंचवाते हैं । हर ज़िले के वृक्षारोपण के लम्बे चौड़े आँकड़े अखबारों की शोभा बढ़ाते हैं । यदि इन में से चौथाई पेड़ भी अस्तित्व में होते, तो अब तक मध्यप्रदेश में पैर रखने को जगह मिलना मुश्किल होता । इधर मुख्यमंत्री जी कह रहे हैं कि वे और उनके मंत्रिमंडल के सभी सदस्य अब हर समारोह की शुरुआत पेड़ लगा कर करेंगे । लेकिन मुद्दे की बात यह भी है कि केवल पौधा लगा देने ही से तो काम नहीं बनता । शुरुआती सालों में उसकी देखभाल का ज़िम्मा कौन लेगा ? जंगलों में राजनीतिक संरक्षण में चल रही कटाई को कौन रोकेगा ?
बाघों और अन्य वन्य प्राणियों की मौतों के बढ़ते ग्राफ़ के लिये चर्चा में रहने वाले वन विभाग ने भी जानवरों के बाद अब पेड़ों को गोद देने की स्कीम तैयार की है । मध्यप्रदेश सरकार में इन दिनों एक अजीब सी परंपरा चल पड़ी है । घोषणावीर मुख्यमंत्री ने कहना शुरु कर दिया है कि हर काम सरकार के बूते की बात नहीं । जनता को भी आगे बढ़कर सहयोग करना होगा । ये बात कुछ हज़म नहीं हुई । जनता के पैसों पर सत्ता- सुख भोगें आप ,सरकारी खज़ाने को दोनों हाथों से लूटे सरकार और आखिर में काम करे जनता.....!!! ऎसे में सरकार या नेताओं की ज़रुरत ही कहाँ है ? जनता से सहयोग चाहिये,तो योजनाओं का पैसा सीधे जनता के हाथों में सौंपा जाए ।
मैं आज तक यह समझ नहीं पाई कि सड़कों पर नारे लगाने,रैली निकालने या सेमिनार करने से कोई भी समस्या कैसे हल हो पाती है । पर्यावरण नारों से नहीं संस्कारों से बचाया जा सकता है । बच्चों को शुरु से ही यह बताने की ज़रुरत होती है कि इंसानों की तरह ही हर जीव और वनस्पति में भी प्राण होते हैं । हमारी ही तरह वे सब भी धरती की ही संतानें हैं । इस नाते धरती पर उनका भी उतना ही हक है जितना हमारा ...???
हमें समझना होगा की प्रकृति और इंसानी संसार में ज़मीन आसमान का फ़र्क है । पर्यावरण तभी सुधरेगा जब हम अपने खुद के प्रति ईमानदार होंगे । हमारी दुनिया में हर चीज़ पैसे के तराज़ू पर तौली जाती है,लेकिन प्रकृति ये भेद नहीं जानती । वह कहती है कि तुम मुझसे से भरपूर लो लेकिन ज़्यादा ना सही कुछ तो लौटाओ । अगर वो भी ना कर सको तो कम से कम जो है उसे तो मत मिटाओ ।
खैर, प्राकृतिक संसाधनों और धरोहरों को सहेजने का जज़्बा रखने वाले लोगों को प्रकृति किस तरह नवाज़ती है । इसकी बानगी देखी जा सकती है जमशेदपुर में , जहाँ तालाब करा रहा है गरीब कन्याओं का विवाह -
पैसे के लिए अपनों से भी बैरभाव को आम बात मानने वाले इस भौतिकवादी युग में आपसी सहयोग और सहकारिता की अनूठी मिसाल पेश करने वाला एक गांव ऐसा है जहाँ स्वयं की निर्धनता को भूल ग्रामीण पिछले लगभग डे़ढ़ दशक से सामूहिक मछलीपालन के जरिए गरीब लडकियों की शादी करा रहे हैं। झारखंड के नक्सल प्रभावित पूर्वी सिंहभूम जिले के ब़ड़ाजु़ड़ी गांव के ग्रामीणों ने यह अनुकरणीय मिसाल पेश की है। लीज पर लिये सरकारी तालाब में मछलीपालन के जरिए अब तक एक सौ से अधिक निर्धन लड़कियों के हाथ पीले किये गये हैं । ७९ सदस्यों की प्रबंधन कमेटी संयुक्त बैंक खाते में जमा रकम की देखरेख करती है। ग्रामीणों ने तालाब में सामूहिक मछलीपालन की योजना लगभग पंद्रह साल पहले उस समय बनाई थी जब पैसे के अभाव में एक गरीब कन्या के विवाह में कठिनाई पैदा हो गई थी। गांव के कुछ लोगों की पहल पर तालाब लीज पर लिया गया तथा प्रबंधन कमेटी बनाई गई। इस कमेटी ने मछलीपालन की कमाई से पहले ही साल सात निर्धन कन्याओं की शादी कराई थी। अब तक यह आंक़ड़ा एक सौ की संख्या को पार कर गया है। ग्रामीण बुलंद हौसले के साथ अब भी इस नेक काम में लगे हैं।
लेबल:
नौकरशाह,
वन विभाग,
वृक्षारोपण,
हरियाली महोत्सव
गुरुवार, 4 जून 2009
भ्रष्टाचार की गंगा में डुबकी लगाते नौकरशाह
नौतपा कभी तीखे तो कभी नरम तेवर दिखाकर बिदा हो गया । उमस भरे माहौल में अब सभी लोग आसमान की ओर टकटकी लगाकर निहारने लगे हैं कि झूमकर कब बरसेंगे काले बादल ! मानसून के मौसम के आने की आहट ने सरकारी महकमों में भी हलचल मचा दी है । विधानसभा चुनावों की भारी सफ़लता पर इतराती भाजपा को आम चुनावों में मतदाताओं ने ठेंगा दिखा दिया । अचानक मिले इस आघात को सत्तारुढ़ दल अब तक पचा नहीं पा रहा है । लेकिन हकीकत तो हकीकत ही रहेगी । सो आधे-अधूरे मन से सच्चाई को कभी स्वीकारते तो कभी नकारते हुए पार्टी आगे बढ़ चली है ।
कहावत है " कुम्हार कुम्हारिन से ना जीते,तो दौड़ गधैया के कान उमेठे ।" सो प्रदेश में भाजपा भी अपनी अँदरुनी कमियों की ओर से आँखें मूँदकर नौकरशाही और सरकारी अमले पर हार का ठीकरा फ़ोड़ने पर आमादा है । सरकारी अधिकारियों को हार के लिये ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है कि अमले ने सरकार की योजनाएँ ठीक तरह से जनता तक नहीं पहुँचाईं । ज़ाहिर है अपराध किया है तो दंड भी मिलेगा । सरकार की नाराज़गी मलाईदार पदों से हटाने की कवायद के तौर पर सामने आना लगभग तय है । एक स्थानीय चैनल मंदी के दौर में भी ’तबादला उद्योग’में एकाएक आई तेज़ी का ब्यौरा दे रहा था कि जैसा पद वैसी भेंट-पूजा । लिपिक वर्ग के लिये पच्चीस हज़ार से शुरु होने वाला आँकड़ा नौकरशाहों तक पहुँचते-पहुँचते लाखों में तब्दील हो जाता है ।
बहरहाल राजधानी में हींग लगे ना फ़िटकरी वाले इस मुनाफ़े के व्यवसाय के कर्ता-धर्ता सक्रिय हो चुके हैं । दलालों ने भी अपनी जुगाड़ लगाना शुरु कर दी है । कई छुटभैये नेता और पत्रकार तो तबादलों के मौसम में इतनी चाँदी काट लेते हैं कि उन्हें अगले कुछ साल हाथ-पैर हिलाने की कोई ज़रुरत ही नहीं । मगर हमेशा की तरह मेरी मोटी बुद्धि में यह बात नहीं घुस पाती कि तबादलों के ज़रिये प्रशासनिक सर्जरी के नाम पर हर साल तबादलों पर सरकारी खज़ाने से करोड़ों रुपए फ़ूँक दिये जाते हैं । महीने-दो महीने सारी मशीनरी ठप्प पड़ जाती है । कुछ दिन बाद पैसा ,पॉवर और संपर्कों के दम पर जहाँ था-जैसा था की स्थिति बन ही जाती है ।
ये बात गौर करने वाली है कि नौकरशाही का काम सरकार की योजनाओं का प्रचार-प्रसार करना नही,बल्कि उन्हें सही तरीके से अंजाम देना है । अगर वह अपने काम को बखूबी अंजाम देने में नाकाम रहती है तो राजनेता भी अपनी ज़िम्मेदारी से बरी नहीं हो सकते,क्योंकि घुड़सवारी का नियम कहता है कि घोड़े की क्षमता घुड़सवार की काबीलियत पर निर्भर करती है । बार- बार तबादले करने की रणनीति नेताओं की तिजोरी तो भर सकती है लेकिन सरकारी अमले के मनोबल और खज़ाने पर इसका विपरीत असर ही पड़ता है । तबादले दंडित करने के हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने की चाहत अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने के सिवाय कुछ भी नहीं ।
वैसे नौकरशाह भी कुछ कम नहीं । आमतौर पर नेताओं के भ्रष्टाचार को लेकर तो लोग खूब बातें करते हैं और गाहे बगाहे उनका गुस्सा फ़ूटते भी देखा गया है । लेकिन दीमक की तरह सरकारी खज़ाने को बरसों-बरस चट करने वाले नौकरशाहों का क्या कीजियेगा ? प्रक्रियात्मक पेचीदगियों के बूते कानून और अधिकारों को अपने कब्ज़े में रखने वाली नौकरशाही पर लगाम लगाना किसी भी सरकार के लिये आसान काम नहीं है । देश के विकास और जनकल्याण की राह में लालफ़ीताशाही सबसे बड़ा रोड़ा है ।
देश में नौकरशाहों के "नौ दिन चले अढ़ाई कोस" वाले रवैये से तो सब वाकिफ़ हैं ,लेकिन कामकाज और क्षमता के मामले में भी वे फ़िसड्डी साबित हुए हैं । दूर देश में हुए सर्वे की रिपोर्ट भी इसकी तस्दीक करती है । एशिया के 12 देशों में काम कर रहे 1275 विशेषज्ञों रायशुमारी के आधार पर तैयार सर्वे कहता है कि भारत में आम आदमी को प्रशासनिक प्रणाली के सुस्त रवैये से हर दिन रुबरु होना पड़ता है । केन्द्र और राज्य स्तर के सभी अधिकार इन्हीं के पास रहते हैं । हांगकांग की पॉलिटिकल और इकॉनॉमिक रिस्क कंसलटेंसी की ओर से कराये गये सर्वे में सिंगापुर कामकाज के मामले में लगातार तीसरी बार अव्वल रहा,वहीं भारत बारह देशों के इस सर्वे में सबसे आखिरी पायदान पर है ।
वैसे एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि हमारे यहाँ के नौकरशाह काम करने के मामले चाहे जितने फ़िसड्डी हों लेकिन भ्रष्ट आचरण के मामले में नेताओं के साथ "ताल से ताल " मिलाते नज़र आते हैं । हाल के सालों में भ्रष्टाचार के शिखर पर काबिज़ राजनेताओं का अनुसरण करने में नौकरशाह ’बेजोड़’साबित हुए हैं । बर्लिन की संस्था ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने ग्लोबल करप्शन बैरोमीटर 2009 जारी किया है ,जिसके आँकड़े बताते हैं कि भारत में राजनीतिक दल सबसे भ्रष्ट संस्था है । सर्वे में 58 फ़ीसदी लोगों ने माना कि राजनीतिज्ञ सबसे ज़्यादा भ्रष्ट हैं । 13 लोगों ने नौकरशाहों को घूसखोरी के मामले में दूसरे नम्बर पर रखा है । ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल संगठन ने ही साल 2005 में एक अध्ययन कराया था जिसमें कहा गया था कि भारत में लोग बुनियादी सेवाएँ हासिल करने के लिए चार अरब अमरीकी डॉलर के बराबर रक़म हर साल रिश्वत के रूप में देते हैं । विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में सालाना 210 अरब रुपए रिश्वत में दिए जाते हैं ।
एशिया के भ्रष्ट देशों की सूची में भारत नौवें स्थान पर है तो विश्व के 158 देशों की सूची में भारत 88वें स्थान पर है। भारत में भ्रष्टाचार की चर्चा जितनी चाहे हो चुकी हो फिर भी ये आंकड़े चौंका देते हैं । सुन कर लगता है मानो पूरे देश ने भ्रष्टाचार के सामने घुटने ही टेक दिए हों। हम इसके प्रति इतने उदासीन हो गए हैं कि भ्रष्टाचार शिष्टाचार बन गया है । मगर भ्रष्टाचार क्या देश की सांस्कृतिक सच्चाई बन गया है या इसके दूसरे कारण भी हैं ।
कई लोग कहते हैं कि देश में लोकतंत्र की परिपक्वता की कमी की वजह से भ्रष्टाचार फैल रहा है । दूसरी तरफ़ यह कड़वी सच्चाई है कि लोकतंत्र की जड़ें और कमज़ोर करने में भी भ्रष्टाचार की बड़ी भूमिका होती है । विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार 40 प्रतिशत न्यायिक मामल रिश्वत के बल पर प्रभावित किए जाते हैं और भ्रष्ट सरकारी अमलों में पुलिस सबसे ऊपर है । यह समझने के लिए किसी अर्थशास्त्री की ज़रूरत नहीं है कि ग़रीबों का सबसे बड़ा दुश्मन भ्रष्टाचार ही है जो उसे रोटी,अवसर और अधिकारों से दूर करता है । नेताओं को तो चुनाव में जनता सबक सिखा ही देती है ,लेकिन नियुक्ति के बाद चालीस-पैंतालीस साल बेखौफ़ और बेफ़िक्र होकर सरकार को चूना लगानी वाली बेलगाम नौकरशाही की नाक में नकेल कौन कसेगा और कैसे ....??????
कहावत है " कुम्हार कुम्हारिन से ना जीते,तो दौड़ गधैया के कान उमेठे ।" सो प्रदेश में भाजपा भी अपनी अँदरुनी कमियों की ओर से आँखें मूँदकर नौकरशाही और सरकारी अमले पर हार का ठीकरा फ़ोड़ने पर आमादा है । सरकारी अधिकारियों को हार के लिये ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है कि अमले ने सरकार की योजनाएँ ठीक तरह से जनता तक नहीं पहुँचाईं । ज़ाहिर है अपराध किया है तो दंड भी मिलेगा । सरकार की नाराज़गी मलाईदार पदों से हटाने की कवायद के तौर पर सामने आना लगभग तय है । एक स्थानीय चैनल मंदी के दौर में भी ’तबादला उद्योग’में एकाएक आई तेज़ी का ब्यौरा दे रहा था कि जैसा पद वैसी भेंट-पूजा । लिपिक वर्ग के लिये पच्चीस हज़ार से शुरु होने वाला आँकड़ा नौकरशाहों तक पहुँचते-पहुँचते लाखों में तब्दील हो जाता है ।
बहरहाल राजधानी में हींग लगे ना फ़िटकरी वाले इस मुनाफ़े के व्यवसाय के कर्ता-धर्ता सक्रिय हो चुके हैं । दलालों ने भी अपनी जुगाड़ लगाना शुरु कर दी है । कई छुटभैये नेता और पत्रकार तो तबादलों के मौसम में इतनी चाँदी काट लेते हैं कि उन्हें अगले कुछ साल हाथ-पैर हिलाने की कोई ज़रुरत ही नहीं । मगर हमेशा की तरह मेरी मोटी बुद्धि में यह बात नहीं घुस पाती कि तबादलों के ज़रिये प्रशासनिक सर्जरी के नाम पर हर साल तबादलों पर सरकारी खज़ाने से करोड़ों रुपए फ़ूँक दिये जाते हैं । महीने-दो महीने सारी मशीनरी ठप्प पड़ जाती है । कुछ दिन बाद पैसा ,पॉवर और संपर्कों के दम पर जहाँ था-जैसा था की स्थिति बन ही जाती है ।
ये बात गौर करने वाली है कि नौकरशाही का काम सरकार की योजनाओं का प्रचार-प्रसार करना नही,बल्कि उन्हें सही तरीके से अंजाम देना है । अगर वह अपने काम को बखूबी अंजाम देने में नाकाम रहती है तो राजनेता भी अपनी ज़िम्मेदारी से बरी नहीं हो सकते,क्योंकि घुड़सवारी का नियम कहता है कि घोड़े की क्षमता घुड़सवार की काबीलियत पर निर्भर करती है । बार- बार तबादले करने की रणनीति नेताओं की तिजोरी तो भर सकती है लेकिन सरकारी अमले के मनोबल और खज़ाने पर इसका विपरीत असर ही पड़ता है । तबादले दंडित करने के हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने की चाहत अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने के सिवाय कुछ भी नहीं ।
वैसे नौकरशाह भी कुछ कम नहीं । आमतौर पर नेताओं के भ्रष्टाचार को लेकर तो लोग खूब बातें करते हैं और गाहे बगाहे उनका गुस्सा फ़ूटते भी देखा गया है । लेकिन दीमक की तरह सरकारी खज़ाने को बरसों-बरस चट करने वाले नौकरशाहों का क्या कीजियेगा ? प्रक्रियात्मक पेचीदगियों के बूते कानून और अधिकारों को अपने कब्ज़े में रखने वाली नौकरशाही पर लगाम लगाना किसी भी सरकार के लिये आसान काम नहीं है । देश के विकास और जनकल्याण की राह में लालफ़ीताशाही सबसे बड़ा रोड़ा है ।
देश में नौकरशाहों के "नौ दिन चले अढ़ाई कोस" वाले रवैये से तो सब वाकिफ़ हैं ,लेकिन कामकाज और क्षमता के मामले में भी वे फ़िसड्डी साबित हुए हैं । दूर देश में हुए सर्वे की रिपोर्ट भी इसकी तस्दीक करती है । एशिया के 12 देशों में काम कर रहे 1275 विशेषज्ञों रायशुमारी के आधार पर तैयार सर्वे कहता है कि भारत में आम आदमी को प्रशासनिक प्रणाली के सुस्त रवैये से हर दिन रुबरु होना पड़ता है । केन्द्र और राज्य स्तर के सभी अधिकार इन्हीं के पास रहते हैं । हांगकांग की पॉलिटिकल और इकॉनॉमिक रिस्क कंसलटेंसी की ओर से कराये गये सर्वे में सिंगापुर कामकाज के मामले में लगातार तीसरी बार अव्वल रहा,वहीं भारत बारह देशों के इस सर्वे में सबसे आखिरी पायदान पर है ।
वैसे एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि हमारे यहाँ के नौकरशाह काम करने के मामले चाहे जितने फ़िसड्डी हों लेकिन भ्रष्ट आचरण के मामले में नेताओं के साथ "ताल से ताल " मिलाते नज़र आते हैं । हाल के सालों में भ्रष्टाचार के शिखर पर काबिज़ राजनेताओं का अनुसरण करने में नौकरशाह ’बेजोड़’साबित हुए हैं । बर्लिन की संस्था ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने ग्लोबल करप्शन बैरोमीटर 2009 जारी किया है ,जिसके आँकड़े बताते हैं कि भारत में राजनीतिक दल सबसे भ्रष्ट संस्था है । सर्वे में 58 फ़ीसदी लोगों ने माना कि राजनीतिज्ञ सबसे ज़्यादा भ्रष्ट हैं । 13 लोगों ने नौकरशाहों को घूसखोरी के मामले में दूसरे नम्बर पर रखा है । ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल संगठन ने ही साल 2005 में एक अध्ययन कराया था जिसमें कहा गया था कि भारत में लोग बुनियादी सेवाएँ हासिल करने के लिए चार अरब अमरीकी डॉलर के बराबर रक़म हर साल रिश्वत के रूप में देते हैं । विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में सालाना 210 अरब रुपए रिश्वत में दिए जाते हैं ।
एशिया के भ्रष्ट देशों की सूची में भारत नौवें स्थान पर है तो विश्व के 158 देशों की सूची में भारत 88वें स्थान पर है। भारत में भ्रष्टाचार की चर्चा जितनी चाहे हो चुकी हो फिर भी ये आंकड़े चौंका देते हैं । सुन कर लगता है मानो पूरे देश ने भ्रष्टाचार के सामने घुटने ही टेक दिए हों। हम इसके प्रति इतने उदासीन हो गए हैं कि भ्रष्टाचार शिष्टाचार बन गया है । मगर भ्रष्टाचार क्या देश की सांस्कृतिक सच्चाई बन गया है या इसके दूसरे कारण भी हैं ।
कई लोग कहते हैं कि देश में लोकतंत्र की परिपक्वता की कमी की वजह से भ्रष्टाचार फैल रहा है । दूसरी तरफ़ यह कड़वी सच्चाई है कि लोकतंत्र की जड़ें और कमज़ोर करने में भी भ्रष्टाचार की बड़ी भूमिका होती है । विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार 40 प्रतिशत न्यायिक मामल रिश्वत के बल पर प्रभावित किए जाते हैं और भ्रष्ट सरकारी अमलों में पुलिस सबसे ऊपर है । यह समझने के लिए किसी अर्थशास्त्री की ज़रूरत नहीं है कि ग़रीबों का सबसे बड़ा दुश्मन भ्रष्टाचार ही है जो उसे रोटी,अवसर और अधिकारों से दूर करता है । नेताओं को तो चुनाव में जनता सबक सिखा ही देती है ,लेकिन नियुक्ति के बाद चालीस-पैंतालीस साल बेखौफ़ और बेफ़िक्र होकर सरकार को चूना लगानी वाली बेलगाम नौकरशाही की नाक में नकेल कौन कसेगा और कैसे ....??????
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तबादला उद्योग,
नौकरशाही,
भ्रष्टाचार,
लालफ़ीताशाही,
सरकार
मंगलवार, 19 मई 2009
सत्ता सुख की चाहत में शेर बने मेमने
कहते हैं वक्त बदलते वक्त नहीं लगता। यह कहावत भारतीय राजनीति के मौजूदा दौर पर शब्दशः चरितार्थ हो रही है । कल तक जो नेता मनमोहन सिंह और सोनिया गाँधी से अपने समर्थन की भरपूर कीमत वसूलते थे और आये दिन आँखें भी तरेरते थे, वे ही आज बिन माँगा समर्थन देने के लिये ना सिर्फ़ उतावले हैं,बल्कि राष्ट्रपति को चिट्ठी देने के लिये दौड़े चले जा रहे हैं। मज़े की बात ये भी है कि जो काम वे खुद कर रहे हैं, वही काम करने वाले प्रतिद्वंद्वी उनकी नज़र में अवसरवादी और मौकापरस्त हैं।
परमाणु करार के बहाने सरकार के नीचे से ज़मीन खींच लेने का मुग़ालता पालने वाले वामपंथियों को राजनीति के महान दलाल ने करारी शिकस्त दे दी। गु़स्से से लाल हो रहे वामपंथियों को ममता बनर्जी की आड़ में जनता ने इस कदर धो डाला कि अब करात दंपति के साथ साथ सभी का चेहरा ज़र्द पड़ गया है। यूपीए गठबँधन में शामिल तीन तरह की काँग्रेस ने कुछ और सहयोगियों की मदद से विरोधी खेमे के सभी रंग उड़ा दिये हैं।
मायावती का हाथी भी सत्ता की चौखट पर हीला-हवाला किये बग़ैर बँधने को आतुर है। चार बार उत्तर प्रदेश की मुखिया की ज़िम्मेदारी सम्हालने वाली मायावती की निगाह प्रधानमंत्री की कुर्सी पर लगी थी। हो भी क्यों ना आखिर वे एक दलित की बेटी हैं। इसी नाते हक़ है उनका ख्वाब देखने का। खैर हाल फ़िलहाल यह सपना टूट गया तो क्या, वो नहीं बड़ा भाई ही सही कुर्सी तो घर में ही है । माया मेम साब ने जनता को याद दिलाया है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उन्हें अपनी छोटी बहन बता चुके हैं ।
ये सब वही लोग हैं जो कल तक कह रहे थे-हमारे सारे विकल्प खुले हुए हैं। हम काँग्रेस के साथ भी जा सकते हैं, भाजपा और तीसरे मोर्चे के साथ भी। सभी ने अजीब सी रहस्यमयी मुस्कुराहट पहन ली थी । हर कोई १६मई के इंतज़ार की बात कह अपने पत्ते खोलने से बच रहा था। यहाँ तक कि वामपंथी दल भी, जो तीसरा मोर्चा बनाए बैठे थे। नीतिश कुमार ने भी अपनी दुकान खूब सजाई और तख्ती टाँग दी कि बिहार को विशेष पैकेज दो और हमारा समर्थन ले जाओ । सब अपनी छोटी-छोटी दुकानें सजाए बैठे थे। १६ मई आए और मैं ग्राहक की जेब खाली कराऊँ......।
तय तारीख आई और चली गई। सजी हुई दुकानों पर किसी ने झूठमूठ भी भाव तक नहीं पूछा। शाम तक दुकानों पर मक्खियाँ भिनभिनाने लगीं। दुकानदार में इतना उत्साह भी नहीं रहा कि उन्हें भगाए। रात होने से पहले-पहले दुकानों पर ताले जड़ गए। सारे विकल्प खोलकर बैठने वाले अब गली-गली फ़ेरी लगा रहे हैं । ठेले पर बिक रहे समर्थन का कोई खरीददार नहीं है। टेर लगाने वालों के गले सूख गये हैं और बिकाऊ माल सड़ने की आशंका में चेहरे मुरझा गये हैं । कल तक अपनी शर्तों पर साथ देने वाले आज बिना शर्त सत्ता के दरवाज़े खूँटे से बँधी गाय बनने को बेताब हैं,लेकिन खरीददार इतना बेरहम हो सकता है ये इन सबने कभी सोचा नहीं था ।
अब ये तो बेरहमी की इंतेहा हो गई । वे बेचारे इसके बदले कुछ माँग भी तो नहीं रहे। उन्हें मंत्री पद की चाहत भी नहीं । वे तो बस काँग्रेस का हाथ अपने साथ चाहते हैं। वे चाहते हैं तो बस इतना कि यूपीए में थोड़ी सी जगह मिल जाये। हम सत्ताधारी पार्टी कहलाएँ,बस इतना-सा संदेश पूँजीपतियों तक जाना चाहिए। बाकी हम अपना इंतजाम खुद कर लेंगे। वे समर्थन देना चाहते हैं और कांग्रेस है कि ले नहीं रही है। कोई धेले को पूछ नहीं रहा। बिहार के चतुर-सुजानों की सारी हेकड़ी धरी की धरी रह गई ।
उधर साइकल की हवा निकल चुकी है,लेकिन इससे क्या? पुराने रिश्ते यूँ पल में झटके से नहीं टूट जाया करते । दिग्विजय सिंह,कमलनाथ जैसे "छुटभैये नेता" अमरसिंह सरीखे महानतम राजनीतिज्ञ पर टीका-टिप्पणी करते हुए शोभा नहीं देते । अमरवाणी के मुताबिक तीसरे और चौथे दर्ज़े के नेताओं की छींटाकशी काँग्रेस से उनके एकतरफ़ा प्रेम की लौ को बुझा नहीं सकती । तभी तो निस्वार्थ भाव से राजनीति के ज़रिये देश सेवा पर उतारु "पॉवर ब्रोकर" महोदय देर किये बग़ैर मीडिया को दिखाते हुए समर्थन की चिट्ठी लेकर राष्ट्रपति भवन पहुँच गये।
लालू की लालटेन की लौ क्या टिमटिमाने लगी,उनके चेहरे का तो मानो नूर ही चला गया । कल तक बिहार में काँग्रेस के लिये तीन सीटों से ज़्यादा नहीं छोड़ने की ज़िद पकड़े बैठे लालू आज अपना समर्थन देने पर आमादा हैं। बार-बार झिड़की खाकर भी पुराने संबंधों की दुहाई देकर लालू एक बार फ़िर सत्ता की मलाई खाने को उतावले हैं । हद तो ये है कि चुनाव के दौरान काँग्रेस पर दहाड़ने वाले लालू प्रसाद अब मिमिया रहे हैं। लेकिन फ़िर भी उनकी खिलाफ़त कर रहे काँग्रेस के दिग्गज नेताओं को दोयम दर्ज़े का बताने से बाज़ नहीं आ रहे। वे अपनी फ़रियाद सोनिया दरबार तक पहुँचाने के लिये उतावले हैं ।
आखिर सत्ता का नशा होता ही है मदमस्त कर देने वाला । जब तक कुर्सी की ताकत रहती है व्यक्ति रहता है मदहोश और जब वह हैसियत छिन जाती है तो वह बेबस और लाचार व्यक्ति " जल बिन मछली" की तरह छटपटाने लगता है । इसी लिये सत्ता सुंदरी के चारों ओर भँवरे से मँडराते ये नेता किसी कीमत पर काँग्रेस से जुदा नहीं होना चाहते । इन सभी नेताओं का दर्द और पीड़ा कमोबेश एक सी है । सितारों ने साथ छोड़ा तो सत्ता भी पकड़ से दूर चली गयी । कल तक जो अपने थे वो सब एकाएक पराये हो गये और इनमें से ज़्यादातर को डर है कि पुराने दिनों की ब्लैक मेलिंग का बदला कहीं अब गिन-गिन कर नहीं लिया जाये ।
नतीजे आने तक लालू, मुलायम,पासवान, करात,शरद पवार, लालकृष्ण आडवाणी, मायावती जैसे नेता दिन में भी प्रधानमंत्री बनने के ख्वाब देखने लगे थे । लेकिन रोज़-रोज़ की तू-तू मैं-मैं से आज़िज़ आ चुकी जनता ने ऎसा दाँव चला कि इन सभी के " दिल के अरमां आँसुओं में बह गये।" जो दल व्यक्तिवादी थे उन्हें हवा के बदले रुख के मुताबिक "शरणम गच्छामि" में ही समझदारी दिखाई दे रही है । इन मौकापरस्तों को एकतरफ़ा प्रेम से भी कोई गुरेज़ नहीं है । दरअसल इस बहाने ये सभी अपने आने वाले कल के अँधियारे को हरसंभव रोकना चाहते हैं । अब सुनहरे सपनों की बजाय अँधियारी काल कोठरी का डरावना ख्याल रातों की नींद उड़ाने लगा है ।
परमाणु करार के बहाने सरकार के नीचे से ज़मीन खींच लेने का मुग़ालता पालने वाले वामपंथियों को राजनीति के महान दलाल ने करारी शिकस्त दे दी। गु़स्से से लाल हो रहे वामपंथियों को ममता बनर्जी की आड़ में जनता ने इस कदर धो डाला कि अब करात दंपति के साथ साथ सभी का चेहरा ज़र्द पड़ गया है। यूपीए गठबँधन में शामिल तीन तरह की काँग्रेस ने कुछ और सहयोगियों की मदद से विरोधी खेमे के सभी रंग उड़ा दिये हैं।
मायावती का हाथी भी सत्ता की चौखट पर हीला-हवाला किये बग़ैर बँधने को आतुर है। चार बार उत्तर प्रदेश की मुखिया की ज़िम्मेदारी सम्हालने वाली मायावती की निगाह प्रधानमंत्री की कुर्सी पर लगी थी। हो भी क्यों ना आखिर वे एक दलित की बेटी हैं। इसी नाते हक़ है उनका ख्वाब देखने का। खैर हाल फ़िलहाल यह सपना टूट गया तो क्या, वो नहीं बड़ा भाई ही सही कुर्सी तो घर में ही है । माया मेम साब ने जनता को याद दिलाया है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उन्हें अपनी छोटी बहन बता चुके हैं ।
ये सब वही लोग हैं जो कल तक कह रहे थे-हमारे सारे विकल्प खुले हुए हैं। हम काँग्रेस के साथ भी जा सकते हैं, भाजपा और तीसरे मोर्चे के साथ भी। सभी ने अजीब सी रहस्यमयी मुस्कुराहट पहन ली थी । हर कोई १६मई के इंतज़ार की बात कह अपने पत्ते खोलने से बच रहा था। यहाँ तक कि वामपंथी दल भी, जो तीसरा मोर्चा बनाए बैठे थे। नीतिश कुमार ने भी अपनी दुकान खूब सजाई और तख्ती टाँग दी कि बिहार को विशेष पैकेज दो और हमारा समर्थन ले जाओ । सब अपनी छोटी-छोटी दुकानें सजाए बैठे थे। १६ मई आए और मैं ग्राहक की जेब खाली कराऊँ......।
तय तारीख आई और चली गई। सजी हुई दुकानों पर किसी ने झूठमूठ भी भाव तक नहीं पूछा। शाम तक दुकानों पर मक्खियाँ भिनभिनाने लगीं। दुकानदार में इतना उत्साह भी नहीं रहा कि उन्हें भगाए। रात होने से पहले-पहले दुकानों पर ताले जड़ गए। सारे विकल्प खोलकर बैठने वाले अब गली-गली फ़ेरी लगा रहे हैं । ठेले पर बिक रहे समर्थन का कोई खरीददार नहीं है। टेर लगाने वालों के गले सूख गये हैं और बिकाऊ माल सड़ने की आशंका में चेहरे मुरझा गये हैं । कल तक अपनी शर्तों पर साथ देने वाले आज बिना शर्त सत्ता के दरवाज़े खूँटे से बँधी गाय बनने को बेताब हैं,लेकिन खरीददार इतना बेरहम हो सकता है ये इन सबने कभी सोचा नहीं था ।
अब ये तो बेरहमी की इंतेहा हो गई । वे बेचारे इसके बदले कुछ माँग भी तो नहीं रहे। उन्हें मंत्री पद की चाहत भी नहीं । वे तो बस काँग्रेस का हाथ अपने साथ चाहते हैं। वे चाहते हैं तो बस इतना कि यूपीए में थोड़ी सी जगह मिल जाये। हम सत्ताधारी पार्टी कहलाएँ,बस इतना-सा संदेश पूँजीपतियों तक जाना चाहिए। बाकी हम अपना इंतजाम खुद कर लेंगे। वे समर्थन देना चाहते हैं और कांग्रेस है कि ले नहीं रही है। कोई धेले को पूछ नहीं रहा। बिहार के चतुर-सुजानों की सारी हेकड़ी धरी की धरी रह गई ।
उधर साइकल की हवा निकल चुकी है,लेकिन इससे क्या? पुराने रिश्ते यूँ पल में झटके से नहीं टूट जाया करते । दिग्विजय सिंह,कमलनाथ जैसे "छुटभैये नेता" अमरसिंह सरीखे महानतम राजनीतिज्ञ पर टीका-टिप्पणी करते हुए शोभा नहीं देते । अमरवाणी के मुताबिक तीसरे और चौथे दर्ज़े के नेताओं की छींटाकशी काँग्रेस से उनके एकतरफ़ा प्रेम की लौ को बुझा नहीं सकती । तभी तो निस्वार्थ भाव से राजनीति के ज़रिये देश सेवा पर उतारु "पॉवर ब्रोकर" महोदय देर किये बग़ैर मीडिया को दिखाते हुए समर्थन की चिट्ठी लेकर राष्ट्रपति भवन पहुँच गये।
लालू की लालटेन की लौ क्या टिमटिमाने लगी,उनके चेहरे का तो मानो नूर ही चला गया । कल तक बिहार में काँग्रेस के लिये तीन सीटों से ज़्यादा नहीं छोड़ने की ज़िद पकड़े बैठे लालू आज अपना समर्थन देने पर आमादा हैं। बार-बार झिड़की खाकर भी पुराने संबंधों की दुहाई देकर लालू एक बार फ़िर सत्ता की मलाई खाने को उतावले हैं । हद तो ये है कि चुनाव के दौरान काँग्रेस पर दहाड़ने वाले लालू प्रसाद अब मिमिया रहे हैं। लेकिन फ़िर भी उनकी खिलाफ़त कर रहे काँग्रेस के दिग्गज नेताओं को दोयम दर्ज़े का बताने से बाज़ नहीं आ रहे। वे अपनी फ़रियाद सोनिया दरबार तक पहुँचाने के लिये उतावले हैं ।
आखिर सत्ता का नशा होता ही है मदमस्त कर देने वाला । जब तक कुर्सी की ताकत रहती है व्यक्ति रहता है मदहोश और जब वह हैसियत छिन जाती है तो वह बेबस और लाचार व्यक्ति " जल बिन मछली" की तरह छटपटाने लगता है । इसी लिये सत्ता सुंदरी के चारों ओर भँवरे से मँडराते ये नेता किसी कीमत पर काँग्रेस से जुदा नहीं होना चाहते । इन सभी नेताओं का दर्द और पीड़ा कमोबेश एक सी है । सितारों ने साथ छोड़ा तो सत्ता भी पकड़ से दूर चली गयी । कल तक जो अपने थे वो सब एकाएक पराये हो गये और इनमें से ज़्यादातर को डर है कि पुराने दिनों की ब्लैक मेलिंग का बदला कहीं अब गिन-गिन कर नहीं लिया जाये ।
नतीजे आने तक लालू, मुलायम,पासवान, करात,शरद पवार, लालकृष्ण आडवाणी, मायावती जैसे नेता दिन में भी प्रधानमंत्री बनने के ख्वाब देखने लगे थे । लेकिन रोज़-रोज़ की तू-तू मैं-मैं से आज़िज़ आ चुकी जनता ने ऎसा दाँव चला कि इन सभी के " दिल के अरमां आँसुओं में बह गये।" जो दल व्यक्तिवादी थे उन्हें हवा के बदले रुख के मुताबिक "शरणम गच्छामि" में ही समझदारी दिखाई दे रही है । इन मौकापरस्तों को एकतरफ़ा प्रेम से भी कोई गुरेज़ नहीं है । दरअसल इस बहाने ये सभी अपने आने वाले कल के अँधियारे को हरसंभव रोकना चाहते हैं । अब सुनहरे सपनों की बजाय अँधियारी काल कोठरी का डरावना ख्याल रातों की नींद उड़ाने लगा है ।
शनिवार, 9 मई 2009
कलाकार की आह और कराह, संस्कृति बनी चारागाह
शास्त्रीय संगीत के पुरोधा पंडित कुमार गंधर्व के बेटे और मशहूर ध्रुपद गायक मुकुल शिवपुत्र के भोपाल के एक मंदिर में बदहाल स्थिति में मिलने की खबर से कला जगत में मायूसी छा गई। सरकारी अमला एक बार फ़िर समस्या से मुँह चुराता और गंभीर मुख मुद्रा बनाये सच्चाई पर पर्दा डालता दिखाई दिया। अपनी धरोहरों और संस्कृतिकर्मियों का सरकार कितना खयाल रखती है, मुकुल का मामला इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
कला और संस्कृति के संरक्षण का दम भरने वाली मध्य प्रदेश सरकार का ध्यान भी पाई-पाई के लिए मोहताज मुकुल पर तब गया ,जब उनका कोई पता नहीं चल रहा है। हालाँकि मुख्यमंत्री ने फ़क्कड़ तबियत मुकुल शिवपुत्र को ढ़ूँढ़ कर उनके सम्मानपूर्वक पुनर्वास की बात कही है। उन्होंने मुकुल को राज्य की सांस्कृतिक धरोहर बताते हुए कहा कि उनका पता लगाने की हर संभव कोशिश की जाएगी।
कम उम्र में ही शास्त्रीय संगीत में ऊंचा मुकाम हासिल करने वाले मुकुल शिवपुत्र अब भीख माँगकर गुजारा करने पर मजबूर हैं। गौर तलब है कि 53 वर्षीय मुकुल पिछले कुछ दिनों से बदहाल हालत में भोपाल के साँईं बाबा मंदिर परिसर में रह रहे थे। यहाँ तीन दिन पहले ही उनकी पहचान उजागर हुई और इसके एक दिन बाद वह गायब हो गए। कला बिरादरी ने इस पर चिंता जताई है। लेकिन इस घटना ने एक साथ कई सवालों को हमारे सामने ला खड़ा किया है। मध्यप्रदेश में कला-संस्कृति के नाम पर पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है। उसके बावजूद प्रदेश में कलाकारों की स्थिति दयनीय बनी हुई है।
चापलूस और चाटुकार अफ़सरों से घिरे नेता आखिरकार प्रदर्शनियों,मेलों,सेमिनारों और गोष्ठियों के उदघाटन में उलझकर रह गये हैं। कुछ अधिकारी नेताओं को साधने की काबिलियत के दम पर एक साथ कई महकमों को सम्हाले हुए हैं। फ़िल्म विकास निगम बंद होने के बाद श्रीराम तिवारी ने अचानक ऎसी कौन की योग्यता हासिल कर ली कि वे एक साथ वन्या प्रकाशन,स्वराज संस्थान और संस्कृति संचालक के पद पूरी कुशलता से सम्हाल रहे हैं ? महँगी पुस्तकें छपवाकर स्टोर रुम में दीमकों के हवाले करने,महँगे निमंत्रण पत्र छपवाकर वितरित करने या राजधानी के अखबारों के तीन-चार पत्रकारों को साधकर कला संस्कृति से जुड़ी खबरों का बेहतरीन डिस्प्ले ही कला जगत के विकास और उत्थान का पैमाना हो,तो बात दूसरी है ।
सरकारी उपेक्षा झेलते हुए ध्रुपद गायिका असगरीबाई के लिये जीने से ज़्यादा मरना मुश्किल हो गया था । सरकारी तंत्र अपनी भूल स्वीकारने या सुधारने की बजाय बेहयाई से उससे पल्ला झाड़ने का प्रयास करता रहा है । एक बारगी मान भी लिया जाये कि मुकुल शराब या किसी और तरह के नशे के आदी हैं,तो क्या उनके पुनर्वास का दायित्व सरकार का नहीं ..? इतने बड़े कलाकार को लोगों से दो-दो रुपए माँगना पड़े क्या ये सरकार के दामन पर दाग नहीं ? ये नौबत क्यों आई क्या इसका पता लगाना सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं । कुमार गंधर्व की विरासत को सम्हालने वाले इतने नामचीन कलाकार की देखभाल का ज़िम्मा भी क्या संस्कृति महकमा नहीं उठा सकता? यह वाकया विभाग के अफ़सरों की कार्यप्रणाली और संवेदनशीलता की कलई खोलने के लिये काफ़ी है।
मुख्यमंत्री की छबि गढ़ने का श्रेय लेने वाले एक स्वनामधन्य कवि हृदय आला अफ़सर का तर्क है कि हर कलाकार का अपना अंदाज़ होता है । जिसे हम दुर्दशा मान रहे हों,हो सकता है मुकुल शिवपुत्र को उस तरह का जीवन रास आता हो । उन्हें सरकार की ओर से किये जा रहे प्रयासों में कोई कमी नज़र नहीं आती । बल्कि वे तो इस तरह की खबरें उजागर करने वालों को ही कठघरे में खड़ा कर देते हैं ।
इनकी समझ की दाद देना ही चाहिए। माना कि कलाकार मस्तमौला प्रकृति का होता है। संगीत शिरोमणि पं.कुमार गंधर्व के ज्येष्ठ चिरंजीव मुकुल शिवपुत्र के बारे में ये बात काफ़ी हद तक सच भी है। उन्हें बचपन से ही घर आँगन में सुर की संगत मिली । ख्याल के अलावा भक्ति और लोकगीत पसंद करने वाले मुकुल ने संस्कृत में भी संगीत रचनाएँ तैयार कीं। सूफ़ियाना तबियत के मुकुल ऐसे गायक हैं जिन्हें अपने आपको बताने और अपना गाना सुनाने की कोई उत्तेजना नहीं है । मन लग गया तो गाएंगे-आपके जी में आए जो कर लीजिये। जैसे एक कलाकार होता है फ़क्कड़ तासीर और बिना किसी उतावली वाला । वे पूछते हैं मन की वीणा के सुरों से कि आज परमात्मा का क्या आदेश है मेरे गले के लिये। वे ऐसे कलाकार हैं ,जो बस अपने आप को सुनना चाहते हैं।
मुकुल के बहाने प्रदेश के कला कर्मियों को मौका मिला है कि वे सीधे मुख्यमंत्री तक अपनी बात पहुँचा सकें । प्रदेश में सत्ता और प्रशासन से नज़दीकियाँ बढ़ाकर मलाई खाने वाले संस्कृति कर्मियों से कहीं बड़ी तादाद उन लोगों की है,जो सही मायनों में कला साधक और सृजक हैं। भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे संस्कृति विभाग में इनकी कोई सुनवाई नहीं ।
कोई कथा-कहानी के लिये कलम थामने की बजाय इलाज की खातिर खतो-किताबत में मसरुफ़ है, तो कोई दो वक्त की रोटी की जुगाड़ में रचनाओं की बजाय घर का सामान एक-एक कर बेचने के लिये मजबूर है। कहते हैं साहित्यकार और कलाकार किसी भी राज्य की खुशहाली और समृद्धि का आईना होते हैं। कलाकारों की आह और कराह लेकर क्या कोई भी राज्य तरक्की के सोपान पर कदम आगे बढ़ा सकेगा ?
कला और संस्कृति के संरक्षण का दम भरने वाली मध्य प्रदेश सरकार का ध्यान भी पाई-पाई के लिए मोहताज मुकुल पर तब गया ,जब उनका कोई पता नहीं चल रहा है। हालाँकि मुख्यमंत्री ने फ़क्कड़ तबियत मुकुल शिवपुत्र को ढ़ूँढ़ कर उनके सम्मानपूर्वक पुनर्वास की बात कही है। उन्होंने मुकुल को राज्य की सांस्कृतिक धरोहर बताते हुए कहा कि उनका पता लगाने की हर संभव कोशिश की जाएगी।
कम उम्र में ही शास्त्रीय संगीत में ऊंचा मुकाम हासिल करने वाले मुकुल शिवपुत्र अब भीख माँगकर गुजारा करने पर मजबूर हैं। गौर तलब है कि 53 वर्षीय मुकुल पिछले कुछ दिनों से बदहाल हालत में भोपाल के साँईं बाबा मंदिर परिसर में रह रहे थे। यहाँ तीन दिन पहले ही उनकी पहचान उजागर हुई और इसके एक दिन बाद वह गायब हो गए। कला बिरादरी ने इस पर चिंता जताई है। लेकिन इस घटना ने एक साथ कई सवालों को हमारे सामने ला खड़ा किया है। मध्यप्रदेश में कला-संस्कृति के नाम पर पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है। उसके बावजूद प्रदेश में कलाकारों की स्थिति दयनीय बनी हुई है।
चापलूस और चाटुकार अफ़सरों से घिरे नेता आखिरकार प्रदर्शनियों,मेलों,सेमिनारों और गोष्ठियों के उदघाटन में उलझकर रह गये हैं। कुछ अधिकारी नेताओं को साधने की काबिलियत के दम पर एक साथ कई महकमों को सम्हाले हुए हैं। फ़िल्म विकास निगम बंद होने के बाद श्रीराम तिवारी ने अचानक ऎसी कौन की योग्यता हासिल कर ली कि वे एक साथ वन्या प्रकाशन,स्वराज संस्थान और संस्कृति संचालक के पद पूरी कुशलता से सम्हाल रहे हैं ? महँगी पुस्तकें छपवाकर स्टोर रुम में दीमकों के हवाले करने,महँगे निमंत्रण पत्र छपवाकर वितरित करने या राजधानी के अखबारों के तीन-चार पत्रकारों को साधकर कला संस्कृति से जुड़ी खबरों का बेहतरीन डिस्प्ले ही कला जगत के विकास और उत्थान का पैमाना हो,तो बात दूसरी है ।
सरकारी उपेक्षा झेलते हुए ध्रुपद गायिका असगरीबाई के लिये जीने से ज़्यादा मरना मुश्किल हो गया था । सरकारी तंत्र अपनी भूल स्वीकारने या सुधारने की बजाय बेहयाई से उससे पल्ला झाड़ने का प्रयास करता रहा है । एक बारगी मान भी लिया जाये कि मुकुल शराब या किसी और तरह के नशे के आदी हैं,तो क्या उनके पुनर्वास का दायित्व सरकार का नहीं ..? इतने बड़े कलाकार को लोगों से दो-दो रुपए माँगना पड़े क्या ये सरकार के दामन पर दाग नहीं ? ये नौबत क्यों आई क्या इसका पता लगाना सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं । कुमार गंधर्व की विरासत को सम्हालने वाले इतने नामचीन कलाकार की देखभाल का ज़िम्मा भी क्या संस्कृति महकमा नहीं उठा सकता? यह वाकया विभाग के अफ़सरों की कार्यप्रणाली और संवेदनशीलता की कलई खोलने के लिये काफ़ी है।
मुख्यमंत्री की छबि गढ़ने का श्रेय लेने वाले एक स्वनामधन्य कवि हृदय आला अफ़सर का तर्क है कि हर कलाकार का अपना अंदाज़ होता है । जिसे हम दुर्दशा मान रहे हों,हो सकता है मुकुल शिवपुत्र को उस तरह का जीवन रास आता हो । उन्हें सरकार की ओर से किये जा रहे प्रयासों में कोई कमी नज़र नहीं आती । बल्कि वे तो इस तरह की खबरें उजागर करने वालों को ही कठघरे में खड़ा कर देते हैं ।
इनकी समझ की दाद देना ही चाहिए। माना कि कलाकार मस्तमौला प्रकृति का होता है। संगीत शिरोमणि पं.कुमार गंधर्व के ज्येष्ठ चिरंजीव मुकुल शिवपुत्र के बारे में ये बात काफ़ी हद तक सच भी है। उन्हें बचपन से ही घर आँगन में सुर की संगत मिली । ख्याल के अलावा भक्ति और लोकगीत पसंद करने वाले मुकुल ने संस्कृत में भी संगीत रचनाएँ तैयार कीं। सूफ़ियाना तबियत के मुकुल ऐसे गायक हैं जिन्हें अपने आपको बताने और अपना गाना सुनाने की कोई उत्तेजना नहीं है । मन लग गया तो गाएंगे-आपके जी में आए जो कर लीजिये। जैसे एक कलाकार होता है फ़क्कड़ तासीर और बिना किसी उतावली वाला । वे पूछते हैं मन की वीणा के सुरों से कि आज परमात्मा का क्या आदेश है मेरे गले के लिये। वे ऐसे कलाकार हैं ,जो बस अपने आप को सुनना चाहते हैं।
मुकुल के बहाने प्रदेश के कला कर्मियों को मौका मिला है कि वे सीधे मुख्यमंत्री तक अपनी बात पहुँचा सकें । प्रदेश में सत्ता और प्रशासन से नज़दीकियाँ बढ़ाकर मलाई खाने वाले संस्कृति कर्मियों से कहीं बड़ी तादाद उन लोगों की है,जो सही मायनों में कला साधक और सृजक हैं। भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे संस्कृति विभाग में इनकी कोई सुनवाई नहीं ।
कोई कथा-कहानी के लिये कलम थामने की बजाय इलाज की खातिर खतो-किताबत में मसरुफ़ है, तो कोई दो वक्त की रोटी की जुगाड़ में रचनाओं की बजाय घर का सामान एक-एक कर बेचने के लिये मजबूर है। कहते हैं साहित्यकार और कलाकार किसी भी राज्य की खुशहाली और समृद्धि का आईना होते हैं। कलाकारों की आह और कराह लेकर क्या कोई भी राज्य तरक्की के सोपान पर कदम आगे बढ़ा सकेगा ?
शनिवार, 2 मई 2009
"आयारामों" की आवभगत से बीजेपी में खलबली
चुनाव से पहले एकाएक पाला बदल कर बीजेपी का दामन थामने वालों की बाढ़ ने संगठन में असंतोष की चिंगारी सुलगा दी है । काँग्रेस,बीएसपी,सपा सरीखे दलों के नगीने अपने मुकुट में जड़ने की कवायद में मुख्यमंत्री शिवराजसिंह को ज़बरदस्त कामयाबी हासिल हुई । वे दूसरे दलों के असंतुष्टों की बड़ी तादाद को अपने साथ जोड़ने में सफ़ल भी रहे ।
ये किसी कीर्तिमान से कम नहीं कि महज़ एक पखवाड़े में चार हज़ार से ज़्यादा नेताओं का विश्वास बीजेपी की नीतियों में बढ़ गया । इस हृदय परिवर्तन के कारण अपनी पार्टी में उपेक्षा झेल रहे नेताओं की पूछ-परख एकाएक बढ़ गई । आम चुनाव में प्रदेश में "क्लीन स्वीप" का मंसूबा पाले बैठे शिवराज ने अपनी राजनीतिक हैसियत बढ़ाने के लिये "दलबदल अभियान" को बखूबी अंजाम दिया । राजनीति के उनके इस अनोखे अंदाज़ की खूब चर्चा रही और इस घटनाक्रम में लोगों की दिलचस्पी भी देखी गई । लेकिन चुनावी खुमार उतरने के साथ ही दूसरे दलों से ससम्मान लाये गये नये साथियों को लेकर ऊहापोह की स्थिति बनने लगी है । नये सदस्यों को अच्छी खातिर तवज्जो की उम्मीद है,वहीं पार्टी के कर्मठ और समर्पित नेताओं को इस पूछ-परख पर एतराज़ है ।
दल बदल कर आये सभी बड़े नेताओं को अभी तक पार्टी ने चुनाव में झोंक रखा था । इतनी बड़ी संख्या में आये लोगों की भूमिका को लेकर पार्टी के पुराने नेता चिंतित हैं । पार्टी से जुड़े नेता संशय में हैं कि कहीं उनकी निष्ठा और कर्मठता कुछ नेताओं की व्यक्तिगत आकांक्षाओं की भेंट ना चढ़ जायें । कुछ नेता तो यहाँ तक कह रहे हैं कि सक्रिय कार्यकर्ताओं का हक छीनकर यदि इन नवागंतुकों को सत्ता या संगठन में नवाज़ा गया,तो खुले तौर पर नाराज़गी ज़ाहिर की जायेगी ।
पार्टी सूत्रों के मुताबिक भाजश नेता प्रहलाद पटेल,पूर्व काँग्रेसी मंत्री बालेन्दु शुक्ल,काँग्रेस के पूर्व प्रदेश संगठन महामंत्री नर्मदा प्रसाद शर्मा,पूर्व विधायक मोहर सिंह,सुशीला सिंह,कद्दावर दलित नेता फ़ूल सिंह बरैया,बीएसपी नेता भुजबल सिंह अहिरवार सरीखे कई दिग्गजों के साथ करीब चार हज़ार से ज़्यादा नेताओं ने बीजेपी का दामन थामा है । प्रहलाद पटेल की पार्टी में भूमिका पर फ़िलहाल कोई भी मुँह खोलने को तैयार नहीं है । पार्टी मानती है कि वे तो पहले भी भाजपा के सक्रिय सदस्य रहे हैं और पार्टी की रीति-नीति से बखूबी वाकिफ़ हैं । निश्चित ही वे प्रमुख भूमिका में नज़र आएँगे ।
हालाँकि संगठन दूसरे दलों से आये नेताओं को अपने रंग में रंगने के लिये प्रशिक्षण देने की बात कह रहा है । कहा जा रहा है कि उन्हें पार्टी के आचार-विचार से परिचित कराने के लिये ट्रेनिंग दी जायेगी । पार्टी की विचारधारा को पूरी तरह समझ लेने के बाद ही उनकी सक्रिय भूमिका के बारे में विचार किया जाएगा । मगर लाख टके का सवाल है,"टू मिनट नूडल" युग में किसी नेता के पास क्या इतना धैर्य और वक्त है ? घिस चुके बुज़ुर्गवार नेताओं को नये सिरे से ट्रेनिंग देने का तर्क हास्यास्पद है ।
पार्टी छोड़कर गये नेताओं की घर वापसी पर कार्यकर्ताओं और नेताओं को कोई आपत्ति नहीं है,लेकिन राजनीतिक कद बढ़ाने के लिये शिवराज की सबके लिये पार्टी के दरवाज़े खोल देने की रणनीति कई लोगों को रास नहीं आई । बेशक इस उठापटक से शिवराज को फ़ौरी फ़ायदा तो मिला ही है । आडवाणी और मोदी के साथ प्रधानमंत्री पद की दौड़ में नाम शुमार होना उनके लिये खुली आँखों से देखे सपने के साकार होने से कम नहीं । मगर पेचीदा सवाल यही है कि पार्टी इस सपने की क्या और कितनी कीमत चुकाने को तैयार है ?
भुने चने खाकर दिन-दिन भर सूरज की तपिश झेलते हुए जिन लोगों ने पार्टी की विचारधारा को जन-जन तक पहुँचाने का काम किया है,उनकी नज़रों के सामने काजू-किशमिश के फ़क्के लगाने वालों के लिये "रेड कार्पेट वेलकम" क्या गुल खिलायेगा ? क्या संघर्ष की राह पर चल कर सत्ता तक पहुँचने वाले दल के निष्ठावान कार्यकर्ताओं की अनदेखी पार्टी के लिये सुखद परिणिति कही जा सकेगी ? दिल्ली का ताज पाने के लिये संघर्ष पथ पर चल कर कुंदन बने अपने कार्यकर्ताओं और नेताओं को दरकिनार कर दूसरे दलों की "इमीटेशन ज्वेलरी" के बूते बीजेपी कब तक राजनीति की पायदान पर आगे बढ़ सकेगी ? ये तमाम सवाल भविष्य के गर्भ में छिपे हुए हैं । गुज़रता वक्त ही इनका जवाब दे सकेगा ।
ये किसी कीर्तिमान से कम नहीं कि महज़ एक पखवाड़े में चार हज़ार से ज़्यादा नेताओं का विश्वास बीजेपी की नीतियों में बढ़ गया । इस हृदय परिवर्तन के कारण अपनी पार्टी में उपेक्षा झेल रहे नेताओं की पूछ-परख एकाएक बढ़ गई । आम चुनाव में प्रदेश में "क्लीन स्वीप" का मंसूबा पाले बैठे शिवराज ने अपनी राजनीतिक हैसियत बढ़ाने के लिये "दलबदल अभियान" को बखूबी अंजाम दिया । राजनीति के उनके इस अनोखे अंदाज़ की खूब चर्चा रही और इस घटनाक्रम में लोगों की दिलचस्पी भी देखी गई । लेकिन चुनावी खुमार उतरने के साथ ही दूसरे दलों से ससम्मान लाये गये नये साथियों को लेकर ऊहापोह की स्थिति बनने लगी है । नये सदस्यों को अच्छी खातिर तवज्जो की उम्मीद है,वहीं पार्टी के कर्मठ और समर्पित नेताओं को इस पूछ-परख पर एतराज़ है ।
दल बदल कर आये सभी बड़े नेताओं को अभी तक पार्टी ने चुनाव में झोंक रखा था । इतनी बड़ी संख्या में आये लोगों की भूमिका को लेकर पार्टी के पुराने नेता चिंतित हैं । पार्टी से जुड़े नेता संशय में हैं कि कहीं उनकी निष्ठा और कर्मठता कुछ नेताओं की व्यक्तिगत आकांक्षाओं की भेंट ना चढ़ जायें । कुछ नेता तो यहाँ तक कह रहे हैं कि सक्रिय कार्यकर्ताओं का हक छीनकर यदि इन नवागंतुकों को सत्ता या संगठन में नवाज़ा गया,तो खुले तौर पर नाराज़गी ज़ाहिर की जायेगी ।
पार्टी सूत्रों के मुताबिक भाजश नेता प्रहलाद पटेल,पूर्व काँग्रेसी मंत्री बालेन्दु शुक्ल,काँग्रेस के पूर्व प्रदेश संगठन महामंत्री नर्मदा प्रसाद शर्मा,पूर्व विधायक मोहर सिंह,सुशीला सिंह,कद्दावर दलित नेता फ़ूल सिंह बरैया,बीएसपी नेता भुजबल सिंह अहिरवार सरीखे कई दिग्गजों के साथ करीब चार हज़ार से ज़्यादा नेताओं ने बीजेपी का दामन थामा है । प्रहलाद पटेल की पार्टी में भूमिका पर फ़िलहाल कोई भी मुँह खोलने को तैयार नहीं है । पार्टी मानती है कि वे तो पहले भी भाजपा के सक्रिय सदस्य रहे हैं और पार्टी की रीति-नीति से बखूबी वाकिफ़ हैं । निश्चित ही वे प्रमुख भूमिका में नज़र आएँगे ।
हालाँकि संगठन दूसरे दलों से आये नेताओं को अपने रंग में रंगने के लिये प्रशिक्षण देने की बात कह रहा है । कहा जा रहा है कि उन्हें पार्टी के आचार-विचार से परिचित कराने के लिये ट्रेनिंग दी जायेगी । पार्टी की विचारधारा को पूरी तरह समझ लेने के बाद ही उनकी सक्रिय भूमिका के बारे में विचार किया जाएगा । मगर लाख टके का सवाल है,"टू मिनट नूडल" युग में किसी नेता के पास क्या इतना धैर्य और वक्त है ? घिस चुके बुज़ुर्गवार नेताओं को नये सिरे से ट्रेनिंग देने का तर्क हास्यास्पद है ।
पार्टी छोड़कर गये नेताओं की घर वापसी पर कार्यकर्ताओं और नेताओं को कोई आपत्ति नहीं है,लेकिन राजनीतिक कद बढ़ाने के लिये शिवराज की सबके लिये पार्टी के दरवाज़े खोल देने की रणनीति कई लोगों को रास नहीं आई । बेशक इस उठापटक से शिवराज को फ़ौरी फ़ायदा तो मिला ही है । आडवाणी और मोदी के साथ प्रधानमंत्री पद की दौड़ में नाम शुमार होना उनके लिये खुली आँखों से देखे सपने के साकार होने से कम नहीं । मगर पेचीदा सवाल यही है कि पार्टी इस सपने की क्या और कितनी कीमत चुकाने को तैयार है ?
भुने चने खाकर दिन-दिन भर सूरज की तपिश झेलते हुए जिन लोगों ने पार्टी की विचारधारा को जन-जन तक पहुँचाने का काम किया है,उनकी नज़रों के सामने काजू-किशमिश के फ़क्के लगाने वालों के लिये "रेड कार्पेट वेलकम" क्या गुल खिलायेगा ? क्या संघर्ष की राह पर चल कर सत्ता तक पहुँचने वाले दल के निष्ठावान कार्यकर्ताओं की अनदेखी पार्टी के लिये सुखद परिणिति कही जा सकेगी ? दिल्ली का ताज पाने के लिये संघर्ष पथ पर चल कर कुंदन बने अपने कार्यकर्ताओं और नेताओं को दरकिनार कर दूसरे दलों की "इमीटेशन ज्वेलरी" के बूते बीजेपी कब तक राजनीति की पायदान पर आगे बढ़ सकेगी ? ये तमाम सवाल भविष्य के गर्भ में छिपे हुए हैं । गुज़रता वक्त ही इनका जवाब दे सकेगा ।
शुक्रवार, 1 मई 2009
क्यों नहीं गरमाता पानी का मुद्दा ?
देश में बढ़ते जल संकट को लेकर सरकार को उसकी ज़िम्मेदारी याद दिलाने के लिये सुप्रीम कोर्ट को सामने आना पड़ा है । सर्वोच्च न्यायालय की तल्ख टिप्पणी ऎसे वक्त आई है जब देश के ज़्यादातर हिस्से भीषण जलसंकट झेल रहे हैं । आसमान से आग बरसने का सिलसिला दिन पर दिन तेज़ होता जा रहा है । ऎसे में आने वाले दिनों में हालात क्या होंगे,समझना कतई मुश्किल नहीं है । लगभग पूरे देश में पीने के पानी की समस्या विकराल हो चुकी है । हैरत की बात है कि स्वच्छ पेयजल का मुद्दा राजनीतिक दलों के लिए कोई अहमियत नहीं रखता । जोड़-तोड़ की राजनीति के ज़रिये कुर्सी हथियाने की कोशिश में जुटे नेताओं के लिये लोकसभा चुनावों में यह कोई मुद्दा नहीं है ।
एक तरह से उच्चतम न्यायालय ने लोगों के दिल की बात कही है कि जो सरकार लोगों को पानी नहीं दे सकती, उसे सत्ता में रहने का कोई हक नहीं है । सुप्रीम कोर्ट ने युद्ध स्तर पर अनुसंधान के लिए वैज्ञानिकों की कमेटी भी गठित कर दी है । कोर्ट ने कहा कि अनुसंधान का मुख्य मुद्दा खारे समुद्री पानी को कम से कम खर्चे पर मीठे पेयजल में बदलना होगा।
केन्द्र सरकार की ओर से पेश हुए अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल पराग त्रिपाठी से न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू और एच एल दातू की पीठ ने कहा- यदि आप लोगों को पानी उपलब्ध नहीं करा सकते हैं तो सत्ता में बने रहने का कोई हक नहीं है । न्यायमूर्ति काटजू को निर्णय देते हुए रहीम का यह दोहा याद आया, "रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून, पानी गए न उबरे, मोती, मानस, चून।" उन्होंने दोहे (जल बिन जीवन नहीं) का उल्लेख करते हुए कहा- संविधान का अनुच्छेद २१ देश के सभी लोगों को जीने के अधिकार की गारंटी देता है।
रहीम का यह दोहा पानी की बात एक अलग स्तर पर कहता है,मगर हमारे अपने समय के बड़े कवि रघुवीर सहाय ने पानी और इसकी राजनीति पर कोई तीन दशक पहले कविता लिखी थी । वह पानी के लिए तरसाने की राजनीति की परतें उघाड़ते हुए कहती है कि जिस धरती को पानी नहीं मिला,उस धरती को आजाद नहीं कहा जा सकता है।
अधिवक्ता एमके बालकृष्णन ने इस मामले में दायर जनहित याचिका में कहा है कि देश भर में जल संकट का मुख्य कारण नदी समेत अन्य जल स्त्रोतों का अतिक्रमण है । कोर्ट ने कमेटी के गठन और कार्य प्रगति के बारे में केन्द्र को ११ अगस्त तक स्थिति रिपोर्ट पेश करने का निर्देश देते हुए कहा कि वह खुद इस उच्चाधिकार कमेटी के कामकाज पर नजर रखेगी । साथ ही सरकार से हर दो महीने में रिपोर्ट माँगेगी।
अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर होगा,यह भविष्यवाणी सही हो या न हो कह पाना फ़िलहाल मुश्किल है,मगर लोगों के बीच पानी को लेकर गली- मोहल्लों में खून ज़रुर बह रहा है । मध्यप्रदेश के कई इलाकों में पुलिस की चौकसी में पानी का वितरण इस बात की तस्दीक करता है । लोगों को प्यास बुझाने की कीमत जान गवाँ कर चुकाना पड़ रही है । इंदौर, उज्जैन सहित कई क्षेत्रों में टैंकरों से पानी भरने को लेकर उपजे विवादों में चाकू-छुरी से लेकर बंदूक निकल आना आम बात हो चुकी है । मालवांचल, बुंदेलखंड, छत्तीसगढ़ सहित तमाम क्षेत्रों के लोग पानी के लिए तरस रहे हैं । ऎसा नहीं है कि इंद्रदेवता भारत पर कृपादृष्टि बरसाने में कोई कंजूसी बरत रहे हों। देश में अब भी औसतन 1170 मिलीमीटर वर्षा होती है जो विश्व के ज़्यादातर देशों की तुलना में कहीं अधिक है ।
दरअसल समस्या पानी की नहीं उसके प्रबंधन की है । कई देशों में कम पानी के बावजूद हर परिवार को पर्याप्त पानी दिया जाता है । दुर्भाग्य से देश में ऎसी कोई जल नीति नहीं है जो पानी के बेजा इस्तेमाल पर रोक लगा सके । हमारे पास ना तो बरसात के पानी को सहेजने की कोई ठोस रणनीति नहीं है। बाढ़ के पानी से होने वाली तबाही को रोकने और नदी के रुख को मोड़ने के लिये भी हम अब तक कारगर उपाय नहीं तलाश पाये हैं । तमाम सरकारें पेयजल की उपलब्धता के बारे में कोई दीर्घकालिक नीति नहीं बना पाई हैं ।
इस बीच तालाबों और कुओं को सूखने-बर्बाद होने दिया गया। निजी आर्थिक स्वार्थों के चलते बरसाती जल के संरक्षण के लिए बड़े-बड़े बाँध बनाने के अलावा कोई गंभीर काम नहीं किया गया । समुद्रों के खारे पानी को मीठे जल में तब्दील करने की टेक्नालॉजी के विकास में कोई दिलचस्पी नहीं ली गई । नदियों को सूखने दिया गया, उन्हें गंदगी से भर जाने दिया गया । जमीन से पानी खींचने के लिए हैंडपंप और ट्यूबवेल खोदने की खुली छूट दी गई । अब तो भूजल स्तर भी रसातल में जा पहुँचा है । यह सब उस देश में हुआ,जहाँ नदियाँ ही नहीं,कुएँ तक पूजे जाने की भी परंपरा रही है । जहाँ प्यासे को पानी पिलाना धर्म माना जाता है।
देश की ग्रामीण आबादी पानी के संकट से कैसे जूझ रही है,इसकी कहीं से कोई खबर नहीं आती । किस तरह कारखानों का प्रदूषित कचरा जलस्रोतों को प्रदूषित कर रहा है,इसकी किसी को परवाह नहीं है। हाल ही में किये गये एक अध्ययन के मुताबिक भारत को छह फ़ीसदी की विकास दर बनाये रखने के लिये भी २०१३ तक मौजूदा दर से चार गुना ज़्यादा पानी की ज़रुरत होगी । आखिर यह पानी आयेगा कहाँ से ?
एक तरह से उच्चतम न्यायालय ने लोगों के दिल की बात कही है कि जो सरकार लोगों को पानी नहीं दे सकती, उसे सत्ता में रहने का कोई हक नहीं है । सुप्रीम कोर्ट ने युद्ध स्तर पर अनुसंधान के लिए वैज्ञानिकों की कमेटी भी गठित कर दी है । कोर्ट ने कहा कि अनुसंधान का मुख्य मुद्दा खारे समुद्री पानी को कम से कम खर्चे पर मीठे पेयजल में बदलना होगा।
केन्द्र सरकार की ओर से पेश हुए अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल पराग त्रिपाठी से न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू और एच एल दातू की पीठ ने कहा- यदि आप लोगों को पानी उपलब्ध नहीं करा सकते हैं तो सत्ता में बने रहने का कोई हक नहीं है । न्यायमूर्ति काटजू को निर्णय देते हुए रहीम का यह दोहा याद आया, "रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून, पानी गए न उबरे, मोती, मानस, चून।" उन्होंने दोहे (जल बिन जीवन नहीं) का उल्लेख करते हुए कहा- संविधान का अनुच्छेद २१ देश के सभी लोगों को जीने के अधिकार की गारंटी देता है।
रहीम का यह दोहा पानी की बात एक अलग स्तर पर कहता है,मगर हमारे अपने समय के बड़े कवि रघुवीर सहाय ने पानी और इसकी राजनीति पर कोई तीन दशक पहले कविता लिखी थी । वह पानी के लिए तरसाने की राजनीति की परतें उघाड़ते हुए कहती है कि जिस धरती को पानी नहीं मिला,उस धरती को आजाद नहीं कहा जा सकता है।
अधिवक्ता एमके बालकृष्णन ने इस मामले में दायर जनहित याचिका में कहा है कि देश भर में जल संकट का मुख्य कारण नदी समेत अन्य जल स्त्रोतों का अतिक्रमण है । कोर्ट ने कमेटी के गठन और कार्य प्रगति के बारे में केन्द्र को ११ अगस्त तक स्थिति रिपोर्ट पेश करने का निर्देश देते हुए कहा कि वह खुद इस उच्चाधिकार कमेटी के कामकाज पर नजर रखेगी । साथ ही सरकार से हर दो महीने में रिपोर्ट माँगेगी।
अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर होगा,यह भविष्यवाणी सही हो या न हो कह पाना फ़िलहाल मुश्किल है,मगर लोगों के बीच पानी को लेकर गली- मोहल्लों में खून ज़रुर बह रहा है । मध्यप्रदेश के कई इलाकों में पुलिस की चौकसी में पानी का वितरण इस बात की तस्दीक करता है । लोगों को प्यास बुझाने की कीमत जान गवाँ कर चुकाना पड़ रही है । इंदौर, उज्जैन सहित कई क्षेत्रों में टैंकरों से पानी भरने को लेकर उपजे विवादों में चाकू-छुरी से लेकर बंदूक निकल आना आम बात हो चुकी है । मालवांचल, बुंदेलखंड, छत्तीसगढ़ सहित तमाम क्षेत्रों के लोग पानी के लिए तरस रहे हैं । ऎसा नहीं है कि इंद्रदेवता भारत पर कृपादृष्टि बरसाने में कोई कंजूसी बरत रहे हों। देश में अब भी औसतन 1170 मिलीमीटर वर्षा होती है जो विश्व के ज़्यादातर देशों की तुलना में कहीं अधिक है ।
दरअसल समस्या पानी की नहीं उसके प्रबंधन की है । कई देशों में कम पानी के बावजूद हर परिवार को पर्याप्त पानी दिया जाता है । दुर्भाग्य से देश में ऎसी कोई जल नीति नहीं है जो पानी के बेजा इस्तेमाल पर रोक लगा सके । हमारे पास ना तो बरसात के पानी को सहेजने की कोई ठोस रणनीति नहीं है। बाढ़ के पानी से होने वाली तबाही को रोकने और नदी के रुख को मोड़ने के लिये भी हम अब तक कारगर उपाय नहीं तलाश पाये हैं । तमाम सरकारें पेयजल की उपलब्धता के बारे में कोई दीर्घकालिक नीति नहीं बना पाई हैं ।
इस बीच तालाबों और कुओं को सूखने-बर्बाद होने दिया गया। निजी आर्थिक स्वार्थों के चलते बरसाती जल के संरक्षण के लिए बड़े-बड़े बाँध बनाने के अलावा कोई गंभीर काम नहीं किया गया । समुद्रों के खारे पानी को मीठे जल में तब्दील करने की टेक्नालॉजी के विकास में कोई दिलचस्पी नहीं ली गई । नदियों को सूखने दिया गया, उन्हें गंदगी से भर जाने दिया गया । जमीन से पानी खींचने के लिए हैंडपंप और ट्यूबवेल खोदने की खुली छूट दी गई । अब तो भूजल स्तर भी रसातल में जा पहुँचा है । यह सब उस देश में हुआ,जहाँ नदियाँ ही नहीं,कुएँ तक पूजे जाने की भी परंपरा रही है । जहाँ प्यासे को पानी पिलाना धर्म माना जाता है।
देश की ग्रामीण आबादी पानी के संकट से कैसे जूझ रही है,इसकी कहीं से कोई खबर नहीं आती । किस तरह कारखानों का प्रदूषित कचरा जलस्रोतों को प्रदूषित कर रहा है,इसकी किसी को परवाह नहीं है। हाल ही में किये गये एक अध्ययन के मुताबिक भारत को छह फ़ीसदी की विकास दर बनाये रखने के लिये भी २०१३ तक मौजूदा दर से चार गुना ज़्यादा पानी की ज़रुरत होगी । आखिर यह पानी आयेगा कहाँ से ?
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शनिवार, 25 अप्रैल 2009
"अधिकार" पर झन्नाटेदार चाँटे
सत्ता,पैसा और मदिरा का नशा सिर चढ़कर बोलता है । मध्यप्रदेश में भी सत्ता के मद में चूर भाजपा के नेताओं का हाल कुछ ऎसा ही हो चला है । कल तक जूते-चप्पल मीडिया की सुर्खियाँ बटोर रहे थे,लेकिन अब चाँटों की झन्नाहट से लोग भौचक हैं ।
आडवाणी पर खड़ाऊ फ़ेंकने वाले पार्टी कार्यकर्ता को तो सलाखों के पीछे भेजने में ज़रा भी वक्त नहीं लगाया गया ।
ये और बात है मुँह छिपाने के लिये बीजेपी ने आरोपी पावस अग्रवाल को मानसिक रोगी करार देने में कोई देर नहीं की । सवाल सिर्फ़ इतना कि अगर पावस मनोरोगी है तो उसे हवालात की बजाय अस्पताल क्यों नहीं भेजा गया ? बहरहाल कार्यकर्ताओं को गलती पर सज़ा और आम जनता के सवालों पर आपा खोते नेताओं को ईनाम ...?
पिछले हफ़्ते महिला और बाल विकास मंत्री रंजना बघेल ने सवाल पूछने की ग़लती करने वाली महिला के गाल पर तमाचा जड़ दिया । उसका कसूर सिर्फ़ इतना था कि "आम" होने के बावजूद उसने "खास" से सरेआम सवाल पूछ डाला । वह जानना चाहती थी कि विधानसभा चुनाव के दौरान किया गया कर्ज़ माफ़ी का वायदा कब पूरा होगा ? इस पर मैडम इतनी उत्तेजित हो गईं कि उन्होंने आव देखा ना ताव महिला को दो तमाचे जड़ दिये । लेकिन मंत्री के खिलाफ़ कोई कार्रवाई होना तो दूर बीजेपी नेतृत्व खुलकर उनके पक्ष में आ खड़ा हुआ ।
उसी का नतीजा है कि विदिशा ज़िले के नवागाँव में बीजेपी नेता देवेन्द्र वर्मा ने चुनाव ड्यूटी में तैनात पीठासीन अधिकारी को झापड़ दे मारा । राज्यमंत्री का दर्ज़ा पाने वाले वर्मा को ग़ुस्सा महज़ इसलिये आ गया क्योंकि पीठासीन अधिकारी ने मतदान के लिये ज़रुरी दस्तावेज़ माँगने की नाकाबिले बर्दाश्त ग़ुस्ताखी की थी ।
ये दोनों घटनाएँ सामान्य नहीं हैं । मध्यप्रदेश के लोकतांत्रिक इतिहास की संभवतः ये अपने आप में अलग किस्म की घटनाएँ हैं । एक मामला सीधे आम जन और सरकार से जुड़ा हुआ है और दूसरा लोकतंत्र के महापर्व यानी चुनाव की व्यवस्था में जुटे निर्वाचन आयोग और मदमस्त नेता के बीच का । सवाल पूछना जनता का अधिकार है और ये अधिकार उसे संविधान ने दिया है । जवाब देना जनप्रतिनिधियों का दायित्व है । वे इसके लिये बाध्य हैं । क्षेत्र,समाज और देश के विकास का दायित्व सौंपने के लिये मतदाता उन्हें चुनता है । इसलिये वह सवाल-जवाब का हकदार भी है । वास्तव में चुना हुआ नेता जनसेवक होता है ।
दरअसल मंत्री महोदया का ये तमाचा लोकतंत्र के मुँह पर है । क्या जनप्रतिनिधि होने का मतलब सिर्फ़ इतना है कि वोट मैनेजमेंट के ज़रिये सत्ता हासिल की जाये और कुर्सी हाथिया ली जाये । बरसों से आम नागरिकों के हित में कोई काम तो किसी भी दल या नेता ने किया नहीं,अब सवाल पूछने का हक भी छीन लेने पर आमादा हैं । महिला के गाल पर चाँटा रसीद कर शायद यह संदेश देने की कोशिश की गई है कि सरकार के कामकाज पर सवाल उठाने का हक किसी को नहीं ।
"चोरी और सीनाज़ोरी" का आलम ये कि महिला विकास मंत्री श्रीमती बघेल ने उलटे महिला के ही खिलाफ़ रिपोर्ट लिखा दी । बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर का तर्क है कि महिला काँग्रेस से जुड़ी है और वह बार-बार सवाल पूछ कर परेशान कर रही थी । लेकिन क्या लोकतंत्र में किसी अन्य दल से जुड़े व्यक्ति को सवाल पूछने का हक नहीं है ?
नेताओं को नहीं भूलना चाहिये कि अब जनता जागरुक हो रही है । आज एक महिला ने सवाल पूछा है,कल ये तादाद कई गुना हो सकती है । किस - किस को चाँटे मारकर चुप करा सकेंगे । मुँह पर ताले जड़ भी जायें , मगर वोट की ताकत कौन छीन सकेगा ? मतदाता के तमाचे की झन्नाहट नेताओं को बहुत भारी पड़ सकती है । जो वोट उन्हें हाथ उठाने का ताकत देता है,वही वोट उनके बाज़ू काट भी सकता है । प्रदेश के सत्ताधारी नेताओं से बस इतनी गुज़ारिश है - वक्त है अब भी सम्हल जाओ, मदहोश ज़रा होश में आओ.......।
आडवाणी पर खड़ाऊ फ़ेंकने वाले पार्टी कार्यकर्ता को तो सलाखों के पीछे भेजने में ज़रा भी वक्त नहीं लगाया गया ।
ये और बात है मुँह छिपाने के लिये बीजेपी ने आरोपी पावस अग्रवाल को मानसिक रोगी करार देने में कोई देर नहीं की । सवाल सिर्फ़ इतना कि अगर पावस मनोरोगी है तो उसे हवालात की बजाय अस्पताल क्यों नहीं भेजा गया ? बहरहाल कार्यकर्ताओं को गलती पर सज़ा और आम जनता के सवालों पर आपा खोते नेताओं को ईनाम ...?
पिछले हफ़्ते महिला और बाल विकास मंत्री रंजना बघेल ने सवाल पूछने की ग़लती करने वाली महिला के गाल पर तमाचा जड़ दिया । उसका कसूर सिर्फ़ इतना था कि "आम" होने के बावजूद उसने "खास" से सरेआम सवाल पूछ डाला । वह जानना चाहती थी कि विधानसभा चुनाव के दौरान किया गया कर्ज़ माफ़ी का वायदा कब पूरा होगा ? इस पर मैडम इतनी उत्तेजित हो गईं कि उन्होंने आव देखा ना ताव महिला को दो तमाचे जड़ दिये । लेकिन मंत्री के खिलाफ़ कोई कार्रवाई होना तो दूर बीजेपी नेतृत्व खुलकर उनके पक्ष में आ खड़ा हुआ ।
उसी का नतीजा है कि विदिशा ज़िले के नवागाँव में बीजेपी नेता देवेन्द्र वर्मा ने चुनाव ड्यूटी में तैनात पीठासीन अधिकारी को झापड़ दे मारा । राज्यमंत्री का दर्ज़ा पाने वाले वर्मा को ग़ुस्सा महज़ इसलिये आ गया क्योंकि पीठासीन अधिकारी ने मतदान के लिये ज़रुरी दस्तावेज़ माँगने की नाकाबिले बर्दाश्त ग़ुस्ताखी की थी ।
ये दोनों घटनाएँ सामान्य नहीं हैं । मध्यप्रदेश के लोकतांत्रिक इतिहास की संभवतः ये अपने आप में अलग किस्म की घटनाएँ हैं । एक मामला सीधे आम जन और सरकार से जुड़ा हुआ है और दूसरा लोकतंत्र के महापर्व यानी चुनाव की व्यवस्था में जुटे निर्वाचन आयोग और मदमस्त नेता के बीच का । सवाल पूछना जनता का अधिकार है और ये अधिकार उसे संविधान ने दिया है । जवाब देना जनप्रतिनिधियों का दायित्व है । वे इसके लिये बाध्य हैं । क्षेत्र,समाज और देश के विकास का दायित्व सौंपने के लिये मतदाता उन्हें चुनता है । इसलिये वह सवाल-जवाब का हकदार भी है । वास्तव में चुना हुआ नेता जनसेवक होता है ।
दरअसल मंत्री महोदया का ये तमाचा लोकतंत्र के मुँह पर है । क्या जनप्रतिनिधि होने का मतलब सिर्फ़ इतना है कि वोट मैनेजमेंट के ज़रिये सत्ता हासिल की जाये और कुर्सी हाथिया ली जाये । बरसों से आम नागरिकों के हित में कोई काम तो किसी भी दल या नेता ने किया नहीं,अब सवाल पूछने का हक भी छीन लेने पर आमादा हैं । महिला के गाल पर चाँटा रसीद कर शायद यह संदेश देने की कोशिश की गई है कि सरकार के कामकाज पर सवाल उठाने का हक किसी को नहीं ।
"चोरी और सीनाज़ोरी" का आलम ये कि महिला विकास मंत्री श्रीमती बघेल ने उलटे महिला के ही खिलाफ़ रिपोर्ट लिखा दी । बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर का तर्क है कि महिला काँग्रेस से जुड़ी है और वह बार-बार सवाल पूछ कर परेशान कर रही थी । लेकिन क्या लोकतंत्र में किसी अन्य दल से जुड़े व्यक्ति को सवाल पूछने का हक नहीं है ?
नेताओं को नहीं भूलना चाहिये कि अब जनता जागरुक हो रही है । आज एक महिला ने सवाल पूछा है,कल ये तादाद कई गुना हो सकती है । किस - किस को चाँटे मारकर चुप करा सकेंगे । मुँह पर ताले जड़ भी जायें , मगर वोट की ताकत कौन छीन सकेगा ? मतदाता के तमाचे की झन्नाहट नेताओं को बहुत भारी पड़ सकती है । जो वोट उन्हें हाथ उठाने का ताकत देता है,वही वोट उनके बाज़ू काट भी सकता है । प्रदेश के सत्ताधारी नेताओं से बस इतनी गुज़ारिश है - वक्त है अब भी सम्हल जाओ, मदहोश ज़रा होश में आओ.......।
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