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शुक्रवार, 1 मई 2009

क्यों नहीं गरमाता पानी का मुद्दा ?

देश में बढ़ते जल संकट को लेकर सरकार को उसकी ज़िम्मेदारी याद दिलाने के लिये सुप्रीम कोर्ट को सामने आना पड़ा है । सर्वोच्च न्यायालय की तल्ख टिप्पणी ऎसे वक्त आई है जब देश के ज़्यादातर हिस्से भीषण जलसंकट झेल रहे हैं । आसमान से आग बरसने का सिलसिला दिन पर दिन तेज़ होता जा रहा है । ऎसे में आने वाले दिनों में हालात क्या होंगे,समझना कतई मुश्किल नहीं है । लगभग पूरे देश में पीने के पानी की समस्या विकराल हो चुकी है । हैरत की बात है कि स्वच्छ पेयजल का मुद्दा राजनीतिक दलों के लिए कोई अहमियत नहीं रखता । जोड़-तोड़ की राजनीति के ज़रिये कुर्सी हथियाने की कोशिश में जुटे नेताओं के लिये लोकसभा चुनावों में यह कोई मुद्दा नहीं है ।

एक तरह से उच्चतम न्यायालय ने लोगों के दिल की बात कही है कि जो सरकार लोगों को पानी नहीं दे सकती, उसे सत्ता में रहने का कोई हक नहीं है । सुप्रीम कोर्ट ने युद्ध स्तर पर अनुसंधान के लिए वैज्ञानिकों की कमेटी भी गठित कर दी है । कोर्ट ने कहा कि अनुसंधान का मुख्य मुद्दा खारे समुद्री पानी को कम से कम खर्चे पर मीठे पेयजल में बदलना होगा।

केन्द्र सरकार की ओर से पेश हुए अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल पराग त्रिपाठी से न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू और एच एल दातू की पीठ ने कहा- यदि आप लोगों को पानी उपलब्ध नहीं करा सकते हैं तो सत्ता में बने रहने का कोई हक नहीं है । न्यायमूर्ति काटजू को निर्णय देते हुए रहीम का यह दोहा याद आया, "रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून, पानी गए न उबरे, मोती, मानस, चून।" उन्होंने दोहे (जल बिन जीवन नहीं) का उल्लेख करते हुए कहा- संविधान का अनुच्छेद २१ देश के सभी लोगों को जीने के अधिकार की गारंटी देता है।

रहीम का यह दोहा पानी की बात एक अलग स्तर पर कहता है,मगर हमारे अपने समय के बड़े कवि रघुवीर सहाय ने पानी और इसकी राजनीति पर कोई तीन दशक पहले कविता लिखी थी । वह पानी के लिए तरसाने की राजनीति की परतें उघाड़ते हुए कहती है कि जिस धरती को पानी नहीं मिला,उस धरती को आजाद नहीं कहा जा सकता है।

अधिवक्ता एमके बालकृष्णन ने इस मामले में दायर जनहित याचिका में कहा है कि देश भर में जल संकट का मुख्य कारण नदी समेत अन्य जल स्त्रोतों का अतिक्रमण है । कोर्ट ने कमेटी के गठन और कार्य प्रगति के बारे में केन्द्र को ११ अगस्त तक स्थिति रिपोर्ट पेश करने का निर्देश देते हुए कहा कि वह खुद इस उच्चाधिकार कमेटी के कामकाज पर नजर रखेगी । साथ ही सरकार से हर दो महीने में रिपोर्ट माँगेगी।

अगला विश्‍व युद्ध पानी को लेकर होगा,यह भविष्यवाणी सही हो या न हो कह पाना फ़िलहाल मुश्किल है,मगर लोगों के बीच पानी को लेकर गली- मोहल्लों में खून ज़रुर बह रहा है । मध्यप्रदेश के कई इलाकों में पुलिस की चौकसी में पानी का वितरण इस बात की तस्दीक करता है । लोगों को प्यास बुझाने की कीमत जान गवाँ कर चुकाना पड़ रही है । इंदौर, उज्जैन सहित कई क्षेत्रों में टैंकरों से पानी भरने को लेकर उपजे विवादों में चाकू-छुरी से लेकर बंदूक निकल आना आम बात हो चुकी है । मालवांचल, बुंदेलखंड, छत्तीसगढ़ सहित तमाम क्षेत्रों के लोग पानी के लिए तरस रहे हैं । ऎसा नहीं है कि इंद्रदेवता भारत पर कृपादृष्टि बरसाने में कोई कंजूसी बरत रहे हों। देश में अब भी औसतन 1170 मिलीमीटर वर्षा होती है जो विश्व के ज़्यादातर देशों की तुलना में कहीं अधिक है ।

दरअसल समस्या पानी की नहीं उसके प्रबंधन की है । कई देशों में कम पानी के बावजूद हर परिवार को पर्याप्त पानी दिया जाता है । दुर्भाग्य से देश में ऎसी कोई जल नीति नहीं है जो पानी के बेजा इस्तेमाल पर रोक लगा सके । हमारे पास ना तो बरसात के पानी को सहेजने की कोई ठोस रणनीति नहीं है। बाढ़ के पानी से होने वाली तबाही को रोकने और नदी के रुख को मोड़ने के लिये भी हम अब तक कारगर उपाय नहीं तलाश पाये हैं । तमाम सरकारें पेयजल की उपलब्धता के बारे में कोई दीर्घकालिक नीति नहीं बना पाई हैं ।

इस बीच तालाबों और कुओं को सूखने-बर्बाद होने दिया गया। निजी आर्थिक स्वार्थों के चलते बरसाती जल के संरक्षण के लिए बड़े-बड़े बाँध बनाने के अलावा कोई गंभीर काम नहीं किया गया । समुद्रों के खारे पानी को मीठे जल में तब्दील करने की टेक्नालॉजी के विकास में कोई दिलचस्पी नहीं ली गई । नदियों को सूखने दिया गया, उन्हें गंदगी से भर जाने दिया गया । जमीन से पानी खींचने के लिए हैंडपंप और ट्यूबवेल खोदने की खुली छूट दी गई । अब तो भूजल स्तर भी रसातल में जा पहुँचा है । यह सब उस देश में हुआ,जहाँ नदियाँ ही नहीं,कुएँ तक पूजे जाने की भी परंपरा रही है । जहाँ प्यासे को पानी पिलाना धर्म माना जाता है।

देश की ग्रामीण आबादी पानी के संकट से कैसे जूझ रही है,इसकी कहीं से कोई खबर नहीं आती । किस तरह कारखानों का प्रदूषित कचरा जलस्रोतों को प्रदूषित कर रहा है,इसकी किसी को परवाह नहीं है। हाल ही में किये गये एक अध्ययन के मुताबिक भारत को छह फ़ीसदी की विकास दर बनाये रखने के लिये भी २०१३ तक मौजूदा दर से चार गुना ज़्यादा पानी की ज़रुरत होगी । आखिर यह पानी आयेगा कहाँ से ?

सोमवार, 26 जनवरी 2009

अभावों को समृद्धि में बदलना सीखें इज़राइल से

गाज़ा पट्टी पर कब्ज़े को लेकर इज़राइल और हमास के बीच चले आ रहे संघर्ष को लेकर दो तरह की बातें सुनने मिलती हैं । कुछ लोग इज़राइल की सैन्य कार्रवाई को बर्बर और गैरज़रुरी बताते हुए मानवता की दुहाई देते हैं । वहीं एक बडा तबका ऎसा भी है जो हमास को नेस्तनाबूद करने के इज़राइली संकल्प को आतंकवाद के खिलाफ़ जंग से जोड कर देखता है ।

चिंतक और विश्लेषक घनश्याम सक्सेना ने अपनी यूरोप यात्रा के दौरान इज़राइली विद्वान नेटेनल लार्च से हुई बातचीत का हवाला देते हुए हाल ही में मुझे इज़राइलियों के संघर्षशील स्वभाव के बारे में बताया । लार्च के मुताबिक इज़राइल की हर मोर्चे पर सफ़लता का एकमात्र सूत्र वाक्य है - विपरीत परिस्थितियों में भी संघर्ष का जज़्बा कायम रखना और बेहतर के लिए सतत प्रयासरत रहना । इज़राइली किसी भी काम को छोटा - बडा समझने की बजाय उसे अपना कर्तव्य मानकर निभाते हैं ।

अरब देशों ने जब जार्डन नदी पर बांध बनाकर इज़राइल को पानी मिलने की सभी संभावनाओं पर रोक लगा दी , तो संघर्षों में रास्ता तलाशने वालों ने समुद्र के खारे पानी को अपनी तासीर बदलने पर मजबूर कर दिया । आज इज़राइल की ड्रिप इरीगेशन तकनीक खेती के लिए मिसाल बन चुकी है । वे रेगिस्तान में भी रसीली नारंगी का भरपूर उत्पादन लेते हैं । हम पानी को खेतों में बेतहाशा बहा कर उर्वरा भूमि को बंजर में तब्दील कर देते हैं । "टपक विधि" अपनाकर भरपूर पैदावार लेने वाले इज़राइली सबक हैं भारतीय किसानों के लिए ।

नेपाल में रहने वाले मेरे पारिवारिक मित्र "पानी की खेती" की तकनीक का प्रशिक्षण लेने के लिए इज़राइल गये थे । वे इज़राइलियों की तकनीकी सूझबूझ से चमत्कृत थे । उन्होंने बताया कि किस तरह महज़ दो- चार फ़ीसदी बरसात के पानी का वे खूबसूरती से इस्तेमाल करते हैं । वहां घरों में तीन तरह के नलों से पानी पहुंचाया जाता है और हरेक पानी का उपयोग भी तयशुदा होता है । दूसरी तरफ़ हम हैं । प्रकृति ने हमें सैकडों नदियों का वरदान दिया । हज़ारों तालाबों की दौलत से नवाज़ा और अनगिनत कुएं- बावडियों की सौगात भी बख्शी । बादलों की मेहरबानी भी जमकर बरसती है , लेकिन हमने कुदरत की इस बख्शीश की कीमत ही नहीं जानी । नतीजतन आज देश में पानी के लिए त्राहि - त्राहि मची है ।

लार्च ने हिब्रू भाषा में लिखी अपनी किताब ’मेज़ेल टोव’ यानी ’गुड लक” का हवाला देते हुए बताया कि जिस ब्रिटिश कूटनीति के फ़लस्वरुप 15 अगस्त 1947 को भारतीय उपमहाद्वीप का बंटवारा हुआ उसी वजह से अरब देशों के बीच शत्रुता के माहौल में 14 मई 1948 को इज़राइल का जन्म हुआ । आज़ादी के कुछ ही महीनों बाद जिस तरह कश्मीर पर पाकिस्तानी कबायलियों ने हमला किया था ,उसी तरह इज़राइल पर सात अरब देशों ने हमला बोल दिया ।

आतंकवाद से निपटने के मामले में भारत और इज़राइल के सामर्थ्य की चर्चा के दौरान लार्च ने श्री सक्सेना को कई असमानताएं गिनाईं । लार्च मानते हैं "हमें अभावों का वरदान मिला है ,जबकि भारत को समृद्धि का अभिशाप । इसलिए इज़राइल ने अभावों को समृद्धि में बदलने का हुनर सीखा । दूसरी ओर समृद्ध भारत ’सब चलता है’ के नज़रिए के साथ आगे बढा ।"

इज़राइली विद्वान लार्च भारत को शॉक एब्ज़ार्वर करार देते हुए कहते हैं कि " हम एक आतंकी हमला चुपचाप सह लें तो खत्म हो जाएंगे । हम शत्रु राष्ट्रों को धमकी नहीं देते ,बल्कि सीधे वार करते हैं । इधर भारत लगातार चेतावनी तो देता है मगर कार्रवाही कुछ नहीं करता । इज़राइल आतंकवादियों को ईंट का जवाब पत्थर से देता है ।"

मेरे परिचितों की ज़ुबानी इन वृतांतों को सुनने के बाद से मेरा मन सवाल कर रहा है कि क्या भारत अपने हमउम्र साथी राष्ट्र से कभी कोई सबक सीख पाएगा ? क्या कुदरत की नियामतों को सहेजने की सलाहियत हम लोगों में कभी आ पाएगी ..? क्या ऎसा भी कोई दिन आएगा जब कोई दुश्मन आंख उठाकर देखने की हिमाकत करे तो हम उसकी आंखें निकाल लें ...? कब मेरे देश का हर खेत हरियाली से लहलहाएगा और हर शख्स भरपेट भोजन कर चैन की नींद सो सकेगा अपनी छत के नीचे ...? मुझे उम्मीद ही नहीं पूरा यकीन है कि आज भी हम सब हालात बदलने की ताकत रखते हैं । अपनी हिकमत और हिम्मत से हर तूफ़ान का रुख बदल सकते हैं ।
हम बचाएंगे , सजायेंगे, संवारेंगे तुझे
हर मिटे नक्श को चमका के उभारेंगे तुझे
अपनी शह - रग का लहू दे के निखारेंगे तुझे
दार पे चढ के फ़िर इक बार पुकारेंगे तुझे
राह इमदाद की देखें ये भले तौर नहीं
हम भगत सिंह के साथी हैं कोई और नहीं

सोमवार, 3 नवंबर 2008

.............. झील की मौत पर गिद्ध भोज की तैयारी !

ताल - तलैयों के शहर के तौर पर मशहूर भोपाल की पहचान खतरे में है । यहां की बडी झील शायद पूरे भारत की एकमात्र मानव निर्मित विशालकाय जल संरचना होगी । मुझे याद है वो दिन जब हम गर्मी की छुट्टियां बिताने इंदौर जाया करते थे और अप्रैल - मई की तपते दिनों में भी भोपाल से ४० किलोमीटर दूर सीहोर से कुछ किलोमीटर पहले तक बडा तालाब हमें बिदाई देने आया करता था । हिलोरें लेता तालाब बालमन में अथाह समुद्र की छबि साकार कर देता ।

बूंद - बूंद पानी के लिए जद्दोजहद करते इंदौरियों के बीच " हमारा बडा तालाब " हमें अजीब सी ठसक और फ़्ख्र से भर देता । लेकिन हमारा वही गुमान अब अंतिम सांसे गिन रहा है । तालाब दम तोड रहा है । लेकिन झील की मौत पर सोगवार होने वाले लोग ढूंढे से नहीं मिल रहे । हां ,जगह - जगह चील गिद्ध मृतयुभोज की तैयारियों में मसरुफ़ हैं । लोगों ने पोस्टर बैनर झाड - पोंछकर तैयार कर लिए हैं । मंहगा पेट्रोल फ़ूंक कर सडकों पर गाडियां दौडाते हुए पानी बचाने की सीख दी जा रही है ।

इस बीच एक बडे समूह को भी पानी की कीमत का एहसास हो ही गया । सो ’ जल है ,तो कल है ’ के नारे के साथ शहर में जल सैनिक बनाने की मुहिम छेड दी गई है । जल सत्याग्रह की ये कोशिश कितनी ईमानदार है , इसका खुलासा तो वक्त ही करेगा । भोज वेटलैंड परियोजना के नाम पर विदेशी मदद के अरबों रुपए पानी में बह गये ,मगर बडी झील का पानी नहीं बचाया जा सका ।

बेशर्मी का आलम ये है कि सूखी झील पर फ़सलें लहलहाने लगीं , तब कहीं प्रशासन को होश आया । यूं तो बडा तालाब ३१ वर्ग किलोमीटर में फ़ैला था लेकिन इस साल बारिश की कमी के कारण अब सिर्फ़ १० वर्ग किलोमीटर दायरे में सिमट कर रह गया है । भू माफ़िया ने १५० एकड से ज़्यादा हिस्से में खेती शुरु कर दी । बहरहाल देर से ही सही प्रशासन को होश तो आया । फ़िलहाल ज़मीन का बेज़ा कब्ज़ा हटा दिया गया है । आगे भगवान मालिक ........।

झील की लाश पर मौज उडाने वाले ये भूल बैठे हैं कि पानी कारखानों में बनने वाला प्राडक्ट नहीं है । कुदरत की इस नायाब नियामत की नाकद्री मंहगी पडेगी हमें भी और आने वाली नस्लों को भी । लोग पैसा बचा रहे हैं और पानी बहा रहे हैं । नल की टोंटी खोलते ही आसानी से मिल जाने वाला पानी आने वाले वक्त में इस लापरवाही की क्या कीमत वसूलेगा । इसके महज़ एहसास से रुह कांप उठती है ।

राजधानी के पुराने इलाके में नवाबी दौर की करीब २५० बावडियां और कुएं बदहाली के शिकार हैं । किसी ज़माने में ये पारंपरिक जल स्त्रोत लोगों की प्यास बुझाते थे । साथ ही उनके रोज़मर्रा के कामों के लिए भी भरपूर पानी मुहैया कराते थे । हैरानी है कि भारी उपेक्षा के बावजूद १०० से ज़्यादा बावडियों का वजूद अब भी कायम है । हम सभी को समझना होगा कि जल है तो जीवन है या जल है तो कल है जैसे लोक लुभावन नारों के उदघोष से काम नहीं बनने वाला । पानी की मित्तव्ययिता का संस्कार पैदा करना होगा । एक बार फ़िर लौटना होगा अपनी परंपराओं की ओर जो हमें प्रकृति से लेना ही नहीं वापस लौटाना और संरक्षण की सीख भी देती हैं । पानी की अहमियत को समझाने के लिए ये दोहा है -

रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून ,
पानी गये ना उबरे मोती , मानस , चून ।