मंगलवार, 30 दिसंबर 2008

हिन्दी ब्लॉगिंग पर टिड्डी दल का हमला

सावधान ब्लॉगर बंधुओं .....। हिन्दी के विकास के लिए काम करने वाले मठाधीशों के टिड्डी दल हमले की तैयारी में है । राजभाषा हिन्दी के उद्धारकों की निगाह हिन्दी ब्लॉगिंग पर पड गई है और जल्दी ही ये खेमा पूरे लाव लश्कर के साथ धावा करने वाला है । लार्वा और प्यूपा तो काफ़ी समय से नज़र आ रहे थे , लेकिन टिड्डी दल का आक्रमण हम जैसे तमाम छोटे - छोटे नौसीखिए ब्लॉगरों की नई उगती फ़सल को मिनटों में सफ़ाचट कर देगा । हिन्दी पर कृपादृष्टि बरसाने वाले पतित पावनों को अब ब्लॉग जगत के उद्धार [बंटाढार] की फ़िक्र सताने लगी है ।

कविता , व्यंग्य , निबंध और कहानी पाठ के माध्यम से हिन्दी को लोकप्रिय बनाने के हथकंडे आज़मा रहे ’चुके हुए लोग” अब हिन्दी ब्लॉग पाठ के प्रयोग को सफ़ल बनाने पर उतारु हैं । इस कवायद से हिन्दी का कितना भला हो सकेगा ये तो वक्त ही बताएगा । लेकिन इस नई पहल से हिन्दी के मठाधीशों का भला होना तय है ।

मेरा मानना है कि सरकारी अनुदान और प्रश्रय पाकर हिन्दी की चिन्दी ही हुई है । अंग्रेज़ीदां हिन्दी प्रेमियों ने हिन्दी को किताबी भाषा बनाकर रख दिया है । गोष्ठियों , चर्चाओं तक सिमट कर रह गई राजभाषा की इस दुर्दशा के लिए हिन्दी के ही स्वनामधन्य विद्वान ज़िम्मेदार हैं । "किसी देश की स्मृति ,संस्कृति और राष्ट्रीयता को भाषा ही प्रतिबिम्बित करती है ।" शैलेश मटियानी के इस कथन को यदि थोडा और विस्तार दिया जाए तो कहा जा सकता है - किसी देश की स्मृति ,संस्कृति और राष्ट्रीयता को भाषा ही संरक्षित भी रखती है ।

जिस तरह स्मृति ,संस्कृति और राष्ट्रीयता के प्रश्न किसी जाति की अस्मिता से जुडे होते हैं , उसी तरह भाषा का प्रश्न भी हमारी अस्मिता और हमारे अस्तित्व से जुडा है । लेकिन आज मुश्किल ये है कि ये सवाल चंद मुट्ठी भर लोगों के चिंतन का विषय बनकर रह गया है । इस जमात में भी कई लोग ऎसे हैं , जो खुद भी अपने कहे और सोचे पर अमल करने में नाकाम हैं । बाकी बचे वे लोग जो कुछ करने की स्थिति में हैं ,मगर निहित स्वार्थों के वशीभूत आँखें मूंद रखी हैं और देश को उसके हाल पर छोड दिया है , जबकि इस जनतंत्र में जन की तो अभी ठीक से आँखें भी पूरी तरह नहीं खुलीं हैं । मूंदने या सच को देखने या फ़िर अनदेखा करने की तो बात ही कौन कहे ...?

बहरहाल मुख्य मुद्दा ये है कि ब्लॉग पाठ के ज़रिए हिन्दी को जनप्रिय बनाने की कोशिश कितनी कारगर साबित होगी । आप मुझे कुएं का मेंढक करार दे सकते हैं ,लेकिन मैं तो भोपाल को केन्द्र में रखकर ही चीज़ों को देखने समझने की आदी हो चुकी हूं । वैसे भी जिस तरह इंदौर को मुम्बई बच्चा कहा जाता है ,उसी तरह दिल्ली और भोपाल के मिजाज़ भी कमोबेश एक से हैं । सरकारी ढर्रा दोनों राजधानियों की तस्वीर को हमजोली बना देता है । ये और बात है कि दिल्ली का इतिहास काफ़ी लम्बा है और भोपाल महज़ डेढ - दो सौ सालों की यादें अपने में समेटे है ।

भोपाल में एक हिन्दी भवन है । जूते ,चप्पल ,कपडों की महासेल और विवाह समारोह के शोर शराबे के बीच यहां हिन्दी की सेवा कितनी हो पाती है भगवान ही जाने ...। यही हाल हिन्दी साहित्य सम्मेलन का भी है । इसी तरह की कुछ और भी हिन्दी सेवी संस्थाएं हैं , जो 14 सितम्बर [हिन्दी दिवस]के आसपास सुसुप्तावस्था से बाहर आती हैं और फ़िर ’हाइबरनेश’ में चला जाता है । हिन्दी का सारा ज्ञान ’सरकारी अनुदान’ हासिल करने की लिखत - पढत में ही काम आता है ।

कहावत है -" जहं - जहं पैर पडे संतन के , तहं - तहं बंटाढार ।" उसी तरह जिस जगह सरकार की कृपावर्षा हुई , उसका तो खुदा हाफ़िज़ ...। संगीत , नाटक , ललित कला , हस्तकला और लोक कलाओं के संरक्षण के लिए चिंतातुर बडे - बडे सरकारी संस्थान ’ सफ़ेद हाथी’ बन चुके हैं और कलाएं धीरे - धीरे दम तोड रही हैं । हाल ही में राजधानी में एक लोककला समारोह हुआ था , जिसका आमंत्रण पत्र किसी धनाढ्य के बेटे की शादी की पत्रिका से किसी भी मायने में कमतर नहीं था । उस कार्ड की कीमत सुन कर तो मेरे होश ही फ़ाख्ता हो गये । चार सौ रुपए कीमत के आमंत्रण पत्र वाले आयोजन पर सरकार ने कितना खर्च किया होगा , इसका अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है , लेकिन इससे लोक कलाकारों की ज़िन्दगी में क्या बदलाव आया ..?लोक कलाकारों के लिए ये आयोजन -’चार दिन की चांदनी , फ़िर अंधियारी रात।’

इसलिए एक बार फ़िर आपको आगाह किए देते हैं कि बचा सको तो , बचा लो हिन्दी ब्लॉगिंग को ...। हिन्दी के मठाधीशों के जैविक हमले से बचने के उपाय सोचो , वरना हिन्दी ब्लॉगिंग की ’भ्रूण हत्या’ की पूरी आशंका है । जिस भी विधा में आम को ठेल कर खास लोग आते हैं , वह संग्रहालय में प्रदर्शन की वस्तु बनकर रह जाती है । जागो ब्लॉगर जागो ............

रविवार, 28 दिसंबर 2008

शनिदेव की न्यायप्रियता पर उठते सवाल

देश के श्रद्धालुओं के दिलों में इन दिनों शनि महाराज का वास है । तमाम मुश्किलात से दो चार हो चुके प्रवचन किंग आसाराम का सिंहासन बिनाका गीतमाला का सरताज बना रहने में कामयाब है । प्राणायाम और कपालभाति सिखाते - सिखाते बाबा रामदेव योग गुरु से राजनीति के गुरु घंटाल बनने की जुगत भिडाने में जुट गये हैं । राज कपूर ने राम जी को मैली होती गंगा की दुहाई दी थी ,लेकिन तब ना सरकार जागी ना ही जनता चेती । अब जब कुछ उद्योग घरानों को विलुप्त होती गंगधारा में खज़ाना नज़र आने लगा है , तो भागीरथी को बचाने के लिए सरकारी तौर पर प्रयास शुरु करने की बात कही जा रही है

इस बीच न्याय के देवता कहे जाने वाले शनिदेव के आराधकों का ग्राफ़ दिनोंदिन ऊर्ध्वगामी होता जा रहा है । ज़्यादा वक्त नहीं गुज़रा जब लोग शनि की दृष्टिपात से भी खौफ़ज़दा रहते थे । शनि का दान देते समय सावधान्र रहते थे । शनि दान लेने वाले के प्रति भी नज़रिया ज़रा तंग ही होता था । लेकिन जय हो टीवी देव की...........।

कहते हैं ना , वक्त का फ़ेर है । समय होत बलवान । सो चैनलों ,समाचार पत्रों , ज्योतिषियों और चंद स्वनाम धन्य शनि उपासकों के गठजोड ने ’छाया मार्तंड” को त्रिलोक का अधिष्ठाता बना दिया । पिछले चार - पांच सालों में भोपाल में कदम कदम पर शनि महाराज ने डेरा डाल लिया है । हर मोर्चे पर नाकाम रहे एक शख्स ने एक ज़मीन पर बलात कब्ज़ा किया , फ़िर शनि की महिमा का बखान किया । घर पर शनि का दरबार सजाया , लोगों को शनि के दंड का डर दिखाया । आज वह करोडों की ज़मीन का स्वामी है ।

न्याय के इस आधुनिक देवता ने इस उपासक पर इतनी कृपा बरसाई कि ४० हज़ार रुपए स्क्वाय्रर फ़ुट की न्यू मार्केट की ज़मीन उसकी झोली में डाल दी । यहां नगर निगम के पार्किंग स्थल पर पिछले एक साल में शनिदेव ने अपना झंडा ना सिर्फ़ गाड दिया बल्कि करीब पांच हज़ार स्क्वाय्रर फ़ुट पर देखते ही देखते शिंगनापुर के शनि महाराज का प्राकट्य हो गया । कल की शनिश्चरी अमावस्या ने भी आराधक पर खूब कृपा वर्षा की । हज़ारों भक्तों ने काले तिल , महंगे तेल और काले वस्त्रों का दान कर शनिदेव का भरपूर आशीर्वाद लिया ।

शनिदेव की बढती लोकप्रियता ने तो तैंतीस करोड देवताओं में से कुछ लोकप्रिय और सर्वव्यापी भगवानों को भी पीछे छोड दिया है । शबरी के राम और कुब्जा के कृष्ण की तो कौन कहे , हर पुलिस चौकी में पीपल के नीचे विराजमान रामभक्त पवनपुत्र हनुमान की पूछपरख भी कम हो चली है । मेरे घर के चार किलोमीटर के दायरे में सरकारी ज़मीनों पर अब तक मैं कम से कम दस शनिधाम देख चुकी हूं ।

जिस तरह बालीवुड में तीन खानों का बोलबाला है । उसी तरह आस्था के बाज़ार में शनिदेव सहित तीन देवताओं ने धूम मचा रखी है । जब से शनिदेव के साथ धन की देवी लक्ष्मी का उल्लेख किया जाने लगा है , भौतिकवाद का उपासक समाज एकाएक शनिदेव का आराधक हो गया है ।
मैंने तो शनि को न्याय के देवता के रुप में जाना - समझा । बेशर्मी से ज़मीन हथियाने और लोगों की आस्था के साथ खिलवाड करने वाले लोगों को रातों रात धनाढ्य होते देख कर मन संशय से भर उठता है ।

क्या वाकई शनि न्याय प्रिय हैं ...? अगर हैं , तो क्या धर्म और न्याय की परिभाषा बदल गई है .....? शनि गलत काम करने वालों को तत्काल दंडित करते हैं ऎसा कहा गया है । यदि ये सच है तो फ़िर ये माना जाए कि बेजा कब्ज़ा , दूसरों का माल हडपना , रिश्वतखोरी , चंदाखोरी , गुंडागर्दी और कायदे कानूनों का उल्लंघन अपराध नहीं हैं । शनि देव तो हो सकता है कुछ वक्त लगाएं ,लेकिन जिन अधिकारियों और नेताओं की नाक के नीचे ये सब काम होता है और जिसे रोकना उनकी ज़िम्मेदारी है , वो क्यों आंखें मूंदे बैठे रह्ते हैं .....? इनकी आंखें कब और कैसे खुलेंगी ....... खुलेंगी भी या नहीं .......? कह पाना बडा ही मुश्किल है .....?

शनिदेव से निराशा हाथ लगने के बाद अब तो मेरी निगाहें कल्कि अवतार पर ही टिकी हैं । हे कल्कि देव सफ़ेद घोडे पर हो कर सवार जल्दी लो अवतार ........।

शनिवार, 27 दिसंबर 2008

कहते हैं कि गालिब का है अंदाज़े बयाँ और

हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि गालिब का है अंदाज़े बयाँ और ।
उर्दू अदब में यूँ तो बडे - बडॆ उस्तादों ने अपने अशारों से शायरी को नए मकाम तक पहुंचाया , लेकिन मिर्ज़ा असदुल्लाह खां ’गालिब’ का अंदाज़ ही निराला है । गालिब के शे’र सिर्फ़ मोहब्बत की शायरी की शिनाख्तगी ही नहीं हैं । उनका सारा फ़लसफ़ा इस दुनिया में आज भी उतना ही चलन में है , जितना शायद उनके दौर में रहा हो । गालिब की शायरी में हमें अपने आसपास के हर रंग की मौजूदगी का एहसास मिलता है । कमाल सिर्फ़ और सिर्फ़ गालिब की शायरी का है । वे एक दौर के शायर नहीं हैं ।
गालिब की गज़लें जब पहली मर्तबा ईरान से निकलकर दिल्ली की गलियों तक पहुंची और फ़िर दिल्ली से जो सफ़र शुरु हुआ , उसके करीबन सौ साल बाद फ़ैसला हुआ कि गालिब अपने दौर की सबसे अलहदा और उम्दा आवाज़ थी । तब से लेकर अब तक कई बेहतरीन सुखनवर हुए लेकिन गालिब के कद को तो छोडिए कोई अब तक उनके कंधे तक भी नहीं पहुंच पाया । मीर दुनिया से बेज़ार थे ,वहीं गालिब दुनिया के हर रंग से वाकिफ़ थे । उन्होंने अपने अल्फ़ाज़ से ज़िंदगई के सारे पहलुओं को छुआ ।
ग़ालिब उर्दू के सबसे मशहूर शायर हैं। वे बहादुरशाह जाफ़र के ज़माने में हुए और 1857 का गदर उन्होंने देखा। अव्यवस्था और निराशा के उस ज़माने में वे अपनी पुरसुकूं शख्सियत, मानव-प्रेम, सीधा स्पष्ट यथार्थ और इन सबसे अधिक, दार्शनिक दृष्टि लेकर साहित्य में आये। शुरू में तो लोगों ने उनकी मौलिकता की हंसी उड़ाई लेकिन बाद में उसे इतनी तेज़ी से बढ़ावा मिला कि शायरी दुनिया का नज़ारा ही बदल गया।
पूछते हैं वो कि ‘ग़ालिब’ कौन है,
कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या
ये मसाइले-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान ‘ग़ालिब’
तुझे हम वली समझते जो न बादहख़्वार होता
यह केवल मिर्ज़ा ‘ग़ालिब’ की सादगी ही है , जो बादहख़्वार होने के कारण उन्होंने अपने ‘वली’ होने का दावा नहीं किया । जहां तक उर्दू अदब का ताल्लुक है और इससे भी ज़्यादा साहित्य और ज़िंदगी के जुडाव है, ‘ग़ालिब’ न केवल अपने ज़माने के ‘अदबी बली’ (साहित्यिक अवतार) थे, न केवल आधुनिक युग के ‘अदबी अली’ हैं, बल्कि जब तक उर्दू भाषा और उसका साहित्य मौजूद रहेगा, उनका स्थान ‘अदबी वली’ के रूप में हमेशा कायम रहेगा। परम्पराओं से विद्रोह करने और लीक से हटकर बात कहने के जुर्म में ज़माना जो बर्ताव हर ‘वली’ से करता रहा है , वैसा ही ‘ग़ालिब’ के साथ भी हुआ।

‘ग़ालिब’ से पहले उर्दू शायरी में भाव-भावनाएं तो मौजूद थीं, मगर भाषा और शैली के ‘चमत्कार’ ‘गुलो-बुलबुल’, ‘जुल्फ़ो-कमर’ (माशूक़ के केश और कमर) ‘मीना-ओ-जाम’ (शराब की सुराही और प्याला) की कसीदाकारी तक सिमट कर रह गए थे। बहुत हुआ तो किसी ने तसव्वुफ़ (सूफ़ीवाद) का सहारा लेकर संसार की असारता और नश्वरता पर दो-चार आँसू बहा दिए। ऐसे समय में, जबकि अधिकांश शायर :
सनम सुनते हैं तेरी भी कमर है,
कहां है ? किस तरफ़ है ? औ’ किधर है ?
सितारे जो समझते हैं ग़लतफ़हमी है ये उनकी
फ़लक पर आह पहुंची है मेरी चिनगारियां होकर।
को ‘नाजुक-ख़याली’ और शायरी का शिखर मान रहे थे, ‘ग़ालिब’ ने
दाम हर मौज में है हल्क़ा-ए-सदकामे-नहंग
देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहर होने तक ?
और
है परे सरहदे-इदराक से अपना मसजूद
क़िबला को अहले-नज़र क़िबलानुमा कहते हैं।
की बुलंदी से ग़ज़लगो शायरों को, और :
बक़द्रे-शौक़ नहीं ज़र्फे-तंगनाए ग़ज़ल
कुछ और चाहिए वुसअ़त मेरे बयां के लिए ।
की बुलंदी से नाजुकमिज़ाज ग़ज़ल को ललकारा तो नींद के मातों और माशूक़ की कमर की तलाश करने वालों ने चौंककर इस उद्दण्ड नवागान्तुक की ओर देखा। कौन है यह ? यह किस दुनिया की बातें करता है ? फब्तियां कसी गईं। मुशायरों में मज़ाक उड़ाया गया। किसी ने उन्हें मुश्किल-पसंद (जटिल भाषा लिखने वाला) कहा, तो किसी ने मोह-मल-गो (अर्थहीन शे’र कहने वाला) और किसी ने तो सिरे से सौदाई ही कह डाला। लेकिन, जैसा कि होना चाहिए था, ‘ग़ालिब’ इन तमाम विरोधों और तानाकाशी को सहन करते रहे-हंस-हंसकर.. . .
न सताइश की तमन्ना न सिले की परवा
गर नहीं हैं मेरे अशआ़र में माने न सही।
कहते हुए जीवन के गीत गाते रहे। यहां तक कि उनके क़लम की आवाज़ रुहानी आवाज़ का रूप धारण कर गई और आज वही रुहानियत हमारे दिलो- दिमाग पर तारी होकर नये-नये रास्ते सुझा रही है। ‘ग़ालिब उर्दू भाषा के एकमात्र शायर हैं जिनके व्यक्तित्व और साहित्य पर सबसे अधिक लेख, समालोचनात्मक पुस्तकें लिखी गई हैं। (उनके अपने ‘दीवान’ के तो इतने संस्करण निकल चुके हैं कि उसकी गिनती नामुमकिन है ) और जिनके शे’रों को जितनी बार पढ़ा जाए, उतनी बार नये भावार्थ के साथ सामने आते हैं।
मिर्ज़ा असद-उल्ला खां ‘ग़ालिब’ जो पहले ‘असद’ उपनाम से और फिर ‘ग़ालिब’ उपनाम से प्रसिद्ध हुए, 27 दिसम्बर 1797 ई। को आगरा में पैदा हुए। गोत्र, वंश के बारे में एक जगह उन्होंने खुद लिखा है -
‘‘असद-उल्ला खां उर्फ़ ‘मिर्ज़ा नौशा’, ‘ग़ालिब’ तख़ल्लुस (उपनाम), क़ौम का तुर्क, सलजूक़ी सुलतान बरकियारुक़ सलजूक़ी की औलाद में से, उसका दादा क़ौक़ान बेग ख़ां, शाह आलम के अहद (शासन-काल) में समरकंद से दिल्ली में आया। पचास घोड़े और नक़्क़ारा निशान से बादशाह का नौकर हुआ। पहासू का परगना, जो समरू बेगम को सरकार से मिला था, उसकी जायदाद में मुक़र्रर था। बाप असद-उल्ला खां मज़कूर (उल्लिखित) का बेटा अब्दुला बेग ख़ां दिल्ली की रियासत छोड़कर अकबराबाद (आगरा) में जा रहा। असद उल्ला ख़ां अकबराबाद में पैदा हुआ। अब्दुल्ला बेग ख़ां अलवर में रावराजा बख़्तारसिंह का नौकर हुआ और वहाँ एक लड़ाई में बड़ी बहादुरी से मारा गया। जिस हाल में कि असद-उल्ला ख़ां मज़कूर पाँच-छः बरस का था उसका हक़ीक़ी (सगा) चचा नस्रउल्ला बेग ख़ा मरहटों की तरफ से अकबराबाद का सूबेदार था।
तेरह बरस के मिर्ज़ा का निकाह दिल्ली के लोहारु कुल की उमराव बेग़म के साथ पढा गया । शादी के दो-तीन साल बाद वे हमेशा के लिए दिल्ली के हो गए , जिसे एक जगह उन्होंने कुछ यूँ बयान किया है :
‘‘सात रजब 1225 (9 अगस्त, 1810) को मेरे वास्ते हुक्मे-दवामे-हब्स (स्थायी क़ैद का हुक्म) सादिर हुआ। एक बेड़ी (यानी बीवी) मेरे पाँव में डाल दी और दिल्ली शहर को ज़िंदान (क़ैदखाना) मुक़र्रर किया और मुझे उस ज़िंदान में डाल दिया।’’
शे’रों-शायरी की लटक तो पहले से थी। अब दिल्ली पहुँचे तो यहाँ के शायराना वातावरण और आए दिन के मुशायरों ने क़लम में और तेज़ी भर दी। लेकिन नियमित रूप से शायरी में वे किसी के शागिर्द नहीं बने, बल्कि अपने फ़ारसी भाषा तथा साहित्य के अध्ययन और ज्ञान के कारण उन्हें शब्दावली और शे’र कहने की कला में ऐसी अनगनत खामियां नज़र आईं । उन्होंने उस्तादों पर टीका-टिप्पणी शुरू कर दी। उनकी राय में हर पुरानी लकीर सिराते-मुस्तकीम {सीधा-मार्ग) नहीं है और अगले जो कुछ कह गए हैं, वह पूरी तरह सनद (प्रमाणित बात) नहीं हो सकती।’’
उम्र के पच्चीसवें पायदान पर कदम रखने तक उन्होंने लगभग 2000 शे’र ‘बेदिल’ के रंग में कह डाले, जिस पर उर्दू के नामचीन शायर और उस्ताद मीर तक़ी ‘मीर’ ने भविष्यवाणी की कि ‘‘अगर इस लड़के को कोई कामिल उस्ताद मिल गया और उसने इसे सीधे रास्ते पर डाल दिया, तो लाजवाब शायर बनेगा, वरना मोहमल (अर्थहीन) बकने लगेगा।’’
यह कामिल उस्ताद ‘ग़ालिब’ को कहीं बाहर से नहीं मिला, बल्कि यह उनकी आलोचनात्मक दृष्टि थी जिसने न केवल उस काल के 2000 शे’रों को बड़ी ही बेदिली से काट फेंकने की प्रेरणा दी बल्कि आज जो छोटा-सा ‘दीवाने-ग़ालिब’ हमें मिलता है और जिसे मौलाना मोहम्मद हुसैन ‘आज़ाद’ (प्रसिद्ध आलोचक) के कथनानुसार हम ऐनक की तरह आँखों से लगाए फिरते हैं, उसका संकलन करते समय ‘ग़ालिब’ ने अपने सैकड़ों शे’र नज़र-अंदाज़ कर दिए थे।
रंज से ख़ूगर हुआ इन्सां तो मिट जाता है रंज
रह मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसां हो गईं।
ऐसे उच्चकोटि के अनुभवपूर्ण शे’र निकले। यह मिर्ज़ा ‘ग़ालिब’ ही की विशेषता थी कि उन दिनों, जबकि साहित्य-समालोचना का लगभग अभाव था, उन्होंने शायरी का यह भेद पा लिया कि शे’र शून्य में टामक-टोइयाँ मारने का नहीं, किसी अनुभव के व्यक्तिगत प्रकटीकरण का नाम है और बड़ा शायर केवल वही हो सकता है जो अपने काल की विडम्बनाओं तथा संघर्षों को सहिष्णुता और आत्म-सम्मान में रचे हुए संकेतों में प्रकट कर सके। आने वाली पीढ़ियों में बिना उपदेशक बने यह अनुभूति उत्पन्न कर सके कि उनको भी अपने आत्म सम्मान को सबसे ऊपर रखना चाहिए ।
मैं हरएक काम खुदा की तरफ़ से समझता हूँ और खुदा से लड़ नहीं सकता। जो कुछ गुज़रा, उसके नंग (लज्जा) से आज़ाद, और जो कुछ गुज़रने वाला है उस पर राज़ी हूँ। मगर आरजू करना आईने-अबूदियत (उपासना के नियम) के खिलाफ़ नहीं है। मेरी यह आरजू है कि अब दुनिया में न रहूँ और अगर रहूँ तो हिन्दोस्तान में न रहूँ।

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008

भारत - पाक युद्ध पर आमादा रणबाँकुरा मीडिया

भारत लगातार युद्ध टालने की कोशिश में जुटा है । पाकिस्तान भी युद्ध की धमकी तो देता है पर बीच बीच में उसके सुर में नरमी भी नज़र आने लगती है । ये और बात है कि सीमा पार सेना की तैनाती लगातार बढ रही है , मगर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री दोनों मुल्कों के बीच शांति और बेहतर ताल्लुकात की बात भी कर रहे हैं । कुल जमा नज़ारा कुछ ऎसा समझ में आता है - मुँह में राम बगल में छुरी ।

दोनों देशों के बीच युद्ध होगा या नहीं , इसे लेकर तरह तरह के कयास लगाये जा रहे हैं । इतना तो तय है कि वाक युद्ध में दोनों ओर से जमकर गोलाबारी हो रही है । इसी ज़बानी गर्मागर्मी को भारतीय मीडिया ने भुनाने का बंदोबस्त कर लिया है । युद्ध हो चाहे न हो मगर मीडिया खासतौर पर खबरिया चैनलों ने भारत और पाकिस्तान के बीच लडाई की हवा बनाना शुरु कर दी है । नौसीखिए नौजवान छोकरे- छोकरियाँ चैनलों पर लगातार पूरी ऊर्जा के साथ चीख रहे हैं । कहीं कुछ मिनट में युद्ध छिडने का दावा हो रहा है । कहीं नाभिकीय युद्ध की रुपरेखा बताई जा रही है , तो कोई हवाई और ज़मीनी हमलों से जुडे तथ्यों को लेकर बहस में मसरुफ़ है ।

नई पीढी ने तो भारत - पाक युद्ध नहीं देखा है । चैनलों की दीवानी युवा पीढी ने भारत - पाक युद्ध की थीम पर बनी ’बॉर्डर’ जैसी फ़िल्मों के माध्यम से ही जंग को जाना - समझा है । खिलौने के तौर पर हाथ में बंदूक लेकर वक्त गुज़ारने वाले नए दौर के बच्चों के लिए युद्ध एक रोमांचक घटना है । मीडिया इसी रहस्य - रोमांच को भुनाने की फ़िराक में है । आखिर इराक युद्ध दिखाकर ही सीएनएन कामयाबी की बुलंदियों को छू सका । इसलिए मंदी के दौर में दोनों देशों की सेनाएं भिडें और ज़बरदस्त फ़ुटेज मिले यह माहौल न्यूज़्ररुम्स में बन रहा है ।

चिंता की बात यह भी है कि मीडिया की तल्खियाँ दोनों देशों के बीच तनाव बढाने का सबब भी बन सकती हैं । कई तरह के कपोल कल्पित बयानों के हवाले से माहौल को उन्मादी बनाने में भी कोई कसर नहीं छोडी जा रही है । हालात ऎसे हैं कि हो सकता है दोनों देशों के राजनेता , अफ़सर और सैन्य अधिकारी ठंडे दिमाग से बात कर रहे हों , मगर मीडिया के जोशीले जवान खबरों के प्रसारण के दौरान तीखी टिप्पणियों के ज़रिए जांबाज़ी का प्रदर्शन करने को ही अपना पेशागत धर्म मान रहे हैं । कमोबेश यही हाल सीमापार के मीडिया का भी है ।

पिछले दो दशकों में जंग के कम से कम छह मौके आए लेकिन दोनों ओर के मीडिया के ताल्लुकात इतने खराब कभी नहीं रहे । आखिर मीडिया की इस तल्खी की क्या वजह हो सकती है ? क्या मीडिया वाकई जनभावनाओं का प्रतिनिधित्व कर रहा है ? क्या मंदी की भंवर में फ़ंसा मीडिया खुद को इसकी जद से बाहर लाने की कोशिश में जुटा है ? क्या इसके पीछे टीआरपी का अर्थशास्त्र है ..? या फ़िर मीडिया पर युद्ध की नई टेक्नालॉजी के प्रयोग में सहयोग का कोई दबाव है ...? वजह चाहे जो भी हो पर मीडिया पहले समाज के प्रति जवाबदेह है । उसकी वफ़ादारी बाज़ार, सरकार और देश से भी पहले जनहित के लिए होना चाहिए , जिसकी चिंता के दावे पर ही मीडिया की विश्वसनीयता टिकी है ।

दरअसल , मीडिया वास्तविक अर्थों में तभी आज़ाद है, जब वह सरकार के अलावा मुनाफ़े के दबाव से भी मुक्त हो । मीडिया अपनी ताकत का इस्तेमाल युद्ध के विकल्प सुझाने में करे , तो शायद वह अपनी भूमिका को सार्थक कर सकेगा । युद्ध का माहौल बनाने से संभव है मीडिया का फ़ायदा बढ जाए लेकिन किस कीमत पर ...? इस वक्त सख्त ज़रुरत है दोनों देशों के बीच तनाव कम करने और मसले को शान्ति से निपटाने के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करने की ।

गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

पाकिस्तान ने फ़िर तरेरी आँखें


पाकिस्तान ने आज सारी दुनिया के सामने खुद को पाक साफ़ बताते हुए युद्ध की संभावनाओं से इंकार किया है । बेनज़ीर की मज़ार पर पाक प्रधानमंत्री युसूफ़ रज़ा गिलानी ने भारत के साथ रिश्ते सामान्य होने की बात कही । साथ ही कहा कि उनका मुल्क जंग नहीं चाहता । गिलानी ने उल्टे भारत पर तोहमत जड दी कि भारतीय प्रधानमंत्री पर युद्ध का भारी दबाव है । यानी उल्टा चोर कोतवाल को डांटे ...।

एक तरफ़ तो मीडिया के सामने शांति का राग अलापा जा रहा है । वहीं दूसरी ओर राजस्थान से सटी सीमा पर भारी तादाद में सेना का जमावडा किया जा रहा है । शांति की बात हाथ में बंदूक लेकर तो नहीं की जाती ...? पाकिस्तान से इसी तरह के दोगलेपन की उम्मीद है ।

गिलानी इतने पर ही नहीं रुके । उन्होंने तो यहां तक कह डाला कि करांची धमाके में मुम्बई हमले की बनिस्बत कहीं ज़्यादा लोग मारे गये थे । ये भी खूब रही । पाक हर चाल बडी ही चतुराई से चल रहा है और फ़ौरी तौर पर तो यही लग रहा है कि वो कामयाब भी हो रहा है । हर रोज़ नए दांव चलकर पाकिस्तान शातिराना तरीके से भारत को पीछे ठेल रहा है । मज़े की बात तो ये है कि पाकिस्तान ने आज भारत पर आर्थिक पाबंदी लगाने की धमकी तक दे डाली । लीजिए साहब, चूहे ने हाथी की चड्डी भी चुरा ली । लेकिन हाथी तो हाथी है । उसकी सहनशीलता तो देखो वो ऎसी छोटी मोटी बातों पर कुछ नहीं कहता .....।

दांव पेंच में माहिर पाकिस्तान ने एक और शिगूफ़ा छोडा है ,बल्कि यूं कहें कि नई चाल चली है । कसाब के मुद्दे पर घिरते पाकिस्तान ने नहले पर दहला जड कर दुनिया को चौंका दिया है ।
पाकिस्तानी गुप्तचर एजेंसियों ने बुधवार की देर रात एक आदमी को पकड़ा । सतीश आनंद शुक्ला उर्फ मुनीर नाम के इस शख्स के बारे में कहा गया कि वह लाहौर में हुए बड़े बम धमाके का अभियुक्त है। पाक सरकार के अनुसार कोलकाता का मूल निवासी सतीश आनंद शुक्ला उर्फ मुनीर पहले लंदन में भारतीय उच्चायोग में काम कर चुका है। ये अधिकारी दावा करते हैं कि शुक्ला उर्फ मुनीर वास्तव में रॉ का अधिकारी है और जल्दी ही भारत को उसकी पूरी शिनाख्त बता दी जाएगी। साथ ही उसके साथियों की भी सरगर्मी से बहावलपुर में तलाश करने की कवायद की जा रही है , ताकि दावे को पुख्ता किया जा सके । चारों ओर से घिरता दिखाई दे रहा पाकिस्तान आंखें तरेरने से बाज़ नहीं आ रहा ।

लगातार बढ़ते जा रहे तनाव को देखते हुए पाकिस्तान का ताज़ातरीन इल्ज़ाम स्तब्ध कर देने वाला है। पाकिस्तान बहुत पहले से आरोप लगाता रहा है कि भारत की प्रति गुप्तचर एजेंसी रॉ लगातार पाकिस्तान को अस्थिर करने की कोशिश कर रही है और दुनिया के देश इस मामले में सिर्फ पाकिस्तान को ही दोषी ठहरा रहे हैं।

पाकिस्तान मुम्बई हमले के बाद से लगातार पैंतरेबाज़ी कर भारत को उलझा रहा है । हर रोज़ नए - नए दावे ..। नए नए खुलासे ..। कभी हमलों में हिन्दू आतंकियों का हाथ होने की बात कह कर । कभी कसाब को नेपाल का कैदी बताकर । कसाब लगातार पाकिस्तान से मदद की गुहार लगा रहा है । मगर पाक सरकार उससे पल्ला झाड रही है । उसने पाक उच्चायोग को पत्र भेजा है। खत में पाक नागरिक होने के नाते उसे कानूनी मदद देने की अपील की है । उधर पाक प्रधानमंत्री के आंतरिक सुरक्षा सलाहकार रहमान मलिक ने कहा है कि जब तक कसाब का पाकिस्तानी नागरिक होना साबित नहीं हो जाता तब तक उसे कानूनी सहायता देने का सवाल ही नहीं उठता।

कल तक कसाब के पाक नागरिक होने में नवाज़ शरीफ़ को कोई संदेह नहीं था ,लेकिन अब उनके सुर भी बदल गये हैं । दूसरी तरफ़ हमारे देश के नेता अब तक ये ही तय नहीं कर पा रहे कि आखिर वे चाहते क्या हैं ....? वोट की राजनीति ने देश को गृह युद्ध की ओर धकेलने में भी कोई कोर कसर नहीं छोड रखी है ।

कालिदास को भी अक्ल आ गई थी कि जिस शाख पर बैठे हों उसे नहीं काटा जाता , मगर इन बजरबट्टुओं को तो सामने आ पडी मुसीबत भी एकजुट नहीं कर पा रही ।
हालात ऎसे ही रहे तो हो सकता है आने वाले दिनों में पाकिस्तान भारत की दादागीरी का शिकार बनकर दुनिया की नज़रों में बेचारा बन जाए और भारत को आतंकी देश घोषित कराने के लिए ज़बरदस्त लाबिंग में कामयाब रहें । सही मायनों में देखा जाए तो फ़िलहाल पाकिस्तान हर मामले में भारी पड रहा है भारत पर ...।

मंगलवार, 23 दिसंबर 2008

ब्रेकिंग न्यूज़ - कसाब होगा दुनिया से रुबरु

देश के सीधे साधे प्रधानमंत्री और शेयर बाज़ार के उतार चढाव को भी काबू ने ना कर पाने वाले चिदाम्बरम साहब गृहमंत्री बनकर भी कुछ खास नहीं कर पा रहे पाकिस्तान के खिलाफ़ । अब लगता है सरकार के नाकारापन से थक हार चुके खुफ़िया अधिकारियों ने ही पाकिस्तान को घेरने के लिए कमर कस ली है । इंतज़ार है सिर्फ़ केंद्र से हरी झंडी मिलने का ।

योजना को मंज़ूरी मिली तो कसाब टीवी पर लाइव प्रसारण के ज़रिए आतंक के आकाओं को बेपर्दा करेगा । वह खुद बताएगा सारी दुनिया को मुम्बई हमले का मकसद । पाकिस्तान का हाथ होने के सारे सबूत कसाब की मुंह ज़बानी सुनने के बाद देखना होगा कि बीच के बंदर की भूमिका निभा रहा अमेरिका क्या रुख अपनाता है ।

कहीं ऎसा ना हो कि दो बिल्लियों की लडाई में बंदर पूरी रोटी हज़म कर जाए और चालाक बिल्ली [पाकिस्तान ] बंदर को अलग ले जाकर इस तमाशे की कीमत वसूल ले और मूर्ख बिल्ली [भारत ] इसे किस्मत का खेल मानकर सब कुछ भगवान के भरोसे छोडकर अगले आतंकी हमले का इंतज़ार करे । वैसे भी पाकिस्तान की बीन पर हिंदुस्तान नाच रहा है । सबूत पर सबूत ,सबूत पर सबूत ..... ,मगर नतीजा सिफ़र ...?

वैसे भी इंटरपोल चीफ़ रोनाल्ड के. नोबल भारत में तफ़्तीश का नाटक करते रहे । पाकिस्तान पहुंचते ही जांच में पाकिस्तान के खिलाफ़ कोई सबूत ना मिलने की बात कह कर सब को चौंका दिया । आखिर क्या है पाकिस्तान की सरज़मीं में ,जो वहां कदम रखते ही सभी के सुर बदल जाते हैं । कहीं कोई ब्लैक मैजिक तो नहीं .....?

सोमवार, 22 दिसंबर 2008

चुनाव जीतते ही जान के पडे लाले

मध्यप्रदेश में हाल ही में चुन कर आए विधायकों को जान का खतरा है । चंद दिन पहले तक आम जनता के बीच बेखौफ़ जाने वाले नेताओं को वोटों की गिनती में विरोधी से आगे निकलते ही जान का डर सताने लगा है । कल तक जिन नेताओं की जान जनता में बसती थी , जीत मिलते ही उनमें ज़िंदगी की हिफ़ाज़त के लिए सुरक्षा की चाहत सिर उठाने लगी है ।

इस की पुष्टि मध्यप्रदेश पुलिस मुख्यालय की इंटेलीजेंस शाखा को मिले चार दर्जन से ज़्यादा आवेदन करते हैं । क्षेत्रीय नेता के तौर पर बरसों से निडर घूमने वाले नेता एकाएक इतने असुरक्षित कैसे हो गये ..?

प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस के चालीस से अधिक विधायकों ने जान जोखिम में बताकर गनमैन की गुहार लगाई है । नए विधायकों ने गनमैन हासिल कर रौब रुतबा गालिब करने के लिए बहाने भी खूब गढे हैं । किसी को अपने इलाके के डकैतों से खतरा है ,तो कोई नक्सलियों की गोलियों से खौफ़ज़दा है । जितने नेता , उतने बहाने ......। अभी तक करीब एक दर्ज़न विधायकों को अस्थाई तौर पर गनमैन दे दिए गए हैं ।

पुलिस के आला अफ़सर भी मानते हैं कि ज़्यादातर नेताओं के लिए बंदूकधारी के साए में चलना स्टॆटस सिंबल के अलावा कुछ नहीं । एक आईपीएस की टिप्पणी काबिले गौर है ” जब जनप्रतिनिधि ही असुरक्षित हैं ,तो ऎसे में राज्य की छह करोड से अधिक जनता का भगवान ही मालिक है ।" उनका कहना है कि जहां केन्द्र सरकार वीआईपी सुरक्षा में कटौती कर रही है ,वहीं प्रदेश में जनप्रतिनिधि लगातार गनमैन की मांग उठाकर जनता में कानून व्यवस्था के प्रति संदेह पैदा कर रहे हैं ।

मुम्बई हमले के बाद नेताओं के खिलाफ़ जनता का गुस्सा फ़ूट पडा था और उनकी हिफ़ाज़त के लिए सुरक्षा बलों की तैनाती पर भी सवालिया निशान लगाए गये । लोगों ने सडकों पर आकर नेताओं की जमकर मज़म्मत की और सुरक्षा घेरे से बाहर आकर आम जनता सा जीवन जीने की हिदायत दे डाली । दो - चार दिन के शोर शराबे के बाद जनता ने अपनी राह पकड ली और नेता अपने तयशुदा रवैए के साथ एक मर्तबा फ़िर उसी रंग में नज़र आने लगे । नेताओं के प्रति जनता का गुस्सा यानि चार दिन की चांदनी फ़िर अंधेरी रात ....।

देश में कुल सेना 37 लाख 89 हजार तीन सौ है तो राजनीति करने वाले चुने हुये नुमाइन्दों की तादाद 38 लाख 67 हजार 902 है । यह तादाद सिर्फ जनता का वोट लेकर आए नेताओं की है। सांसद से लेकर ग्राम पंचायत तक मतों के ज़रिए चुन कर आने का दावा करने वालों की संख्या का ब्यौरा तैयार किया जाए , तो यह आंकडा करोड़ तक पहुंचने में वक्त नहीं लगेगा ।

किसी ज़माने में जन सेवा का दर्ज़ा हासिल करने वाली राजनीति ने अब संगठित व्यवसाय का बाना पहन लिया है । शालीनता और विनम्रता के कारण राजनेताओं के लिए आदर सम्मान का भाव हुआ करता था । लेकिन अब सियासत में कारपोरेट कल्चर के दखल के चलते रौब दाब और रसूख का बोलबाला है । देश में राजनीति एक सफ़ल उभरते उद्योग की शक्ल ले चुका है । यही वजह है कि मंदी की खौफ़नाक तस्वीर के बीच भारतीय राजनीति अब भी सबसे ज्यादा रोजगार देनी वाली संस्था कही जा सकती है ।

राजनीति परवान चढ रही है सुरक्षाकर्मियों के भरोसे । देश में मिलेट्री शासन नही लोकतंत्र है , यह कहने की जरुरत नही है। लेकिन लोकतंत्र सुरक्षा घेरे में चल रहा है यह समझने की जरुरत जरुर है। पुलिसकर्मियों में से तीस फीसदी पुलिस वालो का काम वीआईपी सुरक्षा देखना है। यानि उन नेताओं की सुरक्षा करना जिन्हें जनता ने चुना है। औसतन एक पुलिसकर्मी पर महिने में उसकी पगार , ट्रेनिग और तमाम सुविधाओ समेत पन्द्रह हजार रुपये खर्च किये जाते है। देश के साठ फीसदी पुलिसकर्मियों को दो वक्त की रोटी के इंतज़ाम जितनी ही त्तनख्वाह मिलती है ।

शनिवार, 20 दिसंबर 2008

सियासी गलियारों में लडखडाहट भरे आगे बढते कदम

आज भोपाल में शिवराज मंत्रिमंडल का गठन हो गया । लोगों की उम्मीद के मुताबिक ज़्यादातर मंत्रियों के चेहरे जाने पहचाने हैं । मंत्रिमंडल में बडे पैमाने पर रद्दोबदल ना तो मुख्यमंत्री के बूते की बात है और ना ही पार्टी लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र कोई बडा जोखिम लेने की स्थिति में है । शिवराज सिंह ने अपनी टीम में दो महिला विधायकों को भी शामिल किया है , लेकिन ये आंकडा आधी दुनिया की नुमाइंदगी के लिहाज से नाकाफ़ी लगता है ।

प्रदेश में सर्वाधिक 85 हज़ार 362 वोट बटोर कर बुरहानपुर सीट जीतने वाली अर्चना चिटनीस को मंत्री बनाया गया है । इसी तरह मनावर से जीती रंजना बघेल को राज्यमंत्री के तौर पर जगह मिली है । 13 वीं विधान सभा में राज्य की जनता ने 25 महिलाओं को अपने क्षेत्र की आवाज़ बुलंद करने का दायित्व सौंपा है । 230 सीटों की विधान सभा में 25 का आंकडा काफ़ी छोटा मालूम देता है , लेकिन प्रदेश में ऎसा तीसरी बार हुआ है ,जब दस फ़ीसदी से अधिक महिलाओं को विधान सभा में दाखिल होने का मौका मिल सका है ।

मध्यप्रदेश के इतिहास में विधान सभा पहुंचने वाली महिलाओं का आंकडा हमेशा ही निराशाजनक रहा है । अब तक सबसे अधिक 11.80 फ़ीसदी प्रत्याशी 1957 में जीतीं थी ,लेकिन इन आंकडों से तुलना बेमानी होगा क्योंकि तब छत्तीसगढ भी प्रदेश का ही हिस्सा था और सीटों की कुल संख्या 320 थी हालांकि ये संख्या काबिले गौर भी है ,क्योंकि ये उस दौर की बात है जब महिलाओं के लिए समाज में आगे बढने के अवसर बेहद सीमित थे । घर की चहारदीवारी में कैद महिलाओं के लिए सियासी मसले पेचीदा माने जाते रहे और राजनीति में महिलाओं के दखल को समाज में खास तवज्जो भी नही दी जाती थी । मौजूदा दौर में महिलाओं पर आधुनिकता का रंग तो खूब चढा लेकिन विधान सभा की दहलीज़ पर कदम रखने में अभी भी हिचकिचाहट बरकरार है ।

उत्साहजनक बात ये है कि इस बार 25 महिलाएं चुनकर आई हैं , जबकि पिछली मर्तबा 19 महिला विधायक थीं । बीजेपी से 15 महिलाओं को सफ़लता मिली है , जबकि 8 महिलाएं विधान सभा में कांग्रेस की नुमाइंदगी करेंगी । उमा भारती की भारतीय जन शक्ति और समाजवादी पार्टी ने भी एक - एक महिला विधायक को सदन तक पहुंचाने में कामयाबी पाई है ।

हाल ही में विधानसभा चुनावो में भाजपा को महिला मतदाताओं से मिलने वाले वोटों में इज़ाफ़ा हुआ है । सांगठनिक ढांचे में 33 फ़ीसदी आरक्षण देने वाली भाजपा के प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर मानते हैं ,“ भाजपा मानती है कि जब तक देश की 50 फ़ीसदी महिलाओं की आबादी सक्षम नहीं होगी तब तक देश का विकास अधूरा रहेगा ।”
तू फ़लातूनो- अरस्तू है तू ज़ुहरा परवीं
तेरे कब्ज़े में है गर्दूं , तेरी ठोकर में ज़मीं
हां , उठा , जल्द उठा पाए -मुकद्दर से ज़बीं
मैं भी रुकने का नहीं ,वक्त भी रुकने का नहीं
लडखडाएगी कहां तक कि संभलना है तुझे ।

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008

दो लोगों ने लिख दी दो मुल्कों की तकदीर ......

लम्हों ने खता की थी , सदियों ने सज़ा पाई ।
यह शेर भारत के मौजूदा हालात के मद्देनज़र बिल्कुल मौजूं है । चंद सियासतदानों की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की कीमत लाखॊं जानों ने तब चुकाई और आने वाली कई पीढियां ना जाने कब तक इस फ़ैसले से उपजे वैमनस्य का विषपान करती रहेंगी ।

जिस तरह आज भारत के ज़ाती मामलों के फ़ैसले अमेरिका और ब्रिटेन ले रहे हैं , उसी तरह देश छोड कर जाते वक्त भी मुल्क के बँटवारे का फ़ैसला अंग्रज़ों ने ही अपने तईं ले लिया । हिंदुस्तान को अपनी मिल्कियत समझ अपना हक मांगने की चाहत में नेहरु - जिन्ना ने अखंड भारत के बाज़ू काटने में अंग्रेज़ हुकूमत की भरपूर मदद की । आज हालात बताते हैं कि
ना खुदा ही मिला ना विसाले सनम
ना इधर के रहे , ना उधर के हम ।

हाल ही में कुछ ऎसे दस्तावेज़ों का खुलासा हुआ है ,जो भारत-पाकिस्तान बँटवारे की त्रासदी पर नई रोशनी डालते हैं । मुल्क के बँटवारे के गवाह रहे एक ब्रिटिश नौकरशाह के अप्रकाशित दस्तावेजों के मुताबिक़ सिर्फ़ दो लोगों ने भारत के बँटवारे और दो मुल्कों की तक़दीर को तय किया था
नौकरशाह क्रिस्टोफ़र बोमांट 1947 में ब्रिटिश न्यायाधीश सर सिरिल रेडक्लिफ़ के निजी सचिव थे रेडक्लिफ़ भारत-पाकिस्तान के बीच सीमा निर्धारण आयोग के अध्यक्ष थे सचिव होने के नाते बोमांट इस विभाजन का अहम हिस्सा रहे क्रिस्टोफ़र के पुत्र राबर्ट बोमांट ने इन दस्तावेजों के आधार पर दावा किया कि लार्ड माउंटबेटन के निजी सचिव सर जार्ज एबेल की 1989 में मृत्यु के बाद अब सिर्फ़ वह ही दोनों देशों के विभाजन का सच जानते हैं । क्रिस्टोफ़र बोमांट की मृत्यु 2002 में हो गई थी ।

दस्तावेज़ों के मुताबिक़ हिन्दुस्तान के तत्कालीन वायरसराय लार्ड माउंटबेटेन और रेडक्लिफ़ ने ही मिलकर दोनों देशों के बंटवारे का खाक़ा खीच दिया था । ब्रिटिश जज रैडक्लिफ़ को दोनों देशों के बीच सीमा का निर्धारण करने का दायित्व सौंपा गया था ।
रैडक्लिफ़ न तो इससे पहले भारत आए थे और न ही इसके बाद कभी आए । इसके बावजूद उन्होंने दोनों देशों के बीच जो सीमारेखा खींची उससे करोड़ों लोगों अंसतुष्ट हो गए ।

जल्दबाज़ी में किए गए इस विभाजन ने 20वीं शताब्दी की सबसे बड़ी त्रासदियों में से एक को जन्म दिया । धार्मिक आधार पर हुए इस बँटवारे में चालीस करोड़ लोगों की तक़दीर तय की गई । इन दस्तावेज़ों में " ब्रिटिश भारत " के आख़िरी दिनों की स्थिति का विश्लेषण किया गया है । इसमें कहा गया कि बँटवारे के काम को बेहद जल्दबाज़ी में अंज़ाम दिया गया था ।

बोमांट ने दस्तावेज़ों में लिखा है कि वायसराय माउंटबेटन को पंजाब में हुए भीषण नरसंहार का ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए , जिसमें महिलाओँ, बच्चों समेत लगभग पाँच लाख लोग मारे गए थे. एक अनुमान के अनुसार बँटवारे में दोनों ओर से लगभग 1 करोड 45 लाख लोग पलायन को मज़बूर हुए थे ।

आज़ादी के दो दिन बाद ही जब यह घोषणा हो गई कि सीमाएं कहाँ होंगी , तो पंजाब हिंसा की आग में जल उठा । ट्रेनों में सीमा पार कर रहे लोगों की लाशें भेजी जाने लगीं और कई बार तो उनके अंग भी क्षत-विक्षत होते थे. दोनो तरफ ही महिलाएं हिंसा और बलात्कार की शिकार हुईं ।

भारत की आबादी पाकिस्तान की तीन गुनी थी और ज़्यादातर लोग हिंदू थे । करोड़ों मुस्लिम सीमा के एक तरफ़ और हिंदू-सिख दूसरी तरफ पहुँच गए । भारी संख्या में दोनों तरफ़ के लोगों को सीमा के पार जाना पड़ा । तनाव बढ़ा और सांप्रदायिक संघर्ष शुरू हो गए. इसमे कितने लोग मारे गए इसका सही आँकड़ा कोई नहीं बता सका । इतिहासकार मानते हैं कि पाँच लाख से अधिक लोग मारे गए । 10 हज़ार महिलाओं के साथ या तो बलात्कार हुआ या फिर उनका अपहरण हो गया । एक करोड़ से भी अधिक लोग शरणार्थी हो गए जिसका असर आज भी दक्षिण एशिया की राजनीति और कूटनीति पर दिखता है ।

''एक बड़े क्षेत्र के बहुसंख्यकों को उनकी इच्छा के विपरीत एक ऐसी सरकार के शासन में रहने के लिए बाध्य नहीं किया सकता जिसमें दूसरे समुदाय के लोगों का बहुमत हो और इसका एकमात्र विकल्प है विभाजन ।''

इन शब्दों के साथ ही भारत में ब्रिटेन के अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने घोषणा की कि ब्रिटेन एक देश को नहीं बल्कि दो देश को स्वतंत्रता देने जा रहा है । तब भारत की एकता बनाए रखने के साथ ही मुसलमानों के हितों को सुरक्षित रखने के ब्रिटेन के सभी संवैधानिक फॉर्मूले विफ़ल हो चुके थे ।

माउंटबेटन ने अपना यह बयान 3 जून 1947 को दिया था और उसके 10 सप्ताह बाद ही उन्होंने दोनों देशों के स्वतंत्रता दिवस समारोह में भाग भी लिया । 14 अगस्त को कराची में वे स्पष्ट मुस्लिम पहचान के साथ गठित राष्ट्र के गवाह बने और इसके अगले दिन दिल्ली में भारत के पहले स्वतंत्रता दिवस समारोह में हिस्सा ले रहे थे ।
भारत पिछली शताब्दी से ही स्वशासन की माँग कर रहा था और वर्ष 1920 से लेकर 1930 के बीच में महात्मा गाँधी के नेतृत्व में इसने ज़ोर पकड़ा । भारत के मुस्लिम समुदाय में से कई लोगों की राय में हिंदू बहुल देश में रहना फ़ायदेमंद नहीं था । मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना ने इस माँग को काफ़ी मज़बूती से उठाया । मुस्लिम लीग मुसलमानों के लिए अलग देश की माँग करने लगी थी. विश्व युद्ध के बाद राज्यों में हुए चुनावों में मुस्लिम लीग के मज़बूत प्रदर्शन के बाद यह स्पष्ट हो गया था कि अलग पाकिस्तान की माँग ज़्यादा दिनों तक नज़र अंदाज़ नहीं की जा सकती है ।

इसके बाद से यह बहस का विषय बना हुआ है कि विभाजन सही था या ग़लत, इससे बचा जा सकता था या नहीं । लेकिन दक्षिण एशिया के इतिहासकार मानते हैं कि अगर ब्रिटेन ने विभाजन के लिए इतनी जल्दबाज़ी नहीं दिखाई होती और इसे थोड़ी तैयारी के साथ अंजाम दिया जाता तो काफ़ी हद तक कत्लेआम को टाला जा सकता था ।

जम्मू-कश्मीर मसले की वजह से दोनों देशों के बीच संघर्ष बढ़ा. यह राज्य भारत और पाकिस्तान की सीमा पर मुस्लिम बहुल राज्य था लेकिन यह किस देश के साथ जुड़े ये फ़ैसला जम्मू-कश्मीर के हिंदू शासक को करना था । आज़ादी के कुछ ही महीनों बाद कश्मीर को लेकर भारत-पाकिस्तान में युद्ध शुरू हो गया लेकिन इस विवाद का अब तक कोई हल नहीं निकल पाया ।

बुधवार, 17 दिसंबर 2008

राष्ट्र चिंतन पर सांप्रदायिकता का कलंक

सरस्वती शिशु मंदिरों में पढाए जा रहे पाठ्यक्रम को केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्रालय सांप्रदायिक करार देने पर तुला है । हाल ही में एक कमेटी ने भी अपनी रिपोर्ट में मंत्रालय की पेशकश का ही समर्थन किया है । सरसरी तौर पर लगता है वाकई इन स्कूलों में समाज में वैमनस्य फ़ैलाने का काम बडे पैमाने पर हो रहा है ।

हकीकत इससे एकदम उलट है । ये बात दावे के साथ मैं इस लिए कह सकती हूं क्योंकि मैंने भी सरस्वती शिशु मंदिर में ही पढाई की । हालांकि ये भी सच है कि इन शिक्षा संस्थानों में बहुत ही गैरज़रुरी और गैरकानूनी काम होता है वो है राष्ट्र भक्ति की भावना जगाना और उसे पल्लवित -पुष्पित करने के लिए उपयुक्त वातावरण उपलब्ध कराना । रानी लक्ष्मीबाई , चेल्लम्मा , रानी दुर्गावती , आज़ाद , भगतसिंह ,रामप्रसाद बिस्मिल जैसे राष्ट्र्भक्तों के जीवन चरित्र पर आधारित पाठ कभी चरित्र निर्माण के लिए पढाए जाते थे । लेकिन अब वीर रस के राष्ट्र भक्तिपूर्ण गीत सांप्रदायिकता की श्रेणी में डाल दिए गये हैं ।

बदले माहौल में कई मर्तबा लगता है कि ये सब कुछ फ़िज़ूल है । ठोक -बजा कर दिलो दिमाग में भरे गये संस्कारों का अब कोई मोल ही नहीं रहा , इनके अनमोल होने की कौन कहे ...? सच तो ये है कि जब राष्ट्र के तौर पर हमारा कोई चरित्र ही नहीं बचा , राष्ट्र प्रेम की ज़रुरत ही कहां रही .....?

खैर , आज बात वैदिक ज्ञान की ओर विदेशियों के बढते रुझान की । देश में आज माहौल ऎसा हो गया है कि धार्मिक ग्रंथ संप्रदाय विशेष की मिल्कियत बन कर रह गये हैं , जबकि दूसरे मुल्क इन्हीं ग्रंथों को आधार बना कर पाठ्यक्रम तैयार कर रहे हैं । भारत में भले ही वैदिक पाठ्यक्रम का विरोध होता हो , लेकिन अमेरिका के न्यू जर्सी में 1856 में स्थापित स्वायत्त कैथोलिक सेटन हाल यूनिवर्सिटी में सभी छात्रों के लिए गीता पढना ज़रुरी कर दिया गया है । दुनिया में अपनी तरह का यह पहला निर्णय है । यहां ये जानना दिलचस्प होगा कि विश्वविद्यालय में लगभग तीन चौथाई छात्र ईसाई हैं ।

इधर ’हकीकी गीता’ के रुप में गीता का उर्दू अनुवाद तैयार करने वाले जाने माने शायर मुनीर बख्श ’आलम’ गीता को इंसानी बिरादरी की शरीयत बताते हैं । वे कहते हैं कि यह किसी खास ज़ात या धर्म की किताब नहीं है । गीता को सबसे बडा धर्म शास्त्र बताने वाले मुनीर बख्श कहते हैं " वेद , कुरान ,बाइबल सभी का चिंतन इसमें मौजूद है । राजनीति की उठापटक से बेज़ार और नाउम्मीद हो चुके बख्श साहब ईश्वर से कुछ इस अंदाज़ में दुआ मांगते हैं ........
कश्मकश में है वक्त का अर्जुन
इनको गीता का ज्ञान दे मौला ।

मंगलवार, 16 दिसंबर 2008

इस बार रोटी के पडेंगे लाले .......


देश भर में फ़ैली मालवी गेंहू की खुशबू इस बार मालवा के लोगों को ही मिल जाए तो बहुत बडी बात होगी । कम बरसात के कारण आधे से ज़्यादा खेतों में गेंहू की बुवाई ही नहीं हो पाई है । कुछ लोगों ने कम पानी वाली किस्मों की बोवनी की हिम्मत जुटाई है ,लेकिन उनमें मालवी गेंहू की वो खासियत कहाँ....?

’पग - पग रोटी . डग - डग नीर’ के लिए मशहूर मालव प्रदेश की धरती का आंचल सूख चुका है । प्यासी धरा से लोगों का पेट भरने लायक अनाज की उम्मीद भी दिन पर दिन फ़ीकी पडती जा रही है । मालवा में किसानों ने करीब 21 हज़ार हैक्टेयर में गेंहू की बनिस्बत 45, 600 हेक्टेयर में चना बोया है । कम पानी की दरकार के कारण किसानों को चने की फ़सल फ़ायदेमंद लग रही है । जल्दी ही इस समस्या से निपटने के उपाय नहीं तलाशे गये , तो गृहिणियों को पाक कला के नए गुर सीखना होंगे । आने वाले वक्त में गेंहू का होगा बेसन और चने का बनेगा आटा .....।

इस बीच अगले साल गेंहू की पैदावार में कमी के आसार ने लोगों के होश उडा दिये हैं । कई इलाकों में कम बारिश से गेंहू की बुवाई पर खासा असर पडा है । राज्य में 42 लाख हेक्टेयर के तय लक्ष्य से करीब चार लाख हेक्टेयर कम ज़मीन में गेंहू की बोवनी की बात कही जा रही है । प्रदेश में प्रति हेक्टेयर औसत उत्पादन दस से पंद्रह क्विंटल है । इस हिसाब से गेंहू उत्पादन तकरीबन पचास लाख क्विंटल कम होने की आशंका है । कृषि महकमा भी मान रहा है कि पानी की कमी रबी फ़सलों पर भारी पड रही है । नतीजतन बीस ज़िलों में गेंहू की कम बोवनी हुई है । मालवा , निमाड , मध्य भारत आदि अंचल सर्वाधिक प्रभावित हैं ।

विशेषज्ञ कहते हैं कि अगर कुछ दिन और तापमान यूं ही बना रहा तो गेंहू के उत्पादन में 20 से 25 फ़ीसदी की गिरावट होगी । अन्य फ़सलों की पैदावार पर भी मौसम के बदलते तेवरों की परछाईं दिखाई देगी । मौसम की बेदर्दी से आई उत्पादन में कमी अनाज के दामों को बेकाबू कर देगी । ऎसे में मंदी की मार से टूटे लोगों पर मंहगाई का हंटर कहर बरपाएगा ।

ठंड के मौसम में सूरज के कडे तेवरों ने प्रदेश में रबी फ़सलों पर असर दिखाना शुरु कर दिया है । फ़सलों की बढवार रुक गई है। समय से पहले फ़सल पकने की आशंका ने किसान को चिंता में डाल दिया है । मौसम का मिजाज़ इस कदर बिगडा है कि दिसंबर के महीने में ठंड से निजात दिलाने वाली धूप इस मर्तबा परेशानी का सबब बन गई है । दोपहर में लोग तीखी धूप से बचने के तरीके तलाशते नज़र आते हैं ।

मौसम की बेरहमी गर्मी में हालत खराब कर सकती है । इस साल कम बारिश की वजह से प्रदेश में अभी से अकाल की आहट सुनाई देने लगी है । राज्य के 31 ज़िलों की 110 तहसीलों पर सूखे की मार ने लोगों के कंठ सुखा दिये हैं । इन जगहों पर पीने के पानी का ज़बरदस्त संकट पैदा हो गया है । सोना उगलने वाली धरती भी प्यासी है और उसने भी हाथ खडे कर दिये हैं ।

वर्षा की स्थिति और उसके असर पर ज़िलों से मंगाई गई रिपोर्ट में चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं । सूबे के 139 नगरीय निकायों में एक दिन या उससे भी ज़्यादा अंतराल पर पीने का पानी मुहैया कराया जा रहा है । गांवों में तो स्थिति और भी विकट है । प्रशासनिक अमला भी गर्मी में पानी की मारामारी को लेकर परेशान है । पुलिस महकमे के आला अफ़सरान मानते हैं कि आने वाली गर्मियों में पानी का मसला कानून व्यवस्था के लिए सबसे बडा सिरदर्द होगा ।

मिल गया समंदर
फ़िर भी प्यास बाकी है
खारे पानी से ना बुझेगी
तलाश बाकी है
तपती दोपहर में भी
चातक की आंखें
लगी हैं नीले आसमान पर
आस अभी बाकी है ।

रविवार, 14 दिसंबर 2008

आतंकी कसाब के मानव अधिकारों का वास्ता ........

आजकल मन में बडी ऊहापोह है । मुम्बई हमले का एकमात्र ज़िंदा पकडा गया चरमपंथी एकाएक मुझे हालात का मारा निरीह प्राणी नज़र आने लगा है । अपने मन की बात मैं किससे कहूँ ? और चुप भी कैसे रहूँ ? क्योंकि दिल की बात ज़बान पर आते ही देशप्रेमी जमात मेरी जान की दुश्मन हो जाएगी और चुप्पी की घुटन मुझे चैन से जीने नहीं देगी ।

ये भी संभव है कि इस साफ़गोई के बाद मेरा सिर कलम करने के लिए कई राष्ट्र भक्त फ़तवा जारी कर दें । लेकिन अब मुझे कोई परवाह नहीं क्योंकि मेरे साथ है देश का मीडिया ....। आखिर मैं उन्हीं की मुहिम को आगे बढाने का काम ही तो करुंगी ।

चैनलों को देख - देख कर ही मेरा ’ब्रेन वॉश’ हुआ है और हकीकत सामने आ सकी है । खबरची लगातार बता रहे हैं कि मोहम्मद अजमल आमिर कसाब को अमिताभ बच्चन की फ़िल्में पसंद हैं । वह लज़ीज़ मांसाहारी खाने का शौकीन है । यानि वो पूरी तरह बिल्कुल हमारी - आपकी तरह है । गरीबी का मारा कसाब बस कुछ पैसों के लालच में झाँसे में आ गया । आखिर उसकी उम्र ही क्या है ? लडकपन में तो ऎसी गल्तियां हो ही जाती हैं , तो क्या उसकी भूल पर रहमदिली नहीं अपनाना चाहिए ।

हाल ही में मानव अधिकार दिवस गुज़रा है । इस दिन हुई तमाम गोष्ठियों और सेमिनारों ने मेरी आँखें खोल दी हैं । मैंने जान लिया है कि मानवता ही जीवन का सार है । कोई कितना ही बडा अपराध क्यों ना कर दे हमें मानवतावाद का दामन थामे रहना चाहिए । इसी नाते हमें कसाब के साथ नरम रुख अख्तियार करना चाहिए । क़साब पर मुंबई पुलिस ने हत्या, हत्या का प्रयास, देश के ख़िलाफ़ जंग छेड़ने, षड़यंत्र करने और विस्फोटक एवं हथियार अधिनियम कि विभिन्न धाराओं के तहत 12 मामले दर्ज़ किए हैं ।

चैनलों के ज़रिए मिली खबरों ने मुझे कसाब के प्रति अपना नज़रिया बदलने पर मजबूर किया है । हाल ही में जागृत मेरा मानव अधिकारवादी मन कसाब के हक में सरकार से मांग करता है कि उसके लिए हर रोज़ बेहतरीन मुगलई दस्तरखान सजाया जाए । डीवीडी पर मनपसंद फ़िल्में देखने की इजाज़त दी जाए । उसकी पैरवी के लिए जानेमाने वकीलों की टीम मुहैया कराई जाए । कसाब अम्मी को खत लिखना चाहता है , मगर टेक्नालाजी के इस दौर में सीधे हाट लाइन पर बात करने में भी क्या हर्ज़ है ?

अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के मानवतावादी यह मुद्दा हथियाएं , उससे पहले हमें इसे लपक लेना चाहिए । आप महानुभाव भी इस पुण्य कार्य में हाथ बंटाना चाहें , तो तहे दिल से स्वागत है आपका । तन ,मन खासतौर पर धन से दिल खोलकर मदद कीजिए । याद रखिए आज का निवेश कल की सुरक्षा ....। कल को देश दुनिया में नाम भी हो सकता है और विदेशी फ़ंडिंग की मार्फ़त दाम भी बढिया मिलेगा ..। तो फ़िर देर किस बात की ....? हाथ बढाइये । हाथ से हाथ मिलाइये ....।

शनिवार, 13 दिसंबर 2008

’राम राज्य’ की आस में शिव को सौंपा ताज

शिवराजसिंह चौहान की ताजपोशी के साथ बीजेपी सरकार की नई पारी की शुरुआत हो गई है । भोपाल के जम्बूरी मैदान पर उमडे अथाह जनसैलाब ने भाजपा को स्पष्ट संकेत दे दिये हैं कि छप्पर फ़ाड कर वोट देने के बाद जनता सरकार से जमकर काम लेने के लिए कमर कस चुकी है ।

प्रदेश की जनता ने जिस निष्ठा और विश्वास के साथ शिवराजसिंह चौहान पर भरोसा जताया है , उसकी कसौटी पर खरा उतरने के लिए मुख्यमंत्री को सूबे की कमान संभालते ही काम में जुट होगा । भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों को दरकिनार कर राज्य की बागडोर भाजपा को सौंपने के पीछे सिर्फ़ एक ही कारण नज़र आता है कि मतदाताओं को शिवराज की कोशिशों में ईमानदारी दिखाई दी । लोगों ने ना पार्टी और ना ही स्थानीय नेता को चुना , बल्कि उन्होंने तो शिवराज के विकास के नारे पर अपने भरोसे की मोहर लगाई है ।

इस चुनाव में मतदाता ने स्पष्ट कर दिया है कि ना तो उसे बीजेपी से कोई खास लगाव है और ना ही कांग्रेस से कोई बैर । उसे मतलब है सिर्फ़ काम से । अच्छा काम करने की बात और विकास का वायदा तो लगभग सभी पार्टियों ने किया लेकिन मतदाताओं ने वायदा करने वालों की विश्वसनीयता को जांचा - परखा । यही वजह रही कि एक दूसरे को नीचा दिखाने में मशगूल कांग्रेस नेताओं के प्रति जनता ने बेरुखी अख्तियार कर ली । लोगों को लगा कि जब तक कांग्रेस अपना घर व्यवस्थित नहीं कर लेती , उसे प्रदेश का ज़िम्मा सौंपना ठीक नहीं होगा ।

दूसरी अहम बात रही शिवराज की विनम्र और ज़मीन से जुडे व्यक्ति की छबि । उन्होंने अपनी कमियाँ स्वीकार करने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई । शायद इसीलिए तमाम खामियों के बावजूद शिवराज का जननायक के रुप में ’कायान्तरण” संभव हो सका । लेकिन अभी यह सफ़र का महज़ आगाज़ है । आगे का रास्ता काफ़ी कंटीला और दुर्गम है और यहीं से शुरु होगा जननायक की असली परीक्षा का दौर ...?

मध्यप्रदेश चुनावों की कुछ विशिष्टताओं पर विचार ज़रुरी है । हालांकि भाजपा के कई धडॆ इसे मानने को तैयार नहीं लेकिन हकीकतन आम जनता पर ’शिवराज फ़ेक्टर” हद दर्ज़े तक हावी रहा । गुजरात का ’मोदी माडल’ अपनी जगह है , मगर समाज के सभी वर्गों तक पहुंचने के लिए वायदों की बरसात के ’ शिवराज फ़ार्मूला’ का कामयाब होना आगामी चुनावों की रणनीति पर सभी दलों को फ़िर से काम करने के लिए बाध्य करेगा । इस माडल की खामियां और खूबियां तो अगले पांच साल ही बता सकेंगे , लेकिन फ़िलहाल यह माडल मोदी माडल की तुलना में ज़्यादा कारगर साबित हुआ है ।

जनता ने ज़्यादातर शिवराज को वोट दिया है फ़िर चाहे उम्मीदवार कोई भी रहा हो । अममून देखा गया है कि लोकप्रियता का बढता ग्राफ़ संकट का स्रोत भी बन जाता है । जनता जहाँ असीमित आशाएँ- अपेक्षाएँ पाल लेती है , वहीं पार्टी के भीतर भी ईर्ष्या और द्वेष के नाग फ़न फ़ैलाने लगते हैं । ऎसे में उन्हें खुद के बनाए माडल से भी सावधान और चौक्कना रहना होगा ।

शिवराज सरकार के सामने कडी चुनौती होगी चुनावी घोषणा पत्र में किए गये वायदों को पूरा करने की । बीजेपी ने अपने घोषणा पत्र ’जन संकल्प पत्र’ में जो वायदे किए हैं यदि वे सारे के सारे आने वाले पाँच साल में पूरे कर दिए जाते हैं तो मध्यप्रदेश हकीकत में स्वर्ग बन जाएगा ।

पिछले कार्यकाल में शिवराज ने राजधानी में किस्म - किस्म की महापंचायतें आयोजित कर ज़बानी जमा खर्च की तमाम रेवडियाँ बाँटी । प्रदेश का एक बडा हिस्सा उन घोषणाओं को लेकर तरह तरह के सपने बुन कर बैठा है । वायदों को हकीकत में बदलने के लिए सरकार को आर्थिक मोर्चे पर विशेष कोशिशें करना होंगी । योजनाओं को अमली जामा पहनाने के लिए आय के नए स्रोत तलाशने के साथ ही वित्तीय स्थिति में मज़बूती के लिए मितव्ययिता अपनाना होगी । लेकिन सूबे के मुखिया के ’राजतिलक” पर दिल खॊलकर किए गए खर्च को देखते हुए फ़िलहाल वित्तीय अनुशासन की बात कहना बेमानी लगता है ।

बहरहाल शिवराज एकछत्र नेता के रुप में उभरे हैं । उन्हें सकारात्मक समर्थन मिला है ,लेकिन लाख टके का सवाल है कि क्या वे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाकर सकारात्मक राजनीति और रचनात्मक सुशासन का माडल तैयार कर सकेंगे.....?

झूठे सिक्कों में भी उठा देते हैं अकसर सच्चा माल
शक्लें देख के सौदा करना काम है इन बंजारों का ।

मंगलवार, 9 दिसंबर 2008

नेताओं के आगे प्रजातंत्र की शिकस्त

सत्ता के सेमीफ़ायनल का नतीजा आ चुका है । कहा जा सकता है कि मुकाबला बराबरी का रहा । कांग्रेस के पास खोने को सिर्फ़ दिल्ली था , लेकिन दिल्ली के साथ राजस्थान मे मिली जीत ने पार्टी को उम्मीद से दुगना पाने के एहसास भर दिया है । बीजेपी तीन राज्यों की सत्ता फ़िसलने की आशंका से घिरी थी , मगर हार मिली सिर्फ़ राजस्थान में । यानि दोनों ही खेमों के पास खुशियां और गम मनाने के कारण मौजूद हैं ।

हिन्दी बेल्ट के मध्यप्रदेश ,छत्तीसगढ , राजस्थान और दिल्ली के नतीजों से जो बात उभर कर आई है , वह ये कि देश की राजनीति में व्यक्तिवाद की पुनर्स्थापना । इन चारों राज्यों में चुनाव कुछ व्यक्तियों के इर्द - गिर्द ही केन्द्रित रहे । इन सभी प्रदेशों में पार्टियां और उनके सिद्धांत भी हाशिए पर चले गए ।

फ़ौरी तौर पर व्यक्तिवाद भले ही राजनीतिक दलों के लिए फ़ायदेमंद साबित हो , लेकिन आगे चलकर यह पार्टियों के आंतरिक लोकतंत्र और देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए कतई फ़ायदेमंद नहीं कहा जा सकता । भले ही चुनाव हो गये , लेकिन मुद्दे अनुत्तरित हैं । वैसे जनतंत्र में लीडर से बडी पार्टी होती है लेकिन इन सबसे ऊपर है देश ...।

चुनाव नतीजों को लेकर बैचेनी काफ़ी बढ गई है । कई लोगों से बातचीत के बाद सामने आए तथ्य हैरान कर देने वाले हैं । कुछ साल पहले तक भ्रष्टाचार सामाजिक रुप से अनैतिक माना जाता था । धीरे - धीरे इसे मान्यता मिलने लगी और अब तो आलम ये है कि भ्रष्टाचारी ही समाज में प्रतिष्ठित और सम्मानित है ।

मतदाताओं के लिए भ्रष्टाचार अब कोई मुद्दा ही नहीं है । हर शख्स चाहता है कि उसका हरेक काम , गलत हो या सही , हर हाल में होना ही चाहिए , चाहे फ़िर इसकी कोई भी कीमत चुकाना पडे । मुम्बई हमले पर हाहाकार मचाने वाला यह देश सीमा पर तैनात सुरक्षा बलों से ईमानदारी चाहता है , लेकिन खुद कदम - कदम पर घूस लेना चाहता है । गलत को सही का जामा पहनाने के लिए पैसे का ज़ोर आज़माने से भी कोई परहेज़ नहीं ।

पैसों का लेन देन अब दस्तूर बन चुका है । इस लिए मंहगाई भी कोई मुद्दा नहीं रही । इस चुनाव में देश में अमन चैन यानि आतंकवाद से निजात के मसले पर निजी हित भारी पडते दिखाई दिए । लोगों की सोच इतनी संकुचित हो गई है कि देशहित कहीं पीछे ,काफ़ी पीछे छूट गया है । कुछ युवाओं से बातचीत में पता चला कि उन्होंने सत्तारुढ दल को लाने के लिए थोकबंद वोट दिए , ताकि कालेज में संचालित पाठ्यक्रम पर लटक रही स्टे की तलवार से छुटकारा मिल सके । कुछ ने नियमित होने की लालसा और कुछ ने गली की सडक के सुधरने की आस में मौजूदा सरकार को ही दोबारा सत्ता सौंपने का फ़ैसला लिया ।

नेताओं ने इसे जनतंत्र की जीत बताया है । लेकिन क्या वाकई गणतंत्र जीत गया । नेताओं के छलावे में आकर बडे मुद्दों को दरकिनार करके देश कितने सालों तक प्रजातंत्र का जश्न मना सकेगा ...? कल चाहे जो भी पार्टियां जीती हों लेकिन देश एक बार फ़िर हार गया । जनतंत्र की इतनी करारी हार पर मन बहुत व्यथित है । चुनाव परिणाम डॉक्टर की उस जांच रिपोर्ट की मानिंद लगते हैं , जिसमें मरीज़ को लाइलाज बीमारी से ग्रस्त पाया गया हो । ६३ बरस के भारत की जर्जर - बीमार देह को भलिभांति सेवा टहल की सख्त ज़रुरत है । लेकिन बूढों के लिए आश्रम बनाने वाले इस खुदगर्ज़ समाज से क्या ये उम्मीद वाजिब है ............?
मियाँ मैं हूँ शेर , शेरों की गुर्राहट नहीं जाती
मैं लहज़ा नर्म भी कर लूं, तो झुंझलाहट नहीं जाती
किसी दिन बेखयाली में कहीं सच बोल बैठा था
मैं कोशिश कर चुका हूँ , मुँह की कडवाहट नहीं जाती

रविवार, 7 दिसंबर 2008

पाठक और पत्रकार , शोषण के शिकार

आज एक ब्लॉग पर वॉयस ऑफ़ इंडिया के दफ़्तर में चल रही उठापटक की खबर ने एक बार फ़िर सोच में डाल दिया । १९९२ की अप्रैल का महीना याद आ गया , जब वीओआई के मुकेश कुमार जी दैनिक नईदुनिया भोपाल में थे और अपने हक की लडाई लडने के संगीन जुर्म में मुझे बाहर का रास्ता दिखाने की तैयारी की जा रही थी । खबर पढकर लगा कि इतने बरसों बाद भी पत्रकारॊं की दुनिया में कोई उत्साहजनक बदलाव नहीं आया ।

इस व्यावसायिक दौर में भी सबकी खबर लेने और सबको खबर देने वाले पत्रकारों की स्थिति आज भी जस की तस बनी हुई है । समाज के सभी वर्गों के शोषण को उजागर करने और उसके खिलाफ़ आवाज़ बुलंद करने वाले ज़्यादातर खबरनवीस मालिकों के आगे घुटने टेक देते हैं ।

आज़ादी की लडाई के दौर में मिशन मानी जाने वाली पत्रकारिता ने अब प्रोफ़ेशन का रुप ले लिया है । अब तो इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया उद्योग में तब्दील होने लगा है । समाचार पत्र छापने वाले प्रतिष्ठान कंपनी कहलाने लगे हैं । लेकिन बडी हैरत की बात है कि सरकारी छूट का लाभ उठाने वाले इन संस्थानों में पत्रकारों के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं । सरकारी नियम कायदों और श्रम कानूनों की धज्जियां उडाते हुए समाचार पत्र और चैनल लगातार फ़ल फ़ूल रहे हैं । पत्रकारों के नाम पर मिलने वाले फ़ायदों की बंदर बांट भी मालिकों में ही हुई है ।

ये और बात है कि समय के साथ परिपक्वता बढने की बजाय दिनों दिन यह पेशा बचकानापन अख्तियार करता जा रहा है । मालिक के चाटुकार पहले भी मौज उडाते थे और आज भी मलाई सूंत रहे हैं । लेकिन मूल्यों की वकालत करने वालों के लिए ना पहले जगह थी ,ना ही अब है ।
अखबार बाज़ार का हिस्सा बन चुके हैं । खबरों और आलेखॊं की शक्ल में तरह - तरह के प्राडक्ट के विज्ञापन दिखाई देते हैं । समझना मुश्किल है कि क्या समाचार है और क्या इश्तेहार ? सरकारी अंकुश को अपनी जेब में रखकर अखबार मालिक , पाठक और पत्रकार दोनों के ही शोषण पर आमादा हैं ।

पाठक को बेवजह वह सब पढने पर मजबूर किया जा रहा है , जिसमें उसकी कतई रुचि नहीं । लेकिन विज्ञापन दाताओं का बाज़ार बढाने के लिए ऎसी ही बेहूदा खबरें बनाई और बेची जा रही हैं । मुझे तो
कई बार लगता है कि दिन की शुरुआत में ही हम हर रोज़ ढाई से तीन रुपए की ठगी के शिकार हो जाते हैं । हम तो न्यूज़ पेपर लेते हैं खबरों के लिए , लेकिन वहां समाचार तो छोडिए कोई विचार भी नहीं होते । वहां तो होता है व्यापार .... या कोरी बकवास....... ।

कायदे से तो इन अखबार वालों से पाठकों को मासिक तौर पर नियमित पारिश्रमिक का भुगतान मिलना चाहिए । गहराई में जाएं , तो पाएंगे कि पाठक भी इस व्यवसाय का बराबर का भागीदार है । मेरी निगाह में सर्कुलेशन के आधार पर होने वाली विज्ञापन की आय का लाभांश का हकदार पाठक ही है । पाठकों को संस्थानों पर मुफ़्त में अखबार देने के लिए दबाव बनाना चाहिए या अपने शोषण के खिलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए अखबारों का बहिष्कार करना चाहिए ,ताकि समाचारों के नाम पर छपने वाले कचरे से निजात मिल सके ।

यह गुलो बुलबुल का अफ़साना कहाँ
यह हसीं ख्वाबों की नक्काशी नहीं
है अमानत कौम की मेरी कलम
मेरा फ़न लफ़्ज़ों की अय्याशी नहीं ।

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

सेना पर तोहमत से पहले , मीडिया झांके अपनी गिरेबां

मुम्बई हमले के बाद सरकार गाइड लाइन बनाकर खबरिया चैनलों पर लगाम कसने की तैयारी में जुट गई है । सूचना और प्रसारण मंत्रालय की एडवायज़री को न्यूज़ चैनलों के संपादकों की संस्था ’ न्यूज़ ब्राडकास्टर्स अथारिटी ’ ने सिरे से खारिज कर दिया है । उलटा तोहमत जड दी है कि सरकार के नाकारापन और नेताओं की बददिमागी को जनता के सामने लाने से बौखला कर यह कदम उठाया जा रहा है । लेकिन बेलगाम और बेकाबू हो चुके खबरिया चैनलों का आरोप क्या सही है ?

ज़ी न्यूज़ पर नौसेना और कोस्ट गार्ड को निशाना बना कर एक ही खबर लगातार हर घंटे दिखाई जा रही है । धीर गंभीर नज़र आने वाले इन पत्रकारों में अचानक अपने पेशे के प्रति इतनी ईमानदारी कहां से पैदा हो गई ? सेना के खिलाफ़ मोर्चा खोलने का यही मौका मिला इन्हें ..? वैसे इन्हें देश की सुरक्षा एजेंसियों पर सरे आम कीचड उछालने का हक किसने दिया ? रक्षा संबधी दस्तावेज़ों को जगज़ाहिर कर महामना पुण्य प्रसून वाजपेयी पत्रकारिता के कौन से मानदंड स्थापित कर रहे है । ये तथ्य तो सभी ने मान लिया है कि केन्द्र सरकार के नाकारापन ने देश को ये दिन दिखाया है ,लेकिन चैनल देश की सेना का मनोबल तोड कर कौन से झंडे गाड रहे हैं ?

दाउद इब्राहीम ,अबू सलेम ,बबलू श्रीवास्तव जैसे लोगों की ’वीर गाथाए” गाने वालों को कोई हक नहीं बनता देश की सुरक्षा व्यवस्था के साथ खिलवाड करने का ..। राखी सावंत , मोनिका बेदी और ऎश्वर्या के प्रेम के चर्चे कर अपने खर्चे निकालने वाले बकबकिया चैनलों की देश को "घूस की तरह पोला " करने में खासी भूमिका रही है । प्रो. मटुकनाथ को ’ लव गुरु” के खिताब से नवाज़ कर सामाजिक दुराचार को प्रतिष्ठित करने वाले किस हक से सामाजिक सरोकारों का सवाल उठाते हैं ?

इलेक्ट्रानिक मीडिया को भाट - चारण भी नहीं कहा जा सकता । इन्हें मजमा लगाने वाला कहना भी ठीक नहीं होगा ,क्योंकि डुगडुगी बजा कर भीड जुटाने वाला मदारी भी तमाशबीनों के मनोरंजन के साथ - साथ बीच - बीच में सामाजिक सरोकारों से जुडी तीखी बात चुटीले अंदाज़ में कहने से नहीं चूकता । सदी के महानायक के इकलौते बेटे के विवाह समारोह में सार्वजनिक रुप से लतियाए जाने के बाद कुंईं -कुंई ..... करते हुए एक बार फ़िर उसी चौखट पर दुम हिलाने वाले ये लोग क्या वाकई देश के दुख में दुबले हो रहे हैं .........?

सबसे तेज़ होने का दम भरने वाले खबरची चैनल में काम कर चुके मेरे एक मित्र ने बताया था कि उन्हें सख्त हिदायत थी कि समाज के निचले तबके यानी रुख्रे - सूखे चेहरों से जुडे मुद्दों के लिए समाचार बुलेटिन में कोई जगह नहीं है । ये और बात है कि चैनल को नाग - नागिन के जोडे के प्रणय प्रसंग या फ़िर नाग के मानव अवतार से बातचीत का चौबीस घंटे का लाइव कवरेज दिखाने से गुरेज़ नहीं ।

क्या ये चैनल देश को भूत - प्रेत , तंत्र मंत्र , ज्योतिष , वास्तु की अफ़ीम चटाने के गुनहगार नहीं हैं ? इतना ही नहीं क्राइम और इस तरह की खबरों से परहेज़ का दावा करने वाले एक चैनल ने मानव अधिकारों और धर्म निरपेक्षता के नाम पर जहर फ़ैलाने के सिवाय कुछ नहीं किया । अमीरों और गरीबों के बीच की लकीर को गहरा करने का श्रेय भी काफ़ी हद तक इन्हीं को जाता है । इसी चैनल ने चमक - दमक भरे आधुनिक वातानुकूलित बाज़ारों में बिकने वाली चीज़ों का बखान कर मध्यम वर्ग को ललचाया । पहुंच से बाहर की चीज़ों को येन केन प्रकारेण हासिल करने की चाहत के नतीजे सबके सामने हैं । देश में ज़मीर की कीमत इतनी कम पहले कभी नहीं थी । तब भी नहीं जब लोगों के पास ना दो वक्त की रोटी थी और ना तन ढकने को कपडा ...। देश में फ़िलहाल सब कुछ बिकाऊ है ... सब कुछ .....जी हां सभी कुछ ..........।

इसका मतलब कतई ये नहीं कि सेना में अनियमितताएं नहीं हो रही । लेकिन मीडिया को अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास करना ही होगा , क्योंकि इस समय एकजुट होकर सबसे बडी समस्या का मुकाबला करने की दरकार है । मीडिया इतनी ही गंभीर है , तो ये बातें पहले क्यों नहीं उठाई या देश हित में कुछ दिन रुकने का संयम और सब्र क्यों नहीं रखा ? पहले जनता को रासरंग में डुबो कर गाफ़िल बनाया , फ़िर मुम्बई हमले के लाइव कवरेज और गैर ज़िम्मेदाराना बातों से देश की स्थिति को अंतरराष्ट्रीय स्तर कमज़ोर करने का पाप किया , इस कुकर्म को छिपाने के लिए नेताओं के खिलाफ़ बन रहे माहौल भुनाने में कोर कसर नहीं छोडी और अब किसी भी तरह के नियंत्रण से इंकार की सीनाज़ोरी ......।

बडा कनफ़्यूज़न है । चैनल देश के लिए वाकई चिंतित हैं या कमाई के लिए देश के दुश्मनों के हाथ का खिलौना बन चुके हैं कह पाना बडा ही मुश्किल है । हे भगवान [ अगर वाकई तू है तो ...] इन शाख पर बैठे उल्लुओं को सदबुद्धि दे । इन्हें बता कि देश हित में ही इनका हित है । देश में हालात माकूल होंगे तभी इनका तमाशा चमकेगा । अफ़रा तफ़री के माहौल में तो बोरिया बिस्तर सिमटते देर नहीं लगेगी । सेना देश का आत्म सम्मान और गौरव है । उसके खिलाफ़ संदेह के बीज बो कर जाने - अनजाने दुश्मनों के हाथ मज़बूत करना राष्ट्रद्रोह है........

आते - आते आएगा उनको खयाल
जाते - जाते बेखयाली जाएगी ।


चित्र - बीबीसी हिन्दी डाट काम से साभार

गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

बदलाव चाहिए तो मोमबती नहीं मशाल जलाओ

मुम्बई हमला अंधों का हाथी बन गया है । सभी अपनी सहूलियत और ज़रुरत के हिसाब से इसकी व्याख्या में व्यस्त हैं । ताज पर हुए हमले ने चिंतकों और विश्लेषकों को भी काम पर लगा दिया है । खुफ़िया तंत्र की नाकामी और राजनेताओं की बदमिजाज़ी के आम हो चले किस्सों के बीच मनीषी नए किस्म का मनन - चिंतन करने में जुट गये हैं । कहीं मीडिया की भूमिका को लेकर वाल उठाए जा रहे हैं , तो कहीं उसकी नीयत में उपजी खोट का खुलासा हो रहा है । जाने माने खबरनवीस ताज में एक छोटे परिवार के चाय के खर्चे का आकलन कर देश के विकास की गाथा पर गह- गंभीर चिंतन में मशगूल हैं ।

खबरिया चैनलों की बदौलत आई राष्ट्र प्रेम की सुनामी का असर कमज़ोर पडने लगा है । चैनलों को देखकर मन बल्लियों उछल रहा था कि इस बार तो बस .... ’आर या पार ..।’ सारी व्यवस्था बदल कर ही दम लेंगे हम ..। लेकिन आज सुबह अखबार के पन्ने पलटते ही ये खुशफ़हमी भी जाती रही । भोपाल के न्यू मार्केट , राजभवन और भेल में बम की खबर से मचे हडकंप की खबर को पढते - पढते आखिरी पैरा ने सारे मुगालते एक ही बार में मिटा दिए । बम की सूचना के बाद इलाके की सारी दुकानें बंद हो गई , लेकिन आइसक्रीम की मशहूर दुकान पुलिस के कहने के बावजूद खुली रही । आखिर व्यापारी ने पार्लर बंद क्यों नहीं किया ,क्या उसे अपने कर्मचारियों और संस्थान की फ़िक्र नहीं थी ? दरअसल बेहद गोपनीय तरीके से की गई पुलिस की माक ड्रिल की खबर से व्यापारी बखूबी वाकिफ़ था । यानी सुरक्षा व्यवस्था में कहीं ना कहीं छेद ...।

मुंबई में हुए हमलों के दूसरे दिन भारत के एक प्रमुख अंग्रेज़ी अख़बार 'इंडियन एक्सप्रेस' की सुर्खी थी 'ऑवर नाइटमेयर, ऑवर वेक अप काल' यानी 'हमारा दुखद सपना, हमे जगाने वाली घंटी ।'
लेकिन क्या इससे भारत जागेगा ? अगर हम पिछले दिनों हुई घटनाओं को देखें तो उत्तर होगा नहीं । भारत एक विशालकाय समुद्री जहाज जैसा है , जो हिलता डुलता हुआ पानी को चीरता चलता है और ऐसे आंधी तूफ़ान में भी डूबता नहीं जिसमें छोटी नौकाएं या अस्थायी जहाज़ डूब जाते हैं ।
भारत ने कई युद्ध, दंगे, क़त्ल और आतंकवादी घटनाएं देखी हैं लेकिन ये जहाज़ सभी मुसीबतों को आराम से झेलता हुआ निकल जाता है । यहां के लोगों में तनाव तेज़ी से बढ़ता है और उसी तेज़ी से ख़त्म भी हो जाता है । इसका सबसे निराशाजनक और नकारात्मक पक्ष यह है कि भारतीय अगर एक बार शांत हो जाते हैं तो उनमें समस्या को नज़रअंदाज करने की प्रवृत्ति पैदा हो जाती है । नतीजतन वे समस्या के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की बजाय हालात से समझौता करने लगते हैं ।

आक्रोश जताने के लिए हाथों में मशाल थामने की बजाय मोमबत्तियां जलाना भी इसी सहूलियत का हिस्सा जान पडता है । सांकेतिक भाषा का भी अपना महत्व होता है । मशाल की धधकती ज्वाला हमारे इरादे की मज़बूती को अभिव्यक्ति देती है । तेज़ हवा का झोंका तो क्या ज़रा सी फ़ूंक का प्रतिरोध भी ना सह पाने वाली , हर पल अपना अस्तित्व खोने वाली मोमबत्ती शायद कभी भी हमारे संकल्प की दृढता की प्रतीक हो ही नहीं सकती ।

हाल के दिनों के घटनाक्रम पर नज़र डालें , तो उत्तेजना से भरे लोगों का हुजूम चारों तरफ़ दिखाई देने लगा । लेकिन इनमें मुद्दों की समझ और जोश कहीं नज़र नहीं आती । दिशाहीन लोगों का जमावडा अक्सर भीड की शक्ल अख्तियार कर लेता है । ऎसे में भीड और भेड का फ़र्क खत्म हो जाता है । भेडों को हांकने वाला चरवाहा ही अंत में रेवड की दिशा तय करने लगता है । बहरहाल ऎसा कुछ फ़िलहाल होता दिखाई नहीं देता , क्योंकि मोमबत्तियां उठाकर नारे लगाने के श्रम से थक चुके लोग अगले किसी हादसे [वह भी पांच सितारा] पर ही ऊर्जावान हो पाएंगे ।

देश को क्रांति की प्रतीक मानी जाने वाली मशाल थामने वाले हाथों की ज़रुरत है । पुतले जलाने , शवयात्रा निकालने , सिर मुडाने , दौड लगाने या फ़िर रंगबिरंगी टी शर्ट धारण करके सडकों पर पेट्रोल फ़ूंकने से व्यवस्था ना तो कभी बदली है और ना ही आगे बदली जा सकेगी । व्यवस्था बदलना है तो वैचारिक परिवर्तन लाना होगा । भोगवादी संसकृ्ति से तौबा किए बिना अब भारत के हालात बदलने की बात करना महज़ छलावा है ।

कुछ लोग जो सवार हैं कागज़ की नाव पर
तोहमत तराशते हैं हवा के दबाव पर ।
चित्र - बीबीसी हिन्दी डाट काम से साभार

मंगलवार, 2 दिसंबर 2008

दो - तीन दिसम्बर की दरमियानी रात का खौफ़नाक मंज़र

पिछले २३ सालों से हर बार आज के दिन लगता है कि कैलेंडर में २-३ दिसंबर की तारीख आती ही क्यों है ? आज शाम से मन कुछ उदास है । ३ दिसंबर १९८४ की सुबह का खौफ़नाक मंज़र अपनी चपेट में लेने लगता है और एकाएक सब कुछ बिखर सा जाता है ।
आगे की पढाई से छुटकारा पाने की गरज और अपने पैरों पर खडे होने की ललक से शुरु की गई नौकरी के नियम बडे सख्त थे । कडाके की ठंड में भी सात बजे तक स्कूल में हाज़िरी ज़रुरी थी , तय समय से पांच मिनट की देरी यानी आधे दिन की तनख्वाह का सफ़ाया ।

शिवाजी नगर से लखेरापुरा तक करीब ८-९ किलोमीटर का फ़ासला है । रास्ते भर लोगों की बदहवास भीड का सबब समझ से बाहर था ।{ खबरिया चैनल जो नहीं थे पल -पल की हलचल बयान करने के लिए , काश होते ....] लोग रजाई - कंबल लिए टी टी नगर का रूख किए थे । लग रहा था मानो किसी जुलूस या मेले में शिरकत करने जा रहे हैं इक्ट्ठा होकर । स्कूल पहुंचने प् देखा वहां भी सभी कुछ बातें कर रहे हैं । वातावरण में अजीब सी गंध समाई है । सब एक - दूसरे को अपनी आप बीती सुना रहे हैं । हालांकि तब तक किसी को हालात की गंभीरता का ज़्यादा अंदाज़ा नहीं था ।
पुराने शहर की तंग गली में चलने वाले स्कूल के बाहर एकाएक शोरगुल सुनाई देने लगा । लोग एक ही दिशा में बिना कुछ सुने भागे जा रहे थे । और हमें भी कुछ ऎसा ही करने का मशविरा दे रहे थे । लोग चिल्ला रहे थे कि भागो टंकी फ़ट गई है । आधी रात में गैस की रिसन के पीडादायी अनुभ से गुज़र चुके लोगों के लिए ये खबर मौत से रुबरु होने के समान थी ।
हर शख्स की आखें सुर्ख ,सूजी हुईं । जलन करती आंखॆं खोल पाना भी नामुमकिन ,लेकिन जान से ज़्यादा कीमती भला क्या ..। मांएं अपने बच्चों को छाती से चिपकाए , अंगुली पकडे दूर चली जाना चाहती थीं किसी महफ़ूज़ ठिकाने की तलाश में । बाद में पता चला कि ये महज़ अफ़वाह थी । तूफ़ान तो रात में ही अपना काम कर गया था ।
दोपहर बाद हालात को समझने के लिए मैं अपने पिता के साथ जेपी नगर ,कैंची छोला ,चांदबड इलाके मे गई । इतना भयावह मंज़र मैंने आज तक नहीं देखा । चारों तरफ़ पसरा सन्नाटा मौत के तांडव को बयान कर रहा था । सभी तरह के पालतू और आवारा जानवरों की फ़ूली हुई लाशें ,
सांय - सांय करती सडकें और सूने पडे मकान ....। हमीदिया अस्पताल ,काटजू और जेपी हास्पिटल में चारों तरफ़ हाहाकार ।
हादसे के कुछ घंटे बाद से शुरु हुई राजनीति का दौर अब भी बदस्तूर जारी है । पहले हादसे में हुई मौतों के आंकडे पर राजनीति ,फ़िर मुआवज़े पर और फ़िर पूरे शहर को मुआवज़ा दिलाने पर ।कई संगठन न्याय दिलाने के लिए आगे आए । कुछ नदारद हो गये । जो शेष हैं उनकी आपसी खींचतान बरकरार है । गैस पीडितों के बेहतर और मुफ़्त इलाज के लिए सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर बनाए गए अस्पताल में पीडितों की कोई सुनवाई नहीं । इस पांच सितारा अस्पताल में उच्च वर्ग को ही अच्छा इलाज नसीब है । सरकारी अस्पतालों की बेरुखी के चलते पुराने भोपाल के डाक्टरों की प्रेक्टिस भी खूब चली ।
मुआवज़ा मिलने से गैस पीडितों की समस्याएं कम नहीं हुईं । पैसा मिला , लेकिन भोपालियों की तबियत ही कुछ ऎसी है कि रुपया देखते ही हथेली खुजाने लगती है । आज पैसा है तो सैर सपाटा , सौदा सुलफ़ ,किर भले ही कल फ़ाकाकशी की नौबत ..। मुआवज़ा बंटने का असली फ़ायदा तो मिला शहर के सोने - चांदी और कपडों के व्यापारियों को ।
हज़ारों गैस पीडित आज भी हर रोज़ तिल -तिल कर मर रहे हैं । लाइलाज बीमारियों की चपेट में हैं । गैस कांड की बरसी पर सर्व धर्म प्रार्थना सभा और श्रद्धांजलि की औपचारिकता निभाने के बाद सब पहले सा हो जाता है । आज के अखबार ने खबर दी है कि गैस पीडितों की बीमारियों का इंडियन कौंसिल आफ़ मेडिकल रिसर्च २४ साल बाद एक बार फ़िर अध्ययन कराने जा रही है । कभी कभी तो लगता है कि भोपाल वासी इस तरह के अध्ययनों के लिए महज़ ’ गिनी पिग ’ होकर रह गए हैं ।
दुनिया ने किसका राहे फ़ना में दिया है साथ
तुम भी चले चलो यूं ही जब तक चली चले ।

चित्र - बीबीसी हिन्दी डाट काम से साभार

सोमवार, 1 दिसंबर 2008

सरकार को मैडम सोनिया की फ़टकार

मुम्बई में दहशतगर्दी पर केन्द्र और राज्य सरकार की नाकामी ने मैडम सोनिया की पेशानी पर बल ला दिए है । प्रियंका राबर्ट वाड्रा के तल्ख तेवरों के बाद सीपीसी की मीटिंग में राहुल बाबा के भडकने ने देश के राजनीतिक गलियारों में सरगर्मी बढा दी । कांग्रेस के भावी कर्णधारों के कडे तेवरों के आगे कई दिग्गज नेताओं की घिग्गी बंध गई लगती है ।

सोनिया ने भी बच्चों की ज़िद के आगे घुटने टेक दिए और गुस्से में ऎसे कठोर अल्फ़ाज़ कह डाले , जो यूपीए सरकार के अब तक के कार्यकाल पर ही सवालिया निशान लगाते हैं । बैठक में सरकार को दी गई हिदायतों पर गौर किया जाए , तो उसका लब्बो लुआब कुछ ऎसा ही निकलता है । चैनलों पर प्रसारित ब्रेकिंग न्यूज़ की एक बानगी -

- आतंकवाद पर सोनिया सख्त

- सोनिया का सरकार को दो टूक संदेश

- द्रढ इच्छा शक्ति वाले नेतृत्व की ज़रुरत

- निर्णायक कार्रवाई की ज़रुरत

- लोगों को लगे कि सरकार है

- सोच विचार का समय गया

मोहतरमा सोनिया के
इस बदले रुख पर बस यही कहा जा सकता है - बडी देर कर दी मेहरबां आते आते........... ।

इन सभी बातों को पलट कर देखें या यूं कहें कि गूढ अर्थ ढूंढें , तो लगता है कि अब तक केंद्र सरकार जनता के पैसों पर , जनता की मर्ज़ी से , जनता के लिए मसखरी कर रही थी । हर मोर्चे पर नाकामी की ऎसी ईमानदार स्वीकारोक्ति के बाद तो पूरी सरकार को ही अलविदा कह देना चाहिए ।

इस्तीफ़ों की नौटंकी " डैमेज कंट्रोल एक्सरसाइज़ ’ से ज़्यादा कुछ नहीं । लगातार अपनी चमडी बचाने में लगे नेताओं को ऊपर से फ़टकार पडी , तो बेशर्मी ने नैतिकता का लबादा ओढ लिया ....! खैर इन बेचारों को दोष देने का कोई मतलब नहीं । बात की तह में जाएं , तो पाएंगे कि असली गुनहगार हम हैं । और अपनी बेवकूफ़ियों की ठीकरा नेताओं पर फ़ोडकर असलियत से मुंह छिपाने की पुरज़ोर कोशिश से बाज़ नहीं आ रहे ।

जनसेवक ना जाने कब जन प्रतिनिधि बन बैठे । जिन्हें जनता की सेवा दायित्व निभाना था , सत्ता के मालिक बन बैठे । यानी प्रजातंत्र की असली सूत्रधार जनता अपने अधिकारों को आज तक समझ ही नहीं सकी है । गलत लोग चुनें भी हमने हैं ,तो फ़िर शिकवा - शिकायत कैसी ? अच्छे लोगों को आगे लाने की मुहिम चलाना होगी ,जनता को मानसिकता बदलना पडेगी , सही - गलत का फ़र्क समझना होगा और देशहित में निज हितों को दरकिनार करना होगा । चांदी के चंद टुकडों के लिए ईमान की तिजारत बंद करके ही देश को बचाया जा सकता है ...।

नयी दुनिया की पड रही है नींव
खैर उजडी तो उजडी आबादी
फ़ैसला हो गया सरे मैदां
ज़िंदगी है गरां कि आज़ादी