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शनिवार, 27 दिसंबर 2008

कहते हैं कि गालिब का है अंदाज़े बयाँ और

हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि गालिब का है अंदाज़े बयाँ और ।
उर्दू अदब में यूँ तो बडे - बडॆ उस्तादों ने अपने अशारों से शायरी को नए मकाम तक पहुंचाया , लेकिन मिर्ज़ा असदुल्लाह खां ’गालिब’ का अंदाज़ ही निराला है । गालिब के शे’र सिर्फ़ मोहब्बत की शायरी की शिनाख्तगी ही नहीं हैं । उनका सारा फ़लसफ़ा इस दुनिया में आज भी उतना ही चलन में है , जितना शायद उनके दौर में रहा हो । गालिब की शायरी में हमें अपने आसपास के हर रंग की मौजूदगी का एहसास मिलता है । कमाल सिर्फ़ और सिर्फ़ गालिब की शायरी का है । वे एक दौर के शायर नहीं हैं ।
गालिब की गज़लें जब पहली मर्तबा ईरान से निकलकर दिल्ली की गलियों तक पहुंची और फ़िर दिल्ली से जो सफ़र शुरु हुआ , उसके करीबन सौ साल बाद फ़ैसला हुआ कि गालिब अपने दौर की सबसे अलहदा और उम्दा आवाज़ थी । तब से लेकर अब तक कई बेहतरीन सुखनवर हुए लेकिन गालिब के कद को तो छोडिए कोई अब तक उनके कंधे तक भी नहीं पहुंच पाया । मीर दुनिया से बेज़ार थे ,वहीं गालिब दुनिया के हर रंग से वाकिफ़ थे । उन्होंने अपने अल्फ़ाज़ से ज़िंदगई के सारे पहलुओं को छुआ ।
ग़ालिब उर्दू के सबसे मशहूर शायर हैं। वे बहादुरशाह जाफ़र के ज़माने में हुए और 1857 का गदर उन्होंने देखा। अव्यवस्था और निराशा के उस ज़माने में वे अपनी पुरसुकूं शख्सियत, मानव-प्रेम, सीधा स्पष्ट यथार्थ और इन सबसे अधिक, दार्शनिक दृष्टि लेकर साहित्य में आये। शुरू में तो लोगों ने उनकी मौलिकता की हंसी उड़ाई लेकिन बाद में उसे इतनी तेज़ी से बढ़ावा मिला कि शायरी दुनिया का नज़ारा ही बदल गया।
पूछते हैं वो कि ‘ग़ालिब’ कौन है,
कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या
ये मसाइले-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान ‘ग़ालिब’
तुझे हम वली समझते जो न बादहख़्वार होता
यह केवल मिर्ज़ा ‘ग़ालिब’ की सादगी ही है , जो बादहख़्वार होने के कारण उन्होंने अपने ‘वली’ होने का दावा नहीं किया । जहां तक उर्दू अदब का ताल्लुक है और इससे भी ज़्यादा साहित्य और ज़िंदगी के जुडाव है, ‘ग़ालिब’ न केवल अपने ज़माने के ‘अदबी बली’ (साहित्यिक अवतार) थे, न केवल आधुनिक युग के ‘अदबी अली’ हैं, बल्कि जब तक उर्दू भाषा और उसका साहित्य मौजूद रहेगा, उनका स्थान ‘अदबी वली’ के रूप में हमेशा कायम रहेगा। परम्पराओं से विद्रोह करने और लीक से हटकर बात कहने के जुर्म में ज़माना जो बर्ताव हर ‘वली’ से करता रहा है , वैसा ही ‘ग़ालिब’ के साथ भी हुआ।

‘ग़ालिब’ से पहले उर्दू शायरी में भाव-भावनाएं तो मौजूद थीं, मगर भाषा और शैली के ‘चमत्कार’ ‘गुलो-बुलबुल’, ‘जुल्फ़ो-कमर’ (माशूक़ के केश और कमर) ‘मीना-ओ-जाम’ (शराब की सुराही और प्याला) की कसीदाकारी तक सिमट कर रह गए थे। बहुत हुआ तो किसी ने तसव्वुफ़ (सूफ़ीवाद) का सहारा लेकर संसार की असारता और नश्वरता पर दो-चार आँसू बहा दिए। ऐसे समय में, जबकि अधिकांश शायर :
सनम सुनते हैं तेरी भी कमर है,
कहां है ? किस तरफ़ है ? औ’ किधर है ?
सितारे जो समझते हैं ग़लतफ़हमी है ये उनकी
फ़लक पर आह पहुंची है मेरी चिनगारियां होकर।
को ‘नाजुक-ख़याली’ और शायरी का शिखर मान रहे थे, ‘ग़ालिब’ ने
दाम हर मौज में है हल्क़ा-ए-सदकामे-नहंग
देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहर होने तक ?
और
है परे सरहदे-इदराक से अपना मसजूद
क़िबला को अहले-नज़र क़िबलानुमा कहते हैं।
की बुलंदी से ग़ज़लगो शायरों को, और :
बक़द्रे-शौक़ नहीं ज़र्फे-तंगनाए ग़ज़ल
कुछ और चाहिए वुसअ़त मेरे बयां के लिए ।
की बुलंदी से नाजुकमिज़ाज ग़ज़ल को ललकारा तो नींद के मातों और माशूक़ की कमर की तलाश करने वालों ने चौंककर इस उद्दण्ड नवागान्तुक की ओर देखा। कौन है यह ? यह किस दुनिया की बातें करता है ? फब्तियां कसी गईं। मुशायरों में मज़ाक उड़ाया गया। किसी ने उन्हें मुश्किल-पसंद (जटिल भाषा लिखने वाला) कहा, तो किसी ने मोह-मल-गो (अर्थहीन शे’र कहने वाला) और किसी ने तो सिरे से सौदाई ही कह डाला। लेकिन, जैसा कि होना चाहिए था, ‘ग़ालिब’ इन तमाम विरोधों और तानाकाशी को सहन करते रहे-हंस-हंसकर.. . .
न सताइश की तमन्ना न सिले की परवा
गर नहीं हैं मेरे अशआ़र में माने न सही।
कहते हुए जीवन के गीत गाते रहे। यहां तक कि उनके क़लम की आवाज़ रुहानी आवाज़ का रूप धारण कर गई और आज वही रुहानियत हमारे दिलो- दिमाग पर तारी होकर नये-नये रास्ते सुझा रही है। ‘ग़ालिब उर्दू भाषा के एकमात्र शायर हैं जिनके व्यक्तित्व और साहित्य पर सबसे अधिक लेख, समालोचनात्मक पुस्तकें लिखी गई हैं। (उनके अपने ‘दीवान’ के तो इतने संस्करण निकल चुके हैं कि उसकी गिनती नामुमकिन है ) और जिनके शे’रों को जितनी बार पढ़ा जाए, उतनी बार नये भावार्थ के साथ सामने आते हैं।
मिर्ज़ा असद-उल्ला खां ‘ग़ालिब’ जो पहले ‘असद’ उपनाम से और फिर ‘ग़ालिब’ उपनाम से प्रसिद्ध हुए, 27 दिसम्बर 1797 ई। को आगरा में पैदा हुए। गोत्र, वंश के बारे में एक जगह उन्होंने खुद लिखा है -
‘‘असद-उल्ला खां उर्फ़ ‘मिर्ज़ा नौशा’, ‘ग़ालिब’ तख़ल्लुस (उपनाम), क़ौम का तुर्क, सलजूक़ी सुलतान बरकियारुक़ सलजूक़ी की औलाद में से, उसका दादा क़ौक़ान बेग ख़ां, शाह आलम के अहद (शासन-काल) में समरकंद से दिल्ली में आया। पचास घोड़े और नक़्क़ारा निशान से बादशाह का नौकर हुआ। पहासू का परगना, जो समरू बेगम को सरकार से मिला था, उसकी जायदाद में मुक़र्रर था। बाप असद-उल्ला खां मज़कूर (उल्लिखित) का बेटा अब्दुला बेग ख़ां दिल्ली की रियासत छोड़कर अकबराबाद (आगरा) में जा रहा। असद उल्ला ख़ां अकबराबाद में पैदा हुआ। अब्दुल्ला बेग ख़ां अलवर में रावराजा बख़्तारसिंह का नौकर हुआ और वहाँ एक लड़ाई में बड़ी बहादुरी से मारा गया। जिस हाल में कि असद-उल्ला ख़ां मज़कूर पाँच-छः बरस का था उसका हक़ीक़ी (सगा) चचा नस्रउल्ला बेग ख़ा मरहटों की तरफ से अकबराबाद का सूबेदार था।
तेरह बरस के मिर्ज़ा का निकाह दिल्ली के लोहारु कुल की उमराव बेग़म के साथ पढा गया । शादी के दो-तीन साल बाद वे हमेशा के लिए दिल्ली के हो गए , जिसे एक जगह उन्होंने कुछ यूँ बयान किया है :
‘‘सात रजब 1225 (9 अगस्त, 1810) को मेरे वास्ते हुक्मे-दवामे-हब्स (स्थायी क़ैद का हुक्म) सादिर हुआ। एक बेड़ी (यानी बीवी) मेरे पाँव में डाल दी और दिल्ली शहर को ज़िंदान (क़ैदखाना) मुक़र्रर किया और मुझे उस ज़िंदान में डाल दिया।’’
शे’रों-शायरी की लटक तो पहले से थी। अब दिल्ली पहुँचे तो यहाँ के शायराना वातावरण और आए दिन के मुशायरों ने क़लम में और तेज़ी भर दी। लेकिन नियमित रूप से शायरी में वे किसी के शागिर्द नहीं बने, बल्कि अपने फ़ारसी भाषा तथा साहित्य के अध्ययन और ज्ञान के कारण उन्हें शब्दावली और शे’र कहने की कला में ऐसी अनगनत खामियां नज़र आईं । उन्होंने उस्तादों पर टीका-टिप्पणी शुरू कर दी। उनकी राय में हर पुरानी लकीर सिराते-मुस्तकीम {सीधा-मार्ग) नहीं है और अगले जो कुछ कह गए हैं, वह पूरी तरह सनद (प्रमाणित बात) नहीं हो सकती।’’
उम्र के पच्चीसवें पायदान पर कदम रखने तक उन्होंने लगभग 2000 शे’र ‘बेदिल’ के रंग में कह डाले, जिस पर उर्दू के नामचीन शायर और उस्ताद मीर तक़ी ‘मीर’ ने भविष्यवाणी की कि ‘‘अगर इस लड़के को कोई कामिल उस्ताद मिल गया और उसने इसे सीधे रास्ते पर डाल दिया, तो लाजवाब शायर बनेगा, वरना मोहमल (अर्थहीन) बकने लगेगा।’’
यह कामिल उस्ताद ‘ग़ालिब’ को कहीं बाहर से नहीं मिला, बल्कि यह उनकी आलोचनात्मक दृष्टि थी जिसने न केवल उस काल के 2000 शे’रों को बड़ी ही बेदिली से काट फेंकने की प्रेरणा दी बल्कि आज जो छोटा-सा ‘दीवाने-ग़ालिब’ हमें मिलता है और जिसे मौलाना मोहम्मद हुसैन ‘आज़ाद’ (प्रसिद्ध आलोचक) के कथनानुसार हम ऐनक की तरह आँखों से लगाए फिरते हैं, उसका संकलन करते समय ‘ग़ालिब’ ने अपने सैकड़ों शे’र नज़र-अंदाज़ कर दिए थे।
रंज से ख़ूगर हुआ इन्सां तो मिट जाता है रंज
रह मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसां हो गईं।
ऐसे उच्चकोटि के अनुभवपूर्ण शे’र निकले। यह मिर्ज़ा ‘ग़ालिब’ ही की विशेषता थी कि उन दिनों, जबकि साहित्य-समालोचना का लगभग अभाव था, उन्होंने शायरी का यह भेद पा लिया कि शे’र शून्य में टामक-टोइयाँ मारने का नहीं, किसी अनुभव के व्यक्तिगत प्रकटीकरण का नाम है और बड़ा शायर केवल वही हो सकता है जो अपने काल की विडम्बनाओं तथा संघर्षों को सहिष्णुता और आत्म-सम्मान में रचे हुए संकेतों में प्रकट कर सके। आने वाली पीढ़ियों में बिना उपदेशक बने यह अनुभूति उत्पन्न कर सके कि उनको भी अपने आत्म सम्मान को सबसे ऊपर रखना चाहिए ।
मैं हरएक काम खुदा की तरफ़ से समझता हूँ और खुदा से लड़ नहीं सकता। जो कुछ गुज़रा, उसके नंग (लज्जा) से आज़ाद, और जो कुछ गुज़रने वाला है उस पर राज़ी हूँ। मगर आरजू करना आईने-अबूदियत (उपासना के नियम) के खिलाफ़ नहीं है। मेरी यह आरजू है कि अब दुनिया में न रहूँ और अगर रहूँ तो हिन्दोस्तान में न रहूँ।