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रविवार, 7 दिसंबर 2008

पाठक और पत्रकार , शोषण के शिकार

आज एक ब्लॉग पर वॉयस ऑफ़ इंडिया के दफ़्तर में चल रही उठापटक की खबर ने एक बार फ़िर सोच में डाल दिया । १९९२ की अप्रैल का महीना याद आ गया , जब वीओआई के मुकेश कुमार जी दैनिक नईदुनिया भोपाल में थे और अपने हक की लडाई लडने के संगीन जुर्म में मुझे बाहर का रास्ता दिखाने की तैयारी की जा रही थी । खबर पढकर लगा कि इतने बरसों बाद भी पत्रकारॊं की दुनिया में कोई उत्साहजनक बदलाव नहीं आया ।

इस व्यावसायिक दौर में भी सबकी खबर लेने और सबको खबर देने वाले पत्रकारों की स्थिति आज भी जस की तस बनी हुई है । समाज के सभी वर्गों के शोषण को उजागर करने और उसके खिलाफ़ आवाज़ बुलंद करने वाले ज़्यादातर खबरनवीस मालिकों के आगे घुटने टेक देते हैं ।

आज़ादी की लडाई के दौर में मिशन मानी जाने वाली पत्रकारिता ने अब प्रोफ़ेशन का रुप ले लिया है । अब तो इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया उद्योग में तब्दील होने लगा है । समाचार पत्र छापने वाले प्रतिष्ठान कंपनी कहलाने लगे हैं । लेकिन बडी हैरत की बात है कि सरकारी छूट का लाभ उठाने वाले इन संस्थानों में पत्रकारों के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं । सरकारी नियम कायदों और श्रम कानूनों की धज्जियां उडाते हुए समाचार पत्र और चैनल लगातार फ़ल फ़ूल रहे हैं । पत्रकारों के नाम पर मिलने वाले फ़ायदों की बंदर बांट भी मालिकों में ही हुई है ।

ये और बात है कि समय के साथ परिपक्वता बढने की बजाय दिनों दिन यह पेशा बचकानापन अख्तियार करता जा रहा है । मालिक के चाटुकार पहले भी मौज उडाते थे और आज भी मलाई सूंत रहे हैं । लेकिन मूल्यों की वकालत करने वालों के लिए ना पहले जगह थी ,ना ही अब है ।
अखबार बाज़ार का हिस्सा बन चुके हैं । खबरों और आलेखॊं की शक्ल में तरह - तरह के प्राडक्ट के विज्ञापन दिखाई देते हैं । समझना मुश्किल है कि क्या समाचार है और क्या इश्तेहार ? सरकारी अंकुश को अपनी जेब में रखकर अखबार मालिक , पाठक और पत्रकार दोनों के ही शोषण पर आमादा हैं ।

पाठक को बेवजह वह सब पढने पर मजबूर किया जा रहा है , जिसमें उसकी कतई रुचि नहीं । लेकिन विज्ञापन दाताओं का बाज़ार बढाने के लिए ऎसी ही बेहूदा खबरें बनाई और बेची जा रही हैं । मुझे तो
कई बार लगता है कि दिन की शुरुआत में ही हम हर रोज़ ढाई से तीन रुपए की ठगी के शिकार हो जाते हैं । हम तो न्यूज़ पेपर लेते हैं खबरों के लिए , लेकिन वहां समाचार तो छोडिए कोई विचार भी नहीं होते । वहां तो होता है व्यापार .... या कोरी बकवास....... ।

कायदे से तो इन अखबार वालों से पाठकों को मासिक तौर पर नियमित पारिश्रमिक का भुगतान मिलना चाहिए । गहराई में जाएं , तो पाएंगे कि पाठक भी इस व्यवसाय का बराबर का भागीदार है । मेरी निगाह में सर्कुलेशन के आधार पर होने वाली विज्ञापन की आय का लाभांश का हकदार पाठक ही है । पाठकों को संस्थानों पर मुफ़्त में अखबार देने के लिए दबाव बनाना चाहिए या अपने शोषण के खिलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए अखबारों का बहिष्कार करना चाहिए ,ताकि समाचारों के नाम पर छपने वाले कचरे से निजात मिल सके ।

यह गुलो बुलबुल का अफ़साना कहाँ
यह हसीं ख्वाबों की नक्काशी नहीं
है अमानत कौम की मेरी कलम
मेरा फ़न लफ़्ज़ों की अय्याशी नहीं ।

रविवार, 21 सितंबर 2008

बाज़ार का गणित



तेज़ी से सफ़लता की पायदान लांघने का दावा करने वाला भोपाल का एक अखबार यूं तो हमेशा ही चर्चा में बना रहता है ,लेकिन इन दिनों एक खास तरह की खबर के लिए बहस का सबब बना हुआ है । भारतीय परंपराओं और शास्त्रों की नई व्याख्या के ज़रिए लोगों को बाज़ार की राह पकडने के लिए उकसाने के लिए अखबार ने पत्रकारिता के सभी मानदंडों को ताक पर
रख
दिया । उपभोक्तावाद
की तेज़ी से फ़ैलती पश्चिमी जीवन शैली को भारतीय जामा पहनाने के लिए अखबार ने पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांतों का भी जमकर मखौल उडाया है । देश में अखबार , रेडियो और विद्वानों के मत पर आज भी लोगों का पूरा भरोसा है । ऎसे लोगों की देश में कोई कमी नहीं है ,जो अखबार और ज्योतिष विद्वानों की कही बातों को ब्रह्म वाक्य से कम नहीं मानते हैं ।

कुछ दशक पहले तक बच्चे साइंस की किताब में पढते थे कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है लेकिन बदले दौर में ये जुमला उलट गया है । बाज़ार सामान से अटा पडा है और संचार माध्यमों ने उपभोक्ताओं को बाज़ार की ओर ठेलने का ज़िम्मा सम्हाल लिया है । सामाजिक सरोकारों से दूर हो चुकी पत्रकारिता बाज़ार के हाथॊ का खिलौना बन कर रह गई है । बाज़ार का अर्थशास्त्र लोगों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी के हर फ़ैसले में घुसपैठ कर चुका है ।

खैर , बात हो रही थी भरोसे की । तो आज सामाजिक सरोकारों से जुडी एक संस्था " दृष्टि " ने भोपाल में विचार गोष्ठी का आयोजन किया जिसके केन्द्र में था वो खबरनुमा इश्तेहार जो श्राद्ध
पक्ष में खरीददारी को शास्त्र सम्मत बताते हुए १६ दिनों में हर रोज़ अलग -अलग सामान खरीदने के शुभ मुहूर्त की जानकारी से भरा था ।


मज़े की बात ये है कि समाचार में जिन ज्योतिषाचार्य का हवाला दिया गया था वो ही कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे और जो खुलासा उन्होंने किया वह काफ़ी चौंकाने वाला था । उन्होंने दावा किया कि अखबार में उनके हवाले से छापी गई जानकारी का कोई आधार ही नहीं है ,क्योंकि समाचार पत्र ने इस बारे में उनसे कोई बात ही नहीं की । उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि वे पितृ पक्ष में खरीददारी के हिमायती कतई नहीं है ।

सवाल ये है कि समाचार पत्र अपनी ज़िम्मेदारी ठीक से नहीं निभा रहा वहां तक तो फ़िर भी माना जा सकता है कि व्यावसायिक मजबूरियां कई बार ऎसा करा देती हैं । पितृ पक्ष की परंपराओं को उचित ठहराना या उनको व्यवहार में लाना एक अलग बहस का मुद्दा हो सकता है , लेकिन किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के नाम का इस्तेमाल कर समाज में भ्रामक प्रचार करना कहां तक जायज़ है ? चिंता इस बात की भी है कि बाज़ार का गुणा - भाग कहीं लोगों की ज़िंदगी का गणित ना बिगाड दे ...।