शनिवार, 28 नवंबर 2009

अगले जनम नेता का रिश्तेदार ही कीजो........


मध्य प्रदेश में नगरीय निकायों के चुनाव में उम्मीदवारी तय करने में बीजेपी और काँग्रेस ने लोकतंत्र के सभी उसूलों को ताक पर धर दिया है । दोनों ही पार्टियों ने उम्मीदवारों की काबीलियत से ज़्यादा उसकी हैसियत को तरजीह दी है । प्रमुख दलों की "नूरा कुश्ती" ने महापौर,स्थानीय निकाय के अध्यक्षों और पार्षदों की तकदीर का फ़ैसला टिकट देते वक्त ही कर दिया है । आपसी तालमेल और सामंजस्य का इससे बेहतर उदाहरण क्या होगा कि सत्ताधारी दल के कई उम्मीदवारों के खिलाफ़ गुमनाम और अनजान चेहरे चुनावी मैदान में उतारे गये हैं । आम मतदाता दलों की चालबाज़ियों को बखूबी जान-समझ रहा है , लेकिन लोकतंत्र के नाम पर ठगे जाने को अपनी नियति मान कर हताश और निराश है | लोकतंत्र के नाम पर खुले आम चल रहे "लूटतंत्र" को रोकने में नाकाम लोग खुद को बेबस पा रहे हैं ।

नगरीय निकायों के चुनाव को लेकर भाजपा ने इस बार नेताओं के रिश्तेदारों की बजाय कार्यकर्ताओं को उम्मीदवार बनाने का ऐलान किया था।भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने एक बार फिर तय किए गए सारे मापदंडों की धज्जियाँ उड़ा दी हैं । पार्टी के तमाम नेताओं की घोषणा के बावजूद महापौर पद के 13 में से चार उम्मीदवार ऐसे हैं जो सीधे तौर पर नेताओं के रिश्तेदार हैं। ये चारों ही महिला उम्मीदवार हैं। पार्टी की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज ने भी सूबे में घूम-घूम कर महिला कार्यकर्ता सम्मेलनों में ऎलान किया था कि टिकट पाने के लिये कार्यकर्ताओं की सक्रियता ही एकमात्र पैमाना होगी ना कि किसी की रिश्तेदारी । लेकिन टिकट बँटवारे की फ़ेहरिस्त का खुलासा होने के बाद पार्टी का आम और सक्रिय कार्यकर्ता गुस्से से उबल रहा है । हर बार नेताओं के चहेतों,चमचों और रिश्तेदारों की उम्मीदवारी तय होती देख कार्यकर्ता समझ ही नहीं पा रहा कि पार्टी में उसका भविष्य क्या होगा ?

प्रदेश में नगरीय निकाय का पहला ऐसा चुनाव है जिसमें 50 प्रतिशत पद महिलाओं के लिए आरक्षित है। भाजपा ने नगरीय प्रशासन मंत्री बाबूलाल गौर की पुत्रवधू कृष्णा गौर को भोपाल से महापौर पद का उम्मीदवार बनाया है । कृष्णा पिछड़े वर्ग से आती हैं,जबकि ये सीट सामान्य वर्ग की महिला के लिये है। सामान्य वर्ग के उम्मीदवार के रूप में भाजपा महिला मोर्चा की प्रदेश अध्यक्ष सीमा सिंह, महिला समाज कल्याण बोर्ड की अध्यक्ष उषा चतुर्वेदी के अलावा सरिता देशपांडे जैसे तगड़े दावेदारों को दरकिनार कर कृष्णा गौर को टिकट दिया गया है । बीजेपी उम्मीदवार की पहचान यह है कि वे बाबूलाल गौर के बेटे की विधवा हैं । जब गौर "खड़ाऊ मुख्यमंत्री" बने थे,तभी उनके इकलौते पुत्र की मौत हो गई । पुत्रवधू को वैधव्य के दुख से बाहर लाने के लिये गौर ने कृष्णा गौर को आनन-फ़ानन में मप्र पर्यटन विकास निगम के अध्यक्ष पद का झुनझुना थमा दिया । हालाँकि तगड़े विरोध के कारण गौर को अपने कदम पीछे लेना पड़े और मुख्यमंत्री की कुर्सी भी गँवाना पड़ी । भोपाल की फ़िज़ा में ससुर-बहू की इस अलबेली जोड़ी के कई किस्से कहे-सुने जाते हैं । बहू को गद्दीनशीन देखने के ख्वाहिशमंद गौर ने भोपाल के उपनगर कोलार में नगरपालिका बना डाली,लेकिन दाँव उल्टा पड़ गया और ख्वाब की तामीर नहीं हो सकी ।

पटवा-सारंग गुट के इस खास सिपहसालार ने इस बार पार्टी ही नहीं विरोधी खेमे को भी बखूबी साध लिया है । तभी तो काँग्रेस ने कई मज़बूत महिला नेताओं की दावेदारी को खारिज करते हुए आभा सिंह जैसे अनजान चेहरे पर दाँव लगाया है । मतदाता खुद को ठगा महसूस कर रहा है और जानकार इसे मतदान से पहले ही बीजेपी के लिये जीत का जश्न मनाने का मौका बता रहे हैं । बीजेपी ने आदिम जाति कल्याण मंत्री विजय शाह की पत्नी भावना शाह को खण्डवा,वरिष्ठ नेता नरेश गुप्ता की पुत्रवधू समीक्षा गुप्ता को ग्वालियर और वर्तमान महापौर अतुल पटेल की पत्नी माधुरी पटेल को बुरहानपुर से महापौर पद का उम्मीदवार बनाया है। महापौर पद के लिए घोषित किए गए 13 में से अधिकांश उन्हीं लोगों को उम्मीदवार बनाया गया है जिनके परिवार का कोई सदस्य पहले से ही पार्टी में सक्रिय है। इस मसले पर भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष विजेंद्र सिंह सिसौदिया की कैफ़ियत है कि रिश्तेदारों को टिकट नहीं देने का आशय यह था कि जो राजनीति में सक्रिय नहीं है उन्हें उम्मीदवार नहीं बनाया जाएगा। उन्होंने स्पष्ट किया कि जिन्हें महापौर का उम्मीदवार बनाया गया है वे भले ही किसी के रिश्तेदार हों मगर पार्टी में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। उनकी उम्मीदवारी का आधार सक्रियता है।

नेताओं ने टिकट बँटवारे में नैतिकता के सभी मूल्यों को बड़ी ही बेहयाई से दरकिनार कर दिया है । मौजूदा राजनीति में व्यक्तित्व और कार्यकुशलता गौण और रिश्ते हावी होते जा रहे हैं । प्रमुख दलों में चहेतों को रेवड़ी बाँटने की परंपरा सी बन गई है । आपसदारी की राजनीति ने लोकतंत्र की जड़ों को खोखला कर दिया है । प्रभावी व्यक्तित्व और विकास के खुले नज़रिये के बगैर क्या ये सिफ़ारिशी चेहरे शहरों की कायापलट कर सकेंगे ? क्या रिश्तेदारों के कँधों पर सवार होकर "लोकतंत्र की पाठशाला" में दाखिल होने वाले लोग बीमार स्थानीय निकायों को भ्रष्टाचार और अव्यवस्थाओं के दलदल से निजात दिला सकेंगे ? या फ़िर ये नाकाबिल नुमाइंदे जनादेश के बहाने अपने आकाओं की मेहरबानी का सिला देने के लिये महज़ "कठपुतली" बन कर रह जाएँगे । अगर यही हाल रहा तो आने वाले वक्त में सियासी कार्यकर्ता ऊपर वाले से यही दुआ माँगते सुनाई देंगे - " जो अब किये हो दाता ऎसा ना कीजो , अगले जनम मोहे नेता का रिश्तेदार ही कीजो ........!"

बुधवार, 11 नवंबर 2009

गैस पीड़ितों की कब्रगाह पर खिलेगा चमन

मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में 25 साल पहले हुए दुनिया के सबसे बड़े औद्योगिक हादसे को लोग अभी तक नहीं भूल पाए हैं लेकिन गैस त्रासदी पर राजनीति का रंग कुछ इस कदर चढ़ चुका है कि अब प्रभावितों की ज़िन्दगी की दुश्वारियों का चर्चा भी नहीं होता । प्रदेश सरकार केन्द्र और केन्द्र सरकार राज्य के पाले में गेंद डालकर अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेने की कवायद में जुटे रहते हैं । तीन दिसम्बर को भोपाल में सरकारी और गैर सरकारी तौर पर साल दर साल बड़े-बड़े आयोजन होते हैं । बहुराष्ट्रीय कंपनियों और सरकार की नाइंसाफ़ी को जी भर कर लानतें भेजी जाती हैं । गैस कांड की बरसी पर यूनियन कार्बाइड , वॉरेन एंडरसन और अब डाउ केमिकल को जी भरकर कोसने का दस्तूर सा बन गया है । आगामी 3 दिसंबर को भोपाल गैस त्रासदी को 25 साल पूरे हो जाएंगे। गैस पीड़ितों के बीच काम करने वाले संगठन और राज्य सरकार दुर्घटना की पच्चीसवीं बरसी बड़े पैमाने पर मनाने की तैयारी में जुट गये हैं । बरसों से वीरान पड़े कारखाने में चहल-पहल बढ़ाने के लिये राज्य सरकार ने इसे बीस नवम्बर से आम जनता के लिये खोलने का अजीबो गरीब फ़ैसला लिया है । त्रासदी के 25 साल पूरे होने के मौके पर यूनियन कार्बाइड कारखाने को आम लोगों के लिए खोला जा रहा है।

हैरत की बात है कि पिछले महीने ही केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश के कारखाने में ज़हरीले रसायन मौजूद होने की बात को सिरे से खारिज करने वाले बयान पर गैस राहत मंत्री बाबूलाल गौर ने कड़ी आपत्ति दर्ज़ कराई थी , लेकिन अब गौर का कहना है कि कारखाने को आम लोगों के लिए खोलने के पीछे मकसद यह है कि लोग जान सकें कि कारखाने में खतरनाक रासायनिक कचरा नहीं है। उन्होंने स्पष्ट किया कि विभिन्न वैज्ञानिक संगठन कचरे का परीक्षण कर स्पष्ट कर चुके हैं कि कारखाने में मौजूद अपशिष्ट खतरनाक नहीं है। इतना ही नहीं कारखाने परिसर में लगे वृक्ष और घास-फूस भी अपशिष्ट के खतरनाक नहीं होने की पुष्टि करते हैं। गैस राहत मंत्री का कहना है कि अब आम लोग उस यूनियन कार्बाइड कारखाने को करीब से देख सकेंगे, जिससे हुए गैस रिसाव से हज़ारों लोग मारे गए थे। यह कारखाना कैसा है ? हादसे के वक्त कहां से गैस रिसी थी ? मौत का वह कुआं कौन सा है,जिसमें से कई शव निकाले गए थे । इसे आम लोगों ने अब तक देखा नहीं है।

जानकार राज्य सरकार के फ़ैसले और बदले पैंतरे पर हैरानी जता रहे हैं । गैस पीड़ितों के हक की लड़ाई लड़ रहे,भोपाल गैस पीडित महिला उद्योग संगठन के संयोजक अब्दुल जब्बार इसे मूल मुद्दों से ध्यान हटाने की कवायद बताते हैं । उनका कहना है कि इंसाफ़ की आस लगाये गैस पीड़ित एक-एक कर दुनिया से कूच करते जा रहे हैं । इनके इलाज के कोई कारगर इंतज़ाम नहीं हैं । उखड़ती साँसों, छलनी हो चुके सीनों और कमज़ोर हो चुके जिस्मों के सहारे मौत से बदतर ज़िदगी गुज़ार रहे पीड़ितों के रोज़गार और पुनर्वास की ओर अब तक किसी का ध्यान ही नहीं गया है । वे कहते हैं कि हादसे के शिकार ज़्यादातर लोग ग़रीब तबके के हैं । लिहाज़ा उनकी किसी भी स्तर पर कोई सुनवाई नहीं हो रही है ।

कारखाना खोलने का कदम राज्य सरकार की नीयत पर सवाल खड़े करता है । यदि कचरा ज़हरीला नहीं है, तो अपनी ही पार्टी के एक वरिष्ठ नेता के रिश्तेदार की कंपनी को कचरा हटाने का ठेका क्यों दिया गया ? यदि रासायनिक कचरा नुकसानदेह नहीं है ,तो फ़िर धार की अदालत ने पीथमपुर में कचरा खुले में फ़ेंकने और नदी के पानी को प्रदूषित करने के मामले में इस कंपनी को दोषी करार क्यों दिया ? अगर वास्तव में कचरा इलाके के लोगों की सेहत के लिये खतरनाक नहीं है, तो एक महीने पहले गौर साहब ने जयराम रमेश के इसी तरह के बयान का विरोध क्यों किया ? और इसे हटाने के लिये अभी एक करोड़ रुपए और खर्च करने की आखिर क्या ज़रुरत है ?

सरकार भोपाल गैस पीडितों के साथ भद्दा मजाक करती दिख रही है। पीडितों को मुआवजे और पुनर्वास कार्यक्रम के तहत राहत देना हो, सम्बन्धित कंपनी और दोषी अघिकारियों पर कार्रवाई हो या फिर यूनियन कार्बाइड को डंप करने की बात हो, सभी में सरकार ने अब तक के क्रियान्वयन में केवल आंकड़ों की बाजीगरी ही दिखाई है। जमीनी स्तर पर सच्चाई इसके विपरीत है। पुनर्वास कार्यक्रम के नाम पर ऊंट के मुंह में जीरा वाली कहावत चरितार्थ होती दिख रही है। कुछ मकान बनाकर वितरित किए गए जो आवश्यकता से काफी कम है। स्वच्छ जल आपूर्ति की व्यवस्था नहीं हो सकी है। सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार से इस कार्यक्रम को नुकसान ही हुआ है। गैस कांड के पीड़ित विभिन्न गंभीर बीमारियों से जूझ रहे हैं। कोई कैंसर से तो कोई अपंगता से। इनके इलाज के लिए जो चिकित्सकीय सुविधाएं और चिकित्सक उपलब्ध कराए गए हैं वे भी नाकाफी हैं। पर्याप्त उपकरण तक नहीं हैं, जिससे मरीजों का ठीक से चेकअप हो सके। अस्पतालों में अव्यवस्थाएं हैं। विधवा पेंशन मे भी गड़बडियां हैं।

हादसे के प्रति सरकारों की गंभीरता का अंदाज़ा लगाने के लिये ये जान लेना ही काफ़ी होगा कि सड़क और रेल हादसों , प्राकृतिक आपदाओं में मरने वालों और ज़ख्मी होने वालों को लाखों रुपए का मुआवज़ा दिया जाता है लेकिन गैस हादसे के पीड़ितों के लिये ना तो केन्द्र और ना ही राज्य सरकार ने आज तक एक धेला खर्च किया है । बल्कि हो यह रहा है कि यूनियन कार्बाइड से समझौते के तहत मिले पैसे से सरकारें अपने खर्च निकालती रही हैं ।

इतनी बड़ी त्रासदी पर सरकार का जो रूख है वह सरकारी असंवेदनशीलता और उदासीनता को दर्शाता है। ऎसा शर्मनाक उदाहरण शायद ही कहीं और देखने को मिले। मंत्री की घोषणा के अनुसार पीड़ितों के लिए स्मारक बनाया जा रहा है, जिस पर 110 करोड़ रूपए की राशि खर्च की जा रही है। यह राशि जरूरत से कहीं ज्यादा है। इसके बजाय पीड़ितों को राहत के लिए जो योजनाएं बनी हैं उनका क्रियान्वयन हो, इसके लिए पर्याप्त बजट दिया जाए। बेगैरत हो चुके राजनेताओं के बयान गैस पीड़ितों के ज़ख्मों पर मरहम की बजाय तेज़ाब छिड़कने का काम करते हैं । पीड़ित कहते हैं कि गैस पीड़ितों का दर्द राजनेताओं को आखिर यह समझ में क्यों नहीं आता कि हमारी लड़ाई एक ऎसी अमेरिकन कंपनी के खिलाफ है , जिसने लाखों लोगों को तबाह कर दिया। उनका यह कहना कि मलबा जहरीला नहीं है, बहुत शर्मनाक है। न्याय देने के बजाय समय-समय पर नेताओं के इस तरह के बयानों से हम गैस पीडितों को ठेस पहुंचती है। सरकार संवेदनशील और सकारात्मक रवैया अपनाते हुए हमारे साथ न्याय करे, न कि हमारा मजाक बनाए।

शनिवार, 7 नवंबर 2009

"चीं" बोल चुकी बीजेपी का ई-आंदोलन

चुनावों में "चीं" बोलने वाला दल ई-आंदोलन की तैयारी में जुट गया है । इंटरनेट की बदौलत संसद में बहुमत पा जाने का सपना चकनाचूर होने के बाद भी लगता है बीजेपी की अकल पर पड़े ताले की चाबी कहीं खो गई है । संसदीय चुनाव के बाद हुए तीन राज्यों में भी मुँह की खाने के बावजूद पार्टी के होश ठिकाने पर नहीं आ सके हैं । तभी तो केंद्रीय सरकार की नीतियों के खिलाफ भाजपा की आईटी सेल ई-आंदोलन की तैयारी कर रही है। आई-टी सेल के प्रदेश महामंत्री सचिन खरे ने बताया कि 9 नवंबर से मध्यप्रदेश के सभी जिलों में सेल के सदस्य आंदोलन में भाग लेंगे। आंदोलन के दौरान केंद्र सरकार की सभी ई-मेल, वेबसाइट, इंटरनेट, सोशल साइट, फेस बुक, ऑरकुट, ट्विटर और ब्लॉग पर जनजागरूकता अभियान चलाया जाएगा। उन्होंने बताया कि इसके बाद भी यदि नीतियों को लेकर केंद्र सरकार नहीं जागी तो नेताओं के मोबाइल पर असीमित एसएमएस भेजे जाएंगे। आंदोलन में करीब दस हजार सदस्य भाग लेंगे।


इधर अपनी ही पीठ थपथपाने में माहिर प्रदेश के भाजपा नेता ना जाने किस खुशफ़हमी में जी रहे हैं । प्रदेश में ना बिजली है और ना ही पानी । गड्ढ़ों में सड़कों के अवशेष तलाश करना भूसे के ढ़ेर में सुई ढ़ूँढ़्ने से भी ज़्यादा दुरुह काम हो चुका है । सूबे के मुखिया का घोषणाएँ करने का विश्व रिकॉर्ड बनाकर नाम गिनीज़ बुक में दर्ज़ कराने पर आमादा हैं और फ़िर भी प्रदेश में अमन - चैन है । शिवराज भरी सभा में मान चुके हैं कि पूरे सूबे पर तरह-तरह के माफ़ियाओं ने कब्ज़ा कर लिया है । मगर फ़िर भी बीजेपी के नेता मानते हैं कि प्रदेश में रामराज्य की कल्पना को शिवराज ने पूरी तरह साकार कर दिखाया है ।

वन विभाग के नये मंत्री सरताजसिंह ने आते ही महकमे में चल रही पोलपट्टियाँ खोलकर रख दी हैं । गृहमंत्री खुद मान चुके हैं कि प्रदेश में कानून-व्यवस्था बुरी तरह चरमरा रही है । मगर छह साल से शासन कर रहे दल के इन मंत्री महोदय की महानता तो देखिये वे इसका पूरा श्रेय अब भी काँग्रेस को देना नहीं भूलते । हाल ही में भाजपा प्रदेश कार्यसमिति की दो-दिवसीय बैठक बालाघाट में हुई। इसमें सभी नेताओं ने घोषणावीर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की शान में कसीदे पढ़े । वृंदावली गाने वालों ने प्रदेश में दूसरी बार सरकार बननेका श्रेय एक सुर से चौहान को ही दे डाला । आखिर अभी दो मंत्री पद खाली हैं और निगम-मंडलों में अध्यक्षों की नियुक्तियाँ भी होना हैं ।

प्रवचन की शैली में जनता को अपने कर्तव्यों का पाठ पढ़ाने वाले शिवराज मलाई अपने ईष्ट मित्रों के साथ सूँतना चाहते हैं और काम का बोझ जनता के कँधे पर डाल देना चाहते हैं । अफ़सर भी इस चालाकी को अच्छी तरह भाँप चुके हैं, तभी तो वे पीपीपी(पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) के नाम पर ऎसी स्कीम बना कर लाते हैं जो नेता का भला तो करें ही, वे भी बहती गंगा में ना सिर्फ़ हाथ धो सकें , बल्कि अच्छी तरह मल-मल कर नहा-धो सकें ।

प्रदेश में मंत्रिमंडल का विस्तार बताता है कि केन्द्रीय नेतृत्व ने शिवराज को समझा दिया है कि बात की कीमत जाये चूल्हे में, दागी का मसला गया तेल लेने, खिसकते जनाधार को देखते हुए माल अँटी में करो और बढ़ लो , लिहाज़ा हम सब एक हैं की शैली ने सभी विरोधों को भुला कर हर गुट को बराबर मौका दिया है । इसीलिये भूमाफ़ियाओं को जेल की सलाखों के पीछे भेजने का एलान करने वाले मुख्यमंत्री ने झुग्गियों और मंदिरों के ज़रिये बेशकीमती ज़मीने कबाडने वालों को ऎलानिया संरक्षण दे रहे नेता को गृह मंत्री का ताज पहना दिया । सरकारी ज़मीनॊम की उद्योगपतियों और नेताओं की मिली भगत से लूट खसोट जारी है , मगर जनता चुप है । मेहमूद गज़नवी को पानी पी-पी कर कोसने वाले लोगों ज़रा इन गज़नवियों की फ़ौज पर भी नज़रे इनायत करें और बतायें कि साधु के भेष में दाखिल हुए इन लुटेरों से कैसे निजात पायें ?

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

बेमानी हैं पीटी ऊषा के आँसू

भोपाल में उड़नपरी के चार आँसू क्या ढ़लके,मीडिया ने पूरा जहान सिर पर उठा लिया । पीटी ऊषा को भोपाल आने का न्यौता आखिर किसने दिया था ? किसने भेजे थे पीले चावल ? क्यों कि राज्य सरकार का तो साफ़ कहना है कि उन्हें ऊषा के आने की कोई जानकारी ही नहीं थी । राज्य सरकार का दावा है कि अगर पीटी ऊषा उन्हें इत्तला देती,तो राज्य अतिथि का दर्ज़ा पाने की हकदार हो सकती थीं । उधर साई भी अपना दामन बचा रहा है । केन्द्रीय खेल मंत्री गिल साहब भी साई के अधिकारियों को क्लीन चिट दे चुके हैं । कुल मिलाकर समझने वाली बात सिर्फ़ इतनी ही है कि दोष ना सरकार का है और ना ही अधिकारियों का । गल्ती है तो केवल ऊषा की,जो बिना कुछ सोचे-समझे मुँह उठाए चली आईं । आने से पहले कम से कम राजनीतिक हालात की बारीकी से पड़ताल तो कर ली होती ।

केन्द्र में काँग्रेस और प्रदेश में बीजेपी,ऎसे में ये फ़जीहत होना तय ही था । यूँ भी कौन से तीर मार दिये हैं इस फ़र्राटा गर्ल ने । खुद से पूछ कर तो देखें । भोपाल में आवभगत कराने के लिये जितने भी गुणों की ज़रुरत है क्या उनमें से एक भी ऊषा के पास है । क्या वे प्रदेश सरकार को अपनी मुट्ठी में रखने वाले प्रकाश झा की किसी फ़िल्म की हिरोइन हैं । मैदान में पसीना बहा-बहा कर क्या सूरत बना ली है । वे कोई कैटारीना,करीना या ऎश्वर्या तो हैं नहीं कि नेता और अफ़सर स्वागत में पलक पावड़े बिछा देंगे । फ़िर उनका रौब-रुतबा अबू सलेम सरीखा भी नहीं । अबू सलेम ने फ़र्ज़ी पासपोर्ट बनवाकर जो झंडे गाड़े , उसी का नतीजा है कि चार एक की सुरक्षा टुकड़ी के साथ आए दिन भोपाल पधारते हैं । रेलवे स्टॆशन पर अगवानी के लिये पुलिस का पुख्ता इंतज़ाम होता है । सेवा में गाड़ियों का काफ़िला हाज़िर रहता है । कई पुलिसिये तो अबु साहब को गुलदस्ते भी भॆंट कर देते हैं,निगाहों में बने रहने के लिये । क्या पता कल अबु साहब संसद के गलियारों की शॊभा बढ़ाने लगें । ऎसे में आज के संबंध ही तो काम आयेंगे ।

ऊषा को बुरा मानने का कोई हक नहीं जाता,क्योंकि पदकों के नाम पर चंद धातु के टुकड़े जमा करके उन्होंने देश पर कोई एहसान नहीं किया है । आसाराम जैसे गुण भी तो नहीं हैं उनके पास । जो भक्तों को सब कुछ त्याग देने की सलाह देकर अपना खज़ाना भर ले । वो बाबा रामदेव भी नहीं । योग से रोग भगाने का नुस्खा देते देते खुद ही भोगी बन बैठे और अब स्कॉटलैंड में एक टापू की मिल्कियत के मालिक बन गये हैं । लोगों के मन से शनि महाराज का खौफ़ दूर भगाने के एवज़ में अकूत दौलत हासिल करने वाले दाती मदन महाराज राजस्थानी से भी तो पीटी ऊषा ने कोई सबक नहीं लिया ।

ईमानदारी से देश सेवा का जुनून पालने वालों का इस देश में यही हश्र होना है । इसलिये किसी को भी उनके अपमान का दोषी करार देना कतई ठीक नहीं है । अगर मान-सम्मान,खातिर-तवज्जो चाहिये तो वैसे गुण भी पैदा करो । देश को लूटो-खसोटो सरकारी खज़ाने को बपौती समझो । फ़िर देखो दुनिया कैसे कदमों में बिछती है ।

कलयुग में सज्जनों की नहीं दुर्जनों-दुष्टों की पूछ परख है । सच भी है भय बिन होत ना प्रीति । लिहाज़ा पीटी ऊषा और उनके जैसे लोगों को इस कड़वी सच्चाई को मान ही लेना चाहिये कि उन्होंने ऎसा कोई काम देश के लिये नहीं किया है जिस पर नाज़ किया जा सके । सरकार और समाज की नज़रों में ऊँचा उठने के लिये खुद को गर्त में ढ़केलना वक्त की माँग है,जो ऎसा करने का जज़्बा और हिम्मत दिखायेगा देश का हर तबका उसको ही शीश नवायेगा । इस सबके बावजूद एक सच ये भी है कि स्वाभिमान की रक्षा करने वालों का कभी अपमान हो ही नहीं सकता ।

रविवार, 20 सितंबर 2009

जैसे कलावती के दिन फ़िरे...............

विदर्भ की कलावती के दिन जल्दी ही फ़िरने वाले हैं । इस बात का एहसास तो उसी दिन हो गया था , जब सत्यनारायण के कलयुगी अवतार यानी राहुल बाबा ने गरीब महिला के द्वार पर दस्तक दी थी । सुना है भगवान कोई भी रुप धर कर आ सकते हैं । कथा पुराण और पुजारियों से सुना है कि भक्तवत्सल नारायण हरि रुखी-सूखी खाकर धन-धान्य के भंडार भरने का आशीर्वाद दे जाते हैं । हमने लीलावती-कलावती की सत्यनारायण व्रत कथा भी हज़ारों मर्तबा सुनी है । कथा में भी सत्यनारायण की महिमा बखानने के लिये लीलावती-कलावती की दुर्दशा के वृतांत का सहारा लिया गया है ।

दैवीय दंड से दुखी भक्त आर्तभाव से भगवान को पुकारता है । धूमधाम से उद्यापन का आश्वासन पाते ही दोनों हाथों से वरदान लुटाकर सत्यनारायणदेव अंतर्ध्यान हो जाते हैं । सांसारिक चक्करों में उलझे भक्त भगवान को भुला बैठते हैं और नाव में भरा अनमोल खज़ाना लता-पत्र में तब्दील हो जाता है । एक बार फ़िर भक्त की पुकार पर दयानिधान प्रकट होते हैं और भक्त को उसकी गलती का एहसास कराने के लिये उठाये गये कड़े कदम वापस ले लेते हैं । इस तरह भगवान की महिमा बनी रहती है और भक्त भी कभी ना खत्म होने वाली इच्छाओं का पिटारा खोले ही रहता है । यानी "इस हाथ ले उस हाथ दे" का सिलसिला अनवरत चलता रहता है ।

विदर्भ की कलावती के घर राहुल का पदार्पण शबरी के घर करुणानिधान भगवान के आगमन से कम नहीं । तभी तो कल तक गुमनामी की ज़िन्दगी जी रही कलावती का ज़िक्र संसद में गूँजा । कलावती और उस जैसे करोड़ों लोगों को बेहतर ज़िन्दगी का भरोसा दिलाकर राहुल ने राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मीडिया की खूब वाहवाही बटोरी ।

जनतंत्र में राजतंत्र तलाशने के आदी लोगों के कलेजे को भी ठंडक मिल गई कि सोनिया के बाद काँग्रेस लावारिस नहीं रहेगी । राजकुमार ने गद्दी सम्हालने के गुर सीखना शुरु कर दिया है। गरीबी,भुखमरी और बेरोज़गारी की लाइलाज बीमारी ने देश की राजनीति में काँग्रेस को एक बार फ़िर जीवनदान दे दिया । सत्ता में कद बढ़ने के साथ ही अब लोग राहुल में भावी प्रधानमंत्री तलाशने लगे हैं ।

लगता है सतयुग की सत्यनारायण कथा ने मौजूदा दौर में नया ट्विस्ट ले लिया है । अब विदर्भ की कलावती श्रीहरि के किरदार में है और काँग्रेस लीलावती-कलावती , जो दरिद्रनारायण को प्रसन्न करने के लिये हर चुनाव से पहले बड़े-बड़े वादे करती है । जीत मिलने के बाद अपने वादों को भूल जाती है , बिल्कुल सत्यनारायण व्रतकथा की ही तरह । इस रोज़-रोज़ की खींचतान से आज़िज़ आकर लगता है अब की बार नारायण ने खुद ही मोर्चा सम्हालने की ठानी है ।

कलावती किसानों के लिये काम करने वाले संगठन विदर्भ जनआंदोलन समिति के टिकट पर यवतमाल के वणी से विधान सभा चुनाव लड़ेगी । वैसे भारतीय राजनीति का अब तक इतिहास गवाह है कि जिसने भी संसद,विधानसभा,नगर निगम चुनाव तो क्या ग्राम पंचायत का चुनाव भी जीता है उसका लखपति-करोड़पति होना तय है, फ़िर चाहे वो किसी भी तबके से क्यों ना आता हो । इस तरह राहुल बाबा के चरणरज ने कलावती के दिन फ़ेर ही दिये। हम तो यही कहेंगे कि जैसे भगवान कलावती पर प्रसन्न हुए ऎसे हर पाँच साल में हर गरीब पर अपनी कृपादृष्टि बरसायें,ताकि आने वाले सालों में देश की गरीबी समूल मिट जाए ।

शनिवार, 19 सितंबर 2009

पितरों के "मोक्ष" में निवालों की तलाश

सर्वपितृ मोक्ष अमावस्या के साथ ही पितरों को याद करने के पर्व का समापन हो गया । धार्मिक ग्रंथों में पितृ पक्ष को लेकर कई आख्यान हैं,जिनमें कहा गया है कि इन सोलह दिनों में पितरों का द्वार खुला रहता है या यूं कहें कि पितर बंधनों से मुक्त होकर पृथ्वी लोक में स्वजनों के पास आते हैं । पूर्णिमा से अमावस्या तक पितर स्वजनों के आसपास सूक्ष्म रूप से विद्यमान रहते हैं । शास्त्रों में पितृ तर्पण की तमाम विधियाँ भी बताई गई हैं । भौतिकवादी समाज में बाज़ारवाद का बोलबाला है । घर - परिवार में बिखराव का दौर जारी है । बूढ़े माँ बाप अपने ही बच्चों की दरिंदगी का शिकार हो रहे हैं । हैरानी की बात है कि जिस देश में मृत आत्माओं को तृप्त करने की परंपरा हो,वहाँ बुज़ुर्गों के सिर पर छत कायम रखने के लिये सरकार को कानून बनाना पड़ा । अब तो वृद्ध आश्रम खोलने के लिये सरकारी कोशिशों के साथ ही निजी क्षेत्र भी दिलचस्पी ले रहा है ।

बाज़ार और मीडिया की कोशिश से ज्योतिष और धर्म का कारोबार भी खूब फ़लफ़ूल रहा है । तेज़ रफ़्तार ज़िन्दगी में हर छोटी-बड़ी नाकामी के लिये पितृ दोष का हाथ बताने वाले भविष्यवक्ताओं की बाढ़ आ गई है। यही वजह है कि
नासिक,गया,कुरुक्षेत्र,उज्जैन, इलाहाबाद,हरिद्वार जैसे धार्मिक स्थल पर अपने पूर्वजों को तृप्त करने आने वालों का सैलाब उमड़ने लगा है । बिहार के गया में तो इस बार ऑनलाइन यानी ई-तर्पण की सुविधा उपलब्ध कराई गई । कितनी अजीब बात है कि कई ऎसे बुज़ुर्ग जिन्हें जीते जी भरपेट भोजन भी नसीब नहीं हुआ, मगर उनके श्राद्ध में परिजन पूरी-पकवान बनाये जाते हैं,पंडों-पुजारियों को मनुहार कर खिलाने के बाद भरपूर दान-दक्षिणा भी देते है । उनकी इस कोशिश में अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का भाव नहीं,बल्कि अपने कामों में आ रही रुकावटों से पिंड छुड़ाने की जल्दी रहती है ।

सुनकर कुछ अजीब लग सकता है लेकिन एक खबर ने झकझोर कर रख दिया । गरीबी की मार झेल रहे कई लोग मृत आत्मा की शांति के लिये बनाये जाने वाले पिंडों से अपना पेट भरने को मजबूर हैं । बिहार के गया जिले में कई गरीब परिवार पितरों को अर्पित पिंड से गायों को खाने के लिए दिया जाने वाला भोजन खा कर अपनी और अपने परिवार के पेट की आग बुझा रहे हैं। भगवान विष्णु की तपोस्थली और भगवान बुद्ध की ज्ञानस्थली बिहार के गया जिले में पितृ पक्ष के दौरान मेला लगता है । पंद्रह दिन तक चलने वाले इस मेले में देश-विदेश से आए लाखों लोग अपने पितरों के मोक्ष के लिए पिंडदान, श्राद्ध और तर्पण करते हैं। पिंडदान के बाद पितरों को अर्पित पिंड का कुछ भाग गाय को खिलाया जाता है। यह पिंड जौ अथवा चावल के आटे के बने होते हैं। मोक्षस्थली गयाधाम स्थित विष्णुपद मंदिर के देवघाट पर पिंडदान करने वाले तीर्थयात्री पितरों को अर्पित पिंड गाय नहीं मिलने पर अक्सर फल्गू नदी में प्रवाहित कर देते हैं।

नदी में बहते इन पिंडों को गरीब लोग घर ले जाते हैं। धूप में सुखाने के बाद पीसकर रोटी बनाई जाती है। पिंडदान के बाद पितरों को अर्पित पिंड किसे दिया जाए , इस बारे में शास्त्रों में विधान है । जगत गुरुस्वामी राघवाचार्य के मुताबिक हेमाद्री ऋषि के ग्रंथ चतुरवर्ग चिंतमणि में वर्णित श्राद्धकल्प के एक सूत्र में ‘विप्राजगावा’ का प्रावधान है। इसमें पिंडदान, तर्पण और श्राद्ध के बाद पान के पत्ते पर पिंड रख कर बकरी को तथा पितरों को अर्पित पिंड गाय को देने की बात कही गई है । गाय नहीं मिलने की सूरत में पिंड नदी में प्रवाहित करने का उल्लेख है । पिंडदान,तर्पण और श्राद्ध के दौरान उपयोग में लाई गई अन्य वस्तुओं पर ब्राह्मण का अधिकार होता है।

देवघाट पर पितरों को अर्पित पिंड को इकट्ठा करने वाली बुज़ुर्ग महिला जगियाभूनि का कहना है कि गरीबी और भूख से विवश हो कर गाय के हिस्से के पिंड खाना पडता है। विष्णुपद मंदिर के देवघाट पर पिंड इकट्ठा करने के काम में कई परिवार सुबह से जुट जाते हैं । ये लोग बरसों से यही काम करते आ रहे हैं। उनके पिता और दादा भी पिंड एकत्र कर परिवार का भरण पोषण करते थे। इन लोगों का कहना है कि न तो उसके परिवार का नाम बीपीएल सूची में शामिल है और न ही जिला प्रशासन उन्हें सरकार द्वारा गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों दी जाने वाली सहायता देता है। गया में करीब 25 परिवार ऐसे हैं जो लंबे समय से इन पिंडों को जमा कर उनकी रोटी बनाकर अपने पेट की आग बुझाने को विवश हैं।

बुधवार, 16 सितंबर 2009

गरीब को बख्शो

आरुषि-हेमराज मामला एक बार फ़िर सुर्खियों में है । करीब अठारह महीने बाद अचानक चमत्कारिक रुप से आरुषि का मोबाइल बरामद होने से ठंडे पड़ चुके मामले ने एक बार फ़िर तूल पकड़ लिया है । लेकिन मोबाइल मिलने की टाइमिंग कई सवाल खड़े करती है । दर असल जब-जब मीडिया असली कातिल की ओर कदम बढ़ाता प्रतीत होता है , तब-तब मामले को भटकाने के लिये इस तरह की कारस्तानियाँ की जाती रही हैं । आरूषि की मौत के दिन से लेकर अब तक का घटनाक्रम खुद ही ये कहानी बयान करता है कि हत्यारा कोई आम नहीं बेहद रसूख वाला है । इतना कि ना केवल उसे तफ़्तीश से जुड़े हर पहलू की जानकारी होती है,बल्कि उसे दिशा मोड़ने का अख्तियार भी हासिल है ।

मुझे तो इस पूरे मामले में सबसे ज़्यादा दोषी मीडिया ही दिखाई देता है,जो हत्यारों को चैन की बँसुरी बजाने ही नहीं देता । अगर मीडिया ने बेवजह हो-हल्ला नहीं मचाया होता , तो नोएडा पुलिस की मदद से कब का मामला रफ़ा- दफ़ा कर दिया जाता । लेकिन इन दिलजलों को चैन कहाँ ? लाइव टेलीकास्ट के चक्कर में टिका दिये कैमरे और चना-चबैना लेकर डेरा डाल दिया जलवायु विहार के बाहर । दिन-रात की चौकसी के कारण हेमराज की लाश को ठिकाने लगाने का मौका ही नहीं मिल पाया । वरना हेमराज को आरुषि का कातिल बनाकर उसे फ़रार घोषित कर फ़ाइल के फ़ीते कस दिये जाते,लेकिन बुरा हो इन मीडियाई जोंकों का,जो पीछा ही नहीं छोड़तीं ।

वैसे इस केस के स्क्रिप्ट राइटर को तो मानना ही पड़ेगा । एक रिटायर्ड घाघ पुलिस अधिकारी ने क्या लाजवाब प्लाट तैयार किया कि मीडिया भी अब तक उसकी असलियत नहीं समझ सका । आए दिन चैनल पर आकर वह जाँच को थोड़ा और भटकाकर चला जाता है । हैरानी है कि मीडिया के धुरंधर उसकी कारस्तानी को आज तक भाँप नहीं सके ।

पूरा देश इसे मध्यमवर्गीय परिवारों की बदलती सोच और मान्यताओं से जोड़्कर देख रहा है । यह मामला सत्ता और समाज के संघर्ष को भी बयान करता है । अब तक की तहकीकात को बारीकी से समझें तो पायेंगे कि यह रसूखदार अमीर और संघर्षशील गरीब तबके की रस्साकशी में तब्दील हो चुका है । डेढ़ साल की प्रक्रिया को देखने वालों में से सबसे ज़्यादा नासमझ शख्स भी इस बात को बता सकता है कि सबूतों के साथ छेड़छाड़ सीबीआई की लापरवाही नहीं सोची-समझी चाल है ।

आईबीएन सेवन ने पिछले कुछ दिनों से एक बार फ़िर आरुषि मामले पर बहस शुरु कर दी । इससे बौखलाकर दिल्ली पुलिस के ज़रिये मोबाइल जब्त करने की बात कहकर मामइस मामले को दिशा से भटकाने की कोशिश की गई है । काबिले गौर पहलू ये भी है कि इस मामले से दिल्ली पुलिस का दूर-दूर तक कोई वास्ता ही नहीं,तब उस तक मोबाइल का आईईएमआई नम्बर कैसे और क्यों पहुँचा ? आखिर वो कौन है जिसके इशारों पर नोएडा के ज़िला अस्पताल के डॉक्टरों से लेकर सीबीआई के आला अधिकारी तक काम करते दिखाई देते हैं ? क्या देश में हालात इतने बदल चुके हैं कि सामान्य लोग भी इनसे अपने मनमुताबिक काम करा सकें । क्या इस मामले में आरोपी बनाये गये कृष्णा,राजकुमार और मंडल का रसूख इतना बड़ा है ?

मीडिया से गुज़ारिश है कि या तो सीधे-सीधे मुहिम छेड़ दे असली कातिल को बेनकाब करने की या फ़िर भगवान के लिये इससे पल्ला झाड़ ले क्योंकि जब भी यह म्मुद्दा उछलेगा ताकतवर एकजुट होकर कानून का हवाला देकर निर्दोष गरीबों को फ़ँसायेंगे चाहे फ़िर वो कुसुम , रामभुल या व्यास हो । मीडिया वालों दम है तो खुल कर सामने आओ अपने फ़ायदे के लिये इन बेचारे गरीबों की ज़िन्दगियों से खिलवाड़ मत करो । गरीब को उसकी ज़िन्दगी जीने दो । मीडिया और सीबीआई गरीब को बख्शो ।