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शनिवार, 28 नवंबर 2009

अगले जनम नेता का रिश्तेदार ही कीजो........


मध्य प्रदेश में नगरीय निकायों के चुनाव में उम्मीदवारी तय करने में बीजेपी और काँग्रेस ने लोकतंत्र के सभी उसूलों को ताक पर धर दिया है । दोनों ही पार्टियों ने उम्मीदवारों की काबीलियत से ज़्यादा उसकी हैसियत को तरजीह दी है । प्रमुख दलों की "नूरा कुश्ती" ने महापौर,स्थानीय निकाय के अध्यक्षों और पार्षदों की तकदीर का फ़ैसला टिकट देते वक्त ही कर दिया है । आपसी तालमेल और सामंजस्य का इससे बेहतर उदाहरण क्या होगा कि सत्ताधारी दल के कई उम्मीदवारों के खिलाफ़ गुमनाम और अनजान चेहरे चुनावी मैदान में उतारे गये हैं । आम मतदाता दलों की चालबाज़ियों को बखूबी जान-समझ रहा है , लेकिन लोकतंत्र के नाम पर ठगे जाने को अपनी नियति मान कर हताश और निराश है | लोकतंत्र के नाम पर खुले आम चल रहे "लूटतंत्र" को रोकने में नाकाम लोग खुद को बेबस पा रहे हैं ।

नगरीय निकायों के चुनाव को लेकर भाजपा ने इस बार नेताओं के रिश्तेदारों की बजाय कार्यकर्ताओं को उम्मीदवार बनाने का ऐलान किया था।भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने एक बार फिर तय किए गए सारे मापदंडों की धज्जियाँ उड़ा दी हैं । पार्टी के तमाम नेताओं की घोषणा के बावजूद महापौर पद के 13 में से चार उम्मीदवार ऐसे हैं जो सीधे तौर पर नेताओं के रिश्तेदार हैं। ये चारों ही महिला उम्मीदवार हैं। पार्टी की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज ने भी सूबे में घूम-घूम कर महिला कार्यकर्ता सम्मेलनों में ऎलान किया था कि टिकट पाने के लिये कार्यकर्ताओं की सक्रियता ही एकमात्र पैमाना होगी ना कि किसी की रिश्तेदारी । लेकिन टिकट बँटवारे की फ़ेहरिस्त का खुलासा होने के बाद पार्टी का आम और सक्रिय कार्यकर्ता गुस्से से उबल रहा है । हर बार नेताओं के चहेतों,चमचों और रिश्तेदारों की उम्मीदवारी तय होती देख कार्यकर्ता समझ ही नहीं पा रहा कि पार्टी में उसका भविष्य क्या होगा ?

प्रदेश में नगरीय निकाय का पहला ऐसा चुनाव है जिसमें 50 प्रतिशत पद महिलाओं के लिए आरक्षित है। भाजपा ने नगरीय प्रशासन मंत्री बाबूलाल गौर की पुत्रवधू कृष्णा गौर को भोपाल से महापौर पद का उम्मीदवार बनाया है । कृष्णा पिछड़े वर्ग से आती हैं,जबकि ये सीट सामान्य वर्ग की महिला के लिये है। सामान्य वर्ग के उम्मीदवार के रूप में भाजपा महिला मोर्चा की प्रदेश अध्यक्ष सीमा सिंह, महिला समाज कल्याण बोर्ड की अध्यक्ष उषा चतुर्वेदी के अलावा सरिता देशपांडे जैसे तगड़े दावेदारों को दरकिनार कर कृष्णा गौर को टिकट दिया गया है । बीजेपी उम्मीदवार की पहचान यह है कि वे बाबूलाल गौर के बेटे की विधवा हैं । जब गौर "खड़ाऊ मुख्यमंत्री" बने थे,तभी उनके इकलौते पुत्र की मौत हो गई । पुत्रवधू को वैधव्य के दुख से बाहर लाने के लिये गौर ने कृष्णा गौर को आनन-फ़ानन में मप्र पर्यटन विकास निगम के अध्यक्ष पद का झुनझुना थमा दिया । हालाँकि तगड़े विरोध के कारण गौर को अपने कदम पीछे लेना पड़े और मुख्यमंत्री की कुर्सी भी गँवाना पड़ी । भोपाल की फ़िज़ा में ससुर-बहू की इस अलबेली जोड़ी के कई किस्से कहे-सुने जाते हैं । बहू को गद्दीनशीन देखने के ख्वाहिशमंद गौर ने भोपाल के उपनगर कोलार में नगरपालिका बना डाली,लेकिन दाँव उल्टा पड़ गया और ख्वाब की तामीर नहीं हो सकी ।

पटवा-सारंग गुट के इस खास सिपहसालार ने इस बार पार्टी ही नहीं विरोधी खेमे को भी बखूबी साध लिया है । तभी तो काँग्रेस ने कई मज़बूत महिला नेताओं की दावेदारी को खारिज करते हुए आभा सिंह जैसे अनजान चेहरे पर दाँव लगाया है । मतदाता खुद को ठगा महसूस कर रहा है और जानकार इसे मतदान से पहले ही बीजेपी के लिये जीत का जश्न मनाने का मौका बता रहे हैं । बीजेपी ने आदिम जाति कल्याण मंत्री विजय शाह की पत्नी भावना शाह को खण्डवा,वरिष्ठ नेता नरेश गुप्ता की पुत्रवधू समीक्षा गुप्ता को ग्वालियर और वर्तमान महापौर अतुल पटेल की पत्नी माधुरी पटेल को बुरहानपुर से महापौर पद का उम्मीदवार बनाया है। महापौर पद के लिए घोषित किए गए 13 में से अधिकांश उन्हीं लोगों को उम्मीदवार बनाया गया है जिनके परिवार का कोई सदस्य पहले से ही पार्टी में सक्रिय है। इस मसले पर भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष विजेंद्र सिंह सिसौदिया की कैफ़ियत है कि रिश्तेदारों को टिकट नहीं देने का आशय यह था कि जो राजनीति में सक्रिय नहीं है उन्हें उम्मीदवार नहीं बनाया जाएगा। उन्होंने स्पष्ट किया कि जिन्हें महापौर का उम्मीदवार बनाया गया है वे भले ही किसी के रिश्तेदार हों मगर पार्टी में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। उनकी उम्मीदवारी का आधार सक्रियता है।

नेताओं ने टिकट बँटवारे में नैतिकता के सभी मूल्यों को बड़ी ही बेहयाई से दरकिनार कर दिया है । मौजूदा राजनीति में व्यक्तित्व और कार्यकुशलता गौण और रिश्ते हावी होते जा रहे हैं । प्रमुख दलों में चहेतों को रेवड़ी बाँटने की परंपरा सी बन गई है । आपसदारी की राजनीति ने लोकतंत्र की जड़ों को खोखला कर दिया है । प्रभावी व्यक्तित्व और विकास के खुले नज़रिये के बगैर क्या ये सिफ़ारिशी चेहरे शहरों की कायापलट कर सकेंगे ? क्या रिश्तेदारों के कँधों पर सवार होकर "लोकतंत्र की पाठशाला" में दाखिल होने वाले लोग बीमार स्थानीय निकायों को भ्रष्टाचार और अव्यवस्थाओं के दलदल से निजात दिला सकेंगे ? या फ़िर ये नाकाबिल नुमाइंदे जनादेश के बहाने अपने आकाओं की मेहरबानी का सिला देने के लिये महज़ "कठपुतली" बन कर रह जाएँगे । अगर यही हाल रहा तो आने वाले वक्त में सियासी कार्यकर्ता ऊपर वाले से यही दुआ माँगते सुनाई देंगे - " जो अब किये हो दाता ऎसा ना कीजो , अगले जनम मोहे नेता का रिश्तेदार ही कीजो ........!"

शनिवार, 18 अप्रैल 2009

सभी प्रत्याशियों को नकारने का अधिकार (नोटा)

चुनाव सुधार की दिशा में किए जाने वाले तमाम प्रयासों में से एक महत्वपूर्ण प्रयास है ‘नोटा’ से लोगों को परिचित कराना और इलैक्ट्रानिक वोटिंग मशीन में इसके लिए बटन की व्यवस्था करवाना। नोटा यानी खडे उम्मीदवारों में से कोई नहीं (None of the above) के विकल्प से सर्वसाधारण से परिचय कराते हुए उन्हें यह औजार मुहैया कराया जाना चाहिए। ऐसा हो जाने पर जनभावना सही तरह से चुनाव में परिलक्षित हो सकती है।

चुनाव आयोग के नियम 49-ओ के अनुसार जो कोई मतदाता मतदान केंद्र के अंदर अपना बहुमूल्य मत किसी भी उम्मीदवार को देना नही चाहते हैं उनके लिए चुनाव आयोग ने प्रावधान किया है कि वे निर्वाचन अधिकारी को अपनी पहचान कराने के एवं तर्जनी पर स्याही का निशान लेने के बाद, वोट देने से मना कर सकते हैं तथा अपना आशय पीठासीन अधिकारी को बता, उसके सम्मुख वोटर रजिस्टर में फार्म 17-अ पर दस्तखत करके अथवा अंगूठा लगा कर बैरंग लौट सकते हैं । मतगणना के समय ऐसा मत ‘किसी को भी नहीं’ मत के रूप में गिना जाता है। यदि ऐसे मतों की संख्या, सबसे अधिक मत प्राप्त करने वाले उम्मीदवार से ज्यादा हो गई तो विस्फोटक स्थिति उत्पन्न हो जायेगी। चुनाव स्थगित होने की नौबत आ सकती है । हारे हुए उम्मीदवार, सबसे ज्यादा वोट लाने वाले प्रत्याशी को विजेता घोषित नही होने देंगे क्योंकि उसके खिलाफ जीते हुए मतों से ज्यादा नामंज़ूरी के मत हैं।

नोटा वोट की अधिकता होने पर ऐसे उम्मीदवार को विजेता घोषित करना चुनाव आयोग के लिए आसान नहीं होगा। भ्रष्ट, आपराधिक एवं नाकाबिल उम्मीदवारों को धता बताने का यह बहुत ही नायाब तरीका है। पर इस जानकारी का प्रचार नहीं है। पीठासीन अधिकारी के समक्ष रजिस्टर मे अंगूठा लगाने या दस्तखत करने से मतदाता के ‘किसी को भी मत नहीं’ की गोपनीयता समाप्त हो जाती है तथा कई स्थितियों में उसे खतरा भी हो सकता है। इसलिए इसकी व्यवस्था वोटिंग मशीन में ही किए जाने की जरूरत है ताकि खारिज करने के मत से वहां मौजूद लोग वाकिफ नहीं हो सकें।

मतदाताओं के इस अधिकार की बाबत भारत के पूर्व उपराष्ट्रपति स्वर्गीय श्री कृष्णकांत ने आवाज उठाई थी। उन्होंने मांग की थी कि विजेता उसी उम्मीदवार को घोषित किया जाए जिसे पचास पफीसदी से अधिक वोट मिलें। साथ ही मतदाता को उम्मीदवार पसंद ना होने पर उसे नामंजूर करने का अधिकार हो। सबसे कम खराब प्रत्याशी को चुनने की मजबूरी ना हो। प्रथम सुझाव मान लेने पर जातिगत और धर्मगत आधार पर चुनाव लड़ना और जीतना मुश्किल हो जाता। द्वितीय सुझाव राजनीतिक पार्टियों पर जिम्मेदार एवं साफ-सुथरी छवि वाले उम्मीदवार खड़े करने की बाध्यता उत्पन्न करता है। इन सुझावों की सराहना तो बहुत हुई लेकिन किसी भी पार्टी ने इन्हें स्वीकारा नहीं।

1999 में 15वें लॉ कमीशन के चेयरमैन जस्टिस बी पी जीवन रेड्डी ने अपनी 170वीं रिपोर्ट में मतदाता को यह अधिकार ईवीएम मशीन में अलग से ‘किसी को भी नहीं’ बटन की व्यवस्था करने की बात की थी। कमीशन ने 50 प्रतिशत वोट के आधार पर विजेता घोषित करने की बात का भी समर्थन किया । 2001 में चुनाव आयोग के मुख्य निर्वाचन आयुक्त जे एम लिंगदोह ने पत्र लिख कर प्रधानमंत्री से ईवीएम में नोटा बटन लगवाने की बात रखी । 2003 में चुनाव सुधार पर हुई सर्वदलीय बैठक में भी इस बात पर चर्चा हुई, परंतु सहमति नहीं बन सकी। जुलाई 2004 में चुनाव आयोग के मुख्य निर्वाचन आयुक्त श्री टी.एस. कृष्णमूर्ति ने पुन: प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अधिशासकीय पत्र लिखकर अगले चुनाव से पूर्व ईवीएम में नोटा बटन लगाने की सिफारिश की ।

इस मामले में अब तक न तो सरकार ने कोई कदम उठाया है । हैरत की बात है की बांग्लादेश जैसे छोटे और पिछड़े देश ने भी यह सम्यक व्यवस्था 29 दिसंबर 2008 को हुए आम चुनाव में कर ली थी । हमारे यहां कानून मे व्यवस्था रहने के बावजूद ईवीएम में यह बटन नहीं लगाया जा रहा है। भारत ने अपनी निर्वाचन प्रणाली मूलत: कनाडा से ली है। जब हमने 1992 में इलेक्ट्रोनिक वोटिंग पध्दति लागू की तो उस समय नोटा के प्रावधान को भुला दिया। नोटा का प्रावधान फ़्रांस, कोलंबिया, स्पेन, नेवाडा (अमेरिका), स्विट्जरलैंड, थाइलैंड, यूक्रेन के लोगों के पास भी है।

इस व्यवस्था से सत्ता की दौड़ में शामिल राजनीतिक दलों के लिए मुश्किल खड़ी होगी और इसलिए वे इसे लागू करवाने से बिदक रहे हैं। लेकिन चुनाव आयोग इस बारे में क्यों गंभीर प्रयास नहीं कर रहा है, यह बड़ा सवाल है । लोगों को चुनाव देने के लिए प्रेरित करते समय चुनाव आयोग उन्हें क्यों नहीं यह भी बताता कि वे यदि चाहें तो सभी उम्मीदवारों को नकार भी सकते हैं?

राजनीतिक दलों और चुनाव आयोग की जो भी मजबूरी हो लेकिन सामाजिक संगठनों के सामने ऐसी कोई मजबूरी नहीं है। उन्हें नोटा के अधिकार के लिए भरपूर दबाव बनाना चाहिए और इसके लिए मीडिया सहित देशहित में सोचने वाले सभी लोगों की मदद लेनी चाहिए। नोटा का अधिकार भारतीय लोकतंत्र को और अधिक सक्षम बनाने की दिशा में एक बहुत बड़ा कदम साबित होगा। गरीबपरस्त और भारतपरस्त राजनीति सुनिश्चित करने में इसकी बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका होगी।
राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन से साभार

मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

जूते के निशाने पर मौजूदा व्यवस्था

गृहमंत्री पी. चिदम्बरम पर जूता फ़ेंकने का मामला वक्त बीतने के साथ तूल पकड़ता जाएगा । हालाँकि गृह मंत्री की माफ़ी के बाद पत्रकार को छोड़ दिया गया है । लेकिन इस घटनाक्रम के साथ ही एक साथ कई सवाल हवा में तैरने लगे हैं । ज़्यादातर लोग मन ही मन प्रफ़ुल्लित होने के बावजूद पत्रकार जरनैल सिंह को दुनिया के सामने जी भरकर धिक्कारेंगे । वैसे खुद को प्रगतिशील दिखाने के लिये ऎसा ही रवैया अख्तियार करना वक्त की माँग है ।

माजिद मेमन जैसे जानेमाने वकील लोकतंत्र में आस्था बनाये रखने के लिये जरनैल सिंह को कड़ी से कड़ी सज़ा की देने की बात कह रहे हैं । वे कहते हैं कि लोकतंत्र को ज़िन्दा रखने के लिये इस तरह की आवाज़ों को कुचलना ज़रुरी है । ये वही मेमन साहब हैं , जो मुम्बई बम कांड में दाउद इब्राहीम और उसके गुर्गों की पैरवी कर रहे हैं । देश में जो भी विघटनकारी तत्व हैं वे अपने बचाव के लिये देश के इन काबिल वकील से संपर्क करते हैं । लेकिन जरनैल के मामले में मेमन साहब एकदम अलग और कड़ा रुख अख्तियार किये हुए हैं । वे कहते हैं कि लोकतंत्र में आस्था रखते हुए लोगों को कानून का दरवाज़ा खटाखटाना चाहिए ।

सवाल यह भी है कि न्याय के इंतज़ार के लिए पच्चीस साल बहुत होते हैं । एक पीढ़ी के इंतज़ार के बावजूद जब ठोस सबूत ही इकट्ठा नहीं हो पाये , तो न्याय की उम्मीद क्या खाक रहेगी । जिस जाँच एजेंसी को साक्ष्य जुटाने का ज़िम्मा सौंपा गया था , उसकी कार्यशैली किसी से छिपी नहीं है । ’सरकार का नमक अदा’ करने में माहिर अधिकारियों ने मायावती, अमर सिंह , मुलायम सिंह , शिबू सोरेन , जयललिता , लालू यादव सरीखे नेताओं से जुड़े मामलों को आनन-फ़ानन में निपटा कर अपनी ’नमक हलाली’ का पुख्ता सबूत पेश किया है । इन हालात में इंसाफ़ की उम्मीद करना मृग मरीचिका से ज़्यादा कुछ नहीं ।

जरनैल सिंह का आक्रोश शुरुआती बानगी है । नेताओं ने पुलिस और जाँच एजेंसियों को अपनी चौखट पर बाँध तो लिया है , वो शायद भूल गये हैं कि जब भी कानून का गला घोंटा गया है मजबूरन लोगों ने कानून हाथ में लिया है । न्याय की बात तभी अच्छी लग सकती है ,जब समय पर और सच्चा न्याय मिले । जन आक्रोश सड़कों पर आ गया तो सबसे ज़्यादा इन नेताओं को ही मुश्किल का सामना करना होगा , जिनकी साँसे और धड़कनें जनता में बसी होती हैं ।

कानून अँधा नहीं होता है । ये और बात है कि निष्पक्षता के लिहाज़ से उसने आँखों पर पट्टी बाँध रखी है । लेकिन नेताओं का कानों में रुई ठूँस लेना आने वाले समय में उन्हीं पर भारी पड़ेगा । अंग्रेज़ सरकार की आँखें खोलने और कानों तक आवाज़ पहुँचाने के लिये शहीदे आज़म भगतसिंह को असेम्बली में पर्चे फ़ेंकने के अलावा धमाके भी करने पड़े थे । आज के दौर के मोटी चमड़ी वाले नेताओं पर शायद इस तरह के नुस्खे कारगर साबित नहीं हो सकते । ऎसे में आम जनता के पास आखिर क्या रास्ता बचता है ।

विद्वात्त जन लोकतंत्र की महानता की दुहाई देते नहीं थकते ,लेकिन आखिर ये लोकतंत्र है कहाँ ...? अगर है भी तो क्या आम जनता को इसका फ़ायदा मिल पाता है ..? कल जो भाजपा में था वो आज काँग्रेस में है ,जो काँग्रेसी था वो अब बीजेपी का भगवा चोला धारण कर चुका है । थाली के बैंगन की तरह लालू , मुलायम , पासवान और अमर सिंह जैसे नेता "जिधर दम उधर हम" को ही अपना सूत्र वाक्य बनाकर राजनीति करते रहे हैं ।

लोकतंत्र का असली मज़ा तो ये नेता , नौकरशाह , उद्योगपति और प्रबुद्धजन ही लूट रहे हैं । व्यवस्था के गतिरोध हटाने के लिये लीक से हट कर ही कुछ करना ज़रुरी हो गया है । जरनैल सिंह के जूते के निशाने पर देश के गृह मंत्री नहीं मौजूदा व्यवस्था है । ये चुनौती है उस सोये समाज को ,जो "जहाँ है ,जैसा है" की संस्कृति में रच- बस चुका है । नीम बेहोशी तोड़ने के लिये ढ़ोल-ढ़माकों की नहीं झन्नाटेदार चाँटे की ही ज़रुरत होती है , वो भी एक नहीं पूरी की पूरी श्रृंखला ........... ।

गुरुवार, 26 मार्च 2009

मौका है बदल डालो , अब नहीं तो कब ...????

पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने देश के मतदाताओं से सही उम्मीदवार को वोट देने का आग्रह किया है । मतदान को सबसे बड़ा अवसर बताते हुए डॉ.कलाम ने कहा है कि हमारे द्वारा चुने गये प्रतिनिधि अगले पाँच साल के लिये देश के भाग्य का फ़ैसला लेने के हकदार होते हैं । उन्होंने मताधिकार को पवित्र और मातृभूमि के प्रति ज़िम्मेदारी बताया है ।

हममें से ज़्यादातर ने नागरिक शास्त्र की किताबों में मताधिकार के बारे में पढ़ा है । मतदान के प्रति पढ़े-लिखे तबके की उदासीनता के कारण राजनीति की तस्वीर बद से बदतर होती जा रही है । हर बार दागी उम्मीदवारों की तादाद पहले से ज़्यादा हो जाती है । भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे नेता पार्टी की अदला- बदली करते रहते हैं । राजनीतिक दलों में वंशवाद की बेल पुष्पित-पल्लवित हो रही है | आम नागरिक मुँह बाये सारा तमाशा देखता रहता है । प्रजातंत्र में मतदाता केवल एक दिन का "राजा" बनकर रह गया है । बाकी पाँच साल शोषण,दमन और अत्याचार सहना उसकी नियति बन चुकी है ।

यह राजनीति का कौन सा रुप है , जो चुनाव के बाद सिद्धांत , विचार , आचरण और आदर्शों को ताक पर रखकर केवल सत्ता पाने की लिप्सा में गठबंधन के नाम पर खुलेआम सौदेबाज़ी को जायज़ ठहराता है ? चुनाव मैदान में एक दूसरे के खिलाफ़ खड़े होने वाले दल सरकार बनाने के लिये एकजुट हो जाते हैं । क्या यह मतदाता के फ़ैसले का अपमान नहीं है ? चुनाव बाद होने वाले गठबंधन लोकतंत्र की धज्जियाँ उड़ाते दिखाई देते हैं । सरसरी तौर पर प्रत्याशी तो कमोबेश सभी एक से हैं और आपको बस मशीन का बटन दबाना है । मतदाता मजबूर है राजनीतिक पार्टियों का थोपा उम्मीदवार चुनने को । जो लोग जीतने के बाद हमारे भाग्य विधाता बनते हैं , उनकी उम्मीदवारी तय करने में मतदाता की कोई भूमिका नहीं होती ।

राजनीतिक दलों को आम लोगों की पसंद - नापसंद से कोई सरोकार नहीं रहा । उन्हें तो चाहिए जिताऊ प्रत्याशी । वोट बटोरने के लिये योग्यता नहीं जातिगत और क्षेत्रीय समीकरणों को तरजीह दी जाती है । अब तो वोट हासिल करने के लिये बाहुबलियों और माफ़ियाओं को भी टिकट देने से गुरेज़ नहीं रहा । सरकार बनाने के लिये ज़्यादा से ज़्यादा सीटें जीतने की नहीं कबाड़ने की जुगाड़ लगाई जाती है । नतीजतन लाखों लगाकर करोड़ों कमाने वालों की तादाद में लगातार इज़ाफ़ा हो रहा है । सत्ता किसी भी दल के हाथ में रहे , हर दल का नेता मौज लूटता है । अराजकता का साम्राज्य फ़ैलने के लिये हमारी खामोशी भी कम ज़िम्मेदार नहीं ।

लाख टके का सवाल है कि इस समस्या से आखिर निजात कैसे मिले ? लेकिन आज के इन हालात के लिये कहीं ना कहीं हम भी ज़िम्मेदार हैं । हम गलत बातों की निंदा करते हैं लेकिन मुखर नहीं होते , आगे नहीं आते । चुनाव हो जाने के बाद से लेकर अगला चुनाव आने तक राजनीति में आ रही गिरावट पर आपसी बातचीत में चिन्ता जताते हैं , क्षुब्ध हो जाते हैं । मगर जब बदलाव के लिये आगे आने की बात होती है , तो सब पीछे हट जाते हैं । हमें याद रखना होगा कि लोकतंत्र में संख्या बल के मायने बहुत व्यापक और सशक्त हैं । इसे समझते हुए एकजुट होकर सही वक्त पर पुरज़ोर आवाज़ उठाने की ज़रुरत है । अपने राष्ट्रीय और सामाजिक दायित्व को समझना ही होगा ।

सब जानते हैं और मानते भी हैं कि लोकतंत्र की कमजोरियाँ ही बेड़ियाँ बन गई हैं । यही समय है चेतने ,चेताने और चुनौतियों का डट कर मुकाबला करने का ...। प्रजातंत्र को सार्थक और समर्थ साबित करने के लिये हमें ही आगे आना होगा । इस राजनीतिक प्रपंच पर अपनी ऊब जताने का यही सही वक्त है । वोट की ताकत के बूते हम क्यों नहीं पार्टियों को योग्य प्रत्याशी खड़ा करने पर मजबूर कर देते ?

भोपाल के युवाओं ने बदलाव लाने की सीढ़ी पर पहला कदम रख दिया है । शहीद भगत सिंह की पुण्यतिथि पर आम चुनाव में मतदान और मुद्दों पर जनजागरण के लिए "यूथ फ़ॉर चेंज" अभियान की शुरुआत की गई । अभियान का सूत्र वाक्य है - ’वोट तो करो बदलेगा हिन्दुस्तान।’ इसमें वोट डालने से परहेज़ करने वाले युवाओं को स्वयंसेवी और सामाजिक संगठनों की मदद से मतदान की अहमियत समझाई जाएगी ।

व्यक्तिगत रुप से मैं दौड़ , हस्ताक्षर अभियान , मोमबत्ती जलाने जैसे अभियान की पक्षधर नहीं । मेरा मानना है कि हमें अपने आसपास के लोगों से निजी तौर पर इस मुद्दे पर बात करना चाहिये । इस मुहिम को आगे ले जाने के लिये लोगों को प्रोत्साहित करना चाहिए । उन्हें मतदान केन्द्र पर जत्थे बनाकर पहुँचने के लिये उत्साहित करना होगा ।

यहाँ यह बताना बेहद ज़रुरी है कि इस बार चुनाव आयोग ने मतदान केन्द्र पर रजिस्टर रखने की व्यवस्था की है , जिसमें वोट नहीं डालने वाले अपना नाम-पता दर्ज़ करा सकते हैं । याद रखिये बदलाव एक दिन में नहीं आता उसके लिये लगातार अनथक प्रयास ज़रुरी है । व्यक्तिगत स्तर पर हो रहे इन प्रयासों को अब व्यापक आंदोलन की शक्ल देने का वक्त आ गया है । मौका है बदल डालो । हमारे जागने से ही जागेगा हिन्दुस्तान , तभी कहलायेगा लोकतंत्र महान ....।

रविवार, 18 जनवरी 2009

न्याय के मंदिर में चढावे का दस्तूर

लोकतंत्र की मज़बूती के लिए न्यायपालिका का निष्पक्ष , ईमानदार और सत्यनिष्ठ होना ज़रुरी है । ऎसा किताबों में कहा गया है और शायद लोकतांत्रिक व्यवस्था की ये आदर्श स्थिति कही जा सकती है । लेकिन ऎसा तभी हो सकता है जब इंसाफ़ का तराज़ू थामने वाला हाथ किसी भी सूरत में कांपे नहीं , हर हाल में संतुलित रह सके । उसे थामने वाले दिलो - दिमाग की बजाय न्याय की बात कहने का साहस कायम रख सकें ।

अलगू चौधरी और जुम्मन शेख की कहानी देश में इंसाफ़ की समृद्ध परंपरा को रेखांकित करती है । बताती है कि इंसाफ़ मानवीय सीमाओं से परे ईश्वर का आदेश है । यही वजह है जो हमने दूध का दूध और पानी का पानी करने वाले पंच को परमेश्वर का दर्ज़ा दिया । देश में आज भी न्यायाधीश का स्थान सर्वोपरि है । लोकतांत्रिक व्यवस्था के चार स्तंभों में एक न्यायपालिका भी है जिस पर जनता का भरोसा आज भी कायम है । मगर सामाजिक विकृतियों ने इसे भी नहीं बख्शा है ।

हाल ही में देश के प्रधान न्यायाधीश के. जी. बालाकृष्णन ने कहा है कि जज अपनी सम्पत्ति का ब्यौरा देने के लिए बाध्य नहीं है । उनके मुताबिक देश में ऎसा कोई कानून नहीं है जिसके तहत न्यायाधीशों के लिए संपत्ति घोषित करना अनिवार्य किया गया हो । गौरतलब है कि केन्द्रीय सूचना आयोग में आरटीआई दाखिल कर इस बाबत जानकारी मांगने पर इंकार के बाद अदालत में याचिका लगाई गई थी ।

ट्रांसपरेन्सी इंटरनेशनल की वैश्विक भ्रष्टाचार रिपोर्ट 2007 में कहा गया है कि भारत में 77 फ़ीसदी लोगों को न्यायपालिका के भ्रष्ट होने का यकीन है । रिपोर्ट के मुताबिक कानून से न्याय पाने के एवज़ में एक साल में 58 करोड अमरीकी डॉलर {2630 करोड रुपए } घूस दी जाती है । 61 प्रतिशत वकीलों , 29 फ़ीसदी अदालती कर्मचारियों और 5 फ़ीसदी बिचौलियों के ज़रिए यह धनराशि पहुंचाई जाती है ।

इससे पहले वर्ष 2001 में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एस. पी. भरुचा ने यह कहकर तहलका मचा दिया था कि " देश के बीस फ़ीसदी जज भ्रष्ट हैं ।" इसके बाद देश भर में न्यायपालिका की शुचिता पर बहस छिड गई थी । लोगों का मानना है कि जजों के कामकाज और उनकी संपत्ति की जांच का अधिकार भ्रष्टाचार निरोधक संस्थाओं को सौंप दिया जाए तो अदालत के गलियारों में फ़ैले भ्रष्टाचार का वास्तविक स्वरुप आँखें फ़ाड देने वाला होगा ।

देश का दुर्भाग्य है कि सरकार और न्याय व्यवस्था में फ़ैले भ्रष्टाचार को देख कर भी इससे निजात पाने के तरीके खोजने की बजाय प्रधानमंत्री लाचारगी की मुद्रा में नज़र आते हैं । वर्ष 2008 में मुख्यमंत्रियों और मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में मनमोहन सिंह ने कहा कि " सरकार और न्याय व्यवस्था में भ्रष्टाचार एक चुनौती है ,जिससे हम जूझ रहे हैं ।" कुछ समय पहले अदालतों में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बार कॉउन्सिल ऑफ़ इंडिया ने भी राज्यों की बार कॉउन्सिल्स से अपनी राय देने को कहा था ।

ये किसी भीषण त्रासदी से कम नहीं कि उच्च पदस्थ जजों के कथित दुराचरण के मामले तेज़ी से हाल के वर्षों में सामने आए हैं , लेकिन इनके खिलाफ़ कोई कार्यवाही नहीं हो सकी । आज तक यही होता आ रहा है कि "अदालत की अवमानना” का खौफ़ दिखा कर शिकायती आवाज़ों को तुरंत दफ़्न कर दिया जाता है । सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जज जवाबदेही से पूरी तरह मुक्त हैं । ऎसे में आम लोगों में क्या वाकई न्याय के प्रति भरोसा कायम रह सकेगा ?

मौजूदा दौर लोकतंत्र के संकट का काल प्रतीत होता है । मीडिया पूरी तरह से बाज़ार की गिरफ़्त में है । चारों तरफ़ प्रेस की आज़ादी को लेकर शोरगुल सुनाई दे रहा है । लेकिन इसका जवाब किसी के पास नहीं है कि क्या वास्तव में देश में मीडिया अपनी भूमिका सही तरह से निभा रहा है ...? प्रेस का जब देश की जनता या सामाजिक सरोकारों से कोई वास्ता ही नहीं रहा , तो लोकतंत्र का स्तंभ कहलाने का दंभ भी क्यों ...? विधायिका और कार्यपालिका पहले ही जनता का भरोसा खो चुकी हैं । यही हाल अब इंसाफ़ के मंदिरों का हो चुका है ।

मेरे एक परिचित ने इस बारे में बेहद चुटीली लेकिन गंभीर टिप्पणी की । वो मानते हैं कि पहले प्रजातंत्र के चारों खंबे अलग - अलग थे । अब इन पर छत पड चुकी है । ये सब एकजुट हो चुके हैं । इससे स्तंभों को मज़बूती भी मिली है और सभी निश्चिंत होकर एक दूसरे के हितों का भरपूर ख्याल रख रहे हैं । इस तरह देश का संभ्रांत वर्ग "जनता के माल" पर मिल बांट कर हाथ साफ़ कर रहे हैं । त्राहि - त्राहि करती जनता का ना तो किसी को ख्याल है और ना ही कोई डर ............।