शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

सारी दुनिया छह हज़ार लोगों की मुट्ठी में...........

यकीन करना थोड़ा मुश्किल है लेकिन हक़ीक़त यही है कि पूरी दुनिया महज़ 6000 लोगों की मर्ज़ी की ग़ुलाम है । दूसरे शब्दों में सारी दुनिया इनकी मुट्ठी में है । ये ही वो लोग हैं जो तय करते हैं दुनिया की तकदीर । आजकल एक नई किताब ’सुपर क्लास’ चर्चा में है । डेविड रॉथ कॉफ़ की इस किताब में कहा गया है कि विश्व भर में अतिविशिष्ट व्यक्तियों का ऎसा वर्ग है जो तय करता है कि दुनिया कैसे चलेगी ।

श्री कॉफ़ का मानना है कि हर दस लाख लोगों में से एक में वो काबीलियत होती है जो उसे इस अतिविशिष्ट वर्ग का सदस्य बनने में मदद देती है । लगातार बदलते ’ पॉवर सर्किल ’ में कुछ साल रहने के बाद लोग खुद ही इससे दूर हो जाते हैं । हालाँकि अपवाद स्वरुप कुछ लोग ऎसे भी हैं जो कई दशकों तक उतने ही ताकतवर बने रहते हैं ।

इस पुस्तक के मुताबिक राजनीति , उद्योग जगत , वित्तीय संस्थाएँ , सैन्य उपक्रम , लेखन और सिनेमा से जुड़े लोगों का सुपर क्लास में दबदबा देखा गया है । दुनिया की रीति- नीति तय करने में पैसा और सेना का ’ हार्ड पॉवर ’ काम करता है । नई संस्कृति गढ़ने और नई जीवन शैली तैयार करने में नामीगिरामी लेखकों और चमत्कारिक व्यक्तित्व के मालिक लोकप्रिय सिनेमाई कलाकारों का प्रभाव काम करता है ।

कुछ धार्मिक नेता भी इसी श्रेणी में आते हैं , जिनकी बात करोड़ों लोगों का दिलो दिमाग बदल डालने की ताकत रखती है । ये भी आम लोगों की सोच - समझ पर खासा असर डालते हैं । लोग अपने निजी फ़ैसलों से लेकर सामूहिक मामलों से जुड़े फ़ैसले भी इन्हीं से प्रभावित होकर लेते हैं । ऎसे लोगों की फ़ेहरिस्त में रोमन कैथोलिक पोप और ईरान के धार्मिक नेता मरहूम अयातुल्लाह खुमैनी और उनके बेटे अयातुल्लाह अली खुमैनी का नाम शामिल है ।

इन मुट्ठी भर लोगों में पूरी दुनिया को मुट्ठी में कर लेने की शक्ति है । बल्कि इसे यूँ कहें कि दुनिया जंग के ज़रिये तबाही के रास्ते पर आगे बढेगी या अमन के फ़ूल खिलाकर धरती पर चमन सजाएगी , इसका फ़ैसला लेने का अख्तियार इन छह हज़ार लोगों को ही है । अतिविशिष्ट वर्ग के हाथ में इतना कुछ है कि इनकी मर्ज़ी के बग़ैर पत्ता भी नहीं खड़कता । अगर ये ना चाहें , तो बड़े से बड़ा युद्ध टाला जा सकता है । लेकिन इन्होंने ठान ली तो जंग होने से कोई रोक भी नहीं सकता । कुछ मामलों में इन्हीं के हितों की रक्षा के लिए लड़ाइयाँ लड़ी गईं ।

देशों के कानून भी वास्तव में इन्हीं प्रभावी लोगों के फ़ायदे को ध्यान में रखकर बनाये जाते हैं । ये और बात है कि आम लोगों का भरोसा वोट के रुप में पाकर ही ये लोग संसदों में पहुँचते हैं । लेखक का दावा है कि देश की व्यवस्था पर ही नहीं इस वर्ग का दबदबा विदेशी सरकारों पर भी रहता है ।

कई बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मालिक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी भी सरकारी मामलों में ना सिर्फ़ दिलचस्पी लेते हैं , बल्कि सरकारी फ़ैसलों पर भी अप्रत्यक्ष्र रुप से असर डालते हैं । यूरोपीय और अमरीकी लोगों का दबदबा समूचे विश्व में कायम है । बहरहाल मुकेश अंबानी और रतन टाटा भी सुपर क्लास का हिस्सा हैं । ये भी यूरोप और अमरीका के शक्तिशाली लोगों के बीच उठते - बैठते हैं । यानी लाख दावे किये जाएँ लेकिन हकीकतन देश कोई हो , सरकार किसी की भी बने, होंगी महज़ कठपुतलियाँ ही..........। दुनिया को चलाने वाले छह हज़ार बाज़ीगरों के हाथ का खिलौना .....!!!!!!!! इन सर्वशक्ति संपन्न बाज़ीगरों का एक ही नारा है - कर लो दुनिया मुट्ठी में !

शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

देश में फ़िर हो सकता है आतंकी हमला

देश अब भी बारुद के मुहाने पर बैठा है । जल्दी ही आम चुनावों की घोषणा हो जाएगी और पूरा देश लोकतंत्र के जश्‍न में डूब जाएगा । मंदी की मार के चलते नौकरी से हाथ धो बैठे कई युवाओं को काम मिल जाएगा और बचे खुचे लोग इस उत्सवी माहौल में अपना ग़म ग़लत करते नज़र आएँगे । ऎसे ही किसी शानदार मौके की राह तक रहे हैं -दहशतगर्द । जब पूरा देश चुनावी रंग में सराबोर होकर बेखबर होगा , तब आईएसआई के आतंकी रंग में भंग डालने का साज़ो सामान लेकर टूट पडे़गे कई ठिकानों पर ।

खुफ़िया एजेंसियों की रिपोर्ट कहती है कि आईएसअआई की शह पर भारत में अफ़रा-तफ़री फ़ैलाने की साज़िश को अंजाम देने की पूरी तैयारी है । हालाँकि पहले भी इस तरह की सूचनाएँ मिलती रही हैं ,लेकिन हर बार चेतावनियों को अनदेखा कर देने का खमियाज़ा आम नागरिक ने उठाया है । सरकार ने 26 / 11 के मुम्बई हमले पर अब तक "नौ दिन चले अढ़ाई कोस" का रवैया अपना रखा है । ऎसे में दहशतगर्दों के हौंसले बुलंद हों , तो कोई आश्‍चर्य की बात नहीं होगी ।

इधर खबर ये भी है कि ओबामा का अमेरिका पाकिस्तान को तालिबानियों की गिरफ़्त में फ़ँसा "बेचारा" मानने की तैयारी कर चुका है । इस लाचारगी से बाहर लाने के लिए जल्दी ही करोंड़ों डॉलर की इमदाद भी पहुँचाई जाएगी , ताकि पाकिस्तान इस "मुसीबत" से उबर सके । "शरीफ़ पाक" ज़्यादा कुछ नहीं थोड़े आतंकी और थोड़ा रसद पानी खरीदेगा इस पैसे से और ज़ाहिर तौर पर इसका इस्तेमाल होगा भारत के भीतर घुसकर भारत के लोगों को गाजर - मूली की तरह काटने में ।

खुफिया एजेंसियों को अल कायदा के आतंकी अबू जार के फोन इंटरसेप्ट के ज़रिए साजिश का पता चला है। इस साजिश में अल कायदा, जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा समेत कई आतंकी संगठन भागीदार हैं। इनका मकसद केवल भारत में धमाके करना ही नहीं है । वैसे तो भारत-पाक रिश्तों में अब पहले सी गर्मी नहीं रही लेकिन आतंकी रिश्तों के तनाव की चिन्गारी को भभकती लपटों की शक्ल देना चाहते हैं । संदेश को पकड़ने के बाद सुरक्षा एजेंसियों की नींद उड़ गई है।

यह हमला कार बम के जरिए करने की बात कही गई है। देश की सभी गुप्तचर एजेंसियों ने एक ही संकेत दिया हैं कि आईएसआई के आतंकवादी भारत में कई सुरक्षित ठिकानों पर मौजूद हैं और किसी बड़े शहर पर किसी बड़े हादसे के लिए सही वक्त की टोह ले रहे हैं। इनमें से कई के नाम पते और शिनाख्त भी खुफ़िया तंत्र के पास हैं। संदेश में अबू जार ने अपने साथियों से दिल्ली पर हमले करने के लिए तैयारियाँ शुरू करने को कहा है।

सुरक्षा एजेंसियों के मुताबिक अबू जार का मकसद कश्मीर घाटी समेत समूचे भारत में आतंकी वारदात करने का है। अल कायदा आतंकी अबू जार पर 2001 में जम्मू विधानसभा में बम विस्फोट, 6 सितंबर 2003 में जम्मू के एक इलाके में बम विस्फोट और 16 नवंबर 2006 को जम्मू-कश्मीर के एक बैंक में बम विस्फोट कर कई लोगों की जान लेने का आरोप है।

कश्मीर के कांजीकोला इलाके में सक्रिय अबू जार कार बम के इस्तेमाल में माहिर माना जाता है। वह कश्मीर के आतंकियों के छोटे -छोटे गुटों को इकट्ठा कर देश में हमले कराने की फिराक में है। अल-कायदा आतंकी का मकसद दोनों देशों में युद्ध जैसे हालात पैदा करने का है।

पाकिस्तान की भारत के प्रति खुन्नस किसी से छिपी नहीं है । दरअसल वह हज़ार घावों से लहूलुहान हिन्दुस्तान देखना चाहता है , लेकिन अमेरिका की ख्वाहिश भी कुछ अलग नहीं । पूरा देश बराक ओबामा के चुने जाने पर बौरा रहा था लेकिन जिस तरह से आउट सोर्सिंग पर रोक लगाने का फ़रमान सामने आया है , मालूम होता है भारत का दुनिया में बढता रसूख अमेरिका की आँख की किरकिरी बन गया है । मंदी ने पूरी दुनिया में ज़लज़ला ला दिया है । इसमें तीस लाख से ज़्यादा भारतीय रोज़गार गवाँ बैठे हैं , लेकिन नेता ’ओम शांति, शांति ,शांति......... जपते हुए चुनावी रणभेरी फ़ूँकने की कवायद में मशगूल हैं ।

( चुनाव पूर्व चेतावनी - नीम बेहोशी से जागो । अब भी नहीं तो कभी नहीं । मोमबत्तियाँ जलाने वालों , गुलाबी चड्डियों के गिफ़्ट बाँटने वालों ,बेवजह सड़क पर दौड़ लगाने वालों ,हवा में मुक्के लहराने वालों , हस्ताक्षर के ज़रिए व्यवस्था बदलने का दावा करने वालों कोई तो रास्ता सोचो । छोटे - बड़े अपराधी में से चुनाव की भूल मत दोहराओ । देश बचाओ ,लोकतंत्र बचाओ )

बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

मप्र के आदिवासी देशी खेती सीखने जाएँगे परदेस....!

"कोई भरम मत पालिये । साफ़ बात यह है कि लेखक दुनिया नहीं बदलता । वह बदल ही नहीं सकता । दुनिया बदलने वाले दुनिया बदलते हैं ।"

लीजिए साहब , अब मध्य प्रदेश के किसान खेती की बेहतर तकनीक सीखने के लिए सात समुंदर पार भेजे जाएँगे । आदिम जाति कल्याण विभाग आदिवासियों को विदेशों में खेती किसानी सिखाने भेजने की तैयारी में जुट गया है । राज्य के किसान अमेरिका ,चीन ,जापान सहित कई देशों से खेती के गुर सीख कर आएँगे । शुरुआती दौर में दस किसान खरीफ़ मौसम में पंद्रह दिन से एक महीने का प्रशिक्षण लेने भेजे जाएँगे । अधिकारियों का कहना है कि चावल की अच्छी माँग होने के कारण धान की जैविक खेती के बारे में जानकारी दी जाएगी ।

खेती - किसानी के मामले में आज भी भारत कई देशों से आगे है । लोकोक्तियाँ और कहावतें मौसम के मिजाज़ को समझने और उसके मुताबिक फ़सल लेने तक का सटीक ज्ञान देने में सक्षम हैं । अनुभवी किसान हवा का रुख देख कर भाँप जाता है कि बरसात कब- कब होगी और कितनी । इतना ही नही नक्षत्रों और मिट्टी की किस्म से ग्रामीण फ़सल का अनुमान लगा सकते हैं । लेकिन हम अपने देश के वैदिक और पारंपरिक ज्ञान के प्रति हमेशा से लापरवाह रहे हैं । "फ़ॉरेन रिटर्न" की मानसिकता इस कदर हावी है कि देश की चीज़ जब तक विदेशी ठप्पा लगवाकर नहीं आये , हम उसे संदेह की निगाह से ही देखते हैं ।

वैज्ञानिकों ने गायत्री मंत्र के ज़रिए उपचारित बीजों से हैरत में डाल देने वाला फ़सल उत्पादन हासिल होने की बात स्वीकारी है । लोगों की बेरुखी के कारण सड़कों पर पन्नियाँ खा कर दम तोड़ती गायें भी खेती की मूलभूत ज़रुरत में से एक है । गाय का मूत्र और गोबर जमीन की उर्वरा शक्ति बढाता है । साथ ही फ़सलों को नुकसान पहुँचाने वाले अनगिनत जीवाणुओं और कीड़ों की रोकथाम करता है । अनुभवी कहते हैं गौमूत्र के नियमित छिड़काव से पथरीली ज़मीन भी उपजाऊ और भुरभुरी हो जाती है ।

गायत्री शक्तिपीठ ने खेती को भारतीय पद्धति से करने के कई सफ़ल प्रयोग किये हैं और जैविक खेती की तकनीक पर शोध भी किये हैं । मेरे अपने प्रदेश में ऎसे कई प्रगतिशील किसान हैं , जिन्होंने अपनी हिकमत और हिम्मत से खेती के पारंपरिक स्वरुप को नया जीवनदान दिया है । इतना ही नहीं ये साबित भी किया है कि प्राकृतिक नुस्खे अपना कर खेती की लागत घटा कर भरपूर पैदावार ली जा सकती है ।

अब सवाल ये कि जिस विषय के बारे में हमारे यहाँ ज्ञान का भंडार मौजूद है ,उसके लिए विदेश का रुख करना कहाँ तक जायज़ है ? वास्तव में हमारे नेता और अफ़सर कभी बीमारी , तो कभी प्रशिक्षण के नाम से सरकारी खर्च पर दूसरे देशों के सैर सपाटे का बहाना तलाशते रहते हैं । ज़ाहिर सी बात है कि गाँव की पगडंडी छोड़कर शहर की सड़कों तक आने में घबराने वाले ठेठ ग्रामीण परिवेश से निकले ये आदिवासी अकेले तो विदेश जा नहीं सकेंगे........। अँग्रेज़ीदाँ वातावरण में किसानों को समझाने और हौसला देने के लिए हो सकता है अधिकारियों की लम्बी चौड़ी फ़ौज भी साथ जाए ।

वैसे एक और जानकारी काबिले गौर है । शिवरात्रि पर भोपाल के नज़दीक प्रसिद्ध स्थल भोजपुर में उत्सव के उदघाटन समारोह में मुख्यमंत्री ने एक जानकारी दी । उन्होंने बताया कि पिछले साल संस्कृति विभाग के ज़रिए 17 करोड़ रुपए प्रदेश की सभी पंचायतों की भजन मंडलियों को दिये गये । यानी प्रदेश का लोक कलाकार भी खासा अमीर हो गया शिवराज के राज में .....?????? क्या वाकई ....????? और हाँ संस्कृति मंत्री ने समारोह में लोक कलाकारों की पंचायत बुलाने की माँग भी कर डाली । हाल ही में "घोषणावीर मुख्यमंत्री" हाथठेला और रिक्शा चालकों की पंचायत कर चुके हैं । पिछले कार्यकाल में उन्होंने सत्रह पंचायतें कीं । इन लोगों का कितना भला हो सका ये शोध का विषय है, लेकिन अधिकारियों और इंतज़ाम में लगे ठेकेदारों को तत्काल लाभ मिल ही गया ।

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2009

संस्कृति बचाने का तुगलकी फ़रमान

मानव मन के उल्लास और उमंग को अभिव्यक्त करने के कई अनूठे तौर तरीके अनादि काल से चले आ रहे हैं । समय - समय पर भरने वाले मेले सामयिक संदर्भों से जुड़ने की जीवंत परंपरा के साथ ही विभिन्न अँचलों में ग्राम और लोक देवताओं को याद करने के बहाने होते हैं ।

देश की मौलिक संस्कृति में मेलों की सतरंगी छटा चारों ओर बिखरी दिखाई देती है । मेलों का ग्राम्य स्वरुप प्रचलित भी है और प्रसिद्ध भी । हालाँकि अब शहरों में भी मेलों का आकर्षण बढने लगा है लेकिन उनमें गाँव के मेलों सा सौंधापन कहाँ......? इन मेलों के मूल में कोई अन्तर्कथा है ,संवेदना है और आदि लोक परंपरा है । यही कारण है कि इन आयोजनों का "लोक आस्था का मूल तत्व" तमाम अपसंस्कृति के बावजूद अब तक मिट नहीं सका है ।

मेले का अनूठापन ही है कि लोग स्वतः स्फ़ूर्त प्रेरणा से नियत तिथि और निश्‍चित स्थल पर साल दर साल जुड़ते रहते हैं , बगैर आमंत्रण की प्रतीक्षा किए ....। दशकों क्या सदियों से यही परंपरा चली आई है । लेकिन आज एक समाचार पढ़कर मन आशंकाओं से भर गया । एक साथ कई सवाल उठने लगे ज़ेहन में । मध्यप्रदेश में हर साल छोटे - बड़े करीब डेढ़ हज़ार मेले लगते हैं । धार्मिक ,सांस्कृतिक और सामाजिक सरोकारों से जुड़े इन मेलों पर अब राज्य सरकार का रहमो करम होने जा रहा है । दर असल यही सरकारी पहल ऊहापोह का सबब बनी है ।

मध्यप्रदेश लोककला और संस्कृतियों की विविधता को समेटे हुए है । प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में लगने वाले मेलों पर नज़र रखने के लिए राज्य सरकार मई तक मेला प्राधिकरण बनाने की तैयारी में है । यह सरकारी महकमा मेलों के इंतज़ाम के अलावा कलाकार जुटाने और पैसे के हिसाब किताब का ज़िम्मा भी सम्हालेगा । यूँ तो ये प्राधिकरण संस्कृति विभाग के अधीन ही काम करेगा मगर इसकी एक अलग समिति होगी । हर ज़िले में उप समितियाँ बनाई जाएँगी । दलील दी जा रही है कि मेलों में अश्लीलता के नाम पर जम कर विवाद होते रहे हैं । सरकार के मुताबिक इन घटनाओं पर अंकुश लगाने के लिए प्राधिकरण बनाने की ज़रुरत शिद्दत से महसूस की जा रही थी । संस्कृति विभाग चाहता है कि धार्मिक मेले धर्ममय होने चाहिए ।

अब इन दलीलों पर क्या कहा जाए ? मेरे शहर में कई मेले लगते हैं । इनमें मुम्बइया आइटम गर्ल्स के धमाल और दर्शकों के बवाल पर किसी की निगाह नहीं जाती । राजधानी में सरकारी ज़मीन पर बड़े- बड़े उद्योग घराने बरसों से निजी किस्म के मेले लगाते चले आ रहे हैं । व्यापारियों से स्टॉल लगाने के एवज़ में मोटी रकम लेते हैं और सरकार से तमाम तरह की छूट भी । हाल के सालों में इन बेशकीमती ज़मीनों को आयोजन समितियों के हवाले करने की माँग भी ज़ोर पकड़ने लगी है , जबकि ये मेले शुद्धतः व्यापारिक लाभ के लिए लगाये जाते हैं । इनमें संस्कृति या परंपरा को बचाये रखने जैसा कोई सरोकार नहीं है ।

ग्रामीण मेले लम्बे समय से बिना किसी व्यवधान के बेहतरीन ढंग से लगते चले आ रहे हैं । वैसे भी ग्रामीण अँचल की संस्कृति से जुड़े मेलों में अब तक तो कोई ऎसी शिकायतें सुनने में नहीं आईं । लगता है -" पीने वालों को पीने का बहाना चाहिए ।" ग्रामीण संस्कृति को बचाने के लिए वाकई ईमानदार कोशिश करना है , तो उसे सरकारी नियंत्रण से दूर ही रखना होगा । पंचायतों के ज़रिए गाँवों तक स्वराज पहुँचाने के ख्वाब का हश्र इस बात की पुष्टि करता है ।

कल ही मैं एक प्रादेशिक चैनल पर देख रही थी कि टीकमगढ ज़िले में किस तरह गाँव के लोगों ने बिना किसी सरकारी मदद के लम्बी चौड़ी नहर खोद डाली । जब सूबे के कई बड़े शहरों में पानी के लिए हाहाकार मचा है ,तब इस इलाके के कई गाँव ना सिर्फ़ अपनी और अपने मवेशियों की प्यास बुझा रहे हैं , बल्कि खेतों को लहलहाता देखकर आह्लादित भी हैं । सरकारी मदद के भरोसे ना जाने कितने वित्तीय साल बीत जाते ...? बजट आता लेकिन काग़ज़ी योजना को हकीकत में शायद कभी नहीं बदल पाता । मेरी राय में योजना के खर्च का एस्टीमेट ईमानदारी से बना कर पैसा उन सभी लोगों में बाँट दिया जाना चाहिए , जिन्होंने इस भगीरथी प्रयास को अंजाम दिया ।

एक तरफ़ तो योजनाओं को पूरा करने के लिए सरकार के पास पैसा नहीं है । दूसरी तरफ़ नेताओं और अधिकारियों की जेबें भरने के लिए प्राधिकरण बनाया जा रहा है । क्या यह फ़ैसला " तुगलकी फ़रमान" नहीं ....?
( चुनाव पूर्व चेतावनी - राजनीतिक दलों तक अपनी बात पहुँचाएँ , उन्हें बताएँ कि अब मतदाता पार्टी को नहीं ईमानदार और साफ़ छबि वाले उम्मीदवार को वोट देगा । पार्टियाँ जिस दिन इस बात को जान जाएँगी, तब " जीत की गारंटी वाला " आपराधिक छबि का प्रत्याशी चुनना आपकी मजबूरी नहीं होगी । यानी दिखावे पर ना जाएँ अपनी अकल लगाएँ । )

रविवार, 22 फ़रवरी 2009

नमक के बाद अब शिवराज का " कोयला सत्याग्रह "

लोकसभा चुनाव की दस्तक ने सियासी दाँव- पेंच तेज़ कर दिये हैं । मध्यप्रदेश में ज़बरदस्त बहुमत के साथ दोबारा सत्ता में लौटी भाजपा पर " सिर मुँडाते ही ओले पड़े" कहावत चरितार्थ होती दिखाई दे रही है । साम - दाम - दंड - भेद की नीति पर चल कर सत्ता सुख हासिल करने में भले ही भाजपा कामयाब रही हो ,लेकिन प्रकृति के कड़े तेवरों ने पार्टी के हाथ - पाँव फ़ुला दिये हैं ।

पूरे प्रदेश में पानी के लिए हाहाकार मचा है । हालाँकि सूरज ने तो अभी अपनी भृकुटी तानना तो छोड़िए , निगाहें तिरछी भी नहीं की हैं । पानी नहीं , तो बिजली नहीं । इधर चुनावी मौसम की गर्मी बढेगी , उधर बिजली -पानी की कमी से दो चार होती जनता का पारा चढेगा । राज्य सरकार ने हालात पर काबू पाने के सभी दरवाज़े बँद होते देख सारी मुसीबतों का ठीकरा केन्द्र सरकार के सिर फ़ोड़ने का मन बना लिया है ।

’पाँव- पाँव वाले भैया’ के नाम से मशहूर शिवराज सिंह ने अब गेंद केन्द्र के पाले में डालने के लिए ’सत्याग्रह’ का रास्ता चुना है । एक सत्याग्रह गाँधीजी कर गये और अब दूसरा शिवराज कर रहे हैं । वे नमक के लिए लड़े , ये कोयले के लिए । लेकिन भारत में "नमक" का नाता आन- बान - शान से है । मगर कोयले की शोहरत कुछ अच्छी नहीं.........! कोयले की दलाली में हाथ काले करने वालों को कभी भी अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता ।

शिवराज का कहना है कि आँख पर पट्टी बाँधे बैठी केन्द्र सरकार पर आग्रह , धरना , उपवास , प्रदर्शनों का तो कोई असर हो नहीं रहा । प्रधानमंत्री को राज्य के हालात से रुबरु कराने का हर नुस्खा नाकाम हो जाने के बाद अब वे ’न्याय यात्रा’ के माध्यम से बात पहुँचाएँगे । कल भोपाल से शुरु हुई उनकी यह न्याय यात्रा मंडीदीप , औबेदुल्लागंज , बुधनी , होशंगाबाद होते हुए इटारसी और सारणी (बैतूल) पहुँची । उन्होंने सारणी से पाथाखेड़ा तक का सफ़र पैदल तय किया । इस पाँच किलोमीटर की ऎतिहासिक यात्रा को नाम दिया गया - कोयला सत्याग्रह ।

वैसे कोयले और बिजली के कोटे में कटौती के अलावा भी कई ऎसे मसले हैं , जिन पर केन्द्र और राज्य सरकार में ठनी है । मुख्यमंत्री की शिकायत है कि सूखा राहत , समर्थन मूल्य पर खाद्यान्न की खरीद के लिए अनुदान , सर्व शिक्षा अभियान के लिए धन राशि समेत कई मदों में प्रदेश को केन्द्र की ओर से दी जाने वाली आर्थिक मदद समय पर नहीं मिल रही है । केन्द्र से पैसा मिलने की आस में ब्याज पर उठाया गया कर्ज़ भी दिन ब दिन बढता ही जा रहा है । इससे प्रदेश का बजट ही गड़बड़ा गया है । जिससे केन्द्र- राज्य के बीच की खाई गहरी होती जा रही है ।

प्रदेश सरकार के मुताबिक सर्व शिक्षा अभियान में इस साल 980 करोड़ रुपए खर्च किए गये । इसमें से 650 करोड़ रुपए केन्द्र से मिलना थे , मगर अब तक केवल 300 करोड़ रुपए ही मिले । इसी तरह समर्थन मूल्य पर खाद्यान्न खरीदी के लिए अक्टूबर 2008 से इस वर्ष मार्च तक मिलने वाले अनुदान की राशि 741 करोड़ रुपए भी अब तक नहीं मिल पाए हैं । राज्य सरकार ने अनाज खरीदी के लिए रिज़र्व बैंक से 13 फ़ीसदी पर कर्ज़ लिया है , जिस पर कर्ज़ की अदायगी समय से नहीं होने के कारण एक प्रतिशत का दांडिक ब्याज भी लग रहा है ।

मुख्यमंत्री के ’ कोयला सत्याग्रह’ को लेकर भाजपा उत्साहित है , ऎसे में काँग्रेस भी कब पीछे रहने वाली है । काँग्रेस ने पलटवार करते हुए शिवराज को पाँच सवालों पर खुली बहस की चुनौती दे डाली है । यानी तू डाल - डाल मैं पात- पात का खेल लगातार जारी है ।

बेचारी जनता कभी उस ओर आस भरी निगाहों से ताकती है , तो कभी इधर टकटकी लगाए निहारती है । नेता भी बेचारे क्या करें चुनाव होने तक टाइम पास भी करना है और जनता को भरमाए भी रखना है । हम तो दर्शक हैं । कभी मज़ा लेते हैं । कभी ताली पीटते हैं । मन आये तो वाहवाही करने लगते हैं या फ़िर पाला बदल - बदल कर अपना अनुभव बढाते रहते हैं । पब्लिक जो ठहरे .......! सो नौटंकी , खेल - तमाशा ,बाज़ीगरी जो चाहे कहिए , सभी कुछ जारी है ।
( चुनाव पूर्व चेतावनी - चोर- लुटेरों की फ़ौज से किसी को भी चुनने की बजाय " वोट" बेकार करने का हुनर सीखिए और इन तत्वों से छुटकारा पाइए )

रविवार, 15 फ़रवरी 2009

युवाओं के खिलाफ़ शिवराज का फ़रमान

मध्यप्रदेश सरकार ने एक बार फ़िर उदारता का मुज़ाहिरा किया है । दक्षिणपंथी विचारधारा के लेखकों और कलाकारों को दरकिनार कर वामपंथियों को सिर माथे बिठाने वाली भाजपा सरकार ने प्रदेश के दरवाज़े बाहरी छात्रों के लिए खोल दिए हैं । अब मप्र लोक सेवा आयोग की परीक्षा में प्रदेश से बाहर के उम्मीदवार भी हिस्सा ले सकेंगे । केबिनेट के इस फ़ैसले से राज्य के युवाओं के लिए प्रतिस्पर्धा कडी हो जाएगी ।

वर्ष 1996 से प्रदेश में नियम था कि पीएससी परीक्षा में वे ही प्रत्याशी शामिल हो सकेंगे जो मप्र के मूल निवासी होंगे । इसके लिए उम्मीदवार का मध्यप्रदेश से हायर सेकंडरी या डिग्री लेना ज़रुरी था । शिवराज सरकार के पिछले कार्यकाल में भी ये मामला केबिनेट में आया था , लेकिन कुछ मंत्रियों ने इस प्रस्ताव की जमकर मुखालफ़त की थी । उस वक्त मंत्रिमंडल सदस्य अखंडप्रताप सिंह ने इस मुद्दे पर अपनी ही सरकार को जमकर लताडा था ।

सुनने में आया है कि सामान्य प्रशासन विभाग ने इस बारे में अपने स्तर पर ही आदेश जारी कर दिए थे । मामला सामने आने पर उसे कानूनी जामा पहनाने के लिए केबिनेट में भेज दिया गया । इस मामले से दो बातें तो एकदम साफ़ हैं । पहली तो ये कि करोडों रुपए फ़ूँक कर कार्पोरेट कल्चर में रंग जाने को बेताब सरकार निहायत ही निकम्मी और काठ की उल्लू है । बजरबट्टू नेता पूरी तरह नौकरशाहों के शिकंजे में फ़ँसे हुए हैं । साथ ही इनके पास राज्य के विकास के लिए कोई समग्र सोच नहीं है । एक ही काम है इन नेताओं का ...। भज कलदारम , भज कलदारम हो गया प्रदेश का बंटाढारम .....।

प्रदेश में शिक्षा की स्थिति शर्मनाक हो चुकी है । बच्चों का भविष्य राम भरोसे है । मेरे घर के नज़दीक ,बल्कि उसे ऎसे कहें कि शिक्षा मंत्री के बंगले से महज़ दो - ढाई किलोमीटर की दूरी पर एक ऎसा स्कूल है , जहाँ एक कमरे में पाँच कक्षाएँ लगती हैं । यह स्कूल कम और रेलवे स्टेशन का क्लॉक रुम ज़्यादा नज़र आता है । पढाई की तो बात ही मत कीजिए । शिक्षिका के पसीने छूट जाते हैं ,बच्चों को चुप बैठाए रखने में । इतना ही नहीं प्रदेश का हर चौथा स्कूल एक शिक्षक के भरोसे है । डिस्ट्रिक्ट इन्फॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन की रिपोर्ट ने खुलासा किया है कि प्रदेश के 84 हज़ार से ज़्यादा प्राइमरी स्कूलों में से 27 हज़ार में महज़ एक टीचर तैनात है ।

स्कूली शिक्षा के हाल बताते हैं प्रदेश की शिक्षा का स्तर , जबकि दूसरे राज्यों में पढाई का स्तर काफ़ी ऊँचा है । ज़ाहिर तौर पर ऎसे में प्रतियोगी परीक्षाओं में दूसरे राज्यों के छात्र बाज़ी मार ले जाएँगे । बढते क्षेत्रवाद के चलते दूसरे प्रदेशों में मप्र के युवाओं के लिए वैसे भी अवसर ना के बराबर ही हैं । अपने ही मतदाताओं के हक पर कुठाराघात करने वाली सरकार की अकल पर पडे पाले ने लोगों को सन्न कर दिया है ।

इस मसले पर पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने भाजपा पर युवाओं के हितों को तिलांजलि देने का आरोप लगाते हुए शिवराज सिंह को पत्र लिखा है । मुख्यमंत्री ने दलील दी है कि हाईकोर्ट का आदेश मानना सरकार की मजबूरी थी । इस सफ़ाई ने सरकार की निर्णय क्षमता पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है । सरकार युवाओं के हित में कानूनी लडाई लडने के लिए इच्छा शक्ति प्रदर्शित कर सकती थी । मामले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे सकती थी ।

युवा हैरान हैं सरकार के फ़ैसले से । वे जानना चाहते हैं कि यदि उन्हें अपने ही प्रदेश में ठौर नहीं मिलेगा तो कहाँ जाएँगे......? जो सरकार जनता की पालनहार होने का ,उसके दुख दर्द समझने का दावा करती हो ,यदि वही दर्द देने पर आमादा हो जाए , तो आम जनता अपनी फ़रियाद लेकर किसके पास जाए........????? गरीबों की सुनवाई नहीं । बिजली नहीं ,पानी के लिए पूरे प्रदेश में हाहाकार । किसान बेज़ार । कर्मचारी सरकार की वायदा खिलाफ़ी से खफ़ा । और अब युवाओं के खिलाफ़ जाता ये सरकारी फ़रमान .....। क्या करना चाहती है ये सरकार ....????? दो महीनों में ये हाल .....। " इब्तदाए इश्क है रोता है क्या , आगे - आगे देखिए होता है क्या ? "

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

मध्यप्रदेश के नौनिहाल भूख से बेहाल

बेस्ट ई-गवर्नेंस का प्रतिष्ठापूर्ण अवार्ड हासिल कर पूरे देश में नाम कमाने वाले मध्यप्रदेश के नौनिहाल भूख से मर रहे हैं । हाल ही में दिल्ली से आई बाल संरक्षण अधिकार आयोग की टीम ने सतना ज़िले के मझगवां जनपद में किरहाई पोखरी गांव में कुपोषण के जो हालत देखे , उससे लगता है कि पिछले साल प्रदेश के कई ज़िलों में कुपोषण से हुई मौतों के बावजूद राज्य सरकार ने कोई सबक नहीं लिया ।

टीम के सदस्यों के मुताबिक गांव के हालात ’दयनीय’ शब्द को भी लजाते हैं । अपनी माताओं की छाती से चिपके ज़्यादातर मासूम क्षेत्र मे कुपोषण के फ़ैलते आतंक की कहानी बयान करते हैं । बच्चों के शरीर महज़ "हड्डियों के ढांचे" हैं । आलम ये है कि इन मासूमों की उम्र का अंदाज़ा लगा पाना भी मुश्किल है । गांव में दो से तीन साल तक के कई बच्चे हैं जो अब तक अपने पैरों पर चल भी नहीं पाते । गली - मोहल्ले में किलकारियां भरकर खेलने की उम्र के ये बच्चे अपनी मांओं के सीने से चिपके बेवजह रोते रहते हैं । टीम को गांव में ढूंढे से एक भी स्वस्थ बच्चा नहीं मिला । गांव के हालात देखकर ऎसा लगता था मानो यहां की महिलाएं कुपोषित बच्चे पैदा करने के लिए अभिशप्त हैं ।

आयोग की चाइल्ड स्पेशलिस्ट इलाके के सत्तर फ़ीसदी बच्चों को कुपोषित बताती हैं । वे हैरान हैं कि मुख्य मार्ग के नज़दीक बसे गांव में हर दूसरा बच्चा कुपोषण की पहली और दूसरी श्रेणी का कैसे हो सकता है ...? सरकारी दावे चाहे जो हों हकीकत से मीलों दूर हैं । वास्तविकता भयावह है और सरकारी आंकडों में दर्ज़ योजनाओं की सफ़लता की पोल - पट्टी खोल कर रख देती है । आंगनबाडी कार्यकर्ता , प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र , स्वयंसेवी संगठन ,यूनीसेफ़ जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के प्रयासों का कच्चा चिट्ठा हैं ये नौनिहाल ....।

प्रदेश में छह महीने पहले कुपोषण से मौतों का मामला गरमाया था । मीडिया में खबरें , विधान सभा में हंगामा , आरोप - प्रत्यारोप और कई जांच कमेटियां ....। इस सारी कवायद का नतीजा निकला शून्य । पुराना सब छोड भी दें पिछले छह महीनों में ही ईमानदारी दिखाई होती , तो हो सकता है जांच टीम को क्षेत्र का हर बच्चा हंसता -मुस्कराता तंदुरुस्त नज़र आता ।लेकिन हमारी रग - रग में बेईमानी समा चुकी है । एक राजा ने अपने राज्य में ईमानदारी की स्थिति का पता लगाने के लिए मुनादी करा दी कि सूखे तालाब में अमावस्या की रात सभी लोगों को अनिवार्य रुप से एक - एक लोटा दूध डालना होगा । अगले दिन सूरज उगने पर तालाब में पानी के सिवाय कुछ नहीं था । रात के अंधेरे में ईमान भी सो जाता है ।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित एक समिति ने वर्ष 2006 कहा था कि बच्चों की मृत्यु दर के मामले में मध्यप्रदेश के श्योपुर ज़िले की तुलना अफ़्रीका के सबसे ग़रीब और पिछड़े इलाकों से की जा सकती है । जाँच समिति ने पाया कि भुखमरी प्रभावित सबसे अधिक बच्चे सहरिया जनजाति के हैं । इलाके के हर 100 बच्चों में से 93 कुपोषण का शिकार हैं।

वर्ष 2007 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने चेताया था कि भारत में बच्चों के कुपोषण की दर दुनिया में सबसे अधिक है । मुख्यमंत्रियों को भेजे पत्र में मनमोहन सिंह ने कहा कि पोषण कार्यक्रम का 'क्रियान्वयन बेहद ख़राब तरीके' से किया जा रहा है। इसी तरह संयुक्त राष्ट्र बालकोष यानि यूनिसेफ़ की रिपोर्ट दक्षिण एशिया के बच्चों में कुपोषण की समस्या को रेखांकित करती है । रिपोर्ट के मुताबिक कुपोषित बच्चों की सबसे बड़ी संख्या भारत में है ।

यूनिसेफ़ की रिपोर्ट कहती है कि पांच साल से कम के 25 प्रतिशत बच्चों के पास खाने को पर्याप्त भोजन नहीं है और दुखद तथ्य ये है कि ऐसे बच्चों में से 50 प्रतिशत बच्चे सिर्फ़ तीन देशों भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में रहते है । रिपोर्ट में भारत और चीन की तुलना की गई थी । इसमें कहा गया था कि बच्चों को पर्याप्त भोजन मुहैया कराने की दिशा में पिछले 15 वर्षों में चीन में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की है जबकि भारत का प्रदर्शन अत्यंत ख़राब रहा है । रिपोर्ट में भारत में पांच साल से कम के आधे से अधिक बच्चों को पर्याप्त भोजन नहीं मिलने पर भी चिंता जताई गई है ।

बुधवार, 11 फ़रवरी 2009

प्रेम के गुलाब और गुलाबी चड्डी का विवाद

लीजिये साहब , देश में सबसे गंभीर मुद्दे पर जमकर बहस शुरु हो चुकी है । लोग आमने -सामने हैं । भारत - पाक मसले पर चुप्पी लगाने वाले भी अब खुलकर सामने आ गये हैं । देश इस वक्त सबसे ज़रुरी मसले पर बहस - मुबाहिसे में मसरुफ़ है । मैंने तो अब तक चूहे और हाथी की चड्डी का किस्सा ही सुना था । एक ज़माना वो भी था जब सरेआम चड्डियां तार पर सुखाने पर भी पाबंदी थी । लेकिन अब दौर आज़ादी का हैं । लोग खाकी चड्डी से गुलाबी चड्डी तक पर विचार - विमर्श करने से नहीं चूक रहे ।

" जंगल - जंगल पता चला है चड्डी पहन कर फ़ूल खिला है ।” इस गीत ने चड्डी को एक नई पहचान दी । जिस शब्द को उच्चारते लोगों की ज़ुबान लटपटा जाती थी , उससे बचने के लिए ही पट्टेदार चड्डी को अंडरवियर पुकार कर हम गर्व महसूस करना सीखे । ये चड्डी शब्द के प्रति हमारी हिकारत ही थी , जो "खाकी चड्डी" अपशब्द की तरह इस्तेमाल होने लगा । आज वही चड्डी फ़िर से नए विचार के साथ हमारे बीच है । कहने वाले कह सकते हैं "गुलाबी चड्डी विरोध अभियान नहीं एक विचार है ।"

वास्तव में ये भारत बनाम इंडिया का मसला है । वहां चड्डियां छिपाई जाती हैं यहां चड्डियां दिखाई जाती हैं। गनीमत समझो श्रीराम सेना वालों , जो इन आंदोलनकारियों की बुद्धि भगवान ने फ़ेर दी और आप सबकी इज़्ज़त धूल में मिलने से बच गई । हो सकता था ये लोग गुलाबी चड्डियां गिफ़्ट करने की बजाय खुद धारण कर विरोध जुलूस निकालने पर आमादा हो जाती और विभिन्न सेनाओं के बांकुरों के सामने आ धमकतीं ....। तब क्या होता ....??????

भई वेलेंटाइन डे मनाने दो, इन बेचारियों को ....। आखिर बुराई ही क्या है.......? देश में दो तरह के नागरिक हैं । हिन्दुस्तानी और इंडियन ,अब इंडियन कुछ करना चाहते हैं , तो हिंदुस्तानियों को क्या परेशानी । वो चड्डी गिफ़्ट करें, हवा में उछालें , जला डालें , पहनें या .......। आपकी बला से ।

पूरा देश गुलाबी चड्डियों में उलझ कर रह गया है । जो गिफ़्ट के बक्से सजा रहे हैं ,वो तमतमा रहे हैं । खबरिया चैनल आने वाले कई दिनों का रसद पानी पाकर गुलाबी हुए जा रहे हैं । हम जैसे बुद्धू "चड्डी पुराण" सुन - सुन कर ही मारे शर्म के लाल नहीं "गुलाबी" हुए जा रहे हैं । भई क्या करें , लाल होने की इजाज़त इस वक्त किसी को नहीं है । इस वक्त देश का एकमात्र रंग - गुलाबी.....। इसलिए दुनिया की हर शह गुलाबी ..... , गाल गुलाबी , नैन गुलाबी .......।

हाल ही में पब कल्चर पर एक आलेख हाथ लगा । उसकी मानें तो पब और झुग्गी - बस्ती की कलारी में ज़्यादा फ़र्क नहीं है । कलारी पर दिन भर मेहनत मशक्कत के बाद थक कर चूर हुए मज़दूर देशी ठर्रा हलक से नीचे उतार कर सारी दुनिया को भूल जाना चाहते हैं । सस्ती शराब बेचने वाली कलारियों को मालिक वर्ग जान बूझकर प्रोत्साहित करता रहा है , ताकि कारखानों और निर्माण कार्यों में हाडतोड परिश्रम के बाद मज़दूर अपनी ज़िंदगी को नशे में गर्क कर सके । काम के दौरान उपजे मनोविकारों और अपनी ज़िन्दगी के अभावों को भुला सके । होश में आने के बाद एक बार फ़िर जोश के साथ काम में जुट जाए । पब में जाने वाले भी बौद्धिक कामगार होते हैं ।

औद्योगिक विकास का "पब कल्चर और शराब खानों" से सीधा संबंध है और इसका सीधा असर उत्पादकता पर पडता है । नई अर्थव्यवस्था के हिमायती पब कल्चर को बदलते भारत की तस्वीर के तौर पर देखते हैं । उनकी निगाह में सार्वजनिक रुप से महिलाओं का शराब पीना या स्त्री - पुरुषों का देर रात तक साथ साथ मौज - मस्ती करना समाज में आ रहे खुलेपन की निशानी है ।

वे नैतिक मूल्यों और पुरानी मर्यादा को गैरज़रुरी बताते हुए दलील देते हैं कि अगर काल सेंटर [बीपीओ]सेक्टर के उछाल को कायम रखना है , अगर श्रम शक्ति में महिलाओं को बराबर का भागीदार बनाना है , यदि उत्पादकता बढाने के लिए दफ़्तरों और शोरुम्स में महिलाओं का रात में काम करना ज़रुरी है , तो समाज को महिलाओं के लिए ’नाइट लाइफ़’ की गुंजाइश निकालना ही होगी । जो लोग पूरे हफ़्ते जम कर काम करेंगे , उनके लिए अगर वीक एंड पर विशेष आमोद - प्रमोद का इंतज़ाम नहीं होगा तो वे उसी गति और ऊर्जा के साथ काम नहीं कर पाएंगे ।
अपने को संभालो मित्र !
अभी ये कराहें और तीखी
ये धुआं और कडुवा
ये गडगडाहट और तेज़ होंगी ,
मगर इनसे भयभीत होने की ज़रुरत नहीं,
दिन निकलने से पहले ऎसा ही हुआ करता है ।

चलते - चलते एक और जानकारी -

वैसे ये खबर काबिले गौर है संत वेलेंटाइन के शहादत दिवस को प्रेम दिवस के रुप में मनाने वालों के लिए । पिछले साल सऊदी अरब की धार्मिक पुलिस ने प्रेमियों के त्यौहार वैलेंटाइन्स डे से पहले देश में लाल गुलाबों समेत सभी अन्य तरह के वैलेंटाइन्स उपहारों की ख़रीद और बिक्री पर रोक लगा दी थी । स्थानीय अख़बार ने दुकानदारों के हवाले से लिखा कि अधिकारियों ने उन्हें प्रेम के प्रतीक लाल गुलाब और उपहारों को लपेटने के कागज़ समेत लाल रंग के सभी सामान को हटाने को कहा । सऊदी अधिकारी के मुताबिक दूसरे सालाना जलसों की ही तरह वैलेंटाइन्स डे भी इस्लाम विरोधी है । अधिकारियों का यह भी मानना है कि वैलेंटाइन्स डे पुरुष और महिलाओं के विवाहेतर संबंधों को बढ़ावा देता है जो इस संकीर्ण समाज में माफ़ी के काबिल नहीं है ।

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

देश को ’राम’ नहीं रोटी चाहिए.......

लोकसभा चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी ने एक बार फिर राम मुद्दे को हवा दी है नागपुर में राष्ट्रीय परिषद की बैठक में भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने अयोध्या में भगवान राम का भव्य मंदिर बनाने का शिगूफ़ा छोड कर मतदाताओं की नब्ज़ टटोलने की कोशिश की है । " कोई माँ का लाल भगवान राम में हमारी आस्था और निष्ठा को डिगा नहीं सकता "
राजनाथ सिंह ने कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए की सरकार पर निशाना साधा कि पिछले पांच सालों में केंद्र सरकार ने राम जन्मभूमि विवाद सुलझाने के लिए पाँच मिनट का समय भी नहीं दिया । राजनाथ सिंह ने बडी ही चतुराई भरी चाल चली है । शब्दों पर गौर करें तो लगेगा कि उन्होंने काफ़ी सफ़ाई से मतदाताओं को भरमाने की कोशिश की है । बकौल राजनाथ "जिस दिन भाजपा को अपने बलबूते बहुमत मिलेगा, पार्टी इस मुद्दे पर एक क़ानून लाएगी ।" यानी ना नौ मन तेल होगा ना राधा नाचेगी ।

मंदी की मार से बेहाल लोगों को रोज़गार के लाले पडे हैं और बीजेपी को कुर्सी की चाहत में राम याद आने लगे हैं । लोगों के मुंह से निवाले छिन रहे हैं और देश की दूसरी सबसे बडी पार्टी भव्य राम मंदिर बनाने का सपना जनता की आंखों में भर रही है । गरीब की दो वक्त की रोटी का जुगाड नहीं है और धर्म के नाम पर लोगों की भावनाओं को अपनी झोली में समेटने की जुगत भिडाई जा रही है । सही मायनों में इस देश को राम की नहीं रोज़ी की दरकार है ,रोटी की ज़रुरत है -"भूखे भजन ना होवे गोपाला , ये ले तेरी कंठी - माला ।" भूखे पेट राम नहीं रोटी याद आती है । गरीब के लिए ’राम’ रोटी में बसते हैं । अगर लोगों को रोटी देने का प्रबंध कर दिया जाए , तो भी बीजेपी को ’राम’ मिल ही जाएंगे ।

गौरतलब है कि 1998 में भारतीय जनता पार्टी ने जब केंद्र में अन्य पार्टियों के सहयोग से सरकार बनाई थी, उस समय उसने अयोध्या, जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 और समान आचार संहिता जैसे विवादित मुद्दों को दरकिनार कर दिया था । लेकिन लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी ने एक बार फिर राम मुद्दे पर बयान देना शुरू किया है । राम मंदिर के निर्माण का मामला विवादास्पद रहा है और हर बार चुनावों के समय विवाद गहरा जाता है । दिलचस्प बात है कि अयोध्या के ज़्यादातर मतदाताओं की नज़र में चुनाव का मुख्य मुद्दा 'विकास' है, न कि 'मंदिर निर्माण' । राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि दरअसल अयोध्या का आम आदमी मंदिर मुद्दे से कभी जुड़ ही नहीं पाया ।

अयोध्या के साधु-संतों ने भी भाजपा नेताओं को जमकर लताडा है । वे मानते हैं कि चुनाव के वक्त भाजपा को राम मंदिर याद आने लगता है । लेकिन सत्ता में आने के बाद मंदिर तो दूर राम भी याद नहीं रहते । हनुमान गढ़ी के महंत भवनाथ दास ने तो नागपुर में राम मंदिर की बात करने वालों को "वोटों का सौंदागर" तक करार दे डाला । गुस्साये महंत कहते हैं कि वोटों के लिए अब ये भगवान श्रीराम का भी सौदा करने निकले हैं। अब चुनाव आते ही भगवान राम के नाम पर राजनैतिक सौदेबाजी में जुट गए हैं। इन्हीं लोगों के कारण मंदिर निर्माण का मुद्दा हाशिए पर चला गया। सत्ता में थे तो अयोध्या झांकने तक नहीं आए। अब सत्ता की चाहत में मंदिर के नाम पर ठगने आ रहे हैं।

राम लहर पर सवार होकर केन्द्र की सत्ता में आ चुकी भारतीय जनता पार्टी को रह-रहकर सत्ता सुंदरी की याद सताने लगाती है । ऎसे में रह - रह कर याद आते हैं भगवान श्रीराम और उनका भव्य मंदिर । उत्तर प्रदेश में सबसे बुरी स्थिति में भाजपा ही है। जिसे देखते हुए संभवत: पार्टी ने एक बार फिर मंदिर का मुद्दा उठाया है। पर यह मुद्दा न राजनैतिक दलों को रास आ रहा है , न ही साधु-संतों और आम जनता को । राम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष महंत नृत्य गोपाल दास ने कहा-यह तो राजनैतिक बयान है। अयोध्या में राम का मंदिर तो है ही और पूजा भी हो रही है। भव्य राम मंदिर बनने की बात का अब कोई महत्व नहीं रह गया है। जब हिन्दू मानस जगेगा तो भव्य राम मंदिर का निर्माण हो ही जाएगा।

सरयू कुंज मंदिर के महंत युगल किशोर शरण शास्त्री ने कहा-राजनाथ सिंह का यह बयान भ्रमित करने वाला और धोखा देने वाला है। यह अदालत की अवमानना भी है। पार्टी असली मुद्दों बेरोजगारी, गरीबी और किसानों की उपजाऊ जमीन के अधिग्रहण को लेकर कभी आगे नहीं आती।

दूसरी ओर अयोध्या की हनुमान गढ़ी के महंत ज्ञान दास भावुक हो कर कहते हैं कि उन्हें ख़ून से सना नहीं , बल्कि दूध से बना मंदिर चाहिए । मंदिर आम राय से बने तभी उचित होगा । मुसलिम समुदाय की सहमति से निर्माण हो तभी भव्य मंदिर बन पाएगा। किसी को भी दुखी करके बनाए गए पूजा स्थल में ईश्वर का वास नहीं हो सकता ।

भाकपा बीजेपी के इस बयान में वोटों की सियासत देखती है । उसका कहना है कि इस पार्टी के पास देश के विकास का कोई माडल नहीं है । ये लोग अपने फ़ायदे के लिए राम का नाम बदनाम करने में जुटे हैं।

देश इस समय एक साथ कई तरह के संकटों से दो - चार हो रहा है । ऎसे वक्त में नई और व्यापक सोच की आवश्यकता है , जो ना केवल देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर ला सके ,बल्कि समाज के विभिन्न वर्गों में वैमनस्य की खाई को पाट सके । प्रजातंत्र की नींव को मज़बूत करने के लिए भ्रष्टाचार जैसी लाइलाज बीमारी का इलाज ढूंढना ज़रुरी है ।

लोगों का भरोसा न्यायपालिका ,कार्यपालिका और विधायिका से जिस तेज़ी से उठ रहा है ,ये भी बेहद चिंता का विषय है । इस विश्वास को दोबारा कायम करना चुनौती भरा और दुरुह काम है । राजनीतिक दलों की पहली चिंता देश हित होना चाहिए । देश के नागरिकों की खुशहाली , सुशासन और ईमानदार समाज पार्टियों का एजेंडा होना चाहिए । नेताओं को ये याद रखना होगा कि देश है तभी तक उनकी सियासत है ।

शनिवार, 7 फ़रवरी 2009

मध्यप्रदेश में बीजेपी की "कॉर्पोरेट सरकार"

किसानों , गरीबों और कर्मचारियों का हितैषी होने का दावा करने वाली बीजेपी क्या बदल रही है ? प्रमोद महाजन जिस कॉर्पोरेट कल्चर को अपनाने का सपना लिए रुखसत हो गये क्या भाजपा ने उसे पूरी तरह अंगीकार करने का मन बना लिया है ? चाल ,चरित्र और चेहरे की बात करने वाला राजनीतिक दल क्या अब "कॉर्पोरेट गुरुओं" के इशारों पर चलेगा ? मध्यप्रदेश के मंत्रियों की पचमढी में आयोजित "पाठशाला" की खबर बताती है कि जननायक अब सीईओ संस्कृति के रंग में रंगने को बेताब हैं ।

प्रबंधन गुरुओं और प्रशासकों ने मंत्रियों को बेहतर नेतृत्व और कामकाज की कमान अपने हाथ में रखने के गुर सिखाये हैं । उबासी लेते नेताओं को इस अफ़लातूनी कवायद से वाकई कुछ हासिल हो सकेगा ...? आम जनता के लिए पैसे की तंगी का दुखडा सुनाने वाली सरकार ने दो दिन के लिए पचमढी की शानदार ग्लेन व्यू होटल को स्कूल में बदल दिया । मगर बुनियादी सवाल यह है कि क्या लोकतंत्र में मंत्री सीईओ हो सकता है ,जो उन्हें कॉर्पोरेट सेक्टर का एक्सपोज़र दिया जाए ? पब कल्चर को पाश्चात्य बताकर आसमान सिर पर उठाने वाली पार्टी कॉर्पोरेट कल्चर अपनाने के लिए इतनी उत्साहित क्यों है ?

विभाग अध्यक्ष ,सचिव ,सलाहकार बगैरह के रुप में बहुत से प्रबंधक मंत्रियों के अधीन रहते हैं । मंत्री का दायित्व नीति निर्धारण का है । कुशल प्रशासक के तौर पर प्रख्यात एम. एन. बुच की राय में मंत्री का काम नीति निर्धारण के बाद उसके क्रियान्वयन की ज़िम्मेदारी लेना है । वास्तव में मंत्रियों को सिर्फ़ यही पाठ पढाने की ज़रुरत है । नेतृत्व की कला मंत्री बखूबी जानते हैं । ये सभी राजनीति की रेलमपेल में टिकट लेने से लेकर चुनाव जीतने तक हर दांवपेंच आज़मा चुके हैं । केबिनेट में दाखिला पाना भी बच्चों का खेल नहीं ....। गलाकाट स्पर्धा में अव्वल नंबर हासिल करने के बाद ही मंत्री की कुर्सी मिल पाती है । उठापटक के बावजूद सियासी मैदान में "अंगद की तरह" जमे रहना हंसी मज़ाक नहीं है ।

राजनीति की खाक छानने वाले "गुरु घंटालों" को नई पीढी के सुविधाभोगी "कॉर्पोरेट गुरु" भला क्या पाठ पढा सकेंगे ?ये कहते "कागद की लेखी" , मंत्री कहता "आंखन की देखी "। नौंवी मर्तबा विधायक बने बाबूलाल गौर को भला ’कल का आया’ क्या नेतृत्व- कला सिखाएगा ?कई तरह की पंचायतों के ज़रिये अपनी "टारगेट-ऑडियंस" की पहचान कर अपनी सफ़ल मार्केटिंग करने वाले मुख्यमंत्री को एडवर्टाइज़िंग और मार्केटिंग की बारीकियां सीखने की क्या ज़रुरत है ।

यह पाठशाला सरकार की छबि गढने और जनता को भुलावे में रखने की कोशिश से इतर कुछ नहीं है । धोती - कुर्ते से सूट -टाई के सफ़र तक ही बात ठहरे तो कोई चिंता नहीं ,लेकिन पहनावे के साथ लोकतंत्र पर कॉर्पोरेट जगत का रंग चढने लगे तो ये चौकन्ना होने का सबब है ।

वैसे तो इस वक्त हर जगह घालमेल मचा है । अभिनेता सियासी गलियारों में चहल कदमी कर रहे हैं । नेता रुपहले पर्दे पर धूम मचाने को उतावले हैं । उद्योगपति प्रधानमंत्री पद का दावेदार तैयार करने में मसरुफ़ हैं । जिन्हें सीखचों के पीछे होना चाहिए वो कानून बनाने में भागीदारी निभा रहे हैं । अदालतों को न्याय देने की बजाय नालियों, सडकों और छोटे - मोटे मुद्दों पर नोटिस जारी करने से फ़ुर्सत नहीं है ।
कुल मिला कर हर चीज़ वहां ही नहीं है ,जहां उसे होना चाहिए । मुल्क की हालिया परिस्थितियों के सामने आम आदमी की बेबसी को दुष्यंत कुमार के शब्दों की चुभन ही बयान कर सकती है ।
भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ,
आजकल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दआ

गिड़गिडाने का यहाँ कोई असर होता नहीं
पेट भर कर गालियाँ दो आह भर कर बद-दुआ

इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो
जब तलक खिलते नहीं हैं कोयले देंगे धुआँ
वैसे आदर्शवाद का सामान्य रूप से राजनीतिक क्षेत्र में क्षरण हुआ है तो भारतीय जनता पार्टी में भी वो क्षरण दिखाई पड़ता है । भाजपा को एक जनआधारित काडर संगठन बनना था मगर ये हुआ नहीं । सबसे बड़ी त्रासदी ये है कि राजनीतिक दल मूल्यों और मुद्दों से भटक कर केवल सत्ता के निरंकुश खेल के हिस्से बन गए हैं । भाजपा भी इसकी अपवाद नहीं है । आज की तारीख़ में सभी पार्टियों में 19-20 का फ़र्क रह गया है । झंडे - बैनरों के फ़र्क के अलावा कांग्रेस - भाजपा में अंतर करना मुश्किल हो चला है । इस पार्टी में नेतृत्व और समर्थक के चिंतन और व्यवहार के स्तर पर बहुत अंतर आ चुका है ।

भाजपा की आज तक की यात्रा में हर मोड़ पर उसके फ़ैसलों को देखें तो उसमें एक ऐसा सूत्र है जो उसके मूल रोग को प्रगट करता है. वह है- तदर्थ या तात्कालिकता की राजनीति । इसी से भाजपा संचालित होती रही है । चाहे विश्वनाथ प्रताप सिंह के बोफोर्स मुद्दे का आंदोलन हो या अयोध्या का मसला या राजग के शासन का कार्यकाल या आजकल की घटनाएं हों उनमें भाजपा तात्कालिकता के चलते लोक लुभावन मुद्दों के पीछे भागने की राजनीति करती रही है ।

इसका नतीजा यह है कि सांप के केंचुली बदलने की तरह ही भाजपा ने विचारधारा को उतार फ़ेंकने में कभी गुरेज़ नहीं किया । गठबंधन के राजनीतिक धर्म का हवाला देकर सिद्धांतों से समझौता किया । जिससे भाजपा के विचारवान समझे जाने वाले नेताओं की कलई खुल गई और वैचारिक साख नष्ट हो गई । देखना दिलचस्प होगा कि मंदी के दौर में घोटालों और घपलों का कॉर्पोरेट कल्चर प्रदेश में क्या गुल खिलाता है........?

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

चोर - चोर मौसेरे भैय्या ....


राजधानी में बुधवार की सुबह हुई हृदय विदारक घटना ने झकझोर कर रख दिया । गरीबी के आगे बेबस पिता ने अपनी चार बेटियों को ज़हर देने के बाद चाकू से गला रेत दिया । उसने अपनी गर्भवती बीवी की जान लेने की कोशिश के बाद खुद के पेट में चाकू मार लिया । दो बच्चियॊ ने तो घटना स्थल पर ही दम तोड दिया । दो लडकियां गंभीर हालत में अस्पताल में हैं और कल महिला की सांसें भी थम गईं । करीब पचास साल के शफ़ीक मियां होश में आ गये हैं लेकिन सदमे के कारण फ़िलहाल कुछ बताने की हालत में नहीं हैं ।

पिंजरे बनाकर रोज़ाना करीब सत्तर रुपए कमाने वाला शफ़ीक सात बच्चों का पेट भरने में खुद को लाचार पा रहा था । मुफ़लिसी से जूझ रहे परिवार में आठवें मेहमान के आने की खबर ने भूचाल ला दिया । होश में आई एक बच्ची का बयान है कि पापा अक्सर कहते थे कि खाने - पीने का ठीक तरह से इंतज़ाम ना कर सका तो एक दिन सब को मार दूंगा । हैरानी की बात है कि उसने अपने तीनों बेटों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया ।

इस घटनाक्रम ने एक बार फ़िर कई सवालों पर पडी गर्द हटा दी है । सरकार बीपीएल कार्ड धारकों को साढे चार रुपए किलो चावल ,तीन रुपए किलो गेंहूं देती है । केवल भोपाल ज़िले में डेढ लाख कार्डधारी हैं । इसी तरह अंत्योदय योजना में दो रुपए किलो गेंहूं , तीन रुपए किलो चावल और साढे तेरह रुपए किलो शकर दी जाती है । गरीबी से बेज़ार लोगों के जान देने का सिलसिला सवाल खडा करता है कि इन योजनाओं का फ़ायदा किसे मिल रहा है ?

हालात बयान करते हैं कि महंगाई के दौर में शफ़ीक के लिए परिवार की परवरिश नामुमकिन होती जा रही थी । ऎसे में परिवार बढाने की नासमझी का औचित्य भी समझ से परे है ...? क्या परिवार का विस्तार अपने पैरों पर कुल्हाडी मारने वाला कदम नहीं कहा जाएगा ? जब पढा - लिखा तबका परिवार की तरक्की के लिए दकियानूसी उसूलों को झटक कर अलग कर सकता हैं ,तो गरीब तबका क्यों नहीं इस दलदल से बाहर निकल आता ?

एक बडा और अहम सवाल ये भी है कि सरकार ने परिवार कल्याण के कई कार्यक्रम चलाये हैं । इस तरह के मामले इन योजनाओं का कच्चा चिट्ठा खोल कर रख देते हैं । योजना की विफ़लता पर क्या उस इलाके के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र ,स्वास्थ्य कार्यकर्ता , अधिकारी और अन्य ज़िम्मेदार लोगों के खिलाफ़ सख्त कार्रवाही नहीं होना चाहिए ? गरीब भूखे पेट सोये और मजबूरन मौत को गले लगाये , तो गरीबों के लिए चलाई जा रही योजनाओं पर पुनर्विचार करने की ज़रुरत है । लोगों को दीन - ईमान और दुनियादारी का फ़र्क समझाना ज़रुरी है । ये बताना लाज़मी है कि पेट की आग बुझाने के लिए मज़हबी बातें काम नहीं आती । पेट भरने के लिए तो रोटी ही चाहिए । हकीकत से रुबरु होकर ही हालात का सामना किया जा सकता है । बात - बात पर फ़तवा जारी करने वाले धर्म गुरु इस मुद्दे पर सामने क्यों नहीं आते ...?

समाज को तरक्की पसंद बनाने के लिए उसकी आबादी बढाना ही काफ़ी नहीं होता । इंसान और जानवरों में फ़र्क होता है । पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में कदम -कदम पर पैसे की दरकार होती है। "ज़्यादा हाथ ज़्यादा काम" का गणित आज के दौर में सही नहीं कहा जा सकता । वक्त बदला है ,तो सोच भी बदलना होगी ।

सरकारी मदद से चलने वाले तमाम एनजीओ के वजूद को लेकर भी ये घटना सवाल खडे करती है । राजधानी में ऎन सरकार की नाक के नीचे इतना दिल दहलाने वला हादसा हो जाना कोई मामूली बात नहीं है । यह घटना समाज के मुंह पर झन्नाटेदार चांटे के माफ़िक है । साथ ही उन नेताओं से भी कैफ़ियत मांगती है , जो गरीबों के हिमायती होने का दम भरते हैं । वोट की राजनीति में तादाद बढाने के लिए ज़ोर देने वाले नेता चुनाव के बाद इन बस्तियों का रुख भी नहीं करते । इन गरीबों को उनके हाल पर छोड देते हैं घुट घुट कर जीने के लिए या कहे तिल - तिल कर मरने के लिए ...। कौन सुनेगा इन मज़लूमों की आवाज़ ....।

धर्मगुरु मज़हबी किताबों का हवाला देकर आबादी बढाने का नारा तो देते हैं , मगर ये नहीं बताते कि इनका पालन - पोषण कैसे हो ? नेता वोट बैंक बनाते हैं पर बदले में क्या देते हैं ? गरीबों के लिए कागज़ों पर योजनाएं कई हैं और आंकडे बताते हैं कि बढिया तरीके से अंजाम भी दी जा रही हैं । लेकिन वास्तविकता इन कागज़ी बयानबाज़ी के कोसों दूर है । मध्याह्न भोजन के नाम पर कीडे - मकौडों से भरा दलिया या पंजीरी ....?

बीपीएल कार्ड पर सस्ते अनाज का कोई ठिकाना ही नहीं । राशन की दुकानों पर ताला । राशन का अनाज गोदामों से सीधा व्यापारियों की दुकानों पर उतारा जाता है । नेता , अधिकारी और ठेकेदार एक बार फ़िर यहां भी साथ - साथ ....। बचपन में इमरजेंसी के दौरान रेडियो पर ये गाना सुना था ,शायद उस वक्त इसके बोल समझ में नहीं आते थे ,लेकिन आज के दौर में एकदम सटीक है - "चोर - चोर मौसेरे भैय्या - इनका तो भगवान रुपैय्या ....।"

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2009

किसान की बदहाली पर विकास की इमारत

खेती को फ़ायदे का व्यवसाय बनाने का नारा लगाते हुए "किसान का बेटा शिवराज सिंह" दोबारा गद्दीनशीं हो गए लेकिन प्रदेश के किसानों के हालात ना पिछले पांच सालों में बदल सके और ना ही हाल फ़िलहाल इसकी कोई संभावना दिखाई देती है । सूखे और मौसम की मार से जूझते किसान बिजली के संकट से भी बेहाल हुए जा रहे हैं । कहीं खाद - बीज की किल्लत है , तो कभी नहरों में सिंचाई के लिए पानी और पंप चलाने के लिए बिजली की समस्या ।

खेती - किसानी को लाभकारी बनाने की लम्बी - चौडी बातें तो की जा रही हैं । ज़मीनी हकीकत एकदम अलग है । प्रदेश का अन्नदाता दाने - दाने को मोहताज है । फ़सल की वाजिब कीमत पाने के लिए किसानों को सडक पर आना पड रहा है । सरकारी महकमों में फ़ैले भ्रष्टाचार और कर्ज़ के बोझ तले दबे किसान खुदकुशी ले लिए मजबूर हैं ।

अपनी ताकत का एहसास कराने के लिए हाल ही में सूबे के करीब दो लाख किसान भोपाल में जमा हुए । भूमिपुत्रों ने सरकार को चेताया कि प्रदेश की अस्सी फ़ीसदी आबादी किसानों की है । उनकी आवाज़ लम्बे वक्त तक अनसुनी नहीं की जा सकती । भारतीय किसान संघ ने सरकार की किसान विरोधी नीतियों को खेती की बदहाली के लिए ज़िम्मेदार ठहराया है । संघ का कहना है कि फ़सल के वक्त बडी कंपनियां और व्यापारी कीमतें गिरा देते हैं । अक्टूबर - नवम्बर में जब सोयाबीन की फ़सल आई थी , तब भाव डेढ हज़ार रुपए क्विंटल था और अब सोयाबीन ढाई हज़ार रुपए क्विंटल तक जा पहुंचा है । न्यूनतम मूल्य पर कोई ठोस नीति नहीं होने से किसानों को उनकी मेहनत का औना - पौना दाम मिलता है ।

विधानसभा चुनाव के वक्त बढ - चढ कर घोषणाएं करने वाले मुख्यमंत्री अब खज़ाना खाली होने का रोना लेकर बैठ गये हैं । हालांकि उन्होंने गांवों के मास्टर प्लान बनाने जैसी बेतुकी और गैरज़रुरी मांग को तुरंत मान लिया । मगर इससे क्या किसान के हालात बदल जाएंगे ..? मास्टर प्लान बनाने से किसानों की ज़िंदगी सुधरेगी या नहीं नेता ,ठेकेदारों और अफ़सरों के दिन ज़रुर फ़िर जाएंगे । खेती को लेकर ना तो कोई गंभीर सोच और ना ही गंभीर प्रयास दिखाई देते हैं । जब तक समग्र नीति तैयार नहीं की जाती , तब तक देश मे अन्न का संकट भी दिनोंदिन विकराल होता जाएगा । साथ ही छोटे किसान खेती -बाडी के व्यवसाय से दूर होते रहेंगे ।

बेवजह सडकें नापने के शौक के कारण अक्सर मैं आसपास के ग्रामीण इलाकों का रुख कर लेती हूं । लेकिन चारों तरफ़ एक ही फ़सल देख कर बेहद अफ़सोस होता है । कभी प्याज़ का भाव तेज़ हुआ , तो अगले साल खेतों में प्याज़ ही प्याज़ ...। कभी फ़ूलगोभी ,कभी टमाटर तो कभी लहसुन । लोग देखादेखी में अच्छे दाम मिलने की उम्मीद में बुवाई कर देते हैं और यही उनकी जान का बवाल बन जाता है । भरपूर उत्पादन यानी कीमतों में गिरावट । नतीजतन कई बार किसान लागत मूल्य निकालने में भी नाकाम रहते हैं । क्या सरकार सालाना ऎसी योजना नहीं बना सकती , जिसमें हर इलाके के लिए फ़सलें तय कर ली जाएं और किसानों को बेहतर तकनीक सिखाई जाए ।

" बिना बिचारे जो करे , सो पाछे पछताए " का इससे बेहतर नमूना क्या हो सकता है कि इस बार प्रदेश की मंडियों में एक रुपए किलो आलू बिक रहा है । कैसा भद्दा मज़ाक है श्रम शक्ति का । खेतों में पसीना बहाने वाला , दिन - रात एक करने वाला किसान महज़ एक रुपया पा रहा है , जबकि रंगबिरंगे पैकेट और आकर्षक विज्ञापनों की बदौलत आलू चिप्स पांच सौ रुपए किलो तक बिक रहे हैं ।

भोपाल समेत कई अन्य ज़िलों में इस बार आलू की बम्पर पैदावार जी का जंजाल बन गई है । लागत की कौन कहे कोल्ड स्टोरेज का किराया निकाल पाना मुश्किल हो रहा है । साफ़ नज़र आता है कि सरकार की नीयत साफ़ नहीं है । मौजूदा नीतियां उद्योगपतियों के फ़ायदे और किसानों के शोषण का पर्याय बन गई हैं ।

औद्योगिक घरानों के लिए पलक पावडे बिछाने वाली सरकार उद्योग जगत को तमाम रियायतें , सेज़ के लिए मुफ़्त ज़मीन और करों में छूट का तोहफ़ा देने में ज़रा नहीं हिचकती । फ़िर किसानों के प्रति ऎसी बेरुखी क्यों ...? हीरे - मोती उगलने वाली धरती के सीने पर कांक्रीट का जंगल कुछ लोगों का जीवन चमक- दमक और चकाचौंध से भर सकता है लेकिन किस कीमत पर ...? भूखे पेट रात भर करवटें बदलने वाले लाखों मासूमों के आंसुओं से लिखी विकास की इबारत बेमानी है ।

हिन्दुस्तान की खुशहाली का रास्ता खेतों - खलिहानों की पगडंडी से होकर ही गुज़रता है । इसके रास्ते के कांटे और कंकड - पत्थर चुनना ज़रुरी है । किसान के चेहरे की चमक में छिपा है देश की तरक्की का राज़ .....। देश के रहनुमाओं , कब समझेंगे आप...........?

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

............प्यार के लिए मगर पैसा चाहिए !

दुनिया में आज तक सच्ची प्रेम कहानियों का दारुण अंत देखा गया है । लेकिन हाल ही में नये दौर के हीर -रांझा , शीरीं - फ़रहाद , लैला - मजनूं के तौर पर प्रचारित मोहब्बत की दास्तां के नए पहलू से रुबरु हुए । चांद के बादलों की ओट में जाते ही फ़िज़ा का रुख बदल गया । साथ जीने [ मरने नहीं...] की कसमें खाने वाली बला की खूबसूरत हसीना ने चार दिन भी प्रेमी के लौटने का इंतज़ार मुनासिब नहीं समझा और धर लिया चोट खाई नागिन सा रौद्र रुप ....।

फ़िज़ा के रवैये में एकाएक आये इस बदलाव को क्या समझा जाए ....? क्या प्रेम इतना छिछला होता है ...? या किसी खास मकसद के लिए इस शादी को अंजाम दिया गया था ? आखिर वो क्या
वजह रही होगी ,जिसके चलते शादी से लेकर खुदकुशी तक के घटनाक्रम का मीडिया गवाह बनाया गया ? कहीं ऎसा तो नहीं कि एक बार फ़िर टीआरपी का लालची "इलेक्ट्रानिक मीडिया" बेहद शातिराना तरीके से इस्तेमाल कर लिया गया । ऎसा मालूम होता है , मानो टाफ़ी -गोली का ईनाम पाने की चाहत में कोई अबोध बच्चा प्रेमी - प्रेमिका के बीच कासिद का किरदार निभा रहा हो ।

किसी ने गहराई से सोचा कि मुट्ठी भर नींद की गोलियां चबाने वाली महिला चौबीस घंटे भी नहीं गुज़रे और इतनी स्वस्थ कैसे हो गई ? दरअसल इस प्रेम कहानी में भरपूर मसाला है । मज़े की बात है कि इसमें भावनाएं कहां खत्म होती हैं ,राजनीति के पेंच कब उलझते हैं और पैसे की चमक कितना रंग दिखाती है, सब कुछ गड्ड्मड्ड है । सच पूछा जाए तो ये मेलोड्रामा पूरी तरह सोच समझ कर अंजाम तक पहुंचाया गया सा लगता है । मेरी इस आशंका की पुष्टि जाने माने पत्रकार आलोक तोमर की 30 जनवरी की पोस्ट करती है । इस आलेख के कुछ अंश यहां दिये गये हैं , जो बताते हैं कि " यार दिलदार तुझे कैसा चाहिए ,प्यार चाहिए या पैसा चाहिए ।" की तर्ज़ पर फ़िज़ा को वास्तव में चांद से क्या चाहिए था........

चंडीगढ़/मोहाली, 30 जनवरी- अनुराधा बाली उर्फ फिजा वास्तव में क्या विष कन्या हैं? चंद्र मोहन को चांद मोहम्मद बना कर उनसे शादी करने वाली अनुराधा के बहुत सारे प्रेमी और दोस्त सामने आए हैं जिन्होंने औपचारिक रूप से तो कुछ नहीं कहा लेकिन यह शिकायत जरूर की है कि अनुराधा ने उनके रिश्तों का फायदा उठा कर काफी आर्थिक लाभ उठाया और जब लाभ मिलना बंद हो गया तो उन्हें छोड़ दिया।
जो लोग अनुराधा बाली को आर्थिक लाभ पहुंचा सकते थे वे जाहिर है कि काफी बड़े आदमी रहे होंगे। इनमें हरियाणा के एक भूतपूर्व मुख्यमंत्री का भाई, एक मुख्य सचिव का बेटा और कई वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी बताए जाते हैं। बहुत खूबसूरत अनुराधा बाली के पति ने भी तलाक की अर्जी देते वक्त अनुराधा पर यही आरोप लगाया था कि वे चारित्रिक रूप से गड़बड़ है।

अनुराधा बाली उर्फ़ फ़िज़ा किसी भी लिहाज़ से हमदर्दी के काबिल नहीं हैं । किसी महिला का घर संसार उजाड कर अपने सपनों का महल खडा करना क्या महिला अधिकारों के नाम पर जायज़ ठहराया जा सकता है । चंद्रमोहन जैसे कमज़ोर मानसिकता वाले लोग भारतीय राजनीति के लिए चिंता के सबब हैं । उप मुख्यमंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद पर बैठा व्यक्ति चारित्रिक पतन की गिरफ़्त में आकर कल ना जाने क्या गुल खिला बैठे । ऎसे नेता देश के लिए खतरनाक हैं ।

इन लोगों का अपने नापाक इरादों को पूरा करने के लिए मुस्लिम धर्म कबूल करना भी बेहद गंभीर मसला है । नीयत के खोट को धार्मिक आस्था से जोडकर लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाने के गुनहगार हैं ये दोनों । इस्लाम के मानने वालों को भी इस घटना की जमकर मज़म्मत करना चाहिए ,ताकि आगे कोई मज़हब का मखौल ना बना सके ।

इस मसले पर एक टिप्पणी काबिले गौर है -
शादी-शुदा मर्द से ही नहीं औरत की गत हमेशा ही प्यार में बुरी होती है। रही बात फिजां की तो जब वे अपने चांद को ले कर दिल्ली पहुंची तो प्रेस क्लब में मैं भी मौजूद थी। मैंने सिर्फ एक सवाल पूछा, क्या आप हमारे लिए सुरह यासीन पढ़ देंगे। सुरह यासीन कुरान की पहली आयत है जो किसी नास्तिक हिंदू को गायत्री मंत्र याद रह जाने की तरह आसान है। सवाल चंद्रमोहन से पूछा गया था, लेकिन इस सामान्य सवाल पर वह ऐसे असामान्य तरीके से भड़की कि अगले दिन हर अखबार की सुर्खियों में यह खबर थी। उनका चलने का तरीका और बात करने का अंदाज ही बता रहा था कि उनके चेहरे पर उप मुख्यमंत्री पर फतह हासिल करने की चमक थी। अब यह चमक फीकी पड़ गई क्योंकि उनके मंसूबे कामयाब नहीं हो सके। नींद की दवाई खाने और फिर प्रेस कॉन्फेंस में एसएमएस पढ़ कर सुनाना ही बताता है कि वह अपने प्यार के मामले में कितनी गंभीर हैं। जिस व्यक्ति को प्यार किया जाता है, उसे सार्वजनिक तौर पर बेइज्जत को नहीं किया जाता। अनुराधा बाली ने अपने प्रेम को सार्वजनिक कर, चंद लम्हों की लोकप्रियता के लिए राष्ट्रीय मनोरंजन से ज्यादा कुछ नहीं किया है।

वैसे चांद अपनी दुनिया में लौट भी गया ,तो इससे क्या ...? फ़िज़ा के पास खुश होने के लिए अब भी बहुत कुछ है । प्रेम की यादें तो अब भी उनके पास हैं । कहते हैं मरा हाथी भी सवा लाख का होता है । दिल टूटा तो क्या हुआ पर 24 करोड की ज़बरदस्त लॉटरी भी तो लग गई । कनाडा की कंपनी इंडिया पैसिफ़िक मीडिया एंड मूवीज़ ने उन्हें फ़िल्म बनाने के अधिकार बेचने के एवज़ में करीब 24 करोड रुपए देने की पेशकश की है । कंपनी के प्रवक्ता ने खुलासा किया है कि बेवफ़ाई की मारी फ़िज़ा को फ़िल्म में हिरोइन का किरदार भी ऑफ़र किया गया है । मस्त रहिए , खुश रहिए , दिल का क्या है ..? शीशा हो या दिल हो , आखिर टूट जाता है ........।

सोमवार, 2 फ़रवरी 2009

नर्मदा कब तक धो सकेगी गंगा के पाप

कैलेंडर की मानें , तो आज नर्मदा जयंती है । दरअसल हम लोगों की ज़िन्दगियां कैलेंडर के पन्नों पर दर्ज़ तारीखों में उलझकर रह गई हैं । हम किसी भी काम को मन से स्वीकर नहीं करते । दिखावे की संस्कृति इस कदर हावी है कि दूसरे को दिखाने की गरज़ से काम करने का निर्णय किया जाता है । इसीलिए पर्व- त्योहार भी महज़ दिखावा बन कर रह गये हैं ।

आज रेवा तटों पर मेले लगेंगे । बडी गहमा गहमी रहेगी । लोग पापनाशिनी सलिला में डुबकी लगाकर अपने तमाम पापों से पल भर में निजात पा लेने की जुगत लगायेंगे । मोक्ष की कामना में भजन - पूजन और नदी मे दीप प्रवाहित होंगे । नर्मदे हर , नर्मदे हर......का जयघोष कर अपनी आस्था को सार्वजनिक करेंगे । सतत प्रवाहमान नर्मदा के किनारे गोठ करेंगे ,पिकनिक मनाएंगे और लौट जाएंगे । लेकिन नदी को छोड जाएंगे प्रदूषित.....।

पुराने अखबार पलटते हुए एकाएक प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट से जुडी खबर पर निगाह पडी । बोर्ड की जांच रिपोर्ट कहती है कि नर्मदा अपने उद्गम के पास ही प्रदूषण की चपेट में आ गई है । प्रदूषण की गंभीरता का अंदाज़ा पानी में मौजूद जीव - जंतुओं की प्रजातियों से लगाया जा सकता है । इसके लिए बायो मानिटरिंग तकनीक की मदद ली गई है । जिससे नर्मदा के पानी में पाए जाने वाले अलग - अलग प्रजातियों के कीडों का पता लगाया जा रहा है ।

जांच दल ने हाल ही में अमरकंटक ,मंडला ,जबलपुर ,डिंडौरी से नर्मदा जल के नमूने इकट्ठा किए हैं । अमरकंटक के पास रामघाट से जुटाए सैंपल में ऎसी प्रजाति के कीडे मिले हैं ,जो प्रदूषित पानी में ही पनप सकते हैं । आशंका है कि अवशिष्ट पदार्थों और कारखानों की गंदगी नदी में छोडने के दुष्परिणाम जल्दी ही विकराल रुप में सामने आने लगेंगे ।

बहरहाल तसल्ली की बात सिर्फ़ इतनी है कि बाकी जगह के नमूनों में चट्टानों के टुकडों से विशेष किस्म का कीडा मिला है । ट्राइकोप्टेरा प्रजाति का यह जीव केवल शुद्ध पानी में ही रहता है ।जांच दल का दावा है कि यह कीडा चट्टानों के बीच जाले की महीन चादर बना देता है ,जिससे छन कर पानी बिल्कुल निर्मल हो जाता है ।

" राम तेरी गंगा मैली हो गई ,पापियों के पाप धोते - धोते" राजकपूर की फ़िल्म के मशहूर गीत को सच मानें या लोक मान्यताओं की बात करें , दोनों ही इस बात पर एक राय मालूम देते हैं कि पापियों का उद्धार करते - करते गंगा भी मैली हो ही जाती है । वही पापनाशिनी गंगा साल में एक बार आज के दिन मोक्षदायिनी रेवा में इन पापों को धोने आती है । आज के संदर्भ में यह बात एकदम ठीक लगती है । लेकिन क्या होगा जब नर्मदा प्रदूषण की चपेट में अपना अस्तित्व ही खो बैठेगी ...? पौराणिक आख्यानों की मान्यताओं के अनुरुप गंगा के पाप अपने जल में समाहित करने के लिए कहां तलाशा जाएगा नर्मदा को .....?

नदियों का पानी मैला करने का दोष केवल उद्योगों के सिर मढने से काम नहीं चलने वाला । विडंबना ही है कि नर्मदा को मां के रुप में पूजने वाले भक्तों ने भी कोई कसर नहीं छोड रखी । भक्त पूजा सामग्री , फ़ूल - पत्ती के साथ पालिथिन की पन्नियों को भी नदी को भेंट चढा देते हैं । डुबकी लगाने तक तो ठीक है लेकिन साबुन से नहाने और कपडे धोने में भी उन्हें कोई हिचक नहीं होती । सवाल है कि जिस नदी की पवित्रता की हम बात - बात पर दुहाई देते नहीं थकते , उसे अशुद्धियों से भरने में हमारी आत्मा क्यों नहीं कचोटती ..?

हमें समझना होगा कि आबादी बढने के साथ ही नदी पर भी दबाव बढ गया है । रही सही कसर भक्ति के अतिरेक ने पूरी कर दी है । लोग आस्था के वशीभूत होकर नहीं , एक दूसरे की देखा देखी में नर्मदा स्नान की होड लगाने लगे हैं । आस्था होती है ,तो लगाव होता है , चिंता होती है सहेजने की ...। लेकिन जब भाव नहीं ,तो भावना कैसी ....?

पहले जनसंख्या कम होने से गंदगी भी थोडी होती थी और नदी अपने तरीके से उपचार भी कर लेती थी । लेकिन बेतहाशा बढ रही गंदगी के आगे नदियों ने भी हथियार डाल दिये हैं । हमें नहीं भूलना चाहिए कि प्रकृति का हर रुप सजीव है । नदी भी सजीव होती है । उसके साथ जैसा बर्ताव हम करेंगे , बदले में वैसा ही पायेंगे ।

कभी पूरी आस्था से एकाग्रचित्त होकर प्रार्थना करके देखें , पाएंगे कि खुले हाथ से वर देने वाली नर्मदा हमसे कुछ मांग रही है , हमारे ही भले के लिए । कल्पना करें , बात अनसुनी करने पर कल यदि मां नर्मदा भी हमसे अबोला ठान बैठी , तो क्या होगा.......? नर्मदा का प्रवाह थमने पर गंगा तो आने से रही यहां । ऎसे में कैसे मनेगी नर्मदा जयंती ....????? सोचिएगा ज़रुर..........।