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गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

बेमानी हैं पीटी ऊषा के आँसू

भोपाल में उड़नपरी के चार आँसू क्या ढ़लके,मीडिया ने पूरा जहान सिर पर उठा लिया । पीटी ऊषा को भोपाल आने का न्यौता आखिर किसने दिया था ? किसने भेजे थे पीले चावल ? क्यों कि राज्य सरकार का तो साफ़ कहना है कि उन्हें ऊषा के आने की कोई जानकारी ही नहीं थी । राज्य सरकार का दावा है कि अगर पीटी ऊषा उन्हें इत्तला देती,तो राज्य अतिथि का दर्ज़ा पाने की हकदार हो सकती थीं । उधर साई भी अपना दामन बचा रहा है । केन्द्रीय खेल मंत्री गिल साहब भी साई के अधिकारियों को क्लीन चिट दे चुके हैं । कुल मिलाकर समझने वाली बात सिर्फ़ इतनी ही है कि दोष ना सरकार का है और ना ही अधिकारियों का । गल्ती है तो केवल ऊषा की,जो बिना कुछ सोचे-समझे मुँह उठाए चली आईं । आने से पहले कम से कम राजनीतिक हालात की बारीकी से पड़ताल तो कर ली होती ।

केन्द्र में काँग्रेस और प्रदेश में बीजेपी,ऎसे में ये फ़जीहत होना तय ही था । यूँ भी कौन से तीर मार दिये हैं इस फ़र्राटा गर्ल ने । खुद से पूछ कर तो देखें । भोपाल में आवभगत कराने के लिये जितने भी गुणों की ज़रुरत है क्या उनमें से एक भी ऊषा के पास है । क्या वे प्रदेश सरकार को अपनी मुट्ठी में रखने वाले प्रकाश झा की किसी फ़िल्म की हिरोइन हैं । मैदान में पसीना बहा-बहा कर क्या सूरत बना ली है । वे कोई कैटारीना,करीना या ऎश्वर्या तो हैं नहीं कि नेता और अफ़सर स्वागत में पलक पावड़े बिछा देंगे । फ़िर उनका रौब-रुतबा अबू सलेम सरीखा भी नहीं । अबू सलेम ने फ़र्ज़ी पासपोर्ट बनवाकर जो झंडे गाड़े , उसी का नतीजा है कि चार एक की सुरक्षा टुकड़ी के साथ आए दिन भोपाल पधारते हैं । रेलवे स्टॆशन पर अगवानी के लिये पुलिस का पुख्ता इंतज़ाम होता है । सेवा में गाड़ियों का काफ़िला हाज़िर रहता है । कई पुलिसिये तो अबु साहब को गुलदस्ते भी भॆंट कर देते हैं,निगाहों में बने रहने के लिये । क्या पता कल अबु साहब संसद के गलियारों की शॊभा बढ़ाने लगें । ऎसे में आज के संबंध ही तो काम आयेंगे ।

ऊषा को बुरा मानने का कोई हक नहीं जाता,क्योंकि पदकों के नाम पर चंद धातु के टुकड़े जमा करके उन्होंने देश पर कोई एहसान नहीं किया है । आसाराम जैसे गुण भी तो नहीं हैं उनके पास । जो भक्तों को सब कुछ त्याग देने की सलाह देकर अपना खज़ाना भर ले । वो बाबा रामदेव भी नहीं । योग से रोग भगाने का नुस्खा देते देते खुद ही भोगी बन बैठे और अब स्कॉटलैंड में एक टापू की मिल्कियत के मालिक बन गये हैं । लोगों के मन से शनि महाराज का खौफ़ दूर भगाने के एवज़ में अकूत दौलत हासिल करने वाले दाती मदन महाराज राजस्थानी से भी तो पीटी ऊषा ने कोई सबक नहीं लिया ।

ईमानदारी से देश सेवा का जुनून पालने वालों का इस देश में यही हश्र होना है । इसलिये किसी को भी उनके अपमान का दोषी करार देना कतई ठीक नहीं है । अगर मान-सम्मान,खातिर-तवज्जो चाहिये तो वैसे गुण भी पैदा करो । देश को लूटो-खसोटो सरकारी खज़ाने को बपौती समझो । फ़िर देखो दुनिया कैसे कदमों में बिछती है ।

कलयुग में सज्जनों की नहीं दुर्जनों-दुष्टों की पूछ परख है । सच भी है भय बिन होत ना प्रीति । लिहाज़ा पीटी ऊषा और उनके जैसे लोगों को इस कड़वी सच्चाई को मान ही लेना चाहिये कि उन्होंने ऎसा कोई काम देश के लिये नहीं किया है जिस पर नाज़ किया जा सके । सरकार और समाज की नज़रों में ऊँचा उठने के लिये खुद को गर्त में ढ़केलना वक्त की माँग है,जो ऎसा करने का जज़्बा और हिम्मत दिखायेगा देश का हर तबका उसको ही शीश नवायेगा । इस सबके बावजूद एक सच ये भी है कि स्वाभिमान की रक्षा करने वालों का कभी अपमान हो ही नहीं सकता ।

गुरुवार, 11 जून 2009

नशे में कौन नहीं है,मुझे बताओ ज़रा...!

नशा शराब में होता तो नाचती बोतल......। सदी के महानायक ने अपनी पहली पारी की मशहूर फ़िल्म "शराबी" में देवताओं के प्रिय पेय यानी सुरा की पैरवी करते हुए ऎसा ज़बरदस्त तर्क दिया कि आज तक उसका तोड़ कोई नहीं ढ़ूँढ़ पाया । अपने चारों ओर नज़र घुमाकर देखो तो "शराबी" की बात में दम दिखाई देता है । मदिराप्रेमी तो बेचारे मुफ़्त ही बदनाम हैं । नशा कहाँ नहीं और किसका नहीं है । यकीन ना हो तो वामपंथियों से पूछ देखिये । कार्ल मार्क्स के अनुयायी आपको बतायेंगे कि धर्म एक अफ़ीम है जो धार्मिक आस्था में डूबे लोगों को रोज़मर्रा की जद्दोजहद से दूर ले जाकर हमेशा गा़फ़िल रखती है ।

मुझे भी अब इन सब बातों पर यकीन सा हो चला है । आजकल भोपाल में किस्म-किस्म के नशे में चूर लोग आमने-सामने हैं । धर्म के ठेकेदार शराब ठेकेदारों के खिलाफ़ लामबंद होकर सत्ता के अड़तियों ललकार रहे हैं । प्रदेश में शराब सस्ती और पानी दुर्लभ है । आलम ये है कि पुण्य कमाने के लिये प्याऊ खोलने वालों का टोटा पड़ गया है । पानी का पाउच महँगा और लाल पानी सस्ता है । हर चौराहे पर पानी की टंकी मिले ना मिले, देशी-विदेशी शराब की दुकान देर रात खुली मिलने की पूरी गारंटी है । आखिर हो भी क्यों ना ! बोतल में भरी शराब का नशा तो गले से नीचे उतरने पर ही चढ़ता है लेकिन सत्ता के मद में चूर नेताओं की शराब ठेके बढाने की नीति का जवाब भला है किसी के पास ?

जब से बीजेपी ने सत्ता संभाली है प्रदेश में तीन चीज़ें बेतहाशा बढ़ी हैं- सड़क किनारे गुमटियाँ,कदम-कदम पर मंदिर और गली-मोहल्लों में शराब की दुकानें । अब हालत ये है कि इधर सिंदूर पुते गोलमटोल हनुमानजी बिराजे हैं और उधर सड़कों पर लोट लगाते सुराप्रेमी हैं । इधर बोतल गटकते बच्चे-बूढ़े और जवान हैं,तो उधर शिंगनापुर से पधारे न्याय के देवता शनिदेव सौ रुपए लीटर तक जा पहुँचे सरसों के तेल से मल-मल कर अंगराग कर रहे हैं । कायदे से देखा जाये तो एक ही जगह सभी की पसंद का ख्याल रखा गया है । आप चाहें तो अंगूर की बेटी से दोस्ती कर लें या फ़िर धर्म की अफ़ीम चाटकर दानपेटी के रास्ते अपने पाप धो लें । हर मढ़िया पर जंज़ीरों में जकड़ी ताले की पहरेदारी में रखा दानपात्र दुनिया का हर पाप कर्म धोकर "सुपर रिन की चमकार" का भरोसा दिलाता है ।

घोड़ी नहीं चढ़े तो क्या बारातें तो खूब देखी हैं । कहने का मतलब ये कि शराब के हैंगओवर से बाहर आने के लिये पियक्कड़ तरह- तरह की तरकीब आज़माते हैं । इसी तरह धर्म की अफ़ीम को हेरोइन,ब्राउन शुगर और कोकेन में तब्दील करने के लिये यज्ञ,हवन,प्रवचन,प्राणप्रतिष्ठा और शोभायात्रा की भट्टी चढ़ाई जाती है ।

आजकल अपनी ज़िम्मेदारियों से जी चुराकर भागे लोगों में भगवा चोला धारण करने का चलन कुछ ज़्यादा ही बढ़ गया है । इन निठल्ले और निकम्मे लोगों ने जगह-जगह मंदिर तान लिये हैं । एक अनुमान के मुताबिक पिछले पाँच सालों में केवल भोपाल में चालीस हज़ार करोड़ रुपए से ज़्यादा की सरकारी ज़मीन मंदिर माफ़ियाओं के कब्ज़े में जा चुकी है । ठेला लगाकर रोज़ी-रोटी कमाने वालों पर नगर निगम की गाज गिरने में वक्त नहीं लगता । राजधानी के न्यू मार्केट, एमपी नगर , कमलापार्क जैसे कई व्यस्ततम इलाकों में करोड़ों की ज़मीन पर रातों रात पक्के मंदिर खड़े हो गये और नगर निगम को पता भी नहीं चला ....?????

हद तो तब हो गई, जब भोपाल की संस्कृति को सजाने-सँवारने का दावा पेश करने वाले समाचार पत्र राजस्थान पत्रिका ने इन मंदिरों के रखरखाव के लिये आर्थिक मदद की माँग कर डाली । इन मंदिरों की तस्वीर के साथ खबर छाप कर अखबार कौन सी संस्कृति तैयार कर रहा है ? जिन अतिक्रमणकारियों और उनके खैरख्वाहों को जेल में ठूँस कर कोड़ों से उधेड़ देना चाहिये,धर्म की आड़ लेकर उनकी वकालत करना कहाँ की समझदारी है ?

हाल ही में दम तोड़ चुके बड़े तालाब को आखिरी सलाम देने के लिये लेक व्यू रोड के रास्ते पर बने सरकारी श्रमदान (शर्मदान) स्थल पर जाने का मौका मिला । देखकर हैरानी हुई कि कल तक जहाँ पानी हिलोरें मारता था वहाँ बड़ा भारी पक्का चबूतरा बन चुका है । कई सिंदूर पुते पत्थर सजीव हो चले हैं । गौर करने वाली बात ये है कि यहाँ नगर निगम का अमला रोज़ सैकड़ों ट्रक मिट्टी निकालने का काम करता है । आये दिन मुख्यमंत्री,मंत्री,आला अधिकारी और नेता श्रमदान के फ़ोटो सेशन के लिये पधारते रहते हैं ।
बहरहाल, अतिक्रमणकारी छद्म बाबाओं ने आजकल शराब की दुकाने हटाने के मुद्दे को लेकर राजधानी में बवाल मचा रखा है । मेरी राय में सरकार को शराब की दुकान हटाने से पहले सभी मंदिरों को नेस्तनाबूद कर देना चाहिये । मुफ़्त की रोटियाँ तोड़-तोड़कर ये निठल्ले लोग गर्रा गये हैं । गुर्राने से शुरु हुए ये निकम्मे अब गरियाने लगे हैं । भोपाल को अपनी रियासत समझकर दरबार सजाने वाले नगरीय प्रशासन मंत्री बाबूलाल गौर से भी सवाल है कि भोपाल को स्विटज़रर्लैंड बनाने का ख्वाब दिखाने के बाद पिछले छह सालों में क्या दिया उन्होंने ? चारों तरफ़ गड्ढे, बेतहाशा बढ़ते झुग्गियों के जंगल और बिल्डरों के लालच के चलते डायनामाइट के विस्फ़ोट में अपना अस्तित्व गवाँ चुकी खूबसूरत पहाडियाँ ...???? नशे में कौन नहीं है,मुझे बताओ ज़रा...!

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

जनता करे काम, नेता खाएँ आम.......

भोपाल की बड़ी झील में श्रमदान का नाटक अब शर्मदान अभियान में तब्दील हो चुका है । झील का पानी सूखने के साथ ही नेताओं की आँखों का पानी भी सूखने लगा है । कल तक खुद को जनता का सेवक और पब्लिक को भगवान बताने वाले मुख्यमंत्री के तेवर भी बदलने लगे हैं । नाकारा और निठल्ले विपक्ष ने प्रदेश सरकार को बेलगाम होने की खुली छूट दे दी है ।

काँग्रेस का बदतर प्रदर्शन बताता है कि बीजेपी हर हाल में पच्चीस सीटें हासिल कर ही लेगी । ऎसे एकतरफ़ा मुकाबलों के बाद सत्ता पक्ष का निरंकुश होना कोई आश्‍चर्य की बात नहीं होगी । शिवराज सिंह चौहान के बर्ताव में आ रहे बदलाव में आने वाले वक्त के संकेत साफ़ दिखाई दे रहे हैं । हाल ही में उन्होंने एक तालाब गहरीकरण समारोह में कहा कि सभी काम करना सरकार के बूते की बात नहीं । इसके लिये जनता को आगे आना होगा । समाज को अपना दायित्व समझते हुए कई काम खुद हाथ में लेना होंगे ।

अब बड़ा सवाल यही खड़ा होता है कि जब सभी काम जनता को ही करना हैं ,तो फ़िर इन नेताओं की ज़रुरत क्या है ? अपनी गाढ़ी कमाई से टैक्स भरे जनता । करोड़ों डकारें नेता .....! मेहनत करे आम लोग और हवा में सैर करें नेता ...? जब सब कुछ लोगों को ही करना है,तो इतनी महँगी चुनाव प्रक्रिया की ज़रुरत ही क्या है ? मंत्री बनें नेता,खुद के लिये मोटी तनख्वाह खुद ही तय कर लें फ़िर भी पेट नहीं भरे तो योजनाओं की रकम बिना डकार लिये हज़म कर जाएँ । लाखों रुपए बँगले की साज-सज्जा पर फ़ूँक दें । कभी न्याय यात्रा,कभी संकल्प यात्रा,कभी सत्याग्रह और कभी कोई और पाखंड ....। पिछले साल की जुलाई से प्रदेश सरकार सोई पड़ी है । कर्मचारियों को छठे वेतनमान के नाम पर मूर्ख बना दिया । दो- तीन हज़ार का लाभ भी कर्मचारियों को बमुश्किल ही मिल पाया है ।

अब चुनाव बाद सपनों के सौदागर शिवराज एक बार फिर प्रदेश की यात्रा पर निकलेंगे । दावा किया जा रहा है कि देश का नंबर-एक राज्य बनाने में आम जनता का सहयोग माँगने के लिए वे 'मध्यप्रदेश बनाओ यात्रा’ निकालेंगे । इसके तहत मुख्यमंत्री सप्ताह में तीन दिन सड़क मार्ग से विभिन्न क्षेत्रों में जाकर आम जनता को प्रदेश की तरक्की के सपने से जोड़ेंगे। इसके लिये सर्वसुविधायुक्त रथ बनाया गया है,जिसमें माइक के साथ जनता से जुड़ने का अन्य साजोसामान भी होगा ।

शिवराज की राय में अव्वल दर्जा दिलाने के लिए जनता को राज्य से जोड़ना जरूरी है। जब तक लोगों में प्रदेश के प्रति अपनत्व का भाव नहीं होगा,वे इसकी तरक्की में समुचित योगदान नहीं दे सकते । वे कहते हैं कि मध्यप्रदेश का नवनिर्माण ही अब उनका जुनून है । वे जनता और सरकार के बीच की दूरी खत्म कर यह काम करेंगे ।

मीडिया में अपने लिये जगह बनाने में शिवराज को महारत है । पाँव-पाँव वाले भैया के नाम से मशहूर शिवराज ने मुख्यमंत्री बनने के बाद जनदर्शन शुरू किया था । साप्ताहिक "जनदर्शन"में वे किसी एक जिले में सड़क मार्ग से लगभग डेढ़ सौ किमी की यात्रा कर गांव और कस्बों के लोगों से मिलने जाते थे । इसके बाद आई जनआशीर्वाद यात्रा । विधानसभा चुनाव के ठीक पहले निकाली गई इस यात्रा में शिवराज ने सवा माह तक सड़क मार्ग से यात्रा कर लगभग पूरे प्रदेश को नापा ।

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ,मीडिया मैनेजमैंट की बदौलत अब खुद एक ब्राँड में तब्दील हो चुके हैं । विधानसभा चुनावों के पहले से ही उनकी छबि गढ़ने का काम शुरु हो गया था । स्क्रिप्ट के मुताबिक शिवराज ने एक्ट भी बखूबी किया । अखबारों और क्षेत्रीय चैनलों में खरीदी हुई स्पेस की मदद से देखते ही देखते वे लोकप्रिय जननायक बन बैठे । विधानसभा चुनावों के अप्रत्याशित नतीजों ने साबित कर दिया कि झूठ को सलीके से बेचा जाए,तो काठ की हाँडी भी बार-बार चढ़ाई जा सकती है ।

चुनाव नतीजे आने के बाद नेशनल समाचार चैनलों पर नर्मदा में छलाँग लगाते शिवराज को देखकर लगा कि मीडिया गुरुओं की सलाह और मीडिया की मदद से आज के दौर में क्या नहीं किया जा सकता । एक चैनल ने तो बाकायदा उनके सात फ़ेरों की वीडियो का प्रसारण किया और श्रीमती चौहान की लाइव प्रतिक्रिया भी ले डाली । सूबे के महाराजा-महारानी का परिणय उत्सव देखकर जनता भाव विभोर हो गई ।

दल बदलुओं की बाढ़ ने मौकापरस्तों का रेला बीजेपी की ओर बहा दिया है । अब राज्य में गुटबाज़ी की शिकार काँग्रेस अंतिम साँसे गिन रही है । निकट भविष्य में ऑक्सीजन मिलने के आसार दिखाई नहीं देते । मान लो जीवन दान मिल भी जाए , तो दमखम से जुझारु तेवर अपनाने में वक्त लगेगा । यानी चौहान विपक्ष की तरफ़ से पूरी तरह निश्चिंत हैं । सुषमा स्वराज को लेकर तरह- तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं,लेकिन विदिशा में राजकुमार पटेल ने सफ़ेद झंडा लहरा कर युद्ध सँधि कर ली । एक तीर से कई निशाने साधे गये और शिवराज की गद्दी हाल फ़िलहाल सुरक्षित हो गई ।

प्रदेश की जनता का भाग्य बाँचनेवाले बताते हैं कि आने वाले सालों में आम लोगों की मुश्किलें बढ़ने की आशंकाएँ प्रबल हैं । रेखाएँ कहती हैं कि जनता को हर मोर्चे पर संघर्ष पूर्ण इम्तेहान देना होगा । यदि इस अनिष्ट से बचना हो तो जनता को अभी से अनुष्ठान शुरु कर देना चाहिए । रास्ता महानुभाव जरनैल सिंह ने सुझा ही दिया है । लोग अपनी सुविधा के हिसाब से इसमें फ़ेर बदल कर हालात पर काबू पाने में कामयाब हो सकते हैं ।

सोमवार, 16 मार्च 2009

झील की मौत पर जश्‍न का माहौल

सूरज की तपिश बढ़ने के साथ ही भोपाल की बड़ी झील का आकार घटता जा रहा है । तालाब की बदहाली पर आँसू और गेंती-फ़ावड़ा लेकर श्रमदान में पसीना बहाने वाले तो कई मिल जाएँगे , लेकिन इन हालात के मूल कारणों को ना तो कोई जानना चाहता है और ना ही इन पर बात करना । जैसे - जैसे तालाब का अस्तित्व सिमट रहा है , झील की मौत का जश्‍न मनाने वालों की बाँछें खिलने लगी हैं ।

’अमृतम जलम’ , ’अपनी झील-अपनी धरोहर’ और ’जल सत्याग्रह’ के ज़रिए झील को नया जीवन देने के कागज़ी दावे किये जा रहे हैं । मीडिया घरानों के एफ़ एम रेडियो पर दिन भर तालाब के लिये पसीना बहाने का चर्चा रहता है । अखबारों के दबाव में नेता और सरकारी अधिकारी भी चुप लगाये तमाशा देख रहे हैं । अखबारों के पन्ने प्रतिदिन श्रमदान की तस्वीरों और खबरों से रंगे होते हैं । लगता है गेंती- फ़ावड़ा चलाते लोगों का पसीना ही तालाब लबालब कर देगा ।

‘ताल तो भोपाल का और सब तलैया‘ की देश भर में मशहूर कहावत जिस झील की शान में रची गई, वह अब बेआब और बेनूर हो गई है । इस पहाड़ी शहर की प्यास बुझाने के लिए राजा भोज ने 11वीं सदी में बड़ी झील बनवाई थी 17वीं शताब्दी में नवाब छोटे खां ने निस्तार के लिए छोटे तालाब का निर्माण कराया । इसके मूल में बड़े तालाब को संरक्षित रखने की सोच थी ।

बड़े-बूढे उम्रदराज़ी की दुआ देने के लिए कहा करते थे - "जब तक भोपाल ताल में पानी है, तब तक जियो ।" क़रीब एक हज़ार साल पुराने `भोपाल ताल´ का जिक्र लोगों की इस मान्यता का गवाह है कि बूढ़ा तालाब कभी सूख नहीं सकता । मगर हम अपने लालच पर काबू नहीं रख पाए और अंतत: बूढ़े तालाब की साँसें धीरे-धीरे टूटने की कगार पर हैं । शहर की गंदगी, कचरे और मिट्टी के जमाव ने झील को उथला कर दिया है जिससे इसकी जल भंडारण क्षमता घट गई है। 31 वर्ग किलोमीटर के विशाल दायरे से सिमटकर तालाब महज 5 वर्ग किलोमीटर रह गया है । वैसे बड़े तालाब का भराव क्षेत्र 31 वर्ग किलोमीटर और कैचमेंट एरिया 361 वर्ग किलोमीटर है।


बड़े तालाब का तकरीबन 26 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र खाली हो चुका है। आसपास के लोगों के अलावा भू-माफिया ने भी मौके का फ़ायदा उठा अवैध कब्जा कर अधिकांश हिस्से में खेती शुरू कर दी । इतना ही नहीं कुछ इलाकों में अतिक्रमण कर पक्के मकान बना लिए गए हैं। बेजा कब्जों और अवैध निर्माणों से भी झील का जल भराव क्षेत्र घटा है।


भोपाल की छोटी और बड़ी झील को प्रदूषण मुक्त करने और उनके संरक्षण के लिए जापान की मदद से वर्ष 1995 में भोज वेटलैंड परियोजना शुरु की गई थी । जेबीआईसी के सहयोग से भोपाल के तमाम छोटे -बड़े तालाबों के संवर्धन और प्रबंधन संबंधी कामों पर 247 करोड़ रुपए खर्च हुए । वर्ष 2004 में पूरी हुई इस परियोजना में तालाब गहरीकरण, जलकुंभी हटाने, सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाने, हाई लेवल ब्रिज के निर्माण जैसे कार्य किए जाने की बात कही जा रही थी। परियोजना तो खत्म हो गई ,लेकिन तालाब के हालात बद से बदतर होते गए । सीवेज का पानी आज भी तालाब में मिल रहा है । भोपाल की झीलों की संरक्षण और प्रबंधन परियोजना
A. Date of agreement - 28 February 1995
B. Contract period - 12 April 2002
C. Project implementation period - April 1995 to March 2001
(Extended upto March 2002)
D. Project Cost - 247.02 Crore (8300 million yen)
1. Loan Amount by JBIC ( 85%) - 7055 million yen
(exchange rate 1 Rs. = 3.36 yen)
2. State Government Contribution - Rs. 370.5 million (1245 million yen)
3. Expenditure of State Govt. before 01.04.1995 - Rs. 243.7 million
4. Project Expenditure from 01.04.1995 to 31.05.2001 (in Indian Rupees) - Rs. 1006.5 million
5. Project Expenditure from 01.04.1995 to 31.05.2001 (Commitment procedure in yen) - Rs. 187.
"एप्को " से साभार
तहज़ीब का शहर माने जाने वाले भोपाल को तालों की नगरी भी कहा जाता है। यहाँ नवाबी दौर में वॉटर रिचार्ज सिस्टम के 14 तालाब हुआ करते थे । इनमें से अब केवल पाँच तालाब ही बचे हैं । अतिक्रमण ने शहर के नौ तालाबों को लील लिया है । मोतिया तालाब और मुंशी हुसैन खाँ तालाब के बीच बने सिद्दीक हसन खाँ में अब पानी की जगह घास-फ़ूस और झाड़-झँखाड़ हैं ही , आलीशान अट्टालिकाएँ भी शासन-प्रशासन को मुँह चिढा़ रही हैं । अच्छे खाँ की तलैया , गुरुबख्श की तलैया ,लेंडिया तालाब अब इतिहास के पन्नों में दफ़्न हो चुके हैं । चार सौ से ज़्यादा छोटी-बड़ी बावड़ियाँ शहर के लोगों की पीने के पानी और निस्तार की ज़रुरतों को पूरा करती थीं ।
ज़ुबानी जमा खर्च से ना तो आज तक कभी कुछ बदला है और ना ही आगे भी ऎसा होगा । तालाब बचाने की चाहत किसे है ? देश में जब भी कहीं आपदा आती है चील गिद्धों की फ़ौज की जीभें लपलपाने लगती हैं । भोपाल की झील की मौत का मातम नहीं जश्‍न मनाया जा रहा है । सिवाय ढोंग के कुछ नहीं हो रहा । ढाई सौ करोड रुपए खर्च होने के बाद अगर झील की ऎसी दुर्दशा है तो कौन ज़िम्मेदार है ? भोजवेट लैंड परियोजना के कर्ता धर्ताओं को तो सीखचों के पीछे होना चाहिए । फ़िलहाल जो नाटक चल रहा है उसके पीछे भी किसी बडे फ़ंड की जुगाड़ और उसे हज़म करने की साज़िश है । वरना कुछ अखबार मालिकों को अचानक जल ही जीवन है या फ़िर अमृतम जलम की सुध क्यों आ गई ? खैर इस देश में कभी कुछ नहीं बदलेगा । हर मौत किसी के लिए सौगात बन कर आती रही है आती रहेगी ।

सोमवार, 9 मार्च 2009

प्यासे कंठ और तर होते बाग़ - बागीचे

दुनिया भर में भूमिगत जल का स्तर तेजी से घट रहा है और विकासशील देशों में तो स्थिति बेहद गंभीर है । इन देशों में जल स्तर गिरने की रफ़्तार लगभग तीन मीटर प्रति वर्ष है । प्रदेश के अधिकाँश हिस्सों में भू - जल स्तर गिरता ही जा रहा है । मॉनसून की बेरुखी और प्रचंड गर्मी के कारण पानी के वाष्पीकरण में तेज़ी आई है । मार्च के पहले हफ़्ते में ही भोपाल के तापमान ने 38 डिग्री सेल्सियस की लम्बी छलाँग लगाई है । बड़ी झील पहले ही हाथ खड़े कर चुकी है । ऎसे में आया है होली का त्योहार .......। भोपाल वासियों की प्यास बुझाने का ज़िम्मा सम्हाल रहे नगर निगम के हाथ - पाँव भी फ़ूल गये हैं । लोगों से सूखी होली खेलने का गुज़ारिश की जा रही है । निगम ने जनता को पानी के संकट की गंभीरता का एहसास कराने के लिए आज एक विज्ञापन प्रसारित किया है ।

दूसरी तरफ़ भोपाल के नए नवाब ( बाबूलाल गौर) शहर को गर्मियों में भी चमन बनाने पर आमादा हैं । हाल ही में उन्होंने हैदराबाद का दौरा किया और पाया कि वहाँ के निज़ाम की मखमली घास भोपाल की घास की बनिस्पत बेहद नर्म है , सो हैदराबादी घास शहर में लगाने का फ़रमान जारी कर दिया । भरी गर्मी में लाखों रुपए खर्च करके घास मँगाई गई है । अब लाखों की घास के रखरखाव और बचाव पर करोड़ों रुपए खर्च होंगे । लेकिन शहर के व्यस्ततम लिंक रोड नम्बर दो पर लग रही इस मुलायम घास पर चलने का मज़ा लेने के लिए लोगों को अपनी जान जोखिम में डालना ही होगी । वजह ये कि मखमली घास फ़ुटपाथ पर नहीं रोड डिवाइडर पर लगाई गई है । गौर साहब शहर में सौ नए बाग - बागीचे बनाने की योजना का खुलासा भी कर चुके हैं । अँधेर नगरी - चौपट राजा .......।

भोपाल में दो दिन में एक बार औसतन करीब 400-500 लीटर पानी सप्लाई किया जा रहा है । तीखी गर्मी में जब लोगों के प्यासे कंठ को पानी मिलना दुश्‍वार हो रहा है , तब बागीचे सजाने के जुनून को क्या कहा जाए ? वैसे मेरी कॉलोनी में भी पिछले चार सालों से राजपरिवार ( बीजेपी ) के प्रादेशिक स्तर के पदाधिकारी रहते हैं ।

उनके घर के सामने के मैदान पर कभी बच्चे खेला करते थे , मगर नेताजी के सरकारी खर्च पर बागीचा सजाने के शौक ने बच्चों से खेल का मैदान छीन लिया । अब बच्चे उस पार्क में खेल नहीं सकते , बुज़ुर्गों की तरह केवल बैठ सकते हैं ।

पार्क में लगे पौधों और घास को तर रखने के लिए कोलार की मेन पाइप लाइन में अवैध रुप से मोटी पाइप डलवा कर पानी लिया जा रहा है । मगर पार्क बड़ा और गर्मी तेज़ है , इसलिए पौधों की प्यास बुझाने के लिए नगर निगम के टेंकर भी कीचड़ हो जाने की हद तक मैदान की तराई में जुटे हैं । लोग प्यासे मरें तो क्या .....? आधुनिक युग के इन राजाओं के सभी शौक पूरे होना ही चाहिए , आखिर लोकतंत्र है । लोकशाही में जनता की सेवा का बेज़ा फ़ायदा उठाने की कूव्वत अगर नेता अपने में पैदा नहीं कर पाए , तो धिक्कार है ऎसे प्रजातंत्र और ऎसी नेतागीरी पर ....। आखिर कभी समझाकर ,कभी डराकर और कभी धमकाकर हर आवाज़ उठाने की कोशिश का गला दबाना ही तो प्रजातंत्र है ।

शनिवार, 7 मार्च 2009

सवालों के घेरे में माँ और ममता

महिला दिवस की पूर्व बेला में आज दिन भर सभी न्यूज़ चैनल एक नवजात शिशु को माँ की ममता की छाया मिल जाने की दास्तान दिखाते रहे । समाचार चैनलों के स्टूडियो में एंकर पर्सन से बातचीत का दौर चलता रहा । एक मासूम को माँ का प्यार दुलार मिले इससे अच्छी कोई और बात हो ही नहीं सकती । मगर एक प्रश्न अब तक अनुत्तरित है और इतने दिनों से माँ की ममता का सवाल खड़े करने वाले किसी पत्रकार ने भी यह मुद्दा नहीं उठाया ।

जबलपुर की रहने वाली पेशे से अध्यापिका पुष्पा पात्रे का कहना है कि वह पचमढी स्कूल ट्रिप लेकर गई थी । वहाँ उसने एक बच्ची को जन्म दिया और उसे मॄत समझ कर घने जंगल की गहरी खाई में फ़ेंक दिया । कहते हैं , फ़ानूस बनकर जिसकी हिफ़ाज़त हवा करे , वो शमा क्या बुझे जिसे रोशन खुदा करे । उस सुनसान इलाके में अचानक कुछ लोगों ने बच्चे के रोने की आवाज़ सुनकर पुलिस को इत्तला कर दी । ज़ख्मी और बेहद गंभीर हालत में उस नवजात बच्ची को भोपाल के अस्पताल दाखिल कराया गया ।

करीब दो - तीन दिन समाचार चैनलों पर इस बारे में खबर आती रही ,लेकिन माँ का कलेजा नहीं पसीजा । एकाएक पुष्पा पात्रे को एहसास हो गया अपनी भूल का और उन्होंने अस्पताल के चक्कर लगाना शुरु कर दिये । मगर प्रशासन ने कोई ठोस सबूत नहीं होने के कारण उसे बच्ची से नहीं मिलने दिया ।

महिला को भी मीडिया की ताकत का भरपूर अंदाज़ा था और वो बहुत अच्छी तरह जानती थी कि चटपटी और सनसनीखेज़ खबरों की तलाश में भटकने वाला मीडिया ही मददगार हो सकता है । बाइट और ममतामयी माँ के बेहतरीन शॉट के लिए खबरचियों ने महिला की भरपूर मदद की और आखिरकर वह बच्ची से मिलने में कामयाब भी हो गई ।

कोर्ट ने तीन महीने के लिए बच्ची कथित माँ को सौंपने के आदेश दे दिये हैं । लेकिन सरसरी नज़र से देखें या उस पर बारीकी से गौर करें तो मामला काफ़ी पेचीदा लगता है । आखिर एक शिक्षिका की ऎसी क्या मजबूरी थी जो उसने बच्ची को जाँच -पड़ताल कराये बिना मृत मान लिया । अगर भूलवश ऎसा मान भी लिया तो अपने जिगर के टुकड़े को चाहे मर ही क्यों ना चुका हो क्या कोई इस तरह खाई में फ़ेंक सकता है ?

महिला सरकारी नौकरी में है और रहन - सहन भी अच्छा है । इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता कि वह बच्ची को दफ़नाने में सक्षम नहीं थी । आज एक चैनल पर मैंने पुष्पा पात्रे को कहते सुना कि उनका बेटा इस बारे में सब कुछ जानता था । वह बच्ची के जन्म से लेकर उसे फ़ेंके जाने तक पूरे घटनाक्रम का गवाह रहा है । ऎसे में ये प्रश्‍न और भी गंभीर हो जाता है ।

टूर पर साथ गये अन्य सहकर्मियों को इतने बड़े हादसे के बारे में नहीं बताना , उनकी मदद नहीं लेना क्या कुछ अटपटा सा नहीं लगता ? एक विवाहित , आर्थिक रुप से आत्मनिर्भर महिला ने ऎसा कदम क्यों उठाया ? उस पर ऎसा कोई सामाजिक और आर्थिक दबाव नज़र नहीं आता । समाचार चैनल इसे माँ की ममता के तौर पर पेश कर रहे हैं , लेकिन हालाते - हाज़िरा कुछ और ही कहानी कह रहे हैं ।

कहीं कुछ तो पेंच है , कुछ तो ऎसा है जो अनसुलझा है लेकिन किसी भी पत्रकार ने इन अनसुलझे सवालों को ना तो खड़ा किया और ना ही इनके जवाब तलाशने की ज़हमत उठाई । महिला की मदद से मीडिया को कुछ दिनों का मसाला मिल गया और मीडिया के ज़रिये महिला को बच्ची ......। तुम्हारी भी जय - जय ,हमारी भी जय - जय .......। ना तुम हारे ना हम हारे । लेकिन क्या बच्ची को सचमुच ममता का आँचल मिल गया....??????????

मंगलवार, 3 मार्च 2009

धूमधाम से मनेगा शिवराज का "प्रकटोत्सव"

सामंती युग में राज परिवारों में सालगिरह मनाने का रिवाज़ था । लोग तोहफ़े - नज़राने देकर राजा के प्रति अपनी निष्ठा का मुज़ाहिरा पेश करते थे । अब ज़माना कुछ और है । कहते - कहते ज़ुबान थक गई है , फ़िर भी याद बताना ज़रुरी है कि भारत में अब भी लोकतंत्र बरकरार है । मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री तो इतने विनम्र और सेवाभावी हैं कि वे खुद को हमेशा जनता का सेवक बताते नहीं थकते । उनकी निगाह में जनता ही उनकी भगवान है और वे उस के सच्चे सेवक.....??????

बहरहाल , इस तरह की विनम्रता सिर्फ़ शिवराजजी को ही शोभा देती है । कहते हैं ना कि जिसमें जितनी गुरुता वो उतना विनम्र ..। सो पाँव - पाँव भैया भले ही उड़न खटोला खरीदने की हैसियत वाले हो गये हैं लेकिन विनम्रता का लबादा ओढे रहने में भी वे बेमिसाल हैं ।

अब आते हैं मूल मुद्दे पर । वन - वन भटकने वाले श्रीराम की तुलना में माखन चोर , चितचोर नटखट नटवर नागर , कन्हैया का जन्मदिन बड़े पैमाने पर धूमधाम से मनाने की प्राचीन परंपरा रही है । जय हो .. मीडिया की , जिसकी मेहरबानी से भोलेशंकर के विवाह उत्सव भी पूरे तामझाम के साथ धूमधड़ाके से मनाने की परंपरा भी अब ज़ोर पकड़ने लगी है । लेकिन फ़िर भी थोड़ी कसर तो रह ही गई , शिवशंकर का जन्मदिन धूमधाम से मनाने की । मगर मध्यप्रदेश के शिवराज भी किसी "भोले भंडारी" से कम नहीं । इसलिए पाँच मार्च को प्रदेश के उत्साही भाजपाइयों ने उनका पचासवाँ जन्मदिन हर्षोल्लास से मनाने की तैयारी कर ली है ।

राजसी ठाट बाट से शपथ ग्रहण के बाद अब भाजपा सरकार के मुखिया का जन्मदिन भी शानोशौकत से मनाने के लिए राजधानी के व्यापारियों से सहयोग की गुज़ारिश की गई है । हो सकता है ऎसा ही सहयोग हर छोटे बड़े शहर के व्यापारियों से भी माँगा जा रहा हो । पाँच मार्च को पूरा भोपाल शिवराज का जन्मदिन मनाता दिखे , इसके लिए जगह - जगह होर्डिंग- बैनर लगाने की योजना है । भाजपाइयों ने महाभोज की तैयारी भी की है ।

’ जिसकी जितनी श्रद्धा , उसका उतना चढावा और बदले में उतनी ही परसादी ’ की तर्ज़ पर व्यापारियों से कहा गया है कि वे शकर ,आटा ,चावल सहित अन्य ज़रुरी सामग्री पहुँचायें ।शिवराज के मुख्यमंत्री बनने से पहले तक पाँच मार्च एक गुमनाम तारीख थी लेकिन पिछले तीन सालों से जन्मदिन मनाने की भव्यता के साथ ही इसकी व्यापकता भी विस्तार पा रही है । पिछले साल तीन हज़ार भाजपाई ही " शिवराज जन्मोत्सव " के छप्पन भोग का रसास्वादन कर पाये थे । लेकिन " बर्थ डे ब्वाय " इस मर्तबा चाहे जितनी ना नुकुर कर लें , दस हज़ार कार्यकर्ताओं को "जिमाने" के लिए रसद पानी का इंतज़ाम तो जनता को करना ही होगा ।

जुम्मा - जुम्मा चार दिन नहीं बीते जब शिवराज तामझाम नहीं काम की सीख देते घूम रहे थे । सार्वजनिक मंचों पर फ़ूलमालाओं से होने वाले स्वागत - सत्कार से भी परहेज़ की बात करने वाले शिवराज का इस जन्मोत्सव के बारे में क्या खयाल है ? भई हम तो कुछ नहीं कहेंगे । चुप ही रहेंगे । मन ही मन गुनगुनाएँगे - भये प्रकट कृपाला दीनदयाला , कौसल्या (भाजपा) हितकारी , हर्षित महतारी मुनि मन हारी अदभुत रुप बिचारी ।

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2009

संस्कृति बचाने का तुगलकी फ़रमान

मानव मन के उल्लास और उमंग को अभिव्यक्त करने के कई अनूठे तौर तरीके अनादि काल से चले आ रहे हैं । समय - समय पर भरने वाले मेले सामयिक संदर्भों से जुड़ने की जीवंत परंपरा के साथ ही विभिन्न अँचलों में ग्राम और लोक देवताओं को याद करने के बहाने होते हैं ।

देश की मौलिक संस्कृति में मेलों की सतरंगी छटा चारों ओर बिखरी दिखाई देती है । मेलों का ग्राम्य स्वरुप प्रचलित भी है और प्रसिद्ध भी । हालाँकि अब शहरों में भी मेलों का आकर्षण बढने लगा है लेकिन उनमें गाँव के मेलों सा सौंधापन कहाँ......? इन मेलों के मूल में कोई अन्तर्कथा है ,संवेदना है और आदि लोक परंपरा है । यही कारण है कि इन आयोजनों का "लोक आस्था का मूल तत्व" तमाम अपसंस्कृति के बावजूद अब तक मिट नहीं सका है ।

मेले का अनूठापन ही है कि लोग स्वतः स्फ़ूर्त प्रेरणा से नियत तिथि और निश्‍चित स्थल पर साल दर साल जुड़ते रहते हैं , बगैर आमंत्रण की प्रतीक्षा किए ....। दशकों क्या सदियों से यही परंपरा चली आई है । लेकिन आज एक समाचार पढ़कर मन आशंकाओं से भर गया । एक साथ कई सवाल उठने लगे ज़ेहन में । मध्यप्रदेश में हर साल छोटे - बड़े करीब डेढ़ हज़ार मेले लगते हैं । धार्मिक ,सांस्कृतिक और सामाजिक सरोकारों से जुड़े इन मेलों पर अब राज्य सरकार का रहमो करम होने जा रहा है । दर असल यही सरकारी पहल ऊहापोह का सबब बनी है ।

मध्यप्रदेश लोककला और संस्कृतियों की विविधता को समेटे हुए है । प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में लगने वाले मेलों पर नज़र रखने के लिए राज्य सरकार मई तक मेला प्राधिकरण बनाने की तैयारी में है । यह सरकारी महकमा मेलों के इंतज़ाम के अलावा कलाकार जुटाने और पैसे के हिसाब किताब का ज़िम्मा भी सम्हालेगा । यूँ तो ये प्राधिकरण संस्कृति विभाग के अधीन ही काम करेगा मगर इसकी एक अलग समिति होगी । हर ज़िले में उप समितियाँ बनाई जाएँगी । दलील दी जा रही है कि मेलों में अश्लीलता के नाम पर जम कर विवाद होते रहे हैं । सरकार के मुताबिक इन घटनाओं पर अंकुश लगाने के लिए प्राधिकरण बनाने की ज़रुरत शिद्दत से महसूस की जा रही थी । संस्कृति विभाग चाहता है कि धार्मिक मेले धर्ममय होने चाहिए ।

अब इन दलीलों पर क्या कहा जाए ? मेरे शहर में कई मेले लगते हैं । इनमें मुम्बइया आइटम गर्ल्स के धमाल और दर्शकों के बवाल पर किसी की निगाह नहीं जाती । राजधानी में सरकारी ज़मीन पर बड़े- बड़े उद्योग घराने बरसों से निजी किस्म के मेले लगाते चले आ रहे हैं । व्यापारियों से स्टॉल लगाने के एवज़ में मोटी रकम लेते हैं और सरकार से तमाम तरह की छूट भी । हाल के सालों में इन बेशकीमती ज़मीनों को आयोजन समितियों के हवाले करने की माँग भी ज़ोर पकड़ने लगी है , जबकि ये मेले शुद्धतः व्यापारिक लाभ के लिए लगाये जाते हैं । इनमें संस्कृति या परंपरा को बचाये रखने जैसा कोई सरोकार नहीं है ।

ग्रामीण मेले लम्बे समय से बिना किसी व्यवधान के बेहतरीन ढंग से लगते चले आ रहे हैं । वैसे भी ग्रामीण अँचल की संस्कृति से जुड़े मेलों में अब तक तो कोई ऎसी शिकायतें सुनने में नहीं आईं । लगता है -" पीने वालों को पीने का बहाना चाहिए ।" ग्रामीण संस्कृति को बचाने के लिए वाकई ईमानदार कोशिश करना है , तो उसे सरकारी नियंत्रण से दूर ही रखना होगा । पंचायतों के ज़रिए गाँवों तक स्वराज पहुँचाने के ख्वाब का हश्र इस बात की पुष्टि करता है ।

कल ही मैं एक प्रादेशिक चैनल पर देख रही थी कि टीकमगढ ज़िले में किस तरह गाँव के लोगों ने बिना किसी सरकारी मदद के लम्बी चौड़ी नहर खोद डाली । जब सूबे के कई बड़े शहरों में पानी के लिए हाहाकार मचा है ,तब इस इलाके के कई गाँव ना सिर्फ़ अपनी और अपने मवेशियों की प्यास बुझा रहे हैं , बल्कि खेतों को लहलहाता देखकर आह्लादित भी हैं । सरकारी मदद के भरोसे ना जाने कितने वित्तीय साल बीत जाते ...? बजट आता लेकिन काग़ज़ी योजना को हकीकत में शायद कभी नहीं बदल पाता । मेरी राय में योजना के खर्च का एस्टीमेट ईमानदारी से बना कर पैसा उन सभी लोगों में बाँट दिया जाना चाहिए , जिन्होंने इस भगीरथी प्रयास को अंजाम दिया ।

एक तरफ़ तो योजनाओं को पूरा करने के लिए सरकार के पास पैसा नहीं है । दूसरी तरफ़ नेताओं और अधिकारियों की जेबें भरने के लिए प्राधिकरण बनाया जा रहा है । क्या यह फ़ैसला " तुगलकी फ़रमान" नहीं ....?
( चुनाव पूर्व चेतावनी - राजनीतिक दलों तक अपनी बात पहुँचाएँ , उन्हें बताएँ कि अब मतदाता पार्टी को नहीं ईमानदार और साफ़ छबि वाले उम्मीदवार को वोट देगा । पार्टियाँ जिस दिन इस बात को जान जाएँगी, तब " जीत की गारंटी वाला " आपराधिक छबि का प्रत्याशी चुनना आपकी मजबूरी नहीं होगी । यानी दिखावे पर ना जाएँ अपनी अकल लगाएँ । )

रविवार, 22 फ़रवरी 2009

नमक के बाद अब शिवराज का " कोयला सत्याग्रह "

लोकसभा चुनाव की दस्तक ने सियासी दाँव- पेंच तेज़ कर दिये हैं । मध्यप्रदेश में ज़बरदस्त बहुमत के साथ दोबारा सत्ता में लौटी भाजपा पर " सिर मुँडाते ही ओले पड़े" कहावत चरितार्थ होती दिखाई दे रही है । साम - दाम - दंड - भेद की नीति पर चल कर सत्ता सुख हासिल करने में भले ही भाजपा कामयाब रही हो ,लेकिन प्रकृति के कड़े तेवरों ने पार्टी के हाथ - पाँव फ़ुला दिये हैं ।

पूरे प्रदेश में पानी के लिए हाहाकार मचा है । हालाँकि सूरज ने तो अभी अपनी भृकुटी तानना तो छोड़िए , निगाहें तिरछी भी नहीं की हैं । पानी नहीं , तो बिजली नहीं । इधर चुनावी मौसम की गर्मी बढेगी , उधर बिजली -पानी की कमी से दो चार होती जनता का पारा चढेगा । राज्य सरकार ने हालात पर काबू पाने के सभी दरवाज़े बँद होते देख सारी मुसीबतों का ठीकरा केन्द्र सरकार के सिर फ़ोड़ने का मन बना लिया है ।

’पाँव- पाँव वाले भैया’ के नाम से मशहूर शिवराज सिंह ने अब गेंद केन्द्र के पाले में डालने के लिए ’सत्याग्रह’ का रास्ता चुना है । एक सत्याग्रह गाँधीजी कर गये और अब दूसरा शिवराज कर रहे हैं । वे नमक के लिए लड़े , ये कोयले के लिए । लेकिन भारत में "नमक" का नाता आन- बान - शान से है । मगर कोयले की शोहरत कुछ अच्छी नहीं.........! कोयले की दलाली में हाथ काले करने वालों को कभी भी अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता ।

शिवराज का कहना है कि आँख पर पट्टी बाँधे बैठी केन्द्र सरकार पर आग्रह , धरना , उपवास , प्रदर्शनों का तो कोई असर हो नहीं रहा । प्रधानमंत्री को राज्य के हालात से रुबरु कराने का हर नुस्खा नाकाम हो जाने के बाद अब वे ’न्याय यात्रा’ के माध्यम से बात पहुँचाएँगे । कल भोपाल से शुरु हुई उनकी यह न्याय यात्रा मंडीदीप , औबेदुल्लागंज , बुधनी , होशंगाबाद होते हुए इटारसी और सारणी (बैतूल) पहुँची । उन्होंने सारणी से पाथाखेड़ा तक का सफ़र पैदल तय किया । इस पाँच किलोमीटर की ऎतिहासिक यात्रा को नाम दिया गया - कोयला सत्याग्रह ।

वैसे कोयले और बिजली के कोटे में कटौती के अलावा भी कई ऎसे मसले हैं , जिन पर केन्द्र और राज्य सरकार में ठनी है । मुख्यमंत्री की शिकायत है कि सूखा राहत , समर्थन मूल्य पर खाद्यान्न की खरीद के लिए अनुदान , सर्व शिक्षा अभियान के लिए धन राशि समेत कई मदों में प्रदेश को केन्द्र की ओर से दी जाने वाली आर्थिक मदद समय पर नहीं मिल रही है । केन्द्र से पैसा मिलने की आस में ब्याज पर उठाया गया कर्ज़ भी दिन ब दिन बढता ही जा रहा है । इससे प्रदेश का बजट ही गड़बड़ा गया है । जिससे केन्द्र- राज्य के बीच की खाई गहरी होती जा रही है ।

प्रदेश सरकार के मुताबिक सर्व शिक्षा अभियान में इस साल 980 करोड़ रुपए खर्च किए गये । इसमें से 650 करोड़ रुपए केन्द्र से मिलना थे , मगर अब तक केवल 300 करोड़ रुपए ही मिले । इसी तरह समर्थन मूल्य पर खाद्यान्न खरीदी के लिए अक्टूबर 2008 से इस वर्ष मार्च तक मिलने वाले अनुदान की राशि 741 करोड़ रुपए भी अब तक नहीं मिल पाए हैं । राज्य सरकार ने अनाज खरीदी के लिए रिज़र्व बैंक से 13 फ़ीसदी पर कर्ज़ लिया है , जिस पर कर्ज़ की अदायगी समय से नहीं होने के कारण एक प्रतिशत का दांडिक ब्याज भी लग रहा है ।

मुख्यमंत्री के ’ कोयला सत्याग्रह’ को लेकर भाजपा उत्साहित है , ऎसे में काँग्रेस भी कब पीछे रहने वाली है । काँग्रेस ने पलटवार करते हुए शिवराज को पाँच सवालों पर खुली बहस की चुनौती दे डाली है । यानी तू डाल - डाल मैं पात- पात का खेल लगातार जारी है ।

बेचारी जनता कभी उस ओर आस भरी निगाहों से ताकती है , तो कभी इधर टकटकी लगाए निहारती है । नेता भी बेचारे क्या करें चुनाव होने तक टाइम पास भी करना है और जनता को भरमाए भी रखना है । हम तो दर्शक हैं । कभी मज़ा लेते हैं । कभी ताली पीटते हैं । मन आये तो वाहवाही करने लगते हैं या फ़िर पाला बदल - बदल कर अपना अनुभव बढाते रहते हैं । पब्लिक जो ठहरे .......! सो नौटंकी , खेल - तमाशा ,बाज़ीगरी जो चाहे कहिए , सभी कुछ जारी है ।
( चुनाव पूर्व चेतावनी - चोर- लुटेरों की फ़ौज से किसी को भी चुनने की बजाय " वोट" बेकार करने का हुनर सीखिए और इन तत्वों से छुटकारा पाइए )

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

चोर - चोर मौसेरे भैय्या ....


राजधानी में बुधवार की सुबह हुई हृदय विदारक घटना ने झकझोर कर रख दिया । गरीबी के आगे बेबस पिता ने अपनी चार बेटियों को ज़हर देने के बाद चाकू से गला रेत दिया । उसने अपनी गर्भवती बीवी की जान लेने की कोशिश के बाद खुद के पेट में चाकू मार लिया । दो बच्चियॊ ने तो घटना स्थल पर ही दम तोड दिया । दो लडकियां गंभीर हालत में अस्पताल में हैं और कल महिला की सांसें भी थम गईं । करीब पचास साल के शफ़ीक मियां होश में आ गये हैं लेकिन सदमे के कारण फ़िलहाल कुछ बताने की हालत में नहीं हैं ।

पिंजरे बनाकर रोज़ाना करीब सत्तर रुपए कमाने वाला शफ़ीक सात बच्चों का पेट भरने में खुद को लाचार पा रहा था । मुफ़लिसी से जूझ रहे परिवार में आठवें मेहमान के आने की खबर ने भूचाल ला दिया । होश में आई एक बच्ची का बयान है कि पापा अक्सर कहते थे कि खाने - पीने का ठीक तरह से इंतज़ाम ना कर सका तो एक दिन सब को मार दूंगा । हैरानी की बात है कि उसने अपने तीनों बेटों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया ।

इस घटनाक्रम ने एक बार फ़िर कई सवालों पर पडी गर्द हटा दी है । सरकार बीपीएल कार्ड धारकों को साढे चार रुपए किलो चावल ,तीन रुपए किलो गेंहूं देती है । केवल भोपाल ज़िले में डेढ लाख कार्डधारी हैं । इसी तरह अंत्योदय योजना में दो रुपए किलो गेंहूं , तीन रुपए किलो चावल और साढे तेरह रुपए किलो शकर दी जाती है । गरीबी से बेज़ार लोगों के जान देने का सिलसिला सवाल खडा करता है कि इन योजनाओं का फ़ायदा किसे मिल रहा है ?

हालात बयान करते हैं कि महंगाई के दौर में शफ़ीक के लिए परिवार की परवरिश नामुमकिन होती जा रही थी । ऎसे में परिवार बढाने की नासमझी का औचित्य भी समझ से परे है ...? क्या परिवार का विस्तार अपने पैरों पर कुल्हाडी मारने वाला कदम नहीं कहा जाएगा ? जब पढा - लिखा तबका परिवार की तरक्की के लिए दकियानूसी उसूलों को झटक कर अलग कर सकता हैं ,तो गरीब तबका क्यों नहीं इस दलदल से बाहर निकल आता ?

एक बडा और अहम सवाल ये भी है कि सरकार ने परिवार कल्याण के कई कार्यक्रम चलाये हैं । इस तरह के मामले इन योजनाओं का कच्चा चिट्ठा खोल कर रख देते हैं । योजना की विफ़लता पर क्या उस इलाके के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र ,स्वास्थ्य कार्यकर्ता , अधिकारी और अन्य ज़िम्मेदार लोगों के खिलाफ़ सख्त कार्रवाही नहीं होना चाहिए ? गरीब भूखे पेट सोये और मजबूरन मौत को गले लगाये , तो गरीबों के लिए चलाई जा रही योजनाओं पर पुनर्विचार करने की ज़रुरत है । लोगों को दीन - ईमान और दुनियादारी का फ़र्क समझाना ज़रुरी है । ये बताना लाज़मी है कि पेट की आग बुझाने के लिए मज़हबी बातें काम नहीं आती । पेट भरने के लिए तो रोटी ही चाहिए । हकीकत से रुबरु होकर ही हालात का सामना किया जा सकता है । बात - बात पर फ़तवा जारी करने वाले धर्म गुरु इस मुद्दे पर सामने क्यों नहीं आते ...?

समाज को तरक्की पसंद बनाने के लिए उसकी आबादी बढाना ही काफ़ी नहीं होता । इंसान और जानवरों में फ़र्क होता है । पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में कदम -कदम पर पैसे की दरकार होती है। "ज़्यादा हाथ ज़्यादा काम" का गणित आज के दौर में सही नहीं कहा जा सकता । वक्त बदला है ,तो सोच भी बदलना होगी ।

सरकारी मदद से चलने वाले तमाम एनजीओ के वजूद को लेकर भी ये घटना सवाल खडे करती है । राजधानी में ऎन सरकार की नाक के नीचे इतना दिल दहलाने वला हादसा हो जाना कोई मामूली बात नहीं है । यह घटना समाज के मुंह पर झन्नाटेदार चांटे के माफ़िक है । साथ ही उन नेताओं से भी कैफ़ियत मांगती है , जो गरीबों के हिमायती होने का दम भरते हैं । वोट की राजनीति में तादाद बढाने के लिए ज़ोर देने वाले नेता चुनाव के बाद इन बस्तियों का रुख भी नहीं करते । इन गरीबों को उनके हाल पर छोड देते हैं घुट घुट कर जीने के लिए या कहे तिल - तिल कर मरने के लिए ...। कौन सुनेगा इन मज़लूमों की आवाज़ ....।

धर्मगुरु मज़हबी किताबों का हवाला देकर आबादी बढाने का नारा तो देते हैं , मगर ये नहीं बताते कि इनका पालन - पोषण कैसे हो ? नेता वोट बैंक बनाते हैं पर बदले में क्या देते हैं ? गरीबों के लिए कागज़ों पर योजनाएं कई हैं और आंकडे बताते हैं कि बढिया तरीके से अंजाम भी दी जा रही हैं । लेकिन वास्तविकता इन कागज़ी बयानबाज़ी के कोसों दूर है । मध्याह्न भोजन के नाम पर कीडे - मकौडों से भरा दलिया या पंजीरी ....?

बीपीएल कार्ड पर सस्ते अनाज का कोई ठिकाना ही नहीं । राशन की दुकानों पर ताला । राशन का अनाज गोदामों से सीधा व्यापारियों की दुकानों पर उतारा जाता है । नेता , अधिकारी और ठेकेदार एक बार फ़िर यहां भी साथ - साथ ....। बचपन में इमरजेंसी के दौरान रेडियो पर ये गाना सुना था ,शायद उस वक्त इसके बोल समझ में नहीं आते थे ,लेकिन आज के दौर में एकदम सटीक है - "चोर - चोर मौसेरे भैय्या - इनका तो भगवान रुपैय्या ....।"

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2009

किसान की बदहाली पर विकास की इमारत

खेती को फ़ायदे का व्यवसाय बनाने का नारा लगाते हुए "किसान का बेटा शिवराज सिंह" दोबारा गद्दीनशीं हो गए लेकिन प्रदेश के किसानों के हालात ना पिछले पांच सालों में बदल सके और ना ही हाल फ़िलहाल इसकी कोई संभावना दिखाई देती है । सूखे और मौसम की मार से जूझते किसान बिजली के संकट से भी बेहाल हुए जा रहे हैं । कहीं खाद - बीज की किल्लत है , तो कभी नहरों में सिंचाई के लिए पानी और पंप चलाने के लिए बिजली की समस्या ।

खेती - किसानी को लाभकारी बनाने की लम्बी - चौडी बातें तो की जा रही हैं । ज़मीनी हकीकत एकदम अलग है । प्रदेश का अन्नदाता दाने - दाने को मोहताज है । फ़सल की वाजिब कीमत पाने के लिए किसानों को सडक पर आना पड रहा है । सरकारी महकमों में फ़ैले भ्रष्टाचार और कर्ज़ के बोझ तले दबे किसान खुदकुशी ले लिए मजबूर हैं ।

अपनी ताकत का एहसास कराने के लिए हाल ही में सूबे के करीब दो लाख किसान भोपाल में जमा हुए । भूमिपुत्रों ने सरकार को चेताया कि प्रदेश की अस्सी फ़ीसदी आबादी किसानों की है । उनकी आवाज़ लम्बे वक्त तक अनसुनी नहीं की जा सकती । भारतीय किसान संघ ने सरकार की किसान विरोधी नीतियों को खेती की बदहाली के लिए ज़िम्मेदार ठहराया है । संघ का कहना है कि फ़सल के वक्त बडी कंपनियां और व्यापारी कीमतें गिरा देते हैं । अक्टूबर - नवम्बर में जब सोयाबीन की फ़सल आई थी , तब भाव डेढ हज़ार रुपए क्विंटल था और अब सोयाबीन ढाई हज़ार रुपए क्विंटल तक जा पहुंचा है । न्यूनतम मूल्य पर कोई ठोस नीति नहीं होने से किसानों को उनकी मेहनत का औना - पौना दाम मिलता है ।

विधानसभा चुनाव के वक्त बढ - चढ कर घोषणाएं करने वाले मुख्यमंत्री अब खज़ाना खाली होने का रोना लेकर बैठ गये हैं । हालांकि उन्होंने गांवों के मास्टर प्लान बनाने जैसी बेतुकी और गैरज़रुरी मांग को तुरंत मान लिया । मगर इससे क्या किसान के हालात बदल जाएंगे ..? मास्टर प्लान बनाने से किसानों की ज़िंदगी सुधरेगी या नहीं नेता ,ठेकेदारों और अफ़सरों के दिन ज़रुर फ़िर जाएंगे । खेती को लेकर ना तो कोई गंभीर सोच और ना ही गंभीर प्रयास दिखाई देते हैं । जब तक समग्र नीति तैयार नहीं की जाती , तब तक देश मे अन्न का संकट भी दिनोंदिन विकराल होता जाएगा । साथ ही छोटे किसान खेती -बाडी के व्यवसाय से दूर होते रहेंगे ।

बेवजह सडकें नापने के शौक के कारण अक्सर मैं आसपास के ग्रामीण इलाकों का रुख कर लेती हूं । लेकिन चारों तरफ़ एक ही फ़सल देख कर बेहद अफ़सोस होता है । कभी प्याज़ का भाव तेज़ हुआ , तो अगले साल खेतों में प्याज़ ही प्याज़ ...। कभी फ़ूलगोभी ,कभी टमाटर तो कभी लहसुन । लोग देखादेखी में अच्छे दाम मिलने की उम्मीद में बुवाई कर देते हैं और यही उनकी जान का बवाल बन जाता है । भरपूर उत्पादन यानी कीमतों में गिरावट । नतीजतन कई बार किसान लागत मूल्य निकालने में भी नाकाम रहते हैं । क्या सरकार सालाना ऎसी योजना नहीं बना सकती , जिसमें हर इलाके के लिए फ़सलें तय कर ली जाएं और किसानों को बेहतर तकनीक सिखाई जाए ।

" बिना बिचारे जो करे , सो पाछे पछताए " का इससे बेहतर नमूना क्या हो सकता है कि इस बार प्रदेश की मंडियों में एक रुपए किलो आलू बिक रहा है । कैसा भद्दा मज़ाक है श्रम शक्ति का । खेतों में पसीना बहाने वाला , दिन - रात एक करने वाला किसान महज़ एक रुपया पा रहा है , जबकि रंगबिरंगे पैकेट और आकर्षक विज्ञापनों की बदौलत आलू चिप्स पांच सौ रुपए किलो तक बिक रहे हैं ।

भोपाल समेत कई अन्य ज़िलों में इस बार आलू की बम्पर पैदावार जी का जंजाल बन गई है । लागत की कौन कहे कोल्ड स्टोरेज का किराया निकाल पाना मुश्किल हो रहा है । साफ़ नज़र आता है कि सरकार की नीयत साफ़ नहीं है । मौजूदा नीतियां उद्योगपतियों के फ़ायदे और किसानों के शोषण का पर्याय बन गई हैं ।

औद्योगिक घरानों के लिए पलक पावडे बिछाने वाली सरकार उद्योग जगत को तमाम रियायतें , सेज़ के लिए मुफ़्त ज़मीन और करों में छूट का तोहफ़ा देने में ज़रा नहीं हिचकती । फ़िर किसानों के प्रति ऎसी बेरुखी क्यों ...? हीरे - मोती उगलने वाली धरती के सीने पर कांक्रीट का जंगल कुछ लोगों का जीवन चमक- दमक और चकाचौंध से भर सकता है लेकिन किस कीमत पर ...? भूखे पेट रात भर करवटें बदलने वाले लाखों मासूमों के आंसुओं से लिखी विकास की इबारत बेमानी है ।

हिन्दुस्तान की खुशहाली का रास्ता खेतों - खलिहानों की पगडंडी से होकर ही गुज़रता है । इसके रास्ते के कांटे और कंकड - पत्थर चुनना ज़रुरी है । किसान के चेहरे की चमक में छिपा है देश की तरक्की का राज़ .....। देश के रहनुमाओं , कब समझेंगे आप...........?

शनिवार, 24 जनवरी 2009

कर्मचारियों के बहाने गौर ने साधा निशाना

मध्यप्रदेश के नगरीय प्रशासन मंत्री बाबूलाल गौर के एक बयान पर बवाल मचा गया है । प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके श्री गौर ने पिछले हफ़्ते कहा था कि " जिसे काम नहीं करना होता ,वह सरकारी नौकरी में आता है ।" उन्होंने ये भी कहा कि सरकारी कर्मचारी सुस्त हैं और प्रदेश के विकास में बाधक भी ।

उनके इस बयान से भडके कर्मचारी लामबंद हो गये हैं । कर्मचारी संगठनों ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया ज़ाहिर की है । कर्मचारियों का कहना है कि नेता और मंत्री तो महज़ घोषणाएं करके वाहवाही लूटते हैं । सरकारी कामकाज तो कर्मचारियों के बूते ही होता है । लेकिन कर्मचारियों की नाराज़गी से बेपरवाह श्री गौर अब भी अपनी बात पर अडे हैं । उनकी निगाह में सरकारी मुलाज़िम अलाल और मुफ़्तखोरी के आदी हैं ।

जिन लोगों का सरकारी दफ़्तरों से साबका पडा है उन्हें गौर के बयान में शब्दशः सच्चाई दिखाई दे सकती है । ये भी सही है कि कार्यालयों में टेबलों पर पडी फ़ाइलों की महीनों धूल तक नहीं झडती । चाय - पान के ठेलों पर कर्मचारियों का मजमा जमा रहता है । ऑफ़िस का माहौल बोझिल और उनींदा सा बना रहता है । ऊंघते से लोग हर काम को बोझ की मानिंद बेमन से करते नज़र आते हैं । मगर इस सब के बावजूद सरकार का कामकाज चल रहा है तो आखिर कैसे ..?

गौर जैसे तज़ुर्बेकार और बुज़ुर्गवार नेता से इस तरह के गैर ज़िम्मेदाराना बयान की उम्मीद नहीं की जा सकती । हो सकता है ज़्यादातर कर्मचारी अपने काम में कोताही बरतते हों । उनकी लापरवाही से कामकाज पर असर पडता हो । लेकिन कुछ लोग ऎसे भी तो होंगे जो अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदार हों और अपने काम को पूरी मेहनत और लगन से बखूबी अंजाम देते हों । ऎसे में सभी को एक ही तराज़ू में तौलना कहां तक जायज़ है ? क्या ये ठीक माना जा सकता है कि सभी कर्मचारियों को निकम्मा और कामचोर करार दिया जाए ?

चलिए कुछ देर के लिए मान लिया जाए कि गौर जो कह रहे हैं वो हकीकतन बिल्कुल सही है , तो ऎसे में सवाल उठता है कि इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है ? क्या उस सरकार की कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती जिसमें गौर खुद शामिल हैं ? क्या सरकारी मुलाज़िम निठल्ले होने के साथ - साथ इतने ताकतवर हो चुके हैं कि वे मंत्रियों पर भारी पडने लगे हैं ? बकौल गौर कर्मचारी प्रदेश के विकास में बाधक हैं , तो क्या जिस विकास के दावे पर जनता ने भाजपा को दोबारा सत्ता सौंपी ,वो खोखला था ? और अगर विकास हुआ तो आखिर किसके बूते पर ....?

दरअसल इस मसले को बारीकी से देखा जाए तो इसके पीछे कहानी कुछ और ही जान पडती है । लगता है गौर की राजनीतिक महत्वाकांक्षा एक बार फ़िर बलवती होने लगी है । छठा वेतनमान मिलने में हो रही देरी से प्रदेश के कर्मचारी बौखलाए हुए हैं । ऎसे समय में गौर के भडकाऊ बयान ने आग में घी का काम किया है । प्रदेश में शिवराज सिंह के विकास के नारे को जिस तरह से जनता ने वोट में तब्दील किया उससे पार्टी में उनका कद अप्रत्याशित रुप से एकाएक काफ़ी तेज़ी से बढा है । दिग्विजय सिंह के दस साल के कार्यकाल से निराश हो चुके कर्मचारियों की समस्याओं को ना सिर्फ़ शिवराज ने सुना - समझा और उनकी वेतन संबंधी विसंगतियों को दूर करने के अलावा सेवा शर्तों में भी बदलाव किया । दिग्विजय सिंह भी स्वीकारते हैं कि शिवराज कर्मचारियों के लाडले हैं और उन्हीं की बदौलत वापस सत्ता हासिल कर सके हैं ।

गौर की बयानबाज़ी शिवराज की उडान को थामने की कोशिश से जोड कर भी देखी जाना चाहिए । इसे लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र कर्मचारियों में असंतोष की चिंगारी को हवा देकर दावानल में बदलने की कवायद भी माना जा सकता है । यदि लोकसभा चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन मनमाफ़िक नहीं रहा , तो शिवराज का विरोधी खेमा इस मौके को भुनाने से नहीं चूकेगा । मुख्यमंत्री पद की शोभा बढा चुके गौर वैसे तो "सूबे के मुखिया" होने के ’हैंग ओवर’ से अब तक बाहर नहीं आ पाए हैं । पिछली सरकार में वाणिज्य कर मंत्री रहते हुए वे गाहे बगाहे दूसरे महकमों के कामकाज में भी दखल देते रहे हैं ।

शिगूफ़ेबाज़ी कर मीडिया की सुर्खियां बटोरना उनका शगल है । कभी भोपाल को स्विटज़रलैंड बनाने का ख्वाब दिखा कर , कभी बुलडोज़र चलाकर , तो कभी इंदौर और भोपाल में मेट्रो ट्रेन चलाने की लफ़्फ़ाज़ी कर लोगों को लुभाने की कोशिश करने वाले गौर ने 2006 में प्रदेश को पॉलिथीन से पूरी तरह निजात दिलाने का शोशा छोडा था । कुछ दिन बाद पॉलिथीन निर्माता कंपनियों का प्रतिनिधिमंडल गौर से मिला । इसके बाद ना जाने क्या हुआ ....?????? प्रदेश में पॉलिथीन का कचरा दिनोंदिन पहाड खडे कर रहा है ।

मंगलवार, 20 जनवरी 2009

डॉक्टरों के नहले पर जब पडा दहला ......!!!

इस खबर को पढ कर ज़रा सोचिए कौन सी कहावत सबसे सटीक बैठती है :

* सेर को सवा सेर

* नहले पर दहला

* चोर के घर चोरी

* तू डाल डाल मैं पात - पात


किस्से अभी और भी हैं जाइएगा नहीं ..................
भोपाल के निजी नर्सिंग होम्स में मरीज़ों की सेहत के साथ खिलवाड के मामले आम हैं । मनमानी वसूली और मरीज़ के शरीर पर जमकर प्रयोग करने की शिकायतें भी अक्सर सुनने मिलती रहती हैं । जनता की सेवा के लिए सरकार से सस्ती दरों पर ली गई बेशकीमती ज़मीनों पर आलीशान होटल की मानिंद अस्पताल खडे कर दिये गये हैं , जिनमें नौसीखिए डॉक्टर अपना चिकित्सकीय ज्ञानार्जन कर रहे हैं ।

कुछ समय पहले मेरे छोटे बेटे कार्तिकेय के कारण जे पी अस्पताल का चक्कर लगाना पड गया । वहां के अनुभव ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया । हम सरकारी अस्पताल को हमेशा ही हिकारत भरी नज़रों से देखते हैं । छोटी - छोटी बातों के लिए नर्सों - डॉक्टरों को कोसने लगते हैं । लेकिन मैंने पाया कि कम सुविधा साधनों के बावजूद इन कर्मचारियों का स्नेहिल बर्ताव मरीज़ों और उनके परिजनों के लिए मानसिक संबल का काम करता है ।

वार्ड में दमोह से अपने पचपन साल के जीजा को इलाज के लिए भोपाल लाए एक व्यक्ति से बातचीत के दौरान पता चला कि वे शहर के मशहूर हार्ट अस्पताल में एक हफ़्ता गंवाने के बाद हार कर सरकारी अस्पताल की शरण में आए हैं । निजी अस्पताल प्रबंधन ने उन्हें 30-35 हज़ार रुपए का बिल थमा दिया जबकि रोगी हालत में सुधार आना तो दूर दिनबदिन गिरावट ही आती जा रही थी । आखिर में उन्होंने किसी तरह अस्पताल से छुटकारा पाया । बिना मांगे ही मुफ़्त सलाह देना , दूसरे के दुख में दुबला होना और गलत के खिलाफ़ आवाज़ उठाना मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है , इसलिए मैंने उन्हें बताया कि ये केस न्यूरोलॉजी से संबंधित है ना कि हृदय रोग से ।

इसी तरह पिछले दिनों एक और वाकया मेरे साथ ही गुज़रा । मेरी माताजी को भूख ना लगने की शिकायत के चलते और भी कई पाचन संबंधी दिक्कतों ने घेर लिया । दो - तीन दिन घरेलू उपचार के बाद हमने डॉक्टर से परामर्श का मन बनाया । घर के सबसे नज़दीक होने के कारण हम भी इसी अस्पताल पहुंचे । हमॆ रिसेपशनिस्ट ने लॉबी में बैठने को कहा । साथ ही इत्तला दी कि डॉक्टर करीब एक - दो घंटॆ बाद आएंगे । हम सभी इंतज़ार कर ही रहे थे कि एक वार्ड बॉय व्हील चेयर लेकर आ गया और पूछने लगा कि मरीज़ कौन है ? हम चौंके ...। बताया कि रोगी की हालत इतनी गंभीर नहीं है कि वो चल फ़िर भी नहीं सके । तब उसने कहा कि डॉक्टर साहब को आने में वक्त लगेगा और उन्होंने मरीज़ को आईसीयू में दाखिल करने का इंस्ट्रक्शन दिया है । ये सुनने के बाद तो हम सब हक्के बक्के रह गये और वहां से भाग निकलने में ही अपनी खैरियत समझी ।

बाद में हम तुरंत ही एक क्लीनिक पहुंचे , जहां केवल सौ रुपए फ़ीस लेकर एक दो दवाएं लिखीं और खानपान का खास ध्यान रखने की हिदायत देते हुए कहा कि बढती उम्र के साथ रेशेदार फ़ल - सब्ज़ियां खाएं , चिंता की कोई बात नहीं । कहना ना होगा कि तीसरे दिन ही मेरी माताजी चुस्त - स्फ़ूर्त हो गईं ...।

पिछले महीने कार्तिकेय को निजी अस्पताल में दिखाने की सज़ा भी हमने खूब पाई । छोटा सी दिक्कत के चलते डॉक्टर ने सोनोग्राफ़ी तक करा डाली । दवा के नाम पर ना जाने क्या लिख डाला कि रात होते तक मेरा दुबला पतला बेटा सूमो पहलवान हो गया । पूरी रात रोते-रोते बिताई उसने । सुबह डॉक्टर का पता ठिकाना तलाशते उनके घर पहुंचे ।

डॉक्टर दंपति का गैर पेशेवराना रवैया देखकर गुस्सा भी आया और हैरानगी भी । दवा के रिएक्शन से पूरे शरीर पर आई सूजन देख लेने के बावजूद उनका कहना - " हम घर पर मरीज़ को नहीं देखेंगे और क्लीनिक दस बजे खुलेगा ।" काफ़ी बहस के बाद उन्होंने बच्चे को देखा और कहा कि ये तो किसी गंभीर बीमारी का शिकार है , दवा के रिएक्शन का असर नहीं ।

सारा माजरा समझते ही हमने उसे रेडक्रास अस्पताल में दिखाया और दिक्कतों से छुटकारा पाया । डॉक्टर ने सभी दवाएं देखने के बाद बताया कि इनमें से एक दवा ऎसी है , जो अक्सर रिएक्शन करती है । उन्होंने पुरानी दवा बंद करके एंटी एलर्जिक दे दी और बच्चा दो दिन में ही उछलने कूदने लगा । नर्सिंग हो्म्स की कहानियां यानी हरि अनंत हरि कथा अनंता , बहु विधि कहहिं सुनहिं सब संता .......।










गुरुवार, 15 जनवरी 2009

एक मुल्क - दो कानून

हाल ही में मेरी एक परिचित से लंबे समय बाद मुलाकात हुई । बातचीत धर्म की आड में दूसरी - तीसरी शादी तक पहुंची । पहली बीवी के रहते कानून के फ़ंदे से बचने के लिए मज़हब बदलकर दोबारा शादी करने के मामले आजकल अक्सर सामने आते हैं । मामला किसी नामचीन शख्स से जुडा हो तो सुर्खियों में रहता है , वरना ऎसी घटनाएं कानाफ़ूसी तक ही सिमट कर रह जाती हैं । अपना परिवार गवां चुकी औरत का दुख दर्द , उसकी सिसकियां , उसकी पीडा घुटकर रह जाती है । सोचने वाली बात ये है कि एक ही देश के नागरिकों के लिए कानून अलग - अलग क्यों ....?

शायद एक डेढ साल पुरानी बात होगी । किसी प्रादेशिक चैनल पर जबलपुर की एक नवयुवती को सिसकते देखा । अदालत के बाहर खडी यह युवती कानून से न्याय मांगने आई थी , लेकिन आंख पर पट्टी बांधे न्याय की तराज़ू थामने वाली देवी ने अपने हाथ संविधान से बंधे होने की लाचारगी जता दी । मामला कुछ यूं था कि युवती के पति का कहना था कि उसने तलाक दे दिया है , लेकिन पत्नी इससे बेखबर थी और वह पति के साथ ही रहना चाहती थी ।

परिवार परामर्श केन्द्र की कोशिशें नाकाम होने पर वह न्याय की गुहार लगाने के इरादे से कानून का दरवाज़ा खटखटाना चाहती थी । युवती रो - रो कर एक ही बात कह रही थी कि ये कैसी अदालत है , जिसमें उसके लिए न्याय नहीं ....? अपने ही देश में बेगानेपन का एहसास लिए मायूस होकर लौट रही उस मुस्लिम युवती की निगाहों में सैकडों सवाल थे । वो पूछ रही थी कि आखिर वो भी दूसरे धर्म की औरतों की तरह ही अदालत से अपना हक क्यों नहीं पा सकती ...?

एक ही गांव , एक ही मोहल्ले में रहने वाली सुनीता और सबीना को पढने - लिखने , आगे बढने के लिए समाज में समान अवसर दिए जा रहे हैं तो जीवन जीने के व्यक्तिगत अधिकारों में भिन्नता क्यों ...? "मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना " की बात पर चलते हुए भारतीय संविधान में महिला को उसके धर्म के आधार पर क्यों बांटा गया है ?उसे अपने ही मुल्क में सिर्फ़ इंसान के तौर पर बराबरी के हक हासिल क्यों नहीं ? वह हिन्दू ,मुस्लिम ,सिख ,ईसाई नारी की बजाय भारतीय नारी कब कहलाएगी ? क्या ये ज़रुरी नहीं कि विवाह ,तलाक ,गुज़ारा भत्ता जैसे मुद्दों पर कानून बनाने वाले औरतों के हितों के मद्देनज़र मानवीय नज़रिया अपनाएं । उन्हें महज़ मज़हब के चश्मे से नहीं देखें ।

जब भी यह मुद्दा उठता है समाज में दो तरह की आवाज़ें सुनाई पडती हैं । कुछ लोग एक राष्ट्र एक कानून की बात पुरज़ोर तरीके से उठाते हैं , तो कुछ इसे इक मज़हब का अंदरुनी मामला बताते हैं । कई लोगों का कहना है कि मुस्लिम औरतों को अपने शौहर की चार शादियों पर कोई एतराज़ नहीं तो बेवजह इस मामले पर इतना बवाल क्यों ..? दलील यह भी है कि आज के दौर में चार बीवियां रखने की कूव्वत किसमें है ? लेकिन इस तंग गली का इस्तेमाल गाहे बगाहे मुस्लिमों के अलावा दूसरे लोग भी सरे आम करते रहे हैं ।

हालांकि अब मुस्लिम औरतें भी जुल्म ज़्यादतियों के खिलाफ़ खुल कर सामने आने लगी हैं । तलाक लेने में वे भी मर्दों से पीछे नहीं हैं । हाल ही में भोपाल में आयोजित दीनी तब्लीगी इज़्तिमा ए ख्वातीन में उलेमाओं की तकरीर के दौरान यह खुलासा हुआ । "शरीयत से हटकर दुनियावी माहौल के कारण तेज़ी से तलाक और खुला के मामले बढ रहे हैं ।" ये आंकडे सामाजिक रुप से आतंकवाद से भी खतरनाक है । इससे रोज़ कई परिवार प्रभावित हो रहे हैं ।

तलाक और खुला के चौंकाने वाले आंकडों पर मशविरे के बाद ज़्यादातर ख्वातीनों का कहना था कि पिछले पांच साल में इनमें कई गुना तेज़ी आई है । उनके मुताबिक शरीयत से भटकने के कारण ऎसे हालात पैदा हो रहे हैं । लोग दीन की बजाय मालदार होने और सीरत की बजाय सूरत को ज़्यादा तवज्जोह देने लगे हैं । रिश्तों की हदें टूटने से भी तलाक के मामलों में इज़ाफ़ा देखा गया है ।

महिला उलेमाओं के इस समागम में और भी कई मुद्दों पर तकरीरें हुईं । उलेमाओं ने समाज और परिवार की बुनियाद में औरत की अहमियत पर तकरीर की । उनके मुताबिक मां की दीनी नसीहत पुख्ता हो , तो तमाम दुनियावी तालीम हासिल करने के बावजूद बच्चा कभी ईमान की राह से नहीं भटक सकता । औरतों में पश्चिमी सोच के बढते चलन कडा एतराज़ जताया गया । वहीं आज़ादी के नाम पर सौंदर्य प्रतियोगिताओं की आड में बेसाख्ता खुलेपन पर भी सवाल उठाए गये । नाजायज़ औलादों और एड्स को उलेमाओं ने औरत की आज़ाद ख्याली का नतीजा बताया ।

ये सच है कि तलाक की पहल कोई भी करे , टूटता तो पूरा परिवार ही है । फ़िर भी एक बात है जो रह - रह कर मन को कचोटती है कि तलाक की पहल अगर औरत करे , तो उसे आज़ाद ख्याली क्यों समझा जाता है । तलाक के मानी सिर्फ़ दो लोगों का जुदा हो जाना कतई नहीं है । इसका असर पूरे समाज पर भी होता है ।

गुरुवार, 8 जनवरी 2009

या इलाही ये माजरा क्या है ............

गणेश शंकर विद्यार्थी , माखनलाल चतुर्वेदी जैसे पत्रकारों ने कलम की खातिर नैतिकता के नए नए प्रतिमान स्थापित किए ।
खींचों ना तलवार ना कमान निकालो
जब तोप हो मुकाबिल तो अखबार निकालो ।
संभवतः ऎसा ही कोई शेर है ,जो पत्रकारों को नैतिकता के साथ व्यवस्था के गुण दोष सामने लाने का हौंसला और जज़्बा देता है । पत्रकारिता आज़ादी के पहले तक , बल्कि आज़ादी के कुछ साल बाद तक मिशन हुआ करती थी । अब पत्रकारिता मशीन बन गई है , उगाही करने की मशीन ....। सबसे ज़्यादा चिंता की बात ये है कि अब मालिक ही अखबार के फ़ैसले लेते हैं और हर खबर को अपने नफ़े नुकसान के मुताबिक ना सिर्फ़ तोडते मरोडते हैं , बल्कि छापने या ना छापने का गणित भी लगाते हैं ।
भोपाल से निकलने वाले एक अखबार ने नए साल में पत्रकारिता के नए मानदंड स्थापित किए हैं । अपनी तरह का शायद ये पहला और शर्मनाक
मामला होगा । अपने आपको समाज का हित चिंतक बताने वाले इस अखबार ने दो जनवरी को एक समाचार दिया और फ़िर चार जनवरी को इसी समाचार पर U टर्न मार लिया । संभव है कि आने वाले सालों में पत्रकारिता जगत में आने वाले छात्र इसे कोर्स की किताबों में भी पाएं। कहानी पूरी फ़िल्मी है । आप ही तय करें ये सच है या वो सच था .........
दो जनवरी को प्रकाशित चार जनवरी को प्रकाशित



































































रविवार, 4 जनवरी 2009

इंसानों के बाद जानवरों को गोद लेने की परंपरा........

भोपाल के राष्ट्रीय उद्यान वन विहार ने वन्यप्राणियों के संरक्षण के लिए अनूठी पहल की है -जानवरों को गोद लेने की । इस योजना में अब कोई भी संस्था या व्यक्ति प्राणियों के रखरखाव की ज़िम्मेदारी ले सकेगा । योजना में बाघ ,शेर , तेंदुआ से लेकर मगरमच्छ ,घडियाल और रीछ - भालू भी शामिल किए गये हैं । शेर को गोद लेने के लिए एक लाख ग्यारह हज़ार रुपए खर्च करना हों गे , जबकि बाघ की ज़िम्मेदारी उठाने के लिए सवा लाख रुपए जमा कराने पडेंगे ।

अगर आप पशु प्रेमी तो हैं लेकिन ये खर्च आपके बजट से बाहर की बात है , तो भी चिंता की कोई बात नहीं क्योंकि वन विभाग ने मध्यम वर्ग का ख्याल रखते हुए जेब पर भारी ना पडने वाले जानवरों को भी फ़ेहरिस्त में जगह दी है । अजगर छह हज़ार रुपए के खर्च में आपका हो सकता है । अगर यह फ़ीस भी ज़्यादा है , तो भी निराश होने की ज़रुरत नहीं है । सालाना दो हज़ार रुपए में साँप पालना भी बुरा सौदा नहीं है । वैसे भी शहरी ज़िंदगी में लोगों का आए दिन अजगरों से साबका पडता है । चाहे अनचाहे "आस्तीन के साँप" पल ही जाते हैं । ऎसे में घोषित तौर पर होर्डिंग पर नाम दर्ज कराकर साँप-अजगर , घडियाल ,मगरमच्छ पालने में बुराई भी क्या है ...?

खबर है कि एक छात्रा ने अजगर पालने का फ़ैसला लेकर योजना का श्रीगणेश भी कर दिया है । मेरे जैसे शख्स के लिए तो साँप भी बजट से बाहर है । लेकिन इस मुहिम में भागीदार नहीं बन पाना आगे चलकर कई लोगों के लिए फ़्रस्ट्रेशन का सबब भी बन सकता है । समाज में , अपने सर्किल में क्या मुंह दिखाएंगे ..? किस तरह लोगों की हिकारत भरी निगाहों का सामना कर पाएंगे....? उम्मीद है वन विभाग हम जैसों का ख्याल भी ज़रुर रखेगा । मुझे तो लगता है कि केन्द्र सरकार ने जिस तरह मध्यम वर्ग का खयाल रखकर घर ,कार वगैरह के लिए सस्ता कर्ज़ देने की मुहिम छेडी है । उसी तर्ज़ पर वन विभाग को भी आम जनता की माँग पर बिच्छू , केंचुए, सेही , मॆढक , गिरगिट जैसे सस्ते जीव - जन्तुओं के पालनहार ढूंढना होंगे ।

कुछ साल पहले भोपाल में इतनी बारिश हुई थी कि बाढ के हालात बन गए थे । नाले की ज़मीन पर कब्ज़ा कर घर बना कर रहने वालों के घर पूरी तरह तबाह हो गए थे । तब मैंने पढा था कि पानी के घर में घुसोगे तो पानी एक दिन तुम्हारे घर में घुसेगा । इंसानी गल्ती के लिए पानी को कोसना बेतुका और बेमानी है । दो तीन दिन पहले धार के रिहाइशी इलाके में घुस आए तेंदुए को लोगों ने बेरहमी से पीट - पीट कर मार डाला । भोपाल के नज़दीक नाले पर पानी पीने आए भालू को भी लोगों ने अधमरा कर दिया ।

ऎसी ही दर्दनाक घटनाएं देश के अलग अलग इलाकों से आए दिन सुनने मिलती हैं । अपने लालच के चलते खेतों - जंगलों का सफ़ाया करके शहरों का विस्तार करने वाले इंसान ने वन्य प्राणियों को उनके ही घर से बेदखल कर दिया है । अब इन्हीं जानवरों को गोद लेने की नायाब तरकीब का हवाला देकर कौन सी अनोखी बात होने जा रही है देखना होगा ।

जंगल कट रहे हैं , जानवर बेघर हो रहे हैं । वन विभाग के अपने तर्क हैं ,कभी बजट ,कभी अमला ,तो कभी संसाधनों की कमी का रोना । साल दर साल कांक्रीट का जंगल विस्तार पा रहा है और हरा भरा नैसर्गिक जंगल अस्तित्व खो रहा है । मध्यप्रदेश में 1960- 61 में 173 हज़ार वर्ग किलोमीटर जंगल था ,जो 1980- 81 के आने तक सिकुड कर 155 हज़ार वर्ग किलोमीटर रह गया । मौजूदा आंकडों के मुताबिक राज्य में जंगल अब महज़ 95 हज़ार 221वर्ग किलोमीटर है ।

एक समय था जब प्रदेश यह दावा करता था कि देश का लगभग एक चौथाई वनक्षेत्र होने के कारण वन आधारित उद्योग इसी अनुपात में प्रदेश को दिए जाना चाहिए । लेकिन अब तस्वीर रफ़्ता रफ़्ता बदल रही है । सरकारी आंकडों के मुताबिक प्रदेश में 31 फ़ीसदी वन भूमि है लेकिन वन आच्छादित क्षेत्र अब 25 प्रतिशत ही है । वास्तविक वनक्षेत्र अब बमुश्किल 15 से 18 फ़ीसदी के बीच रह गया है ।

मेरे पिताजी मुझसे अक्सर कहा करते हैं कि जिस भी इलाके में नया थाना खुलता है ,वहां एकाएक अपराधों की तादाद में इज़ाफ़ा देखा जाता है । कमोबेश यही स्थिति वन अमले के साथ भी है । वन विभाग में अफ़सरों की तादाद जैसे जैसे बढती गई ,जंगल भी उसी रफ़्तार से गायब होते गये ।
इस बीच दिल को सुकून देने वाली खबर है कि खरबों रुपए खर्च करके भी जो काम सरकारी अमला नहीं कर सका । उसे एक शख्स की दृढइच्छा शक्ति और मज़बूत इरादों ने हकीकत में बदल दिया । भोपाल के उमर अलीम ने राजधानी के नज़दीक अपने पैतृक गांव हिनौतिया जागीर की बंजर पहाडी पर हरियाली की चादर बिछा दी । पैंसठ एकड की सूखी पहाडी के पन्द्रह एकड हिस्से में उमर अलीम ने चौबीस साल पसीना बहाकर सागौन के बारह हज़ार पेड जवान कर दिए । दस लाख रुपए की लागत और खुद की मेहनत के बूते जंगल खडा कर उमर अलीम ने तमाम सरकारी अमले के मुंह पर करारा तमाचा जडा है और किन्तु - परन्तु के फ़ेर में बहाने बनाने वालों के लिए मिसाल कायम की है ।

पचास के दशक में प्रकाशित पुस्तक "द वाइल्ड लाइफ़ ऑफ़ इंडिया" की प्रस्तावना में देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने लिखा था - "वन्यप्राणी - यह नाम हमने वनों के उन वन्यपशुओं और पक्षियों को दिया है जिनके बिना जीवन अधूरा है और जंगल सूने हैं । काश ! यदि यह प्राणी बोल पाते और हम इनकी भाषा समझ पाते तो हमें पता चल जाता कि इनके विचार हमारे बारे में बहुत अच्छे नहीं हैं ।"

नेहरु जी की ये टिप्पणी आज भी उतनी ही सटीक है । वन्यप्राणियों के विचार प्रश्न बन गए हैं । प्रश्न जो मरणासन्न श्रवण कुमार ने दशरथ से किया था , जो आज हर शिकार अपने शिकारी से करता है । सदियों से ये सवाल आकाश में गूंज रहा है लेकिन आज तक कोई जवाब धरती पर नहीं उतरा है । शब्दबेधी बाण का नतीजा तो दशरथ ने पुत्र वियोग में प्राण देकर भोगा । लेकिन उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में जो भीषण वन और वन्यप्राणी संहार हुआ उसका परिणाम कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि हमारी आने वाली कई नस्लें भयावह पर्यावरण असंतुलन से उपजी प्राकृतिक आपदाओं के रुप में भुगतेंगी ।

मंगलवार, 30 दिसंबर 2008

हिन्दी ब्लॉगिंग पर टिड्डी दल का हमला

सावधान ब्लॉगर बंधुओं .....। हिन्दी के विकास के लिए काम करने वाले मठाधीशों के टिड्डी दल हमले की तैयारी में है । राजभाषा हिन्दी के उद्धारकों की निगाह हिन्दी ब्लॉगिंग पर पड गई है और जल्दी ही ये खेमा पूरे लाव लश्कर के साथ धावा करने वाला है । लार्वा और प्यूपा तो काफ़ी समय से नज़र आ रहे थे , लेकिन टिड्डी दल का आक्रमण हम जैसे तमाम छोटे - छोटे नौसीखिए ब्लॉगरों की नई उगती फ़सल को मिनटों में सफ़ाचट कर देगा । हिन्दी पर कृपादृष्टि बरसाने वाले पतित पावनों को अब ब्लॉग जगत के उद्धार [बंटाढार] की फ़िक्र सताने लगी है ।

कविता , व्यंग्य , निबंध और कहानी पाठ के माध्यम से हिन्दी को लोकप्रिय बनाने के हथकंडे आज़मा रहे ’चुके हुए लोग” अब हिन्दी ब्लॉग पाठ के प्रयोग को सफ़ल बनाने पर उतारु हैं । इस कवायद से हिन्दी का कितना भला हो सकेगा ये तो वक्त ही बताएगा । लेकिन इस नई पहल से हिन्दी के मठाधीशों का भला होना तय है ।

मेरा मानना है कि सरकारी अनुदान और प्रश्रय पाकर हिन्दी की चिन्दी ही हुई है । अंग्रेज़ीदां हिन्दी प्रेमियों ने हिन्दी को किताबी भाषा बनाकर रख दिया है । गोष्ठियों , चर्चाओं तक सिमट कर रह गई राजभाषा की इस दुर्दशा के लिए हिन्दी के ही स्वनामधन्य विद्वान ज़िम्मेदार हैं । "किसी देश की स्मृति ,संस्कृति और राष्ट्रीयता को भाषा ही प्रतिबिम्बित करती है ।" शैलेश मटियानी के इस कथन को यदि थोडा और विस्तार दिया जाए तो कहा जा सकता है - किसी देश की स्मृति ,संस्कृति और राष्ट्रीयता को भाषा ही संरक्षित भी रखती है ।

जिस तरह स्मृति ,संस्कृति और राष्ट्रीयता के प्रश्न किसी जाति की अस्मिता से जुडे होते हैं , उसी तरह भाषा का प्रश्न भी हमारी अस्मिता और हमारे अस्तित्व से जुडा है । लेकिन आज मुश्किल ये है कि ये सवाल चंद मुट्ठी भर लोगों के चिंतन का विषय बनकर रह गया है । इस जमात में भी कई लोग ऎसे हैं , जो खुद भी अपने कहे और सोचे पर अमल करने में नाकाम हैं । बाकी बचे वे लोग जो कुछ करने की स्थिति में हैं ,मगर निहित स्वार्थों के वशीभूत आँखें मूंद रखी हैं और देश को उसके हाल पर छोड दिया है , जबकि इस जनतंत्र में जन की तो अभी ठीक से आँखें भी पूरी तरह नहीं खुलीं हैं । मूंदने या सच को देखने या फ़िर अनदेखा करने की तो बात ही कौन कहे ...?

बहरहाल मुख्य मुद्दा ये है कि ब्लॉग पाठ के ज़रिए हिन्दी को जनप्रिय बनाने की कोशिश कितनी कारगर साबित होगी । आप मुझे कुएं का मेंढक करार दे सकते हैं ,लेकिन मैं तो भोपाल को केन्द्र में रखकर ही चीज़ों को देखने समझने की आदी हो चुकी हूं । वैसे भी जिस तरह इंदौर को मुम्बई बच्चा कहा जाता है ,उसी तरह दिल्ली और भोपाल के मिजाज़ भी कमोबेश एक से हैं । सरकारी ढर्रा दोनों राजधानियों की तस्वीर को हमजोली बना देता है । ये और बात है कि दिल्ली का इतिहास काफ़ी लम्बा है और भोपाल महज़ डेढ - दो सौ सालों की यादें अपने में समेटे है ।

भोपाल में एक हिन्दी भवन है । जूते ,चप्पल ,कपडों की महासेल और विवाह समारोह के शोर शराबे के बीच यहां हिन्दी की सेवा कितनी हो पाती है भगवान ही जाने ...। यही हाल हिन्दी साहित्य सम्मेलन का भी है । इसी तरह की कुछ और भी हिन्दी सेवी संस्थाएं हैं , जो 14 सितम्बर [हिन्दी दिवस]के आसपास सुसुप्तावस्था से बाहर आती हैं और फ़िर ’हाइबरनेश’ में चला जाता है । हिन्दी का सारा ज्ञान ’सरकारी अनुदान’ हासिल करने की लिखत - पढत में ही काम आता है ।

कहावत है -" जहं - जहं पैर पडे संतन के , तहं - तहं बंटाढार ।" उसी तरह जिस जगह सरकार की कृपावर्षा हुई , उसका तो खुदा हाफ़िज़ ...। संगीत , नाटक , ललित कला , हस्तकला और लोक कलाओं के संरक्षण के लिए चिंतातुर बडे - बडे सरकारी संस्थान ’ सफ़ेद हाथी’ बन चुके हैं और कलाएं धीरे - धीरे दम तोड रही हैं । हाल ही में राजधानी में एक लोककला समारोह हुआ था , जिसका आमंत्रण पत्र किसी धनाढ्य के बेटे की शादी की पत्रिका से किसी भी मायने में कमतर नहीं था । उस कार्ड की कीमत सुन कर तो मेरे होश ही फ़ाख्ता हो गये । चार सौ रुपए कीमत के आमंत्रण पत्र वाले आयोजन पर सरकार ने कितना खर्च किया होगा , इसका अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है , लेकिन इससे लोक कलाकारों की ज़िन्दगी में क्या बदलाव आया ..?लोक कलाकारों के लिए ये आयोजन -’चार दिन की चांदनी , फ़िर अंधियारी रात।’

इसलिए एक बार फ़िर आपको आगाह किए देते हैं कि बचा सको तो , बचा लो हिन्दी ब्लॉगिंग को ...। हिन्दी के मठाधीशों के जैविक हमले से बचने के उपाय सोचो , वरना हिन्दी ब्लॉगिंग की ’भ्रूण हत्या’ की पूरी आशंका है । जिस भी विधा में आम को ठेल कर खास लोग आते हैं , वह संग्रहालय में प्रदर्शन की वस्तु बनकर रह जाती है । जागो ब्लॉगर जागो ............

रविवार, 28 दिसंबर 2008

शनिदेव की न्यायप्रियता पर उठते सवाल

देश के श्रद्धालुओं के दिलों में इन दिनों शनि महाराज का वास है । तमाम मुश्किलात से दो चार हो चुके प्रवचन किंग आसाराम का सिंहासन बिनाका गीतमाला का सरताज बना रहने में कामयाब है । प्राणायाम और कपालभाति सिखाते - सिखाते बाबा रामदेव योग गुरु से राजनीति के गुरु घंटाल बनने की जुगत भिडाने में जुट गये हैं । राज कपूर ने राम जी को मैली होती गंगा की दुहाई दी थी ,लेकिन तब ना सरकार जागी ना ही जनता चेती । अब जब कुछ उद्योग घरानों को विलुप्त होती गंगधारा में खज़ाना नज़र आने लगा है , तो भागीरथी को बचाने के लिए सरकारी तौर पर प्रयास शुरु करने की बात कही जा रही है

इस बीच न्याय के देवता कहे जाने वाले शनिदेव के आराधकों का ग्राफ़ दिनोंदिन ऊर्ध्वगामी होता जा रहा है । ज़्यादा वक्त नहीं गुज़रा जब लोग शनि की दृष्टिपात से भी खौफ़ज़दा रहते थे । शनि का दान देते समय सावधान्र रहते थे । शनि दान लेने वाले के प्रति भी नज़रिया ज़रा तंग ही होता था । लेकिन जय हो टीवी देव की...........।

कहते हैं ना , वक्त का फ़ेर है । समय होत बलवान । सो चैनलों ,समाचार पत्रों , ज्योतिषियों और चंद स्वनाम धन्य शनि उपासकों के गठजोड ने ’छाया मार्तंड” को त्रिलोक का अधिष्ठाता बना दिया । पिछले चार - पांच सालों में भोपाल में कदम कदम पर शनि महाराज ने डेरा डाल लिया है । हर मोर्चे पर नाकाम रहे एक शख्स ने एक ज़मीन पर बलात कब्ज़ा किया , फ़िर शनि की महिमा का बखान किया । घर पर शनि का दरबार सजाया , लोगों को शनि के दंड का डर दिखाया । आज वह करोडों की ज़मीन का स्वामी है ।

न्याय के इस आधुनिक देवता ने इस उपासक पर इतनी कृपा बरसाई कि ४० हज़ार रुपए स्क्वाय्रर फ़ुट की न्यू मार्केट की ज़मीन उसकी झोली में डाल दी । यहां नगर निगम के पार्किंग स्थल पर पिछले एक साल में शनिदेव ने अपना झंडा ना सिर्फ़ गाड दिया बल्कि करीब पांच हज़ार स्क्वाय्रर फ़ुट पर देखते ही देखते शिंगनापुर के शनि महाराज का प्राकट्य हो गया । कल की शनिश्चरी अमावस्या ने भी आराधक पर खूब कृपा वर्षा की । हज़ारों भक्तों ने काले तिल , महंगे तेल और काले वस्त्रों का दान कर शनिदेव का भरपूर आशीर्वाद लिया ।

शनिदेव की बढती लोकप्रियता ने तो तैंतीस करोड देवताओं में से कुछ लोकप्रिय और सर्वव्यापी भगवानों को भी पीछे छोड दिया है । शबरी के राम और कुब्जा के कृष्ण की तो कौन कहे , हर पुलिस चौकी में पीपल के नीचे विराजमान रामभक्त पवनपुत्र हनुमान की पूछपरख भी कम हो चली है । मेरे घर के चार किलोमीटर के दायरे में सरकारी ज़मीनों पर अब तक मैं कम से कम दस शनिधाम देख चुकी हूं ।

जिस तरह बालीवुड में तीन खानों का बोलबाला है । उसी तरह आस्था के बाज़ार में शनिदेव सहित तीन देवताओं ने धूम मचा रखी है । जब से शनिदेव के साथ धन की देवी लक्ष्मी का उल्लेख किया जाने लगा है , भौतिकवाद का उपासक समाज एकाएक शनिदेव का आराधक हो गया है ।
मैंने तो शनि को न्याय के देवता के रुप में जाना - समझा । बेशर्मी से ज़मीन हथियाने और लोगों की आस्था के साथ खिलवाड करने वाले लोगों को रातों रात धनाढ्य होते देख कर मन संशय से भर उठता है ।

क्या वाकई शनि न्याय प्रिय हैं ...? अगर हैं , तो क्या धर्म और न्याय की परिभाषा बदल गई है .....? शनि गलत काम करने वालों को तत्काल दंडित करते हैं ऎसा कहा गया है । यदि ये सच है तो फ़िर ये माना जाए कि बेजा कब्ज़ा , दूसरों का माल हडपना , रिश्वतखोरी , चंदाखोरी , गुंडागर्दी और कायदे कानूनों का उल्लंघन अपराध नहीं हैं । शनि देव तो हो सकता है कुछ वक्त लगाएं ,लेकिन जिन अधिकारियों और नेताओं की नाक के नीचे ये सब काम होता है और जिसे रोकना उनकी ज़िम्मेदारी है , वो क्यों आंखें मूंदे बैठे रह्ते हैं .....? इनकी आंखें कब और कैसे खुलेंगी ....... खुलेंगी भी या नहीं .......? कह पाना बडा ही मुश्किल है .....?

शनिदेव से निराशा हाथ लगने के बाद अब तो मेरी निगाहें कल्कि अवतार पर ही टिकी हैं । हे कल्कि देव सफ़ेद घोडे पर हो कर सवार जल्दी लो अवतार ........।

मंगलवार, 2 दिसंबर 2008

दो - तीन दिसम्बर की दरमियानी रात का खौफ़नाक मंज़र

पिछले २३ सालों से हर बार आज के दिन लगता है कि कैलेंडर में २-३ दिसंबर की तारीख आती ही क्यों है ? आज शाम से मन कुछ उदास है । ३ दिसंबर १९८४ की सुबह का खौफ़नाक मंज़र अपनी चपेट में लेने लगता है और एकाएक सब कुछ बिखर सा जाता है ।
आगे की पढाई से छुटकारा पाने की गरज और अपने पैरों पर खडे होने की ललक से शुरु की गई नौकरी के नियम बडे सख्त थे । कडाके की ठंड में भी सात बजे तक स्कूल में हाज़िरी ज़रुरी थी , तय समय से पांच मिनट की देरी यानी आधे दिन की तनख्वाह का सफ़ाया ।

शिवाजी नगर से लखेरापुरा तक करीब ८-९ किलोमीटर का फ़ासला है । रास्ते भर लोगों की बदहवास भीड का सबब समझ से बाहर था ।{ खबरिया चैनल जो नहीं थे पल -पल की हलचल बयान करने के लिए , काश होते ....] लोग रजाई - कंबल लिए टी टी नगर का रूख किए थे । लग रहा था मानो किसी जुलूस या मेले में शिरकत करने जा रहे हैं इक्ट्ठा होकर । स्कूल पहुंचने प् देखा वहां भी सभी कुछ बातें कर रहे हैं । वातावरण में अजीब सी गंध समाई है । सब एक - दूसरे को अपनी आप बीती सुना रहे हैं । हालांकि तब तक किसी को हालात की गंभीरता का ज़्यादा अंदाज़ा नहीं था ।
पुराने शहर की तंग गली में चलने वाले स्कूल के बाहर एकाएक शोरगुल सुनाई देने लगा । लोग एक ही दिशा में बिना कुछ सुने भागे जा रहे थे । और हमें भी कुछ ऎसा ही करने का मशविरा दे रहे थे । लोग चिल्ला रहे थे कि भागो टंकी फ़ट गई है । आधी रात में गैस की रिसन के पीडादायी अनुभ से गुज़र चुके लोगों के लिए ये खबर मौत से रुबरु होने के समान थी ।
हर शख्स की आखें सुर्ख ,सूजी हुईं । जलन करती आंखॆं खोल पाना भी नामुमकिन ,लेकिन जान से ज़्यादा कीमती भला क्या ..। मांएं अपने बच्चों को छाती से चिपकाए , अंगुली पकडे दूर चली जाना चाहती थीं किसी महफ़ूज़ ठिकाने की तलाश में । बाद में पता चला कि ये महज़ अफ़वाह थी । तूफ़ान तो रात में ही अपना काम कर गया था ।
दोपहर बाद हालात को समझने के लिए मैं अपने पिता के साथ जेपी नगर ,कैंची छोला ,चांदबड इलाके मे गई । इतना भयावह मंज़र मैंने आज तक नहीं देखा । चारों तरफ़ पसरा सन्नाटा मौत के तांडव को बयान कर रहा था । सभी तरह के पालतू और आवारा जानवरों की फ़ूली हुई लाशें ,
सांय - सांय करती सडकें और सूने पडे मकान ....। हमीदिया अस्पताल ,काटजू और जेपी हास्पिटल में चारों तरफ़ हाहाकार ।
हादसे के कुछ घंटे बाद से शुरु हुई राजनीति का दौर अब भी बदस्तूर जारी है । पहले हादसे में हुई मौतों के आंकडे पर राजनीति ,फ़िर मुआवज़े पर और फ़िर पूरे शहर को मुआवज़ा दिलाने पर ।कई संगठन न्याय दिलाने के लिए आगे आए । कुछ नदारद हो गये । जो शेष हैं उनकी आपसी खींचतान बरकरार है । गैस पीडितों के बेहतर और मुफ़्त इलाज के लिए सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर बनाए गए अस्पताल में पीडितों की कोई सुनवाई नहीं । इस पांच सितारा अस्पताल में उच्च वर्ग को ही अच्छा इलाज नसीब है । सरकारी अस्पतालों की बेरुखी के चलते पुराने भोपाल के डाक्टरों की प्रेक्टिस भी खूब चली ।
मुआवज़ा मिलने से गैस पीडितों की समस्याएं कम नहीं हुईं । पैसा मिला , लेकिन भोपालियों की तबियत ही कुछ ऎसी है कि रुपया देखते ही हथेली खुजाने लगती है । आज पैसा है तो सैर सपाटा , सौदा सुलफ़ ,किर भले ही कल फ़ाकाकशी की नौबत ..। मुआवज़ा बंटने का असली फ़ायदा तो मिला शहर के सोने - चांदी और कपडों के व्यापारियों को ।
हज़ारों गैस पीडित आज भी हर रोज़ तिल -तिल कर मर रहे हैं । लाइलाज बीमारियों की चपेट में हैं । गैस कांड की बरसी पर सर्व धर्म प्रार्थना सभा और श्रद्धांजलि की औपचारिकता निभाने के बाद सब पहले सा हो जाता है । आज के अखबार ने खबर दी है कि गैस पीडितों की बीमारियों का इंडियन कौंसिल आफ़ मेडिकल रिसर्च २४ साल बाद एक बार फ़िर अध्ययन कराने जा रही है । कभी कभी तो लगता है कि भोपाल वासी इस तरह के अध्ययनों के लिए महज़ ’ गिनी पिग ’ होकर रह गए हैं ।
दुनिया ने किसका राहे फ़ना में दिया है साथ
तुम भी चले चलो यूं ही जब तक चली चले ।

चित्र - बीबीसी हिन्दी डाट काम से साभार

गुरुवार, 13 नवंबर 2008

दुनिया का मेला , मेले की दुनिया

होशंगाबाद जिले का छोटा सा गांव है - बांद्राभान । धार्मिक महत्व के इस स्थान पर नर्मदा का तवा नदी से मिलन होता है. । होशंगाबाद नगर के पूर्व में करीब आठ किमी पर सांगाखेडा के नजदीक बांद्राभान है । तवा - नर्मदा के संगम के नजदीक हर साल कार्तिक पूर्णिमा पर तीन दिन मेला भरता है ।

इस मेले का अंश बनने का मुझे भी कुछ साल पहले मौका मिला था । मेला क्या , बस यूं समझिए चारों तरफ़ जन सैलाब । जहां तक नज़र जाती है ,लोग ही लोग । लोगों का ऎसा रेला इससे पहले मैंने केवल कुंभ में ही देखा था । बिना किसी आमंत्रण ,बिना मुनादी , बगैर डोंडी पीटॆ स्वत स्फ़ूर्त प्रेरणा से लाखों लोगों का एकत्र होना मेरे लिए अचंभे की बात थी । इतना बडा मेला हर साल लगता है और करीब सौ - सवा सौ किलोमीटर की दूरी पर बसे भोपाल में इसकी कोई चर्चा नहीं ।

दौडती - भागती ज़िंदगी की आपाधापी को धता बताती बैलगाडियों की लंबी कतार .........बैलों के गले में पडे घुंघरुओं की रुनझुन ........ चटख लाल , गहरे धानी , सरसों पीले और ना जाने कितने ही रंगों के लंहगे - लुगडों में सजी औरतें ,नई बुश्शर्ट - निक्कर और झबले पहने काजल का डिठौना लगाए बच्चों की किलकारियां ..... लोकगीत की सामूहिक स्वर लहरियों से रस में भीगता माहौल और जय सिया राम की जुहार ........।

ये नज़ारा है नर्मदा तीरे लगने वाले कार्तिक पूर्णिमा के मेले का , जहां उत्साह और उमंग के ऎसे काफ़िले इन दिनों आम हैं । भला कौन होगा जो इन मेलों का आमंत्रण ठुकरा सके । लोक परंपराओं को ज़िंदा रखने वाले मेलों का लुभावना नज़ारा बरसों तक यूं ही आंखॊं में बसा रहता है । जो भी इन मेलों का एक बार भी हिस्सा बना है वो जानता है कि मन ना जाने कब फ़ुर्र से उडकर मेलों में पहुंच जाता है ।

नदियों का इन मेलों से बडा गहरा और आत्मीय रिश्ता है । मध्यप्रदेश में नदियों के किनारे लगने वाले महत्वपूर्ण मेलों की कडी है । पुण्य सलिला नर्मदा के किनारे भरने वाले माटी की सोंधी गंध से लबरेज़ तमाम मेलों का लोगों को साल भर इंतज़ार रहता है । मेल -मिलाप के इन ठिकानों का अपना मौलिक आनंद है । इन के मूल में कोई अंर्तकथा है , संवेदना है और आदि लोक परंपरा है । यही कारण है ,जो मेलों से जुडी लोक आस्था आज तक बरकरार है ।

नदी किनारे असंख्य लोग अपने कुनबों के साथ सत्यनारायण की कथा की यजमानी करते दिखाई देते हैं । कदम - कदम पर छोटे - बडे झुंडों के बीच पंडित - पुरोहित कथा बांचते ,श्रद्धालुओं से पल -पल में नवग्रहों की प्रसन्नता के लिए दान का संकल्प दोहराने की मनुहार करते पंडे - पुजारियों के प्रति श्रद्धा से नतमस्तक ग्रामीण दिखते हैं । घंटे - घडियाल और शंखनाद के साथ भजन - आरती करते हुऎ भक्ति भावमय वातावरण में आमोदित - प्रफ़ुल्लित होते लोग इन्हीं मेलों में ही नज़र आते हैं ।

टेंट तंबुओं में सजी ग्रामीण सौंदर्य प्रसाधन - रिबन , महावर , टिकुली ,बिंदी की खरीददारी में मशगूल युवतियों की बेलौस हंसी - ठिठौली मन में ईर्ष्या भाव पैदा कर देती है । आखिर क्या है इनके इस निश्छल आनंद का राज़ ......? मन सवाल करने लगता है खुद से ......? ये खुशी , ये उल्हास , ये उमंग हम शहरियों के चेहरों से क्यों कर गायब हो चला है । ग्रामीणों का बेबाक ,बिंदास अंदाज़ मेलों की आत्मा है ।

लकडी मिट्टी के खिलौनों की दुकानों पर भाव ताव में मशगू्ल लोगों को ताकने का अपना ही मज़ा है । हर छोटी - बडी दुकानों में जाकर बस यूं ही मोलभाव करने , दुकानदार को छकाने वालों की भी कोई कमी नहीं । चटखारे लेकर मिठाई और चाट - पकौडी उडाने वालों को कच्ची सडक के किनारे रखे थालों की धूल सनी रंग बिरंगी मिठाइयों से भी कोई गुरेज़ नहीं । रेत पर कंडों के ढेरों से उठते धुएं के गुबार के साथ बाटी की सोंधी - सोंधी महक मन ललचाती है । जी चाहता है कोई बस यूं ही मुंह छुलाने को ही कह दे और हम लपक कर चूरमा बाटी के ज़ायके का लुत्फ़ लेने बैठ जाएं ।

पालकी वाले झूले की चरमराहट और गुब्बारे वाले की चिल्लपौं वातावरण को एक अजीब सी रौनक से भर देते हैं । ठेठ गंवई अंदाज़ के इन मेलों में चाट पकौडे औए आइसक्रीम बेचने वालों की तीखी आवाज़ें माहौल में रस घोल देती हैं । ग्रामीण युवकों के अलगोजे से निकलती मादक आवाज़ और लोकगीतों की टेर लगाते महिला स्वर मेले की खनक में इज़ाफ़ा कर देते हैं ।

कार्तिक मास धर्म- कर्म के लिहाज़ से काफ़ी महत्वपूर्ण माना गया है । दान पुण्य के लिए मोक्श्दायिनी रेवा के सानिध्य से बेहतर और कौन सी जगह हो सकती है । लोग रात में नर्मदा की अविरल धारा में असंख्य दीपों का दान करते हैं । प्रवाह के साथ निरंतर आगे बढते ये ज्योति पुंज हमें जीवन को प्रकाशवान बनाने और संसार को रोशनी से भर देने की सीख देते हैं । कहते हैं आग पानी एक दूसरे के पूरक ना सही , अपने - अपने दायरे में रहकर भी बहुत कुछ सकारात्मक करने की गुंजाइश हर हाल में हो सकती है । नदी का प्रवाह और देदीप्यमान दीपमाला यही कहती है ..............।

मेले विभिन्न धर्मों और संप्रदायों को एक सूत्र में पिरोने का अनूठा माध्यम हैं । कई मेले धार्मिक आस्था और विश्वास पर केंद्रित हैं , तो कुछ मेलों के पीछे ऎतिहासिक , सामाजिक और राजनीतिक यादों की धरोहर संजोई गई है । मेले होते हैं - मेल मुलाकात के ठिए । मेला यानी खुद को खो कर सबको पा लेने का ठिकाना । मेला मानी अपने बाहरी व्यक्तित्व से छूटकर अपने अंतस में झांकने का स्थान । चारों ओर शोर शराबा , भीड - भडक्का ,मगर फ़िर भी आप बिल्कुल अकेले सबसे अंजान ...........।

देखिए तो है कारवां वर्ना.
हर मुसाफ़िर सफ़र में तन्हा है ।