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शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

मध्यप्रदेश के जंगल बेचने की तैयारी

देश-दुनिया में टाइगर स्टेट के रुप में ख्याति पाने वाले मध्यप्रदेश को बाघ विहीन करने के लिये कुख्यात वन विभाग ने अब प्रदेश के जंगलों पर हाथ साफ़ करने का मन बनाया है । बरसों सरकारी तनख्वाह के साथ - साथ जंगल की कमाई खाने वाले अफ़सरों और नेताओं की नीयत एक बार फ़िर डोल गई है । प्रदेश के गठन के वक्त करीब चालीस फ़ीसदी वन क्षेत्र को साफ़ कर आठ प्रतिशत तक पहुँचाने वालों की निगाह अब जंगल की ज़मीन पर पड़ गई है ।

अफ़सरों ने मुख्यमंत्री और मंत्री को पट्टी पढ़ा दी है कि मंदी के दौर में अगर सरकार की आमदनी बढ़ानी है ,तो जंगल की ज़मीन निजी हाथों में सौंपने से बढ़िया कोई और ज़रिया नहीं है । जनता की ज़मीन को नेता ,अधिकारी और उद्योगपति अपनी बपौती मान बैठे हैं और इस दौलत की बंदरबाँट की तैयारी में जुट गये हैं । टाइगर रिज़र्व के नाम पर अरबों- खरबों रुपए फ़ूँकने के बाद बाघों को कागज़ों में समेट देने वालों को जंगल का सफ़ाया करके भी चैन नहीं आ रहा । अब वे औद्योगिक घरानों की मदद से घने जंगल तैयार करने की योजना को अमली जामा पहनाने में जुट गये हैं ।

इसी सिलसिले में कुछ तथाकथित जानकारों की राय जानने के लिये भोपाल में वन विभाग ने संगोष्ठी का आयोजन किया ,जिसमें रिलायंस, टाटा, आईटीसी, रुचि सोया जैसी नामी गिरामी कम्पनियों के प्रतिनिधि मौजूद थे । कार्यशाला का लब्बो लुआब यही था कि अगर वनों को बचाना है , तो इन्हें निजी हाथों में सौंप देना ही एकमात्र विकल्प है । क्योटो प्रोटोकॉल, क्लीन डेवलपमेंट मैकेनिज़्म के तहत वनीकरण और पुनर्वनीकरण परियोजनाओं पर केन्द्रित कार्यशाला में मुख्यमंत्री ने दलील दी कि सरकार प्राकृतिक संसाधनों की कीमत पर औद्योगिकीकरण नहीं करना चाहती । सरकार की कोशिश है कि जंगल बचाकर उद्योग-धंधे विकसित किये जाएँ । एक्सपर्ट ने एक सुर में सलाह दे डाली कि जंगल बचाना है ,तो निजी भागीदारी ज़रुरी है । यानी प्रदेश में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के ज़रिये जंगल बचाये और बढ़ाये जाने की बात हो रही है ।

सूबे के मुखिया शिवराज सिंह चौहान का मानना है कि पर्यावरण और प्राकृतिक संतुलन कायम रखना समाज की ज़िम्मेदारी है । मुख्यमंत्री हर काम की ज़िम्मेदारी जनता और समाज पर डालते रहे हैं । सवाल यही है कि जब हर काम समाज को ही करना है ,तो सरकार की ज़रुरत ही क्या है ? बँटाढ़ार करने,मलाई सूँतने के लिये मंत्री और सरकारी अमला है और कर का बोझा ढ़ोने तथा काम करने के लिये जनता है ।

उधर "अँधेर नगरी के चौपट राजा" के नवरत्नों की सलाह पर जंगल के निजीकरण के पक्ष में वन विभाग का तर्क है कि प्रदेश के करीब 95 लाख हैक्टेयर वन क्षेत्र में से 36 लाख हैक्टेयर की हालत खस्ता है । उसे फ़िर से विकसित करने के लिये करोड़ों रुपयों की दरकार होगी । सरकार के पास इतना पैसा नहीं है कि वह अपने दम पर जंगल खड़ा कर सके । उनकी नज़र में धन्ना सेठों से बेहतर इस ज़िम्मेदारी को भला कौन अच्छे ढंग से अंजाम दे सकता है ? लिहाज़ा सरकार ने प्रदेश के जंगलों को प्राइवेट कंपनियों के हवाले करने का मन बना लिया है । वह दिन दूर नहीं जब प्रदेश के विशाल भू भाग के जंगल औद्योगिक घरानों की मिल्कियत बन जाएँगे । वैसे यहाँ इस बात का ज़िक्र बेहद ज़रुरी हो जाता है कि जनता की ज़मीन को ठिकाने लगाने की रणनीति जंगल विभाग के आला अफ़सरान काफ़ी लम्बे समय से तैयार करने में जुटे थे । करीब छह महीने पहले वन विभाग ने इसका खाका तैयार कर लिया था ।

सरकार को मंदी से उबारने के लिये अफ़सरों ने सुझाव दे डाला कि प्रदेश में जंगलों के नाम पर हज़ारों एकड़ ज़मीन बेकार पड़ी है ,यह ज़मीन ना तो विभाग के लिये उपयोगी है और ना ही किसी अन्य काम के लिये । रायसेन, विदिशा, ग्वालियर, शिवपुरी, कटनी सहित कई ज़िलों में हज़ारों एकड़ अनुपयोगी ज़मीन है । इसी तरह शहरों के आसपास के जंगलों की अनुपयोगी ज़मीन को व्यावसायिक उपयोग के लिये बेच कर चार से पाँच हज़ार करोड़ रुपए खड़े कर लेने का मशविरा भी दे डाला । इसके लिये केन्द्र सरकार से अनुमति लेकर बाकायदा नियम कायदे बनाने तक की बात कही गई थी ।

गौरतलब है कि मध्यप्रदेश में वर्ष 1956-57 के दौरान करीब 39.5 फ़ीसदी वन क्षेत्र था , जो अब महज़ 8 प्रतिशत रह गया है । एक सर्वे के मुताबिक पिछले चार दशकों में प्रदेश के 18 हज़ार 98 वर्ग किलोमीटर से भी ज़्यादा वनों का विनाश हुआ है । पूरे देश में वनों के विनाश की तुलना में अकेले मध्यप्रदेश में 43 फ़ीसदी जंगलों का सफ़ाया कर दिया गया । इस बीच वन अमला कार्यों से ज़्यादा अपने कारनामों के लिये सुर्खियों में रहा है । वन रोपणियों के संचालन पर करोड़ों रुपए फ़ूँकने के बावजूद ना आमदनी बढ़ी और ना ही वन क्षेत्रों में इज़ाफ़ा हो सका ।

वन विभाग में आमतौर पर इमारती लकड़ी, बांस तथा खैर के व्यवसाय से होने वाली आय में प्रति वर्ष 15 फीसदी तक की बढ़ोत्तरी होती है लेकिन इस साल ऐसा नहीं हुआ। यह आय बढ़ने की बजाय पिछले वर्ष की तुलना में लगभग 3 करोड़ रुपए घट गई। इसके विपरीत विभाग का खर्च 10 करोड़ बढ़ गया। वह तो भला हो तेंदूपत्ता व्यापार का, अनुकूल स्थिति के चलते उसकी आय में इजाफा हुआ और वन विभाग को अपनी इज्जत ढ़ाँकने का मौका मिल गया। इमारती लकड़ी, बांस तथा खैर के राजकीय व्यापार की आय में कमी से वन विभाग के आला अफसरों की मंशा पर उंगली उठने लगी है। आय में कमी की वजह अफसरों एवं ठेकेदारों के बीच सांठगांठ को माना जा रहा है।

विभागीय सूत्रों के अनुसार वर्ष 2008 में वन विभाग को इमारती लकड़ी के राजकीय व्यापार से 483 करोड़, बांस से 37 तथा खैर के व्यापार से लगभग एक करोड़ रुपए अर्थात कुल 521 करोड़ रुपए की आय हुई थी। लेकिन वर्ष 2009 की जो आय वन राज्य मंत्री राजेंद्र शुक्ल ने विधानसभा में बताई वह इमारती लकड़ी के व्यापार से 489 करोड़, बांस से 28 करोड़ तथा खैर के व्यापार से लगभग एक करोड़ है। आमतौर पर वन विभाग में इन मदों से होने वाली आय में 15 फीसदी की बढ़ोत्तरी होती है, इस लिहाज से आय 599 करोड़ होना चाहिए थी।

आय में कमी को बड़े घपले के रूप में देखा जा रहा है । हर वर्ष बढ़ने वाली यह आय क्यों नहीं बढ़ी, इसे लेकर विभाग के जानकार हैरान हैं । उनका कहना है, तेंदूपत्ता के व्यापार में तो प्रकृति का असर पड़ता है लेकिन इमारती लकड़ी, बांस और खैर पर प्राकृतिक प्रकोप असरकारी नहीं होता। मजेदार तथ्य यह भी है कि "आमदनी अठन्नी ,खर्चा रुपय्या" की तर्ज़ पर विभाग का खर्च 84 करोड़ से बढ़ कर 95 करोड़ हो गया । विधानसभा में दिये गये विभागीय आय के ब्यौरे से पता चलता है कि विभाग की इज्जत तेंदूपत्ता व्यापार की आमदनी ने बचाई।

जंगलों में बरसों से काबिज़ आदिवासियों को बेदखल करने में जुटी सरकार अफ़सरों की सलाह पर जनता की ज़मीन औद्योगिक घरानों को सौंपने जा रही है । वक्त रहते लोग नहीं चेते , तो वो दिन दूर नहीं साँस लेने के लिये विशुद्ध हवा लेने के भी दाम चुकाना होंगे और संभव है राज्य सरकार विशुध्द प्राणवायु देने के एवज़ में कर वसूली करने लगे ।

शनिवार, 6 जून 2009

पर्यावरण की चिंता या चिंता का नाटक

देश- दुनिया में कल का दिन पर्यावरण के नाम रहा । लोगों ने बिगड़ते पर्यावरण पर खूब आँसू बहाये, बड़े होटलों में सेमिनार किये, भारी भरकम शब्दावली के साथ बिगड़ते मौसम की चिंता की,मिनरल वॉटर के साथ सेंडविच-बर्गर का स्वाद लिया और इतनी थका देने वाली कवायद के साथ ही दुनिया की आबोहवा में खुशनुमा बदलाव आ गया । देश-दुनिया का तो पता नहीं लेकिन हमारे भोपाल में तो नौकरशाह और नेताओं में पर्यावरण के प्रति जागरुकता लाने की होड़ सी मची रही । नेता वृक्ष लगाते हुए फ़ोटो खिंचा कर ही संतुष्ट नज़र आए वहीं स्वयंसेवी संगठनों की राजनीति कर रहे वरिष्ठों की सफ़लता से प्रेरणा लेते हुए कुछ नौकरशाहों ने पर्यावरण के बैनर वाली दुकान सजाने की तैयारी कर ली ।

हमारे शहर का चार इमली (वास्तविक नाम चोर इमली) नौकरशाहों के बसेरे के लिये जाना जाता है । जिस जगह इन आला अफ़सरों की आमद दर्ज़ हो जाती है,उसके दिन फ़िरना तो तय है । इसलिये चार इमली का सुनसान इलाका अब चमन है और कई खूबसूरत पार्कों से घिरा है । पास ही एकांत पार्क है,कई किलोमीटर में फ़ैला यह उद्यान नौकरशाहों की पहली पसंद है और यहाँ की "सुबह की सैर" का रसूखदार तबके में अपना ही महत्व है । लिहाज़ा लोग दूर-दूर से मॉर्निंग वॉक के लिये मँहगी सरकारी गाड़ियों में सवार होकर पार्क पहुँचते हैं और हज़ारों लीटर पेट्रोल फ़ूँकने के बाद ये लोग गाड़ी से उतर कर पार्क में चर्बी जलाते हैं । मज़े की बात है कि सुबह की शुद्ध हवा में पेट्रोल-डीज़ल के धुएँ का ज़हर घोलने वाले ही कुछ खास मौकों पर पर्यावरण के सबसे बड़े पैरोकार बन जाते हैं ।

बहरहाल नौकरशाहों और रसूखदार लोगों की संस्था ग्रीन प्लेनेट साइकिल राइडर्स एसोसिएशन ने कल का दिन नो कार-मोटर बाइक डे के रुप में मनाया । इसके लिये अपने संपर्कों और रसूख का इस्तेमाल करते हुए संचार माध्यमों के ज़रिये माहौल बनाया गया । ऑस्ट्रेलिया से आयातित साइकलों पर सवार होकर मंत्रालय जाते हुए वीडियो तैयार कराये गये । सेना को भी इस मुहिम में शामिल किया गया । सो सेना के ट्रकों में लाद कर रैली स्थल तक साइकलें पहुँचाई गई । भोपाल से दिल्ली तक इस रैली की फ़ुटेज और आयोजक की बाइट दिखाई गई । लेकिन सवाल फ़िर वही कि क्या वास्तव में ये लोग पर्यावरण को लेकर गंभीर हैं ? क्या सचमुच बिगड़ता मौसम इन्हें बेचैन करता है या यह भी व्यक्तिगत दुकान सजाकर रिटायरमेंट के बाद का पक्का इंतज़ाम करने और प्रसिद्धि पाने की कवायद मात्र है ।

प्रदेश में हर साल बरसात में हरियाली महोत्सव मनाया जाता है । ज़ोर-शोर से बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण समारोह होते हैं । मंत्री और अधिकारी पौधे लगाते हुए फ़ोटो खिंचवाते हैं । हर ज़िले के वृक्षारोपण के लम्बे चौड़े आँकड़े अखबारों की शोभा बढ़ाते हैं । यदि इन में से चौथाई पेड़ भी अस्तित्व में होते, तो अब तक मध्यप्रदेश में पैर रखने को जगह मिलना मुश्किल होता । इधर मुख्यमंत्री जी कह रहे हैं कि वे और उनके मंत्रिमंडल के सभी सदस्य अब हर समारोह की शुरुआत पेड़ लगा कर करेंगे । लेकिन मुद्दे की बात यह भी है कि केवल पौधा लगा देने ही से तो काम नहीं बनता । शुरुआती सालों में उसकी देखभाल का ज़िम्मा कौन लेगा ? जंगलों में राजनीतिक संरक्षण में चल रही कटाई को कौन रोकेगा ?

बाघों और अन्य वन्य प्राणियों की मौतों के बढ़ते ग्राफ़ के लिये चर्चा में रहने वाले वन विभाग ने भी जानवरों के बाद अब पेड़ों को गोद देने की स्कीम तैयार की है । मध्यप्रदेश सरकार में इन दिनों एक अजीब सी परंपरा चल पड़ी है । घोषणावीर मुख्यमंत्री ने कहना शुरु कर दिया है कि हर काम सरकार के बूते की बात नहीं । जनता को भी आगे बढ़कर सहयोग करना होगा । ये बात कुछ हज़म नहीं हुई । जनता के पैसों पर सत्ता- सुख भोगें आप ,सरकारी खज़ाने को दोनों हाथों से लूटे सरकार और आखिर में काम करे जनता.....!!! ऎसे में सरकार या नेताओं की ज़रुरत ही कहाँ है ? जनता से सहयोग चाहिये,तो योजनाओं का पैसा सीधे जनता के हाथों में सौंपा जाए ।


मैं आज तक यह समझ नहीं पाई कि सड़कों पर नारे लगाने,रैली निकालने या सेमिनार करने से कोई भी समस्या कैसे हल हो पाती है । पर्यावरण नारों से नहीं संस्कारों से बचाया जा सकता है । बच्चों को शुरु से ही यह बताने की ज़रुरत होती है कि इंसानों की तरह ही हर जीव और वनस्पति में भी प्राण होते हैं । हमारी ही तरह वे सब भी धरती की ही संतानें हैं । इस नाते धरती पर उनका भी उतना ही हक है जितना हमारा ...???

हमें समझना होगा की प्रकृति और इंसानी संसार में ज़मीन आसमान का फ़र्क है । पर्यावरण तभी सुधरेगा जब हम अपने खुद के प्रति ईमानदार होंगे । हमारी दुनिया में हर चीज़ पैसे के तराज़ू पर तौली जाती है,लेकिन प्रकृति ये भेद नहीं जानती । वह कहती है कि तुम मुझसे से भरपूर लो लेकिन ज़्यादा ना सही कुछ तो लौटाओ । अगर वो भी ना कर सको तो कम से कम जो है उसे तो मत मिटाओ ।

खैर, प्राकृतिक संसाधनों और धरोहरों को सहेजने का जज़्बा रखने वाले लोगों को प्रकृति किस तरह नवाज़ती है । इसकी बानगी देखी जा सकती है जमशेदपुर में , जहाँ तालाब करा रहा है गरीब कन्याओं का विवाह -
पैसे के लिए अपनों से भी बैरभाव को आम बात मानने वाले इस भौतिकवादी युग में आपसी सहयोग और सहकारिता की अनूठी मिसाल पेश करने वाला एक गांव ऐसा है जहाँ स्वयं की निर्धनता को भूल ग्रामीण पिछले लगभग डे़ढ़ दशक से सामूहिक मछलीपालन के जरिए गरीब लडकियों की शादी करा रहे हैं। झारखंड के नक्सल प्रभावित पूर्वी सिंहभूम जिले के ब़ड़ाजु़ड़ी गांव के ग्रामीणों ने यह अनुकरणीय मिसाल पेश की है। लीज पर लिये सरकारी तालाब में मछलीपालन के जरिए अब तक एक सौ से अधिक निर्धन लड़कियों के हाथ पीले किये गये हैं । ७९ सदस्यों की प्रबंधन कमेटी संयुक्त बैंक खाते में जमा रकम की देखरेख करती है। ग्रामीणों ने तालाब में सामूहिक मछलीपालन की योजना लगभग पंद्रह साल पहले उस समय बनाई थी जब पैसे के अभाव में एक गरीब कन्या के विवाह में कठिनाई पैदा हो गई थी। गांव के कुछ लोगों की पहल पर तालाब लीज पर लिया गया तथा प्रबंधन कमेटी बनाई गई। इस कमेटी ने मछलीपालन की कमाई से पहले ही साल सात निर्धन कन्याओं की शादी कराई थी। अब तक यह आंक़ड़ा एक सौ की संख्या को पार कर गया है। ग्रामीण बुलंद हौसले के साथ अब भी इस नेक काम में लगे हैं।

शनिवार, 14 मार्च 2009

अब बाघिनें भी चलीं ससुराल.........


बाघों का कुनबा बढ़ाने की अफ़लातूनी कवायद से मध्यप्रदेश के प्रकृति प्रेमी खासे नाराज़ और वन्य जीव विशेषज्ञ हैरान हैं । बाघों की तादाद बढाने के लिए शुरु की गई मुहिम को लेकर कई तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं । लेकिन वन विभाग के आला अफ़सरान इन आपत्तियों को सिरे से खारिज कर बाघों की संख्या बढाने की दुहाई दे रहे हैं । ये और बात है कि जब से प्रोजेक्ट टाइगर शुरु हुआ है बाघों की मौत का सिलसिला तेज़ हो गया है । गोया यह परियोजना बाघों की मौत सुनिश्चित करने के लिए ही बनाई गई है ।

हेलीकॉप्टर से बाघिन पहुँचाने की परियोजना सरिस्का के बाद अब मध्यप्रदेश में भी शुरु की गई है । लेकिन परियोजना का उद्देश्य अपनी मोटी बुद्धि में तो घुसता ही नहीं । इधर प्रदेश में बाघों की वंशवृद्धि के लिए नई तरकीबें आज़मायी जा रही हैं , उधर बाघों की मौतों के बढते ग्राफ़ ने तमाम सवाल भी खड़े कर दिये हैं ।

हाल ही में सुरक्षा के सख्त इंतज़ाम के बीच वायुसेना के उड़नखटोले से बाघिन को पन्ना लाया गया । कान्हा नेशनल पार्क में सैलानियों को लुभा रही बाघिन अब अपने पिया के घर पन्ना नेशनल पार्क की रौनक बन गई है । इससे पहले तीन मार्च को बाँधवगढ़ टाइगर रिज़र्व में गुमनाम ज़िन्दगी गुज़ार रही बाघिन सड़क के रास्ते पन्ना पहुँची । पन्ना के बाघ महाशय के लिए पाँच दिनों में दो बाघिन भेजकर वन विभाग योजना की सफ़लता के "दिवा स्वप्न” देख रहा है ।

मध्यप्रदेश में आए दिन बाघों के मरने की खबरें आती हैं । पिछले हफ़्ते कान्हा नेशनल पार्क में एक बाघ की मौत हो गई । वन विभाग ने स्थानीय संवाददाताओं की मदद से इस मौत को दो बाघों की लड़ाई का नतीजा बताने में ज़रा भी वक्त नहीं लगाया । वीरान घने जंगल में मरे जानवर की मौत के बारे में बिना किसी जाँच पड़ताल के तुरंत उसे बाघों का संघर्ष करार दे देना ही संदेह की पुष्टि का आधार बनता है । खैर , वन विभाग के जंगल नेताओं और अधिकारियों की चारागाह में तब्दील हो चुके हैं , अब इसमें कहने- सुनने के लिए कुछ भी बाकी नहीं रहा ।

पिछले दो माह के दौरान कान्हा में बाघ की मौत की यह तीसरी घटना है । इसी अवधि में बाँधवगढ़ टाइगर रिज़र्व में भी बाघ की मौत हो चुकी है । बुधवार को इंदौर चिड़ियाघर में भी "बाँके" नाम के बाघ ने फ़ेंफ़ड़ों में संक्रमण के कारण एकाएक दम तोड़ दिया । भोपाल के राष्ट्रीय वन विहार में भी अब तक संभवतः तीन से ज़्यादा बाघों की मौत हो चुकी हैं । पन्ना नेशनल पार्क में बाघों की तादाद तेज़ी से घटी है । वर्ष 2005 में यहाँ 34 बाघ थे । इनमें 12 नर और 22 मादा थीं । 2006-2007 की भारतीय वन्यजीव संस्थान देहरादून की गणना में यह आँकड़ा 24 रह गया ।

बाघिन को स्थानांतरित करने की मुहिम पर स्थानीय लोगों ने ही नहीं , देश के जानेमाने वन्यजीव विशेषज्ञों ने भी आपत्ति उठाई है । उन्होंने प्रधानमंत्री , मुख्यमंत्री और प्रधान मुख्य वन संरक्षक को खत लिखकर अभियान रोकने की गुज़ारिश की थी । वन्य संरक्षण से जुड़े विशेषज्ञ बृजेन्द्र सिंह ,वाल्मिक थापर , डॉक्टर उल्हास कारंत , डॉक्टर आर. एस. चूड़ावत , पी. के. सेन , बिट्टू सहगल , फ़तेह सिंह राठौर और बिलिन्डा राइट ने बाघिन को बाँधवगढ़ से पन्ना ले जाने के बाद 7 मार्च को पत्र भेजा था । इसमें राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण और जानेमाने बाघ विशेषज्ञों से इस मुद्दे पर राय मशविरा नहीं करने पर एतराज़ जताया गया है ।

विशेषज्ञों ने वन कानून और अपने अनुभव के आधार पर कई अहम मुद्दे रखे हैं , जिनके मुताबिक पन्ना की मौजूदा परिस्थितियाँ बाघिनों के स्थान परिवर्तन के लिए कतई अनुकूल नहीं हैं । साथ ही ऎसा मुद्दा भी उठाया है जो वन विभाग की पूरी कवायद पर ही सवालिया निशान लगाता है । पत्र में पिछले एक महीने में पन्ना टाइगर रिज़र्व में किसी भी बाघ के नहीं दिखने का ज़िक्र किया गया है ।

हालाँकि पूरी कवायद फ़िलहाल अँधेरे में तीर चलाने जैसी है । जो सूरते हाल सामने आए हैं , उसके मुताबिक वन विभाग ही आश्‍वस्त नहीं है कि पन्ना में कोई बाघ बचा भी है या नहीं ....? तमाम विरोध और भारी मशक्कत के बीच दो बाघिनें पन्ना तक तो पहुँच गईं , मगर नेशनल पार्क में नर बाघ होने को लेकर वन विभाग भी संशय में है । दरअसल पार्क का इकलौता नर बाघ काफ़ी दिनों से नज़र नहीं आ रहा है ।

प्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक डॉक्टर पी. बी. गंगोपाध्याय का कहना है कि ज़रुरी हुआ तो एक-दो नर बाघ भी पन्ना लाये जा सकते हैं । बाघों की मौजूदगी का पता लगाने के लिए पिछले दिनों भारतीय वन्यजीव संस्थान ने कैमरे लगाये थे , जिनसे पता चला कि पार्क में सिर्फ़ एक ही बाघ बचा है ।

बाघ संरक्षण के क्षेत्र में काम कर रहे बाँधवगढ़ फ़ाउंडेशन के अध्यक्ष पुष्पराज सिंह इस वक्त बाघिन के स्थानांतरण को जोखिम भरा मानते हैं । गर्मियों में पन्ना के जलाशय सूख जाने से बाघों को शाकाहारी वन्यजीवों का भोजन मिलना दूभर हो जाता है । ऎसे में वे भटकते हुए गाँवों के सीमावर्ती इलाकों में पहुँच जाते हैं और कभी शिकारियों के हत्थे चढ़ जाते हैं या फ़िर ग्रामीणों के हाथों मारे जाते हैं । कान्हा की बाघिन को पन्ना ले जाने से रोकने में नाकाम रहे वन्यप्राणी प्रेमियों ने अब बाघिन की सुरक्षा को मुद्दा बना लिया है । अधिकारियों की जवाबदेही तय कराने के लिए हाईकोर्ट में अर्ज़ी लगाई गई है ।

जानकारों का ये तर्क एकदम जायज़ लगता है कि पन्ना को सरसब्ज़ बनाने का सपना देखने और इसकी कोशिश करने का वन विभाग को हक तो है , मगर साथ ही यह दायित्व भी है कि वह उन कारणों को पता करे जो पन्ना से बाघों के लुप्त होने का सबब बने । बाहर से लाये गये बाघ-बाघिनों की हिफ़ाज़त के लिहाज़ से भी इन कारणों का पता लगना बेहद ज़रुरी हो जाता है ।

मध्यप्रदेश के वन विभाग के अफ़सरों की कार्यशैली के कुछ और नमूने पेश हैं ,जो वन और वन्य जीवों के प्रति उनकी गंभीरता के पुख़्ता सबूत हैं -
सारे भारत में वेलंटाइन डे को लेकर हर साल बवाल होता है , लेकिन वन विभाग के उदारमना अफ़सरों का क्या कीजिएगा जो वन्य प्राणियों के लिए भी "वेलंटाइन हाउस" बनवा देते हैं । भोपाल के वन विहार के जानवर पर्यटकों की आवाजाही से इस कदर परेशान रहते हैं कि वे अपने संगी से दो पल भी चैन से मीठे बोल नहीं बोल पाते । एकांत की तलाश में मारे-मारे फ़िरते इन जोड़ों ने एक दिन प्रभारी महोदय के कान में बात डाल दी और उन महाशय ने आनन-फ़ानन में तीन लाख रुपए ख़र्च कर इन प्रेमियों के मिलने का ठिकाना "वेलंटाइन हाउस" खड़ा करा दिया । कुछ सीखो बजरंगियों,मुथालिकों,शिव सैनिकों ....। प्रेमियों को मिलाने से पुण्य मिलता है और अच्छी कमाई भी होती है ।

इन्हीं अफ़सर ने वन्य प्राणियों की रखवाली के लिए वन विहार की ऊँची पहाड़ी पर दस लाख रुपए की लागत से तीन मंज़िला वॉच टॉवर बनवा दिया । भोपाल का वन विहार यूँ तो काफ़ी सुरक्षित है , लेकिन जँगली जानवर होते बड़े चालाक हैं । वन कर्मियों की नज़र बचा कर कभी भालू , तो कभी बंदर , तो कभी मगर भोपालवासियों से मेल मुलाकात के लिए निकल ही पड़ते हैं । तिमँज़िला वॉच टॉवर पर टँगा कर्मचारी बेचारा चिल्लाता ही रह जाता है ।

रविवार, 4 जनवरी 2009

इंसानों के बाद जानवरों को गोद लेने की परंपरा........

भोपाल के राष्ट्रीय उद्यान वन विहार ने वन्यप्राणियों के संरक्षण के लिए अनूठी पहल की है -जानवरों को गोद लेने की । इस योजना में अब कोई भी संस्था या व्यक्ति प्राणियों के रखरखाव की ज़िम्मेदारी ले सकेगा । योजना में बाघ ,शेर , तेंदुआ से लेकर मगरमच्छ ,घडियाल और रीछ - भालू भी शामिल किए गये हैं । शेर को गोद लेने के लिए एक लाख ग्यारह हज़ार रुपए खर्च करना हों गे , जबकि बाघ की ज़िम्मेदारी उठाने के लिए सवा लाख रुपए जमा कराने पडेंगे ।

अगर आप पशु प्रेमी तो हैं लेकिन ये खर्च आपके बजट से बाहर की बात है , तो भी चिंता की कोई बात नहीं क्योंकि वन विभाग ने मध्यम वर्ग का ख्याल रखते हुए जेब पर भारी ना पडने वाले जानवरों को भी फ़ेहरिस्त में जगह दी है । अजगर छह हज़ार रुपए के खर्च में आपका हो सकता है । अगर यह फ़ीस भी ज़्यादा है , तो भी निराश होने की ज़रुरत नहीं है । सालाना दो हज़ार रुपए में साँप पालना भी बुरा सौदा नहीं है । वैसे भी शहरी ज़िंदगी में लोगों का आए दिन अजगरों से साबका पडता है । चाहे अनचाहे "आस्तीन के साँप" पल ही जाते हैं । ऎसे में घोषित तौर पर होर्डिंग पर नाम दर्ज कराकर साँप-अजगर , घडियाल ,मगरमच्छ पालने में बुराई भी क्या है ...?

खबर है कि एक छात्रा ने अजगर पालने का फ़ैसला लेकर योजना का श्रीगणेश भी कर दिया है । मेरे जैसे शख्स के लिए तो साँप भी बजट से बाहर है । लेकिन इस मुहिम में भागीदार नहीं बन पाना आगे चलकर कई लोगों के लिए फ़्रस्ट्रेशन का सबब भी बन सकता है । समाज में , अपने सर्किल में क्या मुंह दिखाएंगे ..? किस तरह लोगों की हिकारत भरी निगाहों का सामना कर पाएंगे....? उम्मीद है वन विभाग हम जैसों का ख्याल भी ज़रुर रखेगा । मुझे तो लगता है कि केन्द्र सरकार ने जिस तरह मध्यम वर्ग का खयाल रखकर घर ,कार वगैरह के लिए सस्ता कर्ज़ देने की मुहिम छेडी है । उसी तर्ज़ पर वन विभाग को भी आम जनता की माँग पर बिच्छू , केंचुए, सेही , मॆढक , गिरगिट जैसे सस्ते जीव - जन्तुओं के पालनहार ढूंढना होंगे ।

कुछ साल पहले भोपाल में इतनी बारिश हुई थी कि बाढ के हालात बन गए थे । नाले की ज़मीन पर कब्ज़ा कर घर बना कर रहने वालों के घर पूरी तरह तबाह हो गए थे । तब मैंने पढा था कि पानी के घर में घुसोगे तो पानी एक दिन तुम्हारे घर में घुसेगा । इंसानी गल्ती के लिए पानी को कोसना बेतुका और बेमानी है । दो तीन दिन पहले धार के रिहाइशी इलाके में घुस आए तेंदुए को लोगों ने बेरहमी से पीट - पीट कर मार डाला । भोपाल के नज़दीक नाले पर पानी पीने आए भालू को भी लोगों ने अधमरा कर दिया ।

ऎसी ही दर्दनाक घटनाएं देश के अलग अलग इलाकों से आए दिन सुनने मिलती हैं । अपने लालच के चलते खेतों - जंगलों का सफ़ाया करके शहरों का विस्तार करने वाले इंसान ने वन्य प्राणियों को उनके ही घर से बेदखल कर दिया है । अब इन्हीं जानवरों को गोद लेने की नायाब तरकीब का हवाला देकर कौन सी अनोखी बात होने जा रही है देखना होगा ।

जंगल कट रहे हैं , जानवर बेघर हो रहे हैं । वन विभाग के अपने तर्क हैं ,कभी बजट ,कभी अमला ,तो कभी संसाधनों की कमी का रोना । साल दर साल कांक्रीट का जंगल विस्तार पा रहा है और हरा भरा नैसर्गिक जंगल अस्तित्व खो रहा है । मध्यप्रदेश में 1960- 61 में 173 हज़ार वर्ग किलोमीटर जंगल था ,जो 1980- 81 के आने तक सिकुड कर 155 हज़ार वर्ग किलोमीटर रह गया । मौजूदा आंकडों के मुताबिक राज्य में जंगल अब महज़ 95 हज़ार 221वर्ग किलोमीटर है ।

एक समय था जब प्रदेश यह दावा करता था कि देश का लगभग एक चौथाई वनक्षेत्र होने के कारण वन आधारित उद्योग इसी अनुपात में प्रदेश को दिए जाना चाहिए । लेकिन अब तस्वीर रफ़्ता रफ़्ता बदल रही है । सरकारी आंकडों के मुताबिक प्रदेश में 31 फ़ीसदी वन भूमि है लेकिन वन आच्छादित क्षेत्र अब 25 प्रतिशत ही है । वास्तविक वनक्षेत्र अब बमुश्किल 15 से 18 फ़ीसदी के बीच रह गया है ।

मेरे पिताजी मुझसे अक्सर कहा करते हैं कि जिस भी इलाके में नया थाना खुलता है ,वहां एकाएक अपराधों की तादाद में इज़ाफ़ा देखा जाता है । कमोबेश यही स्थिति वन अमले के साथ भी है । वन विभाग में अफ़सरों की तादाद जैसे जैसे बढती गई ,जंगल भी उसी रफ़्तार से गायब होते गये ।
इस बीच दिल को सुकून देने वाली खबर है कि खरबों रुपए खर्च करके भी जो काम सरकारी अमला नहीं कर सका । उसे एक शख्स की दृढइच्छा शक्ति और मज़बूत इरादों ने हकीकत में बदल दिया । भोपाल के उमर अलीम ने राजधानी के नज़दीक अपने पैतृक गांव हिनौतिया जागीर की बंजर पहाडी पर हरियाली की चादर बिछा दी । पैंसठ एकड की सूखी पहाडी के पन्द्रह एकड हिस्से में उमर अलीम ने चौबीस साल पसीना बहाकर सागौन के बारह हज़ार पेड जवान कर दिए । दस लाख रुपए की लागत और खुद की मेहनत के बूते जंगल खडा कर उमर अलीम ने तमाम सरकारी अमले के मुंह पर करारा तमाचा जडा है और किन्तु - परन्तु के फ़ेर में बहाने बनाने वालों के लिए मिसाल कायम की है ।

पचास के दशक में प्रकाशित पुस्तक "द वाइल्ड लाइफ़ ऑफ़ इंडिया" की प्रस्तावना में देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने लिखा था - "वन्यप्राणी - यह नाम हमने वनों के उन वन्यपशुओं और पक्षियों को दिया है जिनके बिना जीवन अधूरा है और जंगल सूने हैं । काश ! यदि यह प्राणी बोल पाते और हम इनकी भाषा समझ पाते तो हमें पता चल जाता कि इनके विचार हमारे बारे में बहुत अच्छे नहीं हैं ।"

नेहरु जी की ये टिप्पणी आज भी उतनी ही सटीक है । वन्यप्राणियों के विचार प्रश्न बन गए हैं । प्रश्न जो मरणासन्न श्रवण कुमार ने दशरथ से किया था , जो आज हर शिकार अपने शिकारी से करता है । सदियों से ये सवाल आकाश में गूंज रहा है लेकिन आज तक कोई जवाब धरती पर नहीं उतरा है । शब्दबेधी बाण का नतीजा तो दशरथ ने पुत्र वियोग में प्राण देकर भोगा । लेकिन उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में जो भीषण वन और वन्यप्राणी संहार हुआ उसका परिणाम कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि हमारी आने वाली कई नस्लें भयावह पर्यावरण असंतुलन से उपजी प्राकृतिक आपदाओं के रुप में भुगतेंगी ।