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शनिवार, 6 जून 2009

पर्यावरण की चिंता या चिंता का नाटक

देश- दुनिया में कल का दिन पर्यावरण के नाम रहा । लोगों ने बिगड़ते पर्यावरण पर खूब आँसू बहाये, बड़े होटलों में सेमिनार किये, भारी भरकम शब्दावली के साथ बिगड़ते मौसम की चिंता की,मिनरल वॉटर के साथ सेंडविच-बर्गर का स्वाद लिया और इतनी थका देने वाली कवायद के साथ ही दुनिया की आबोहवा में खुशनुमा बदलाव आ गया । देश-दुनिया का तो पता नहीं लेकिन हमारे भोपाल में तो नौकरशाह और नेताओं में पर्यावरण के प्रति जागरुकता लाने की होड़ सी मची रही । नेता वृक्ष लगाते हुए फ़ोटो खिंचा कर ही संतुष्ट नज़र आए वहीं स्वयंसेवी संगठनों की राजनीति कर रहे वरिष्ठों की सफ़लता से प्रेरणा लेते हुए कुछ नौकरशाहों ने पर्यावरण के बैनर वाली दुकान सजाने की तैयारी कर ली ।

हमारे शहर का चार इमली (वास्तविक नाम चोर इमली) नौकरशाहों के बसेरे के लिये जाना जाता है । जिस जगह इन आला अफ़सरों की आमद दर्ज़ हो जाती है,उसके दिन फ़िरना तो तय है । इसलिये चार इमली का सुनसान इलाका अब चमन है और कई खूबसूरत पार्कों से घिरा है । पास ही एकांत पार्क है,कई किलोमीटर में फ़ैला यह उद्यान नौकरशाहों की पहली पसंद है और यहाँ की "सुबह की सैर" का रसूखदार तबके में अपना ही महत्व है । लिहाज़ा लोग दूर-दूर से मॉर्निंग वॉक के लिये मँहगी सरकारी गाड़ियों में सवार होकर पार्क पहुँचते हैं और हज़ारों लीटर पेट्रोल फ़ूँकने के बाद ये लोग गाड़ी से उतर कर पार्क में चर्बी जलाते हैं । मज़े की बात है कि सुबह की शुद्ध हवा में पेट्रोल-डीज़ल के धुएँ का ज़हर घोलने वाले ही कुछ खास मौकों पर पर्यावरण के सबसे बड़े पैरोकार बन जाते हैं ।

बहरहाल नौकरशाहों और रसूखदार लोगों की संस्था ग्रीन प्लेनेट साइकिल राइडर्स एसोसिएशन ने कल का दिन नो कार-मोटर बाइक डे के रुप में मनाया । इसके लिये अपने संपर्कों और रसूख का इस्तेमाल करते हुए संचार माध्यमों के ज़रिये माहौल बनाया गया । ऑस्ट्रेलिया से आयातित साइकलों पर सवार होकर मंत्रालय जाते हुए वीडियो तैयार कराये गये । सेना को भी इस मुहिम में शामिल किया गया । सो सेना के ट्रकों में लाद कर रैली स्थल तक साइकलें पहुँचाई गई । भोपाल से दिल्ली तक इस रैली की फ़ुटेज और आयोजक की बाइट दिखाई गई । लेकिन सवाल फ़िर वही कि क्या वास्तव में ये लोग पर्यावरण को लेकर गंभीर हैं ? क्या सचमुच बिगड़ता मौसम इन्हें बेचैन करता है या यह भी व्यक्तिगत दुकान सजाकर रिटायरमेंट के बाद का पक्का इंतज़ाम करने और प्रसिद्धि पाने की कवायद मात्र है ।

प्रदेश में हर साल बरसात में हरियाली महोत्सव मनाया जाता है । ज़ोर-शोर से बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण समारोह होते हैं । मंत्री और अधिकारी पौधे लगाते हुए फ़ोटो खिंचवाते हैं । हर ज़िले के वृक्षारोपण के लम्बे चौड़े आँकड़े अखबारों की शोभा बढ़ाते हैं । यदि इन में से चौथाई पेड़ भी अस्तित्व में होते, तो अब तक मध्यप्रदेश में पैर रखने को जगह मिलना मुश्किल होता । इधर मुख्यमंत्री जी कह रहे हैं कि वे और उनके मंत्रिमंडल के सभी सदस्य अब हर समारोह की शुरुआत पेड़ लगा कर करेंगे । लेकिन मुद्दे की बात यह भी है कि केवल पौधा लगा देने ही से तो काम नहीं बनता । शुरुआती सालों में उसकी देखभाल का ज़िम्मा कौन लेगा ? जंगलों में राजनीतिक संरक्षण में चल रही कटाई को कौन रोकेगा ?

बाघों और अन्य वन्य प्राणियों की मौतों के बढ़ते ग्राफ़ के लिये चर्चा में रहने वाले वन विभाग ने भी जानवरों के बाद अब पेड़ों को गोद देने की स्कीम तैयार की है । मध्यप्रदेश सरकार में इन दिनों एक अजीब सी परंपरा चल पड़ी है । घोषणावीर मुख्यमंत्री ने कहना शुरु कर दिया है कि हर काम सरकार के बूते की बात नहीं । जनता को भी आगे बढ़कर सहयोग करना होगा । ये बात कुछ हज़म नहीं हुई । जनता के पैसों पर सत्ता- सुख भोगें आप ,सरकारी खज़ाने को दोनों हाथों से लूटे सरकार और आखिर में काम करे जनता.....!!! ऎसे में सरकार या नेताओं की ज़रुरत ही कहाँ है ? जनता से सहयोग चाहिये,तो योजनाओं का पैसा सीधे जनता के हाथों में सौंपा जाए ।


मैं आज तक यह समझ नहीं पाई कि सड़कों पर नारे लगाने,रैली निकालने या सेमिनार करने से कोई भी समस्या कैसे हल हो पाती है । पर्यावरण नारों से नहीं संस्कारों से बचाया जा सकता है । बच्चों को शुरु से ही यह बताने की ज़रुरत होती है कि इंसानों की तरह ही हर जीव और वनस्पति में भी प्राण होते हैं । हमारी ही तरह वे सब भी धरती की ही संतानें हैं । इस नाते धरती पर उनका भी उतना ही हक है जितना हमारा ...???

हमें समझना होगा की प्रकृति और इंसानी संसार में ज़मीन आसमान का फ़र्क है । पर्यावरण तभी सुधरेगा जब हम अपने खुद के प्रति ईमानदार होंगे । हमारी दुनिया में हर चीज़ पैसे के तराज़ू पर तौली जाती है,लेकिन प्रकृति ये भेद नहीं जानती । वह कहती है कि तुम मुझसे से भरपूर लो लेकिन ज़्यादा ना सही कुछ तो लौटाओ । अगर वो भी ना कर सको तो कम से कम जो है उसे तो मत मिटाओ ।

खैर, प्राकृतिक संसाधनों और धरोहरों को सहेजने का जज़्बा रखने वाले लोगों को प्रकृति किस तरह नवाज़ती है । इसकी बानगी देखी जा सकती है जमशेदपुर में , जहाँ तालाब करा रहा है गरीब कन्याओं का विवाह -
पैसे के लिए अपनों से भी बैरभाव को आम बात मानने वाले इस भौतिकवादी युग में आपसी सहयोग और सहकारिता की अनूठी मिसाल पेश करने वाला एक गांव ऐसा है जहाँ स्वयं की निर्धनता को भूल ग्रामीण पिछले लगभग डे़ढ़ दशक से सामूहिक मछलीपालन के जरिए गरीब लडकियों की शादी करा रहे हैं। झारखंड के नक्सल प्रभावित पूर्वी सिंहभूम जिले के ब़ड़ाजु़ड़ी गांव के ग्रामीणों ने यह अनुकरणीय मिसाल पेश की है। लीज पर लिये सरकारी तालाब में मछलीपालन के जरिए अब तक एक सौ से अधिक निर्धन लड़कियों के हाथ पीले किये गये हैं । ७९ सदस्यों की प्रबंधन कमेटी संयुक्त बैंक खाते में जमा रकम की देखरेख करती है। ग्रामीणों ने तालाब में सामूहिक मछलीपालन की योजना लगभग पंद्रह साल पहले उस समय बनाई थी जब पैसे के अभाव में एक गरीब कन्या के विवाह में कठिनाई पैदा हो गई थी। गांव के कुछ लोगों की पहल पर तालाब लीज पर लिया गया तथा प्रबंधन कमेटी बनाई गई। इस कमेटी ने मछलीपालन की कमाई से पहले ही साल सात निर्धन कन्याओं की शादी कराई थी। अब तक यह आंक़ड़ा एक सौ की संख्या को पार कर गया है। ग्रामीण बुलंद हौसले के साथ अब भी इस नेक काम में लगे हैं।