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शनिवार, 28 नवंबर 2009

अगले जनम नेता का रिश्तेदार ही कीजो........


मध्य प्रदेश में नगरीय निकायों के चुनाव में उम्मीदवारी तय करने में बीजेपी और काँग्रेस ने लोकतंत्र के सभी उसूलों को ताक पर धर दिया है । दोनों ही पार्टियों ने उम्मीदवारों की काबीलियत से ज़्यादा उसकी हैसियत को तरजीह दी है । प्रमुख दलों की "नूरा कुश्ती" ने महापौर,स्थानीय निकाय के अध्यक्षों और पार्षदों की तकदीर का फ़ैसला टिकट देते वक्त ही कर दिया है । आपसी तालमेल और सामंजस्य का इससे बेहतर उदाहरण क्या होगा कि सत्ताधारी दल के कई उम्मीदवारों के खिलाफ़ गुमनाम और अनजान चेहरे चुनावी मैदान में उतारे गये हैं । आम मतदाता दलों की चालबाज़ियों को बखूबी जान-समझ रहा है , लेकिन लोकतंत्र के नाम पर ठगे जाने को अपनी नियति मान कर हताश और निराश है | लोकतंत्र के नाम पर खुले आम चल रहे "लूटतंत्र" को रोकने में नाकाम लोग खुद को बेबस पा रहे हैं ।

नगरीय निकायों के चुनाव को लेकर भाजपा ने इस बार नेताओं के रिश्तेदारों की बजाय कार्यकर्ताओं को उम्मीदवार बनाने का ऐलान किया था।भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने एक बार फिर तय किए गए सारे मापदंडों की धज्जियाँ उड़ा दी हैं । पार्टी के तमाम नेताओं की घोषणा के बावजूद महापौर पद के 13 में से चार उम्मीदवार ऐसे हैं जो सीधे तौर पर नेताओं के रिश्तेदार हैं। ये चारों ही महिला उम्मीदवार हैं। पार्टी की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज ने भी सूबे में घूम-घूम कर महिला कार्यकर्ता सम्मेलनों में ऎलान किया था कि टिकट पाने के लिये कार्यकर्ताओं की सक्रियता ही एकमात्र पैमाना होगी ना कि किसी की रिश्तेदारी । लेकिन टिकट बँटवारे की फ़ेहरिस्त का खुलासा होने के बाद पार्टी का आम और सक्रिय कार्यकर्ता गुस्से से उबल रहा है । हर बार नेताओं के चहेतों,चमचों और रिश्तेदारों की उम्मीदवारी तय होती देख कार्यकर्ता समझ ही नहीं पा रहा कि पार्टी में उसका भविष्य क्या होगा ?

प्रदेश में नगरीय निकाय का पहला ऐसा चुनाव है जिसमें 50 प्रतिशत पद महिलाओं के लिए आरक्षित है। भाजपा ने नगरीय प्रशासन मंत्री बाबूलाल गौर की पुत्रवधू कृष्णा गौर को भोपाल से महापौर पद का उम्मीदवार बनाया है । कृष्णा पिछड़े वर्ग से आती हैं,जबकि ये सीट सामान्य वर्ग की महिला के लिये है। सामान्य वर्ग के उम्मीदवार के रूप में भाजपा महिला मोर्चा की प्रदेश अध्यक्ष सीमा सिंह, महिला समाज कल्याण बोर्ड की अध्यक्ष उषा चतुर्वेदी के अलावा सरिता देशपांडे जैसे तगड़े दावेदारों को दरकिनार कर कृष्णा गौर को टिकट दिया गया है । बीजेपी उम्मीदवार की पहचान यह है कि वे बाबूलाल गौर के बेटे की विधवा हैं । जब गौर "खड़ाऊ मुख्यमंत्री" बने थे,तभी उनके इकलौते पुत्र की मौत हो गई । पुत्रवधू को वैधव्य के दुख से बाहर लाने के लिये गौर ने कृष्णा गौर को आनन-फ़ानन में मप्र पर्यटन विकास निगम के अध्यक्ष पद का झुनझुना थमा दिया । हालाँकि तगड़े विरोध के कारण गौर को अपने कदम पीछे लेना पड़े और मुख्यमंत्री की कुर्सी भी गँवाना पड़ी । भोपाल की फ़िज़ा में ससुर-बहू की इस अलबेली जोड़ी के कई किस्से कहे-सुने जाते हैं । बहू को गद्दीनशीन देखने के ख्वाहिशमंद गौर ने भोपाल के उपनगर कोलार में नगरपालिका बना डाली,लेकिन दाँव उल्टा पड़ गया और ख्वाब की तामीर नहीं हो सकी ।

पटवा-सारंग गुट के इस खास सिपहसालार ने इस बार पार्टी ही नहीं विरोधी खेमे को भी बखूबी साध लिया है । तभी तो काँग्रेस ने कई मज़बूत महिला नेताओं की दावेदारी को खारिज करते हुए आभा सिंह जैसे अनजान चेहरे पर दाँव लगाया है । मतदाता खुद को ठगा महसूस कर रहा है और जानकार इसे मतदान से पहले ही बीजेपी के लिये जीत का जश्न मनाने का मौका बता रहे हैं । बीजेपी ने आदिम जाति कल्याण मंत्री विजय शाह की पत्नी भावना शाह को खण्डवा,वरिष्ठ नेता नरेश गुप्ता की पुत्रवधू समीक्षा गुप्ता को ग्वालियर और वर्तमान महापौर अतुल पटेल की पत्नी माधुरी पटेल को बुरहानपुर से महापौर पद का उम्मीदवार बनाया है। महापौर पद के लिए घोषित किए गए 13 में से अधिकांश उन्हीं लोगों को उम्मीदवार बनाया गया है जिनके परिवार का कोई सदस्य पहले से ही पार्टी में सक्रिय है। इस मसले पर भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष विजेंद्र सिंह सिसौदिया की कैफ़ियत है कि रिश्तेदारों को टिकट नहीं देने का आशय यह था कि जो राजनीति में सक्रिय नहीं है उन्हें उम्मीदवार नहीं बनाया जाएगा। उन्होंने स्पष्ट किया कि जिन्हें महापौर का उम्मीदवार बनाया गया है वे भले ही किसी के रिश्तेदार हों मगर पार्टी में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। उनकी उम्मीदवारी का आधार सक्रियता है।

नेताओं ने टिकट बँटवारे में नैतिकता के सभी मूल्यों को बड़ी ही बेहयाई से दरकिनार कर दिया है । मौजूदा राजनीति में व्यक्तित्व और कार्यकुशलता गौण और रिश्ते हावी होते जा रहे हैं । प्रमुख दलों में चहेतों को रेवड़ी बाँटने की परंपरा सी बन गई है । आपसदारी की राजनीति ने लोकतंत्र की जड़ों को खोखला कर दिया है । प्रभावी व्यक्तित्व और विकास के खुले नज़रिये के बगैर क्या ये सिफ़ारिशी चेहरे शहरों की कायापलट कर सकेंगे ? क्या रिश्तेदारों के कँधों पर सवार होकर "लोकतंत्र की पाठशाला" में दाखिल होने वाले लोग बीमार स्थानीय निकायों को भ्रष्टाचार और अव्यवस्थाओं के दलदल से निजात दिला सकेंगे ? या फ़िर ये नाकाबिल नुमाइंदे जनादेश के बहाने अपने आकाओं की मेहरबानी का सिला देने के लिये महज़ "कठपुतली" बन कर रह जाएँगे । अगर यही हाल रहा तो आने वाले वक्त में सियासी कार्यकर्ता ऊपर वाले से यही दुआ माँगते सुनाई देंगे - " जो अब किये हो दाता ऎसा ना कीजो , अगले जनम मोहे नेता का रिश्तेदार ही कीजो ........!"

सोमवार, 9 मार्च 2009

प्यासे कंठ और तर होते बाग़ - बागीचे

दुनिया भर में भूमिगत जल का स्तर तेजी से घट रहा है और विकासशील देशों में तो स्थिति बेहद गंभीर है । इन देशों में जल स्तर गिरने की रफ़्तार लगभग तीन मीटर प्रति वर्ष है । प्रदेश के अधिकाँश हिस्सों में भू - जल स्तर गिरता ही जा रहा है । मॉनसून की बेरुखी और प्रचंड गर्मी के कारण पानी के वाष्पीकरण में तेज़ी आई है । मार्च के पहले हफ़्ते में ही भोपाल के तापमान ने 38 डिग्री सेल्सियस की लम्बी छलाँग लगाई है । बड़ी झील पहले ही हाथ खड़े कर चुकी है । ऎसे में आया है होली का त्योहार .......। भोपाल वासियों की प्यास बुझाने का ज़िम्मा सम्हाल रहे नगर निगम के हाथ - पाँव भी फ़ूल गये हैं । लोगों से सूखी होली खेलने का गुज़ारिश की जा रही है । निगम ने जनता को पानी के संकट की गंभीरता का एहसास कराने के लिए आज एक विज्ञापन प्रसारित किया है ।

दूसरी तरफ़ भोपाल के नए नवाब ( बाबूलाल गौर) शहर को गर्मियों में भी चमन बनाने पर आमादा हैं । हाल ही में उन्होंने हैदराबाद का दौरा किया और पाया कि वहाँ के निज़ाम की मखमली घास भोपाल की घास की बनिस्पत बेहद नर्म है , सो हैदराबादी घास शहर में लगाने का फ़रमान जारी कर दिया । भरी गर्मी में लाखों रुपए खर्च करके घास मँगाई गई है । अब लाखों की घास के रखरखाव और बचाव पर करोड़ों रुपए खर्च होंगे । लेकिन शहर के व्यस्ततम लिंक रोड नम्बर दो पर लग रही इस मुलायम घास पर चलने का मज़ा लेने के लिए लोगों को अपनी जान जोखिम में डालना ही होगी । वजह ये कि मखमली घास फ़ुटपाथ पर नहीं रोड डिवाइडर पर लगाई गई है । गौर साहब शहर में सौ नए बाग - बागीचे बनाने की योजना का खुलासा भी कर चुके हैं । अँधेर नगरी - चौपट राजा .......।

भोपाल में दो दिन में एक बार औसतन करीब 400-500 लीटर पानी सप्लाई किया जा रहा है । तीखी गर्मी में जब लोगों के प्यासे कंठ को पानी मिलना दुश्‍वार हो रहा है , तब बागीचे सजाने के जुनून को क्या कहा जाए ? वैसे मेरी कॉलोनी में भी पिछले चार सालों से राजपरिवार ( बीजेपी ) के प्रादेशिक स्तर के पदाधिकारी रहते हैं ।

उनके घर के सामने के मैदान पर कभी बच्चे खेला करते थे , मगर नेताजी के सरकारी खर्च पर बागीचा सजाने के शौक ने बच्चों से खेल का मैदान छीन लिया । अब बच्चे उस पार्क में खेल नहीं सकते , बुज़ुर्गों की तरह केवल बैठ सकते हैं ।

पार्क में लगे पौधों और घास को तर रखने के लिए कोलार की मेन पाइप लाइन में अवैध रुप से मोटी पाइप डलवा कर पानी लिया जा रहा है । मगर पार्क बड़ा और गर्मी तेज़ है , इसलिए पौधों की प्यास बुझाने के लिए नगर निगम के टेंकर भी कीचड़ हो जाने की हद तक मैदान की तराई में जुटे हैं । लोग प्यासे मरें तो क्या .....? आधुनिक युग के इन राजाओं के सभी शौक पूरे होना ही चाहिए , आखिर लोकतंत्र है । लोकशाही में जनता की सेवा का बेज़ा फ़ायदा उठाने की कूव्वत अगर नेता अपने में पैदा नहीं कर पाए , तो धिक्कार है ऎसे प्रजातंत्र और ऎसी नेतागीरी पर ....। आखिर कभी समझाकर ,कभी डराकर और कभी धमकाकर हर आवाज़ उठाने की कोशिश का गला दबाना ही तो प्रजातंत्र है ।

शनिवार, 24 जनवरी 2009

कर्मचारियों के बहाने गौर ने साधा निशाना

मध्यप्रदेश के नगरीय प्रशासन मंत्री बाबूलाल गौर के एक बयान पर बवाल मचा गया है । प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके श्री गौर ने पिछले हफ़्ते कहा था कि " जिसे काम नहीं करना होता ,वह सरकारी नौकरी में आता है ।" उन्होंने ये भी कहा कि सरकारी कर्मचारी सुस्त हैं और प्रदेश के विकास में बाधक भी ।

उनके इस बयान से भडके कर्मचारी लामबंद हो गये हैं । कर्मचारी संगठनों ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया ज़ाहिर की है । कर्मचारियों का कहना है कि नेता और मंत्री तो महज़ घोषणाएं करके वाहवाही लूटते हैं । सरकारी कामकाज तो कर्मचारियों के बूते ही होता है । लेकिन कर्मचारियों की नाराज़गी से बेपरवाह श्री गौर अब भी अपनी बात पर अडे हैं । उनकी निगाह में सरकारी मुलाज़िम अलाल और मुफ़्तखोरी के आदी हैं ।

जिन लोगों का सरकारी दफ़्तरों से साबका पडा है उन्हें गौर के बयान में शब्दशः सच्चाई दिखाई दे सकती है । ये भी सही है कि कार्यालयों में टेबलों पर पडी फ़ाइलों की महीनों धूल तक नहीं झडती । चाय - पान के ठेलों पर कर्मचारियों का मजमा जमा रहता है । ऑफ़िस का माहौल बोझिल और उनींदा सा बना रहता है । ऊंघते से लोग हर काम को बोझ की मानिंद बेमन से करते नज़र आते हैं । मगर इस सब के बावजूद सरकार का कामकाज चल रहा है तो आखिर कैसे ..?

गौर जैसे तज़ुर्बेकार और बुज़ुर्गवार नेता से इस तरह के गैर ज़िम्मेदाराना बयान की उम्मीद नहीं की जा सकती । हो सकता है ज़्यादातर कर्मचारी अपने काम में कोताही बरतते हों । उनकी लापरवाही से कामकाज पर असर पडता हो । लेकिन कुछ लोग ऎसे भी तो होंगे जो अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदार हों और अपने काम को पूरी मेहनत और लगन से बखूबी अंजाम देते हों । ऎसे में सभी को एक ही तराज़ू में तौलना कहां तक जायज़ है ? क्या ये ठीक माना जा सकता है कि सभी कर्मचारियों को निकम्मा और कामचोर करार दिया जाए ?

चलिए कुछ देर के लिए मान लिया जाए कि गौर जो कह रहे हैं वो हकीकतन बिल्कुल सही है , तो ऎसे में सवाल उठता है कि इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है ? क्या उस सरकार की कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती जिसमें गौर खुद शामिल हैं ? क्या सरकारी मुलाज़िम निठल्ले होने के साथ - साथ इतने ताकतवर हो चुके हैं कि वे मंत्रियों पर भारी पडने लगे हैं ? बकौल गौर कर्मचारी प्रदेश के विकास में बाधक हैं , तो क्या जिस विकास के दावे पर जनता ने भाजपा को दोबारा सत्ता सौंपी ,वो खोखला था ? और अगर विकास हुआ तो आखिर किसके बूते पर ....?

दरअसल इस मसले को बारीकी से देखा जाए तो इसके पीछे कहानी कुछ और ही जान पडती है । लगता है गौर की राजनीतिक महत्वाकांक्षा एक बार फ़िर बलवती होने लगी है । छठा वेतनमान मिलने में हो रही देरी से प्रदेश के कर्मचारी बौखलाए हुए हैं । ऎसे समय में गौर के भडकाऊ बयान ने आग में घी का काम किया है । प्रदेश में शिवराज सिंह के विकास के नारे को जिस तरह से जनता ने वोट में तब्दील किया उससे पार्टी में उनका कद अप्रत्याशित रुप से एकाएक काफ़ी तेज़ी से बढा है । दिग्विजय सिंह के दस साल के कार्यकाल से निराश हो चुके कर्मचारियों की समस्याओं को ना सिर्फ़ शिवराज ने सुना - समझा और उनकी वेतन संबंधी विसंगतियों को दूर करने के अलावा सेवा शर्तों में भी बदलाव किया । दिग्विजय सिंह भी स्वीकारते हैं कि शिवराज कर्मचारियों के लाडले हैं और उन्हीं की बदौलत वापस सत्ता हासिल कर सके हैं ।

गौर की बयानबाज़ी शिवराज की उडान को थामने की कोशिश से जोड कर भी देखी जाना चाहिए । इसे लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र कर्मचारियों में असंतोष की चिंगारी को हवा देकर दावानल में बदलने की कवायद भी माना जा सकता है । यदि लोकसभा चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन मनमाफ़िक नहीं रहा , तो शिवराज का विरोधी खेमा इस मौके को भुनाने से नहीं चूकेगा । मुख्यमंत्री पद की शोभा बढा चुके गौर वैसे तो "सूबे के मुखिया" होने के ’हैंग ओवर’ से अब तक बाहर नहीं आ पाए हैं । पिछली सरकार में वाणिज्य कर मंत्री रहते हुए वे गाहे बगाहे दूसरे महकमों के कामकाज में भी दखल देते रहे हैं ।

शिगूफ़ेबाज़ी कर मीडिया की सुर्खियां बटोरना उनका शगल है । कभी भोपाल को स्विटज़रलैंड बनाने का ख्वाब दिखा कर , कभी बुलडोज़र चलाकर , तो कभी इंदौर और भोपाल में मेट्रो ट्रेन चलाने की लफ़्फ़ाज़ी कर लोगों को लुभाने की कोशिश करने वाले गौर ने 2006 में प्रदेश को पॉलिथीन से पूरी तरह निजात दिलाने का शोशा छोडा था । कुछ दिन बाद पॉलिथीन निर्माता कंपनियों का प्रतिनिधिमंडल गौर से मिला । इसके बाद ना जाने क्या हुआ ....?????? प्रदेश में पॉलिथीन का कचरा दिनोंदिन पहाड खडे कर रहा है ।