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शनिवार, 2 मई 2009

"आयारामों" की आवभगत से बीजेपी में खलबली

चुनाव से पहले एकाएक पाला बदल कर बीजेपी का दामन थामने वालों की बाढ़ ने संगठन में असंतोष की चिंगारी सुलगा दी है । काँग्रेस,बीएसपी,सपा सरीखे दलों के नगीने अपने मुकुट में जड़ने की कवायद में मुख्यमंत्री शिवराजसिंह को ज़बरदस्त कामयाबी हासिल हुई । वे दूसरे दलों के असंतुष्टों की बड़ी तादाद को अपने साथ जोड़ने में सफ़ल भी रहे ।

ये किसी कीर्तिमान से कम नहीं कि महज़ एक पखवाड़े में चार हज़ार से ज़्यादा नेताओं का विश्वास बीजेपी की नीतियों में बढ़ गया । इस हृदय परिवर्तन के कारण अपनी पार्टी में उपेक्षा झेल रहे नेताओं की पूछ-परख एकाएक बढ़ गई । आम चुनाव में प्रदेश में "क्लीन स्वीप" का मंसूबा पाले बैठे शिवराज ने अपनी राजनीतिक हैसियत बढ़ाने के लिये "दलबदल अभियान" को बखूबी अंजाम दिया । राजनीति के उनके इस अनोखे अंदाज़ की खूब चर्चा रही और इस घटनाक्रम में लोगों की दिलचस्पी भी देखी गई । लेकिन चुनावी खुमार उतरने के साथ ही दूसरे दलों से ससम्मान लाये गये नये साथियों को लेकर ऊहापोह की स्थिति बनने लगी है । नये सदस्यों को अच्छी खातिर तवज्जो की उम्मीद है,वहीं पार्टी के कर्मठ और समर्पित नेताओं को इस पूछ-परख पर एतराज़ है ।

दल बदल कर आये सभी बड़े नेताओं को अभी तक पार्टी ने चुनाव में झोंक रखा था । इतनी बड़ी संख्या में आये लोगों की भूमिका को लेकर पार्टी के पुराने नेता चिंतित हैं । पार्टी से जुड़े नेता संशय में हैं कि कहीं उनकी निष्ठा और कर्मठता कुछ नेताओं की व्यक्तिगत आकांक्षाओं की भेंट ना चढ़ जायें । कुछ नेता तो यहाँ तक कह रहे हैं कि सक्रिय कार्यकर्ताओं का हक छीनकर यदि इन नवागंतुकों को सत्ता या संगठन में नवाज़ा गया,तो खुले तौर पर नाराज़गी ज़ाहिर की जायेगी ।

पार्टी सूत्रों के मुताबिक भाजश नेता प्रहलाद पटेल,पूर्व काँग्रेसी मंत्री बालेन्दु शुक्ल,काँग्रेस के पूर्व प्रदेश संगठन महामंत्री नर्मदा प्रसाद शर्मा,पूर्व विधायक मोहर सिंह,सुशीला सिंह,कद्दावर दलित नेता फ़ूल सिंह बरैया,बीएसपी नेता भुजबल सिंह अहिरवार सरीखे कई दिग्गजों के साथ करीब चार हज़ार से ज़्यादा नेताओं ने बीजेपी का दामन थामा है । प्रहलाद पटेल की पार्टी में भूमिका पर फ़िलहाल कोई भी मुँह खोलने को तैयार नहीं है । पार्टी मानती है कि वे तो पहले भी भाजपा के सक्रिय सदस्य रहे हैं और पार्टी की रीति-नीति से बखूबी वाकिफ़ हैं । निश्चित ही वे प्रमुख भूमिका में नज़र आएँगे ।

हालाँकि संगठन दूसरे दलों से आये नेताओं को अपने रंग में रंगने के लिये प्रशिक्षण देने की बात कह रहा है । कहा जा रहा है कि उन्हें पार्टी के आचार-विचार से परिचित कराने के लिये ट्रेनिंग दी जायेगी । पार्टी की विचारधारा को पूरी तरह समझ लेने के बाद ही उनकी सक्रिय भूमिका के बारे में विचार किया जाएगा । मगर लाख टके का सवाल है,"टू मिनट नूडल" युग में किसी नेता के पास क्या इतना धैर्य और वक्त है ? घिस चुके बुज़ुर्गवार नेताओं को नये सिरे से ट्रेनिंग देने का तर्क हास्यास्पद है ।

पार्टी छोड़कर गये नेताओं की घर वापसी पर कार्यकर्ताओं और नेताओं को कोई आपत्ति नहीं है,लेकिन राजनीतिक कद बढ़ाने के लिये शिवराज की सबके लिये पार्टी के दरवाज़े खोल देने की रणनीति कई लोगों को रास नहीं आई । बेशक इस उठापटक से शिवराज को फ़ौरी फ़ायदा तो मिला ही है । आडवाणी और मोदी के साथ प्रधानमंत्री पद की दौड़ में नाम शुमार होना उनके लिये खुली आँखों से देखे सपने के साकार होने से कम नहीं । मगर पेचीदा सवाल यही है कि पार्टी इस सपने की क्या और कितनी कीमत चुकाने को तैयार है ?

भुने चने खाकर दिन-दिन भर सूरज की तपिश झेलते हुए जिन लोगों ने पार्टी की विचारधारा को जन-जन तक पहुँचाने का काम किया है,उनकी नज़रों के सामने काजू-किशमिश के फ़क्के लगाने वालों के लिये "रेड कार्पेट वेलकम" क्या गुल खिलायेगा ? क्या संघर्ष की राह पर चल कर सत्ता तक पहुँचने वाले दल के निष्ठावान कार्यकर्ताओं की अनदेखी पार्टी के लिये सुखद परिणिति कही जा सकेगी ? दिल्ली का ताज पाने के लिये संघर्ष पथ पर चल कर कुंदन बने अपने कार्यकर्ताओं और नेताओं को दरकिनार कर दूसरे दलों की "इमीटेशन ज्वेलरी" के बूते बीजेपी कब तक राजनीति की पायदान पर आगे बढ़ सकेगी ? ये तमाम सवाल भविष्य के गर्भ में छिपे हुए हैं । गुज़रता वक्त ही इनका जवाब दे सकेगा ।

रविवार, 15 फ़रवरी 2009

युवाओं के खिलाफ़ शिवराज का फ़रमान

मध्यप्रदेश सरकार ने एक बार फ़िर उदारता का मुज़ाहिरा किया है । दक्षिणपंथी विचारधारा के लेखकों और कलाकारों को दरकिनार कर वामपंथियों को सिर माथे बिठाने वाली भाजपा सरकार ने प्रदेश के दरवाज़े बाहरी छात्रों के लिए खोल दिए हैं । अब मप्र लोक सेवा आयोग की परीक्षा में प्रदेश से बाहर के उम्मीदवार भी हिस्सा ले सकेंगे । केबिनेट के इस फ़ैसले से राज्य के युवाओं के लिए प्रतिस्पर्धा कडी हो जाएगी ।

वर्ष 1996 से प्रदेश में नियम था कि पीएससी परीक्षा में वे ही प्रत्याशी शामिल हो सकेंगे जो मप्र के मूल निवासी होंगे । इसके लिए उम्मीदवार का मध्यप्रदेश से हायर सेकंडरी या डिग्री लेना ज़रुरी था । शिवराज सरकार के पिछले कार्यकाल में भी ये मामला केबिनेट में आया था , लेकिन कुछ मंत्रियों ने इस प्रस्ताव की जमकर मुखालफ़त की थी । उस वक्त मंत्रिमंडल सदस्य अखंडप्रताप सिंह ने इस मुद्दे पर अपनी ही सरकार को जमकर लताडा था ।

सुनने में आया है कि सामान्य प्रशासन विभाग ने इस बारे में अपने स्तर पर ही आदेश जारी कर दिए थे । मामला सामने आने पर उसे कानूनी जामा पहनाने के लिए केबिनेट में भेज दिया गया । इस मामले से दो बातें तो एकदम साफ़ हैं । पहली तो ये कि करोडों रुपए फ़ूँक कर कार्पोरेट कल्चर में रंग जाने को बेताब सरकार निहायत ही निकम्मी और काठ की उल्लू है । बजरबट्टू नेता पूरी तरह नौकरशाहों के शिकंजे में फ़ँसे हुए हैं । साथ ही इनके पास राज्य के विकास के लिए कोई समग्र सोच नहीं है । एक ही काम है इन नेताओं का ...। भज कलदारम , भज कलदारम हो गया प्रदेश का बंटाढारम .....।

प्रदेश में शिक्षा की स्थिति शर्मनाक हो चुकी है । बच्चों का भविष्य राम भरोसे है । मेरे घर के नज़दीक ,बल्कि उसे ऎसे कहें कि शिक्षा मंत्री के बंगले से महज़ दो - ढाई किलोमीटर की दूरी पर एक ऎसा स्कूल है , जहाँ एक कमरे में पाँच कक्षाएँ लगती हैं । यह स्कूल कम और रेलवे स्टेशन का क्लॉक रुम ज़्यादा नज़र आता है । पढाई की तो बात ही मत कीजिए । शिक्षिका के पसीने छूट जाते हैं ,बच्चों को चुप बैठाए रखने में । इतना ही नहीं प्रदेश का हर चौथा स्कूल एक शिक्षक के भरोसे है । डिस्ट्रिक्ट इन्फॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन की रिपोर्ट ने खुलासा किया है कि प्रदेश के 84 हज़ार से ज़्यादा प्राइमरी स्कूलों में से 27 हज़ार में महज़ एक टीचर तैनात है ।

स्कूली शिक्षा के हाल बताते हैं प्रदेश की शिक्षा का स्तर , जबकि दूसरे राज्यों में पढाई का स्तर काफ़ी ऊँचा है । ज़ाहिर तौर पर ऎसे में प्रतियोगी परीक्षाओं में दूसरे राज्यों के छात्र बाज़ी मार ले जाएँगे । बढते क्षेत्रवाद के चलते दूसरे प्रदेशों में मप्र के युवाओं के लिए वैसे भी अवसर ना के बराबर ही हैं । अपने ही मतदाताओं के हक पर कुठाराघात करने वाली सरकार की अकल पर पडे पाले ने लोगों को सन्न कर दिया है ।

इस मसले पर पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने भाजपा पर युवाओं के हितों को तिलांजलि देने का आरोप लगाते हुए शिवराज सिंह को पत्र लिखा है । मुख्यमंत्री ने दलील दी है कि हाईकोर्ट का आदेश मानना सरकार की मजबूरी थी । इस सफ़ाई ने सरकार की निर्णय क्षमता पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है । सरकार युवाओं के हित में कानूनी लडाई लडने के लिए इच्छा शक्ति प्रदर्शित कर सकती थी । मामले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे सकती थी ।

युवा हैरान हैं सरकार के फ़ैसले से । वे जानना चाहते हैं कि यदि उन्हें अपने ही प्रदेश में ठौर नहीं मिलेगा तो कहाँ जाएँगे......? जो सरकार जनता की पालनहार होने का ,उसके दुख दर्द समझने का दावा करती हो ,यदि वही दर्द देने पर आमादा हो जाए , तो आम जनता अपनी फ़रियाद लेकर किसके पास जाए........????? गरीबों की सुनवाई नहीं । बिजली नहीं ,पानी के लिए पूरे प्रदेश में हाहाकार । किसान बेज़ार । कर्मचारी सरकार की वायदा खिलाफ़ी से खफ़ा । और अब युवाओं के खिलाफ़ जाता ये सरकारी फ़रमान .....। क्या करना चाहती है ये सरकार ....????? दो महीनों में ये हाल .....। " इब्तदाए इश्क है रोता है क्या , आगे - आगे देखिए होता है क्या ? "