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शनिवार, 7 फ़रवरी 2009

मध्यप्रदेश में बीजेपी की "कॉर्पोरेट सरकार"

किसानों , गरीबों और कर्मचारियों का हितैषी होने का दावा करने वाली बीजेपी क्या बदल रही है ? प्रमोद महाजन जिस कॉर्पोरेट कल्चर को अपनाने का सपना लिए रुखसत हो गये क्या भाजपा ने उसे पूरी तरह अंगीकार करने का मन बना लिया है ? चाल ,चरित्र और चेहरे की बात करने वाला राजनीतिक दल क्या अब "कॉर्पोरेट गुरुओं" के इशारों पर चलेगा ? मध्यप्रदेश के मंत्रियों की पचमढी में आयोजित "पाठशाला" की खबर बताती है कि जननायक अब सीईओ संस्कृति के रंग में रंगने को बेताब हैं ।

प्रबंधन गुरुओं और प्रशासकों ने मंत्रियों को बेहतर नेतृत्व और कामकाज की कमान अपने हाथ में रखने के गुर सिखाये हैं । उबासी लेते नेताओं को इस अफ़लातूनी कवायद से वाकई कुछ हासिल हो सकेगा ...? आम जनता के लिए पैसे की तंगी का दुखडा सुनाने वाली सरकार ने दो दिन के लिए पचमढी की शानदार ग्लेन व्यू होटल को स्कूल में बदल दिया । मगर बुनियादी सवाल यह है कि क्या लोकतंत्र में मंत्री सीईओ हो सकता है ,जो उन्हें कॉर्पोरेट सेक्टर का एक्सपोज़र दिया जाए ? पब कल्चर को पाश्चात्य बताकर आसमान सिर पर उठाने वाली पार्टी कॉर्पोरेट कल्चर अपनाने के लिए इतनी उत्साहित क्यों है ?

विभाग अध्यक्ष ,सचिव ,सलाहकार बगैरह के रुप में बहुत से प्रबंधक मंत्रियों के अधीन रहते हैं । मंत्री का दायित्व नीति निर्धारण का है । कुशल प्रशासक के तौर पर प्रख्यात एम. एन. बुच की राय में मंत्री का काम नीति निर्धारण के बाद उसके क्रियान्वयन की ज़िम्मेदारी लेना है । वास्तव में मंत्रियों को सिर्फ़ यही पाठ पढाने की ज़रुरत है । नेतृत्व की कला मंत्री बखूबी जानते हैं । ये सभी राजनीति की रेलमपेल में टिकट लेने से लेकर चुनाव जीतने तक हर दांवपेंच आज़मा चुके हैं । केबिनेट में दाखिला पाना भी बच्चों का खेल नहीं ....। गलाकाट स्पर्धा में अव्वल नंबर हासिल करने के बाद ही मंत्री की कुर्सी मिल पाती है । उठापटक के बावजूद सियासी मैदान में "अंगद की तरह" जमे रहना हंसी मज़ाक नहीं है ।

राजनीति की खाक छानने वाले "गुरु घंटालों" को नई पीढी के सुविधाभोगी "कॉर्पोरेट गुरु" भला क्या पाठ पढा सकेंगे ?ये कहते "कागद की लेखी" , मंत्री कहता "आंखन की देखी "। नौंवी मर्तबा विधायक बने बाबूलाल गौर को भला ’कल का आया’ क्या नेतृत्व- कला सिखाएगा ?कई तरह की पंचायतों के ज़रिये अपनी "टारगेट-ऑडियंस" की पहचान कर अपनी सफ़ल मार्केटिंग करने वाले मुख्यमंत्री को एडवर्टाइज़िंग और मार्केटिंग की बारीकियां सीखने की क्या ज़रुरत है ।

यह पाठशाला सरकार की छबि गढने और जनता को भुलावे में रखने की कोशिश से इतर कुछ नहीं है । धोती - कुर्ते से सूट -टाई के सफ़र तक ही बात ठहरे तो कोई चिंता नहीं ,लेकिन पहनावे के साथ लोकतंत्र पर कॉर्पोरेट जगत का रंग चढने लगे तो ये चौकन्ना होने का सबब है ।

वैसे तो इस वक्त हर जगह घालमेल मचा है । अभिनेता सियासी गलियारों में चहल कदमी कर रहे हैं । नेता रुपहले पर्दे पर धूम मचाने को उतावले हैं । उद्योगपति प्रधानमंत्री पद का दावेदार तैयार करने में मसरुफ़ हैं । जिन्हें सीखचों के पीछे होना चाहिए वो कानून बनाने में भागीदारी निभा रहे हैं । अदालतों को न्याय देने की बजाय नालियों, सडकों और छोटे - मोटे मुद्दों पर नोटिस जारी करने से फ़ुर्सत नहीं है ।
कुल मिला कर हर चीज़ वहां ही नहीं है ,जहां उसे होना चाहिए । मुल्क की हालिया परिस्थितियों के सामने आम आदमी की बेबसी को दुष्यंत कुमार के शब्दों की चुभन ही बयान कर सकती है ।
भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ,
आजकल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दआ

गिड़गिडाने का यहाँ कोई असर होता नहीं
पेट भर कर गालियाँ दो आह भर कर बद-दुआ

इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो
जब तलक खिलते नहीं हैं कोयले देंगे धुआँ
वैसे आदर्शवाद का सामान्य रूप से राजनीतिक क्षेत्र में क्षरण हुआ है तो भारतीय जनता पार्टी में भी वो क्षरण दिखाई पड़ता है । भाजपा को एक जनआधारित काडर संगठन बनना था मगर ये हुआ नहीं । सबसे बड़ी त्रासदी ये है कि राजनीतिक दल मूल्यों और मुद्दों से भटक कर केवल सत्ता के निरंकुश खेल के हिस्से बन गए हैं । भाजपा भी इसकी अपवाद नहीं है । आज की तारीख़ में सभी पार्टियों में 19-20 का फ़र्क रह गया है । झंडे - बैनरों के फ़र्क के अलावा कांग्रेस - भाजपा में अंतर करना मुश्किल हो चला है । इस पार्टी में नेतृत्व और समर्थक के चिंतन और व्यवहार के स्तर पर बहुत अंतर आ चुका है ।

भाजपा की आज तक की यात्रा में हर मोड़ पर उसके फ़ैसलों को देखें तो उसमें एक ऐसा सूत्र है जो उसके मूल रोग को प्रगट करता है. वह है- तदर्थ या तात्कालिकता की राजनीति । इसी से भाजपा संचालित होती रही है । चाहे विश्वनाथ प्रताप सिंह के बोफोर्स मुद्दे का आंदोलन हो या अयोध्या का मसला या राजग के शासन का कार्यकाल या आजकल की घटनाएं हों उनमें भाजपा तात्कालिकता के चलते लोक लुभावन मुद्दों के पीछे भागने की राजनीति करती रही है ।

इसका नतीजा यह है कि सांप के केंचुली बदलने की तरह ही भाजपा ने विचारधारा को उतार फ़ेंकने में कभी गुरेज़ नहीं किया । गठबंधन के राजनीतिक धर्म का हवाला देकर सिद्धांतों से समझौता किया । जिससे भाजपा के विचारवान समझे जाने वाले नेताओं की कलई खुल गई और वैचारिक साख नष्ट हो गई । देखना दिलचस्प होगा कि मंदी के दौर में घोटालों और घपलों का कॉर्पोरेट कल्चर प्रदेश में क्या गुल खिलाता है........?

शनिवार, 15 नवंबर 2008

गदहा मलाई सूंत गया ..............


उज्जैन को खबरों में बने रहने का बडा चस्का है । मज़े की बात ये कि उज्जैनियों को खबरें बनाने के गुर भी बखूबी आते हैं । माधव और सुदामा , महाकवि कालिदास और विक्र्म बेताल की किस्सागोई अब तक लोगों के ज़ेहन में ताज़ा हैं । सिंहासन बत्तीसी की पुतलियों ने भी कोई कसर नहीं छोडी शहर को ख्याति दिलाने में ।

महाकाल की तो शान ही निराली है । मदिरापान करने वाले काल भैरव के उपासकों के लिए उज्जैन से बडा शायद ही कोई सिद्ध पीठ हो । तंत्र साधकों के पसंदीदा साधना स्थलों में उज्जयिनी का नाम सबसे ऊपर आता है । यहां के टेपा सम्मेलन की भी देश में खासी धूम है । टेपा समागम में महामूर्ख के खिताब से नवाज़ा जाना किसी बडे सम्मान से कम नहीं । सिंहस्थ की निराली छ्टा को निहारने के लिए देश - विदेश के सैलानियों का जमावडा अपने आप में अद्भुत अनुभव है ।

इन सब के बीच उज्जैन में गदहों के मेले का ज़िक्र ना करना नाइंसाफ़ी होगी । सारी दुनिया मंदी की मार झेल रही है , लेकिन गदहों के भाव आसमान छू रहे हैं । हैरत है कि हर साल लगने वाले गदर्भराज मेले में इस मर्तबा राजा नाम के गदहे के दाम १५ से २० हज़ार रुपए तक बोले गये ,जबकि चेतन राजा नाम के घोडे की कीमत भी इतनी ही आंकी गई ।

क्या ज़माना आ गया । पहले मेरे साथ कहीं भी नाइंसाफ़ी होती थी , तो मुंह से यक ब यक जुमला निकलता था कि गदहे घोडों में कुछ तो फ़र्क समझिए । लेकिन अब गदहों की पूछ परख ही नहीं बढी उनके दाम भी सातवें आसमान पर पहुंचने की तैयारी में हैं ।

घोडों को पूछने वाला कोई नहीं है । गदहे की तलाश सभी को है । कोई सवाल नहीं , कोई तर्क - वितर्क नहीं । सदैव मालिक के प्रति आभार का भाव । कोई शिकायत भी नहीं । हो भी क्यों ...? मालिक की जी हुज़ूरी बजा लाने का ईनाम भी तो भरपूर पाता है गदहा । मुझ मूर्ख को ये ब्रह्म ग्यान अब जा कर प्राप्त हुआ । हाल ही में घोडे होने की कीमत चुकाने के बाद अब जाना कि गदहा होना आज के वक्त में कितने फ़ायदे का सौदा है ।

अब तो गदहों के मलाई सूंतने का ही दौर है । कबीरदास जी कह गये हैं - माटी कहे कुम्हार को ,तू क्या रौंदे मोहे इक दिन ऎसा होएगा मैं रौंदूंगी तोहे । तो जनाब घोडों के दिन पूरे हुए , अब तो गदहों की ही चलेगी । गदहे हुक्म चलाएंगे और घोडॆ बोझा ढोते नज़र आएंगे .......। कलियुग है भई घोर कलियुग .....। नाम के फ़ेर में पड कर हिचकना -झिझकना छोडकर तय कर लीजिए किस जमात में शामिल होना है .......।

किसी से खुश भी नहीं है कोई खफ़ा भी नहीं ,
किसी का हाल कोई मुड के पूछता भी नहीं ।