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मंगलवार, 11 अगस्त 2009

गोडसे ने नहीं मारा गाँधी को ......

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के शरीर में लगी गोलियाँ गोडसे के रिवॉल्वर की नहीं थीं। अदालत के फैसले में इस बात का उल्लेख उनकी हत्या पर कई सवाल ख़ड़े करता है। गाँधीगीरी शब्द बौद्धिक लुच्चापन है। फिल्म में इसका प्रयोग कोई खास बात नहीं है। कुछ इस तरह के सवाल उठाए हैं गाँधीवादी चिंतक प्रो. कुसुमलता केडिया ने।

सुश्री केडिया गाँधी विद्या संस्थान वाराणसी की निदेशक हैं। समाज विज्ञान और अर्थशास्त्र की जानकार सुश्री केडिया संस्था प्रज्ञा प्रवाह द्वारा गाँधीजी की पुस्तक "हिन्द स्वराज्य" के शताब्दी वर्ष पर आयोजित कार्यक्रम में भाग लेने इंदौर आई थीं । उन्होंने नईदुनिया के साथ बातचीत में गाँधीवाद की सरेआम उड़ाई जा रही धज्जियों पर कड़ा एतराज़ जताया । चर्चा के कुछ अंश-

आप जिस कार्यक्रम में आई हैं, वह संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की है। गाँधीजी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को संघ की विचारधारा से प्रेरित माना जाता है। क्या गाँधीवादी लोगों ने संघ को स्वीकारना प्रारंभ कर दिया है?

एक अखबार में दी गई जानकारी के अनुसार गाँधी हत्याकांड के फैसले में उल्लेख है कि गाँधीजी को जो गोलियाँ लगी थीं वे गोडसे के रिवॉल्वर की नहीं थीं। गोडसे की स्वीकारोक्ति भी कानूनी रूप से वैध नहीं है। इस हत्याकांड में चश्मदीद गवाह के परीक्षण में मनु और आभा की गवाही भी नहीं हुई थी। गोली रिवॉल्वर की नहीं बंदूक की थी। ऐसी परिस्थितियों के बाद गाँधीजी की हत्या के इस फैसले पर देश में व्यापक चर्चा नहीं होना दुर्भाग्य की बात है। न गाँधीवादी और न ही कोई अन्य संगठन सच को सामने लाने का प्रयास कर रहा है। दूसरा पहलू यह है कि हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध तो लगा दिया गया था पर एफआईआर दर्ज नहीं की गई थी। बाद में इसे बिना शर्त के समाप्त कर दिया गया था। संघ कहाँ दोषी था इस बात की जानकारी नहीं है।

आपने इसके लिए क्या प्रयास किए?

कई बार गाँधीवादी लोगों को फैसले की प्रति के लिए पत्र लिखे।

गाँधीगीरी के नाम पर राजनीति चल रही है। क्या युवाओं के बीच गाँधी को लाने का यह सही तरीका है?

गाँधीगीरी शब्द बौद्धिक लुच्चापन है। फिल्म में इसका उपयोग खास बात नहीं है। लेकिन शासक वर्ग द्वारा इसे सिर च़ढ़ाना बौद्धिक दिवालियापन है। इसकी बजाए युवाओं को राष्ट्रपिता की देशभक्ति व स्वाभिमान से परिचित कराया जाए तो उन्हें सही मार्गदर्शन मिलेगा।

गाँधीजी के प्रखर हिन्दुत्व के चेहरे को क्यों नहीं उजागर किया गया?

भारत के विभाजन के बाद देश में प्रचंड हिन्दू आक्रोश जागा था। जनमत भी शरणार्थियों की विपदा देख कर शासन के विरुद्ध हो गया था। शासन में बने रहने के लिए ऐसे तत्वों के समर्थन की जरूरत थी जिनकी हिन्दू संवेदना क्षीण हो किंतु देश को भी स्वीकार हो। इसलिए प्रयोजनपूर्वक गाँधीजी के प्रखर हिन्दुत्व के चेहरे को ढँका गया। मशीन विरोध, वकील विरोध को उभारा गया। जिससे गाँधीजी अप्रासंगिक हो जाएँ।

देश में नेता पवित्र खादी को पहन कर काले कारनामे कर रहे हैं, जबकि आम आदमी इससे दूर है।

नेताओं ने खादी छो़ड़ दी है। बहुत सारे नेता अब इसका उपयोग डिजाइनर ड्रेस के रूप में कर रहे हैं। पहले खादी राजनीतिक पहचान होती थी। आजकल फैशन का पर्याय बनती जा रही है।

देश के सरकारी ऑफिसों में गाँधीजी की तस्वीर के नीचे खुलेआम रिश्वत ली जा रही है। गाँधीवादी इसे हटाने की माँग क्यों नहीं करते हैं?

रिश्वत, व्यवस्था के नंगेपन को उजागर कर रही है। सरकारी कार्यालयों में गाँधीजी की तस्वीर लगी होने के कारण ही देश ठाठ से चल रहा है। यहाँ पर गाँधीजी के साथ स्वामी विवेकानंद व सुभाषचंद बोस की तस्वीर भी लगा दी जानी चाहिए। जिससे नंगापन दिखाने वालों को कुछ शर्म आए।

गरीबी दूर करने व गाँवों के विकास में गाँधी दर्शन कितना प्रासंगिक है?

देश में पिछले ६० सालों में आर्थिक समृद्धि ब़ढ़ी है। गरीबी के हल के लिए गाँधी के सिद्धांतों की जरूरत नहीं है। शासक वर्ग को संयमित व संतुलित कर दिया जाए तो देश संपन्न हो जाएगा। कांग्रेस ने पिछले २० सालों में गाँधी के ग्राम स्वावलंबन के सिद्धांत को लागू नहीं किया है। उन्होंने पंचायती राज व्यवस्था को लागू किया। यह ग्राम स्वराज्य से भिन्न है। इससे गाँवों का विकास नहीं विनाश हुआ है।

गाँधीवादी सिद्धांतों के बारे में आप क्या सोचती हैं?

देश का शासक वर्ग गाँवों को मजबूत करने की बजाए शहरों को मजबूत करने में लगा है। गाँधीजी के विचारों के विपरीत माहौल है। जबकि प्राणवान (देश व समाज को चलाने वाला) वर्ग गाँधी परंपरा के अनुरूप कार्य कर रहा है।

नईदुनिया से साभार

शनिवार, 13 दिसंबर 2008

’राम राज्य’ की आस में शिव को सौंपा ताज

शिवराजसिंह चौहान की ताजपोशी के साथ बीजेपी सरकार की नई पारी की शुरुआत हो गई है । भोपाल के जम्बूरी मैदान पर उमडे अथाह जनसैलाब ने भाजपा को स्पष्ट संकेत दे दिये हैं कि छप्पर फ़ाड कर वोट देने के बाद जनता सरकार से जमकर काम लेने के लिए कमर कस चुकी है ।

प्रदेश की जनता ने जिस निष्ठा और विश्वास के साथ शिवराजसिंह चौहान पर भरोसा जताया है , उसकी कसौटी पर खरा उतरने के लिए मुख्यमंत्री को सूबे की कमान संभालते ही काम में जुट होगा । भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों को दरकिनार कर राज्य की बागडोर भाजपा को सौंपने के पीछे सिर्फ़ एक ही कारण नज़र आता है कि मतदाताओं को शिवराज की कोशिशों में ईमानदारी दिखाई दी । लोगों ने ना पार्टी और ना ही स्थानीय नेता को चुना , बल्कि उन्होंने तो शिवराज के विकास के नारे पर अपने भरोसे की मोहर लगाई है ।

इस चुनाव में मतदाता ने स्पष्ट कर दिया है कि ना तो उसे बीजेपी से कोई खास लगाव है और ना ही कांग्रेस से कोई बैर । उसे मतलब है सिर्फ़ काम से । अच्छा काम करने की बात और विकास का वायदा तो लगभग सभी पार्टियों ने किया लेकिन मतदाताओं ने वायदा करने वालों की विश्वसनीयता को जांचा - परखा । यही वजह रही कि एक दूसरे को नीचा दिखाने में मशगूल कांग्रेस नेताओं के प्रति जनता ने बेरुखी अख्तियार कर ली । लोगों को लगा कि जब तक कांग्रेस अपना घर व्यवस्थित नहीं कर लेती , उसे प्रदेश का ज़िम्मा सौंपना ठीक नहीं होगा ।

दूसरी अहम बात रही शिवराज की विनम्र और ज़मीन से जुडे व्यक्ति की छबि । उन्होंने अपनी कमियाँ स्वीकार करने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई । शायद इसीलिए तमाम खामियों के बावजूद शिवराज का जननायक के रुप में ’कायान्तरण” संभव हो सका । लेकिन अभी यह सफ़र का महज़ आगाज़ है । आगे का रास्ता काफ़ी कंटीला और दुर्गम है और यहीं से शुरु होगा जननायक की असली परीक्षा का दौर ...?

मध्यप्रदेश चुनावों की कुछ विशिष्टताओं पर विचार ज़रुरी है । हालांकि भाजपा के कई धडॆ इसे मानने को तैयार नहीं लेकिन हकीकतन आम जनता पर ’शिवराज फ़ेक्टर” हद दर्ज़े तक हावी रहा । गुजरात का ’मोदी माडल’ अपनी जगह है , मगर समाज के सभी वर्गों तक पहुंचने के लिए वायदों की बरसात के ’ शिवराज फ़ार्मूला’ का कामयाब होना आगामी चुनावों की रणनीति पर सभी दलों को फ़िर से काम करने के लिए बाध्य करेगा । इस माडल की खामियां और खूबियां तो अगले पांच साल ही बता सकेंगे , लेकिन फ़िलहाल यह माडल मोदी माडल की तुलना में ज़्यादा कारगर साबित हुआ है ।

जनता ने ज़्यादातर शिवराज को वोट दिया है फ़िर चाहे उम्मीदवार कोई भी रहा हो । अममून देखा गया है कि लोकप्रियता का बढता ग्राफ़ संकट का स्रोत भी बन जाता है । जनता जहाँ असीमित आशाएँ- अपेक्षाएँ पाल लेती है , वहीं पार्टी के भीतर भी ईर्ष्या और द्वेष के नाग फ़न फ़ैलाने लगते हैं । ऎसे में उन्हें खुद के बनाए माडल से भी सावधान और चौक्कना रहना होगा ।

शिवराज सरकार के सामने कडी चुनौती होगी चुनावी घोषणा पत्र में किए गये वायदों को पूरा करने की । बीजेपी ने अपने घोषणा पत्र ’जन संकल्प पत्र’ में जो वायदे किए हैं यदि वे सारे के सारे आने वाले पाँच साल में पूरे कर दिए जाते हैं तो मध्यप्रदेश हकीकत में स्वर्ग बन जाएगा ।

पिछले कार्यकाल में शिवराज ने राजधानी में किस्म - किस्म की महापंचायतें आयोजित कर ज़बानी जमा खर्च की तमाम रेवडियाँ बाँटी । प्रदेश का एक बडा हिस्सा उन घोषणाओं को लेकर तरह तरह के सपने बुन कर बैठा है । वायदों को हकीकत में बदलने के लिए सरकार को आर्थिक मोर्चे पर विशेष कोशिशें करना होंगी । योजनाओं को अमली जामा पहनाने के लिए आय के नए स्रोत तलाशने के साथ ही वित्तीय स्थिति में मज़बूती के लिए मितव्ययिता अपनाना होगी । लेकिन सूबे के मुखिया के ’राजतिलक” पर दिल खॊलकर किए गए खर्च को देखते हुए फ़िलहाल वित्तीय अनुशासन की बात कहना बेमानी लगता है ।

बहरहाल शिवराज एकछत्र नेता के रुप में उभरे हैं । उन्हें सकारात्मक समर्थन मिला है ,लेकिन लाख टके का सवाल है कि क्या वे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाकर सकारात्मक राजनीति और रचनात्मक सुशासन का माडल तैयार कर सकेंगे.....?

झूठे सिक्कों में भी उठा देते हैं अकसर सच्चा माल
शक्लें देख के सौदा करना काम है इन बंजारों का ।

सोमवार, 1 दिसंबर 2008

सरकार को मैडम सोनिया की फ़टकार

मुम्बई में दहशतगर्दी पर केन्द्र और राज्य सरकार की नाकामी ने मैडम सोनिया की पेशानी पर बल ला दिए है । प्रियंका राबर्ट वाड्रा के तल्ख तेवरों के बाद सीपीसी की मीटिंग में राहुल बाबा के भडकने ने देश के राजनीतिक गलियारों में सरगर्मी बढा दी । कांग्रेस के भावी कर्णधारों के कडे तेवरों के आगे कई दिग्गज नेताओं की घिग्गी बंध गई लगती है ।

सोनिया ने भी बच्चों की ज़िद के आगे घुटने टेक दिए और गुस्से में ऎसे कठोर अल्फ़ाज़ कह डाले , जो यूपीए सरकार के अब तक के कार्यकाल पर ही सवालिया निशान लगाते हैं । बैठक में सरकार को दी गई हिदायतों पर गौर किया जाए , तो उसका लब्बो लुआब कुछ ऎसा ही निकलता है । चैनलों पर प्रसारित ब्रेकिंग न्यूज़ की एक बानगी -

- आतंकवाद पर सोनिया सख्त

- सोनिया का सरकार को दो टूक संदेश

- द्रढ इच्छा शक्ति वाले नेतृत्व की ज़रुरत

- निर्णायक कार्रवाई की ज़रुरत

- लोगों को लगे कि सरकार है

- सोच विचार का समय गया

मोहतरमा सोनिया के
इस बदले रुख पर बस यही कहा जा सकता है - बडी देर कर दी मेहरबां आते आते........... ।

इन सभी बातों को पलट कर देखें या यूं कहें कि गूढ अर्थ ढूंढें , तो लगता है कि अब तक केंद्र सरकार जनता के पैसों पर , जनता की मर्ज़ी से , जनता के लिए मसखरी कर रही थी । हर मोर्चे पर नाकामी की ऎसी ईमानदार स्वीकारोक्ति के बाद तो पूरी सरकार को ही अलविदा कह देना चाहिए ।

इस्तीफ़ों की नौटंकी " डैमेज कंट्रोल एक्सरसाइज़ ’ से ज़्यादा कुछ नहीं । लगातार अपनी चमडी बचाने में लगे नेताओं को ऊपर से फ़टकार पडी , तो बेशर्मी ने नैतिकता का लबादा ओढ लिया ....! खैर इन बेचारों को दोष देने का कोई मतलब नहीं । बात की तह में जाएं , तो पाएंगे कि असली गुनहगार हम हैं । और अपनी बेवकूफ़ियों की ठीकरा नेताओं पर फ़ोडकर असलियत से मुंह छिपाने की पुरज़ोर कोशिश से बाज़ नहीं आ रहे ।

जनसेवक ना जाने कब जन प्रतिनिधि बन बैठे । जिन्हें जनता की सेवा दायित्व निभाना था , सत्ता के मालिक बन बैठे । यानी प्रजातंत्र की असली सूत्रधार जनता अपने अधिकारों को आज तक समझ ही नहीं सकी है । गलत लोग चुनें भी हमने हैं ,तो फ़िर शिकवा - शिकायत कैसी ? अच्छे लोगों को आगे लाने की मुहिम चलाना होगी ,जनता को मानसिकता बदलना पडेगी , सही - गलत का फ़र्क समझना होगा और देशहित में निज हितों को दरकिनार करना होगा । चांदी के चंद टुकडों के लिए ईमान की तिजारत बंद करके ही देश को बचाया जा सकता है ...।

नयी दुनिया की पड रही है नींव
खैर उजडी तो उजडी आबादी
फ़ैसला हो गया सरे मैदां
ज़िंदगी है गरां कि आज़ादी

शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

सियासी मैदान में ज़मीन तलाशती औरतें


आधी आबादी की भागीदारी में इज़ाफ़े के दावों - वादों के बीच सच्चाई मुंह बाये खडी है । हाशिए पर ढकेल दिया गया महिला वर्ग अपनी आवाज़ बुलंद करने के लिए आज भी राजनीतिक ज़मीन तलाश रहा है ।

भारतीय राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढाने को लेकर लंबे चौडे भाषण दिये जाते हैं । सियासत में महिलाओं की नुमाइंदगी बढाने को लेकर गंभीर विचार विमर्श के दौर भी खूब चलते हैं । इस मसले पर मंचों से चिंता ज़ाहिर कर वाहवाही बटोरने वाले नेताओं की भी कोई कमी नहीं । लेकिन चुनावी मौसम में टिकिट बांटने के विभिन्न दलों के आंकडों पर नज़र डालें , तो महिलाओं को राजनीति में तवज्जोह मिलना दूर की कौडी लगता है । किसी भी राजनीतिक दल ने टिकट बाँटने में महिलाओं को प्राथमिकता सूची में नहीं रखा है ।

दो प्रमुख राजनीतिक दल कांग्रेस और भाजपा हमेशा से महिलाओं को ३३ प्रतिशत आरक्षण का समर्थन करते आए हैं लेकिन उम्मीदवारों की सूची में उनकी यह इच्छा ज़ाहिर नहीं होती ।
राजनीति में महिलाओं को ३३ प्रतिशत आरक्षण देने की ज़ोरदार वकालत करने वाले राजनीतिक दल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के मध्यप्रदेश में २७ नवंबर को होने वाले चुनाव के टिकट वितरण में इसे भूल गए ।

मध्यप्रदेश में हुए टिकिट वितरण पर निगाह डालें , तो यही तस्वीर सामने आती है कि बीजेपी, कांग्रेस ,बसपा से लेकर प्रांतीय दलों की कसौटी पर भी महिलाएं खरी नहीं उतर सकी हैं ।किसी भी दल ने १३ फ़ीसदी से ज़्यादा महिला उम्मीदवारों में भरोसा नहीं जताया है । यह हालत तब है जब तीन प्रमुख दलों की अगुवाई महिलाएं कर रही हैं ।

भारतीय जनता पार्टी ने महिला प्रत्याशियों को मौका देने में कंजूसी बरती है । पार्टी ने १० फ़ीसदी यानी २३ प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारा है , जबकि प्रदेश संगठन का दावा था कि ३३ प्रतिशत टिकिट नहीं दे पाने की हालत में कम से कम हर ज़िले में एक सीट महिलाओं को दी जाएगी । लेकिन आंकडे बीजेपी के दावे को खोखला करार देते हैं ।

कांग्रेस ने इस मामले में कुछ दरियादिली दिखाई है ,मगर यहां भी गिनती २९ पर आकर खत्म हो जाती है । कुछ कद्दावर नेताओं के विरोध के बावजूद पार्टी ने १२.६० प्रतिशत महिला नेताओं पर जीत का दांव खेला है ।

मायावती की अगुवाई वाली बहुजन समाज पार्टी की महिलाओं के प्रति बेरुखी साफ़ दिखती है । २३० सीटों में से महज़ १३ यानी ५,२२ फ़ीसदी को ही बसपा ने अपना नुमाइंदा बनाया है । हालांकि सोशल इंजीनियरिंग के नए फ़ार्मूले के साथ राजनीति का रुख बदलने में जुटी मायावती से महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढाने को लेकर काफ़ी उम्मीदें थीं ।

उमा भारती की भारतीय जनशक्ति में भी पुरुषों का ही बोलबाला है । तंगदिली का आलम ये है कि २१६ सीटों में से १८ पर ही महिला उम्मीदवारों को मौ्का दिया गया है । समाजवादी पार्टी का हाल तो और भी बुरा है । सपा ने २२५ प्रत्याशी खडॆ किए हैं , जिनमें सिर्फ़ १६ महिलाएं हैं । इस तरह कुल तीन हज़ार एक सौ उन्यासी उम्मीदवारों में से केवल दो सौ बीस महिलाएं हैं ।

हालांकि पिछले चुनाव में १९ महिलाओं को विधानसभा में दाखिल होने का अवसर मिला था । इनमें से १५ बीजेपी की नुमाइंदगी कर रही थीं । ताज्जुब की बात यह थी कि ८ को मुख्यमंत्री और मंत्री पद से नवाज़ा गया । ये अलग बात है कि चार महिलाओं को अलग - अलग कारणों से मुख्यमंत्री और मंत्री पद गंवाना पडा । ये हैं - उमा भारती , अर्चना चिटनीस , अलका जैन और विधायक से सांसद बनीं यशोधरा राजे ।

दरअसल राजनीतिक दलों को लगता है कि महिला उम्मीदवारों के जीतने की संभावना कम होती है , लेकिन एक सर्वेक्षण के बाद सेंटर फॉर सोशल रिसर्च ने कहा है कि यह धारणा सही नहीं है. । सेंटर का कहना है कि १९७२ के बाद के आंकड़े बताते हैं कि महिला उम्मीदवारों के जीतने का औसत पुरुषों की तुलना में बहुत अच्छा रहा है ।

इस मुद्दे पर राजनीतिक दल सिर्फ़ ज़बानी जमा खर्च करते हैं । हकीकतन महिलाओं के साथ सत्ता में भागीदारी की उनकी कोई इच्छा नहीं है । महिलाओं की भागीदारी भले ही सीमित संख्या में बढ़ रही है लेकिन जो महिलाएँ राजनीति में आ रही हैं , उन्होंने महिला राजनीतिज्ञों के प्रति लोगों की राय बदलने का महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । गौर तलब है कि अब जो महिलाएँ चुनाव लड़ रही हैं उनमें से कम ही किसी राजनीतिज्ञ की पत्नी, बेटी या बहू हैं ।

भारत में आम तौर पर राजनीति शुरू से पुरुषों का क्षेत्र माना गया है और आज भी पुरुषों का वर्चस्व कायम है शायद कहीं न कहीं पुरुष राजनेता नहीं चाहते कि वो अपनी जगह छोड़ दें , लेकिन धीरे - धीरे ही सही वक्त करवट ले रहा है ।

व्यक्तिगत तौर पर मेरा मानना है कि महिलाओं को आगे बढने के लिए किसी सहारे की ज़रुरत नहीं । महिलाओं में आगे बढने का जज़्बा भी है और हौसला भी । योग्यता बढाने के लिए अनुकूल माहौल की दरकार है । पर्याप्त मौके मिलते ही इन परवाज़ों को पंख मिल जाएंगे ऊंचे आसमान में लंबी उडान भरने के लिए ....। औरत किसी के रहमोकरम की मोहताज कतई नहीं ...। जिस भी दिन औरत ने अपने हिस्से का ज़मीन और आसमान हासिल करने का ठान लिया उस दिन राजनीति का नज़ारा कुछ और ही होगा ।

कद्र अब तक तेरी तारीख ने जानी ही नहीं
तुझमें शोले भी हैं ,बस अश्कफ़िशानी ही नहीं
तू ह्कीकत भी है , दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं
अपनी तारीख का उनवान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे ।

शुक्रवार, 7 नवंबर 2008

नारों- वादों के शोर में मुद्दे हुए नदारद

मध्य प्रदेश में चुनाव सर पर हैं और प्रमुख पार्टियों में टिकट को लेकर मचे घमासान का नज़ारा जनता खूब चाव से देख रही है । हफ़्ते भर पहले तक उमा के तेवरों और कांग्रेस से कडी टक्कर मिलने की आशंका ने बीजेपी की बैचेनी बढा दी थी । मगर कांग्रेस ने चुके हुए नेताओं को टिकट देकर सत्तारुढ दल की मुश्किलें आसान कर दी हैं । रही बात उमा भारती की , तो वे अपनी दुश्मन खुद हैं । ह्फ़्ते भर पहले तक साध्वी मामले में खुलकर सामने आने के कारण उमा लीड लेती लग रही थीं ,लेकिन छिंदवाडा में पार्टी पदाधिकारी की सरेआम पिटाई ने किए कराए पर पानी फ़ेर दिया । उमा ने भगवा चोला भले ही धारण कर लिया हो ,मगर अब तक अपने स्वभाव को भी ठीक तरह से नहीं साध सकीं हैं।

मतदान को लगभग २० दिन बचे हैं । चुनावी माहौल ज़ोर पकडने लगा है । लेकिन इस बार के चुनाव कुछ अलग हैं । मैंने पहले भी चुनाव देखे हैं , रिर्पोटिंग भी की है । प्रदेश में पहली बार शायद ऎसा मौका आया है ,जब पार्टियों के पास जनता के बीच जाने के लिए कोई मुद्दा नहीं । प्रजातंत्र में इससे बुरा दौर और क्या हो सकता है ? मुद्दों का अकाल यानी लोकतंत्र के लिए संकट का काल । जनता रोज़मर्रा की दिक्कतों से बेज़ार है लेकिन नेता बेखबर । मुद्दाविहीन राजनीति नेताओं क्के लिए फ़ायदे का सौदा हो सकती है ,लेकिन लोकतंत्र के हित में ये संकेत शुभ नहीं ।

झंडे ,बैनर ,पोस्टर सज गये हैं । सडकों पर वाहन रैलियों और नारों का शोर है । मगर पिछले पांच सालों के कामकाज का लेखा जोखा मांगने की ना तो किसी को सुध है और ना ही हिसाब देने वालों को कोई परवाह । राजनीतिक दीवालिएपन का आलम ये है कि कांग्रेस और बीजेपी अब तक चुनावी घोषणा पत्र भी जनता के सामने नहीं रख सके हैं ।

मुझे लगता है कि प्रदेश की अवाम भी भ्रम की स्थिति में है । काग्रेसी उम्मीदवारों से किसी तरह की उम्मीद करना बेमानी है और बीजेपी की ओर से दागी मंत्रियों की लंबी फ़ेहरिस्त दोबारा चुनावी दंगल में भेजी गई है । टिकटों की खरीद फ़रोख्त की खबरें ज़ोरों पर रहीं । हर कोई विधायक पद का प्रबल दावेदार है । कोई धन के बूते , कोई धर्म के नाम पर । अब तो राजनीति कइयों के लिए खानदानी पेशा बन गया है । जातिगत गणित भी खूब काम कर रहा है । हमें चुनना है खराब में से कम खराब । यानी इधर नागनाथ , तो उधर सांपनाथ ।

मेरा नज़र में इस चुनाव में मुद्दों के साथ - साथ विकल्प का भी अकाल है ।, छोटे दलों के प्रत्याशी भी कुछ उम्मीद नहीं जगाते । टिकट ना मिलने से नाराज़ कई नेताओं ने बागी तेवर अपनाकर इन द्लों का रुख कर लिया है । ऎसे में प्रदेश के विकास की बात कौन करे ? राजनीति में धन बल , बाहुबल और जात -पांत के समीकरणों का तोड ढूंढने के की शुरुआत कब होगी और कैसे ? यह बुनियादी सवाल हर पांच साल बाद आ खडा होता है ...... जवाब की तलाश में....... ?

मुंह खुला है उधर खज़ाने का , मुड रहा है वरक ज़माने का
और इधर कहत दाने - दाने का , कस्द [निश्चय] फ़िर भी पहाड ढहाने का ।

शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2008

मध्यप्रदेश के चुनावी दंगल में ’उमा फ़ेक्टर’ की दह्शत

उमा भारती ने चुनावी समर में हुंकार भर कर बीजेपी की नींद उडा दी है । साध्वी प्रज्ञा सिंह को भारतीय जन शक्ति पार्टी से चुनाव लडने का न्यौता देकर उन्होंने बीजेपी की जान सांसत में डाल दी है । उमा ने साध्वी के ज़रिए भारतीय जनता पार्टी पर निशाना साधा है और उसे उसी के हिन्दू कार्ड से मात देने की पूरी बिसात बिछा दी है । प्रज्ञा सिंह के मामले से कुछ दिन पहले तक पल्ला झाडती नज़र आ रही बीजेपी को मजबूरी में ही सही इस मसले पर सामने आना पडा है ।

उमा भारती के राजनीतिक भविष्य पर विराम की संभावनाएं तलाशते भाजपाई नेता दोबारा गद्दीनशीं होने का रास्ता सीधा - सपाट मान बैठे थे । मध्य प्रदेश कांग्रेस की आपसी सर फ़ुटौव्वल के कारण उनका ये खवाब हकीकत में बदलने की गुंजाइश भी साफ़ - साफ़ नज़र आ रही थी ,लेकिन हाशिए पर जा चुकी उमा ने प्रहलाद पटेल के साथ सुलह करके बीजेपी की राह में कांटे बिछा दिए हैं । बिखराव की राजनीति के सहारे आगे बढना नामुमकिन है , इस हकीकत से वाकिफ़ होने के बाद दोनों नेताओं ने समय रहते गिले - शिकवे भुलाकर ऎक साथ आने में ही भलाई समझी । दोनों का मकसद एक है और मंज़िल भी एक ही ।

भाजपा को कांग्रेस से कडी चुनौती तो मिलना तय है ,लेकिन चुनाव में उमा फ़ेक्टर को भी नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता । उमा भी बीजेपी को हर हाल में सत्ता से बाहर रखने की जुगत भिडाने में लगी हैं । छोटे - छोटे दल भी सत्तारुढ पार्टी का सिरदर्द बन गये हैं । इस मर्तबा प्रदेश के चुनावी जंग में प्रमुख दलों के अलावा छोटी पार्टियां भी निर्णायक भूमिका निबाहेंगी ।

मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने प्रदेश में अपने पैर मज़बूती से जमा लिए हैं । इसके अलावा राष्ट्रीय जनता दल , गोंडवाना गणतंत्र पार्टी , लोक जनशक्ति पार्टी और वामपंथी दलों ने भी अपने स्तर पर बीजेपी और कांग्रेस को घेरने की तैयारी कर ली है । मुखतलिफ़ राजनीतिक विचारधारा के बावजूद सीटों के तालमेल पर उमा की प्रांतीय दलों से पटरी बैठ सकती है । ऎसे में मायावती का साथ यदि उमा को मिल गया , तो प्रदेश में नए राजनीतिक समीकरण बनेंगे । सत्ता की आस लगाए बैठी कांग्रेस तथा बीजेपी को नाकों चने चबाना होंगे ।

लगता है उमा का चुनावी मोटो है - हम तो डूबेंगे सनम ,तुम को भी ले डूबेंगे .......।