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शनिवार, 18 अप्रैल 2009

सभी प्रत्याशियों को नकारने का अधिकार (नोटा)

चुनाव सुधार की दिशा में किए जाने वाले तमाम प्रयासों में से एक महत्वपूर्ण प्रयास है ‘नोटा’ से लोगों को परिचित कराना और इलैक्ट्रानिक वोटिंग मशीन में इसके लिए बटन की व्यवस्था करवाना। नोटा यानी खडे उम्मीदवारों में से कोई नहीं (None of the above) के विकल्प से सर्वसाधारण से परिचय कराते हुए उन्हें यह औजार मुहैया कराया जाना चाहिए। ऐसा हो जाने पर जनभावना सही तरह से चुनाव में परिलक्षित हो सकती है।

चुनाव आयोग के नियम 49-ओ के अनुसार जो कोई मतदाता मतदान केंद्र के अंदर अपना बहुमूल्य मत किसी भी उम्मीदवार को देना नही चाहते हैं उनके लिए चुनाव आयोग ने प्रावधान किया है कि वे निर्वाचन अधिकारी को अपनी पहचान कराने के एवं तर्जनी पर स्याही का निशान लेने के बाद, वोट देने से मना कर सकते हैं तथा अपना आशय पीठासीन अधिकारी को बता, उसके सम्मुख वोटर रजिस्टर में फार्म 17-अ पर दस्तखत करके अथवा अंगूठा लगा कर बैरंग लौट सकते हैं । मतगणना के समय ऐसा मत ‘किसी को भी नहीं’ मत के रूप में गिना जाता है। यदि ऐसे मतों की संख्या, सबसे अधिक मत प्राप्त करने वाले उम्मीदवार से ज्यादा हो गई तो विस्फोटक स्थिति उत्पन्न हो जायेगी। चुनाव स्थगित होने की नौबत आ सकती है । हारे हुए उम्मीदवार, सबसे ज्यादा वोट लाने वाले प्रत्याशी को विजेता घोषित नही होने देंगे क्योंकि उसके खिलाफ जीते हुए मतों से ज्यादा नामंज़ूरी के मत हैं।

नोटा वोट की अधिकता होने पर ऐसे उम्मीदवार को विजेता घोषित करना चुनाव आयोग के लिए आसान नहीं होगा। भ्रष्ट, आपराधिक एवं नाकाबिल उम्मीदवारों को धता बताने का यह बहुत ही नायाब तरीका है। पर इस जानकारी का प्रचार नहीं है। पीठासीन अधिकारी के समक्ष रजिस्टर मे अंगूठा लगाने या दस्तखत करने से मतदाता के ‘किसी को भी मत नहीं’ की गोपनीयता समाप्त हो जाती है तथा कई स्थितियों में उसे खतरा भी हो सकता है। इसलिए इसकी व्यवस्था वोटिंग मशीन में ही किए जाने की जरूरत है ताकि खारिज करने के मत से वहां मौजूद लोग वाकिफ नहीं हो सकें।

मतदाताओं के इस अधिकार की बाबत भारत के पूर्व उपराष्ट्रपति स्वर्गीय श्री कृष्णकांत ने आवाज उठाई थी। उन्होंने मांग की थी कि विजेता उसी उम्मीदवार को घोषित किया जाए जिसे पचास पफीसदी से अधिक वोट मिलें। साथ ही मतदाता को उम्मीदवार पसंद ना होने पर उसे नामंजूर करने का अधिकार हो। सबसे कम खराब प्रत्याशी को चुनने की मजबूरी ना हो। प्रथम सुझाव मान लेने पर जातिगत और धर्मगत आधार पर चुनाव लड़ना और जीतना मुश्किल हो जाता। द्वितीय सुझाव राजनीतिक पार्टियों पर जिम्मेदार एवं साफ-सुथरी छवि वाले उम्मीदवार खड़े करने की बाध्यता उत्पन्न करता है। इन सुझावों की सराहना तो बहुत हुई लेकिन किसी भी पार्टी ने इन्हें स्वीकारा नहीं।

1999 में 15वें लॉ कमीशन के चेयरमैन जस्टिस बी पी जीवन रेड्डी ने अपनी 170वीं रिपोर्ट में मतदाता को यह अधिकार ईवीएम मशीन में अलग से ‘किसी को भी नहीं’ बटन की व्यवस्था करने की बात की थी। कमीशन ने 50 प्रतिशत वोट के आधार पर विजेता घोषित करने की बात का भी समर्थन किया । 2001 में चुनाव आयोग के मुख्य निर्वाचन आयुक्त जे एम लिंगदोह ने पत्र लिख कर प्रधानमंत्री से ईवीएम में नोटा बटन लगवाने की बात रखी । 2003 में चुनाव सुधार पर हुई सर्वदलीय बैठक में भी इस बात पर चर्चा हुई, परंतु सहमति नहीं बन सकी। जुलाई 2004 में चुनाव आयोग के मुख्य निर्वाचन आयुक्त श्री टी.एस. कृष्णमूर्ति ने पुन: प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अधिशासकीय पत्र लिखकर अगले चुनाव से पूर्व ईवीएम में नोटा बटन लगाने की सिफारिश की ।

इस मामले में अब तक न तो सरकार ने कोई कदम उठाया है । हैरत की बात है की बांग्लादेश जैसे छोटे और पिछड़े देश ने भी यह सम्यक व्यवस्था 29 दिसंबर 2008 को हुए आम चुनाव में कर ली थी । हमारे यहां कानून मे व्यवस्था रहने के बावजूद ईवीएम में यह बटन नहीं लगाया जा रहा है। भारत ने अपनी निर्वाचन प्रणाली मूलत: कनाडा से ली है। जब हमने 1992 में इलेक्ट्रोनिक वोटिंग पध्दति लागू की तो उस समय नोटा के प्रावधान को भुला दिया। नोटा का प्रावधान फ़्रांस, कोलंबिया, स्पेन, नेवाडा (अमेरिका), स्विट्जरलैंड, थाइलैंड, यूक्रेन के लोगों के पास भी है।

इस व्यवस्था से सत्ता की दौड़ में शामिल राजनीतिक दलों के लिए मुश्किल खड़ी होगी और इसलिए वे इसे लागू करवाने से बिदक रहे हैं। लेकिन चुनाव आयोग इस बारे में क्यों गंभीर प्रयास नहीं कर रहा है, यह बड़ा सवाल है । लोगों को चुनाव देने के लिए प्रेरित करते समय चुनाव आयोग उन्हें क्यों नहीं यह भी बताता कि वे यदि चाहें तो सभी उम्मीदवारों को नकार भी सकते हैं?

राजनीतिक दलों और चुनाव आयोग की जो भी मजबूरी हो लेकिन सामाजिक संगठनों के सामने ऐसी कोई मजबूरी नहीं है। उन्हें नोटा के अधिकार के लिए भरपूर दबाव बनाना चाहिए और इसके लिए मीडिया सहित देशहित में सोचने वाले सभी लोगों की मदद लेनी चाहिए। नोटा का अधिकार भारतीय लोकतंत्र को और अधिक सक्षम बनाने की दिशा में एक बहुत बड़ा कदम साबित होगा। गरीबपरस्त और भारतपरस्त राजनीति सुनिश्चित करने में इसकी बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका होगी।
राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन से साभार

गुरुवार, 26 मार्च 2009

मौका है बदल डालो , अब नहीं तो कब ...????

पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने देश के मतदाताओं से सही उम्मीदवार को वोट देने का आग्रह किया है । मतदान को सबसे बड़ा अवसर बताते हुए डॉ.कलाम ने कहा है कि हमारे द्वारा चुने गये प्रतिनिधि अगले पाँच साल के लिये देश के भाग्य का फ़ैसला लेने के हकदार होते हैं । उन्होंने मताधिकार को पवित्र और मातृभूमि के प्रति ज़िम्मेदारी बताया है ।

हममें से ज़्यादातर ने नागरिक शास्त्र की किताबों में मताधिकार के बारे में पढ़ा है । मतदान के प्रति पढ़े-लिखे तबके की उदासीनता के कारण राजनीति की तस्वीर बद से बदतर होती जा रही है । हर बार दागी उम्मीदवारों की तादाद पहले से ज़्यादा हो जाती है । भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे नेता पार्टी की अदला- बदली करते रहते हैं । राजनीतिक दलों में वंशवाद की बेल पुष्पित-पल्लवित हो रही है | आम नागरिक मुँह बाये सारा तमाशा देखता रहता है । प्रजातंत्र में मतदाता केवल एक दिन का "राजा" बनकर रह गया है । बाकी पाँच साल शोषण,दमन और अत्याचार सहना उसकी नियति बन चुकी है ।

यह राजनीति का कौन सा रुप है , जो चुनाव के बाद सिद्धांत , विचार , आचरण और आदर्शों को ताक पर रखकर केवल सत्ता पाने की लिप्सा में गठबंधन के नाम पर खुलेआम सौदेबाज़ी को जायज़ ठहराता है ? चुनाव मैदान में एक दूसरे के खिलाफ़ खड़े होने वाले दल सरकार बनाने के लिये एकजुट हो जाते हैं । क्या यह मतदाता के फ़ैसले का अपमान नहीं है ? चुनाव बाद होने वाले गठबंधन लोकतंत्र की धज्जियाँ उड़ाते दिखाई देते हैं । सरसरी तौर पर प्रत्याशी तो कमोबेश सभी एक से हैं और आपको बस मशीन का बटन दबाना है । मतदाता मजबूर है राजनीतिक पार्टियों का थोपा उम्मीदवार चुनने को । जो लोग जीतने के बाद हमारे भाग्य विधाता बनते हैं , उनकी उम्मीदवारी तय करने में मतदाता की कोई भूमिका नहीं होती ।

राजनीतिक दलों को आम लोगों की पसंद - नापसंद से कोई सरोकार नहीं रहा । उन्हें तो चाहिए जिताऊ प्रत्याशी । वोट बटोरने के लिये योग्यता नहीं जातिगत और क्षेत्रीय समीकरणों को तरजीह दी जाती है । अब तो वोट हासिल करने के लिये बाहुबलियों और माफ़ियाओं को भी टिकट देने से गुरेज़ नहीं रहा । सरकार बनाने के लिये ज़्यादा से ज़्यादा सीटें जीतने की नहीं कबाड़ने की जुगाड़ लगाई जाती है । नतीजतन लाखों लगाकर करोड़ों कमाने वालों की तादाद में लगातार इज़ाफ़ा हो रहा है । सत्ता किसी भी दल के हाथ में रहे , हर दल का नेता मौज लूटता है । अराजकता का साम्राज्य फ़ैलने के लिये हमारी खामोशी भी कम ज़िम्मेदार नहीं ।

लाख टके का सवाल है कि इस समस्या से आखिर निजात कैसे मिले ? लेकिन आज के इन हालात के लिये कहीं ना कहीं हम भी ज़िम्मेदार हैं । हम गलत बातों की निंदा करते हैं लेकिन मुखर नहीं होते , आगे नहीं आते । चुनाव हो जाने के बाद से लेकर अगला चुनाव आने तक राजनीति में आ रही गिरावट पर आपसी बातचीत में चिन्ता जताते हैं , क्षुब्ध हो जाते हैं । मगर जब बदलाव के लिये आगे आने की बात होती है , तो सब पीछे हट जाते हैं । हमें याद रखना होगा कि लोकतंत्र में संख्या बल के मायने बहुत व्यापक और सशक्त हैं । इसे समझते हुए एकजुट होकर सही वक्त पर पुरज़ोर आवाज़ उठाने की ज़रुरत है । अपने राष्ट्रीय और सामाजिक दायित्व को समझना ही होगा ।

सब जानते हैं और मानते भी हैं कि लोकतंत्र की कमजोरियाँ ही बेड़ियाँ बन गई हैं । यही समय है चेतने ,चेताने और चुनौतियों का डट कर मुकाबला करने का ...। प्रजातंत्र को सार्थक और समर्थ साबित करने के लिये हमें ही आगे आना होगा । इस राजनीतिक प्रपंच पर अपनी ऊब जताने का यही सही वक्त है । वोट की ताकत के बूते हम क्यों नहीं पार्टियों को योग्य प्रत्याशी खड़ा करने पर मजबूर कर देते ?

भोपाल के युवाओं ने बदलाव लाने की सीढ़ी पर पहला कदम रख दिया है । शहीद भगत सिंह की पुण्यतिथि पर आम चुनाव में मतदान और मुद्दों पर जनजागरण के लिए "यूथ फ़ॉर चेंज" अभियान की शुरुआत की गई । अभियान का सूत्र वाक्य है - ’वोट तो करो बदलेगा हिन्दुस्तान।’ इसमें वोट डालने से परहेज़ करने वाले युवाओं को स्वयंसेवी और सामाजिक संगठनों की मदद से मतदान की अहमियत समझाई जाएगी ।

व्यक्तिगत रुप से मैं दौड़ , हस्ताक्षर अभियान , मोमबत्ती जलाने जैसे अभियान की पक्षधर नहीं । मेरा मानना है कि हमें अपने आसपास के लोगों से निजी तौर पर इस मुद्दे पर बात करना चाहिये । इस मुहिम को आगे ले जाने के लिये लोगों को प्रोत्साहित करना चाहिए । उन्हें मतदान केन्द्र पर जत्थे बनाकर पहुँचने के लिये उत्साहित करना होगा ।

यहाँ यह बताना बेहद ज़रुरी है कि इस बार चुनाव आयोग ने मतदान केन्द्र पर रजिस्टर रखने की व्यवस्था की है , जिसमें वोट नहीं डालने वाले अपना नाम-पता दर्ज़ करा सकते हैं । याद रखिये बदलाव एक दिन में नहीं आता उसके लिये लगातार अनथक प्रयास ज़रुरी है । व्यक्तिगत स्तर पर हो रहे इन प्रयासों को अब व्यापक आंदोलन की शक्ल देने का वक्त आ गया है । मौका है बदल डालो । हमारे जागने से ही जागेगा हिन्दुस्तान , तभी कहलायेगा लोकतंत्र महान ....।

शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

सियासी मैदान में ज़मीन तलाशती औरतें


आधी आबादी की भागीदारी में इज़ाफ़े के दावों - वादों के बीच सच्चाई मुंह बाये खडी है । हाशिए पर ढकेल दिया गया महिला वर्ग अपनी आवाज़ बुलंद करने के लिए आज भी राजनीतिक ज़मीन तलाश रहा है ।

भारतीय राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढाने को लेकर लंबे चौडे भाषण दिये जाते हैं । सियासत में महिलाओं की नुमाइंदगी बढाने को लेकर गंभीर विचार विमर्श के दौर भी खूब चलते हैं । इस मसले पर मंचों से चिंता ज़ाहिर कर वाहवाही बटोरने वाले नेताओं की भी कोई कमी नहीं । लेकिन चुनावी मौसम में टिकिट बांटने के विभिन्न दलों के आंकडों पर नज़र डालें , तो महिलाओं को राजनीति में तवज्जोह मिलना दूर की कौडी लगता है । किसी भी राजनीतिक दल ने टिकट बाँटने में महिलाओं को प्राथमिकता सूची में नहीं रखा है ।

दो प्रमुख राजनीतिक दल कांग्रेस और भाजपा हमेशा से महिलाओं को ३३ प्रतिशत आरक्षण का समर्थन करते आए हैं लेकिन उम्मीदवारों की सूची में उनकी यह इच्छा ज़ाहिर नहीं होती ।
राजनीति में महिलाओं को ३३ प्रतिशत आरक्षण देने की ज़ोरदार वकालत करने वाले राजनीतिक दल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के मध्यप्रदेश में २७ नवंबर को होने वाले चुनाव के टिकट वितरण में इसे भूल गए ।

मध्यप्रदेश में हुए टिकिट वितरण पर निगाह डालें , तो यही तस्वीर सामने आती है कि बीजेपी, कांग्रेस ,बसपा से लेकर प्रांतीय दलों की कसौटी पर भी महिलाएं खरी नहीं उतर सकी हैं ।किसी भी दल ने १३ फ़ीसदी से ज़्यादा महिला उम्मीदवारों में भरोसा नहीं जताया है । यह हालत तब है जब तीन प्रमुख दलों की अगुवाई महिलाएं कर रही हैं ।

भारतीय जनता पार्टी ने महिला प्रत्याशियों को मौका देने में कंजूसी बरती है । पार्टी ने १० फ़ीसदी यानी २३ प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारा है , जबकि प्रदेश संगठन का दावा था कि ३३ प्रतिशत टिकिट नहीं दे पाने की हालत में कम से कम हर ज़िले में एक सीट महिलाओं को दी जाएगी । लेकिन आंकडे बीजेपी के दावे को खोखला करार देते हैं ।

कांग्रेस ने इस मामले में कुछ दरियादिली दिखाई है ,मगर यहां भी गिनती २९ पर आकर खत्म हो जाती है । कुछ कद्दावर नेताओं के विरोध के बावजूद पार्टी ने १२.६० प्रतिशत महिला नेताओं पर जीत का दांव खेला है ।

मायावती की अगुवाई वाली बहुजन समाज पार्टी की महिलाओं के प्रति बेरुखी साफ़ दिखती है । २३० सीटों में से महज़ १३ यानी ५,२२ फ़ीसदी को ही बसपा ने अपना नुमाइंदा बनाया है । हालांकि सोशल इंजीनियरिंग के नए फ़ार्मूले के साथ राजनीति का रुख बदलने में जुटी मायावती से महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढाने को लेकर काफ़ी उम्मीदें थीं ।

उमा भारती की भारतीय जनशक्ति में भी पुरुषों का ही बोलबाला है । तंगदिली का आलम ये है कि २१६ सीटों में से १८ पर ही महिला उम्मीदवारों को मौ्का दिया गया है । समाजवादी पार्टी का हाल तो और भी बुरा है । सपा ने २२५ प्रत्याशी खडॆ किए हैं , जिनमें सिर्फ़ १६ महिलाएं हैं । इस तरह कुल तीन हज़ार एक सौ उन्यासी उम्मीदवारों में से केवल दो सौ बीस महिलाएं हैं ।

हालांकि पिछले चुनाव में १९ महिलाओं को विधानसभा में दाखिल होने का अवसर मिला था । इनमें से १५ बीजेपी की नुमाइंदगी कर रही थीं । ताज्जुब की बात यह थी कि ८ को मुख्यमंत्री और मंत्री पद से नवाज़ा गया । ये अलग बात है कि चार महिलाओं को अलग - अलग कारणों से मुख्यमंत्री और मंत्री पद गंवाना पडा । ये हैं - उमा भारती , अर्चना चिटनीस , अलका जैन और विधायक से सांसद बनीं यशोधरा राजे ।

दरअसल राजनीतिक दलों को लगता है कि महिला उम्मीदवारों के जीतने की संभावना कम होती है , लेकिन एक सर्वेक्षण के बाद सेंटर फॉर सोशल रिसर्च ने कहा है कि यह धारणा सही नहीं है. । सेंटर का कहना है कि १९७२ के बाद के आंकड़े बताते हैं कि महिला उम्मीदवारों के जीतने का औसत पुरुषों की तुलना में बहुत अच्छा रहा है ।

इस मुद्दे पर राजनीतिक दल सिर्फ़ ज़बानी जमा खर्च करते हैं । हकीकतन महिलाओं के साथ सत्ता में भागीदारी की उनकी कोई इच्छा नहीं है । महिलाओं की भागीदारी भले ही सीमित संख्या में बढ़ रही है लेकिन जो महिलाएँ राजनीति में आ रही हैं , उन्होंने महिला राजनीतिज्ञों के प्रति लोगों की राय बदलने का महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । गौर तलब है कि अब जो महिलाएँ चुनाव लड़ रही हैं उनमें से कम ही किसी राजनीतिज्ञ की पत्नी, बेटी या बहू हैं ।

भारत में आम तौर पर राजनीति शुरू से पुरुषों का क्षेत्र माना गया है और आज भी पुरुषों का वर्चस्व कायम है शायद कहीं न कहीं पुरुष राजनेता नहीं चाहते कि वो अपनी जगह छोड़ दें , लेकिन धीरे - धीरे ही सही वक्त करवट ले रहा है ।

व्यक्तिगत तौर पर मेरा मानना है कि महिलाओं को आगे बढने के लिए किसी सहारे की ज़रुरत नहीं । महिलाओं में आगे बढने का जज़्बा भी है और हौसला भी । योग्यता बढाने के लिए अनुकूल माहौल की दरकार है । पर्याप्त मौके मिलते ही इन परवाज़ों को पंख मिल जाएंगे ऊंचे आसमान में लंबी उडान भरने के लिए ....। औरत किसी के रहमोकरम की मोहताज कतई नहीं ...। जिस भी दिन औरत ने अपने हिस्से का ज़मीन और आसमान हासिल करने का ठान लिया उस दिन राजनीति का नज़ारा कुछ और ही होगा ।

कद्र अब तक तेरी तारीख ने जानी ही नहीं
तुझमें शोले भी हैं ,बस अश्कफ़िशानी ही नहीं
तू ह्कीकत भी है , दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं
अपनी तारीख का उनवान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे ।