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गुरुवार, 4 जून 2009

भ्रष्टाचार की गंगा में डुबकी लगाते नौकरशाह

नौतपा कभी तीखे तो कभी नरम तेवर दिखाकर बिदा हो गया । उमस भरे माहौल में अब सभी लोग आसमान की ओर टकटकी लगाकर निहारने लगे हैं कि झूमकर कब बरसेंगे काले बादल ! मानसून के मौसम के आने की आहट ने सरकारी महकमों में भी हलचल मचा दी है । विधानसभा चुनावों की भारी सफ़लता पर इतराती भाजपा को आम चुनावों में मतदाताओं ने ठेंगा दिखा दिया । अचानक मिले इस आघात को सत्तारुढ़ दल अब तक पचा नहीं पा रहा है । लेकिन हकीकत तो हकीकत ही रहेगी । सो आधे-अधूरे मन से सच्चाई को कभी स्वीकारते तो कभी नकारते हुए पार्टी आगे बढ़ चली है ।

कहावत है " कुम्हार कुम्हारिन से ना जीते,तो दौड़ गधैया के कान उमेठे ।" सो प्रदेश में भाजपा भी अपनी अँदरुनी कमियों की ओर से आँखें मूँदकर नौकरशाही और सरकारी अमले पर हार का ठीकरा फ़ोड़ने पर आमादा है । सरकारी अधिकारियों को हार के लिये ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है कि अमले ने सरकार की योजनाएँ ठीक तरह से जनता तक नहीं पहुँचाईं । ज़ाहिर है अपराध किया है तो दंड भी मिलेगा । सरकार की नाराज़गी मलाईदार पदों से हटाने की कवायद के तौर पर सामने आना लगभग तय है । एक स्थानीय चैनल मंदी के दौर में भी ’तबादला उद्योग’में एकाएक आई तेज़ी का ब्यौरा दे रहा था कि जैसा पद वैसी भेंट-पूजा । लिपिक वर्ग के लिये पच्चीस हज़ार से शुरु होने वाला आँकड़ा नौकरशाहों तक पहुँचते-पहुँचते लाखों में तब्दील हो जाता है ।

बहरहाल राजधानी में हींग लगे ना फ़िटकरी वाले इस मुनाफ़े के व्यवसाय के कर्ता-धर्ता सक्रिय हो चुके हैं । दलालों ने भी अपनी जुगाड़ लगाना शुरु कर दी है । कई छुटभैये नेता और पत्रकार तो तबादलों के मौसम में इतनी चाँदी काट लेते हैं कि उन्हें अगले कुछ साल हाथ-पैर हिलाने की कोई ज़रुरत ही नहीं । मगर हमेशा की तरह मेरी मोटी बुद्धि में यह बात नहीं घुस पाती कि तबादलों के ज़रिये प्रशासनिक सर्जरी के नाम पर हर साल तबादलों पर सरकारी खज़ाने से करोड़ों रुपए फ़ूँक दिये जाते हैं । महीने-दो महीने सारी मशीनरी ठप्प पड़ जाती है । कुछ दिन बाद पैसा ,पॉवर और संपर्कों के दम पर जहाँ था-जैसा था की स्थिति बन ही जाती है ।

ये बात गौर करने वाली है कि नौकरशाही का काम सरकार की योजनाओं का प्रचार-प्रसार करना नही,बल्कि उन्हें सही तरीके से अंजाम देना है । अगर वह अपने काम को बखूबी अंजाम देने में नाकाम रहती है तो राजनेता भी अपनी ज़िम्मेदारी से बरी नहीं हो सकते,क्योंकि घुड़सवारी का नियम कहता है कि घोड़े की क्षमता घुड़सवार की काबीलियत पर निर्भर करती है । बार- बार तबादले करने की रणनीति नेताओं की तिजोरी तो भर सकती है लेकिन सरकारी अमले के मनोबल और खज़ाने पर इसका विपरीत असर ही पड़ता है । तबादले दंडित करने के हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने की चाहत अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने के सिवाय कुछ भी नहीं ।

वैसे नौकरशाह भी कुछ कम नहीं । आमतौर पर नेताओं के भ्रष्टाचार को लेकर तो लोग खूब बातें करते हैं और गाहे बगाहे उनका गुस्सा फ़ूटते भी देखा गया है । लेकिन दीमक की तरह सरकारी खज़ाने को बरसों-बरस चट करने वाले नौकरशाहों का क्या कीजियेगा ? प्रक्रियात्मक पेचीदगियों के बूते कानून और अधिकारों को अपने कब्ज़े में रखने वाली नौकरशाही पर लगाम लगाना किसी भी सरकार के लिये आसान काम नहीं है । देश के विकास और जनकल्याण की राह में लालफ़ीताशाही सबसे बड़ा रोड़ा है ।

देश में नौकरशाहों के "नौ दिन चले अढ़ाई कोस" वाले रवैये से तो सब वाकिफ़ हैं ,लेकिन कामकाज और क्षमता के मामले में भी वे फ़िसड्डी साबित हुए हैं । दूर देश में हुए सर्वे की रिपोर्ट भी इसकी तस्दीक करती है । एशिया के 12 देशों में काम कर रहे 1275 विशेषज्ञों रायशुमारी के आधार पर तैयार सर्वे कहता है कि भारत में आम आदमी को प्रशासनिक प्रणाली के सुस्त रवैये से हर दिन रुबरु होना पड़ता है । केन्द्र और राज्य स्तर के सभी अधिकार इन्हीं के पास रहते हैं । हांगकांग की पॉलिटिकल और इकॉनॉमिक रिस्क कंसलटेंसी की ओर से कराये गये सर्वे में सिंगापुर कामकाज के मामले में लगातार तीसरी बार अव्वल रहा,वहीं भारत बारह देशों के इस सर्वे में सबसे आखिरी पायदान पर है ।

वैसे एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि हमारे यहाँ के नौकरशाह काम करने के मामले चाहे जितने फ़िसड्डी हों लेकिन भ्रष्ट आचरण के मामले में नेताओं के साथ "ताल से ताल " मिलाते नज़र आते हैं । हाल के सालों में भ्रष्टाचार के शिखर पर काबिज़ राजनेताओं का अनुसरण करने में नौकरशाह ’बेजोड़’साबित हुए हैं । बर्लिन की संस्था ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने ग्लोबल करप्शन बैरोमीटर 2009 जारी किया है ,जिसके आँकड़े बताते हैं कि भारत में राजनीतिक दल सबसे भ्रष्ट संस्था है । सर्वे में 58 फ़ीसदी लोगों ने माना कि राजनीतिज्ञ सबसे ज़्यादा भ्रष्ट हैं । 13 लोगों ने नौकरशाहों को घूसखोरी के मामले में दूसरे नम्बर पर रखा है । ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल संगठन ने ही साल 2005 में एक अध्ययन कराया था जिसमें कहा गया था कि भारत में लोग बुनियादी सेवाएँ हासिल करने के लिए चार अरब अमरीकी डॉलर के बराबर रक़म हर साल रिश्वत के रूप में देते हैं । विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में सालाना 210 अरब रुपए रिश्वत में दिए जाते हैं ।

एशिया के भ्रष्ट देशों की सूची में भारत नौवें स्थान पर है तो विश्व के 158 देशों की सूची में भारत 88वें स्थान पर है। भारत में भ्रष्टाचार की चर्चा जितनी चाहे हो चुकी हो फिर भी ये आंकड़े चौंका देते हैं । सुन कर लगता है मानो पूरे देश ने भ्रष्टाचार के सामने घुटने ही टेक दिए हों। हम इसके प्रति इतने उदासीन हो गए हैं कि भ्रष्टाचार शिष्टाचार बन गया है । मगर भ्रष्टाचार क्या देश की सांस्कृतिक सच्चाई बन गया है या इसके दूसरे कारण भी हैं ।

कई लोग कहते हैं कि देश में लोकतंत्र की परिपक्वता की कमी की वजह से भ्रष्टाचार फैल रहा है । दूसरी तरफ़ यह कड़वी सच्चाई है कि लोकतंत्र की जड़ें और कमज़ोर करने में भी भ्रष्टाचार की बड़ी भूमिका होती है । विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार 40 प्रतिशत न्यायिक मामल रिश्वत के बल पर प्रभावित किए जाते हैं और भ्रष्ट सरकारी अमलों में पुलिस सबसे ऊपर है । यह समझने के लिए किसी अर्थशास्त्री की ज़रूरत नहीं है कि ग़रीबों का सबसे बड़ा दुश्मन भ्रष्टाचार ही है जो उसे रोटी,अवसर और अधिकारों से दूर करता है । नेताओं को तो चुनाव में जनता सबक सिखा ही देती है ,लेकिन नियुक्ति के बाद चालीस-पैंतालीस साल बेखौफ़ और बेफ़िक्र होकर सरकार को चूना लगानी वाली बेलगाम नौकरशाही की नाक में नकेल कौन कसेगा और कैसे ....??????

मंगलवार, 9 दिसंबर 2008

नेताओं के आगे प्रजातंत्र की शिकस्त

सत्ता के सेमीफ़ायनल का नतीजा आ चुका है । कहा जा सकता है कि मुकाबला बराबरी का रहा । कांग्रेस के पास खोने को सिर्फ़ दिल्ली था , लेकिन दिल्ली के साथ राजस्थान मे मिली जीत ने पार्टी को उम्मीद से दुगना पाने के एहसास भर दिया है । बीजेपी तीन राज्यों की सत्ता फ़िसलने की आशंका से घिरी थी , मगर हार मिली सिर्फ़ राजस्थान में । यानि दोनों ही खेमों के पास खुशियां और गम मनाने के कारण मौजूद हैं ।

हिन्दी बेल्ट के मध्यप्रदेश ,छत्तीसगढ , राजस्थान और दिल्ली के नतीजों से जो बात उभर कर आई है , वह ये कि देश की राजनीति में व्यक्तिवाद की पुनर्स्थापना । इन चारों राज्यों में चुनाव कुछ व्यक्तियों के इर्द - गिर्द ही केन्द्रित रहे । इन सभी प्रदेशों में पार्टियां और उनके सिद्धांत भी हाशिए पर चले गए ।

फ़ौरी तौर पर व्यक्तिवाद भले ही राजनीतिक दलों के लिए फ़ायदेमंद साबित हो , लेकिन आगे चलकर यह पार्टियों के आंतरिक लोकतंत्र और देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए कतई फ़ायदेमंद नहीं कहा जा सकता । भले ही चुनाव हो गये , लेकिन मुद्दे अनुत्तरित हैं । वैसे जनतंत्र में लीडर से बडी पार्टी होती है लेकिन इन सबसे ऊपर है देश ...।

चुनाव नतीजों को लेकर बैचेनी काफ़ी बढ गई है । कई लोगों से बातचीत के बाद सामने आए तथ्य हैरान कर देने वाले हैं । कुछ साल पहले तक भ्रष्टाचार सामाजिक रुप से अनैतिक माना जाता था । धीरे - धीरे इसे मान्यता मिलने लगी और अब तो आलम ये है कि भ्रष्टाचारी ही समाज में प्रतिष्ठित और सम्मानित है ।

मतदाताओं के लिए भ्रष्टाचार अब कोई मुद्दा ही नहीं है । हर शख्स चाहता है कि उसका हरेक काम , गलत हो या सही , हर हाल में होना ही चाहिए , चाहे फ़िर इसकी कोई भी कीमत चुकाना पडे । मुम्बई हमले पर हाहाकार मचाने वाला यह देश सीमा पर तैनात सुरक्षा बलों से ईमानदारी चाहता है , लेकिन खुद कदम - कदम पर घूस लेना चाहता है । गलत को सही का जामा पहनाने के लिए पैसे का ज़ोर आज़माने से भी कोई परहेज़ नहीं ।

पैसों का लेन देन अब दस्तूर बन चुका है । इस लिए मंहगाई भी कोई मुद्दा नहीं रही । इस चुनाव में देश में अमन चैन यानि आतंकवाद से निजात के मसले पर निजी हित भारी पडते दिखाई दिए । लोगों की सोच इतनी संकुचित हो गई है कि देशहित कहीं पीछे ,काफ़ी पीछे छूट गया है । कुछ युवाओं से बातचीत में पता चला कि उन्होंने सत्तारुढ दल को लाने के लिए थोकबंद वोट दिए , ताकि कालेज में संचालित पाठ्यक्रम पर लटक रही स्टे की तलवार से छुटकारा मिल सके । कुछ ने नियमित होने की लालसा और कुछ ने गली की सडक के सुधरने की आस में मौजूदा सरकार को ही दोबारा सत्ता सौंपने का फ़ैसला लिया ।

नेताओं ने इसे जनतंत्र की जीत बताया है । लेकिन क्या वाकई गणतंत्र जीत गया । नेताओं के छलावे में आकर बडे मुद्दों को दरकिनार करके देश कितने सालों तक प्रजातंत्र का जश्न मना सकेगा ...? कल चाहे जो भी पार्टियां जीती हों लेकिन देश एक बार फ़िर हार गया । जनतंत्र की इतनी करारी हार पर मन बहुत व्यथित है । चुनाव परिणाम डॉक्टर की उस जांच रिपोर्ट की मानिंद लगते हैं , जिसमें मरीज़ को लाइलाज बीमारी से ग्रस्त पाया गया हो । ६३ बरस के भारत की जर्जर - बीमार देह को भलिभांति सेवा टहल की सख्त ज़रुरत है । लेकिन बूढों के लिए आश्रम बनाने वाले इस खुदगर्ज़ समाज से क्या ये उम्मीद वाजिब है ............?
मियाँ मैं हूँ शेर , शेरों की गुर्राहट नहीं जाती
मैं लहज़ा नर्म भी कर लूं, तो झुंझलाहट नहीं जाती
किसी दिन बेखयाली में कहीं सच बोल बैठा था
मैं कोशिश कर चुका हूँ , मुँह की कडवाहट नहीं जाती

रविवार, 9 नवंबर 2008

करोडपति बीडी मजदूर का राजनीतिक सफ़र

जनता की सेवकायी के लिए प्रदेश के धन कुबेर चुनावी मैदान में उतरे हैं । नामांकन दाखिल करते वक्त संपत्ति का ब्यौरा देने की मजबूरी ने जनसेवकों की माली हालत की जो तस्वीर पेश की है वह आंखें चुंधियाने के लिए काफ़ी है । ज़्यादातर नेता करोडपति हैं । कुछ तो ऎसे हैं , जो महज़ ५ - ७ साल पहले रोडपति थे अब करोडपति हैं । बचपन से सुनते आए हैं "सेवा करो , तो मेवा मिलेगा ।” शायद जनता की सेवकाई के वरदान स्वरुप ही नेताओं की माली हालत में रातों रात चमत्कारिक बदलाव आ जाता है ।

संपत्ति के खुलासे ने लोगों को चौंकाया है । कई नौजवान मुनाफ़े के इस व्यवसाय की ओर खिंचे चले आ रहे हैं । जनसेवा से मुनाफ़े की एक बानगी -
मुरियाखेडी में तेंदूपत्ता इकट्ठा करने वाला एक मजदूर महज़ दो साल में इतना पैसा कमा लेता है कि वह भोपाल में करोडों की जायदाद का मालिक बन जाता है । राजधानी की नरेला विधानसभा सीट से बीजेपी के उम्मीदवार की चुनाव आयोग को दी गई संपत्ति की जानकारी और उनके राजनीतिक सफ़र को मिलाकर देखने पर कुछ ऎसी ही सच्चाई नज़र आती है ।

अखबारों में छपे हर्फ़ों पर यकीन करें तो नामांकन पत्र के साथ अपनी सम्पत्ति की जानकारी देते हुए ’ गरीब बीडी मजदूर’ विश्वास सारंग ने जो शपथ-पत्र प्रस्तुत किया उसके अनुसार वे करोड़ों के कारोबार के स्वामी हैं । भोपाल, सीहोर व रायसेन में लाखों की जमीन है । भोपाल की निशात कालोनी में लगभग दो करोड़ साठ लाख की कीमत के आवासीय व व्यावसायिक भवन , अरण्यावली गृह निर्माण सहकारी समिति में ३२ लाख रुपए की जमीन, तीन गाँवों में सवा छह लाख की कृषि भूमि, मण्डीदीप स्थित विशाल पैकवेल इण्डस्ट्रीज में भागीदारी, कामदार काम्पलेक्स, दिल्ली के गोयला खुर्द में जमीन एग्रीमण्ट भी श्री सारंग के ही नाम पर है। नामांकन पत्र के साथ इन्होंने भोपाल नगरीय क्षेत्र की मतदाता सूची में पंजीबध्द होने के प्रमाण भी पेश किए हैं ।

अब मामले का दूसरा पहलू - विश्‍‍वास सारंग इन दिनों मध्य्प्रदेश लघु वनोपज संघ के अध्यक्ष हैं । इस पद तक पहुंचने की पहली शर्त है - किसी प्राथमिक वनोपज सहकारी समिति का नियमित सदस्य होना । इस समिति का सदस्य बनने के लिए दो शर्तें हैं । पहली - वह व्यक्ति उस सहकारी समिति के भौगोलिक क्षेत्राधिकार का स्थायी और नियमित निवासी हो । दूसरी - उस व्यक्ति के जीविकोपार्जन का आधार लघु वनोपज संग्रहण हो ।

श्री सारंग ने अध्यक्ष पद हासिल करने के लिए क्या - क्या पापड नहीं बेले । ‘प्राथमिक वनोपज सहकारी समिति, मुरियाखेड़ी’ के भौगोलिक क्षेत्राधिकार वाले ग्राम और फड़ साँकल के निवासी श्री सारंग ने वन - वन भटक कर तेंदूपत्ता इकट्ठा किया । उन्होंने वर्ष २००७ में तेंदू पत्ता की ६०० और वर्ष २००८ में १२०५ गड्डियाँ संग्रहित कर २४ हज़ार तथा ४८ हज़ार २०० रुपये कमाए ।

लगभग सभी नेताओं की कहानी कमोबेश इसी तरह की है । सामान्य परिवारों के इन होनहार खद्दरधारी नेताओं का राजनीतिक सफ़र ज़्यादा लंबा भी नहीं है और ना ही किसी बडे पद पर कभी आसीन रहे । ऎसे में सवाल उठता है कि आखिर इस छ्प्पर फ़ाड ऎश्वर्य का राज़ क्या है ? राजनीति के सिवाय देश का कोई भी हुनर या पेशा इस रफ़्तार से दौलत कमाने की गारंटी नहीं दे सकता ।

देश के मतदाताओं अपने नेताओं की दिन दोगुनी रात चौगुनी बढती आर्थिक हैसियत का राज़ जानने के लिए ही सही , अब तो नींद से जागो । देखो किसे वोट दे रहे हो ....। तुम्हारा वोट किन - किन नाकाराओं को नोट गिनने और तिजोरियां भरने की चाबी थमा रहा है । मेरी राय में यदि कोई भी प्रत्याशी चुनाव के लायक ना हो ,तो वोट को बेकार कर दो , मगर वोट ज़रुर दो ।

लहू में खौलन , ज़बीं पर पसीना
धडकती हैं नब्ज़ें , सुलगता है सीना
गरज ऎ बगावत कि तैयार हूं मैं ।

[ यह पोस्ट माननीय विष्णु बैरागी जी के ब्लाग ’एकोsहम’ के आलेख से प्रेरित होकर लिखी गयी है । कुछ तथ्य उनकी पोस्ट ’ समाचार ना छपने का समाचार ’ से लिए गये हैं । ]