शनिवार, 9 मई 2009

कलाकार की आह और कराह, संस्कृति बनी चारागाह

शास्त्रीय संगीत के पुरोधा पंडित कुमार गंधर्व के बेटे और मशहूर ध्रुपद गायक मुकुल शिवपुत्र के भोपाल के एक मंदिर में बदहाल स्थिति में मिलने की खबर से कला जगत में मायूसी छा गई। सरकारी अमला एक बार फ़िर समस्या से मुँह चुराता और गंभीर मुख मुद्रा बनाये सच्चाई पर पर्दा डालता दिखाई दिया। अपनी धरोहरों और संस्कृतिकर्मियों का सरकार कितना खयाल रखती है, मुकुल का मामला इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
कला और संस्कृति के संरक्षण का दम भरने वाली मध्य प्रदेश सरकार का ध्यान भी पाई-पाई के लिए मोहताज मुकुल पर तब गया ,जब उनका कोई पता नहीं चल रहा है। हालाँकि मुख्यमंत्री ने फ़क्कड़ तबियत मुकुल शिवपुत्र को ढ़ूँढ़ कर उनके सम्मानपूर्वक पुनर्वास की बात कही है। उन्होंने मुकुल को राज्य की सांस्कृतिक धरोहर बताते हुए कहा कि उनका पता लगाने की हर संभव कोशिश की जाएगी।

कम उम्र में ही शास्त्रीय संगीत में ऊंचा मुकाम हासिल करने वाले मुकुल शिवपुत्र अब भीख माँगकर गुजारा करने पर मजबूर हैं। गौर तलब है कि 53 वर्षीय मुकुल पिछले कुछ दिनों से बदहाल हालत में भोपाल के साँईं बाबा मंदिर परिसर में रह रहे थे। यहाँ तीन दिन पहले ही उनकी पहचान उजागर हुई और इसके एक दिन बाद वह गायब हो गए। कला बिरादरी ने इस पर चिंता जताई है। लेकिन इस घटना ने एक साथ कई सवालों को हमारे सामने ला खड़ा किया है। मध्यप्रदेश में कला-संस्कृति के नाम पर पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है। उसके बावजूद प्रदेश में कलाकारों की स्थिति दयनीय बनी हुई है।

चापलूस और चाटुकार अफ़सरों से घिरे नेता आखिरकार प्रदर्शनियों,मेलों,सेमिनारों और गोष्ठियों के उदघाटन में उलझकर रह गये हैं। कुछ अधिकारी नेताओं को साधने की काबिलियत के दम पर एक साथ कई महकमों को सम्हाले हुए हैं। फ़िल्म विकास निगम बंद होने के बाद श्रीराम तिवारी ने अचानक ऎसी कौन की योग्यता हासिल कर ली कि वे एक साथ वन्या प्रकाशन,स्वराज संस्थान और संस्कृति संचालक के पद पूरी कुशलता से सम्हाल रहे हैं ? महँगी पुस्तकें छपवाकर स्टोर रुम में दीमकों के हवाले करने,महँगे निमंत्रण पत्र छपवाकर वितरित करने या राजधानी के अखबारों के तीन-चार पत्रकारों को साधकर कला संस्कृति से जुड़ी खबरों का बेहतरीन डिस्प्ले ही कला जगत के विकास और उत्थान का पैमाना हो,तो बात दूसरी है ।

सरकारी उपेक्षा झेलते हुए ध्रुपद गायिका असगरीबाई के लिये जीने से ज़्यादा मरना मुश्किल हो गया था । सरकारी तंत्र अपनी भूल स्वीकारने या सुधारने की बजाय बेहयाई से उससे पल्ला झाड़ने का प्रयास करता रहा है । एक बारगी मान भी लिया जाये कि मुकुल शराब या किसी और तरह के नशे के आदी हैं,तो क्या उनके पुनर्वास का दायित्व सरकार का नहीं ..? इतने बड़े कलाकार को लोगों से दो-दो रुपए माँगना पड़े क्या ये सरकार के दामन पर दाग नहीं ? ये नौबत क्यों आई क्या इसका पता लगाना सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं । कुमार गंधर्व की विरासत को सम्हालने वाले इतने नामचीन कलाकार की देखभाल का ज़िम्मा भी क्या संस्कृति महकमा नहीं उठा सकता? यह वाकया विभाग के अफ़सरों की कार्यप्रणाली और संवेदनशीलता की कलई खोलने के लिये काफ़ी है।

मुख्यमंत्री की छबि गढ़ने का श्रेय लेने वाले एक स्वनामधन्य कवि हृदय आला अफ़सर का तर्क है कि हर कलाकार का अपना अंदाज़ होता है । जिसे हम दुर्दशा मान रहे हों,हो सकता है मुकुल शिवपुत्र को उस तरह का जीवन रास आता हो । उन्हें सरकार की ओर से किये जा रहे प्रयासों में कोई कमी नज़र नहीं आती । बल्कि वे तो इस तरह की खबरें उजागर करने वालों को ही कठघरे में खड़ा कर देते हैं ।

इनकी समझ की दाद देना ही चाहिए। माना कि कलाकार मस्तमौला प्रकृति का होता है। संगीत शिरोमणि पं.कुमार गंधर्व के ज्येष्ठ चिरंजीव मुकुल शिवपुत्र के बारे में ये बात काफ़ी हद तक सच भी है। उन्हें बचपन से ही घर आँगन में सुर की संगत मिली । ख्याल के अलावा भक्ति और लोकगीत पसंद करने वाले मुकुल ने संस्कृत में भी संगीत रचनाएँ तैयार कीं। सूफ़ियाना तबियत के मुकुल ऐसे गायक हैं जिन्हें अपने आपको बताने और अपना गाना सुनाने की कोई उत्तेजना नहीं है । मन लग गया तो गाएंगे-आपके जी में आए जो कर लीजिये। जैसे एक कलाकार होता है फ़क्कड़ तासीर और बिना किसी उतावली वाला । वे पूछते हैं मन की वीणा के सुरों से कि आज परमात्मा का क्या आदेश है मेरे गले के लिये। वे ऐसे कलाकार हैं ,जो बस अपने आप को सुनना चाहते हैं।

मुकुल के बहाने प्रदेश के कला कर्मियों को मौका मिला है कि वे सीधे मुख्यमंत्री तक अपनी बात पहुँचा सकें । प्रदेश में सत्ता और प्रशासन से नज़दीकियाँ बढ़ाकर मलाई खाने वाले संस्कृति कर्मियों से कहीं बड़ी तादाद उन लोगों की है,जो सही मायनों में कला साधक और सृजक हैं। भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे संस्कृति विभाग में इनकी कोई सुनवाई नहीं ।

कोई कथा-कहानी के लिये कलम थामने की बजाय इलाज की खातिर खतो-किताबत में मसरुफ़ है, तो कोई दो वक्त की रोटी की जुगाड़ में रचनाओं की बजाय घर का सामान एक-एक कर बेचने के लिये मजबूर है। कहते हैं साहित्यकार और कलाकार किसी भी राज्य की खुशहाली और समृद्धि का आईना होते हैं। कलाकारों की आह और कराह लेकर क्या कोई भी राज्य तरक्की के सोपान पर कदम आगे बढ़ा सकेगा ?

7 टिप्‍पणियां:

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" ने कहा…

संगीता जी, ये जो देश में इतनी ढेरों साहित्यक संस्थाए बनी हुई हैं क्या सरकार के साथ साथ इनकी आंखें भी फूट चुकी है.....क्या इन्हे नहीं दिखाई देता कि एक कलाकार की क्या दुर्दशा हो रही है? इन सब के साथ साथ उस समाज को भी धिक्कार है जो सब कुछ देखते हुए भी किसी प्रकार की मदद को आगे नहीं आ रहा......बेहद शर्मनाक!!!!!!

अक्षत विचार ने कहा…

yah purani pratha hai chapluson ko samman aur kalakaron ko apman..

P.N. Subramanian ने कहा…

आपकी संवेदनशीलता को नमन. वैसे राजा को कैसे पता चले कि जो भीक मांग रहा है उस की वजूद क्या है. कोई बताये तब न. बताने वाले भी अंधे, भैरे , लूले लंगडे हों तो शर्मनाक स्थिति ही है.

अखिलेश्‍वर पांडेय ने कहा…

आपकी बात सौ प्रतिशत सही है। वैसे अन्‍य राज्‍यों में भी कमोबेश यही स्थिति है। कलाकारों, साहित्‍यकारों आदि का यह हश्र तो हमेशा ही रहा है। कभी-कभी तो लगता है कि सरस्‍वती और लक्ष्‍मी कभी एक साथ नहीं रह सकतीं,यह बात वास्‍तव में सच है।

संगीता पुरी ने कहा…

इनकी स्थिति के बारे में कल ही पढा .. बहुत तकलीफ हुई जानकर .. एक कलाकार के साथ इतना अन्‍याय कहां तक उचित है ?

hem pandey ने कहा…

इसमें कोई संदेह नहीं कि कला, साहित्य और संकृति से जुड़े मध्य प्रदेश के सरकारी संस्थान हमेशा विवादित, गैर जिम्मेदार और पक्षपात पूर्ण रवैये वाले रहे हैं.लेकिन मुकुल शिवपुत्र के बारे में जो तथ्य समाचार माध्यमों से मिले उनसे ऐसा लगता है कि उनकी दुर्गति फक्कड़पन से नहीं शराबखोरी से हुई है. वैसे यह भी सच है कि ऐसा फक्कड़ कलाकार मध्य प्रदेश संस्कृति विभाग को रास नहीं आ सकता, वहां अपनों की ही पूछ होती है.

प्रमोद ताम्बट ने कहा…

सरिता जी
ऐसे बहुत से मुकुल शिवपुत्र भोपाल की सड़कों पर पागलों की तरह मारे मारे फिर रहे हैं और भीख माँग कर गुजारा कर रहे हैं । यह ठीक है कि वे सब एक महान गायक के पुत्र और खयाल गायक नहीं हैं परन्तु उनके प्रति भी सत्ता की आखिर कुछ जिम्मेदारी बनती है। हाल ही में एक खबर छपी थी कि एक प्रतिभाशाली कवि नेहरू नगर के पीठे पर रोज सबेरे अपने श्रम को बेचने के लिए संघर्ष करता है। वह खबर महज खबर ही बन कर रह गई संस्कृति विभाग का कोई अधिकारी उसे ढूँढने नही निकला।

प्रमोद ताम्बट
भोपाल
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