सोमवार, 13 अप्रैल 2009

सियासी डगर पर नौकरशाहों के कदम

नौकरशाही का सफ़र तय करते हुए राजनीति की डगर पर बढ़ने वालों की फ़ेहरिस्त में डॉक्टर भागीरथ प्रसाद का नाम भी जुड़ गया है । इंदौर के देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय के कुलपति रहे डॉ. भागीरथ प्रसाद चंबल घाटी के भिंड संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस के प्रत्याशी हैं । पार्टी से हरी झंडी मिलते ही उन्होंने फौरन अपने पद से इस्तीफा दे दिया था । संभवत: यह पहला मौका होगा जब मध्यप्रदेश में किसी कुलपति ने यूनिवर्सिटी का कैंपस छोड़कर चुनावी मैदान में खम ठोका हो । वे 32 साल की नौकरशाही के बाद आईएएस से इस्तीफा देकर डीएवीवी के कुलपति बने और अब उन्होंने कुलपति पद से इस्तीफा देकर सियासत की डगर पकड़ ली है। मूलत: भिंड जिले से ताल्लुक रखने वाले कांग्रेस उम्मीदवार का मुकाबला मुरैना से चार बार से सांसद अशोक अर्गल से होना है। यह एक नेता और अफसर के प्रबंधकीय कौशल की परख वाला चुनाव होगा।

देखा जाए तो अफसरों की राजनीतिक प्रतिबद्घता कोई नई बात नहीं है। लेकिन अब यह खुले रूप में सामने आने लगी है । बरसों सरकारी नौकरी में रहकर नेताओं को अपनी कलम की ताकत के बूते फ़ाइलों में उलझाने वाले नौकरशाह अब सियासी दाँव-पेंच आज़माने में दिलचस्पी दिखाने लगे हैं । बढ़ती महत्वाकांक्षाओं और राजनीतिक मजबूरियों ने नेताओं और अफ़सरों को नज़दीक ला खड़ा किया है । जातिगत और क्षेत्रीय समीकरण को साधने के लिए राजनीतिक दलों को इन अफ़सरों की ज़रुरत है और सुविधाभोगी नौकरशाहों को सियासी गलियारों में प्रवेश करने की चाहत । एक दूसरे के पूरक बन चुके ये दोनों तबके एक ही धुन पर कदमताल कर रहे हैं ।

वैसे मध्यप्रदेश में अफसरों और राजनेताओं की जुगलबंदी काफी पुरानी है। ज्यादातर अफसर परदे के पीछे रहकर पार्टियों और उनके नेताओं के मददगार बने रहे । लेकिन कुछ अफ़सरों पर बड़े नेताओं से गठजोड़ का ठप्पा भी लगा । प्रदेश में लंबे समय तक काँग्रेस का राज रहने के कारण काँग्रेस समर्थक अफसरों की तादाद ज्यादा होना स्वाभाविक है , लेकिन अब हालात बदल रहे हैं । पिछले कुछ सालों से अफ़सरों को भगवा रंग भी खूब लुभा रहा है । आरक्षित वर्ग के अधिकारियों का रुझान मायावती की बीएसपी की तरफ़ बढ़ रहा है । बहरहाल ज्यादातर अफसर काँग्रेस और भाजपा के टिकट पर ही चुनावी समर में उतरे हैं ।

नौकरशाह से सफ़ल नेता बनने की फ़ेहरिस्त में सबसे ऊपर अजीत जोगी और उनके बाद सुशीलचंन्द्र वर्मा का नाम आता है । इंदौर के कलेक्टर रहे अजीत जोगी के लिये काँग्रेस की राजनीति में एक मुकाम बनाने में अर्जुनसिंह की नज़दीकी खासी मददगार साबित हुई । अजीत जोगी राज्यसभा सदस्य रहे और १९९८ में बेहद कड़े मुकाबले में वे रायगढ़ से लोकसभा चुनाव महज़ चार हजार वोटों के अंतर से जीते । अगले साल ही शहडोल से लोकसभा चुनाव हारने वाले जोगी मध्यप्रदेश के विभाजन के बाद अस्तित्व में आए छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री बने । उन्होंने मरवाही विधानसभा सीट से रिकार्ड मतों से जीत हासिल की। २००४ के लोकसभा चुनाव में जोगी ही छत्तीसगढ़ के एकमात्र नेता थे जिन्होंने लोकसभा चुनाव में विद्याचरण शुक्ल सरीखे दिग्गज नेता को शिकस्त दी थी ।

इसी तरह प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव सुशील चंद्र वर्मा ने भाजपा के टिकट से चुनाव लड़कर भोपाल सीट काँग्रेस के हाथों से छीनी थी । वे लगातार चार मर्तबा सांसद चुने गये । कार्यकर्ताओं से जीवंत संपर्क रखने वाले सादगी पसंद श्री वर्मा ने वर्ष १९८९ से १९९८ तक भोपाल का प्रतिनिधित्व किया। पोस्टकार्ड के जरिए लोगों से जीवंत संपर्क रखने की खूबी उनकी सफलता की खास वजह रही ।

कुशल प्रशासक के तौर पर पहचान बनाने वाले आईएएस अफसर महेश नीलकंठ बुच वर्ष १९८४ में बैतूल संसदीय क्षेत्र से भाग्य आज़मा चुके हैं । हालांकि निर्दलीय चुनाव मैदान में उतरे श्री बुच को हार का सामना करना पड़ा , लेकिन उन्होंने काँग्रेस प्रत्याशी असलम शेर खान को कड़ी टक्कर देते हुए जीत का फ़ासला ४० हजार मतों पर समेट दिया।

भाजपा ने २००३ के विधानसभा चुनावों में दो भारतीय पुलिस सेवा अफसरों को चुनावी दंगल में उतारा । रूस्तम सिंह ने तो बाकायदा नौकरी छोड़कर मुरैना सीट से चुनाव लड़ा और सीधे केबिनेट मंत्री की कुर्सी सम्हाली । गुर्जर समुदाय को अपनी तरफ खींचने के इरादे से बीजेपी ने रूस्तम सिंह पर दाँव खेला था। लेकिन बीजेपी को भी फ़ायदा नहीं हुआ और शिवराज लहर के बावजूद श्री सिंह को करारी हार झेलना पड़ी । पार्टी ने २००३ में ही आईपीएस पन्नालाल को सोनकच्छ से चुनाव लड़ाया लेकिन सख्त पुलिस अफ़सर की छबि वाले पन्नालाल मतदाताओं को रिझाने में नाकाम रहे। काँग्रेस ने पिछले आमचुनाव में न्यायमूर्ति शंभूसिंह को राजगढ़ संसदीय सीट से चुनाव लड़ाया लेकिन वे सफल नहीं हो पाए।

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

जनता करे काम, नेता खाएँ आम.......

भोपाल की बड़ी झील में श्रमदान का नाटक अब शर्मदान अभियान में तब्दील हो चुका है । झील का पानी सूखने के साथ ही नेताओं की आँखों का पानी भी सूखने लगा है । कल तक खुद को जनता का सेवक और पब्लिक को भगवान बताने वाले मुख्यमंत्री के तेवर भी बदलने लगे हैं । नाकारा और निठल्ले विपक्ष ने प्रदेश सरकार को बेलगाम होने की खुली छूट दे दी है ।

काँग्रेस का बदतर प्रदर्शन बताता है कि बीजेपी हर हाल में पच्चीस सीटें हासिल कर ही लेगी । ऎसे एकतरफ़ा मुकाबलों के बाद सत्ता पक्ष का निरंकुश होना कोई आश्‍चर्य की बात नहीं होगी । शिवराज सिंह चौहान के बर्ताव में आ रहे बदलाव में आने वाले वक्त के संकेत साफ़ दिखाई दे रहे हैं । हाल ही में उन्होंने एक तालाब गहरीकरण समारोह में कहा कि सभी काम करना सरकार के बूते की बात नहीं । इसके लिये जनता को आगे आना होगा । समाज को अपना दायित्व समझते हुए कई काम खुद हाथ में लेना होंगे ।

अब बड़ा सवाल यही खड़ा होता है कि जब सभी काम जनता को ही करना हैं ,तो फ़िर इन नेताओं की ज़रुरत क्या है ? अपनी गाढ़ी कमाई से टैक्स भरे जनता । करोड़ों डकारें नेता .....! मेहनत करे आम लोग और हवा में सैर करें नेता ...? जब सब कुछ लोगों को ही करना है,तो इतनी महँगी चुनाव प्रक्रिया की ज़रुरत ही क्या है ? मंत्री बनें नेता,खुद के लिये मोटी तनख्वाह खुद ही तय कर लें फ़िर भी पेट नहीं भरे तो योजनाओं की रकम बिना डकार लिये हज़म कर जाएँ । लाखों रुपए बँगले की साज-सज्जा पर फ़ूँक दें । कभी न्याय यात्रा,कभी संकल्प यात्रा,कभी सत्याग्रह और कभी कोई और पाखंड ....। पिछले साल की जुलाई से प्रदेश सरकार सोई पड़ी है । कर्मचारियों को छठे वेतनमान के नाम पर मूर्ख बना दिया । दो- तीन हज़ार का लाभ भी कर्मचारियों को बमुश्किल ही मिल पाया है ।

अब चुनाव बाद सपनों के सौदागर शिवराज एक बार फिर प्रदेश की यात्रा पर निकलेंगे । दावा किया जा रहा है कि देश का नंबर-एक राज्य बनाने में आम जनता का सहयोग माँगने के लिए वे 'मध्यप्रदेश बनाओ यात्रा’ निकालेंगे । इसके तहत मुख्यमंत्री सप्ताह में तीन दिन सड़क मार्ग से विभिन्न क्षेत्रों में जाकर आम जनता को प्रदेश की तरक्की के सपने से जोड़ेंगे। इसके लिये सर्वसुविधायुक्त रथ बनाया गया है,जिसमें माइक के साथ जनता से जुड़ने का अन्य साजोसामान भी होगा ।

शिवराज की राय में अव्वल दर्जा दिलाने के लिए जनता को राज्य से जोड़ना जरूरी है। जब तक लोगों में प्रदेश के प्रति अपनत्व का भाव नहीं होगा,वे इसकी तरक्की में समुचित योगदान नहीं दे सकते । वे कहते हैं कि मध्यप्रदेश का नवनिर्माण ही अब उनका जुनून है । वे जनता और सरकार के बीच की दूरी खत्म कर यह काम करेंगे ।

मीडिया में अपने लिये जगह बनाने में शिवराज को महारत है । पाँव-पाँव वाले भैया के नाम से मशहूर शिवराज ने मुख्यमंत्री बनने के बाद जनदर्शन शुरू किया था । साप्ताहिक "जनदर्शन"में वे किसी एक जिले में सड़क मार्ग से लगभग डेढ़ सौ किमी की यात्रा कर गांव और कस्बों के लोगों से मिलने जाते थे । इसके बाद आई जनआशीर्वाद यात्रा । विधानसभा चुनाव के ठीक पहले निकाली गई इस यात्रा में शिवराज ने सवा माह तक सड़क मार्ग से यात्रा कर लगभग पूरे प्रदेश को नापा ।

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ,मीडिया मैनेजमैंट की बदौलत अब खुद एक ब्राँड में तब्दील हो चुके हैं । विधानसभा चुनावों के पहले से ही उनकी छबि गढ़ने का काम शुरु हो गया था । स्क्रिप्ट के मुताबिक शिवराज ने एक्ट भी बखूबी किया । अखबारों और क्षेत्रीय चैनलों में खरीदी हुई स्पेस की मदद से देखते ही देखते वे लोकप्रिय जननायक बन बैठे । विधानसभा चुनावों के अप्रत्याशित नतीजों ने साबित कर दिया कि झूठ को सलीके से बेचा जाए,तो काठ की हाँडी भी बार-बार चढ़ाई जा सकती है ।

चुनाव नतीजे आने के बाद नेशनल समाचार चैनलों पर नर्मदा में छलाँग लगाते शिवराज को देखकर लगा कि मीडिया गुरुओं की सलाह और मीडिया की मदद से आज के दौर में क्या नहीं किया जा सकता । एक चैनल ने तो बाकायदा उनके सात फ़ेरों की वीडियो का प्रसारण किया और श्रीमती चौहान की लाइव प्रतिक्रिया भी ले डाली । सूबे के महाराजा-महारानी का परिणय उत्सव देखकर जनता भाव विभोर हो गई ।

दल बदलुओं की बाढ़ ने मौकापरस्तों का रेला बीजेपी की ओर बहा दिया है । अब राज्य में गुटबाज़ी की शिकार काँग्रेस अंतिम साँसे गिन रही है । निकट भविष्य में ऑक्सीजन मिलने के आसार दिखाई नहीं देते । मान लो जीवन दान मिल भी जाए , तो दमखम से जुझारु तेवर अपनाने में वक्त लगेगा । यानी चौहान विपक्ष की तरफ़ से पूरी तरह निश्चिंत हैं । सुषमा स्वराज को लेकर तरह- तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं,लेकिन विदिशा में राजकुमार पटेल ने सफ़ेद झंडा लहरा कर युद्ध सँधि कर ली । एक तीर से कई निशाने साधे गये और शिवराज की गद्दी हाल फ़िलहाल सुरक्षित हो गई ।

प्रदेश की जनता का भाग्य बाँचनेवाले बताते हैं कि आने वाले सालों में आम लोगों की मुश्किलें बढ़ने की आशंकाएँ प्रबल हैं । रेखाएँ कहती हैं कि जनता को हर मोर्चे पर संघर्ष पूर्ण इम्तेहान देना होगा । यदि इस अनिष्ट से बचना हो तो जनता को अभी से अनुष्ठान शुरु कर देना चाहिए । रास्ता महानुभाव जरनैल सिंह ने सुझा ही दिया है । लोग अपनी सुविधा के हिसाब से इसमें फ़ेर बदल कर हालात पर काबू पाने में कामयाब हो सकते हैं ।

बुधवार, 8 अप्रैल 2009

भाजपा का चुनावी "कॉरपोरेट कल्चर"

मध्यप्रदेश में बीजेपी के फ़रमान ने कई मंत्रियों की नींद उड़ा दी है । पिछले लोकसभा चुनावों की कामयाबी दोहराने के केन्द्रीय नेतृत्व के दबाव के चलते प्रदेश मंत्रिमंडल की बेचैनी बढ़ गई है । कॉरपोरेट कल्चर में डूबी पार्टी ने सभी को टारगेट दे दिया है । ’टारगेट अचीवमेंट” ही मंत्रिमंडल में बने रहने के लिये कसौटी होगी । प्रदेश में पचास ज़िले हैं और मंत्रियों की संख्य़ा महज़ बाईस है । ऎसे में सभी मंत्रियों को कम से कम दो - दो ज़िलों में अपना सर्वोत्तम प्रदर्शन देना ज़रुरी है , ताकि बीजेपी केन्द्र में सत्ता के करीब पहुँच सके । पार्टी ने क्षेत्रीय विधायकों को भी "लक्ष्य आधारित काम" पर तैनात कर दिया है । प्रत्याशियों को जिताने का ज़िम्मा सौंपे जाने के बाद से इन नेताओं की बेचैनी बढ़ गई है ।

हाईप्रोफ़ाइल मानी जा रही विदिशा , गुना , रतलाम और छिंदवाड़ा सीट पर सभी की नज़रें लगी हैं । हालाँकि विदिशा में राजकुमार पटेल की ’मासूम भूल” के बाद परिदृश्य पूरी तरह बदल चुका है । सूत्रों का कहना है कि सुषमा की जीत पक्की करने के लिये विकल्प भी तय था यानी सुषमा का दिल्ली का टिकट कटाओ या मुख्यमंत्री की कुर्सी खाली करो । और फ़िर राजनीति में "साम-दाम-दंड-भेद" की नीति ने रंग दिखाया । अब सुषमा स्वराज के साथ ही बीजेपी भी पूरी तरह निश्चिंत हो गई है ।

कमलनाथ ,ज्योतिरादित्य सिंधिया और कांतिलाल भूरिया को घेरने के लिये मुख्यमंत्री ने खुद ही मोर्चा संभाल लिया है । दिल्ली और मध्यप्रदेश की चार सर्वे एजेंसियों ने छिंदवाड़ा , गुना-शिवपुरी, रतलाम, बालाघाट , दमोह ,टीकमगढ़ , भिंड , धार ,होशंगाबाद और खरगोन सीट पर नज़दीकी मुकाबले की बात कही है । जीत सुनिश्चित करने के लिये काँटे की टक्कर वाले इन क्षेत्रों में मुख्यमंत्री ने सूत्र अपने हाथ में ले लिये हैं ।

अपने चहेतों को टिकट दिलाने के कारण मंत्रियों की प्रतिष्ठा भी दाँव पर लगी है । मंत्री रंजना बघेल के पति मुकाम सिंह किराड़े धार से उम्मीदवार हैं । बालाघाट से के. डी. देशमुख को टिकट मिलने के बाद मंत्री गौरी शंकर बिसेन और रीवा से चन्द्रमणि त्रिपाठी को प्रत्याशी बनाने के बाद मंत्री राजेन्द्र शुक्ला पर दबाव बढ़ गया है । होशंगाबाद से रामपाल सिंह और सागर से भूपेन्द्र सिंह की उम्मीदवारी ने मुख्यमंत्री की ज़िम्मेदारी बढ़ा दी है ।

उधर खेमेबाज़ी और आपसी गुटबाज़ी ने काँग्रेस को हैरान कर रखा है । आये दिन की फ़जीहत से बेज़ार हो चुके नेता अब चुप्पी तोड़ने लगे हैं । अब तक चुप्पी साधे रहे दिग्गज नेताओं का दर्द भी ज़ुबान पर आने लगा है । प्रदेश काँग्रेस चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष अजय सिंह का कहना है कि इस तरह की राजनीति उनकी समझ से बाहर है । वे कहते हैं , "पार्टी हित में सभी नेताओं को मिलजुल कर आपसी सहमति से फ़ैसले लेना होंगे ।"

विधान सभा चुनाव में काँग्रेस के निराशाजनक प्रदर्शन के बाद आलाकमान ने सभी नेताओं को एकजुटता से काम करने का मशविरा दिया था । लेकिन पाँच महीने बाद भी हालात में सुधार के आसार नज़र नहीं आने से कार्यकर्ता निराश और हताश हैं । जानकारों की राय में प्रदेश काँग्रेस इस वक्त अस्तित्व के संकट के दौर से गुज़र रही है । संगठन में नेता तो बहुत हैं , नहीं हैं तो केवल कार्यकर्ता ।

मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

जूते के निशाने पर मौजूदा व्यवस्था

गृहमंत्री पी. चिदम्बरम पर जूता फ़ेंकने का मामला वक्त बीतने के साथ तूल पकड़ता जाएगा । हालाँकि गृह मंत्री की माफ़ी के बाद पत्रकार को छोड़ दिया गया है । लेकिन इस घटनाक्रम के साथ ही एक साथ कई सवाल हवा में तैरने लगे हैं । ज़्यादातर लोग मन ही मन प्रफ़ुल्लित होने के बावजूद पत्रकार जरनैल सिंह को दुनिया के सामने जी भरकर धिक्कारेंगे । वैसे खुद को प्रगतिशील दिखाने के लिये ऎसा ही रवैया अख्तियार करना वक्त की माँग है ।

माजिद मेमन जैसे जानेमाने वकील लोकतंत्र में आस्था बनाये रखने के लिये जरनैल सिंह को कड़ी से कड़ी सज़ा की देने की बात कह रहे हैं । वे कहते हैं कि लोकतंत्र को ज़िन्दा रखने के लिये इस तरह की आवाज़ों को कुचलना ज़रुरी है । ये वही मेमन साहब हैं , जो मुम्बई बम कांड में दाउद इब्राहीम और उसके गुर्गों की पैरवी कर रहे हैं । देश में जो भी विघटनकारी तत्व हैं वे अपने बचाव के लिये देश के इन काबिल वकील से संपर्क करते हैं । लेकिन जरनैल के मामले में मेमन साहब एकदम अलग और कड़ा रुख अख्तियार किये हुए हैं । वे कहते हैं कि लोकतंत्र में आस्था रखते हुए लोगों को कानून का दरवाज़ा खटाखटाना चाहिए ।

सवाल यह भी है कि न्याय के इंतज़ार के लिए पच्चीस साल बहुत होते हैं । एक पीढ़ी के इंतज़ार के बावजूद जब ठोस सबूत ही इकट्ठा नहीं हो पाये , तो न्याय की उम्मीद क्या खाक रहेगी । जिस जाँच एजेंसी को साक्ष्य जुटाने का ज़िम्मा सौंपा गया था , उसकी कार्यशैली किसी से छिपी नहीं है । ’सरकार का नमक अदा’ करने में माहिर अधिकारियों ने मायावती, अमर सिंह , मुलायम सिंह , शिबू सोरेन , जयललिता , लालू यादव सरीखे नेताओं से जुड़े मामलों को आनन-फ़ानन में निपटा कर अपनी ’नमक हलाली’ का पुख्ता सबूत पेश किया है । इन हालात में इंसाफ़ की उम्मीद करना मृग मरीचिका से ज़्यादा कुछ नहीं ।

जरनैल सिंह का आक्रोश शुरुआती बानगी है । नेताओं ने पुलिस और जाँच एजेंसियों को अपनी चौखट पर बाँध तो लिया है , वो शायद भूल गये हैं कि जब भी कानून का गला घोंटा गया है मजबूरन लोगों ने कानून हाथ में लिया है । न्याय की बात तभी अच्छी लग सकती है ,जब समय पर और सच्चा न्याय मिले । जन आक्रोश सड़कों पर आ गया तो सबसे ज़्यादा इन नेताओं को ही मुश्किल का सामना करना होगा , जिनकी साँसे और धड़कनें जनता में बसी होती हैं ।

कानून अँधा नहीं होता है । ये और बात है कि निष्पक्षता के लिहाज़ से उसने आँखों पर पट्टी बाँध रखी है । लेकिन नेताओं का कानों में रुई ठूँस लेना आने वाले समय में उन्हीं पर भारी पड़ेगा । अंग्रेज़ सरकार की आँखें खोलने और कानों तक आवाज़ पहुँचाने के लिये शहीदे आज़म भगतसिंह को असेम्बली में पर्चे फ़ेंकने के अलावा धमाके भी करने पड़े थे । आज के दौर के मोटी चमड़ी वाले नेताओं पर शायद इस तरह के नुस्खे कारगर साबित नहीं हो सकते । ऎसे में आम जनता के पास आखिर क्या रास्ता बचता है ।

विद्वात्त जन लोकतंत्र की महानता की दुहाई देते नहीं थकते ,लेकिन आखिर ये लोकतंत्र है कहाँ ...? अगर है भी तो क्या आम जनता को इसका फ़ायदा मिल पाता है ..? कल जो भाजपा में था वो आज काँग्रेस में है ,जो काँग्रेसी था वो अब बीजेपी का भगवा चोला धारण कर चुका है । थाली के बैंगन की तरह लालू , मुलायम , पासवान और अमर सिंह जैसे नेता "जिधर दम उधर हम" को ही अपना सूत्र वाक्य बनाकर राजनीति करते रहे हैं ।

लोकतंत्र का असली मज़ा तो ये नेता , नौकरशाह , उद्योगपति और प्रबुद्धजन ही लूट रहे हैं । व्यवस्था के गतिरोध हटाने के लिये लीक से हट कर ही कुछ करना ज़रुरी हो गया है । जरनैल सिंह के जूते के निशाने पर देश के गृह मंत्री नहीं मौजूदा व्यवस्था है । ये चुनौती है उस सोये समाज को ,जो "जहाँ है ,जैसा है" की संस्कृति में रच- बस चुका है । नीम बेहोशी तोड़ने के लिये ढ़ोल-ढ़माकों की नहीं झन्नाटेदार चाँटे की ही ज़रुरत होती है , वो भी एक नहीं पूरी की पूरी श्रृंखला ........... ।

सोमवार, 6 अप्रैल 2009

काँग्रेस ने दिया सुषमा स्वराज को वॉक ओवर

मध्यप्रदेश में बैतूल और रायसेन के ज़िला निर्वाचन अधिकारियों के फ़ैसलों ने कहीं खुशी - कहीं ग़म की स्थिति बना दी है । भारतीय जनता पार्टी की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज की उम्मीदवारी के कारण हाई प्रोफाइल बनी मध्यप्रदेश की विदिशा संसदीय सीट से काँग्रेस प्रत्याशी राजकुमार पटेल का पर्चा खारिज हो गया है । वहीं बैतूल में भाजपा उम्मीदवार ज्योति धुर्वे के हक में निर्णय आया है । काँग्रेस ने श्रीमती धुर्वे का जाति प्रमाणपत्र फ़र्ज़ी होने का आरोप लगाया था । जाँच और दोनों पक्षों की दलील के बाद उनका पर्चा सही पाया गया ।

काँग्रेस उम्मीदवार राजकुमार पटेल ने अपने नामजदगी के पर्चे के साथ फार्म ए की मूल प्रति के स्थान पर छाया प्रति जमा की जिसे निर्वाचन अधिकारी ने अमान्य कर दिया है। इस मामले पर पार्टी में ही कई तरह के कयास लगाये जा रहे हैं। लेकिन सारे मामले में पटेल की "भूमिका" की जांच चुनाव के बाद ही होगी । बैकफुट पर नजर आ रही पार्टी अब अन्य विकल्प तलाशने के साथ ही प्रतिष्ठा बचाने के प्रयास में जुटी है।

पार्टी के नेता हैरान हैं कि भाजपा की राष्ट्रीय नेता के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी और पूर्व मंत्री श्री पटेल से ए फार्म समय पर दाखिल करने के मामले में चूक कैसे हो गयी ? साथ ही इस क्षेत्र में भाजपा प्रत्याशी श्रीमती स्वराज को वॉकओवर देने का मुद्दा गर्माने को लेकर भी पार्टी में खलबली मची हुई है । इस घटनाक्रम से कार्यकर्ता हताश और नेता हतप्रभ हैं ।

दुविधा में फ़ँसी पार्टी अब नाक बचाने के लिये दूसरे विकल्प तलाश रही है । निर्दलीय के तौर पर पर्चा भरने वाले श्री पटेल के भाई देव कुमार पटेल को समर्थन देने के मुद्दे पर भी पानी फ़िर गया है । देवकुमार पटॆल का नामांकन भी रद्द हो जाने से कांग्रेस को एक बार फ़िर निराशा ही हाथ लगी है । दोनों ही नामांकन खारिज होने के बाद अब यह सवाल उठना लाज़मी है कि क्या सुषमा स्वराज को काँग्रेस वॉकओवर देने जा रही है । हालांकि काँग्रेस पटेल प्रकरण पर सकते में है । पार्टी उनके खिलाफ़ निष्कासन जैसी कड़ी कार्रवाई का मन बना रही है ।

वैसे पटेल ने नामांकन फ़ॉर्म जमा करते समय जिस तरह की मासूमियत दिखाई ,वह चौंकाने वाली है । काँग्रेस को इससे भारी फ़जीहत का सामना करना पड़ रहा है । विदिशा से सुषमा स्वराज का नाम सामने आने के बाद पार्टी ने किसी नए चेहरे पर दाँव लगाने की बजाय तज़ुर्बे को तरजीह देते हुए पटेल की दावेदारी को बेहतर समझा । काँग्रेस के एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि उम्मीदवारों को नामांकन फ़ॉर्म भरने से जुड़ी सभी ज़रुरी बातें अच्छी तरह समझाई जाती हैं । पटेल के मामले में जानकारों को साज़िश की बू आ रही है क्योंकि पटेल को खुद कई चुनाव लड़ने का अनुभव है ।

अब उनका इतिहास भी खंगाला जा रहा है । वे बुधनी से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के खिलाफ़ भी चुनाव लड़ चुके हैं । इसे दिलचस्प संयोग ही कहा जाए कि उस वक्त भी उन्होंने नामांकन पत्र में अपनी पार्टी का नाम ही ग़लत भर दिया था । वहाँ मौजूद कुछ वरिष्ठ लोगों ने तत्काल भूल सुधरवा दी थी । हारने के बाद उन्होंने हाईकोर्ट में चुनाव परिणाम को चुनौती दी ,लेकिन वे एक बार भी गवाही के लिये अदालत नहीं पहुँचे । लिहाज़ा मामले में एकतरफ़ा फ़ैसला सुना दिया गया ।

बहरहाल काँग्रेस प्रत्याशी श्री पटेल का कहना है कि वे कानूनी परामर्श के बाद कदम उठाएंगे । उन्होंने कहा कि जिला निर्वाचन अधिकारी ने अन्य प्रत्याशियों से तीन बजे के बाद भी दस्तावेज लिए लेकिन सिर्फ उन्हीं से फार्म ए नहीं लिया। फार्म ए कलेक्टर को तीन बजकर सात मिनट पर दिया गया था जबकि नामांकन पत्र 2 बजकर 14 मिनट पर जमा किया गया।

उधर सूत्रों का कहना है कि काँग्रेस प्रत्याशी राजकुमार पटेल ने शनिवार को दोपहर 4.10 बजे जिला निर्वाचन अधिकारी को एक आवेदन दिया था । जिसमें उन्होंने कहा था कि वे निर्धारित समय से विलंब से अपना "ए" फार्म जमा कर रहे हैं। इसे स्वीकार करने के बारे में जिला निर्वाचन अधिकारी का जो भी निर्णय होगा वह उन्हें मंजूर होगा । मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी कार्यालय के सूत्रों के अनुसार प्रत्याशी को नामांकन पत्र दाखिल करने के साथ निर्धारित समयसीमा में फार्म ए भी निर्वाचन अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत करना होता है। अन्यथा प्रत्याशी संबंधित राजनीतिक दल का नहीं माना जाएगा।

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009

सियासत के गलियारों में फ़िल्मी सितारे

बाज़ारवाद और भ्रष्टाचार के कारण अब नेता और अभिनेता के बीच का फ़र्क धीरे - धीरे खत्म होता जा रहा है । रुपहले पर्दे पर ग्लैमर का जलवा बिखेरने वाले अभिनेताओं को अब सियासी गलियारों की चमक-दमक लुभाने लगी है । गठबंधन की राजनीतिक मजबूरियों में अमरसिंह जैसे सत्ता के दलालों की सक्रियता बढ़ा दी है । हीरो-हिरोइनों से घिरे रहने के शौकीन अमरसिंह कब राजनीति करते हैं और कब सधी हुई अदाकारी ,समझ पाना बेहद मुश्किल है । "राजनीतिक अड़ीबाज़" के तौर पर ख्याति पाने वाले अमर सिंह के कारण सियासत और फ़िल्मी दुनिया का घालमेल हो गया है ।

जनसभाओं में लोग देश के हालात और आम जनता से जुड़े मुद्दों पर धारदार तकरीर सुनने के लिये जमा होते हैं , मगर अब चुनावी सभाओं में नेताओं के नारे और वायदों की बजाय बसंती और मुन्ना भाई के डायलॉग की गूँज तेज हो चली है । रोड शो में नेता को फ़ूलमाला पहनाने के लिये बढ़ने वाले हाथों की तादाद कम और अपने मनपसंद अदाकार की एक झलक पाने ,उन्हें छू कर देखने की बेताबी बढ़ती जा रही है । युवाओं की भीड़ जुटाने के लिये सियासी पार्टियाँ फ़िल्मी कलाकारों का साथ पाने की होड़ में लगी रहती हैं ।

लोक सभा चुनावों में इस बार फ़िल्मी सितारों की भरमार देखने को मिल रही है । संसद में सीटें बढा़ने के लिए सियासी पार्टियाँ बढ़-चढ़ कर फ़िल्मी हस्तियों का सहारा ले रही हैं । वैसे फ़िल्मी सितारों का राजनीति में आने का सिलसिला कोई नया नहीं है लेकिन इस बार ये संख्या काफ़ी ज्यादा है । सुपर स्टार तो पार्टियों के दुलारे हमेशा से रहे हैं,मगर अब हास्य कलाकारों और खलनायकों को भी भीड़ जुटाने के लिये जनता के बीच भेजने का सिलसिला भी ज़ोर पकड़ने लगा है ।

देश में उत्तर से लेकर दक्षिण तक फिल्मी हस्तियाँ चुनाव प्रचार में शिरकत कर रही हैं । कुछ फ़िल्मी सितारे चुनाव मैदान में किस्मत आज़माने उतरे हैं जबकि कुछ चुनाव प्रचार करने वाले हैं । दक्षिण में फ़िल्मी कलाकारों के राजनीति में सफ़ल होने के कई उदाहरण मिल जाएँगे । एनटी रामाराव , एम जी रामचंद्रन , जयललिता, रजनीकांत ऎसे नाम हैं , जिन्होंने फ़िल्मी कैरियर में अपार सफ़लता पाने के साथ ही मतदाताओं के दिलों पर भी बरसों राज किया और प्रदेश का तख्तोताज सम्हाला । तेलुगू सिनेमा के सुपरस्टार चिरंजीवी ने पिछले साल ही प्रजा राज्यम पार्टी बनाई थी । वे इस बार दो संसदीय सीटों से चुनाव लड़ेंगे । उनके अलावा एनटी रामाराव के बेटे नंदामुरी बालाकृष्णन, सत्तर और अस्सी के दशक की मशहूर अभिनेत्री जयासुधा और विजया शांति भी चुनाव लड़ने की तैयारी में हैं ।

उत्तर भारत में जनता की भीड़ जुटाने में कई सितारे कामयाब रहे लेकिन संसद के गलियारों में उनकी चमक फ़ीकी पड़ गई । राजेश खन्ना , गोविंदा ,धर्मेन्द्र, अमिताभ बच्चन ने मतदाताओं को निराश किया । वहीं ऎसे सितारे भी हैं जिन्होंने संसद में अपनी सक्रियता से धाकड़ नेताओं को मात दे दी । इनमें सुनील दत्त , हेमा मालिनी , राज बब्बर , विनोद खन्ना के नाम प्रमुखता से आते हैं । उत्तर प्रदेश में इस बार मतदाताओं को कई फिल्मी कलाकारों से रुबरु होने का मौका मिल रहा है । राज बब्बर, मनोज तिवारी और जयाप्रदा चुनाव में हिस्सा ले रहे हैं , वहीं भोजपुरी फ़िल्मों के मशहूर अभिनेता रवि किशन काँग्रेस का प्रचार करते नज़र आएँगे । उनके अलावा गोविंदा और नगमा ने भी महाराष्ट्र में काँग्रेस के लिए प्रचार की हामी भरी है । अक्षय कुमार, सलमान खान और प्रीति ज़िंटा भी काँग्रेस उम्मीदवारों के लिये वोट माँगते दिखाई देंगे ।

दरअसल जनाधार मजबूत करने के लिए राजनीतिक पार्टियाँ फ़िल्मी कलाकारों को टिकट देती रही हैं । आम जनता के बीच उनकी लोकप्रियता को भुनाने के पार्टियाँ रुपहले पर्दे के कलाकारों को अपना प्रतिनिधि बनाने की पहल करती हैं । वैसे देखा जाए तो सामाजिक सरोकार के नाते अगर कोई कलाकार राजनीति में आता है तो ये देश और समाज के लिहाज़ से प्रशंसनीय माना जाएगा ।

एक बड़ा तबका मानता है कि जोश की बजाय होश के साथ सियासत में आने का फ़ैसला लेने वाले कलाकारों का स्वागत होना चाहिए । उनका तर्क है कि अगर पत्रकार आ सकते हैं, किसान आ सकते हैं , तो फ़िल्म स्टार क्यों नहीं आ सकते ? बीजेपी के टिकट पर चुनाव जीत कर केन्द्र में मंत्री पद सम्हालने वाले विनोद खन्ना और शत्रुघ्न सिन्हा का कहना है कि अगर कोई फ़िल्म स्टार अपनी पसंद की पार्टी में शामिल होकर उसका प्रचार करता है तो इसमें कोई बुराई नहीं है क्योंकि उसकी भी अपनी विचारधारा हो सकती है ।

शत्रुघ्न सिन्हा कहते हैं कि आजकल जिस तरह से फ़िल्म स्टार्स राजनीति में आ रहे हैं उसके पीछे वजह ये है कि वे लोकप्रिय होने के साथ ही आर्थिक रुप से मज़बूत भी हैं । ऎसे में राजनीतिक पार्टी पर आर्थिक दबाव नहीं रहता । इसके अलावा फ़िल्म स्टार्स राजनीति में राजकीय सम्मान पाने की लालसा से आते हैं जबकि राजनीतिक पार्टियाँ उनके जरिए ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचना चाहती हैं । इस तरह दोनों ही एक दूसरे की ज़रुरत पूरी करते हैं । वहीं अभिनेता से नेता बने धर्मेंद्र की हिदायत है कि फ़िल्म स्टार अगर राजनीति से दूर ही रहें तो अच्छा है । उनकी राय में अभिनेता को अभिनय तक ही रहना चाहिए और राजनीति में नहीं जाना चाहिए ।

राजनीति से तौबा कर चुके सदी के महानायक भी राजनीति में जाने के अपने फ़ैसले को गलत मानते हैं । एक फिल्मी पत्रिका से बातचीत मे उन्होंने कहा था,"मुझे कभी राजनीति मे नहीं जाना चाहिए था । अब मैंने सबक सीख लिया है । अब आगे और राजनीति नहीं ।" अमिताभ ने सफाई दी कि इंदिरा जी की हत्या के बाद 1985 में वह भावुकता में राजीव का साथ देने के लिए राजनीति मे आ गए थे । "मगर न तो मुझे तब राजनीति आती थी, न अब आती है और न मैं भविष्य में राजनीति सीखना चाहूँगा ।"

तमाम ना नुकुर के बीच एक सच्चाई ये भी है कि समाजवादी पार्टी के नेता अमर सिंह की बच्चन परिवार से करीबी के कारण भले ही अमिताभ तकनीकी रूप से समाजवादी पार्टी के सदस्य न बने हों , लेकिन समाजवादी पार्टी के सियासी जलसों में वे अक्सर दिखाई देते रहे हैं । समाजवादी पार्टी संजय दत्त की "मुन्ना भाई" वाली छबि को भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती । सुप्रीम कोर्ट से चुनाव लड़ने की इजाज़त नहीं मिलने पर संजय दत्त को पार्टी का महासचिव बना दिया गया है । पर्दे पर दूसरे के लिखे डायलॉग की बेहतर अंदाज़ में अदायगी करके वाहवाही बटोरने वाले "मुन्ना भाई" के टीवी इंटरव्यू तो खूब हो रहे हैं ।

मज़े की बात ये है कि हर साक्षात्कार में अमर सिंह साये के तरह साथ ही चिपके रहते हैं और तो और संजय को मुँह भी नहीं खोलने देते । उनसे पूछे गये हर सवाल का उत्तर "अमरवाणी" के ज़रिये ही आता है । शायद कठपुतली की हैसियत भी इससे बेहतर ही होती है , कम से कम वो अपने ओंठ तो हिला सकती है । लगता है यहाँ भी मुन्ना भाई के पर्चे अमरसिंह ही हल कर रहे हैं ,बिल्कुल "मुन्ना भाई एमबीबीएस" फ़िल्म की ही तरह ।

वहीं एक दूसरा वर्ग ऎसा भी है जो चुनावी मौसम में अपने फ़ायदे के लिए फ़िल्मी कलाकारों के इस्तेमाल को जायज़ नहीं मानता । राजनीति के जानकार भी मानते हैं कि राजनीति और फ़िल्मों का रिश्ता काफ़ी पुराना है और ये दोनों एक दूसरे की ज़रुरतों को पूरा करते हैं । पंडित नेहरु के जमाने में भी राजकपूर और नरगिस वगैरह की काँग्रेस से नज़दीकी थी और वो राज्यसभा में भी भेजे गए थे ।

बेशक , इतनी बड़ी संख्या में सितारों की मौजूदगी से चुनाव में चमक - दमक बढ़ गई है । लेकिन इस शोरगुल में आम जनता की ज़िन्दगी से जुड़े बुनियादी मुद्दे कहीं गुम हो गये हैं । बहरहाल यह जमावड़ा देखकर कहा जा सकता है कि जहाँ राजनीतिक पार्टियाँ रुपहले पर्दे के सितारों के सहारे ज्यादा से ज्यादा लोगों को लुभाने और अपनी सीटों की संख्या बढ़ाने की तैयारी में हैं । वहीं ये फ़िल्मी सितारे भी सत्ता के गलियारे में जाने को लेकर काफ़ी उत्साहित दिख रहे हैं ।

मंगलवार, 31 मार्च 2009

चुनावी समर में काँग्रेस बनी रणछोड़दास

लोकसभा चुनावों को लेकर मध्यप्रदेश में बीजेपी हर मोर्चे पर बढ़त लेकर बुलंद हौंसलों के साथ आगे बढ़ रही है ,जबकि काँग्रेस टिकट बँटवारे को लेकर मचे घमासान में ही पस्त हो गई है । रणछोड़दास की भूमिका में आई काँग्रेस ने पूरे प्रदेश में थके-हारे नेताओं को टिकट देकर बीजेपी की राह आसान कर दी है । एकतरफ़ा मुकाबले से मतदाताओं की दिलचस्पी भी खत्म होती जा रही है । काँग्रेस की गुटबाज़ी को लेकर उपजे चटखारे ही अब इन चुनावों की रोचकता बचाये हुए हैं । बहरहाल जगह-जगह पुतले जलाने का सिलसिला और हाईकमान के खिलाफ़ नारेबाज़ी ही इस बात की तस्दीक कर पा रहे हैं कि प्रदेश में काँग्रेस का अस्तित्व अब भी शेष है ।

मध्यप्रदेश में अब तक लगभग सभी सीटों पर बीजेपी और काँग्रेस उम्मीदवारों की घोषणा से स्थिति स्पष्ट हो चली है । चुनाव की तारीखों से एक महीने पहले उम्मीदवारों का चयन पूरा कर लेने का दम भरने वाली काँग्रेस अधिसूचना जारी होने के बावजूद होशंगाबाद और सतना सीट के लिये अभी तक किसी नाम पर एकराय नहीं हुई है । गुटबाज़ी का आलम ये है कि काँग्रेस के दिग्गजों को बीजेपी से कम और अपनों से ज़्यादा खतरा है , लिहाज़ा वे अपने क्षेत्रों में ही सिमट कर रह गये हैं ।

भाजपा ने 29 लोकसभा सीटों में से 28 और कांग्रेस ने 27 उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है। अपनी घोषणा के अनुसार बीजेपी ने एक भी मंत्री को चुनाव मैदान में नहीं उतारा , अलबत्ता पूर्व मंत्री और दतिया के विधायक डा. नरोत्तम मिश्रा को गुना से ज्योतिरादित्य सिंधिया के खिलाफ़ मैदान में उतारा है , जबकि कांग्रेस ने भाजपा को कड़ी टक्कर देने के लिए पांच विधायक , सज्जन सिंह वर्मा (देवास), सत्यनारायण पटेल (इंदौर), विश्वेश्वर भगत (बालाघाट), रामनिवास रावत (मुरैना) और बाला बच्चन (खरगोन) को चुनावी समर में भेजा है । मगर काँग्रेस दो मजबूत दावेदारों को भूल गई । प्रदेश चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष अजय सिंह सीधी से मजबूत प्रत्याशी माने जा रहे थे। चुनाव लड़ने के इच्छुक श्री सिंह पिछले तीन महीने से सीधी लोकसभा क्षेत्र में सक्रिय थे । इसी तरह विधानसभा में प्रतिपक्ष की नेता जमुना देवी के विधायक भतीजे उमंग सिंघार को भी लोकसभा का टिकिट नहीं मिला।

प्रदेश में काँग्रेस की दयनीय हालत का अँदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भोपाल सीट के लिए स्थानीय पार्षद स्तर के नेता भी टिकट की दावेदारी कर रहे थे । आखिरी वक्त पर टिकट कटने से खफ़ा पूर्व विधायक पीसी शर्मा तो बगावत पर उतारु हैं । विधानसभा चुनाव में प्रत्याशी नहीं बनाने पर श्री शर्मा ने निर्दलीय चुनाव लड़ने का ऎलान कर दिया था । लोकसभा चुनाव में उम्मीदवारी के वायदे पर मामला शांत हो गया था , लेकिन हाईकमान की वायदाखिलाफ़ी से शर्मा समर्थक बेहद खफ़ा हैं और ना सिर्फ़ सड़कों पर आ गये हैं , बल्कि इस्तीफ़ों का दौर भी शुरु हो चुका है ।

काँग्रेस की कार्यशैली को देखकर लगता है कि तीन महीने पहले हुए विधानसभा चुनाव में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाने के बावजूद मिली करारी शिकस्त से प्रदेश काँग्रेस और आलाकमान ने कोई सबक नहीं लिया । अब भी पार्टी के क्षत्रप शक्ति प्रदर्शन में मसरुफ़ हैं । हकीकत यह है कि प्रदेश में काँग्रेस की हालत खस्ता है । लोकसभा प्रत्याशियों की सूची पर निगाह दौड़ाने से यह बात पुख्ता हो जाती है । उम्मीदवारों के चयन में चुनाव जीतने की चिंता से ज़्यादा गुटीय संतुलन साधने की कोशिश की गई है । इस बात को तरजीह दी गई है कि सभी गुट और खासकर उनके सरदार खुश रहें । विधानसभा चुनाव में भी टिकट बँटवारे की सिर-फ़ुटौव्वल को थामने के लिये ऎसा ही मध्यमार्ग चुना गया था और उसका हश्र सबके सामने है ।

इस पूरी प्रक्रिया से क्षुब्ध वरिष्ठ नेता जमुना देवी ने जिला अध्यक्षों की बैठक में साफ़ कह दिया था कि प्रदेश में पार्टी को चार-पाँच सीटों से ज़्यादा की उम्मीद नहीं करना चाहिए । हो सकता है ,उनके इस बयान को अनुशासनहीनता माना जाये लेकिन उनकी कही बातें सौ फ़ीसदी सही हैं । सफ़लता का मीठा फ़ल चखने के लिए कड़वी बातों को सुनना - समझना भी ज़रुरी है , मगर काँग्रेस फ़िलहाल इस मूड में नहीं है ।

गुरुवार, 26 मार्च 2009

मौका है बदल डालो , अब नहीं तो कब ...????

पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने देश के मतदाताओं से सही उम्मीदवार को वोट देने का आग्रह किया है । मतदान को सबसे बड़ा अवसर बताते हुए डॉ.कलाम ने कहा है कि हमारे द्वारा चुने गये प्रतिनिधि अगले पाँच साल के लिये देश के भाग्य का फ़ैसला लेने के हकदार होते हैं । उन्होंने मताधिकार को पवित्र और मातृभूमि के प्रति ज़िम्मेदारी बताया है ।

हममें से ज़्यादातर ने नागरिक शास्त्र की किताबों में मताधिकार के बारे में पढ़ा है । मतदान के प्रति पढ़े-लिखे तबके की उदासीनता के कारण राजनीति की तस्वीर बद से बदतर होती जा रही है । हर बार दागी उम्मीदवारों की तादाद पहले से ज़्यादा हो जाती है । भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे नेता पार्टी की अदला- बदली करते रहते हैं । राजनीतिक दलों में वंशवाद की बेल पुष्पित-पल्लवित हो रही है | आम नागरिक मुँह बाये सारा तमाशा देखता रहता है । प्रजातंत्र में मतदाता केवल एक दिन का "राजा" बनकर रह गया है । बाकी पाँच साल शोषण,दमन और अत्याचार सहना उसकी नियति बन चुकी है ।

यह राजनीति का कौन सा रुप है , जो चुनाव के बाद सिद्धांत , विचार , आचरण और आदर्शों को ताक पर रखकर केवल सत्ता पाने की लिप्सा में गठबंधन के नाम पर खुलेआम सौदेबाज़ी को जायज़ ठहराता है ? चुनाव मैदान में एक दूसरे के खिलाफ़ खड़े होने वाले दल सरकार बनाने के लिये एकजुट हो जाते हैं । क्या यह मतदाता के फ़ैसले का अपमान नहीं है ? चुनाव बाद होने वाले गठबंधन लोकतंत्र की धज्जियाँ उड़ाते दिखाई देते हैं । सरसरी तौर पर प्रत्याशी तो कमोबेश सभी एक से हैं और आपको बस मशीन का बटन दबाना है । मतदाता मजबूर है राजनीतिक पार्टियों का थोपा उम्मीदवार चुनने को । जो लोग जीतने के बाद हमारे भाग्य विधाता बनते हैं , उनकी उम्मीदवारी तय करने में मतदाता की कोई भूमिका नहीं होती ।

राजनीतिक दलों को आम लोगों की पसंद - नापसंद से कोई सरोकार नहीं रहा । उन्हें तो चाहिए जिताऊ प्रत्याशी । वोट बटोरने के लिये योग्यता नहीं जातिगत और क्षेत्रीय समीकरणों को तरजीह दी जाती है । अब तो वोट हासिल करने के लिये बाहुबलियों और माफ़ियाओं को भी टिकट देने से गुरेज़ नहीं रहा । सरकार बनाने के लिये ज़्यादा से ज़्यादा सीटें जीतने की नहीं कबाड़ने की जुगाड़ लगाई जाती है । नतीजतन लाखों लगाकर करोड़ों कमाने वालों की तादाद में लगातार इज़ाफ़ा हो रहा है । सत्ता किसी भी दल के हाथ में रहे , हर दल का नेता मौज लूटता है । अराजकता का साम्राज्य फ़ैलने के लिये हमारी खामोशी भी कम ज़िम्मेदार नहीं ।

लाख टके का सवाल है कि इस समस्या से आखिर निजात कैसे मिले ? लेकिन आज के इन हालात के लिये कहीं ना कहीं हम भी ज़िम्मेदार हैं । हम गलत बातों की निंदा करते हैं लेकिन मुखर नहीं होते , आगे नहीं आते । चुनाव हो जाने के बाद से लेकर अगला चुनाव आने तक राजनीति में आ रही गिरावट पर आपसी बातचीत में चिन्ता जताते हैं , क्षुब्ध हो जाते हैं । मगर जब बदलाव के लिये आगे आने की बात होती है , तो सब पीछे हट जाते हैं । हमें याद रखना होगा कि लोकतंत्र में संख्या बल के मायने बहुत व्यापक और सशक्त हैं । इसे समझते हुए एकजुट होकर सही वक्त पर पुरज़ोर आवाज़ उठाने की ज़रुरत है । अपने राष्ट्रीय और सामाजिक दायित्व को समझना ही होगा ।

सब जानते हैं और मानते भी हैं कि लोकतंत्र की कमजोरियाँ ही बेड़ियाँ बन गई हैं । यही समय है चेतने ,चेताने और चुनौतियों का डट कर मुकाबला करने का ...। प्रजातंत्र को सार्थक और समर्थ साबित करने के लिये हमें ही आगे आना होगा । इस राजनीतिक प्रपंच पर अपनी ऊब जताने का यही सही वक्त है । वोट की ताकत के बूते हम क्यों नहीं पार्टियों को योग्य प्रत्याशी खड़ा करने पर मजबूर कर देते ?

भोपाल के युवाओं ने बदलाव लाने की सीढ़ी पर पहला कदम रख दिया है । शहीद भगत सिंह की पुण्यतिथि पर आम चुनाव में मतदान और मुद्दों पर जनजागरण के लिए "यूथ फ़ॉर चेंज" अभियान की शुरुआत की गई । अभियान का सूत्र वाक्य है - ’वोट तो करो बदलेगा हिन्दुस्तान।’ इसमें वोट डालने से परहेज़ करने वाले युवाओं को स्वयंसेवी और सामाजिक संगठनों की मदद से मतदान की अहमियत समझाई जाएगी ।

व्यक्तिगत रुप से मैं दौड़ , हस्ताक्षर अभियान , मोमबत्ती जलाने जैसे अभियान की पक्षधर नहीं । मेरा मानना है कि हमें अपने आसपास के लोगों से निजी तौर पर इस मुद्दे पर बात करना चाहिये । इस मुहिम को आगे ले जाने के लिये लोगों को प्रोत्साहित करना चाहिए । उन्हें मतदान केन्द्र पर जत्थे बनाकर पहुँचने के लिये उत्साहित करना होगा ।

यहाँ यह बताना बेहद ज़रुरी है कि इस बार चुनाव आयोग ने मतदान केन्द्र पर रजिस्टर रखने की व्यवस्था की है , जिसमें वोट नहीं डालने वाले अपना नाम-पता दर्ज़ करा सकते हैं । याद रखिये बदलाव एक दिन में नहीं आता उसके लिये लगातार अनथक प्रयास ज़रुरी है । व्यक्तिगत स्तर पर हो रहे इन प्रयासों को अब व्यापक आंदोलन की शक्ल देने का वक्त आ गया है । मौका है बदल डालो । हमारे जागने से ही जागेगा हिन्दुस्तान , तभी कहलायेगा लोकतंत्र महान ....।

मंगलवार, 24 मार्च 2009

भाजपा से हर मोर्चे पर पिछड़ी काँग्रेस

मध्यप्रदेश में भाजपा ने धुआँधार बल्लेबाज़ी करते हुए बढ़त हासिल कर ली है । उम्मीदवारों के चयन का मामला हो या चुनाव प्रचार में मुद्दे खड़े कर उन्हें भुनाने की कोशिश ... बीजेपी हर मोर्चे पर काँग्रेस से चार हाथ आगे ही है । बीजेपी अपने खिलाफ़ जाते माहौल को पक्ष में करने के लिये पूरे प्रदेश में न्याय यात्राएँ निकाल रही है । हर उम्मीदवार के साथ एक आईटी एक्सपर्ट तैनात कर दिया है । महिला मोर्चा , श्रमिक प्रकोष्ठ और किसान मोर्चा भी रणनीति बनाने में जुट गया है , जबकि काँग्रेस मुख्यालय में सुई पटक सन्नाटा पसरा है । कार्यालय म्रें नेता नदारद हैं , तो कार्यकर्ताओं का भी भला क्या काम ...?


काँग्रेस की चुनाव समिति ने मध्यप्रदेश के तीन और उम्मीदवारों के नामों पर मुहर लगा दी है । शनिवार को जारी तीसरी सूची में मंडला से दिग्विजय सरकार में मंत्री रहे बसोरी सिंह मरकाम और बैतूल से ओझाराम इवने के नाम शामिल हैं । विदिशा से राजकुमार पटेल भाजपा की दिग्गज सुषमा स्वराज के खिलाफ़ चुनाव मैदान में उतरे हैं । श्री पटेल और श्री ओझाराम के नाम पहले ही घोषित कर दिये गये थे लेकिन उन्हें पुनर्विचार के लिए रोक लिया गया था ।

इस तरह काँग्रेस ने 29 में से 22 सीटों पर उम्मीदवारों के नाम तय कर दिये हैं ,जबकि भाजपा 26 संसदीय क्षेत्रों के लिये नामों की घोषणा कर चुकी है । भोपाल, इंदौर, देवास, होशंगाबाद, सीधी, सतना और राजगढ़ का मामला अभी भी अटका हुआ है। ये सभी सीटें कांग्रेस के दिग्गजों के प्रभाव क्षेत्र की हैं।

होशंगाबाद से प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुरेश पचौरी को चुनाव मैदान में उतारने का फ़ैसला हाईकमान को करना है । पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह दस साल तक चुनाव नहीं लड़ने की प्रतिज्ञा लिये बैठे हैं , जबकि राजगढ़ में दिग्गी राजा के समर्थक किसी और नाम पर समझौते के लिये राज़ी नहीं हैं । इसी तरह सीधी से अर्जुन सिंह के बेटे और सतना से उनकी बेटी को टिकट देने का मामला भी उलझा है ।

भोपाल से मुस्लिम उम्मीदवार को उतारने की माँग भी ज़ोर पकड़ रही है । इसके अलावा भोपाल में कायस्थ मतदाताओं की भारी तादाद के मद्देनज़र कायस्थ प्रत्याशी के रुप में प्रधानमंत्री स्व. लालबहादुर शास्त्री के पुत्र अनिल शास्त्री का नाम भी चर्चा में है । यहाँ करीब पौने तीन लाख कायस्थ मतदाता हैं । वर्ष 1989 से लगातार भाजपा भोपाल सीट पर काबिज़ है । प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव सुशील चंद्र वर्मा ने भाजपा के टिकट से चुनाव लड़कर भोपाल सीट काँग्रेस के हाथों से छीनी थी । वे लगातार चार मर्तबा सांसद चुने गये । वर्मा से पहले काँग्रेस के के.एन.प्रधान ने दो बार संसद में भोपाल का प्रतिनिधित्व किया । ये दोनों ही नेता कायस्थ समाज से ताल्लुक रखते थे ।

विदिशा सीट पर जानकार मुकाबला एकतरफ़ा मान रहे हैं , जबकि कांग्रेस काँटे की टक्कर का दावा कर रही है । एक तरफ़ सुषमा राष्ट्रीय नेता हैं , ये और बात है कि वे अब तक कोई भी संसदीय चुनाव नहीं जीत सकी हैं । ऎसे में वे भी विदिशा जैसी सुरक्षित सीट से जीत कर अपना इतिहास बदलना चाहेंगी । दूसरी ओर काँग्रेस भाजपा के गढ़ में सेंध लगाने का प्रयास कर निष्प्राण हो चुके संगठन में जोश भरने की कोशिश ज़रुर करेगी ।

विदिशा के लिये काँग्रेस प्रत्याशी राजकुमार पटेल बुधनी से एक बार विधायक रहे हैं । उन्होंने विधानसभा का एक चुनाव भोजपुर और एक चुनाव बुधनी से हारा है । वर्ष 2003 के विधानसभा चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा । वे एक मर्तबा बीजेपी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा से विधानसभा चुनाव हार चुके हैं। कांग्रेस में माना जा रहा है कि पटेल इस संसदीय क्षेत्र में श्रीमती स्वराज को कड़ी टक्कर देंगे । स्थानीय नेता का मुद्दा कितना ज़ोर लगा पायेगा यह कह पाना मुश्किल है ।

विदिशा भाजपा का अजेय दुर्ग माना जाता है । इस संसदीय क्षेत्र के मतदाताओं ने मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान को पाँच बार संसद के गलियारों में दाखिल होने का मौका दिया । काँग्रेस विदिशा और भोपाल सीट को प्रतिष्ठा का प्रश्न मान कर चल रही है । इसीलिए अंतिम वक्त तक जिताऊ प्रत्याशियों की तलाश में मगजपच्ची की जा रही है ।

सोमवार, 23 मार्च 2009

काँग्रेस ही बनायेगी वरुण को बड़ा नेता

देश में आजकल मुद्दों पर राजनीति नहीं गर्माती । अब तो सियासत होती है खेलों , पुरस्कारों और बयानों पर । मालूम होता है भारत में चारों तरफ़ खुशहाली है । मुद्दे कोई शेष नहीं इसलिए लोग शगल के लिए बहस मुबाहिसे करते हैं । आई पी एल देश में हो या सात समुंदर पार इससे आम जनता को क्या ? लेकिन धनपशुओं का खेल दुनिया भर में भारत की नाक का सवाल बन गया है ।

खेलों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नाकामी हाथ आने पर नेता एक ही बात कहते सुनाई देते हैं कि खेलों को राजनीति से दूर रखा जाये , लेकिन खेल के मैदान राजनीति के अखाड़ों में तब्दील हो गये हैं । आईपीएल को लेकर चल रही उठापटक में अब तक राज्यों के पाले में गेंद डाल रहे गृहमंत्री पी. चिदाम्बरम नरेन्द्र मोदी के बयान के बाद आज अचानक मीडिया से मुखातिब हुए । गुजरात के मुख्यमंत्री ने अपने चिरपरिचित अँदाज़ में आईपीएल को देश की प्रतिष्ठा के प्रश्न से जोड़्कर केन्द्र को आड़े हाथों क्या लिया , यूपीए सरकार को मामले में सियासत की गँध आने लगी ।

दरअसल इस मुद्दे पर पहली चाल तो काँग्रेस ने ही चली थी । शरद पवार से महाराष्ट्र में सीटों के बँटवारे को लेकर चल रही खींचतान में दबाव की राजनीति के चलते आईपीएल को मोहरे की तरह इस्तेमाल करने का दाँव खुद काँग्रेस पर उलट गया । ना तो शरद पवार झुके और ना ही दबाव काम आया । बाज़ी पलटते देख केन्द्र सरकार को बचाव की मुद्रा में आना पड़ा है ।

लगता है काँग्रेस के ग्रह नक्षत्र आज कल ठीक नहीं चल रहे । ’ उल्टी हो गई सब तदबीरें कुछ ना दवा ने काम किया ’ की तर्ज़ पर जहाँ हाथ डाला , वहीं बाज़ी उलट गई ।वरुण गाँधी को पीलीभीत में भड़काऊ भाषण देने के मामले में ऊपरी तौर पर यह चुनाव आयोग से जुड़ा मामला नज़र आता है लेकिन इसके सूत्र कहीं और से संचालित होते दिखाई दे रहे हैं । देश में पहली मर्तबा ऎसा हुआ है जब चुनाव आयोग ने सीधे किसी पार्टी को यह सलाह दे डाली है कि वह अमुक उम्मीदवार को टिकट ना दे ।

संविधान के जानकारों की राय में आयोग का दायित्व चुनाव प्रक्रिया के संचालन तक सीमित है ।गौर करने वाली बात यह भी है कि देश में इससे पहले क्या किसे ने तीखे भाषण नहीं दिये ? कहा तो यह भी जाता है कि इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद राजीव गाँधी का एक बयान दिल्ली में सिखों के कत्ले आम का सबब बना । ऎसा लगता है कि वरुण की बढ़ती लोकप्रियता ने किसी "माँ" की चिंताएँ बढ़ा दी हैं । दलितों के घर भोजन करके और सिर पर मिट्टी ढ़ोकर भी राहुल बाबा का राजनीतिक कद बढ़ना मुमकिन नहीं हो पाया है । एक आम भारतीय माँ की तरह सोनिया मैडम भी अपनी आँखों के सामने बेटे को सफ़लता से सत्तासूत्र सम्हाले देखना चाहती हैं , तो इसमें किसी को क्या दिक्कत है ?

" हारेगा जब कोई बाज़ी तभी तो होगी किसी की जीत " इसलिये राहुल को सत्ताशीर्ष तक पहुँचाने में एकाएक आ खड़ी हुई बाधा को किसी भी तरह से दूर तो करना ही होगा । असली - नकली गाँधी की लड़ाई में राजमोहन गाँधी की बजाय जनता ने भले ही दत्तक पुत्र के वंशजों को चुन लिया हो लेकिन अब जबकि इन्हीं वंशजों में से किसी एक को चुनने की बारी आएगी , तो जनता योग्यता के आधार चुनाव करेगी । सियासत में योग्यता का पैमाना लटके- झटके नहीं जनता के बीच पैठ होता है ।

मीडिया की मदद और सरकारी लवाजमे की पुरज़ोर कोशिशों के बावजूद राहुल गाँधी उस मुकाम पर अब तक नहीं पहुँच पाये हैं , जहाँ बरसो से निर्वासित जीवन जी रही मेनका गाँधी का बेटा एक झटके में पहुँच गया । यहाँ एक सवाल और भी है कि हिन्दू शब्द क्या वाकई भड़काऊ है ? अबू आज़मी , अमरसिंह , सैयद शहाबुद्दीन , बनातवाला , आज़म खाँ ऎसे नाम हैं जो जनसभाओं में तो आग उगलते ही रहे , संसद के भीतर भी ज़हर उगलने से बाज़ नहीं आये ।

अब तक ह्त्या,लूट, डकैती ,फ़िरौती ,धोखाधड़ी के मामलों में सज़ायाफ़्ता या अनुभवी जेल यात्री ही चुनाव लड़ते रहे हैं । लम्बे समय बाद कोई नेता सियासी दाँवपेंचों के चलते जेल की हवा खा ही आये , तो भी क्या ...? इससे लोकतंत्र का सीना गर्व से चौड़ा ही होगा । इन सभी बातों पर गौर करने के बाद हिन्दूवादियों से आग्रह है कि वे इसे "कहानी घर-घर की" समझ कर ही प्रतिक्रिया दें ।

हर मोर्चे पर लगातार पिट रही काँग्रेस को वरुण मामले में भी मुँह की खाना पड़ेगी । चाहे-अनचाहे मीडिया की नेगेटिव पब्लिसिटी धीरे-धीरे गाँधी खानदान के नवोदित सितारे को स्थापित कर देगी । ऎसे में जेल यात्रा का सौभाग्य मिल गया तो भाजपा की बल्ले-बल्ले और वरुण की चाँदी ही चाँदी .....????? लगता है काल का चक्र घूम रहा है । सियासी कुरुक्षेत्र में वक्त रुपी कृष्ण वरुण के पक्ष में खड़ा है ।

मामला ऎसे दिलचस्प मोड़ पर आ गया है कि हर हाल में फ़ायदा वरुण को ही मिलता दिखाई देता है । कहते हैं बुरे वक्त में साया भी साथ छोड़ देता है । पाँच साल सरकार में रहकर गलबहियाँ करने वाले क्षेत्रीय दलों ने चुनाव से पहले ठेंगा दिखा दिया है । जो कल तक हमसफ़र थे वे अब रक़ीब हैं ।

शनिवार, 21 मार्च 2009

उम्मीदवारों को लेकर काँग्रेस में घमासान

भाजपा में राजनीतिक स्तर पर सहमति बनने के बाद पूर्व केन्द्रीय मंत्री प्रहलाद पटेल की शनिवार 21 मार्च को भोपाल में विधिवत घर वापसी हो गई । पार्टी से नाराज़ प्रहलाद ने उमा भारती के साथ मिलकर भारतीय जन शक्ति का गठन किया था । वे उमा के कामकाज के तौर तरीकों से खफ़ा थे । उमा से अनबन के चलते विधान सभा चुनावों से पहले भी उनकी बीजेपी में वापसी को लेकर अटकलें लगाई जा रही थीं ।

आज पार्टी मुख्यालय में प्रदेश अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की मौजूदगी में प्रहलाद ने अपने दल - बल के साथ पार्टी में पुनर्प्रवेश कर लिया । बीजेपी में इस बात को लेकर कश्मकश है कि पार्टी प्रहलाद का उपयोग किस तरह करे ? उन्हें छिंदवाड़ा से काँग्रेस उम्मीदवार कमलनाथ के खिलाफ़ मैदान में उतारने की चर्चाएँ भी चल रही हैं । हालाँकि श्री पटेल ने चुनाव लड़ने से इंकार किया है , लेकिन पार्टी ने फ़िलहाल छिंदवाड़ा ,खजुराहो और सीधी सीट पर प्रत्याशियों के नाम की घोषणा अब तक नहीं की है । इसके अलावा बालाघाट और बैतूल के लिए घोषित उम्मीदवारों को बदलने पर भी विचार चल रहा है ।

लोधी वोट बैंक में प्रहलाद और उमा की अच्छी पैठ है । उत्तर प्रदेश में कल्याणसिंह के बीजेपी से बाहर होने के बाद बुंदेलखंड, महाकौशल और यूपी के लोधी-लोधा मतदाताओं को पार्टी के पक्ष में लाने के लिए भारी माथापच्ची चल रही थी । बालाघाट प्रहलाद का प्रभाव क्षेत्र है , जहाँ से बीजेपी को अच्छी बढ़त मिलने की उम्मीद बन गई है ।

इधर बीजेपी का कुनबा फ़िर से भरापूरा दिखाई देने लगा है । विधानसभा चुनाव में मिली अप्रत्याशित सफ़लता ने नेता-कार्यकर्ताओं के हौंसले बुलंद कर दिये हैं , वहीं अँदरुनी उठापटक से काँग्रेस की हालत पतली है । बीजेपी ने उम्मीदवारों के नामों की घोषणा में भी बढ़त ले ली है । बहुजन समाज पार्टी ने भी सभी उनतीस सीटों से प्रत्याशी उतारने की तैयारी कर ली है , जबकि काँग्रेस अब तक बीस सीटों पर ही उम्मीदवार तय कर पाई है । बची हुई नौ में से सात सीटों पर भारी घमासान है । भोपाल और होशंगाबाद में मुस्लिम नेता बाग़ी तेवरों के साथ टिकट का दावा ठोक रहे हैं ।

जिन क्षेत्रों के लिए नामों की घोषणा हुई है , वहाँ असंतोष फ़ूट पड़ा है । पैराशूटी उम्मीदवारों को लेकर उपजी नाराज़गी सड़कों पर आ गई है । सागर, मंदसौर और खजुराहो में विरोध प्रदर्शन के साथ ही पुतले जलाने का दौर भी खूब चला । सागर में असलम शेर खान को टिकट देने के विरोध में एक कार्यकर्ता ने अपनी कार ही आग के हवाले कर दी ।विरोध में कार्यकर्ताओं ने न सिर्फ़ पुतले जलाये बल्कि काँग्रेस कार्यालय में पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष का एक बैनर भी लटका दिया । इसमें मैडम झपकी लेती दिखाई पड़ती हैं , उनकी नींद पाँच साल बाद टूटने की उम्मीद जताई गई है ।

इसी तरह युवक काँग्रेस की पूर्व प्रदेश अध्यक्ष मीनाक्षी नटराजन को मंदसौर सीट की प्रत्याशी बनाना भी पार्टी का सिरदर्द बन गया है । नीमच क्षेत्र के कार्यकर्ताओं के एक वर्ग ने उन्हें थोपा हुआ नेता बता कर पुतले फ़ूँके । खजुराहो प्रत्याशी राजा पटैरिया के लिए भी स्थानीय नेता का मुद्दा भारी पड़ रहा है । हटा(दमोह) के निवासी पटैरिया को लोग बाहरी नेता करार दे रहे हैं । प्रदर्शन और जमकर नारेबाज़ी ने उनकी चिंताएँ बढ़ा दी हैं ।

मैदाने जंग में जाने से पहले ही आपसी कलह ने काँग्रेस कार्यकर्ताओं के हौसले पस्त कर दिये हैं । मध्यप्रदेश में काँग्रेस दूर-दूर तक नज़र नहीं आ रही । हाल के विधानसभा चुनावों से भी पार्टी ने कोई सबक नहीं सीखा । बीजेपी के खिलाफ़ मुद्दों की भरमार है लेकिन काँग्रेस के पास अब ऎसे नेता नहीं जो इन मुद्दों को वोट में तब्दील कर सकें । पिछली मर्तबा बीजेपी पच्चीस सीटों पर काबिज़ थी । चार सीटों से संतोष करने वाली काँग्रेस यदि वक्त रहते नहीं चेती तो प्रदेश में पार्टी का नामलेवा नहीं बचेगा ।

शुक्रवार, 20 मार्च 2009

उमा के बदले रुख से खिला कमल

चुनाव की तारीख की ओर बढ़ते हुए सियासत भी रफ़्तार पकड़ रही है । नाराज़ प्रहलाद पटेल ’ घर ’ लौटने के लिए बेताब हैं । मित्तल मामले में कोप भवन में जा बैठे जेटली भी ज़िद छोड़ने को तैयार हो गये हैं । कल तक आडवाणी को पानी पी-पी कर कोस रही साध्वी भी गिले - शिकवे भुलाकर ’हम साथ-साथ हैं’ का एलान कर रही हैं । कुल मिलाकर भाजपा में घटनाक्रम इतनी तेज़ी से घूम रहा है कि सारा परिदृश्य बदला हुआ नज़र आ रहा है ।

मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी उमा भारती ने सुलह की पाती भेजकर आडवाणी के नेतृत्व में आस्था जताने का दाँव खेलकर कइयों के होश उड़ा दिये हैं । उमा ने आडवाणी से मुलाकात के बाद यह कह कर सबको चौंका दिया कि पीएम इन वेटिंग का समर्थन राष्ट्र धर्म है । वे कहती हैं कि आडवाणी का समर्थन कर उन्होंने भाजपा पर कोई एहसान नहीं किया है , केवल राष्ट्र के प्रति अपना कर्तव्य निभाया है । साथ ही बीजेपी में वापसी के कयास को उन्होंने सिरे से खारिज भी कर दिया है ।

"साफ़ छिपते भी नहीं सामने आते भी नहीं " की तर्ज़ पर उमा भाजपा में आने की हर मुमकिन कोशिश करती हैं लेकिन पूछने पर साफ़ मुकर जाती हैं । लुका छिपी के इस खेल में उमा की राजनीतिक हैसियत कम से कमतर होती चली जा रही है । लेकिन उनकी ठसक कम नहीं होती । अड़ियल रवैये और ’पल में तोला- पल में माशा’ वाले तेवरों के कारण भाजपा में उनके दोस्त कम और दुश्मन ज़्यादा हैं ।

उधर, उमा की खाली जगह भरने के लिए सुषमा स्वराज ने डेरा डालने की ग़रज से भोपाल में होली पर दीवाली मनाकर बँगले में प्रवेश क्या किया , अटकलों का बाज़ार गर्माने लगा । प्रदेश की राजनीति पर पैनी निगाह रखने वालों का कहना है कि सिविल लाइन का बँगला , जो अब सुषमा स्वराज का निवास है , हमेशा ही सत्ता का केन्द्र रहा है । कयास लगाये जा रहे हैं कि चुनाव बाद प्रदेश में मुखिया बदलने की भूमिका तैयार हो रही है । फ़िलहाल सुषमा विदिशा से लोकसभा चुनाव लड़ रही हैं । मिथक है कि विदिशा से जीतने वाले नेता की सियासी गाड़ी तेज़ रफ़्तार से दौड़ने लगती है ।

यहाँ से पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर मीडिया हस्ती रामनाथ गोयनका तक अपनी किस्मत आजमा चुके हैं। वर्ष 1991 में हुए 10 वीं लोकसभा के चुनाव में वाजपेयी विदिशा और लखनऊ सीट पर एक साथ लडे थे । दोनों ही सीटों से जीतने के कारण वाजपेयी को लखनऊ भाया और उन्होंने विदिशा सीट छोड दी थी। इसके बाद उपचुनाव में शिवराजसिंह चौहान पहली बार सांसद बने थे। विदिशा का कुछ हिस्सा विजयाराजे सिंघिया के संसदीय क्षेत्र में आने के कारण वे भी इस क्षेत्र का प्रतिनिघित्व कर चुकी हैं। अब एक बार फिर भाजपा ने पूर्व केंद्रीय मंत्री सुषमा स्वराज को प्रत्याशी बनाकर विदिशा को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में ला दिया है।

प्रदेश स्तर पर विदिशा का दबदबा पहले से ही कायम है। लगातार 5 बार क्षेत्र का प्रतिनिघित्व करने वाले शिवराजसिंह चौहान मुख्यमंत्री की कमान संभाले हैं । वहीं विदिशा से सांसद रह चुके राघवजी के पास प्रदेश की वित्त व्यवस्था का ज़िम्मा हैं। भाजपा का गढ कहलाने वाले विदिशा संसदीय क्षेत्र में सुषमा स्वराज को मैदान में उतारे जाने से एक बार फिर काँग्रेस की मुश्किलें बढ गई हैं ।

बहरहाल प्रदेश में भाजपा की राजनीति उबाल पर है । लम्बे इंतज़ार के बाद आखिरकार पूर्व केन्द्रीय मंत्री और भारतीय जनशक्ति के नेता प्रहलाद पटेल की भाजपा में वापसी का रास्ता लगभग साफ़ हो गया है । उम्मीद है कि कल 21 मार्च को ग्यारह बजे प्रहलाद पटेल पूरे लाव-लश्कर के साथ चार हज़ार कार्यकर्ताओं की फ़ौज लेकर विधिवत तौर पर घर वापसी करेंगे । मुख्यमंत्री ने भी इसकी पुष्टि कर दी है । भाजपा में आने के बाद उन्हें खजुराहो या छिंदवाड़ा से चुनावी जंग में उतारने के आसार है , मगर प्रहलाद फ़िलहाल चुनाव लड़ने की अटकलों को नकार रहे हैं ।

भाजश के दो दिग्गज नेताओं की वापसी की संभावनाओं ने प्रदेश की उन्तीस में से छब्बीस संसदीय सीटों पर जीत का दावा कर रही भाजपा नेताओं के चेहरे कमल की मानिंद खिला दिये हैं । हालाँकि विधानसभा चुनाव में भाजश कुछ खास नहीं कर पाई , लेकिन कई जगह भाजपा के वोटों में सेंधमारी में कामयाब रही थी । इसका खमियाज़ा जीत के अंतर में कमी और कई जगह काँग्रेस को बढ़त के तौर पर भाजपा को उठाना पड़ा था ।

रुठों के मान जाने से भाजपा में जोश का माहौल है , वहीं गुटबाज़ी से परेशान काँग्रेस अब तक दमदार उम्मीदवारों की तलाश भी पूरी नहीं कर पाई है । विधानसभा चुनाव में नाकामी से भी पार्टी के क्षत्रपों ने कोई सबक नहीं सीखा । कमलनाथ , ज्योतिरादित्य सिंधिया ,कांतिलाल भूरिया सरीखे नेता अब अपनी सीट बचाने की जुगत में लग गये हैं । मैदाने जंग में उतरने से पहले ही हार की मुद्रा में आ चुके काँग्रेस के दिग्गज नेता अपने लिए सुरक्षित सीट की तलाश में हैं । आज हालत ये है कि प्रदेश में काँग्रेस की स्थिति दयनीय है । हाल- फ़िलहाल मध्यप्रदेश में मुकाबला पूरी तरह से एकतरफ़ा दिखाई देता है ।

बुधवार, 18 मार्च 2009

परायी खुशियों पर थिरकते कदम

करीला की जानकी मैया की कृपा से जुड़ी किंवदंतियाँ दूर - दूर तक मशहूर हैं । अशोकनगर ज़िले के करीला गाँव का जानकी मंदिर हर साल रंगपंचमी पर घुँघरुओं की झनकार और ढ़ोल की थाप से गूँज उठता है । माता जानकी के शरण स्थल और लव-कुश की जन्मभूमि माने जाने वाले करीला के मेले की प्रसिद्धि में लगातार इजाफा हो रहा है। इसी के चलते यहां हर साल पहले की तुलना में ज्यादा श्रद्धालु मां जानकी के दरबार में मनोकामनाओं को लेकर पहुंचने लगे हैं । माँ जानकी की कृपावर्षा से जुड़े किस्से कहने -सुनने वालों की तादाद लाखों में पहुँच चुकी है । मनौती माँगने वालों का सिलसिला साल दर साल बढ़ता ही जा रहा है । अगर कुछ नहीं बदला है तो सिर्फ़ दूसरों की मनौतियाँ पूरी होने की खुशियों में झूम-झूमकर नाचती बेड़नियों की तकदीर ।

कैसी विडम्बना है कि जिन नर्तकियों के पैरों की थिरकन पर रीझ कर जानकी माता मुँह माँगी मुराद पूरी कर देती हैं , उनके अँधेरे जीवन में आज तक उम्मीद की किरण नहीं फ़ूट पाई । करीला के मेले मे इस बार फ़िर एक बेबस माँ ने पेट की खातिर अपनी चौदह साल की बेटी नेहा के पैरों में घुँघरु बाँध दिए । मशाल की रोशनी में माँ और बहन के साथ अपनी कला का प्रदर्शन करते हुए नेहा ने लोगों की खूब दाद बटोरी और भरपूर ईनाम भी पाया ।

हालाँकि नेहा को पढ़ना-लिखना पसंद है ,लेकिन उसकी माँ का कहना भी ग़लत नहीं कि पेट की आग किताबी ज्ञान से नहीं बुझती । उसकी नज़र में पैसा पढ़ाई से बड़ा है और पैसा आता है हुनरमंदी से । इसलिए शायद उसने नेहा को कमसिन उम्र में ही ’राई’ की सारी बारीकियों से वाकिफ़ करा दिया है । पतली कमर की लचक और ढ़ोल की थाप पर अंग-प्रत्यंग की थिरकन उसके परिपक्व राई नृत्यांगना होने की पुष्टि करते हैं ।

दूसरी बार करीला आई नेहा भी मानती है कि मैया के दरबार में नृत्य करने से मुरादें ज़रुर पूरी होती हैं । उसका यह विश्‍वास उधार के अनुभवों पर आधारित है ना कि खुद का तज़ुर्बा । दर्शकों की दाद को सबसे बड़ा ईनाम बताने वाली नेहा के मासूम चेहरे पर झलकता आत्मवि‍श्‍वास बताता है कि उसने नियति के फ़ैसले को पूरी शिद्दत और मज़बूती के साथ मंज़ूर कर लिया है ।

करीला के मंदिर में मन्नत पूरी होने पर ’राई’ कराने की परंपरा है । राई बुँदेलखण्ड का नृत्य है ,जिसमें बेड़नियाँ मशाल की रोशनी में रात पर मृदंग,रमतूला,झंझरा, ढपला,नगड़िया और तासे की धुन पर नाचती हैं । मान्यता है कि इस मंदिर में आकर कोई अपनी मनोकामना के साथ राई कराने का संकल्प ले , तो उसकी इच्छा ज़रुर पूरी होती है । मनौती के वक्त राई नर्तकियों की संख्या कबूलना भी ज़रुरी होता है । यह आँकड़ा एक से लेकर एक सौ एक तक कुछ भी हो सकता है । मनौती पूरी होने पर लोग अपनी हैसियत के मुताबिक बेड़नियाँ नचाते हैं ।

आमतौर पर सीता के साथ श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित की जाती हैं लेकिन इस मंदिर में माता जानकी के साथ ऋषि वाल्मिकी और लव-कुश की प्रतिमाएँ हैं । मेला प्रबंधकों के मुताबिक रंगपंचमी की रात सैकड़ों बेड़नियाँ अपने पैरों की थिरकन को पल भर भी नहीं थमने देतीं । यूँ तो राई किसी भी दिन कराई जा सकती है , मगर श्रद्धालुओं के लिए रंगपंचमी सबसे श्रेष्ठ मुहूर्त होता है ।

बेशक "राई" बेहद खूबसूरत और मनमोहक नृत्य शैली है। मृदंग की थाप और नर्तकी के शरीर की लोच के साथ पैरों की चपलता का अद्भुत सम्मिश्रण माहौल में सुरुर घोल देता है । लेकिन देवी माँ को प्रसन्न करने के लिए बेड़नियाँ नचाने वाला समाज ही उन्हें अच्छी निगाह से नहीं देखता ।

साल में एक दिन मंदिर परिसर में भले ही अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए इस कला के कद्रदान मिल जाएँ , मगर बाकी समय इन कलाकारों को रसिकजनों की खिदमत के लिए वो सब करना पड़ता है जिसे सभ्य समाज वेश्यावृत्ति का नाम देता है । बाली उम्र में नेहा का ’ राई’ नर्तकी के तौर पर पहचान बनाना चिंता का विषय है । साथ ही मन में एक जिज्ञासा भी है कि ईश्‍वर मज़लूमों -मजबूरों की आवाज़ को नज़रअँदाज़ करने का साहस कैसे बटोर पाता होगा...? कला के खरीददार अगर दाम चुका कर खुशियाँ पा सकते हैं , तो कलाकार को ही क्यों इन खुशियों पर हक हासिल नहीं ? क्या ऊपर वाला भी पूँजीवादी व्यवस्था का हामी है...? क्या सिक्कों की खनक बेबस लोगों की आहों- सिसकियों से ज़्यादा तेज़ सुनाई देती है ? सवाल कई , जवाब कोई नहीं, कहीं नहीं , कभी नहीं ...।

सोमवार, 16 मार्च 2009

झील की मौत पर जश्‍न का माहौल

सूरज की तपिश बढ़ने के साथ ही भोपाल की बड़ी झील का आकार घटता जा रहा है । तालाब की बदहाली पर आँसू और गेंती-फ़ावड़ा लेकर श्रमदान में पसीना बहाने वाले तो कई मिल जाएँगे , लेकिन इन हालात के मूल कारणों को ना तो कोई जानना चाहता है और ना ही इन पर बात करना । जैसे - जैसे तालाब का अस्तित्व सिमट रहा है , झील की मौत का जश्‍न मनाने वालों की बाँछें खिलने लगी हैं ।

’अमृतम जलम’ , ’अपनी झील-अपनी धरोहर’ और ’जल सत्याग्रह’ के ज़रिए झील को नया जीवन देने के कागज़ी दावे किये जा रहे हैं । मीडिया घरानों के एफ़ एम रेडियो पर दिन भर तालाब के लिये पसीना बहाने का चर्चा रहता है । अखबारों के दबाव में नेता और सरकारी अधिकारी भी चुप लगाये तमाशा देख रहे हैं । अखबारों के पन्ने प्रतिदिन श्रमदान की तस्वीरों और खबरों से रंगे होते हैं । लगता है गेंती- फ़ावड़ा चलाते लोगों का पसीना ही तालाब लबालब कर देगा ।

‘ताल तो भोपाल का और सब तलैया‘ की देश भर में मशहूर कहावत जिस झील की शान में रची गई, वह अब बेआब और बेनूर हो गई है । इस पहाड़ी शहर की प्यास बुझाने के लिए राजा भोज ने 11वीं सदी में बड़ी झील बनवाई थी 17वीं शताब्दी में नवाब छोटे खां ने निस्तार के लिए छोटे तालाब का निर्माण कराया । इसके मूल में बड़े तालाब को संरक्षित रखने की सोच थी ।

बड़े-बूढे उम्रदराज़ी की दुआ देने के लिए कहा करते थे - "जब तक भोपाल ताल में पानी है, तब तक जियो ।" क़रीब एक हज़ार साल पुराने `भोपाल ताल´ का जिक्र लोगों की इस मान्यता का गवाह है कि बूढ़ा तालाब कभी सूख नहीं सकता । मगर हम अपने लालच पर काबू नहीं रख पाए और अंतत: बूढ़े तालाब की साँसें धीरे-धीरे टूटने की कगार पर हैं । शहर की गंदगी, कचरे और मिट्टी के जमाव ने झील को उथला कर दिया है जिससे इसकी जल भंडारण क्षमता घट गई है। 31 वर्ग किलोमीटर के विशाल दायरे से सिमटकर तालाब महज 5 वर्ग किलोमीटर रह गया है । वैसे बड़े तालाब का भराव क्षेत्र 31 वर्ग किलोमीटर और कैचमेंट एरिया 361 वर्ग किलोमीटर है।


बड़े तालाब का तकरीबन 26 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र खाली हो चुका है। आसपास के लोगों के अलावा भू-माफिया ने भी मौके का फ़ायदा उठा अवैध कब्जा कर अधिकांश हिस्से में खेती शुरू कर दी । इतना ही नहीं कुछ इलाकों में अतिक्रमण कर पक्के मकान बना लिए गए हैं। बेजा कब्जों और अवैध निर्माणों से भी झील का जल भराव क्षेत्र घटा है।


भोपाल की छोटी और बड़ी झील को प्रदूषण मुक्त करने और उनके संरक्षण के लिए जापान की मदद से वर्ष 1995 में भोज वेटलैंड परियोजना शुरु की गई थी । जेबीआईसी के सहयोग से भोपाल के तमाम छोटे -बड़े तालाबों के संवर्धन और प्रबंधन संबंधी कामों पर 247 करोड़ रुपए खर्च हुए । वर्ष 2004 में पूरी हुई इस परियोजना में तालाब गहरीकरण, जलकुंभी हटाने, सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाने, हाई लेवल ब्रिज के निर्माण जैसे कार्य किए जाने की बात कही जा रही थी। परियोजना तो खत्म हो गई ,लेकिन तालाब के हालात बद से बदतर होते गए । सीवेज का पानी आज भी तालाब में मिल रहा है । भोपाल की झीलों की संरक्षण और प्रबंधन परियोजना
A. Date of agreement - 28 February 1995
B. Contract period - 12 April 2002
C. Project implementation period - April 1995 to March 2001
(Extended upto March 2002)
D. Project Cost - 247.02 Crore (8300 million yen)
1. Loan Amount by JBIC ( 85%) - 7055 million yen
(exchange rate 1 Rs. = 3.36 yen)
2. State Government Contribution - Rs. 370.5 million (1245 million yen)
3. Expenditure of State Govt. before 01.04.1995 - Rs. 243.7 million
4. Project Expenditure from 01.04.1995 to 31.05.2001 (in Indian Rupees) - Rs. 1006.5 million
5. Project Expenditure from 01.04.1995 to 31.05.2001 (Commitment procedure in yen) - Rs. 187.
"एप्को " से साभार
तहज़ीब का शहर माने जाने वाले भोपाल को तालों की नगरी भी कहा जाता है। यहाँ नवाबी दौर में वॉटर रिचार्ज सिस्टम के 14 तालाब हुआ करते थे । इनमें से अब केवल पाँच तालाब ही बचे हैं । अतिक्रमण ने शहर के नौ तालाबों को लील लिया है । मोतिया तालाब और मुंशी हुसैन खाँ तालाब के बीच बने सिद्दीक हसन खाँ में अब पानी की जगह घास-फ़ूस और झाड़-झँखाड़ हैं ही , आलीशान अट्टालिकाएँ भी शासन-प्रशासन को मुँह चिढा़ रही हैं । अच्छे खाँ की तलैया , गुरुबख्श की तलैया ,लेंडिया तालाब अब इतिहास के पन्नों में दफ़्न हो चुके हैं । चार सौ से ज़्यादा छोटी-बड़ी बावड़ियाँ शहर के लोगों की पीने के पानी और निस्तार की ज़रुरतों को पूरा करती थीं ।
ज़ुबानी जमा खर्च से ना तो आज तक कभी कुछ बदला है और ना ही आगे भी ऎसा होगा । तालाब बचाने की चाहत किसे है ? देश में जब भी कहीं आपदा आती है चील गिद्धों की फ़ौज की जीभें लपलपाने लगती हैं । भोपाल की झील की मौत का मातम नहीं जश्‍न मनाया जा रहा है । सिवाय ढोंग के कुछ नहीं हो रहा । ढाई सौ करोड रुपए खर्च होने के बाद अगर झील की ऎसी दुर्दशा है तो कौन ज़िम्मेदार है ? भोजवेट लैंड परियोजना के कर्ता धर्ताओं को तो सीखचों के पीछे होना चाहिए । फ़िलहाल जो नाटक चल रहा है उसके पीछे भी किसी बडे फ़ंड की जुगाड़ और उसे हज़म करने की साज़िश है । वरना कुछ अखबार मालिकों को अचानक जल ही जीवन है या फ़िर अमृतम जलम की सुध क्यों आ गई ? खैर इस देश में कभी कुछ नहीं बदलेगा । हर मौत किसी के लिए सौगात बन कर आती रही है आती रहेगी ।

रविवार, 15 मार्च 2009

सुदर्शन चाहते हैं मौजूदा संविधान नष्ट करना

आरएसएस के सरसंघ चालक के एस सुदर्शन ने अँग्रेज़ों और दूसरे देशों की मदद से बनाए गए भारतीय संविधान को नष्ट कर देने की पैरवी की है । कल भोपाल में भारतीय विचार संस्थान के बौद्धिक कार्यक्रम में सुदर्शन ने कहा कि कुछ लोगों के निजी स्वार्थों के लिए ही यह संविधान बनाया गया था । आँबेडकर भी इस से संतुष्ट नहीं थे , इसीलिए उन्होंने कहा था कि बस चले तो संविधान में आग लगा दूँ । इससे किसी का भला नहीं होने वाला ।

उनसठ साल पुराने संविधान पर गाहे - बगाहे सवाल उठते रहे हैं । लंबे समय से नए व्यावहारिक और मज़बूत संविधान की ज़रुरत महसूस की जा रही है । भारत रक्षा संगठन ने नया संविधान बनाने के लिए संघर्ष का रास्ता चुनने की घोषणा की है वहीं प्रज्ञा संस्थान और राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन भी नए संविधान का पक्षधर है ।

गणराज्य के जिस संविधान को हमने 26 जनवरी 1950 को अँगीकार किया था , बदलते सामाजिक और आर्थिक दौर में उसकी प्रासंगिकता खत्म हो चली है । ऎसी आवाज़ उठाने वाले भारतीय संविधान के 59 साल के सफ़र को विफ़ल करार देते हुए नए संविधान की माँग कर रहे हैं ।इनमें कुछ संगठन शामिल हैं , तो कुछ संविधान विशेषज्ञ ।

सच तो यह भी है कि जो संविधान हमें मिला वह आज़ादी के आंदोलन के दौरान घोषित स्वतंत्र भारत के लक्ष्य के अनुरुप नहीं था । महात्मा गाँधी ने भी ग्राम स्वराज की ओर बढने की बात को संविधान में शामिल नहीं करने पर कड़ी आपत्ति की थी । वास्तव में संविधान समग्र रुप से भारतीय स्वभाव और तासीर से मेल नहीं खाने के कारण असहज हो गया और धीरे-धीरे पूरा तंत्र बीमार होता चला गया । आज हालत ये है कि जन और तंत्र के बीच की खाई दिन ब दिन चौड़ी होती जा रही है ।

गौर से देखा जाए तो आमजन को केवल मत डालने का अधिकार दिया गया है । शासन में उसे किसी भी तरह की भागीदारी नहीं दी गई और ना ही उसकी कोई भूमिका तय की गई । संविधान से जुड़े प्रश्‍नों की फ़ेहरिस्त लगातार लम्बी होती जा रही है , जिनका उत्तर हमारे संविधान में ढूँढ पाना नामुमकिन होता जा रहा है । इनके लिए या तो संशोधन करना पड़ता है या फ़िर कोई व्यवस्था देने के लिए न्यायालय को आगे आना पड़ता है । कई मर्तबा संसद अपने मन मुताबिक प्रक्रिया शुरु कर देती है । संविधान से स्पष्ट दिशानिर्देश नहीं मिलने के कारण आज गणतंत्र पटरी से उतर गया है । चारों तरफ़ अफ़रा-तफ़री , अराजकता तथा अँधेरगर्दी का बोलबाला है ।

संविधान का पहला संशोधन 1951 में किया गया और अब तक 90 से ज़्यादा संशोधनों का विश्‍व कीर्तिमान बन गया है , जबकि सवा दो सौ साल पुराने अमेरिकी संविधान में अब तक महज़ 26 बदलाव किये गये हैं । दर असल जिस संविधान की दुहाई देते हम नहीं थकते , उसकी सच्चाई यही है कि यह ईस्ट इंडिया कंपनी के दौर और उसके बाद अँग्रेज़ सरकार के कानूनों का ही विस्तारित रुप है । कुछ लोग इसे 1773 के रेग्युलेशन एक्ट से लेकर 1935 के भारतीय शासन अधिनियम तक का मिलाजुला रुप बताते हैं ।

राजनीति के अपराधीकरण , चाँद-फ़िज़ा जैसे मामलों से समाज में बढती अराजकता और आरक्षण से फ़ैलते सामाजिक विद्वेष के मूल में कहीं ना कहीं संविधान का लचीलापन और मौन ही ज़िम्मेदार है । शासन - प्रशासन में बढ़ते भ्रष्टाचार और देश में कानून का राज कायम कराने में नाकाम न्याय व्यवस्था से राष्ट्रीय चरित्र का संकट खड़ा हो गया है ।

अपना दायित्व भूलकर दूसरे के काम में दखलंदाज़ी के बढ़ते चलन ने देश में असंतुलन और निरंकुशता का माहौल बना दिया है । बदलते दौर में संविधान में छिटपुट बदलाव करते रहने की बजाय सख्त और सक्षम कानून बनाने की ज़रुरत है । यह काम वक्त रहते कर लिया जाए , तो देश की तस्वीर और तकदीर भी सुनहरे हर्फ़ों में लिखी जा सकेगी । "एक मुल्क -एक कानून" ही देश में समरसता का माहौल बना सकता है । सभी वर्गों को न्याय के तराज़ू पर बराबरी से रखकर ही सांप्रदायिकता के दानव से छुटकारा मिल सकता है ।

मैं तो बेचैन हक़ीक़त को ज़ुबाँ देता हूँ ।
आप कहते हैं बग़ावत को हवा देता हूँ ।
निज़ाम कैसा ये खूशबू को नहीं आज़ादी ?
सुर्ख फ़ूलों को दहकने की दुआ देता हूँ ।

शनिवार, 14 मार्च 2009

अब बाघिनें भी चलीं ससुराल.........


बाघों का कुनबा बढ़ाने की अफ़लातूनी कवायद से मध्यप्रदेश के प्रकृति प्रेमी खासे नाराज़ और वन्य जीव विशेषज्ञ हैरान हैं । बाघों की तादाद बढाने के लिए शुरु की गई मुहिम को लेकर कई तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं । लेकिन वन विभाग के आला अफ़सरान इन आपत्तियों को सिरे से खारिज कर बाघों की संख्या बढाने की दुहाई दे रहे हैं । ये और बात है कि जब से प्रोजेक्ट टाइगर शुरु हुआ है बाघों की मौत का सिलसिला तेज़ हो गया है । गोया यह परियोजना बाघों की मौत सुनिश्चित करने के लिए ही बनाई गई है ।

हेलीकॉप्टर से बाघिन पहुँचाने की परियोजना सरिस्का के बाद अब मध्यप्रदेश में भी शुरु की गई है । लेकिन परियोजना का उद्देश्य अपनी मोटी बुद्धि में तो घुसता ही नहीं । इधर प्रदेश में बाघों की वंशवृद्धि के लिए नई तरकीबें आज़मायी जा रही हैं , उधर बाघों की मौतों के बढते ग्राफ़ ने तमाम सवाल भी खड़े कर दिये हैं ।

हाल ही में सुरक्षा के सख्त इंतज़ाम के बीच वायुसेना के उड़नखटोले से बाघिन को पन्ना लाया गया । कान्हा नेशनल पार्क में सैलानियों को लुभा रही बाघिन अब अपने पिया के घर पन्ना नेशनल पार्क की रौनक बन गई है । इससे पहले तीन मार्च को बाँधवगढ़ टाइगर रिज़र्व में गुमनाम ज़िन्दगी गुज़ार रही बाघिन सड़क के रास्ते पन्ना पहुँची । पन्ना के बाघ महाशय के लिए पाँच दिनों में दो बाघिन भेजकर वन विभाग योजना की सफ़लता के "दिवा स्वप्न” देख रहा है ।

मध्यप्रदेश में आए दिन बाघों के मरने की खबरें आती हैं । पिछले हफ़्ते कान्हा नेशनल पार्क में एक बाघ की मौत हो गई । वन विभाग ने स्थानीय संवाददाताओं की मदद से इस मौत को दो बाघों की लड़ाई का नतीजा बताने में ज़रा भी वक्त नहीं लगाया । वीरान घने जंगल में मरे जानवर की मौत के बारे में बिना किसी जाँच पड़ताल के तुरंत उसे बाघों का संघर्ष करार दे देना ही संदेह की पुष्टि का आधार बनता है । खैर , वन विभाग के जंगल नेताओं और अधिकारियों की चारागाह में तब्दील हो चुके हैं , अब इसमें कहने- सुनने के लिए कुछ भी बाकी नहीं रहा ।

पिछले दो माह के दौरान कान्हा में बाघ की मौत की यह तीसरी घटना है । इसी अवधि में बाँधवगढ़ टाइगर रिज़र्व में भी बाघ की मौत हो चुकी है । बुधवार को इंदौर चिड़ियाघर में भी "बाँके" नाम के बाघ ने फ़ेंफ़ड़ों में संक्रमण के कारण एकाएक दम तोड़ दिया । भोपाल के राष्ट्रीय वन विहार में भी अब तक संभवतः तीन से ज़्यादा बाघों की मौत हो चुकी हैं । पन्ना नेशनल पार्क में बाघों की तादाद तेज़ी से घटी है । वर्ष 2005 में यहाँ 34 बाघ थे । इनमें 12 नर और 22 मादा थीं । 2006-2007 की भारतीय वन्यजीव संस्थान देहरादून की गणना में यह आँकड़ा 24 रह गया ।

बाघिन को स्थानांतरित करने की मुहिम पर स्थानीय लोगों ने ही नहीं , देश के जानेमाने वन्यजीव विशेषज्ञों ने भी आपत्ति उठाई है । उन्होंने प्रधानमंत्री , मुख्यमंत्री और प्रधान मुख्य वन संरक्षक को खत लिखकर अभियान रोकने की गुज़ारिश की थी । वन्य संरक्षण से जुड़े विशेषज्ञ बृजेन्द्र सिंह ,वाल्मिक थापर , डॉक्टर उल्हास कारंत , डॉक्टर आर. एस. चूड़ावत , पी. के. सेन , बिट्टू सहगल , फ़तेह सिंह राठौर और बिलिन्डा राइट ने बाघिन को बाँधवगढ़ से पन्ना ले जाने के बाद 7 मार्च को पत्र भेजा था । इसमें राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण और जानेमाने बाघ विशेषज्ञों से इस मुद्दे पर राय मशविरा नहीं करने पर एतराज़ जताया गया है ।

विशेषज्ञों ने वन कानून और अपने अनुभव के आधार पर कई अहम मुद्दे रखे हैं , जिनके मुताबिक पन्ना की मौजूदा परिस्थितियाँ बाघिनों के स्थान परिवर्तन के लिए कतई अनुकूल नहीं हैं । साथ ही ऎसा मुद्दा भी उठाया है जो वन विभाग की पूरी कवायद पर ही सवालिया निशान लगाता है । पत्र में पिछले एक महीने में पन्ना टाइगर रिज़र्व में किसी भी बाघ के नहीं दिखने का ज़िक्र किया गया है ।

हालाँकि पूरी कवायद फ़िलहाल अँधेरे में तीर चलाने जैसी है । जो सूरते हाल सामने आए हैं , उसके मुताबिक वन विभाग ही आश्‍वस्त नहीं है कि पन्ना में कोई बाघ बचा भी है या नहीं ....? तमाम विरोध और भारी मशक्कत के बीच दो बाघिनें पन्ना तक तो पहुँच गईं , मगर नेशनल पार्क में नर बाघ होने को लेकर वन विभाग भी संशय में है । दरअसल पार्क का इकलौता नर बाघ काफ़ी दिनों से नज़र नहीं आ रहा है ।

प्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक डॉक्टर पी. बी. गंगोपाध्याय का कहना है कि ज़रुरी हुआ तो एक-दो नर बाघ भी पन्ना लाये जा सकते हैं । बाघों की मौजूदगी का पता लगाने के लिए पिछले दिनों भारतीय वन्यजीव संस्थान ने कैमरे लगाये थे , जिनसे पता चला कि पार्क में सिर्फ़ एक ही बाघ बचा है ।

बाघ संरक्षण के क्षेत्र में काम कर रहे बाँधवगढ़ फ़ाउंडेशन के अध्यक्ष पुष्पराज सिंह इस वक्त बाघिन के स्थानांतरण को जोखिम भरा मानते हैं । गर्मियों में पन्ना के जलाशय सूख जाने से बाघों को शाकाहारी वन्यजीवों का भोजन मिलना दूभर हो जाता है । ऎसे में वे भटकते हुए गाँवों के सीमावर्ती इलाकों में पहुँच जाते हैं और कभी शिकारियों के हत्थे चढ़ जाते हैं या फ़िर ग्रामीणों के हाथों मारे जाते हैं । कान्हा की बाघिन को पन्ना ले जाने से रोकने में नाकाम रहे वन्यप्राणी प्रेमियों ने अब बाघिन की सुरक्षा को मुद्दा बना लिया है । अधिकारियों की जवाबदेही तय कराने के लिए हाईकोर्ट में अर्ज़ी लगाई गई है ।

जानकारों का ये तर्क एकदम जायज़ लगता है कि पन्ना को सरसब्ज़ बनाने का सपना देखने और इसकी कोशिश करने का वन विभाग को हक तो है , मगर साथ ही यह दायित्व भी है कि वह उन कारणों को पता करे जो पन्ना से बाघों के लुप्त होने का सबब बने । बाहर से लाये गये बाघ-बाघिनों की हिफ़ाज़त के लिहाज़ से भी इन कारणों का पता लगना बेहद ज़रुरी हो जाता है ।

मध्यप्रदेश के वन विभाग के अफ़सरों की कार्यशैली के कुछ और नमूने पेश हैं ,जो वन और वन्य जीवों के प्रति उनकी गंभीरता के पुख़्ता सबूत हैं -
सारे भारत में वेलंटाइन डे को लेकर हर साल बवाल होता है , लेकिन वन विभाग के उदारमना अफ़सरों का क्या कीजिएगा जो वन्य प्राणियों के लिए भी "वेलंटाइन हाउस" बनवा देते हैं । भोपाल के वन विहार के जानवर पर्यटकों की आवाजाही से इस कदर परेशान रहते हैं कि वे अपने संगी से दो पल भी चैन से मीठे बोल नहीं बोल पाते । एकांत की तलाश में मारे-मारे फ़िरते इन जोड़ों ने एक दिन प्रभारी महोदय के कान में बात डाल दी और उन महाशय ने आनन-फ़ानन में तीन लाख रुपए ख़र्च कर इन प्रेमियों के मिलने का ठिकाना "वेलंटाइन हाउस" खड़ा करा दिया । कुछ सीखो बजरंगियों,मुथालिकों,शिव सैनिकों ....। प्रेमियों को मिलाने से पुण्य मिलता है और अच्छी कमाई भी होती है ।

इन्हीं अफ़सर ने वन्य प्राणियों की रखवाली के लिए वन विहार की ऊँची पहाड़ी पर दस लाख रुपए की लागत से तीन मंज़िला वॉच टॉवर बनवा दिया । भोपाल का वन विहार यूँ तो काफ़ी सुरक्षित है , लेकिन जँगली जानवर होते बड़े चालाक हैं । वन कर्मियों की नज़र बचा कर कभी भालू , तो कभी बंदर , तो कभी मगर भोपालवासियों से मेल मुलाकात के लिए निकल ही पड़ते हैं । तिमँज़िला वॉच टॉवर पर टँगा कर्मचारी बेचारा चिल्लाता ही रह जाता है ।

बुधवार, 11 मार्च 2009

एनडीए के बिखराव से उलझन में आडवाणी

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कमज़ोर नेता और खुद को लौह पुरुष के तौर पर पेश करने वाले लालकृष्ण आडवाणी का तिलिस्म टूट रहा है । प्रधानमंत्री के रुप में देश का नेतृत्व सम्हालने का ख्वाब सँजोये बैठे आडवाणी सर्वमान्य नेता बनते नज़र नहीं आ रहे । एक-एक कर घटक दल छिटक रहे हैं और राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन शीशे की मानिंद दरक रहा है । पिछली मर्तबा बाईस दलों के भरे पूरे कुनबे वाले एनडीए को अब छः घटकों को साथ रखने में भी पसीने छूट रहे हैं । लगता है कि एनडीए के सदस्य आडवाणी की रहनुमाई में अपना कोई भविष्य नहीं देख रहे हैं ।

आडवाणी के खैरख्वाह माने जाने वाले बालासाहेब ठाकरे ने जिस तरह बेरुखी अख्तियार की है , वो बीजेपी के लिए निराशाजनक और अन्य लोगों के लिए चौंकाने वाली है । हाल में ठाकरे ने मुम्बई आए आडवाणी को मिलने का वक्त नहीं देकर अपना रुख काफ़ी हद तक साफ़ कर दिया । शिवसेना ने मराठी मानुष शरद पवार को प्रधानमंत्री बनाने के मुद्दे पर कड़ा रवैया अपनाकर बीजेपी को तगड़ा झटका दिया है । आमची मुम्बई और मराठी मानुष का नारा उछालकर राजनीतिक पायदान चढी शिवसेना ने प्रधानमंत्री पद पर पवार का नाम बढा कर फ़िर प्रांतवाद का ओछा दाँव खेला है ।

उधर , गठबंधन के दूसरे बड़े दल बीजेडी ने सीटों के सवाल पर दोस्ती से किनारा कर लिया है । हालाँकि ऊपरी तौर पर महज़ सीटों के तालमेल का विवाद ही नज़र आता है , लेकिन पर्दे के पीछे कँधमाल की घटना सहित कई अन्य मामलों ने भी आपसी रिश्तों की खटास को कड़वाहट में बदल दिया है । करीब ग्यारह साल पुराना साथ छोड़कर नवीन पटनायक ने अब नये दोस्तों का हाथ थाम लिया है । दक्षिणपंथियों से मोहभंग के बाद पटनायक का झुकाव वामपंथी विचारधारा की ओर होता नज़र आ रहा है । बीजू जनता दल ने अब भगवा चोला उतार कर लाल सलाम की तैयारी कर ली है ।

ये सवाल उठाया जा सकता है कि आस्ट्रेलियाई पादरी ग्राहम स्टेन्स को ज़िन्दा जलाये जाने से लेकर कँधमाल तक उड़ीसा में ईसाइयों पर ज़्यादती की वारदात बीजेडी के शासनकाल में लगातार होती रही हैं । ईसाइयों पर हमलों की बढती घटनाओं को लेकर पटनायक सरकार को कटघरे में खड़ा करने वाले वामपंथी आज उनके हमराह बन गये हैं । इस नज़रिये से नवीन पटनायक का बीजेपी का दामन छोड़कर वामदलों से पींगें बढाना राजनीतिक अवसरवादिता का ताज़ातरीन उदाहरण लगता है ।

कभी नरेन्द्र मोदी तो कभी भैरोंसिंह शेखावत की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी से भाजपा की अँदरुनी राजनीति में काफ़ी समय तक खलबली रही । लेकिन ऎन चुनाव के वक्त एनडीए में मची भगदड़ को महज़ सीटों के बँटवारे का विवाद कहकर खारिज नहीं किया जा सकता । ये केवल सीटों की सौदेबाज़ी से उपजी बौखलाहट नहीं है । भाजपा और उसके सहयोगी दलों के सत्ता में पहुँचने और छाया प्रधानमंत्री रह चुके आडवाणी के प्रधानमंत्री बनने के रास्ते में कई अड़चनें साफ़ दिखाई देती हैं ।

वर्ष 2004 में जनता ने जब एनडीए को बाहर का रास्ता दिखाया तो अन्नाद्रमुक , तेलुगूदेशम , तृणमूल काँग्रेस ने भाजपा से किनारा कर लिया । इससे पहले नेशनल कॉन्फ़्रेंस ,एलजेपी, डीएमके , एमडीएमके और पीएमके जैसी पार्टियों ने भी बारी- बारी से बीजेपी का साथ छोड़कर नई राहें ढूँढ लीं । ऎसा मालूम होता है कि राष्ट्रीय पार्टियों पर क्षेत्रीय दलों के हावी होने की राजनीति का चलन बढ़ रहा है ।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि शिवसेना और बीजेडी के झटके के बाद जनता दल (यू) जैसे कई छोटे दलों की सीटों की सौदेबाज़ी की ताकत और बढ जाएगी । लेकिन इसके साथ ही बीजेपी को यह भी स्वीकार करना होगा कि लालकृष्ण आडवाणी तमाम क्षेत्रीय दलों के लिए वो नाम नहीं जिस पर वे अटल बिहारी वाजपेयी की तरह बिना किसी हीलाहवाले मंज़ूरी दे दें । लाख टके का सवाल है कि क्या एनडीए का बिखराव आडवाणी के बरसों पुराने ख्वाब की तामीर में खलल पैदा करेगा..... ? कहीं ऎसा ना हो कि प्रधानमंत्री पद के ख्वाहिशमंद आडवाणी को "प्यासा" फ़िल्म के मशहूर नग्मे " देखी ज़माने की यारी ,बिछड़े सभी बारी - बारी " से ही दिल बहलाना पड़े...........।

सोमवार, 9 मार्च 2009

प्यासे कंठ और तर होते बाग़ - बागीचे

दुनिया भर में भूमिगत जल का स्तर तेजी से घट रहा है और विकासशील देशों में तो स्थिति बेहद गंभीर है । इन देशों में जल स्तर गिरने की रफ़्तार लगभग तीन मीटर प्रति वर्ष है । प्रदेश के अधिकाँश हिस्सों में भू - जल स्तर गिरता ही जा रहा है । मॉनसून की बेरुखी और प्रचंड गर्मी के कारण पानी के वाष्पीकरण में तेज़ी आई है । मार्च के पहले हफ़्ते में ही भोपाल के तापमान ने 38 डिग्री सेल्सियस की लम्बी छलाँग लगाई है । बड़ी झील पहले ही हाथ खड़े कर चुकी है । ऎसे में आया है होली का त्योहार .......। भोपाल वासियों की प्यास बुझाने का ज़िम्मा सम्हाल रहे नगर निगम के हाथ - पाँव भी फ़ूल गये हैं । लोगों से सूखी होली खेलने का गुज़ारिश की जा रही है । निगम ने जनता को पानी के संकट की गंभीरता का एहसास कराने के लिए आज एक विज्ञापन प्रसारित किया है ।

दूसरी तरफ़ भोपाल के नए नवाब ( बाबूलाल गौर) शहर को गर्मियों में भी चमन बनाने पर आमादा हैं । हाल ही में उन्होंने हैदराबाद का दौरा किया और पाया कि वहाँ के निज़ाम की मखमली घास भोपाल की घास की बनिस्पत बेहद नर्म है , सो हैदराबादी घास शहर में लगाने का फ़रमान जारी कर दिया । भरी गर्मी में लाखों रुपए खर्च करके घास मँगाई गई है । अब लाखों की घास के रखरखाव और बचाव पर करोड़ों रुपए खर्च होंगे । लेकिन शहर के व्यस्ततम लिंक रोड नम्बर दो पर लग रही इस मुलायम घास पर चलने का मज़ा लेने के लिए लोगों को अपनी जान जोखिम में डालना ही होगी । वजह ये कि मखमली घास फ़ुटपाथ पर नहीं रोड डिवाइडर पर लगाई गई है । गौर साहब शहर में सौ नए बाग - बागीचे बनाने की योजना का खुलासा भी कर चुके हैं । अँधेर नगरी - चौपट राजा .......।

भोपाल में दो दिन में एक बार औसतन करीब 400-500 लीटर पानी सप्लाई किया जा रहा है । तीखी गर्मी में जब लोगों के प्यासे कंठ को पानी मिलना दुश्‍वार हो रहा है , तब बागीचे सजाने के जुनून को क्या कहा जाए ? वैसे मेरी कॉलोनी में भी पिछले चार सालों से राजपरिवार ( बीजेपी ) के प्रादेशिक स्तर के पदाधिकारी रहते हैं ।

उनके घर के सामने के मैदान पर कभी बच्चे खेला करते थे , मगर नेताजी के सरकारी खर्च पर बागीचा सजाने के शौक ने बच्चों से खेल का मैदान छीन लिया । अब बच्चे उस पार्क में खेल नहीं सकते , बुज़ुर्गों की तरह केवल बैठ सकते हैं ।

पार्क में लगे पौधों और घास को तर रखने के लिए कोलार की मेन पाइप लाइन में अवैध रुप से मोटी पाइप डलवा कर पानी लिया जा रहा है । मगर पार्क बड़ा और गर्मी तेज़ है , इसलिए पौधों की प्यास बुझाने के लिए नगर निगम के टेंकर भी कीचड़ हो जाने की हद तक मैदान की तराई में जुटे हैं । लोग प्यासे मरें तो क्या .....? आधुनिक युग के इन राजाओं के सभी शौक पूरे होना ही चाहिए , आखिर लोकतंत्र है । लोकशाही में जनता की सेवा का बेज़ा फ़ायदा उठाने की कूव्वत अगर नेता अपने में पैदा नहीं कर पाए , तो धिक्कार है ऎसे प्रजातंत्र और ऎसी नेतागीरी पर ....। आखिर कभी समझाकर ,कभी डराकर और कभी धमकाकर हर आवाज़ उठाने की कोशिश का गला दबाना ही तो प्रजातंत्र है ।

रविवार, 8 मार्च 2009

होली की अग्नि में भस्म होते खटमल........

बाज़ार से लौटते वक्त आज सड़क किनारे बैठे मटके वालों के पास बड़बूले ( गोबर की बनी आकृतियाँ) की माला देखकर बचपन की कई यादें आँखों के सामने तैर गईं । होली का डाँडा गड़ते ही हमें ज़्यादा से ज़्यादा गोबर इकट्ठा करने की हिदायत मिल जाती थी । पूरे मोहल्ले में लड़कियों के बीच होड़ लग जाती थी कौन कितनी बड़ी माला तैयार करेगा । हर रोज़ गोबर की तलाश , फ़िर राख बिछाकर उस पर बड़बूले तैयार करने , उन्हें सहेजने , उलट- पलट कर सुखाने में वक्त कब गुज़र जाता , पता ही नहीं चलता था ।

हर रोज़ माँ बताती , तीन भाई यानी तीन मालाएँ । इतना ही नहीं माला की सजावट के लिए तरह - तरह की आकृतियाँ - जीभ , कटी जीभ , शकरपारा , पान का पत्ता ,कटा पत्ता । भाइयों की रक्षा की कामना से बनाई गई ढाल और तलवार , जिसे बड़े ही जतन और मनोयोग से आटे ,हल्दी , कुमकुम से सजाया जाता था । दो दियों के बीच गेंहूँ के कुछ दाने भरकर , ऊपर से गोबर लगा कर नारियल की शक्ल में ढाला जाता था । होलिका की पूजा की थाली में ये सभी चीज़ें सजाई जाती थीं ।

साल दर साल यह प्रक्रिया धीरे - धीरे शिथिल होती गई और अब तो लगभग खत्म ही हो चुकी है । ना गाय - भैंसे हैं और गोबर मिल भी जाए तो वक्त कहाँ है । बड़े की तो छोड़ों दस साल के छोटे बेटे की सोच भी "आधुनिक" है , उन्हें अपनी माँ के "परंपरा प्रेम" पर घनघोर आपत्ति है । लेकिन इस सबके बीच भी मेरा मन मुझे बार - बार वह सब याद दिलाता है ,छटपटाता है । समझ नहीं पाती शहर में बड़बूले की दुकान सजने को किस नज़रिये से देखूँ । परंपराएँ लौट रही हैं , इस बात की खुशियाँ मनाऊँ या यह मान कर संतोष कर लूँ कि टूटती ही सही अब भी कुछ साँसें बाकी हैं हमारी लोक परंपराओं की ...।

होली प्रकृति परिवर्तन का समारोह है । प्रकृति अपने दूषित - जर्जर वस्त्रों को त्याग कर उनका सूर्य की अग्नि में दाह संस्कार करती है । इसी तरह साल भर सांसारिकता के जंजाल में उलझा मानव मन भी मैला हो जाता है । होली अवसर है रंगों की मौज मस्ती के साथ मन का मैल धोने का ...।

मध्यप्रदेश के मालवा और निमाड़ अंचल में होली की अग्नि घर लाने की परंपरा है । लोक मान्यता है कि सब की नज़र बचा कर अँधेरा रहते ही होली की अँगार घर लाने से साल भर समृद्धि बनी रहती है । कम से कम सात दिन तक अग्नि चूल्हे में कायम रहे ,इस बात का खास ख्याल रखा जाता है । इसी तरह होलिका दहन की अग्नि पर गर्म किये गये पानी से बच्चों को नहलाने से गर्मी का मुकाबला करने की क्षमता विकसित हो जाती है । होलिका के आशीर्वाद से निःसंतान दंपतियों के घर आँगन में बच्चों की किलकारियाँ गूँजने की बात को सही बताने वाले भी ढेरों लोग मिल जाएँगे ।

होली में गेंहूँ की बालियाँ सेंक कर खाने का रिवाज़ है । मेरी माँ का कहना है कि इससे आँत और दाँत ,दोनों मज़बूत होते हैं । घर का कूड़ा- करकट भी होलिका में जलाने की परंपरा को भी परिवार की सुख-समृद्धि से जोड़कर देखा जाता है । होली की अग्नि खरपतवार और अन्य जंगली पौधों से नुकसान उठा रहे किसानों के लिए भी वरदान है । खेतों में "आग्या" नाम की खरपतवार फ़सल की बढवार में रुकावट डालती है । किसान लोहे के यंत्र "पास" को होली की आग में तपाकर इस खरपतवार पर डालते हैं ,जिससे वह समूल नष्ट हो जाती है ।

ताँत्रिक-माँत्रिक होली की राख का उपयोग बिच्छू का ज़हर उतारने में करते हैं । कई अन्य मँत्रोपचारों में भी यह राख चमत्कारिक असर दिखाती है । रात में चुपके से आपका खून ही नहीं ,नींद और चैन भी चुरा लेने वाली निशाचरी सेना यानी " खटमल" भी होली की अग्नि में हमेशा के लिए भस्म किए जा सकते हैं । तो छॊड़िये खटमलमार दवाओं का चक्कर और आज़मा लीजिए दादी- नानी के ज़माने का नुस्खा़ - धुलेंडी वाले दिन कुछ देर के लिए फ़ाग की मस्ती भूलकर झटपट कुछ खटमलों को ज़िन्दा पकड़िये । इन्हें एक पुड़िया में बाँधकर होली की अग्नि में भस्मीभूत कर दें । कुछ ही दिनों में आप निशाचरी सेना को ढूँढते ही रह जाएँगे..........। लेकिन ये नुस्खा चुनावी खटमलों पर आज तक आज़माया नहीं गया है । कोई कृपालु इस प्रयोग में सफ़लता हासिल करे , तो कृपया हमें ज़रुर सूचित करे ।

शनिवार, 7 मार्च 2009

सवालों के घेरे में माँ और ममता

महिला दिवस की पूर्व बेला में आज दिन भर सभी न्यूज़ चैनल एक नवजात शिशु को माँ की ममता की छाया मिल जाने की दास्तान दिखाते रहे । समाचार चैनलों के स्टूडियो में एंकर पर्सन से बातचीत का दौर चलता रहा । एक मासूम को माँ का प्यार दुलार मिले इससे अच्छी कोई और बात हो ही नहीं सकती । मगर एक प्रश्न अब तक अनुत्तरित है और इतने दिनों से माँ की ममता का सवाल खड़े करने वाले किसी पत्रकार ने भी यह मुद्दा नहीं उठाया ।

जबलपुर की रहने वाली पेशे से अध्यापिका पुष्पा पात्रे का कहना है कि वह पचमढी स्कूल ट्रिप लेकर गई थी । वहाँ उसने एक बच्ची को जन्म दिया और उसे मॄत समझ कर घने जंगल की गहरी खाई में फ़ेंक दिया । कहते हैं , फ़ानूस बनकर जिसकी हिफ़ाज़त हवा करे , वो शमा क्या बुझे जिसे रोशन खुदा करे । उस सुनसान इलाके में अचानक कुछ लोगों ने बच्चे के रोने की आवाज़ सुनकर पुलिस को इत्तला कर दी । ज़ख्मी और बेहद गंभीर हालत में उस नवजात बच्ची को भोपाल के अस्पताल दाखिल कराया गया ।

करीब दो - तीन दिन समाचार चैनलों पर इस बारे में खबर आती रही ,लेकिन माँ का कलेजा नहीं पसीजा । एकाएक पुष्पा पात्रे को एहसास हो गया अपनी भूल का और उन्होंने अस्पताल के चक्कर लगाना शुरु कर दिये । मगर प्रशासन ने कोई ठोस सबूत नहीं होने के कारण उसे बच्ची से नहीं मिलने दिया ।

महिला को भी मीडिया की ताकत का भरपूर अंदाज़ा था और वो बहुत अच्छी तरह जानती थी कि चटपटी और सनसनीखेज़ खबरों की तलाश में भटकने वाला मीडिया ही मददगार हो सकता है । बाइट और ममतामयी माँ के बेहतरीन शॉट के लिए खबरचियों ने महिला की भरपूर मदद की और आखिरकर वह बच्ची से मिलने में कामयाब भी हो गई ।

कोर्ट ने तीन महीने के लिए बच्ची कथित माँ को सौंपने के आदेश दे दिये हैं । लेकिन सरसरी नज़र से देखें या उस पर बारीकी से गौर करें तो मामला काफ़ी पेचीदा लगता है । आखिर एक शिक्षिका की ऎसी क्या मजबूरी थी जो उसने बच्ची को जाँच -पड़ताल कराये बिना मृत मान लिया । अगर भूलवश ऎसा मान भी लिया तो अपने जिगर के टुकड़े को चाहे मर ही क्यों ना चुका हो क्या कोई इस तरह खाई में फ़ेंक सकता है ?

महिला सरकारी नौकरी में है और रहन - सहन भी अच्छा है । इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता कि वह बच्ची को दफ़नाने में सक्षम नहीं थी । आज एक चैनल पर मैंने पुष्पा पात्रे को कहते सुना कि उनका बेटा इस बारे में सब कुछ जानता था । वह बच्ची के जन्म से लेकर उसे फ़ेंके जाने तक पूरे घटनाक्रम का गवाह रहा है । ऎसे में ये प्रश्‍न और भी गंभीर हो जाता है ।

टूर पर साथ गये अन्य सहकर्मियों को इतने बड़े हादसे के बारे में नहीं बताना , उनकी मदद नहीं लेना क्या कुछ अटपटा सा नहीं लगता ? एक विवाहित , आर्थिक रुप से आत्मनिर्भर महिला ने ऎसा कदम क्यों उठाया ? उस पर ऎसा कोई सामाजिक और आर्थिक दबाव नज़र नहीं आता । समाचार चैनल इसे माँ की ममता के तौर पर पेश कर रहे हैं , लेकिन हालाते - हाज़िरा कुछ और ही कहानी कह रहे हैं ।

कहीं कुछ तो पेंच है , कुछ तो ऎसा है जो अनसुलझा है लेकिन किसी भी पत्रकार ने इन अनसुलझे सवालों को ना तो खड़ा किया और ना ही इनके जवाब तलाशने की ज़हमत उठाई । महिला की मदद से मीडिया को कुछ दिनों का मसाला मिल गया और मीडिया के ज़रिये महिला को बच्ची ......। तुम्हारी भी जय - जय ,हमारी भी जय - जय .......। ना तुम हारे ना हम हारे । लेकिन क्या बच्ची को सचमुच ममता का आँचल मिल गया....??????????

शुक्रवार, 6 मार्च 2009

औरत को दया नहीं अधिकार की दरकार

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का ज़िक्र आते ही पता नहीं क्यों विश्व हिंदी दिवस की याद आ ही जाती है । महिला दिवस के बहाने साल में एक दिन ही सही, क़म से क़म महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर कुछ रोशनी तो पड़ती है । कुछ अलग की तलाश में भटकते मीडिया में भी महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर चर्चा होती है ।

महिला दिवस जहाँ एक मौका है महिला शक्ति को सलाम करने का, वहीं रुककर उन महिलाओं के बारे में सोचने का भी मौका है जो बुरी स्थिति में हैं । ये मौका है उन असमानताओं के बारे में सोचने का , जो आज भी समाज में है और हम उसके लिए क्या कर सकते हैं ?

समाज में कहने को क़ायदे-क़ानून ज़रूर हैं लेकिन जब तक महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध करने वालों पर शिकंजा नहीं कसेगा , लोगों की ये मानसिकता नहीं बदलेगी कि आप अपराध कर सकते हैं और फिर बच कर निकल सकते हैं । मानसिकता बदलने के लिए क़ानून, राजनीतिक इच्छाशक्ति, घर का माहौल,मीडिया, फ़िल्म... , हर स्तर पर प्रयास ज़रुरी हैं ।

मैं दुनिया भर की सभी महिलाओं की प्रतिनिधि तो नहीं हूँ लेकिन मेरे आत्मसम्मान को ठेस पहुँचती है जब स्त्री पर 'दुखिया' 'बेचारी' 'वंचित' या फ़िर 'अबला' का ठप्पा लगाया जाता है । मन सवाल कर उठता है , आखिर क्यों मनाते हैं ये दिवस? क्यों नहीं 'अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस' या 'विश्व अंग्रेज़ी दिवस' मनाए जाते ? क्या आज भी महिला और हिंदी "इतनी बेचारी" हैं कि उनकी तरफ़ ध्यान दिलाने के लिए खास मशक्कत की ज़रूरत है ? इसमें शक नहीं है कि आज भी अनगिनत महिलाएँ जीवन की मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं । लेकिन दुखियारे पुरुषों की भी समाज में कमी नहीं । ग़रीबी और अशिक्षा सबसे बड़े अभिशाप हैं और वे लिंगभेद के अनुपात में नहीं उलझते ।

साल में एक बार महिला दिवस मनाने से बेहतर है कि साल के 365 दिन समाज के उन उपेक्षित वर्गों को समर्पित किए जाएँ जिनकी ओर न समाज का ध्यान जाता है और न ही व्यवस्था का । अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की उपलब्धि क्या है? जगह-जगह समारोह, भाषणबाज़ी, बड़े-बड़े संकल्प और वायदे.. ......आखिर में फिर स्थिति जस की तस ।

महिलाओं की स्थिति सुधारने में दो सबसे बड़ी बाधाएँ हैं - कन्या भ्रूण हत्या और दहेज प्रताड़ना । शुरुआत कन्या भ्रूण से की जाना चाहिए । पहले तो उसे जन्म लेने का, जीने का, साँस लेने का अधिकार हो । फिर उसे कुपोषण से बचाया जाए । इसके अलावा उसकी शिक्षा का पूरा इंतज़ाम हो ।

लड़कियों की शिक्षा पर बहुत ज़्यादा ध्यान न दिए जाने के बावजूद आँकड़े बताते हैं कि भारत में महिला डॉक्टरों, सर्जनों, वैज्ञानिकों और प्रोफ़ेसरों की तादाद अमरीका से ज़्यादा है । ज़रा सोच कर देखिए थोड़ा सा सहारा या सहायता महिला को किन ऊँचाइयों तक ले जा सकती है । लेकिन यह सहारा अंतरराष्ट्रीय दिवस मनाने से नहीं मिलेगा । यह मिलेगा आसपास के परिवेश से. घर-परिवार से.....।

भारत की पहली महिला पुलिस अधिकारी और जुझारूपन की मिसाल किरण बेदी ने समाज की कुछ वंचित महिलाओं के बारे में अपने एक लेख में ऐसी ही एक सलाह दी थी वे कहती हैं, "मैने उन तमाम स्त्रियों को समझाया कि जो चीज़ें उन्हें इतनी कोशिशों के बाद मिली हैं, मुझे वे सब मेरे माता-पिता ने जन्म से ही दिया था... इसलिए बेटियाँ वही बनती हैं जो उनके माता-पिता उन्हें बनाना चाहते हैं, और अगर उन महिलाओं के माता-पिता चाहते तो उन्हें भी ये सब मिल सकता था। "

महिलाओं को आरक्षण के खांचे में रखने की कतई ज़रुरत नहीं । उन्हें सामाजिक समानता चाहिए । देश और समाज में हर स्तर पर संतुलन कायम रखने के लिए स्त्रियों को दया की नहीं अधिकार की दरकार है । कन्या भ्रूण हत्या रोकने में भी स्त्रियों को ही दृढता दिखाना होगी । माँ के मज़बूत इरादों से टकराकर कोई भी बेटी की नन्हीं जान को धड़कने से नहीं रोक सकता । औरतों के वजूद को समझने और उन्हें आगे बढने के पर्याप्त अवसर देकर ही महिला दिवस को सार्थक बनाया जा सकता है ।

क़ैफ़ी आज़मी साहब की नज़्म ’औरत’ के कुछ हिस्से -

तू फ़लातूनो-अरस्तू है तू ज़ुहरा परवीं
तेरे क़ब्ज़े में है गर्दूं , तेरी ठोकर में ज़मीं
हाँ उठा ,जल्द उठा पाए - मुकद्दर से ज़बीं
मैं भी रुकने का नहीं ,वक्त भी रुकने का नहीं
लड़खड़ाएगी कहाँ तक कि सम्हलना है तुझे
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे।

गुरुवार, 5 मार्च 2009

भगोरिया की मस्ती में जीवन का उल्हास

ंगारों से दहकते टेसू के फूलों और रंग-गुलाल के बीच मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी इलाकों में इन दिनों प्रणय पर्व भगोरिया की धूम है झाबुआ , आलीराजपुर , खरगोन और धार ज़िलों के हाट-बाजार में आदिवासी युवक-युवतियाँ जिंदगी का एक नया रंग तलाशते नजर आते हैं



भगोरिया नाम है उस प्रेम पर्व का , जो मूल आदिवासी समाज की अनोखी और विशिष्ट संस्कृति से रुबरु होने का मौका देता है भगोरिया आदिवासियों की पारंपरिक संस्कृति का आईना है। होली के सात दिन पहले से सभी हाट-बाज़ार मेले का रुप ले लेते हैं और हर तरफ बिखरा नजर आता है फागुन की मस्ती और प्यार का रंग

भगोरिया पर्व चार मार्च से शुरु हो चुका है होलिका दहन (दस मार्च) तक चलने वाले इस सांस्कृतिक उत्सव के लिए झाबुआ और आलीराजपुर क्षेत्र में 52 से अधिक स्थानों पर धूम मची रहेगी। वालपुर , बखतगढ़ और छकतला के मेलों में मध्यप्रदेश के अलावा गुजरात और राजस्थान के सीमावर्ती गाँवों से भी लोग पहुँचते हैं झाबुआ और आलीराजपुर के अलावा सौण्डवा , जोबट , कट्ठीवाड़ा , नानपुर उमराली , भाबरा और आम्बुआ की भगोरिया हाट में स्थानीय ही नहीं, देशी - विदेशी सैलानियों का जमावड़ा भी लगता है

भगोरिया पर लिखी कुछ किताबों के अनुसार राजा भोज के समय लगने वाले हाटों को भगोरिया कहा जाता था। उस समय दो भील राजाओं कासूमार औऱ बालून ने अपनी राजधानी भगोर में विशाल मेले औऱ हाट का आयोजन करना शुरू किया धीरे-धीरे आस-पास के भील राजाओं ने भी इन्हीं का अनुसरण करना शुरू किया जिससे हाट और मेलों को भगोरिया कहने का चलन बन गया हालाँकि , इस बारे में लोग एकमत नहीं हैं




ऎसी भी मान्यता है कि क्षेत्र का भगोर नाम का गाँव देवी माँ के श्राप के कारण उजड़ गया था वहाँ के राजा ने देवी की प्रसन्नता के लिए गाँव के नाम पर वार्षिक मेले का आयोजन शुरु कर दिया। चूँकि यह मेला भगोर से शुरू हुआ, इसलिए इसका नाम भगोरिया रख दिया गया। वैसे इसे गुलालिया हाट यानी गुलाल फेंकने वालों का हाट भी कहा जाता है।


भील, भिलाला एवं पटलिया जनजाति अपनी परंपरा के अनुसार उत्साह से नाचते-गाते हुए भगोरिया हाट में आते हैं इस पर्व की खास बात ये भी है कि आदिवासी अपनी जन्मभूमि , अपने गाँव से कितनी ही दूर क्यों हो, लेकिन भगोरिया के रुप में माटी की पुकार पर वो "अपने देस" दौड़ा चला आता है पलायन कर चुके आदिवासी इस पर्व का आनंद लेने के लिए अपने घर लौट आते हैं

इसके साथ ही भगोरिया हाट भीलों की जीवन रेखा भी है कहते हैं भील साल भर हाड़ तोड़ मेहनत - मजदूरी करते हैं और भगोरिया में अपना जमा धन लुटाते हैं। यहाँ से ही वे अनाज और कई तरह का सौदा - सुलफ़ लेते हैं यहीं गीत-संगीत और नृत्य में शामिल हो मनोरंजन करते हैं।

भगोरिया प्राचीन समय में होने वाले स्वयंवर का जनजातीय स्वरूप है इन हाट-बाजारों में युवक-युवती बेहद सजधज कर जीवनसाथी ढूँढने आते हैं देवता की पूजा-अर्चना के साथ शुरू होता है उत्सव पूजा के बाद बुजुर्ग पेड़ के नीचे बैठकर विश्राम करते हैं और युवाओं की निगाहें भीड़ में मनपसंद जीवनसाथी तलाशती हैं फिर होता है प्रेम के इजहार का सिलसिला......

युवतियों का श्रृंगार तो दर्शनीय होता ही है, युवक भी उनसे पीछे नहीं रहते लाल-गुलाबी, हरे-पीले रंग के फेटे, कानों में चाँदी की लड़ें, कलाइयों और कमर में कंदोरे, आँखों पर काला चश्मा और पैरों में चाँदी के मोटे कड़े पहने नौजवानों की टोलियाँ हाट की रंगीनी बढाती हैं वहीं जामुनी, कत्थई, काले, नीले, नारंगी आदि चटख-शोख रंग में भिलोंडी लहँगे और ओढ़नी पहने, सिर से पाँव तक चाँदी के गहनों से सजी अल्हड़-बालाओं की शोखियाँ भगोरिया की मस्ती को सुरुर में तब्दील कर देती हैं

आपसी रजामंदी जाहिर करने का तरीका भी बेहद निराला होता है नाच-गाने और मेले में घूमने के दौरान बात बन जाने पर लड़का पहल करता है पान की गिलौरी देकर....... लड़की पान का बीड़ा चबा कर प्रणय निवेदन को स्वीकृति देती है और फ़िर दोनों भाग कर शादी कर लेते हैं।

पहले इस रस्म को निभाने में काफी खून-खराबा होता था लेकिन अब प्रशासन की चुस्त व्यवस्था से पिछले कुछ सालों में कोई भी अप्रिय घटना नहीं हुई। मेलों में अब सशस्त्र बल और घुड़सवार पुलिस की तैनाती से अब मामला हिंसक नहीं हो पाता

इसी तरह यदि लड़का लड़की के गाल पर गुलाबी रंग लगा दे और जवाब में लड़की भी लड़के के गाल पर गुलाबी रंग मल दे तो भी रिश्ता तय माना जाता है। कुछ जनजातियों में चोली और तीर बदलने का रिवाज है। वर पक्ष लड़की को चोली भेजता है। यदि लड़की चोली स्वीकार कर बदले में तीर भेज दे तब भी रिश्ता तय माना जाता है। इस तरह भगोरिया भीलों के लिए विवाह बंधन में बँधने का अनूठा त्योहार भी है।


हाथ में रंगीन रुमाल और तीर - कमान थामे ढोल- मांदल की थाप और ठेठ आदिवासी गीतों पर थिरकते कदम माहौल में मस्ती घोल देते हैं गुड़ की जलेबी और बिजली से चलने वाले झूलों से लेकर लकड़ी के हिंडोले तक दूर-दूर तक बिखरी शोखी पहचान है भगोरिया की


पूरे वर्ष हाड़-तोड़ मेहनत करने वाले आदिवासी युवक-युवती इंतजार करते हैं इस उत्सव का जब वे झूमेंगे नाचेंगे गाएँगे, मौसम की मदमाती ताल पर बौरा जाएँगे। फिर उनके पास 'भगौरिया' भी तो है , निःसंकोच जीवनसंगी चुनने और इस चुनाव का बेलौस इज़हार करने का मौका इस अवसर को उन्होंने मदमाते मौसम में ही मनाना तय किया जो अपने आपमें उत्सव की प्रासंगिकता को और भी बढ़ा देता है।

भगोरिया हाटों में अब परंपरा की जगह आधुनिकता हावी होती दिखाई देने लगी है। चाँदी के गहनों के साथ-साथ अब मोबाइल चमकाते भील जगह-जगह दिखते हैं। ताड़ी और महुए की शराब की जगह अब अंग्रेजी शराब का सुरूर सिर चढ़कर बोलता है। वहीं छाछ-नींबू पानी की जगह कोला पसंद किया जा रहा है। आदिवासी युवक नृत्य करते समय काले चश्मे लगाना पसंद कर रहे हैं वहीं युवतियाँ भी आधुनिकता के रंग में रंगती जा रही हैं।पढ़े-लिखे नौजवान अब भगोरिया में शामिल नहीं होना चाहते वहीं अब वे केवल एक उत्सव के समय अपने जीवनसाथी को चुनने से परहेज भी कर रहे हैं इस दौरान होने वाली शादियों में कमी रही है।

भगोरिया के आदर्शों, गरिमाओं और भव्यता के आगे योरप और अमेरिका के प्रेम पर्वों की संस्कृतियाँ भी फीकी हैं, क्योंकि भगोरिया अपनी पवित्रता, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों की धरोहर से ओत-प्रोत है। इसलिए यह सारे विश्व में अनूठा और पवित्र पर्व है।

आदिवासियों को विकास की मुख्य धारा से पिछड़ा मानने वाले हम लोग यदि इनकी परंपराओं पर बारीकी से नजर डालें तो पाएँगे कि जिन परंपराओं के अभाव में हमारा समाज तनावग्रस्त है वे ही इन वनवासियों ने बखूबी से विकसित की हैं। तथाकथित सभ्य और पढे - लिखे समाज के लिए सोचने का विषय है कि हमारे पास अपनी युवा पीढ़ी को देने के लिए क्या है ? क्या हमारे पास हैं ऐसे कुछ उत्सव जो सिर्फ और सिर्फ प्रणय-परिणय से संबंधित हों ? आदिवासी इस मामले में भी हमसे अधिक समृद्ध हैं।