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गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

घाघ नेताओं के जमघट में बेबस आयोग

चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों के बीच " तू डाल-डाल,मैं पात-पात" का खेल दिन ब दिन तेज़ होता जा रहा है । राजनीतिक दलों की गतिविधियों पर चुनाव आयोग कड़ी निगाह रख रहा है ताकि आचार संहिता का उल्लंघन रोका जा सके । दूसरी तरफ़ पार्टियाँ कानूनी दाँव-पेंच की पतली गलियों से बच निकलने की जुगत में लगी हुई हैं । आयोग के हाथ कानून से बँधे हैं । वैसे भी ठोस सबूतों के अभाव में आयोग के पास कहने-करने को कुछ नहीं रह जाता । पुख्ता सबूतों के अभाव में लोकसभा चुनाव के दौरान जो कुछ भी देखने सुनने मिल रहा है वो हैरान करने वाला है ।

ढ़ीठ नेताओं से निपटने में टी एन शेषन ने जिस तरह की दबंगई दिखाई,उससे बड़े-बड़े सूरमाओं के होश फ़ाख्ता हो गये थे । एम एस गिल ने भी शेषन की तरह तो नहीं मगर नेताओं की नकेल कसने में काफ़ी हद तक कामयाबी पाई । आज चुनाव आयोग के हाथ में आचार संहिता का हथियार तो है लेकिन बिना धार का यह औजार "नककटे की नाक" काट पाने के लायक भी नहीं है । रोतले और नकचढ़े शिकायती बच्चों की तरह राजनीतिक दल हर रोज़ एक दूसरे के खिलाफ़ सैकड़ों शिकायतें लेकर आयोग के पास पहुँच रहे हैं । लेकिन "आगे से नहीं करना" "ध्यान रखना" जैसी समझाइश देकर बात आई-गई कर देने से आचार संहिता मखौल बन कर रह गई है ।

मध्य प्रदेश में हर मोर्चे पर भाजपा से पिछड़ी काँग्रेस ने आखिर चुनाव आयोग के पास शिकायतों का पुलिंदा पहुँचाने में बढ़त बना ही ली । अब तक शिकायतों का अर्धशतक ठोक चुकी काँग्रेस चुनाव मैदान की बजाय काग़ज़ी लड़ाई से ही दिल बहला रही है । गुटबाज़ी और आपसी खींचतान से परेशान काँग्रेसी ज़्यादातर संसदीय क्षेत्रों में मुकाबले से बाहर होने की आशंका के चलते आचार संहिता उल्लंघन का मुद्दा उछाल कर समाचारपत्रों में थोड़ी बहुत जगह कबाड़ने की कोशिश में मगन हैं ।

लगता है चुनाव आयोग की सलाहों को नेताओं ने हवा में उडा़ने की कसम खा रखी है । बदज़ुबानी में एक दूसरे से बाज़ी मार लेने की होड़ में लगे नेता आचार संहिता को हवा में उड़ाने के मामले में एकमत हैं । ऎसे कई मामले हैं जो इस बात की तस्दीक करते हैं कि नेता आयोग को खूब छका रहे हैं । आयोग की सलाह के बाद भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मुंबई में प्रेस कॉन्फ्रेंस की और बेबस आयोग मामले पर विचार की बात कह रहा है । कुछ दिन पहले गृहमंत्री चिदंबरम ने जब प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी तब भी आयोग ने आपत्ति जताई थी । आचार संहिता तोड़ने के मामलों की शिकायत मिलने पर आयोग चेतावनी देकर अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर लेता है और नेता अपनी राह पकड़ लेते हैं ।

आचार संहिता उल्लंघन के मामले में फँसे शिवसेना नेता उद्धव ठाकरे,राजद प्रमुख लालूप्रसाद यादव और बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी के जवाब से चुनाव आयोग संतुष्ट नहीं हैं। इन नेताओं के जवाब पर आयोग ने आपत्ति और अप्रसन्नता जाहिर की है । उप चुनाव आयुक्त आर.बालाकृष्णन ने बताया कि प्रधानमंत्री के बारे में आपत्तिजनक तथा अशोभनीय बयान पर उद्धव के जवाब से असंतुष्ट आयोग ने पार्टी को भी नोटिस जारी किया है । अब महाराष्ट्र के मुख्य निर्वाचन अधिकारी को उद्धव की रैलियों के भाषणों की वीडियोग्राफी कराने और उनकी गतिविधियों पर नजर रखने को कहा गया है ।

वरुण गाँधी और लालू यादव के मामले में दोहरा मानदंड अपनाने के आरोप को खारिज करते हुए आयोग ने दोनों मामलों को अलग माना है । आयोग ने वरुण की टिप्पणी को एक समुदाय और लालू की टिप्पणी को एक व्यक्ति के खिलाफ माना है । लेकिन हाल ही में साइकल पर सवार हुए " मुन्ना भाई" के भाषणों को किस श्रेणी में रखा जाएगा,इस पर आयोग मौन है । वरुण पर रासुका लग सकती है,तो समाजवादी पार्टी के पपेटियर अमरसिंह के इशारे पर अनर्गल प्रलाप करने वाले संजय दत्त के प्रति आयोग के रवैये में नर्मी क्यों ? कहीं ऎसा तो नहीं कि "पहले मारे सो मीर" की तर्ज़ पर संजय दत्त बात को अब इतनी आगे तक ले जा चुके हैं कि उन पर होने वाली कार्रवाई को एक खास नज़रिये से देखा जाएगा । संजय दत्त का पुलिस प्रताड़ना का आरोप और मुसलमान माँ की संतान होने की सज़ा भुगतने का भड़काऊ बयान क्या संकेत देता है ?

वैसे आयोग की एक टिप्पणी काबिले गौर है,जिसमें चुनाव आयोग ने स्पष्ट किया है कि आदर्श आचार संहिता कोई कानून नहीं है। यह एक तरह से नैतिक संहिता है, जिसका मकसद चुनाव में उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों पर दबाव बनाना है। उप चुनाव आयुक्त बालाकृष्णन का कहना है कि आयोग का काम आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन को देखना है पर आदर्श आचार संहिता कोई कानून नहीं है। इसके माध्यम से केवल उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों पर दबाव बनाया जाता है। उन्होंने कहा कि अगर कोई उम्मीदवार आचार संहिता का उल्लंघन करता है और अगर वह संज्ञेय या असंज्ञेय अपराध है तो इस संबंध में भारतीय दंड संहिता या जन प्रतिनिधित्व कानून १९५१ के तहत कार्रवाई होना चाहिए ।

आयोग को सर्वशक्तिमान बनाने की जो मुहिम शेषन ने छेड़ी थी,क्या वह ऎसी लाचारगी भरी बातों से प्रभावित नहीं होंगी ? इस तरह तो चुनाव आयोग को काग़ज़ी शेर कहना भी अतिरंजना ही माना जाएगा,क्योंकि काग़ज़ के शेर के भी दाँत और नाखून होते हैं । चुनाव आयोग की बेबसी खूँखार वन्यजीवों की भीड़ में खड़ी बकरी सी दिखाई देती है ।

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009

सियासत के गलियारों में फ़िल्मी सितारे

बाज़ारवाद और भ्रष्टाचार के कारण अब नेता और अभिनेता के बीच का फ़र्क धीरे - धीरे खत्म होता जा रहा है । रुपहले पर्दे पर ग्लैमर का जलवा बिखेरने वाले अभिनेताओं को अब सियासी गलियारों की चमक-दमक लुभाने लगी है । गठबंधन की राजनीतिक मजबूरियों में अमरसिंह जैसे सत्ता के दलालों की सक्रियता बढ़ा दी है । हीरो-हिरोइनों से घिरे रहने के शौकीन अमरसिंह कब राजनीति करते हैं और कब सधी हुई अदाकारी ,समझ पाना बेहद मुश्किल है । "राजनीतिक अड़ीबाज़" के तौर पर ख्याति पाने वाले अमर सिंह के कारण सियासत और फ़िल्मी दुनिया का घालमेल हो गया है ।

जनसभाओं में लोग देश के हालात और आम जनता से जुड़े मुद्दों पर धारदार तकरीर सुनने के लिये जमा होते हैं , मगर अब चुनावी सभाओं में नेताओं के नारे और वायदों की बजाय बसंती और मुन्ना भाई के डायलॉग की गूँज तेज हो चली है । रोड शो में नेता को फ़ूलमाला पहनाने के लिये बढ़ने वाले हाथों की तादाद कम और अपने मनपसंद अदाकार की एक झलक पाने ,उन्हें छू कर देखने की बेताबी बढ़ती जा रही है । युवाओं की भीड़ जुटाने के लिये सियासी पार्टियाँ फ़िल्मी कलाकारों का साथ पाने की होड़ में लगी रहती हैं ।

लोक सभा चुनावों में इस बार फ़िल्मी सितारों की भरमार देखने को मिल रही है । संसद में सीटें बढा़ने के लिए सियासी पार्टियाँ बढ़-चढ़ कर फ़िल्मी हस्तियों का सहारा ले रही हैं । वैसे फ़िल्मी सितारों का राजनीति में आने का सिलसिला कोई नया नहीं है लेकिन इस बार ये संख्या काफ़ी ज्यादा है । सुपर स्टार तो पार्टियों के दुलारे हमेशा से रहे हैं,मगर अब हास्य कलाकारों और खलनायकों को भी भीड़ जुटाने के लिये जनता के बीच भेजने का सिलसिला भी ज़ोर पकड़ने लगा है ।

देश में उत्तर से लेकर दक्षिण तक फिल्मी हस्तियाँ चुनाव प्रचार में शिरकत कर रही हैं । कुछ फ़िल्मी सितारे चुनाव मैदान में किस्मत आज़माने उतरे हैं जबकि कुछ चुनाव प्रचार करने वाले हैं । दक्षिण में फ़िल्मी कलाकारों के राजनीति में सफ़ल होने के कई उदाहरण मिल जाएँगे । एनटी रामाराव , एम जी रामचंद्रन , जयललिता, रजनीकांत ऎसे नाम हैं , जिन्होंने फ़िल्मी कैरियर में अपार सफ़लता पाने के साथ ही मतदाताओं के दिलों पर भी बरसों राज किया और प्रदेश का तख्तोताज सम्हाला । तेलुगू सिनेमा के सुपरस्टार चिरंजीवी ने पिछले साल ही प्रजा राज्यम पार्टी बनाई थी । वे इस बार दो संसदीय सीटों से चुनाव लड़ेंगे । उनके अलावा एनटी रामाराव के बेटे नंदामुरी बालाकृष्णन, सत्तर और अस्सी के दशक की मशहूर अभिनेत्री जयासुधा और विजया शांति भी चुनाव लड़ने की तैयारी में हैं ।

उत्तर भारत में जनता की भीड़ जुटाने में कई सितारे कामयाब रहे लेकिन संसद के गलियारों में उनकी चमक फ़ीकी पड़ गई । राजेश खन्ना , गोविंदा ,धर्मेन्द्र, अमिताभ बच्चन ने मतदाताओं को निराश किया । वहीं ऎसे सितारे भी हैं जिन्होंने संसद में अपनी सक्रियता से धाकड़ नेताओं को मात दे दी । इनमें सुनील दत्त , हेमा मालिनी , राज बब्बर , विनोद खन्ना के नाम प्रमुखता से आते हैं । उत्तर प्रदेश में इस बार मतदाताओं को कई फिल्मी कलाकारों से रुबरु होने का मौका मिल रहा है । राज बब्बर, मनोज तिवारी और जयाप्रदा चुनाव में हिस्सा ले रहे हैं , वहीं भोजपुरी फ़िल्मों के मशहूर अभिनेता रवि किशन काँग्रेस का प्रचार करते नज़र आएँगे । उनके अलावा गोविंदा और नगमा ने भी महाराष्ट्र में काँग्रेस के लिए प्रचार की हामी भरी है । अक्षय कुमार, सलमान खान और प्रीति ज़िंटा भी काँग्रेस उम्मीदवारों के लिये वोट माँगते दिखाई देंगे ।

दरअसल जनाधार मजबूत करने के लिए राजनीतिक पार्टियाँ फ़िल्मी कलाकारों को टिकट देती रही हैं । आम जनता के बीच उनकी लोकप्रियता को भुनाने के पार्टियाँ रुपहले पर्दे के कलाकारों को अपना प्रतिनिधि बनाने की पहल करती हैं । वैसे देखा जाए तो सामाजिक सरोकार के नाते अगर कोई कलाकार राजनीति में आता है तो ये देश और समाज के लिहाज़ से प्रशंसनीय माना जाएगा ।

एक बड़ा तबका मानता है कि जोश की बजाय होश के साथ सियासत में आने का फ़ैसला लेने वाले कलाकारों का स्वागत होना चाहिए । उनका तर्क है कि अगर पत्रकार आ सकते हैं, किसान आ सकते हैं , तो फ़िल्म स्टार क्यों नहीं आ सकते ? बीजेपी के टिकट पर चुनाव जीत कर केन्द्र में मंत्री पद सम्हालने वाले विनोद खन्ना और शत्रुघ्न सिन्हा का कहना है कि अगर कोई फ़िल्म स्टार अपनी पसंद की पार्टी में शामिल होकर उसका प्रचार करता है तो इसमें कोई बुराई नहीं है क्योंकि उसकी भी अपनी विचारधारा हो सकती है ।

शत्रुघ्न सिन्हा कहते हैं कि आजकल जिस तरह से फ़िल्म स्टार्स राजनीति में आ रहे हैं उसके पीछे वजह ये है कि वे लोकप्रिय होने के साथ ही आर्थिक रुप से मज़बूत भी हैं । ऎसे में राजनीतिक पार्टी पर आर्थिक दबाव नहीं रहता । इसके अलावा फ़िल्म स्टार्स राजनीति में राजकीय सम्मान पाने की लालसा से आते हैं जबकि राजनीतिक पार्टियाँ उनके जरिए ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचना चाहती हैं । इस तरह दोनों ही एक दूसरे की ज़रुरत पूरी करते हैं । वहीं अभिनेता से नेता बने धर्मेंद्र की हिदायत है कि फ़िल्म स्टार अगर राजनीति से दूर ही रहें तो अच्छा है । उनकी राय में अभिनेता को अभिनय तक ही रहना चाहिए और राजनीति में नहीं जाना चाहिए ।

राजनीति से तौबा कर चुके सदी के महानायक भी राजनीति में जाने के अपने फ़ैसले को गलत मानते हैं । एक फिल्मी पत्रिका से बातचीत मे उन्होंने कहा था,"मुझे कभी राजनीति मे नहीं जाना चाहिए था । अब मैंने सबक सीख लिया है । अब आगे और राजनीति नहीं ।" अमिताभ ने सफाई दी कि इंदिरा जी की हत्या के बाद 1985 में वह भावुकता में राजीव का साथ देने के लिए राजनीति मे आ गए थे । "मगर न तो मुझे तब राजनीति आती थी, न अब आती है और न मैं भविष्य में राजनीति सीखना चाहूँगा ।"

तमाम ना नुकुर के बीच एक सच्चाई ये भी है कि समाजवादी पार्टी के नेता अमर सिंह की बच्चन परिवार से करीबी के कारण भले ही अमिताभ तकनीकी रूप से समाजवादी पार्टी के सदस्य न बने हों , लेकिन समाजवादी पार्टी के सियासी जलसों में वे अक्सर दिखाई देते रहे हैं । समाजवादी पार्टी संजय दत्त की "मुन्ना भाई" वाली छबि को भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती । सुप्रीम कोर्ट से चुनाव लड़ने की इजाज़त नहीं मिलने पर संजय दत्त को पार्टी का महासचिव बना दिया गया है । पर्दे पर दूसरे के लिखे डायलॉग की बेहतर अंदाज़ में अदायगी करके वाहवाही बटोरने वाले "मुन्ना भाई" के टीवी इंटरव्यू तो खूब हो रहे हैं ।

मज़े की बात ये है कि हर साक्षात्कार में अमर सिंह साये के तरह साथ ही चिपके रहते हैं और तो और संजय को मुँह भी नहीं खोलने देते । उनसे पूछे गये हर सवाल का उत्तर "अमरवाणी" के ज़रिये ही आता है । शायद कठपुतली की हैसियत भी इससे बेहतर ही होती है , कम से कम वो अपने ओंठ तो हिला सकती है । लगता है यहाँ भी मुन्ना भाई के पर्चे अमरसिंह ही हल कर रहे हैं ,बिल्कुल "मुन्ना भाई एमबीबीएस" फ़िल्म की ही तरह ।

वहीं एक दूसरा वर्ग ऎसा भी है जो चुनावी मौसम में अपने फ़ायदे के लिए फ़िल्मी कलाकारों के इस्तेमाल को जायज़ नहीं मानता । राजनीति के जानकार भी मानते हैं कि राजनीति और फ़िल्मों का रिश्ता काफ़ी पुराना है और ये दोनों एक दूसरे की ज़रुरतों को पूरा करते हैं । पंडित नेहरु के जमाने में भी राजकपूर और नरगिस वगैरह की काँग्रेस से नज़दीकी थी और वो राज्यसभा में भी भेजे गए थे ।

बेशक , इतनी बड़ी संख्या में सितारों की मौजूदगी से चुनाव में चमक - दमक बढ़ गई है । लेकिन इस शोरगुल में आम जनता की ज़िन्दगी से जुड़े बुनियादी मुद्दे कहीं गुम हो गये हैं । बहरहाल यह जमावड़ा देखकर कहा जा सकता है कि जहाँ राजनीतिक पार्टियाँ रुपहले पर्दे के सितारों के सहारे ज्यादा से ज्यादा लोगों को लुभाने और अपनी सीटों की संख्या बढ़ाने की तैयारी में हैं । वहीं ये फ़िल्मी सितारे भी सत्ता के गलियारे में जाने को लेकर काफ़ी उत्साहित दिख रहे हैं ।