बुधवार, 18 मार्च 2009

परायी खुशियों पर थिरकते कदम

करीला की जानकी मैया की कृपा से जुड़ी किंवदंतियाँ दूर - दूर तक मशहूर हैं । अशोकनगर ज़िले के करीला गाँव का जानकी मंदिर हर साल रंगपंचमी पर घुँघरुओं की झनकार और ढ़ोल की थाप से गूँज उठता है । माता जानकी के शरण स्थल और लव-कुश की जन्मभूमि माने जाने वाले करीला के मेले की प्रसिद्धि में लगातार इजाफा हो रहा है। इसी के चलते यहां हर साल पहले की तुलना में ज्यादा श्रद्धालु मां जानकी के दरबार में मनोकामनाओं को लेकर पहुंचने लगे हैं । माँ जानकी की कृपावर्षा से जुड़े किस्से कहने -सुनने वालों की तादाद लाखों में पहुँच चुकी है । मनौती माँगने वालों का सिलसिला साल दर साल बढ़ता ही जा रहा है । अगर कुछ नहीं बदला है तो सिर्फ़ दूसरों की मनौतियाँ पूरी होने की खुशियों में झूम-झूमकर नाचती बेड़नियों की तकदीर ।

कैसी विडम्बना है कि जिन नर्तकियों के पैरों की थिरकन पर रीझ कर जानकी माता मुँह माँगी मुराद पूरी कर देती हैं , उनके अँधेरे जीवन में आज तक उम्मीद की किरण नहीं फ़ूट पाई । करीला के मेले मे इस बार फ़िर एक बेबस माँ ने पेट की खातिर अपनी चौदह साल की बेटी नेहा के पैरों में घुँघरु बाँध दिए । मशाल की रोशनी में माँ और बहन के साथ अपनी कला का प्रदर्शन करते हुए नेहा ने लोगों की खूब दाद बटोरी और भरपूर ईनाम भी पाया ।

हालाँकि नेहा को पढ़ना-लिखना पसंद है ,लेकिन उसकी माँ का कहना भी ग़लत नहीं कि पेट की आग किताबी ज्ञान से नहीं बुझती । उसकी नज़र में पैसा पढ़ाई से बड़ा है और पैसा आता है हुनरमंदी से । इसलिए शायद उसने नेहा को कमसिन उम्र में ही ’राई’ की सारी बारीकियों से वाकिफ़ करा दिया है । पतली कमर की लचक और ढ़ोल की थाप पर अंग-प्रत्यंग की थिरकन उसके परिपक्व राई नृत्यांगना होने की पुष्टि करते हैं ।

दूसरी बार करीला आई नेहा भी मानती है कि मैया के दरबार में नृत्य करने से मुरादें ज़रुर पूरी होती हैं । उसका यह विश्‍वास उधार के अनुभवों पर आधारित है ना कि खुद का तज़ुर्बा । दर्शकों की दाद को सबसे बड़ा ईनाम बताने वाली नेहा के मासूम चेहरे पर झलकता आत्मवि‍श्‍वास बताता है कि उसने नियति के फ़ैसले को पूरी शिद्दत और मज़बूती के साथ मंज़ूर कर लिया है ।

करीला के मंदिर में मन्नत पूरी होने पर ’राई’ कराने की परंपरा है । राई बुँदेलखण्ड का नृत्य है ,जिसमें बेड़नियाँ मशाल की रोशनी में रात पर मृदंग,रमतूला,झंझरा, ढपला,नगड़िया और तासे की धुन पर नाचती हैं । मान्यता है कि इस मंदिर में आकर कोई अपनी मनोकामना के साथ राई कराने का संकल्प ले , तो उसकी इच्छा ज़रुर पूरी होती है । मनौती के वक्त राई नर्तकियों की संख्या कबूलना भी ज़रुरी होता है । यह आँकड़ा एक से लेकर एक सौ एक तक कुछ भी हो सकता है । मनौती पूरी होने पर लोग अपनी हैसियत के मुताबिक बेड़नियाँ नचाते हैं ।

आमतौर पर सीता के साथ श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित की जाती हैं लेकिन इस मंदिर में माता जानकी के साथ ऋषि वाल्मिकी और लव-कुश की प्रतिमाएँ हैं । मेला प्रबंधकों के मुताबिक रंगपंचमी की रात सैकड़ों बेड़नियाँ अपने पैरों की थिरकन को पल भर भी नहीं थमने देतीं । यूँ तो राई किसी भी दिन कराई जा सकती है , मगर श्रद्धालुओं के लिए रंगपंचमी सबसे श्रेष्ठ मुहूर्त होता है ।

बेशक "राई" बेहद खूबसूरत और मनमोहक नृत्य शैली है। मृदंग की थाप और नर्तकी के शरीर की लोच के साथ पैरों की चपलता का अद्भुत सम्मिश्रण माहौल में सुरुर घोल देता है । लेकिन देवी माँ को प्रसन्न करने के लिए बेड़नियाँ नचाने वाला समाज ही उन्हें अच्छी निगाह से नहीं देखता ।

साल में एक दिन मंदिर परिसर में भले ही अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए इस कला के कद्रदान मिल जाएँ , मगर बाकी समय इन कलाकारों को रसिकजनों की खिदमत के लिए वो सब करना पड़ता है जिसे सभ्य समाज वेश्यावृत्ति का नाम देता है । बाली उम्र में नेहा का ’ राई’ नर्तकी के तौर पर पहचान बनाना चिंता का विषय है । साथ ही मन में एक जिज्ञासा भी है कि ईश्‍वर मज़लूमों -मजबूरों की आवाज़ को नज़रअँदाज़ करने का साहस कैसे बटोर पाता होगा...? कला के खरीददार अगर दाम चुका कर खुशियाँ पा सकते हैं , तो कलाकार को ही क्यों इन खुशियों पर हक हासिल नहीं ? क्या ऊपर वाला भी पूँजीवादी व्यवस्था का हामी है...? क्या सिक्कों की खनक बेबस लोगों की आहों- सिसकियों से ज़्यादा तेज़ सुनाई देती है ? सवाल कई , जवाब कोई नहीं, कहीं नहीं , कभी नहीं ...।

6 टिप्‍पणियां:

समयचक्र ने कहा…

बढ़िया आलेख प्रस्तुति . आभार.

अजय कुमार झा ने कहा…

sareethaa jee,
shubh abhivaadan, aapkee lekhanee ne hameshaa kee tarah aaj bhee prabavit kiya.likhtee rahein.

BrijmohanShrivastava ने कहा…

लेख का अंतिम पद बेहद दुखद ,किन्तु यह भी एक समाज है ,एक आस्था है ,एक रिवाज़ है ,तकरीवन लाखौं लोग एकत्रित होते है ,शासकीय स्तर पर व्यवस्था होती है /राई एक लोक नृत्य है ,करीला में बडे पैमाने पर होता है परन्तु बुंदेलखंड में रजवाडों में होली के दूसरे दिन अथवा तीसरे दिन एक कार्यक्रम होता है जिसे हल्ला कहा जाता है और दिन भर और रातभर नाच इनका हुआ करता था / अंतिम पद में जो तथ्य लिखे है वैसा होता नहीं है अपवाद स्वरूप का तो नहीं कहा जा सकता /,यह नृत्य केवल नृत्य तक ही सीमित है /,अब ऐसे तो दुनिया जहान है न जाने कहाँ कहाँ क्या क्या होता रहता है /वाकी यह पूर्ण रूपेण आस्तिक कार्यक्रम है ,इसमें आलोचना की कोई बात वैसे तो है नहीं ,और कोई आलोचना करना चाहे तो बंधन भी नहीं है

बेनामी ने कहा…

बहुत पुराने समय से ही नृत्य पुरुष प्रधान समाज में उनके मनोरंजन के लिए ही होता रहा है. कुछ अपवाद हो सकते हैं जहाँ नृत्य किसी देवी/देवता की उपासना के लिए ही प्रयुक्त हुआ हो. बेडनियों को क्या उनके सांस्कृतिक परंपरा से विमुख किया जा सकता है. ऐसा नहीं की उनके पास विकल्प नहीं है. आपके सुन्दर लेख ने कई प्रश्न खड़े कर दिए हैं. आभार.

विजय तिवारी " किसलय " ने कहा…

"परायी खुशियों पर थिरकते कदम" पढ़ कर एक सुखद अनुभूति हुई सरिता जी .
आलेख में करीला मेले के माध्यम से आपने बुन्देली संस्कृति, राई नृत्य, क्षेत्रीय परिवेश और परंपरा तथा रूढ़वादिता पर जो प्रश्न उठाये हैं और जो जानकारी प्रस्तुत की है, बेहद सराहनीय है. आँखों से तो हर चीज देखी जा सकती है लेकिन आप अपनी लेखनी के माध्यम से जो कार्य कर रहीं हैं इससे भी हमारी संस्कृति और परम्पराओं को संबल और स्थायित्व प्राप्त होता है.
आपके सद्प्रयासों को मेरा नमन
- विजय

विष्णु बैरागी ने कहा…

बहुत ही मार्मिक और कारुणिक प्रस्‍तुति है। लज्‍जाजनक विसंगतियों को सहजता से जीने के लिए भगवान का उपयोग किस तरह कर लेते हैं हम लोग।