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मंगलवार, 3 मार्च 2009

धूमधाम से मनेगा शिवराज का "प्रकटोत्सव"

सामंती युग में राज परिवारों में सालगिरह मनाने का रिवाज़ था । लोग तोहफ़े - नज़राने देकर राजा के प्रति अपनी निष्ठा का मुज़ाहिरा पेश करते थे । अब ज़माना कुछ और है । कहते - कहते ज़ुबान थक गई है , फ़िर भी याद बताना ज़रुरी है कि भारत में अब भी लोकतंत्र बरकरार है । मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री तो इतने विनम्र और सेवाभावी हैं कि वे खुद को हमेशा जनता का सेवक बताते नहीं थकते । उनकी निगाह में जनता ही उनकी भगवान है और वे उस के सच्चे सेवक.....??????

बहरहाल , इस तरह की विनम्रता सिर्फ़ शिवराजजी को ही शोभा देती है । कहते हैं ना कि जिसमें जितनी गुरुता वो उतना विनम्र ..। सो पाँव - पाँव भैया भले ही उड़न खटोला खरीदने की हैसियत वाले हो गये हैं लेकिन विनम्रता का लबादा ओढे रहने में भी वे बेमिसाल हैं ।

अब आते हैं मूल मुद्दे पर । वन - वन भटकने वाले श्रीराम की तुलना में माखन चोर , चितचोर नटखट नटवर नागर , कन्हैया का जन्मदिन बड़े पैमाने पर धूमधाम से मनाने की प्राचीन परंपरा रही है । जय हो .. मीडिया की , जिसकी मेहरबानी से भोलेशंकर के विवाह उत्सव भी पूरे तामझाम के साथ धूमधड़ाके से मनाने की परंपरा भी अब ज़ोर पकड़ने लगी है । लेकिन फ़िर भी थोड़ी कसर तो रह ही गई , शिवशंकर का जन्मदिन धूमधाम से मनाने की । मगर मध्यप्रदेश के शिवराज भी किसी "भोले भंडारी" से कम नहीं । इसलिए पाँच मार्च को प्रदेश के उत्साही भाजपाइयों ने उनका पचासवाँ जन्मदिन हर्षोल्लास से मनाने की तैयारी कर ली है ।

राजसी ठाट बाट से शपथ ग्रहण के बाद अब भाजपा सरकार के मुखिया का जन्मदिन भी शानोशौकत से मनाने के लिए राजधानी के व्यापारियों से सहयोग की गुज़ारिश की गई है । हो सकता है ऎसा ही सहयोग हर छोटे बड़े शहर के व्यापारियों से भी माँगा जा रहा हो । पाँच मार्च को पूरा भोपाल शिवराज का जन्मदिन मनाता दिखे , इसके लिए जगह - जगह होर्डिंग- बैनर लगाने की योजना है । भाजपाइयों ने महाभोज की तैयारी भी की है ।

’ जिसकी जितनी श्रद्धा , उसका उतना चढावा और बदले में उतनी ही परसादी ’ की तर्ज़ पर व्यापारियों से कहा गया है कि वे शकर ,आटा ,चावल सहित अन्य ज़रुरी सामग्री पहुँचायें ।शिवराज के मुख्यमंत्री बनने से पहले तक पाँच मार्च एक गुमनाम तारीख थी लेकिन पिछले तीन सालों से जन्मदिन मनाने की भव्यता के साथ ही इसकी व्यापकता भी विस्तार पा रही है । पिछले साल तीन हज़ार भाजपाई ही " शिवराज जन्मोत्सव " के छप्पन भोग का रसास्वादन कर पाये थे । लेकिन " बर्थ डे ब्वाय " इस मर्तबा चाहे जितनी ना नुकुर कर लें , दस हज़ार कार्यकर्ताओं को "जिमाने" के लिए रसद पानी का इंतज़ाम तो जनता को करना ही होगा ।

जुम्मा - जुम्मा चार दिन नहीं बीते जब शिवराज तामझाम नहीं काम की सीख देते घूम रहे थे । सार्वजनिक मंचों पर फ़ूलमालाओं से होने वाले स्वागत - सत्कार से भी परहेज़ की बात करने वाले शिवराज का इस जन्मोत्सव के बारे में क्या खयाल है ? भई हम तो कुछ नहीं कहेंगे । चुप ही रहेंगे । मन ही मन गुनगुनाएँगे - भये प्रकट कृपाला दीनदयाला , कौसल्या (भाजपा) हितकारी , हर्षित महतारी मुनि मन हारी अदभुत रुप बिचारी ।

बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

मप्र के आदिवासी देशी खेती सीखने जाएँगे परदेस....!

"कोई भरम मत पालिये । साफ़ बात यह है कि लेखक दुनिया नहीं बदलता । वह बदल ही नहीं सकता । दुनिया बदलने वाले दुनिया बदलते हैं ।"

लीजिए साहब , अब मध्य प्रदेश के किसान खेती की बेहतर तकनीक सीखने के लिए सात समुंदर पार भेजे जाएँगे । आदिम जाति कल्याण विभाग आदिवासियों को विदेशों में खेती किसानी सिखाने भेजने की तैयारी में जुट गया है । राज्य के किसान अमेरिका ,चीन ,जापान सहित कई देशों से खेती के गुर सीख कर आएँगे । शुरुआती दौर में दस किसान खरीफ़ मौसम में पंद्रह दिन से एक महीने का प्रशिक्षण लेने भेजे जाएँगे । अधिकारियों का कहना है कि चावल की अच्छी माँग होने के कारण धान की जैविक खेती के बारे में जानकारी दी जाएगी ।

खेती - किसानी के मामले में आज भी भारत कई देशों से आगे है । लोकोक्तियाँ और कहावतें मौसम के मिजाज़ को समझने और उसके मुताबिक फ़सल लेने तक का सटीक ज्ञान देने में सक्षम हैं । अनुभवी किसान हवा का रुख देख कर भाँप जाता है कि बरसात कब- कब होगी और कितनी । इतना ही नही नक्षत्रों और मिट्टी की किस्म से ग्रामीण फ़सल का अनुमान लगा सकते हैं । लेकिन हम अपने देश के वैदिक और पारंपरिक ज्ञान के प्रति हमेशा से लापरवाह रहे हैं । "फ़ॉरेन रिटर्न" की मानसिकता इस कदर हावी है कि देश की चीज़ जब तक विदेशी ठप्पा लगवाकर नहीं आये , हम उसे संदेह की निगाह से ही देखते हैं ।

वैज्ञानिकों ने गायत्री मंत्र के ज़रिए उपचारित बीजों से हैरत में डाल देने वाला फ़सल उत्पादन हासिल होने की बात स्वीकारी है । लोगों की बेरुखी के कारण सड़कों पर पन्नियाँ खा कर दम तोड़ती गायें भी खेती की मूलभूत ज़रुरत में से एक है । गाय का मूत्र और गोबर जमीन की उर्वरा शक्ति बढाता है । साथ ही फ़सलों को नुकसान पहुँचाने वाले अनगिनत जीवाणुओं और कीड़ों की रोकथाम करता है । अनुभवी कहते हैं गौमूत्र के नियमित छिड़काव से पथरीली ज़मीन भी उपजाऊ और भुरभुरी हो जाती है ।

गायत्री शक्तिपीठ ने खेती को भारतीय पद्धति से करने के कई सफ़ल प्रयोग किये हैं और जैविक खेती की तकनीक पर शोध भी किये हैं । मेरे अपने प्रदेश में ऎसे कई प्रगतिशील किसान हैं , जिन्होंने अपनी हिकमत और हिम्मत से खेती के पारंपरिक स्वरुप को नया जीवनदान दिया है । इतना ही नहीं ये साबित भी किया है कि प्राकृतिक नुस्खे अपना कर खेती की लागत घटा कर भरपूर पैदावार ली जा सकती है ।

अब सवाल ये कि जिस विषय के बारे में हमारे यहाँ ज्ञान का भंडार मौजूद है ,उसके लिए विदेश का रुख करना कहाँ तक जायज़ है ? वास्तव में हमारे नेता और अफ़सर कभी बीमारी , तो कभी प्रशिक्षण के नाम से सरकारी खर्च पर दूसरे देशों के सैर सपाटे का बहाना तलाशते रहते हैं । ज़ाहिर सी बात है कि गाँव की पगडंडी छोड़कर शहर की सड़कों तक आने में घबराने वाले ठेठ ग्रामीण परिवेश से निकले ये आदिवासी अकेले तो विदेश जा नहीं सकेंगे........। अँग्रेज़ीदाँ वातावरण में किसानों को समझाने और हौसला देने के लिए हो सकता है अधिकारियों की लम्बी चौड़ी फ़ौज भी साथ जाए ।

वैसे एक और जानकारी काबिले गौर है । शिवरात्रि पर भोपाल के नज़दीक प्रसिद्ध स्थल भोजपुर में उत्सव के उदघाटन समारोह में मुख्यमंत्री ने एक जानकारी दी । उन्होंने बताया कि पिछले साल संस्कृति विभाग के ज़रिए 17 करोड़ रुपए प्रदेश की सभी पंचायतों की भजन मंडलियों को दिये गये । यानी प्रदेश का लोक कलाकार भी खासा अमीर हो गया शिवराज के राज में .....?????? क्या वाकई ....????? और हाँ संस्कृति मंत्री ने समारोह में लोक कलाकारों की पंचायत बुलाने की माँग भी कर डाली । हाल ही में "घोषणावीर मुख्यमंत्री" हाथठेला और रिक्शा चालकों की पंचायत कर चुके हैं । पिछले कार्यकाल में उन्होंने सत्रह पंचायतें कीं । इन लोगों का कितना भला हो सका ये शोध का विषय है, लेकिन अधिकारियों और इंतज़ाम में लगे ठेकेदारों को तत्काल लाभ मिल ही गया ।

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2009

संस्कृति बचाने का तुगलकी फ़रमान

मानव मन के उल्लास और उमंग को अभिव्यक्त करने के कई अनूठे तौर तरीके अनादि काल से चले आ रहे हैं । समय - समय पर भरने वाले मेले सामयिक संदर्भों से जुड़ने की जीवंत परंपरा के साथ ही विभिन्न अँचलों में ग्राम और लोक देवताओं को याद करने के बहाने होते हैं ।

देश की मौलिक संस्कृति में मेलों की सतरंगी छटा चारों ओर बिखरी दिखाई देती है । मेलों का ग्राम्य स्वरुप प्रचलित भी है और प्रसिद्ध भी । हालाँकि अब शहरों में भी मेलों का आकर्षण बढने लगा है लेकिन उनमें गाँव के मेलों सा सौंधापन कहाँ......? इन मेलों के मूल में कोई अन्तर्कथा है ,संवेदना है और आदि लोक परंपरा है । यही कारण है कि इन आयोजनों का "लोक आस्था का मूल तत्व" तमाम अपसंस्कृति के बावजूद अब तक मिट नहीं सका है ।

मेले का अनूठापन ही है कि लोग स्वतः स्फ़ूर्त प्रेरणा से नियत तिथि और निश्‍चित स्थल पर साल दर साल जुड़ते रहते हैं , बगैर आमंत्रण की प्रतीक्षा किए ....। दशकों क्या सदियों से यही परंपरा चली आई है । लेकिन आज एक समाचार पढ़कर मन आशंकाओं से भर गया । एक साथ कई सवाल उठने लगे ज़ेहन में । मध्यप्रदेश में हर साल छोटे - बड़े करीब डेढ़ हज़ार मेले लगते हैं । धार्मिक ,सांस्कृतिक और सामाजिक सरोकारों से जुड़े इन मेलों पर अब राज्य सरकार का रहमो करम होने जा रहा है । दर असल यही सरकारी पहल ऊहापोह का सबब बनी है ।

मध्यप्रदेश लोककला और संस्कृतियों की विविधता को समेटे हुए है । प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में लगने वाले मेलों पर नज़र रखने के लिए राज्य सरकार मई तक मेला प्राधिकरण बनाने की तैयारी में है । यह सरकारी महकमा मेलों के इंतज़ाम के अलावा कलाकार जुटाने और पैसे के हिसाब किताब का ज़िम्मा भी सम्हालेगा । यूँ तो ये प्राधिकरण संस्कृति विभाग के अधीन ही काम करेगा मगर इसकी एक अलग समिति होगी । हर ज़िले में उप समितियाँ बनाई जाएँगी । दलील दी जा रही है कि मेलों में अश्लीलता के नाम पर जम कर विवाद होते रहे हैं । सरकार के मुताबिक इन घटनाओं पर अंकुश लगाने के लिए प्राधिकरण बनाने की ज़रुरत शिद्दत से महसूस की जा रही थी । संस्कृति विभाग चाहता है कि धार्मिक मेले धर्ममय होने चाहिए ।

अब इन दलीलों पर क्या कहा जाए ? मेरे शहर में कई मेले लगते हैं । इनमें मुम्बइया आइटम गर्ल्स के धमाल और दर्शकों के बवाल पर किसी की निगाह नहीं जाती । राजधानी में सरकारी ज़मीन पर बड़े- बड़े उद्योग घराने बरसों से निजी किस्म के मेले लगाते चले आ रहे हैं । व्यापारियों से स्टॉल लगाने के एवज़ में मोटी रकम लेते हैं और सरकार से तमाम तरह की छूट भी । हाल के सालों में इन बेशकीमती ज़मीनों को आयोजन समितियों के हवाले करने की माँग भी ज़ोर पकड़ने लगी है , जबकि ये मेले शुद्धतः व्यापारिक लाभ के लिए लगाये जाते हैं । इनमें संस्कृति या परंपरा को बचाये रखने जैसा कोई सरोकार नहीं है ।

ग्रामीण मेले लम्बे समय से बिना किसी व्यवधान के बेहतरीन ढंग से लगते चले आ रहे हैं । वैसे भी ग्रामीण अँचल की संस्कृति से जुड़े मेलों में अब तक तो कोई ऎसी शिकायतें सुनने में नहीं आईं । लगता है -" पीने वालों को पीने का बहाना चाहिए ।" ग्रामीण संस्कृति को बचाने के लिए वाकई ईमानदार कोशिश करना है , तो उसे सरकारी नियंत्रण से दूर ही रखना होगा । पंचायतों के ज़रिए गाँवों तक स्वराज पहुँचाने के ख्वाब का हश्र इस बात की पुष्टि करता है ।

कल ही मैं एक प्रादेशिक चैनल पर देख रही थी कि टीकमगढ ज़िले में किस तरह गाँव के लोगों ने बिना किसी सरकारी मदद के लम्बी चौड़ी नहर खोद डाली । जब सूबे के कई बड़े शहरों में पानी के लिए हाहाकार मचा है ,तब इस इलाके के कई गाँव ना सिर्फ़ अपनी और अपने मवेशियों की प्यास बुझा रहे हैं , बल्कि खेतों को लहलहाता देखकर आह्लादित भी हैं । सरकारी मदद के भरोसे ना जाने कितने वित्तीय साल बीत जाते ...? बजट आता लेकिन काग़ज़ी योजना को हकीकत में शायद कभी नहीं बदल पाता । मेरी राय में योजना के खर्च का एस्टीमेट ईमानदारी से बना कर पैसा उन सभी लोगों में बाँट दिया जाना चाहिए , जिन्होंने इस भगीरथी प्रयास को अंजाम दिया ।

एक तरफ़ तो योजनाओं को पूरा करने के लिए सरकार के पास पैसा नहीं है । दूसरी तरफ़ नेताओं और अधिकारियों की जेबें भरने के लिए प्राधिकरण बनाया जा रहा है । क्या यह फ़ैसला " तुगलकी फ़रमान" नहीं ....?
( चुनाव पूर्व चेतावनी - राजनीतिक दलों तक अपनी बात पहुँचाएँ , उन्हें बताएँ कि अब मतदाता पार्टी को नहीं ईमानदार और साफ़ छबि वाले उम्मीदवार को वोट देगा । पार्टियाँ जिस दिन इस बात को जान जाएँगी, तब " जीत की गारंटी वाला " आपराधिक छबि का प्रत्याशी चुनना आपकी मजबूरी नहीं होगी । यानी दिखावे पर ना जाएँ अपनी अकल लगाएँ । )

रविवार, 22 फ़रवरी 2009

नमक के बाद अब शिवराज का " कोयला सत्याग्रह "

लोकसभा चुनाव की दस्तक ने सियासी दाँव- पेंच तेज़ कर दिये हैं । मध्यप्रदेश में ज़बरदस्त बहुमत के साथ दोबारा सत्ता में लौटी भाजपा पर " सिर मुँडाते ही ओले पड़े" कहावत चरितार्थ होती दिखाई दे रही है । साम - दाम - दंड - भेद की नीति पर चल कर सत्ता सुख हासिल करने में भले ही भाजपा कामयाब रही हो ,लेकिन प्रकृति के कड़े तेवरों ने पार्टी के हाथ - पाँव फ़ुला दिये हैं ।

पूरे प्रदेश में पानी के लिए हाहाकार मचा है । हालाँकि सूरज ने तो अभी अपनी भृकुटी तानना तो छोड़िए , निगाहें तिरछी भी नहीं की हैं । पानी नहीं , तो बिजली नहीं । इधर चुनावी मौसम की गर्मी बढेगी , उधर बिजली -पानी की कमी से दो चार होती जनता का पारा चढेगा । राज्य सरकार ने हालात पर काबू पाने के सभी दरवाज़े बँद होते देख सारी मुसीबतों का ठीकरा केन्द्र सरकार के सिर फ़ोड़ने का मन बना लिया है ।

’पाँव- पाँव वाले भैया’ के नाम से मशहूर शिवराज सिंह ने अब गेंद केन्द्र के पाले में डालने के लिए ’सत्याग्रह’ का रास्ता चुना है । एक सत्याग्रह गाँधीजी कर गये और अब दूसरा शिवराज कर रहे हैं । वे नमक के लिए लड़े , ये कोयले के लिए । लेकिन भारत में "नमक" का नाता आन- बान - शान से है । मगर कोयले की शोहरत कुछ अच्छी नहीं.........! कोयले की दलाली में हाथ काले करने वालों को कभी भी अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता ।

शिवराज का कहना है कि आँख पर पट्टी बाँधे बैठी केन्द्र सरकार पर आग्रह , धरना , उपवास , प्रदर्शनों का तो कोई असर हो नहीं रहा । प्रधानमंत्री को राज्य के हालात से रुबरु कराने का हर नुस्खा नाकाम हो जाने के बाद अब वे ’न्याय यात्रा’ के माध्यम से बात पहुँचाएँगे । कल भोपाल से शुरु हुई उनकी यह न्याय यात्रा मंडीदीप , औबेदुल्लागंज , बुधनी , होशंगाबाद होते हुए इटारसी और सारणी (बैतूल) पहुँची । उन्होंने सारणी से पाथाखेड़ा तक का सफ़र पैदल तय किया । इस पाँच किलोमीटर की ऎतिहासिक यात्रा को नाम दिया गया - कोयला सत्याग्रह ।

वैसे कोयले और बिजली के कोटे में कटौती के अलावा भी कई ऎसे मसले हैं , जिन पर केन्द्र और राज्य सरकार में ठनी है । मुख्यमंत्री की शिकायत है कि सूखा राहत , समर्थन मूल्य पर खाद्यान्न की खरीद के लिए अनुदान , सर्व शिक्षा अभियान के लिए धन राशि समेत कई मदों में प्रदेश को केन्द्र की ओर से दी जाने वाली आर्थिक मदद समय पर नहीं मिल रही है । केन्द्र से पैसा मिलने की आस में ब्याज पर उठाया गया कर्ज़ भी दिन ब दिन बढता ही जा रहा है । इससे प्रदेश का बजट ही गड़बड़ा गया है । जिससे केन्द्र- राज्य के बीच की खाई गहरी होती जा रही है ।

प्रदेश सरकार के मुताबिक सर्व शिक्षा अभियान में इस साल 980 करोड़ रुपए खर्च किए गये । इसमें से 650 करोड़ रुपए केन्द्र से मिलना थे , मगर अब तक केवल 300 करोड़ रुपए ही मिले । इसी तरह समर्थन मूल्य पर खाद्यान्न खरीदी के लिए अक्टूबर 2008 से इस वर्ष मार्च तक मिलने वाले अनुदान की राशि 741 करोड़ रुपए भी अब तक नहीं मिल पाए हैं । राज्य सरकार ने अनाज खरीदी के लिए रिज़र्व बैंक से 13 फ़ीसदी पर कर्ज़ लिया है , जिस पर कर्ज़ की अदायगी समय से नहीं होने के कारण एक प्रतिशत का दांडिक ब्याज भी लग रहा है ।

मुख्यमंत्री के ’ कोयला सत्याग्रह’ को लेकर भाजपा उत्साहित है , ऎसे में काँग्रेस भी कब पीछे रहने वाली है । काँग्रेस ने पलटवार करते हुए शिवराज को पाँच सवालों पर खुली बहस की चुनौती दे डाली है । यानी तू डाल - डाल मैं पात- पात का खेल लगातार जारी है ।

बेचारी जनता कभी उस ओर आस भरी निगाहों से ताकती है , तो कभी इधर टकटकी लगाए निहारती है । नेता भी बेचारे क्या करें चुनाव होने तक टाइम पास भी करना है और जनता को भरमाए भी रखना है । हम तो दर्शक हैं । कभी मज़ा लेते हैं । कभी ताली पीटते हैं । मन आये तो वाहवाही करने लगते हैं या फ़िर पाला बदल - बदल कर अपना अनुभव बढाते रहते हैं । पब्लिक जो ठहरे .......! सो नौटंकी , खेल - तमाशा ,बाज़ीगरी जो चाहे कहिए , सभी कुछ जारी है ।
( चुनाव पूर्व चेतावनी - चोर- लुटेरों की फ़ौज से किसी को भी चुनने की बजाय " वोट" बेकार करने का हुनर सीखिए और इन तत्वों से छुटकारा पाइए )

रविवार, 15 फ़रवरी 2009

युवाओं के खिलाफ़ शिवराज का फ़रमान

मध्यप्रदेश सरकार ने एक बार फ़िर उदारता का मुज़ाहिरा किया है । दक्षिणपंथी विचारधारा के लेखकों और कलाकारों को दरकिनार कर वामपंथियों को सिर माथे बिठाने वाली भाजपा सरकार ने प्रदेश के दरवाज़े बाहरी छात्रों के लिए खोल दिए हैं । अब मप्र लोक सेवा आयोग की परीक्षा में प्रदेश से बाहर के उम्मीदवार भी हिस्सा ले सकेंगे । केबिनेट के इस फ़ैसले से राज्य के युवाओं के लिए प्रतिस्पर्धा कडी हो जाएगी ।

वर्ष 1996 से प्रदेश में नियम था कि पीएससी परीक्षा में वे ही प्रत्याशी शामिल हो सकेंगे जो मप्र के मूल निवासी होंगे । इसके लिए उम्मीदवार का मध्यप्रदेश से हायर सेकंडरी या डिग्री लेना ज़रुरी था । शिवराज सरकार के पिछले कार्यकाल में भी ये मामला केबिनेट में आया था , लेकिन कुछ मंत्रियों ने इस प्रस्ताव की जमकर मुखालफ़त की थी । उस वक्त मंत्रिमंडल सदस्य अखंडप्रताप सिंह ने इस मुद्दे पर अपनी ही सरकार को जमकर लताडा था ।

सुनने में आया है कि सामान्य प्रशासन विभाग ने इस बारे में अपने स्तर पर ही आदेश जारी कर दिए थे । मामला सामने आने पर उसे कानूनी जामा पहनाने के लिए केबिनेट में भेज दिया गया । इस मामले से दो बातें तो एकदम साफ़ हैं । पहली तो ये कि करोडों रुपए फ़ूँक कर कार्पोरेट कल्चर में रंग जाने को बेताब सरकार निहायत ही निकम्मी और काठ की उल्लू है । बजरबट्टू नेता पूरी तरह नौकरशाहों के शिकंजे में फ़ँसे हुए हैं । साथ ही इनके पास राज्य के विकास के लिए कोई समग्र सोच नहीं है । एक ही काम है इन नेताओं का ...। भज कलदारम , भज कलदारम हो गया प्रदेश का बंटाढारम .....।

प्रदेश में शिक्षा की स्थिति शर्मनाक हो चुकी है । बच्चों का भविष्य राम भरोसे है । मेरे घर के नज़दीक ,बल्कि उसे ऎसे कहें कि शिक्षा मंत्री के बंगले से महज़ दो - ढाई किलोमीटर की दूरी पर एक ऎसा स्कूल है , जहाँ एक कमरे में पाँच कक्षाएँ लगती हैं । यह स्कूल कम और रेलवे स्टेशन का क्लॉक रुम ज़्यादा नज़र आता है । पढाई की तो बात ही मत कीजिए । शिक्षिका के पसीने छूट जाते हैं ,बच्चों को चुप बैठाए रखने में । इतना ही नहीं प्रदेश का हर चौथा स्कूल एक शिक्षक के भरोसे है । डिस्ट्रिक्ट इन्फॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन की रिपोर्ट ने खुलासा किया है कि प्रदेश के 84 हज़ार से ज़्यादा प्राइमरी स्कूलों में से 27 हज़ार में महज़ एक टीचर तैनात है ।

स्कूली शिक्षा के हाल बताते हैं प्रदेश की शिक्षा का स्तर , जबकि दूसरे राज्यों में पढाई का स्तर काफ़ी ऊँचा है । ज़ाहिर तौर पर ऎसे में प्रतियोगी परीक्षाओं में दूसरे राज्यों के छात्र बाज़ी मार ले जाएँगे । बढते क्षेत्रवाद के चलते दूसरे प्रदेशों में मप्र के युवाओं के लिए वैसे भी अवसर ना के बराबर ही हैं । अपने ही मतदाताओं के हक पर कुठाराघात करने वाली सरकार की अकल पर पडे पाले ने लोगों को सन्न कर दिया है ।

इस मसले पर पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने भाजपा पर युवाओं के हितों को तिलांजलि देने का आरोप लगाते हुए शिवराज सिंह को पत्र लिखा है । मुख्यमंत्री ने दलील दी है कि हाईकोर्ट का आदेश मानना सरकार की मजबूरी थी । इस सफ़ाई ने सरकार की निर्णय क्षमता पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है । सरकार युवाओं के हित में कानूनी लडाई लडने के लिए इच्छा शक्ति प्रदर्शित कर सकती थी । मामले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे सकती थी ।

युवा हैरान हैं सरकार के फ़ैसले से । वे जानना चाहते हैं कि यदि उन्हें अपने ही प्रदेश में ठौर नहीं मिलेगा तो कहाँ जाएँगे......? जो सरकार जनता की पालनहार होने का ,उसके दुख दर्द समझने का दावा करती हो ,यदि वही दर्द देने पर आमादा हो जाए , तो आम जनता अपनी फ़रियाद लेकर किसके पास जाए........????? गरीबों की सुनवाई नहीं । बिजली नहीं ,पानी के लिए पूरे प्रदेश में हाहाकार । किसान बेज़ार । कर्मचारी सरकार की वायदा खिलाफ़ी से खफ़ा । और अब युवाओं के खिलाफ़ जाता ये सरकारी फ़रमान .....। क्या करना चाहती है ये सरकार ....????? दो महीनों में ये हाल .....। " इब्तदाए इश्क है रोता है क्या , आगे - आगे देखिए होता है क्या ? "

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

मध्यप्रदेश के नौनिहाल भूख से बेहाल

बेस्ट ई-गवर्नेंस का प्रतिष्ठापूर्ण अवार्ड हासिल कर पूरे देश में नाम कमाने वाले मध्यप्रदेश के नौनिहाल भूख से मर रहे हैं । हाल ही में दिल्ली से आई बाल संरक्षण अधिकार आयोग की टीम ने सतना ज़िले के मझगवां जनपद में किरहाई पोखरी गांव में कुपोषण के जो हालत देखे , उससे लगता है कि पिछले साल प्रदेश के कई ज़िलों में कुपोषण से हुई मौतों के बावजूद राज्य सरकार ने कोई सबक नहीं लिया ।

टीम के सदस्यों के मुताबिक गांव के हालात ’दयनीय’ शब्द को भी लजाते हैं । अपनी माताओं की छाती से चिपके ज़्यादातर मासूम क्षेत्र मे कुपोषण के फ़ैलते आतंक की कहानी बयान करते हैं । बच्चों के शरीर महज़ "हड्डियों के ढांचे" हैं । आलम ये है कि इन मासूमों की उम्र का अंदाज़ा लगा पाना भी मुश्किल है । गांव में दो से तीन साल तक के कई बच्चे हैं जो अब तक अपने पैरों पर चल भी नहीं पाते । गली - मोहल्ले में किलकारियां भरकर खेलने की उम्र के ये बच्चे अपनी मांओं के सीने से चिपके बेवजह रोते रहते हैं । टीम को गांव में ढूंढे से एक भी स्वस्थ बच्चा नहीं मिला । गांव के हालात देखकर ऎसा लगता था मानो यहां की महिलाएं कुपोषित बच्चे पैदा करने के लिए अभिशप्त हैं ।

आयोग की चाइल्ड स्पेशलिस्ट इलाके के सत्तर फ़ीसदी बच्चों को कुपोषित बताती हैं । वे हैरान हैं कि मुख्य मार्ग के नज़दीक बसे गांव में हर दूसरा बच्चा कुपोषण की पहली और दूसरी श्रेणी का कैसे हो सकता है ...? सरकारी दावे चाहे जो हों हकीकत से मीलों दूर हैं । वास्तविकता भयावह है और सरकारी आंकडों में दर्ज़ योजनाओं की सफ़लता की पोल - पट्टी खोल कर रख देती है । आंगनबाडी कार्यकर्ता , प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र , स्वयंसेवी संगठन ,यूनीसेफ़ जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के प्रयासों का कच्चा चिट्ठा हैं ये नौनिहाल ....।

प्रदेश में छह महीने पहले कुपोषण से मौतों का मामला गरमाया था । मीडिया में खबरें , विधान सभा में हंगामा , आरोप - प्रत्यारोप और कई जांच कमेटियां ....। इस सारी कवायद का नतीजा निकला शून्य । पुराना सब छोड भी दें पिछले छह महीनों में ही ईमानदारी दिखाई होती , तो हो सकता है जांच टीम को क्षेत्र का हर बच्चा हंसता -मुस्कराता तंदुरुस्त नज़र आता ।लेकिन हमारी रग - रग में बेईमानी समा चुकी है । एक राजा ने अपने राज्य में ईमानदारी की स्थिति का पता लगाने के लिए मुनादी करा दी कि सूखे तालाब में अमावस्या की रात सभी लोगों को अनिवार्य रुप से एक - एक लोटा दूध डालना होगा । अगले दिन सूरज उगने पर तालाब में पानी के सिवाय कुछ नहीं था । रात के अंधेरे में ईमान भी सो जाता है ।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित एक समिति ने वर्ष 2006 कहा था कि बच्चों की मृत्यु दर के मामले में मध्यप्रदेश के श्योपुर ज़िले की तुलना अफ़्रीका के सबसे ग़रीब और पिछड़े इलाकों से की जा सकती है । जाँच समिति ने पाया कि भुखमरी प्रभावित सबसे अधिक बच्चे सहरिया जनजाति के हैं । इलाके के हर 100 बच्चों में से 93 कुपोषण का शिकार हैं।

वर्ष 2007 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने चेताया था कि भारत में बच्चों के कुपोषण की दर दुनिया में सबसे अधिक है । मुख्यमंत्रियों को भेजे पत्र में मनमोहन सिंह ने कहा कि पोषण कार्यक्रम का 'क्रियान्वयन बेहद ख़राब तरीके' से किया जा रहा है। इसी तरह संयुक्त राष्ट्र बालकोष यानि यूनिसेफ़ की रिपोर्ट दक्षिण एशिया के बच्चों में कुपोषण की समस्या को रेखांकित करती है । रिपोर्ट के मुताबिक कुपोषित बच्चों की सबसे बड़ी संख्या भारत में है ।

यूनिसेफ़ की रिपोर्ट कहती है कि पांच साल से कम के 25 प्रतिशत बच्चों के पास खाने को पर्याप्त भोजन नहीं है और दुखद तथ्य ये है कि ऐसे बच्चों में से 50 प्रतिशत बच्चे सिर्फ़ तीन देशों भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में रहते है । रिपोर्ट में भारत और चीन की तुलना की गई थी । इसमें कहा गया था कि बच्चों को पर्याप्त भोजन मुहैया कराने की दिशा में पिछले 15 वर्षों में चीन में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की है जबकि भारत का प्रदर्शन अत्यंत ख़राब रहा है । रिपोर्ट में भारत में पांच साल से कम के आधे से अधिक बच्चों को पर्याप्त भोजन नहीं मिलने पर भी चिंता जताई गई है ।

शनिवार, 7 फ़रवरी 2009

मध्यप्रदेश में बीजेपी की "कॉर्पोरेट सरकार"

किसानों , गरीबों और कर्मचारियों का हितैषी होने का दावा करने वाली बीजेपी क्या बदल रही है ? प्रमोद महाजन जिस कॉर्पोरेट कल्चर को अपनाने का सपना लिए रुखसत हो गये क्या भाजपा ने उसे पूरी तरह अंगीकार करने का मन बना लिया है ? चाल ,चरित्र और चेहरे की बात करने वाला राजनीतिक दल क्या अब "कॉर्पोरेट गुरुओं" के इशारों पर चलेगा ? मध्यप्रदेश के मंत्रियों की पचमढी में आयोजित "पाठशाला" की खबर बताती है कि जननायक अब सीईओ संस्कृति के रंग में रंगने को बेताब हैं ।

प्रबंधन गुरुओं और प्रशासकों ने मंत्रियों को बेहतर नेतृत्व और कामकाज की कमान अपने हाथ में रखने के गुर सिखाये हैं । उबासी लेते नेताओं को इस अफ़लातूनी कवायद से वाकई कुछ हासिल हो सकेगा ...? आम जनता के लिए पैसे की तंगी का दुखडा सुनाने वाली सरकार ने दो दिन के लिए पचमढी की शानदार ग्लेन व्यू होटल को स्कूल में बदल दिया । मगर बुनियादी सवाल यह है कि क्या लोकतंत्र में मंत्री सीईओ हो सकता है ,जो उन्हें कॉर्पोरेट सेक्टर का एक्सपोज़र दिया जाए ? पब कल्चर को पाश्चात्य बताकर आसमान सिर पर उठाने वाली पार्टी कॉर्पोरेट कल्चर अपनाने के लिए इतनी उत्साहित क्यों है ?

विभाग अध्यक्ष ,सचिव ,सलाहकार बगैरह के रुप में बहुत से प्रबंधक मंत्रियों के अधीन रहते हैं । मंत्री का दायित्व नीति निर्धारण का है । कुशल प्रशासक के तौर पर प्रख्यात एम. एन. बुच की राय में मंत्री का काम नीति निर्धारण के बाद उसके क्रियान्वयन की ज़िम्मेदारी लेना है । वास्तव में मंत्रियों को सिर्फ़ यही पाठ पढाने की ज़रुरत है । नेतृत्व की कला मंत्री बखूबी जानते हैं । ये सभी राजनीति की रेलमपेल में टिकट लेने से लेकर चुनाव जीतने तक हर दांवपेंच आज़मा चुके हैं । केबिनेट में दाखिला पाना भी बच्चों का खेल नहीं ....। गलाकाट स्पर्धा में अव्वल नंबर हासिल करने के बाद ही मंत्री की कुर्सी मिल पाती है । उठापटक के बावजूद सियासी मैदान में "अंगद की तरह" जमे रहना हंसी मज़ाक नहीं है ।

राजनीति की खाक छानने वाले "गुरु घंटालों" को नई पीढी के सुविधाभोगी "कॉर्पोरेट गुरु" भला क्या पाठ पढा सकेंगे ?ये कहते "कागद की लेखी" , मंत्री कहता "आंखन की देखी "। नौंवी मर्तबा विधायक बने बाबूलाल गौर को भला ’कल का आया’ क्या नेतृत्व- कला सिखाएगा ?कई तरह की पंचायतों के ज़रिये अपनी "टारगेट-ऑडियंस" की पहचान कर अपनी सफ़ल मार्केटिंग करने वाले मुख्यमंत्री को एडवर्टाइज़िंग और मार्केटिंग की बारीकियां सीखने की क्या ज़रुरत है ।

यह पाठशाला सरकार की छबि गढने और जनता को भुलावे में रखने की कोशिश से इतर कुछ नहीं है । धोती - कुर्ते से सूट -टाई के सफ़र तक ही बात ठहरे तो कोई चिंता नहीं ,लेकिन पहनावे के साथ लोकतंत्र पर कॉर्पोरेट जगत का रंग चढने लगे तो ये चौकन्ना होने का सबब है ।

वैसे तो इस वक्त हर जगह घालमेल मचा है । अभिनेता सियासी गलियारों में चहल कदमी कर रहे हैं । नेता रुपहले पर्दे पर धूम मचाने को उतावले हैं । उद्योगपति प्रधानमंत्री पद का दावेदार तैयार करने में मसरुफ़ हैं । जिन्हें सीखचों के पीछे होना चाहिए वो कानून बनाने में भागीदारी निभा रहे हैं । अदालतों को न्याय देने की बजाय नालियों, सडकों और छोटे - मोटे मुद्दों पर नोटिस जारी करने से फ़ुर्सत नहीं है ।
कुल मिला कर हर चीज़ वहां ही नहीं है ,जहां उसे होना चाहिए । मुल्क की हालिया परिस्थितियों के सामने आम आदमी की बेबसी को दुष्यंत कुमार के शब्दों की चुभन ही बयान कर सकती है ।
भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ,
आजकल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दआ

गिड़गिडाने का यहाँ कोई असर होता नहीं
पेट भर कर गालियाँ दो आह भर कर बद-दुआ

इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो
जब तलक खिलते नहीं हैं कोयले देंगे धुआँ
वैसे आदर्शवाद का सामान्य रूप से राजनीतिक क्षेत्र में क्षरण हुआ है तो भारतीय जनता पार्टी में भी वो क्षरण दिखाई पड़ता है । भाजपा को एक जनआधारित काडर संगठन बनना था मगर ये हुआ नहीं । सबसे बड़ी त्रासदी ये है कि राजनीतिक दल मूल्यों और मुद्दों से भटक कर केवल सत्ता के निरंकुश खेल के हिस्से बन गए हैं । भाजपा भी इसकी अपवाद नहीं है । आज की तारीख़ में सभी पार्टियों में 19-20 का फ़र्क रह गया है । झंडे - बैनरों के फ़र्क के अलावा कांग्रेस - भाजपा में अंतर करना मुश्किल हो चला है । इस पार्टी में नेतृत्व और समर्थक के चिंतन और व्यवहार के स्तर पर बहुत अंतर आ चुका है ।

भाजपा की आज तक की यात्रा में हर मोड़ पर उसके फ़ैसलों को देखें तो उसमें एक ऐसा सूत्र है जो उसके मूल रोग को प्रगट करता है. वह है- तदर्थ या तात्कालिकता की राजनीति । इसी से भाजपा संचालित होती रही है । चाहे विश्वनाथ प्रताप सिंह के बोफोर्स मुद्दे का आंदोलन हो या अयोध्या का मसला या राजग के शासन का कार्यकाल या आजकल की घटनाएं हों उनमें भाजपा तात्कालिकता के चलते लोक लुभावन मुद्दों के पीछे भागने की राजनीति करती रही है ।

इसका नतीजा यह है कि सांप के केंचुली बदलने की तरह ही भाजपा ने विचारधारा को उतार फ़ेंकने में कभी गुरेज़ नहीं किया । गठबंधन के राजनीतिक धर्म का हवाला देकर सिद्धांतों से समझौता किया । जिससे भाजपा के विचारवान समझे जाने वाले नेताओं की कलई खुल गई और वैचारिक साख नष्ट हो गई । देखना दिलचस्प होगा कि मंदी के दौर में घोटालों और घपलों का कॉर्पोरेट कल्चर प्रदेश में क्या गुल खिलाता है........?

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

चोर - चोर मौसेरे भैय्या ....


राजधानी में बुधवार की सुबह हुई हृदय विदारक घटना ने झकझोर कर रख दिया । गरीबी के आगे बेबस पिता ने अपनी चार बेटियों को ज़हर देने के बाद चाकू से गला रेत दिया । उसने अपनी गर्भवती बीवी की जान लेने की कोशिश के बाद खुद के पेट में चाकू मार लिया । दो बच्चियॊ ने तो घटना स्थल पर ही दम तोड दिया । दो लडकियां गंभीर हालत में अस्पताल में हैं और कल महिला की सांसें भी थम गईं । करीब पचास साल के शफ़ीक मियां होश में आ गये हैं लेकिन सदमे के कारण फ़िलहाल कुछ बताने की हालत में नहीं हैं ।

पिंजरे बनाकर रोज़ाना करीब सत्तर रुपए कमाने वाला शफ़ीक सात बच्चों का पेट भरने में खुद को लाचार पा रहा था । मुफ़लिसी से जूझ रहे परिवार में आठवें मेहमान के आने की खबर ने भूचाल ला दिया । होश में आई एक बच्ची का बयान है कि पापा अक्सर कहते थे कि खाने - पीने का ठीक तरह से इंतज़ाम ना कर सका तो एक दिन सब को मार दूंगा । हैरानी की बात है कि उसने अपने तीनों बेटों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया ।

इस घटनाक्रम ने एक बार फ़िर कई सवालों पर पडी गर्द हटा दी है । सरकार बीपीएल कार्ड धारकों को साढे चार रुपए किलो चावल ,तीन रुपए किलो गेंहूं देती है । केवल भोपाल ज़िले में डेढ लाख कार्डधारी हैं । इसी तरह अंत्योदय योजना में दो रुपए किलो गेंहूं , तीन रुपए किलो चावल और साढे तेरह रुपए किलो शकर दी जाती है । गरीबी से बेज़ार लोगों के जान देने का सिलसिला सवाल खडा करता है कि इन योजनाओं का फ़ायदा किसे मिल रहा है ?

हालात बयान करते हैं कि महंगाई के दौर में शफ़ीक के लिए परिवार की परवरिश नामुमकिन होती जा रही थी । ऎसे में परिवार बढाने की नासमझी का औचित्य भी समझ से परे है ...? क्या परिवार का विस्तार अपने पैरों पर कुल्हाडी मारने वाला कदम नहीं कहा जाएगा ? जब पढा - लिखा तबका परिवार की तरक्की के लिए दकियानूसी उसूलों को झटक कर अलग कर सकता हैं ,तो गरीब तबका क्यों नहीं इस दलदल से बाहर निकल आता ?

एक बडा और अहम सवाल ये भी है कि सरकार ने परिवार कल्याण के कई कार्यक्रम चलाये हैं । इस तरह के मामले इन योजनाओं का कच्चा चिट्ठा खोल कर रख देते हैं । योजना की विफ़लता पर क्या उस इलाके के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र ,स्वास्थ्य कार्यकर्ता , अधिकारी और अन्य ज़िम्मेदार लोगों के खिलाफ़ सख्त कार्रवाही नहीं होना चाहिए ? गरीब भूखे पेट सोये और मजबूरन मौत को गले लगाये , तो गरीबों के लिए चलाई जा रही योजनाओं पर पुनर्विचार करने की ज़रुरत है । लोगों को दीन - ईमान और दुनियादारी का फ़र्क समझाना ज़रुरी है । ये बताना लाज़मी है कि पेट की आग बुझाने के लिए मज़हबी बातें काम नहीं आती । पेट भरने के लिए तो रोटी ही चाहिए । हकीकत से रुबरु होकर ही हालात का सामना किया जा सकता है । बात - बात पर फ़तवा जारी करने वाले धर्म गुरु इस मुद्दे पर सामने क्यों नहीं आते ...?

समाज को तरक्की पसंद बनाने के लिए उसकी आबादी बढाना ही काफ़ी नहीं होता । इंसान और जानवरों में फ़र्क होता है । पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में कदम -कदम पर पैसे की दरकार होती है। "ज़्यादा हाथ ज़्यादा काम" का गणित आज के दौर में सही नहीं कहा जा सकता । वक्त बदला है ,तो सोच भी बदलना होगी ।

सरकारी मदद से चलने वाले तमाम एनजीओ के वजूद को लेकर भी ये घटना सवाल खडे करती है । राजधानी में ऎन सरकार की नाक के नीचे इतना दिल दहलाने वला हादसा हो जाना कोई मामूली बात नहीं है । यह घटना समाज के मुंह पर झन्नाटेदार चांटे के माफ़िक है । साथ ही उन नेताओं से भी कैफ़ियत मांगती है , जो गरीबों के हिमायती होने का दम भरते हैं । वोट की राजनीति में तादाद बढाने के लिए ज़ोर देने वाले नेता चुनाव के बाद इन बस्तियों का रुख भी नहीं करते । इन गरीबों को उनके हाल पर छोड देते हैं घुट घुट कर जीने के लिए या कहे तिल - तिल कर मरने के लिए ...। कौन सुनेगा इन मज़लूमों की आवाज़ ....।

धर्मगुरु मज़हबी किताबों का हवाला देकर आबादी बढाने का नारा तो देते हैं , मगर ये नहीं बताते कि इनका पालन - पोषण कैसे हो ? नेता वोट बैंक बनाते हैं पर बदले में क्या देते हैं ? गरीबों के लिए कागज़ों पर योजनाएं कई हैं और आंकडे बताते हैं कि बढिया तरीके से अंजाम भी दी जा रही हैं । लेकिन वास्तविकता इन कागज़ी बयानबाज़ी के कोसों दूर है । मध्याह्न भोजन के नाम पर कीडे - मकौडों से भरा दलिया या पंजीरी ....?

बीपीएल कार्ड पर सस्ते अनाज का कोई ठिकाना ही नहीं । राशन की दुकानों पर ताला । राशन का अनाज गोदामों से सीधा व्यापारियों की दुकानों पर उतारा जाता है । नेता , अधिकारी और ठेकेदार एक बार फ़िर यहां भी साथ - साथ ....। बचपन में इमरजेंसी के दौरान रेडियो पर ये गाना सुना था ,शायद उस वक्त इसके बोल समझ में नहीं आते थे ,लेकिन आज के दौर में एकदम सटीक है - "चोर - चोर मौसेरे भैय्या - इनका तो भगवान रुपैय्या ....।"

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2009

किसान की बदहाली पर विकास की इमारत

खेती को फ़ायदे का व्यवसाय बनाने का नारा लगाते हुए "किसान का बेटा शिवराज सिंह" दोबारा गद्दीनशीं हो गए लेकिन प्रदेश के किसानों के हालात ना पिछले पांच सालों में बदल सके और ना ही हाल फ़िलहाल इसकी कोई संभावना दिखाई देती है । सूखे और मौसम की मार से जूझते किसान बिजली के संकट से भी बेहाल हुए जा रहे हैं । कहीं खाद - बीज की किल्लत है , तो कभी नहरों में सिंचाई के लिए पानी और पंप चलाने के लिए बिजली की समस्या ।

खेती - किसानी को लाभकारी बनाने की लम्बी - चौडी बातें तो की जा रही हैं । ज़मीनी हकीकत एकदम अलग है । प्रदेश का अन्नदाता दाने - दाने को मोहताज है । फ़सल की वाजिब कीमत पाने के लिए किसानों को सडक पर आना पड रहा है । सरकारी महकमों में फ़ैले भ्रष्टाचार और कर्ज़ के बोझ तले दबे किसान खुदकुशी ले लिए मजबूर हैं ।

अपनी ताकत का एहसास कराने के लिए हाल ही में सूबे के करीब दो लाख किसान भोपाल में जमा हुए । भूमिपुत्रों ने सरकार को चेताया कि प्रदेश की अस्सी फ़ीसदी आबादी किसानों की है । उनकी आवाज़ लम्बे वक्त तक अनसुनी नहीं की जा सकती । भारतीय किसान संघ ने सरकार की किसान विरोधी नीतियों को खेती की बदहाली के लिए ज़िम्मेदार ठहराया है । संघ का कहना है कि फ़सल के वक्त बडी कंपनियां और व्यापारी कीमतें गिरा देते हैं । अक्टूबर - नवम्बर में जब सोयाबीन की फ़सल आई थी , तब भाव डेढ हज़ार रुपए क्विंटल था और अब सोयाबीन ढाई हज़ार रुपए क्विंटल तक जा पहुंचा है । न्यूनतम मूल्य पर कोई ठोस नीति नहीं होने से किसानों को उनकी मेहनत का औना - पौना दाम मिलता है ।

विधानसभा चुनाव के वक्त बढ - चढ कर घोषणाएं करने वाले मुख्यमंत्री अब खज़ाना खाली होने का रोना लेकर बैठ गये हैं । हालांकि उन्होंने गांवों के मास्टर प्लान बनाने जैसी बेतुकी और गैरज़रुरी मांग को तुरंत मान लिया । मगर इससे क्या किसान के हालात बदल जाएंगे ..? मास्टर प्लान बनाने से किसानों की ज़िंदगी सुधरेगी या नहीं नेता ,ठेकेदारों और अफ़सरों के दिन ज़रुर फ़िर जाएंगे । खेती को लेकर ना तो कोई गंभीर सोच और ना ही गंभीर प्रयास दिखाई देते हैं । जब तक समग्र नीति तैयार नहीं की जाती , तब तक देश मे अन्न का संकट भी दिनोंदिन विकराल होता जाएगा । साथ ही छोटे किसान खेती -बाडी के व्यवसाय से दूर होते रहेंगे ।

बेवजह सडकें नापने के शौक के कारण अक्सर मैं आसपास के ग्रामीण इलाकों का रुख कर लेती हूं । लेकिन चारों तरफ़ एक ही फ़सल देख कर बेहद अफ़सोस होता है । कभी प्याज़ का भाव तेज़ हुआ , तो अगले साल खेतों में प्याज़ ही प्याज़ ...। कभी फ़ूलगोभी ,कभी टमाटर तो कभी लहसुन । लोग देखादेखी में अच्छे दाम मिलने की उम्मीद में बुवाई कर देते हैं और यही उनकी जान का बवाल बन जाता है । भरपूर उत्पादन यानी कीमतों में गिरावट । नतीजतन कई बार किसान लागत मूल्य निकालने में भी नाकाम रहते हैं । क्या सरकार सालाना ऎसी योजना नहीं बना सकती , जिसमें हर इलाके के लिए फ़सलें तय कर ली जाएं और किसानों को बेहतर तकनीक सिखाई जाए ।

" बिना बिचारे जो करे , सो पाछे पछताए " का इससे बेहतर नमूना क्या हो सकता है कि इस बार प्रदेश की मंडियों में एक रुपए किलो आलू बिक रहा है । कैसा भद्दा मज़ाक है श्रम शक्ति का । खेतों में पसीना बहाने वाला , दिन - रात एक करने वाला किसान महज़ एक रुपया पा रहा है , जबकि रंगबिरंगे पैकेट और आकर्षक विज्ञापनों की बदौलत आलू चिप्स पांच सौ रुपए किलो तक बिक रहे हैं ।

भोपाल समेत कई अन्य ज़िलों में इस बार आलू की बम्पर पैदावार जी का जंजाल बन गई है । लागत की कौन कहे कोल्ड स्टोरेज का किराया निकाल पाना मुश्किल हो रहा है । साफ़ नज़र आता है कि सरकार की नीयत साफ़ नहीं है । मौजूदा नीतियां उद्योगपतियों के फ़ायदे और किसानों के शोषण का पर्याय बन गई हैं ।

औद्योगिक घरानों के लिए पलक पावडे बिछाने वाली सरकार उद्योग जगत को तमाम रियायतें , सेज़ के लिए मुफ़्त ज़मीन और करों में छूट का तोहफ़ा देने में ज़रा नहीं हिचकती । फ़िर किसानों के प्रति ऎसी बेरुखी क्यों ...? हीरे - मोती उगलने वाली धरती के सीने पर कांक्रीट का जंगल कुछ लोगों का जीवन चमक- दमक और चकाचौंध से भर सकता है लेकिन किस कीमत पर ...? भूखे पेट रात भर करवटें बदलने वाले लाखों मासूमों के आंसुओं से लिखी विकास की इबारत बेमानी है ।

हिन्दुस्तान की खुशहाली का रास्ता खेतों - खलिहानों की पगडंडी से होकर ही गुज़रता है । इसके रास्ते के कांटे और कंकड - पत्थर चुनना ज़रुरी है । किसान के चेहरे की चमक में छिपा है देश की तरक्की का राज़ .....। देश के रहनुमाओं , कब समझेंगे आप...........?

रविवार, 25 जनवरी 2009

जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं...........

पिछले कई दिनों से एफ़ एम रेडियो पर बिना रुके चहकने वाली "चिडकलियां" रोज़ सुबह से ही बताने लगती हैं कि 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस आने वाला है । उनका मशविरा है कि हमें गणतंत्र दिवस धूमधाम से ’ सेलिब्रेट” करना चाहिए ,होली दीवाली की तरह । वे कहती हैं कि इस दिन जमकर आतिशबाज़ी करें , धूमधडाका मचाएं । धमाल करें और खूब नाचे गाएं । घरों को रोशनी से भर दें ।

हर रोज़ दी जा रही इस ऎलानिया समझाइश से मन में सवालों का सैलाब उमडने लगता है । क्या हो गया है इस देश को ? उत्सवधर्मी होना ज़िन्दादिली का सबूत है , लेकिन हर वक्त जश्न में डूबे रहना ही क्या हमारी संस्कृति है ? एक दौर था जब " हर फ़िक्र को धुएं में उडाता चला गया " का फ़लसफ़ा समाज में स्वीकार्य नहीं था । बुज़ुर्ग अपने बच्चों को धार्मिक त्योहारों के साथ राष्ट्रीय पर्वों का महत्व भी समझाते थे । आज तो ज़्यादातर लोगों को शायद गणतंत्र के मायने भी मालूम ना हों । बिना मशक्कत किये आपको अपने आसपास ही ऎसे लोग मिल जाएंगे जो ये भी नहीं जानते कि गणतंत्र दिवस क्यों मनाया जाता है । एक समय था जब छब्बीस जनवरी और पंद्रह अगस्त सरकारी आयोजन की बजाय पारिवारिक और सामाजिक त्योहार होते थे । तब गणतंत्र दिवस "रिपब्लिक डे" नहीं था ।

देश में हर तरफ़ तदर्थवाद का ऎसा दौर आ गया है कि हर शख्स " जो है समां कल हो ना हो " की तर्ज़ पर हर काम को तुरत फ़ुरत कर डालने की जल्दी में है । मानों कल ही दुनिया खत्म होने जा रही हो । देश इस समय एक साथ कई मोर्चों पर संकट के दौर से गुज़र रहा है । लोग सच्चाई से रुबरु होने की बजाय इतने गाफ़िल कैसे रह सकते हैं ? क्या मानव श्रृंखला बनाने ,फ़िल्मी अंदाज़ में मोमबत्तियां जलाने , सडक पर बेमकसद दौड लगाने या हवा में मुक्के लहराते हुए जुलूस निकालने भर से समस्याएं "छू मंतर" हो जाया करती हैं ?

अमेरिका के राष्ट्रपति के रुप में ओबामा की ताजपोशी का जश्न देश में यूं मनाया जा रहा है , जैसे भारत ने ही कोई इतिहास रच दिया हो । दलित को भारत का प्रधानमंत्री बनाने का ख्वाब देखने वाले देश में आज भी दलितों की क्या दुर्दशा है ये किसी से छिपा नहीं है । हाल ही में मध्यप्रदेश के छतरपुर ज़िले के करीब पौने दो सौ दलितों ने सामाजिक भेदभाव से निजात पाने के लिए कलेक्टर को पत्र लिखकर धर्म बदलने की इजाज़त मांगी । प्रदेश के बुंदेलखंड में आज भी कोई दलित दूल्हा दबंगों के खौफ़ के चलते घोडी नहीं चढ सकता । इसी इलाके की एक दलित सरपंच पिछले पांच सालों से थाने में डेरा डाले है, दबंगों के कहर से बचने के लिए ...।

इतना दूर जाने की भी ज़रुरत नहीं । मैं पिछले तेरह सालों से एक बच्चे को देखती आ रही हूं । शुरुआती दौर में अपने स्तर पर कुछ कोशिशें भी की ,उसके जीवन और हालात में बदलाव लाने की । लेकिन मुझे अफ़सोस है कि रफ़्ता - रफ़्ता "बिट्टू" पूरी तरह सफ़ाई कामगार बन गया और दलित बच्चों के लिए चलाई जा रही आश्रम स्कूल योजना धरी की धरी रह गई । कभी झाडू थामे , तो कचरे की गाडी खींचता " बिट्टू " मेरी चेतना को झकझोर कर रख देता है । मन अपराध बोध से भर जाता है । क्या फ़ायदा ऎसे ज्ञान का ,जो किसी की ज़िंदगी को उजास से ना भर सके ? अब कॉलोनी वासी अपनी सहूलियत के लिए कुछ और बिट्टू तैयार कर रहे हैं । कैसे रुकेगा ये सिलसिला ...? कौन रोकेगा इस अन्याय को ......? कब साकार होंगी कागज़ों पर बनी योजनाएं ...?
मुझे मेरे पसंदीदा शायर साहिर लुधियानवी की प्यासा फ़िल्म की लाइनें अक्सर याद आती हैं -
" ज़रा हिन्द के रहनुमा को बुलाओ ....
ये गलियां ये कूचे उनको दिखाओ ....
जिन्हे नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं ....?"

देश में सुरक्षा का संकट मुंह बाये खडा है । बिजली पानी का बेरहमी से इस्तेमाल नई तरह की मुसीबतों का सबब बनने जा रहा है । मैंने पहले भी कहा है प्रजातंत्र के सभी खंबे ऊपरी तौर पर चाहे जितने सशक्त नज़र आते हों भीतर से पूरी तरह खोखले हो चले हैं । एक दूसरे के कामकाज की निगरानी का संवैधानिक दायित्व भूलकर सब के सब एक नाव की सवारी पर आमादा हैं । लगता है देश को इस मकडजाल से निजात पाने के लिए रक्तरंजित क्रांति की सख्त ज़रुरत है ।

राजनीतिशास्त्र के बारे में मेरी जानकारी शून्य है ,लेकिन व्यवहारिक स्तर पर कई बार एक बात मेरे मन में आती है कि आखिर इस देश को इतने नेताओं की क्या ज़रुरत है । जितने ज़्यादा नेता उतना ज़्यादा कमीशन , उतना अधिक भ्रष्टाचार , उतने अपराध , उतनी गरीबी ....। ऎसा प्रजातंत्र किस काम का जिसमें आम आदमी के लिए ही कोई संभावना ना हो । आज के इस छद्म गणतंत्र से तो बेहतर है कि देश किसी तानाशाह के हवाले कर दिया जाए ....?????

बेमुरव्वत ,बेखौफ़ ,बेदर्द और अनुशासनहीन हो चुके भारतीय समाज को डंडे की भाषा ही समझ आती है । मेरी मां अक्सर कहती हैं -" लकडी के बल बंदर नाचे" । क्या करें लम्बे समय तक गुलामी की जंज़ीरों में जकडे रहने के कारण हमारी कौम में "जेनेटिक परिवर्तन" आ चुका है ....??? जब तक सिर पर डंडा ना बजाया जाए हम लोग सीधी राह पकडना जानते ही नहीं ।

आखिर में ’ ज़ब्तशुदा नज़्मों ’ के संग्रह से साहिर लुधियानवी की एक नज़्म , जो 1939 में बम्बई से निकलने वाले साप्ताहिक "अफ़गान" में छपी थी ।

हुकूमत की बुनियाद ढहाए चला जा
जवानों को बागी बनाए चला जा

बरस आग बन कर फ़िरंगी के सर पर
तकब्बुर की दुनिया को ढाए चला जा

जुनूने बगावत ना हो जिन सरों में
उन्हें ठोकरों से उडाए चला जा

गरीबों के टूटे चरागों की लौ से
अमीरों के ऎवां जलाए चला जा

शहीदाने मिल्लत की सौगंध तुझको
यह परचम यूं ही लहलहाए चला जा

परखचे उडा डाल अरबाबे - ज़र के
गरीबों को बागी बनाए चला जा

गिरा डाल कसरे -शहन्शाहियत को
अमारत के खिरमन जलाए चला जा ।

शनिवार, 24 जनवरी 2009

कर्मचारियों के बहाने गौर ने साधा निशाना

मध्यप्रदेश के नगरीय प्रशासन मंत्री बाबूलाल गौर के एक बयान पर बवाल मचा गया है । प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके श्री गौर ने पिछले हफ़्ते कहा था कि " जिसे काम नहीं करना होता ,वह सरकारी नौकरी में आता है ।" उन्होंने ये भी कहा कि सरकारी कर्मचारी सुस्त हैं और प्रदेश के विकास में बाधक भी ।

उनके इस बयान से भडके कर्मचारी लामबंद हो गये हैं । कर्मचारी संगठनों ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया ज़ाहिर की है । कर्मचारियों का कहना है कि नेता और मंत्री तो महज़ घोषणाएं करके वाहवाही लूटते हैं । सरकारी कामकाज तो कर्मचारियों के बूते ही होता है । लेकिन कर्मचारियों की नाराज़गी से बेपरवाह श्री गौर अब भी अपनी बात पर अडे हैं । उनकी निगाह में सरकारी मुलाज़िम अलाल और मुफ़्तखोरी के आदी हैं ।

जिन लोगों का सरकारी दफ़्तरों से साबका पडा है उन्हें गौर के बयान में शब्दशः सच्चाई दिखाई दे सकती है । ये भी सही है कि कार्यालयों में टेबलों पर पडी फ़ाइलों की महीनों धूल तक नहीं झडती । चाय - पान के ठेलों पर कर्मचारियों का मजमा जमा रहता है । ऑफ़िस का माहौल बोझिल और उनींदा सा बना रहता है । ऊंघते से लोग हर काम को बोझ की मानिंद बेमन से करते नज़र आते हैं । मगर इस सब के बावजूद सरकार का कामकाज चल रहा है तो आखिर कैसे ..?

गौर जैसे तज़ुर्बेकार और बुज़ुर्गवार नेता से इस तरह के गैर ज़िम्मेदाराना बयान की उम्मीद नहीं की जा सकती । हो सकता है ज़्यादातर कर्मचारी अपने काम में कोताही बरतते हों । उनकी लापरवाही से कामकाज पर असर पडता हो । लेकिन कुछ लोग ऎसे भी तो होंगे जो अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदार हों और अपने काम को पूरी मेहनत और लगन से बखूबी अंजाम देते हों । ऎसे में सभी को एक ही तराज़ू में तौलना कहां तक जायज़ है ? क्या ये ठीक माना जा सकता है कि सभी कर्मचारियों को निकम्मा और कामचोर करार दिया जाए ?

चलिए कुछ देर के लिए मान लिया जाए कि गौर जो कह रहे हैं वो हकीकतन बिल्कुल सही है , तो ऎसे में सवाल उठता है कि इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है ? क्या उस सरकार की कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती जिसमें गौर खुद शामिल हैं ? क्या सरकारी मुलाज़िम निठल्ले होने के साथ - साथ इतने ताकतवर हो चुके हैं कि वे मंत्रियों पर भारी पडने लगे हैं ? बकौल गौर कर्मचारी प्रदेश के विकास में बाधक हैं , तो क्या जिस विकास के दावे पर जनता ने भाजपा को दोबारा सत्ता सौंपी ,वो खोखला था ? और अगर विकास हुआ तो आखिर किसके बूते पर ....?

दरअसल इस मसले को बारीकी से देखा जाए तो इसके पीछे कहानी कुछ और ही जान पडती है । लगता है गौर की राजनीतिक महत्वाकांक्षा एक बार फ़िर बलवती होने लगी है । छठा वेतनमान मिलने में हो रही देरी से प्रदेश के कर्मचारी बौखलाए हुए हैं । ऎसे समय में गौर के भडकाऊ बयान ने आग में घी का काम किया है । प्रदेश में शिवराज सिंह के विकास के नारे को जिस तरह से जनता ने वोट में तब्दील किया उससे पार्टी में उनका कद अप्रत्याशित रुप से एकाएक काफ़ी तेज़ी से बढा है । दिग्विजय सिंह के दस साल के कार्यकाल से निराश हो चुके कर्मचारियों की समस्याओं को ना सिर्फ़ शिवराज ने सुना - समझा और उनकी वेतन संबंधी विसंगतियों को दूर करने के अलावा सेवा शर्तों में भी बदलाव किया । दिग्विजय सिंह भी स्वीकारते हैं कि शिवराज कर्मचारियों के लाडले हैं और उन्हीं की बदौलत वापस सत्ता हासिल कर सके हैं ।

गौर की बयानबाज़ी शिवराज की उडान को थामने की कोशिश से जोड कर भी देखी जाना चाहिए । इसे लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र कर्मचारियों में असंतोष की चिंगारी को हवा देकर दावानल में बदलने की कवायद भी माना जा सकता है । यदि लोकसभा चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन मनमाफ़िक नहीं रहा , तो शिवराज का विरोधी खेमा इस मौके को भुनाने से नहीं चूकेगा । मुख्यमंत्री पद की शोभा बढा चुके गौर वैसे तो "सूबे के मुखिया" होने के ’हैंग ओवर’ से अब तक बाहर नहीं आ पाए हैं । पिछली सरकार में वाणिज्य कर मंत्री रहते हुए वे गाहे बगाहे दूसरे महकमों के कामकाज में भी दखल देते रहे हैं ।

शिगूफ़ेबाज़ी कर मीडिया की सुर्खियां बटोरना उनका शगल है । कभी भोपाल को स्विटज़रलैंड बनाने का ख्वाब दिखा कर , कभी बुलडोज़र चलाकर , तो कभी इंदौर और भोपाल में मेट्रो ट्रेन चलाने की लफ़्फ़ाज़ी कर लोगों को लुभाने की कोशिश करने वाले गौर ने 2006 में प्रदेश को पॉलिथीन से पूरी तरह निजात दिलाने का शोशा छोडा था । कुछ दिन बाद पॉलिथीन निर्माता कंपनियों का प्रतिनिधिमंडल गौर से मिला । इसके बाद ना जाने क्या हुआ ....?????? प्रदेश में पॉलिथीन का कचरा दिनोंदिन पहाड खडे कर रहा है ।

सोमवार, 19 जनवरी 2009

पब्लिक है , ये सब जानती है .............!

आजकल अखबार समाचारों की बजाय रोचक जानकारियों से भरे रहते हैं । कल तक हर आम खास बन कर जीने के ख्वाब देखा करता था , लेकिन अब देश के अति विशिष्ट व्यक्तियों को आम बनने या कहें खुद को आमजन सा दिखाने का चस्का लग गया है । नए ज़माने के राजा भोज किसी गरीब की झोपडी में रात बिताकर किसी दलित के साथ खाना खाकर ना सिर्फ़ उसे बल्कि पूरे देश को निहाल कर रहे हैं ।

चुनावों से पहले मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री महोदय को मोटर साइकल की सवारी ऎसी भाई कि वे गाहे बगाहे किसी भी गांव में पहुंच कर किसी की भी बाइक पर बैठ कर निकल पडते थे - जनता का हालचाल जानने । शिवराज सिंह चौहान ने सरकारी लवाज़मे को दरकिनार कर मोटर साइकल से नाता जोडा । लेकिन दोबारा गद्दीनशीन होने के बाद ग्रामीण जनता को शिवराज सिंह के करीब फ़टकने का मौका फ़िलहाल तो मिलता नज़र नहीं आता ।

इसी तरह पेट्रोल की कीमतें बढने पर शिवराज ने हफ़्ते में एक दिन साइकल की सवारी का इरादा किया । देखा देखी कई मंत्रियों ने भी साइकल के हैंडल पकडने की मशक्कत शुरु कर दी । लेकिन अखबारों में फ़ोटो सेशन होते ही "शान की सवारी" को कहीं अटाले में डाल दिया गया । गाडियों के काफ़िले में बेतहाशा फ़ूंके जा रहे ईंधन और राजकोष की बर्बादी से परेशान होकर शर्माशर्मी में मुरली देवडा को ही किस्तों में ही सही पेट्रोल की कीमतों में कटौती करना ही पडा ।

सिलसिला यहीं नहीं थमता । देश के लाडले युवराज राहुल गांधी जब सिर पर तगारी रखकर मिट्टी उठाते हैं और दलित के घर खाना खाकर उसका जीवन धन्य करते हैं तो ये भी बडी भारी और ऎतिहासिक घटना होती है ।

कल यानी रविवार का दिन भारतीय इतिहास के पन्नों में सुनहरे हर्फ़ों में दर्ज़ किया जाएगा । प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सादगी की मिसाल कायम कर जनता का तो मालूम नहीं , मगर मीडिया का "मन -मोह” लिया । ड्राइविंग लाइसेंस के नवीनीकरण के लिए श्री सिंह आरटीओ कार्यालय पहुंचे । उन्होंने सभी औपचारिकताओं को भी हमारी आपकी तरह ही पूरा किया ।

दिलचस्प बात ये रही कि सरकारी महकमे में इस " आम नागरिक" का काम महज़ आधे घंटे में हो गया । देश के सरकारी कार्यालय वाकई मुस्तैद हो चुके हैं .......? शायद छठा वेतनमान लागू होने के बाद से कर्मचारियों में कार्पोरेट कल्चर पैदा हो गया है । पैसे की गर्मी ने उनके काम काज में चुस्ती फ़ुर्ती ला दी है । ऊंघते हुए दफ़्तरों में अब ज़िंदादिली और कर्मठता का नज़ारा देखने मिले इससे ज़्यादा सुखद भला क्या हो सकता है ?

खास लोगों का आमजनों से जुडाव कोई नई बात नहीं है । इंदिरा गांधी भी आदिवासियों के साथ लोक नृत्य कर उनके करीब जाने का कोई भी अवसर चूकती नहीं थीं । राजीव गांधी ने भी उसी परंपरा को आगे बढाया । पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ेल सिंह और एपीजे अब्दुल कलाम भी लोगों के बीच जाते थे और उनसे संवाद का सिलसिला बरकरार रखते थे ।

आज के दौर के राजनेताओं के लिए जनता के करीब जाने के ये मौके केवल खबरी दुनिया तक ही सिमट कर रह गये हैं । समाचारों में चर्चा और मुस्कराते हुए फ़ोटो सेशन कराकर ही ज़्यादातर नेता मान लेते हैं कि वे जनप्रिय हो चुके हैं । जनता लोकतंत्र की सूत्रधार है । शायद यही सोचकर नेता जनता के करीब जाने का आधा अधूरा प्रयास करते हैं लेकिन फ़िल वक्त जनता का रहनुमा कहलाने की इस कोशिश में ईमानदारी कम और शोशेबाज़ी ज़्यादा नज़र आती है । पब्लिक है , ये सब जानती है ............., अंदर क्या है , अजी बाहर क्या है , ये सब कुछ पहचानती है .....!

रविवार, 4 जनवरी 2009

इंसानों के बाद जानवरों को गोद लेने की परंपरा........

भोपाल के राष्ट्रीय उद्यान वन विहार ने वन्यप्राणियों के संरक्षण के लिए अनूठी पहल की है -जानवरों को गोद लेने की । इस योजना में अब कोई भी संस्था या व्यक्ति प्राणियों के रखरखाव की ज़िम्मेदारी ले सकेगा । योजना में बाघ ,शेर , तेंदुआ से लेकर मगरमच्छ ,घडियाल और रीछ - भालू भी शामिल किए गये हैं । शेर को गोद लेने के लिए एक लाख ग्यारह हज़ार रुपए खर्च करना हों गे , जबकि बाघ की ज़िम्मेदारी उठाने के लिए सवा लाख रुपए जमा कराने पडेंगे ।

अगर आप पशु प्रेमी तो हैं लेकिन ये खर्च आपके बजट से बाहर की बात है , तो भी चिंता की कोई बात नहीं क्योंकि वन विभाग ने मध्यम वर्ग का ख्याल रखते हुए जेब पर भारी ना पडने वाले जानवरों को भी फ़ेहरिस्त में जगह दी है । अजगर छह हज़ार रुपए के खर्च में आपका हो सकता है । अगर यह फ़ीस भी ज़्यादा है , तो भी निराश होने की ज़रुरत नहीं है । सालाना दो हज़ार रुपए में साँप पालना भी बुरा सौदा नहीं है । वैसे भी शहरी ज़िंदगी में लोगों का आए दिन अजगरों से साबका पडता है । चाहे अनचाहे "आस्तीन के साँप" पल ही जाते हैं । ऎसे में घोषित तौर पर होर्डिंग पर नाम दर्ज कराकर साँप-अजगर , घडियाल ,मगरमच्छ पालने में बुराई भी क्या है ...?

खबर है कि एक छात्रा ने अजगर पालने का फ़ैसला लेकर योजना का श्रीगणेश भी कर दिया है । मेरे जैसे शख्स के लिए तो साँप भी बजट से बाहर है । लेकिन इस मुहिम में भागीदार नहीं बन पाना आगे चलकर कई लोगों के लिए फ़्रस्ट्रेशन का सबब भी बन सकता है । समाज में , अपने सर्किल में क्या मुंह दिखाएंगे ..? किस तरह लोगों की हिकारत भरी निगाहों का सामना कर पाएंगे....? उम्मीद है वन विभाग हम जैसों का ख्याल भी ज़रुर रखेगा । मुझे तो लगता है कि केन्द्र सरकार ने जिस तरह मध्यम वर्ग का खयाल रखकर घर ,कार वगैरह के लिए सस्ता कर्ज़ देने की मुहिम छेडी है । उसी तर्ज़ पर वन विभाग को भी आम जनता की माँग पर बिच्छू , केंचुए, सेही , मॆढक , गिरगिट जैसे सस्ते जीव - जन्तुओं के पालनहार ढूंढना होंगे ।

कुछ साल पहले भोपाल में इतनी बारिश हुई थी कि बाढ के हालात बन गए थे । नाले की ज़मीन पर कब्ज़ा कर घर बना कर रहने वालों के घर पूरी तरह तबाह हो गए थे । तब मैंने पढा था कि पानी के घर में घुसोगे तो पानी एक दिन तुम्हारे घर में घुसेगा । इंसानी गल्ती के लिए पानी को कोसना बेतुका और बेमानी है । दो तीन दिन पहले धार के रिहाइशी इलाके में घुस आए तेंदुए को लोगों ने बेरहमी से पीट - पीट कर मार डाला । भोपाल के नज़दीक नाले पर पानी पीने आए भालू को भी लोगों ने अधमरा कर दिया ।

ऎसी ही दर्दनाक घटनाएं देश के अलग अलग इलाकों से आए दिन सुनने मिलती हैं । अपने लालच के चलते खेतों - जंगलों का सफ़ाया करके शहरों का विस्तार करने वाले इंसान ने वन्य प्राणियों को उनके ही घर से बेदखल कर दिया है । अब इन्हीं जानवरों को गोद लेने की नायाब तरकीब का हवाला देकर कौन सी अनोखी बात होने जा रही है देखना होगा ।

जंगल कट रहे हैं , जानवर बेघर हो रहे हैं । वन विभाग के अपने तर्क हैं ,कभी बजट ,कभी अमला ,तो कभी संसाधनों की कमी का रोना । साल दर साल कांक्रीट का जंगल विस्तार पा रहा है और हरा भरा नैसर्गिक जंगल अस्तित्व खो रहा है । मध्यप्रदेश में 1960- 61 में 173 हज़ार वर्ग किलोमीटर जंगल था ,जो 1980- 81 के आने तक सिकुड कर 155 हज़ार वर्ग किलोमीटर रह गया । मौजूदा आंकडों के मुताबिक राज्य में जंगल अब महज़ 95 हज़ार 221वर्ग किलोमीटर है ।

एक समय था जब प्रदेश यह दावा करता था कि देश का लगभग एक चौथाई वनक्षेत्र होने के कारण वन आधारित उद्योग इसी अनुपात में प्रदेश को दिए जाना चाहिए । लेकिन अब तस्वीर रफ़्ता रफ़्ता बदल रही है । सरकारी आंकडों के मुताबिक प्रदेश में 31 फ़ीसदी वन भूमि है लेकिन वन आच्छादित क्षेत्र अब 25 प्रतिशत ही है । वास्तविक वनक्षेत्र अब बमुश्किल 15 से 18 फ़ीसदी के बीच रह गया है ।

मेरे पिताजी मुझसे अक्सर कहा करते हैं कि जिस भी इलाके में नया थाना खुलता है ,वहां एकाएक अपराधों की तादाद में इज़ाफ़ा देखा जाता है । कमोबेश यही स्थिति वन अमले के साथ भी है । वन विभाग में अफ़सरों की तादाद जैसे जैसे बढती गई ,जंगल भी उसी रफ़्तार से गायब होते गये ।
इस बीच दिल को सुकून देने वाली खबर है कि खरबों रुपए खर्च करके भी जो काम सरकारी अमला नहीं कर सका । उसे एक शख्स की दृढइच्छा शक्ति और मज़बूत इरादों ने हकीकत में बदल दिया । भोपाल के उमर अलीम ने राजधानी के नज़दीक अपने पैतृक गांव हिनौतिया जागीर की बंजर पहाडी पर हरियाली की चादर बिछा दी । पैंसठ एकड की सूखी पहाडी के पन्द्रह एकड हिस्से में उमर अलीम ने चौबीस साल पसीना बहाकर सागौन के बारह हज़ार पेड जवान कर दिए । दस लाख रुपए की लागत और खुद की मेहनत के बूते जंगल खडा कर उमर अलीम ने तमाम सरकारी अमले के मुंह पर करारा तमाचा जडा है और किन्तु - परन्तु के फ़ेर में बहाने बनाने वालों के लिए मिसाल कायम की है ।

पचास के दशक में प्रकाशित पुस्तक "द वाइल्ड लाइफ़ ऑफ़ इंडिया" की प्रस्तावना में देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने लिखा था - "वन्यप्राणी - यह नाम हमने वनों के उन वन्यपशुओं और पक्षियों को दिया है जिनके बिना जीवन अधूरा है और जंगल सूने हैं । काश ! यदि यह प्राणी बोल पाते और हम इनकी भाषा समझ पाते तो हमें पता चल जाता कि इनके विचार हमारे बारे में बहुत अच्छे नहीं हैं ।"

नेहरु जी की ये टिप्पणी आज भी उतनी ही सटीक है । वन्यप्राणियों के विचार प्रश्न बन गए हैं । प्रश्न जो मरणासन्न श्रवण कुमार ने दशरथ से किया था , जो आज हर शिकार अपने शिकारी से करता है । सदियों से ये सवाल आकाश में गूंज रहा है लेकिन आज तक कोई जवाब धरती पर नहीं उतरा है । शब्दबेधी बाण का नतीजा तो दशरथ ने पुत्र वियोग में प्राण देकर भोगा । लेकिन उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में जो भीषण वन और वन्यप्राणी संहार हुआ उसका परिणाम कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि हमारी आने वाली कई नस्लें भयावह पर्यावरण असंतुलन से उपजी प्राकृतिक आपदाओं के रुप में भुगतेंगी ।

सोमवार, 22 दिसंबर 2008

चुनाव जीतते ही जान के पडे लाले

मध्यप्रदेश में हाल ही में चुन कर आए विधायकों को जान का खतरा है । चंद दिन पहले तक आम जनता के बीच बेखौफ़ जाने वाले नेताओं को वोटों की गिनती में विरोधी से आगे निकलते ही जान का डर सताने लगा है । कल तक जिन नेताओं की जान जनता में बसती थी , जीत मिलते ही उनमें ज़िंदगी की हिफ़ाज़त के लिए सुरक्षा की चाहत सिर उठाने लगी है ।

इस की पुष्टि मध्यप्रदेश पुलिस मुख्यालय की इंटेलीजेंस शाखा को मिले चार दर्जन से ज़्यादा आवेदन करते हैं । क्षेत्रीय नेता के तौर पर बरसों से निडर घूमने वाले नेता एकाएक इतने असुरक्षित कैसे हो गये ..?

प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस के चालीस से अधिक विधायकों ने जान जोखिम में बताकर गनमैन की गुहार लगाई है । नए विधायकों ने गनमैन हासिल कर रौब रुतबा गालिब करने के लिए बहाने भी खूब गढे हैं । किसी को अपने इलाके के डकैतों से खतरा है ,तो कोई नक्सलियों की गोलियों से खौफ़ज़दा है । जितने नेता , उतने बहाने ......। अभी तक करीब एक दर्ज़न विधायकों को अस्थाई तौर पर गनमैन दे दिए गए हैं ।

पुलिस के आला अफ़सर भी मानते हैं कि ज़्यादातर नेताओं के लिए बंदूकधारी के साए में चलना स्टॆटस सिंबल के अलावा कुछ नहीं । एक आईपीएस की टिप्पणी काबिले गौर है ” जब जनप्रतिनिधि ही असुरक्षित हैं ,तो ऎसे में राज्य की छह करोड से अधिक जनता का भगवान ही मालिक है ।" उनका कहना है कि जहां केन्द्र सरकार वीआईपी सुरक्षा में कटौती कर रही है ,वहीं प्रदेश में जनप्रतिनिधि लगातार गनमैन की मांग उठाकर जनता में कानून व्यवस्था के प्रति संदेह पैदा कर रहे हैं ।

मुम्बई हमले के बाद नेताओं के खिलाफ़ जनता का गुस्सा फ़ूट पडा था और उनकी हिफ़ाज़त के लिए सुरक्षा बलों की तैनाती पर भी सवालिया निशान लगाए गये । लोगों ने सडकों पर आकर नेताओं की जमकर मज़म्मत की और सुरक्षा घेरे से बाहर आकर आम जनता सा जीवन जीने की हिदायत दे डाली । दो - चार दिन के शोर शराबे के बाद जनता ने अपनी राह पकड ली और नेता अपने तयशुदा रवैए के साथ एक मर्तबा फ़िर उसी रंग में नज़र आने लगे । नेताओं के प्रति जनता का गुस्सा यानि चार दिन की चांदनी फ़िर अंधेरी रात ....।

देश में कुल सेना 37 लाख 89 हजार तीन सौ है तो राजनीति करने वाले चुने हुये नुमाइन्दों की तादाद 38 लाख 67 हजार 902 है । यह तादाद सिर्फ जनता का वोट लेकर आए नेताओं की है। सांसद से लेकर ग्राम पंचायत तक मतों के ज़रिए चुन कर आने का दावा करने वालों की संख्या का ब्यौरा तैयार किया जाए , तो यह आंकडा करोड़ तक पहुंचने में वक्त नहीं लगेगा ।

किसी ज़माने में जन सेवा का दर्ज़ा हासिल करने वाली राजनीति ने अब संगठित व्यवसाय का बाना पहन लिया है । शालीनता और विनम्रता के कारण राजनेताओं के लिए आदर सम्मान का भाव हुआ करता था । लेकिन अब सियासत में कारपोरेट कल्चर के दखल के चलते रौब दाब और रसूख का बोलबाला है । देश में राजनीति एक सफ़ल उभरते उद्योग की शक्ल ले चुका है । यही वजह है कि मंदी की खौफ़नाक तस्वीर के बीच भारतीय राजनीति अब भी सबसे ज्यादा रोजगार देनी वाली संस्था कही जा सकती है ।

राजनीति परवान चढ रही है सुरक्षाकर्मियों के भरोसे । देश में मिलेट्री शासन नही लोकतंत्र है , यह कहने की जरुरत नही है। लेकिन लोकतंत्र सुरक्षा घेरे में चल रहा है यह समझने की जरुरत जरुर है। पुलिसकर्मियों में से तीस फीसदी पुलिस वालो का काम वीआईपी सुरक्षा देखना है। यानि उन नेताओं की सुरक्षा करना जिन्हें जनता ने चुना है। औसतन एक पुलिसकर्मी पर महिने में उसकी पगार , ट्रेनिग और तमाम सुविधाओ समेत पन्द्रह हजार रुपये खर्च किये जाते है। देश के साठ फीसदी पुलिसकर्मियों को दो वक्त की रोटी के इंतज़ाम जितनी ही त्तनख्वाह मिलती है ।

शनिवार, 20 दिसंबर 2008

सियासी गलियारों में लडखडाहट भरे आगे बढते कदम

आज भोपाल में शिवराज मंत्रिमंडल का गठन हो गया । लोगों की उम्मीद के मुताबिक ज़्यादातर मंत्रियों के चेहरे जाने पहचाने हैं । मंत्रिमंडल में बडे पैमाने पर रद्दोबदल ना तो मुख्यमंत्री के बूते की बात है और ना ही पार्टी लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र कोई बडा जोखिम लेने की स्थिति में है । शिवराज सिंह ने अपनी टीम में दो महिला विधायकों को भी शामिल किया है , लेकिन ये आंकडा आधी दुनिया की नुमाइंदगी के लिहाज से नाकाफ़ी लगता है ।

प्रदेश में सर्वाधिक 85 हज़ार 362 वोट बटोर कर बुरहानपुर सीट जीतने वाली अर्चना चिटनीस को मंत्री बनाया गया है । इसी तरह मनावर से जीती रंजना बघेल को राज्यमंत्री के तौर पर जगह मिली है । 13 वीं विधान सभा में राज्य की जनता ने 25 महिलाओं को अपने क्षेत्र की आवाज़ बुलंद करने का दायित्व सौंपा है । 230 सीटों की विधान सभा में 25 का आंकडा काफ़ी छोटा मालूम देता है , लेकिन प्रदेश में ऎसा तीसरी बार हुआ है ,जब दस फ़ीसदी से अधिक महिलाओं को विधान सभा में दाखिल होने का मौका मिल सका है ।

मध्यप्रदेश के इतिहास में विधान सभा पहुंचने वाली महिलाओं का आंकडा हमेशा ही निराशाजनक रहा है । अब तक सबसे अधिक 11.80 फ़ीसदी प्रत्याशी 1957 में जीतीं थी ,लेकिन इन आंकडों से तुलना बेमानी होगा क्योंकि तब छत्तीसगढ भी प्रदेश का ही हिस्सा था और सीटों की कुल संख्या 320 थी हालांकि ये संख्या काबिले गौर भी है ,क्योंकि ये उस दौर की बात है जब महिलाओं के लिए समाज में आगे बढने के अवसर बेहद सीमित थे । घर की चहारदीवारी में कैद महिलाओं के लिए सियासी मसले पेचीदा माने जाते रहे और राजनीति में महिलाओं के दखल को समाज में खास तवज्जो भी नही दी जाती थी । मौजूदा दौर में महिलाओं पर आधुनिकता का रंग तो खूब चढा लेकिन विधान सभा की दहलीज़ पर कदम रखने में अभी भी हिचकिचाहट बरकरार है ।

उत्साहजनक बात ये है कि इस बार 25 महिलाएं चुनकर आई हैं , जबकि पिछली मर्तबा 19 महिला विधायक थीं । बीजेपी से 15 महिलाओं को सफ़लता मिली है , जबकि 8 महिलाएं विधान सभा में कांग्रेस की नुमाइंदगी करेंगी । उमा भारती की भारतीय जन शक्ति और समाजवादी पार्टी ने भी एक - एक महिला विधायक को सदन तक पहुंचाने में कामयाबी पाई है ।

हाल ही में विधानसभा चुनावो में भाजपा को महिला मतदाताओं से मिलने वाले वोटों में इज़ाफ़ा हुआ है । सांगठनिक ढांचे में 33 फ़ीसदी आरक्षण देने वाली भाजपा के प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर मानते हैं ,“ भाजपा मानती है कि जब तक देश की 50 फ़ीसदी महिलाओं की आबादी सक्षम नहीं होगी तब तक देश का विकास अधूरा रहेगा ।”
तू फ़लातूनो- अरस्तू है तू ज़ुहरा परवीं
तेरे कब्ज़े में है गर्दूं , तेरी ठोकर में ज़मीं
हां , उठा , जल्द उठा पाए -मुकद्दर से ज़बीं
मैं भी रुकने का नहीं ,वक्त भी रुकने का नहीं
लडखडाएगी कहां तक कि संभलना है तुझे ।

मंगलवार, 16 दिसंबर 2008

इस बार रोटी के पडेंगे लाले .......


देश भर में फ़ैली मालवी गेंहू की खुशबू इस बार मालवा के लोगों को ही मिल जाए तो बहुत बडी बात होगी । कम बरसात के कारण आधे से ज़्यादा खेतों में गेंहू की बुवाई ही नहीं हो पाई है । कुछ लोगों ने कम पानी वाली किस्मों की बोवनी की हिम्मत जुटाई है ,लेकिन उनमें मालवी गेंहू की वो खासियत कहाँ....?

’पग - पग रोटी . डग - डग नीर’ के लिए मशहूर मालव प्रदेश की धरती का आंचल सूख चुका है । प्यासी धरा से लोगों का पेट भरने लायक अनाज की उम्मीद भी दिन पर दिन फ़ीकी पडती जा रही है । मालवा में किसानों ने करीब 21 हज़ार हैक्टेयर में गेंहू की बनिस्बत 45, 600 हेक्टेयर में चना बोया है । कम पानी की दरकार के कारण किसानों को चने की फ़सल फ़ायदेमंद लग रही है । जल्दी ही इस समस्या से निपटने के उपाय नहीं तलाशे गये , तो गृहिणियों को पाक कला के नए गुर सीखना होंगे । आने वाले वक्त में गेंहू का होगा बेसन और चने का बनेगा आटा .....।

इस बीच अगले साल गेंहू की पैदावार में कमी के आसार ने लोगों के होश उडा दिये हैं । कई इलाकों में कम बारिश से गेंहू की बुवाई पर खासा असर पडा है । राज्य में 42 लाख हेक्टेयर के तय लक्ष्य से करीब चार लाख हेक्टेयर कम ज़मीन में गेंहू की बोवनी की बात कही जा रही है । प्रदेश में प्रति हेक्टेयर औसत उत्पादन दस से पंद्रह क्विंटल है । इस हिसाब से गेंहू उत्पादन तकरीबन पचास लाख क्विंटल कम होने की आशंका है । कृषि महकमा भी मान रहा है कि पानी की कमी रबी फ़सलों पर भारी पड रही है । नतीजतन बीस ज़िलों में गेंहू की कम बोवनी हुई है । मालवा , निमाड , मध्य भारत आदि अंचल सर्वाधिक प्रभावित हैं ।

विशेषज्ञ कहते हैं कि अगर कुछ दिन और तापमान यूं ही बना रहा तो गेंहू के उत्पादन में 20 से 25 फ़ीसदी की गिरावट होगी । अन्य फ़सलों की पैदावार पर भी मौसम के बदलते तेवरों की परछाईं दिखाई देगी । मौसम की बेदर्दी से आई उत्पादन में कमी अनाज के दामों को बेकाबू कर देगी । ऎसे में मंदी की मार से टूटे लोगों पर मंहगाई का हंटर कहर बरपाएगा ।

ठंड के मौसम में सूरज के कडे तेवरों ने प्रदेश में रबी फ़सलों पर असर दिखाना शुरु कर दिया है । फ़सलों की बढवार रुक गई है। समय से पहले फ़सल पकने की आशंका ने किसान को चिंता में डाल दिया है । मौसम का मिजाज़ इस कदर बिगडा है कि दिसंबर के महीने में ठंड से निजात दिलाने वाली धूप इस मर्तबा परेशानी का सबब बन गई है । दोपहर में लोग तीखी धूप से बचने के तरीके तलाशते नज़र आते हैं ।

मौसम की बेरहमी गर्मी में हालत खराब कर सकती है । इस साल कम बारिश की वजह से प्रदेश में अभी से अकाल की आहट सुनाई देने लगी है । राज्य के 31 ज़िलों की 110 तहसीलों पर सूखे की मार ने लोगों के कंठ सुखा दिये हैं । इन जगहों पर पीने के पानी का ज़बरदस्त संकट पैदा हो गया है । सोना उगलने वाली धरती भी प्यासी है और उसने भी हाथ खडे कर दिये हैं ।

वर्षा की स्थिति और उसके असर पर ज़िलों से मंगाई गई रिपोर्ट में चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं । सूबे के 139 नगरीय निकायों में एक दिन या उससे भी ज़्यादा अंतराल पर पीने का पानी मुहैया कराया जा रहा है । गांवों में तो स्थिति और भी विकट है । प्रशासनिक अमला भी गर्मी में पानी की मारामारी को लेकर परेशान है । पुलिस महकमे के आला अफ़सरान मानते हैं कि आने वाली गर्मियों में पानी का मसला कानून व्यवस्था के लिए सबसे बडा सिरदर्द होगा ।

मिल गया समंदर
फ़िर भी प्यास बाकी है
खारे पानी से ना बुझेगी
तलाश बाकी है
तपती दोपहर में भी
चातक की आंखें
लगी हैं नीले आसमान पर
आस अभी बाकी है ।

शनिवार, 13 दिसंबर 2008

’राम राज्य’ की आस में शिव को सौंपा ताज

शिवराजसिंह चौहान की ताजपोशी के साथ बीजेपी सरकार की नई पारी की शुरुआत हो गई है । भोपाल के जम्बूरी मैदान पर उमडे अथाह जनसैलाब ने भाजपा को स्पष्ट संकेत दे दिये हैं कि छप्पर फ़ाड कर वोट देने के बाद जनता सरकार से जमकर काम लेने के लिए कमर कस चुकी है ।

प्रदेश की जनता ने जिस निष्ठा और विश्वास के साथ शिवराजसिंह चौहान पर भरोसा जताया है , उसकी कसौटी पर खरा उतरने के लिए मुख्यमंत्री को सूबे की कमान संभालते ही काम में जुट होगा । भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों को दरकिनार कर राज्य की बागडोर भाजपा को सौंपने के पीछे सिर्फ़ एक ही कारण नज़र आता है कि मतदाताओं को शिवराज की कोशिशों में ईमानदारी दिखाई दी । लोगों ने ना पार्टी और ना ही स्थानीय नेता को चुना , बल्कि उन्होंने तो शिवराज के विकास के नारे पर अपने भरोसे की मोहर लगाई है ।

इस चुनाव में मतदाता ने स्पष्ट कर दिया है कि ना तो उसे बीजेपी से कोई खास लगाव है और ना ही कांग्रेस से कोई बैर । उसे मतलब है सिर्फ़ काम से । अच्छा काम करने की बात और विकास का वायदा तो लगभग सभी पार्टियों ने किया लेकिन मतदाताओं ने वायदा करने वालों की विश्वसनीयता को जांचा - परखा । यही वजह रही कि एक दूसरे को नीचा दिखाने में मशगूल कांग्रेस नेताओं के प्रति जनता ने बेरुखी अख्तियार कर ली । लोगों को लगा कि जब तक कांग्रेस अपना घर व्यवस्थित नहीं कर लेती , उसे प्रदेश का ज़िम्मा सौंपना ठीक नहीं होगा ।

दूसरी अहम बात रही शिवराज की विनम्र और ज़मीन से जुडे व्यक्ति की छबि । उन्होंने अपनी कमियाँ स्वीकार करने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई । शायद इसीलिए तमाम खामियों के बावजूद शिवराज का जननायक के रुप में ’कायान्तरण” संभव हो सका । लेकिन अभी यह सफ़र का महज़ आगाज़ है । आगे का रास्ता काफ़ी कंटीला और दुर्गम है और यहीं से शुरु होगा जननायक की असली परीक्षा का दौर ...?

मध्यप्रदेश चुनावों की कुछ विशिष्टताओं पर विचार ज़रुरी है । हालांकि भाजपा के कई धडॆ इसे मानने को तैयार नहीं लेकिन हकीकतन आम जनता पर ’शिवराज फ़ेक्टर” हद दर्ज़े तक हावी रहा । गुजरात का ’मोदी माडल’ अपनी जगह है , मगर समाज के सभी वर्गों तक पहुंचने के लिए वायदों की बरसात के ’ शिवराज फ़ार्मूला’ का कामयाब होना आगामी चुनावों की रणनीति पर सभी दलों को फ़िर से काम करने के लिए बाध्य करेगा । इस माडल की खामियां और खूबियां तो अगले पांच साल ही बता सकेंगे , लेकिन फ़िलहाल यह माडल मोदी माडल की तुलना में ज़्यादा कारगर साबित हुआ है ।

जनता ने ज़्यादातर शिवराज को वोट दिया है फ़िर चाहे उम्मीदवार कोई भी रहा हो । अममून देखा गया है कि लोकप्रियता का बढता ग्राफ़ संकट का स्रोत भी बन जाता है । जनता जहाँ असीमित आशाएँ- अपेक्षाएँ पाल लेती है , वहीं पार्टी के भीतर भी ईर्ष्या और द्वेष के नाग फ़न फ़ैलाने लगते हैं । ऎसे में उन्हें खुद के बनाए माडल से भी सावधान और चौक्कना रहना होगा ।

शिवराज सरकार के सामने कडी चुनौती होगी चुनावी घोषणा पत्र में किए गये वायदों को पूरा करने की । बीजेपी ने अपने घोषणा पत्र ’जन संकल्प पत्र’ में जो वायदे किए हैं यदि वे सारे के सारे आने वाले पाँच साल में पूरे कर दिए जाते हैं तो मध्यप्रदेश हकीकत में स्वर्ग बन जाएगा ।

पिछले कार्यकाल में शिवराज ने राजधानी में किस्म - किस्म की महापंचायतें आयोजित कर ज़बानी जमा खर्च की तमाम रेवडियाँ बाँटी । प्रदेश का एक बडा हिस्सा उन घोषणाओं को लेकर तरह तरह के सपने बुन कर बैठा है । वायदों को हकीकत में बदलने के लिए सरकार को आर्थिक मोर्चे पर विशेष कोशिशें करना होंगी । योजनाओं को अमली जामा पहनाने के लिए आय के नए स्रोत तलाशने के साथ ही वित्तीय स्थिति में मज़बूती के लिए मितव्ययिता अपनाना होगी । लेकिन सूबे के मुखिया के ’राजतिलक” पर दिल खॊलकर किए गए खर्च को देखते हुए फ़िलहाल वित्तीय अनुशासन की बात कहना बेमानी लगता है ।

बहरहाल शिवराज एकछत्र नेता के रुप में उभरे हैं । उन्हें सकारात्मक समर्थन मिला है ,लेकिन लाख टके का सवाल है कि क्या वे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाकर सकारात्मक राजनीति और रचनात्मक सुशासन का माडल तैयार कर सकेंगे.....?

झूठे सिक्कों में भी उठा देते हैं अकसर सच्चा माल
शक्लें देख के सौदा करना काम है इन बंजारों का ।

शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

सियासी मैदान में ज़मीन तलाशती औरतें


आधी आबादी की भागीदारी में इज़ाफ़े के दावों - वादों के बीच सच्चाई मुंह बाये खडी है । हाशिए पर ढकेल दिया गया महिला वर्ग अपनी आवाज़ बुलंद करने के लिए आज भी राजनीतिक ज़मीन तलाश रहा है ।

भारतीय राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढाने को लेकर लंबे चौडे भाषण दिये जाते हैं । सियासत में महिलाओं की नुमाइंदगी बढाने को लेकर गंभीर विचार विमर्श के दौर भी खूब चलते हैं । इस मसले पर मंचों से चिंता ज़ाहिर कर वाहवाही बटोरने वाले नेताओं की भी कोई कमी नहीं । लेकिन चुनावी मौसम में टिकिट बांटने के विभिन्न दलों के आंकडों पर नज़र डालें , तो महिलाओं को राजनीति में तवज्जोह मिलना दूर की कौडी लगता है । किसी भी राजनीतिक दल ने टिकट बाँटने में महिलाओं को प्राथमिकता सूची में नहीं रखा है ।

दो प्रमुख राजनीतिक दल कांग्रेस और भाजपा हमेशा से महिलाओं को ३३ प्रतिशत आरक्षण का समर्थन करते आए हैं लेकिन उम्मीदवारों की सूची में उनकी यह इच्छा ज़ाहिर नहीं होती ।
राजनीति में महिलाओं को ३३ प्रतिशत आरक्षण देने की ज़ोरदार वकालत करने वाले राजनीतिक दल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के मध्यप्रदेश में २७ नवंबर को होने वाले चुनाव के टिकट वितरण में इसे भूल गए ।

मध्यप्रदेश में हुए टिकिट वितरण पर निगाह डालें , तो यही तस्वीर सामने आती है कि बीजेपी, कांग्रेस ,बसपा से लेकर प्रांतीय दलों की कसौटी पर भी महिलाएं खरी नहीं उतर सकी हैं ।किसी भी दल ने १३ फ़ीसदी से ज़्यादा महिला उम्मीदवारों में भरोसा नहीं जताया है । यह हालत तब है जब तीन प्रमुख दलों की अगुवाई महिलाएं कर रही हैं ।

भारतीय जनता पार्टी ने महिला प्रत्याशियों को मौका देने में कंजूसी बरती है । पार्टी ने १० फ़ीसदी यानी २३ प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारा है , जबकि प्रदेश संगठन का दावा था कि ३३ प्रतिशत टिकिट नहीं दे पाने की हालत में कम से कम हर ज़िले में एक सीट महिलाओं को दी जाएगी । लेकिन आंकडे बीजेपी के दावे को खोखला करार देते हैं ।

कांग्रेस ने इस मामले में कुछ दरियादिली दिखाई है ,मगर यहां भी गिनती २९ पर आकर खत्म हो जाती है । कुछ कद्दावर नेताओं के विरोध के बावजूद पार्टी ने १२.६० प्रतिशत महिला नेताओं पर जीत का दांव खेला है ।

मायावती की अगुवाई वाली बहुजन समाज पार्टी की महिलाओं के प्रति बेरुखी साफ़ दिखती है । २३० सीटों में से महज़ १३ यानी ५,२२ फ़ीसदी को ही बसपा ने अपना नुमाइंदा बनाया है । हालांकि सोशल इंजीनियरिंग के नए फ़ार्मूले के साथ राजनीति का रुख बदलने में जुटी मायावती से महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढाने को लेकर काफ़ी उम्मीदें थीं ।

उमा भारती की भारतीय जनशक्ति में भी पुरुषों का ही बोलबाला है । तंगदिली का आलम ये है कि २१६ सीटों में से १८ पर ही महिला उम्मीदवारों को मौ्का दिया गया है । समाजवादी पार्टी का हाल तो और भी बुरा है । सपा ने २२५ प्रत्याशी खडॆ किए हैं , जिनमें सिर्फ़ १६ महिलाएं हैं । इस तरह कुल तीन हज़ार एक सौ उन्यासी उम्मीदवारों में से केवल दो सौ बीस महिलाएं हैं ।

हालांकि पिछले चुनाव में १९ महिलाओं को विधानसभा में दाखिल होने का अवसर मिला था । इनमें से १५ बीजेपी की नुमाइंदगी कर रही थीं । ताज्जुब की बात यह थी कि ८ को मुख्यमंत्री और मंत्री पद से नवाज़ा गया । ये अलग बात है कि चार महिलाओं को अलग - अलग कारणों से मुख्यमंत्री और मंत्री पद गंवाना पडा । ये हैं - उमा भारती , अर्चना चिटनीस , अलका जैन और विधायक से सांसद बनीं यशोधरा राजे ।

दरअसल राजनीतिक दलों को लगता है कि महिला उम्मीदवारों के जीतने की संभावना कम होती है , लेकिन एक सर्वेक्षण के बाद सेंटर फॉर सोशल रिसर्च ने कहा है कि यह धारणा सही नहीं है. । सेंटर का कहना है कि १९७२ के बाद के आंकड़े बताते हैं कि महिला उम्मीदवारों के जीतने का औसत पुरुषों की तुलना में बहुत अच्छा रहा है ।

इस मुद्दे पर राजनीतिक दल सिर्फ़ ज़बानी जमा खर्च करते हैं । हकीकतन महिलाओं के साथ सत्ता में भागीदारी की उनकी कोई इच्छा नहीं है । महिलाओं की भागीदारी भले ही सीमित संख्या में बढ़ रही है लेकिन जो महिलाएँ राजनीति में आ रही हैं , उन्होंने महिला राजनीतिज्ञों के प्रति लोगों की राय बदलने का महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । गौर तलब है कि अब जो महिलाएँ चुनाव लड़ रही हैं उनमें से कम ही किसी राजनीतिज्ञ की पत्नी, बेटी या बहू हैं ।

भारत में आम तौर पर राजनीति शुरू से पुरुषों का क्षेत्र माना गया है और आज भी पुरुषों का वर्चस्व कायम है शायद कहीं न कहीं पुरुष राजनेता नहीं चाहते कि वो अपनी जगह छोड़ दें , लेकिन धीरे - धीरे ही सही वक्त करवट ले रहा है ।

व्यक्तिगत तौर पर मेरा मानना है कि महिलाओं को आगे बढने के लिए किसी सहारे की ज़रुरत नहीं । महिलाओं में आगे बढने का जज़्बा भी है और हौसला भी । योग्यता बढाने के लिए अनुकूल माहौल की दरकार है । पर्याप्त मौके मिलते ही इन परवाज़ों को पंख मिल जाएंगे ऊंचे आसमान में लंबी उडान भरने के लिए ....। औरत किसी के रहमोकरम की मोहताज कतई नहीं ...। जिस भी दिन औरत ने अपने हिस्से का ज़मीन और आसमान हासिल करने का ठान लिया उस दिन राजनीति का नज़ारा कुछ और ही होगा ।

कद्र अब तक तेरी तारीख ने जानी ही नहीं
तुझमें शोले भी हैं ,बस अश्कफ़िशानी ही नहीं
तू ह्कीकत भी है , दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं
अपनी तारीख का उनवान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे ।

बुधवार, 12 नवंबर 2008

हर मुसाफ़िर सफ़र में तन्हा है ...........


दौडती - भागती ज़िंदगी की आपाधापी को धता बताती बैलगाडियों की लंबी कतार .........बैलों के गले में पडे घुंघरुओं की रुनझुन ........ चटख लाल , गहरे धानी , सरसों पीले और ना जाने कितने ही रंगों के लंहगे - लुगडों में सजी औरतें ,नई बुश्शर्ट - निक्कर और झबले पहने काजल का डिठौना लगाए बच्चों की किलकारियां ..... लोकगीत की सामूहिक स्वर लहरियों से रस में भीगता माहौल और जय सिया राम की जुहार ........।

ये नज़ारा है नर्मदा तीरे लगने वाले कार्तिक पूर्णिमा के मेले का , जहां उत्साह और उमंग के ऎसे काफ़िले इन दिनों आम हैं । भला कौन होगा जो इन मेलों का आमंत्रण ठुकरा सके । लोक परंपराओं को ज़िंदा रखने वाले मेलों का लुभावना नज़ारा बरसों तक यूं ही आंखॊं में बसा रहता है । जो भी इन मेलों का एक बार भी हिस्सा बना है वो जानता है कि मन ना जाने कब फ़ुर्र से उडकर मेलों में पहुंच जाता है ।

मेले विभिन्न धर्मों और संप्रदायों को एक सूत्र में पिरोने का अनूठा माध्यम हैं । कई मेले धार्मिक आस्था और विश्वास पर केंद्रित हैं , तो कुछ मेलों के पीछे ऎतिहासिक , सामाजिक और राजनीतिक यादों की धरोहर संजोई गई है ।

नदियों का इन मेलों से बडा गहरा और आत्मीय रिश्ता है । मध्यप्रदेश में नदियों के किनारे लगने वाले महत्वपूर्ण मेलों की कडी है । पुण्य सलिला नर्मदा के किनारे भरने वाले माटी की सोंधी गंध से लबरेज़ तमाम मेलों का लोगों को साल भर इंतज़ार रहता है । मेल -मिलाप के इन ठिकानों का अपना मौलिक आनंद है । इन के मूल में कोई अंर्तकथा है , संवेदना है और आदि लोक परंपरा है । यही कारण है ,जो मेलों से जुडी लोक आस्था आज तक बरकरार है ।

ऎसे ही एक मेले का अंश बनने का मुझे भी कुछ साल पहले मौका मिला था । होशंगाबाद जिले का छोटा सा गांव है - बांद्राभान । धार्मिक महत्व के इस स्थान पर नर्मदा का तवा नदी से मिलन होता है. । होशंगाबाद नगर के पूर्व में करीब आठ किमी पर सांगाखेडा के नजदीक बांद्राभान है । तवा - नर्मदा के संगम के नजदीक हर साल कार्तिक पूर्णिमा पर तीन दिन मेला भरता है ।

मेला क्या , बस यूं समझिए चारों तरफ़ जन सैलाब । जहां तक नज़र जाती है ,लोग ही लोग । लोगों का ऎसा रेला इससे पहले मैंने केवल कुंभ में ही देखा था । बिना किसी आमंत्रण ,बिना मुनादी , बगैर डोंडी पीटे स्फ़ूर्त प्रेरणा से लाखों लोगों का एकत्र होना मेरे लिए अचंभे की बात थी । इतना बडा मेला हर साल लगता है और करीब सौ - सवा सौ किलोमीटर की दूरी पर बसे भोपाल में इसकी कोई चर्चा नहीं ।

नदी किनारे असंख्य लोग अपने कुनबों के साथ सत्यनारायण की कथा की यजमानी करते दिखाई देते हैं । कदम - कदम पर छोटे - बडे झुंडों के बीच पंडित - पुरोहित कथा बांचते ,श्रद्धालुओं से पल -पल में नवग्रहों की प्रसन्नता के लिए दान का संकल्प दोहराने की मनुहार करते पंडे - पुजारियों के प्रति श्रद्धा से नतमस्तक ग्रामीण दिखते हैं । घंटे - घडियाल और शंखनाद के साथ भजन - आरती करते हुऎ भक्ति भावमय वातावरण में आमोदित - प्रफ़ुल्लित होते लोग इन्हीं मेलों में ही नज़र आते हैं ।

टेंट तंबुओं में सजी ग्रामीण सौंदर्य प्रसाधन - रिबन , महावर , टिकुली ,बिंदी की खरीददारी में मशगूल युवतियों की बेलौस हंसी - ठिठौली मन में ईर्ष्या भाव पैदा कर देती है । आखिर क्या है इनके इस निश्छल आनंद का राज़ ......? मन सवाल करने लगता है खुद से ......? ये खुशी , ये उल्हास , ये उमंग हम शहरियों के चेहरों से क्यों कर गायब हो चला है । ग्रामीणों का बेबाक ,बिंदास अंदाज़ मेलों की आत्मा है ।

लकडी मिट्टी के खिलौनों की दुकानों पर भाव ताव में मशगू्ल लोगों को ताकने का अपना ही मज़ा है । हर छोटी - बडी दुकानों में जाकर बस यूं ही मोलभाव करने , दुकानदार को छकाने वालों की भी कोई कमी नहीं । चटखारे लेकर मिठाई और चाट - पकौडी उडाने वालों को कच्ची सडक के किनारे रखे थालों की धूल सनी रंग बिरंगी मिठाइयों से भी कोई गुरेज़ नहीं । रेत पर कंडों के ढेरों से उठते धुएं के गुबार के साथ बाटी की सोंधी - सोंधी महक मन ललचाती है । जी चाहता है कोई बस यूं ही मुंह छुलाने को ही कह दे और हम लपक कर चूरमा बाटी के ज़ायके का लुत्फ़ लेने बैठ जाएं ।

पालकी वाले झूले की चरमराहट और गुब्बारे वाले की चिल्लपौं वातावरण को अजीब सी रौनक से भर देते हैं । ठेठ गंवई अंदाज़ के इन मेलों में चाट पकौडे औए आइसक्रीम बेचने वालों की तीखी आवाज़ें माहौल में रस घोल देती हैं । ग्रामीण युवकों के अलगोजे से निकलती मादक आवाज़ और लोकगीतों की टेर लगाते महिला स्वर मेले की खनक में इज़ाफ़ा कर देते हैं ।

कार्तिक मास धर्म- कर्म के लिहाज़ से काफ़ी महत्वपूर्ण माना गया है । दान पुण्य के लिए मोक्श्दायिनी रेवा के सानिध्य से बेहतर और कौन सी जगह हो सकती है । लोग रात में नर्मदा की अविरल धारा में असंख्य दीपों का दान करते हैं । प्रवाह के साथ निरंतर आगे बढते ये ज्योति पुंज हमें जीवन को प्रकाशवान बनाने और संसार को रोशनी से भर देने की सीख देते हैं । कहते हैं आग पानी एक दूसरे के पूरक ना सही , अपने - अपने दायरे में रहकर भी बहुत कुछ सकारात्मक करने की गुंजाइश हर हाल में हो सकती है । नदी का प्रवाह और देदीप्यमान दीपमाला यही कहती है ..............।

देखिए तो है कारवां वर्ना.
हर मुसाफ़िर सफ़र में तन्हा है ।

रविवार, 9 नवंबर 2008

करोडपति बीडी मजदूर का राजनीतिक सफ़र

जनता की सेवकायी के लिए प्रदेश के धन कुबेर चुनावी मैदान में उतरे हैं । नामांकन दाखिल करते वक्त संपत्ति का ब्यौरा देने की मजबूरी ने जनसेवकों की माली हालत की जो तस्वीर पेश की है वह आंखें चुंधियाने के लिए काफ़ी है । ज़्यादातर नेता करोडपति हैं । कुछ तो ऎसे हैं , जो महज़ ५ - ७ साल पहले रोडपति थे अब करोडपति हैं । बचपन से सुनते आए हैं "सेवा करो , तो मेवा मिलेगा ।” शायद जनता की सेवकाई के वरदान स्वरुप ही नेताओं की माली हालत में रातों रात चमत्कारिक बदलाव आ जाता है ।

संपत्ति के खुलासे ने लोगों को चौंकाया है । कई नौजवान मुनाफ़े के इस व्यवसाय की ओर खिंचे चले आ रहे हैं । जनसेवा से मुनाफ़े की एक बानगी -
मुरियाखेडी में तेंदूपत्ता इकट्ठा करने वाला एक मजदूर महज़ दो साल में इतना पैसा कमा लेता है कि वह भोपाल में करोडों की जायदाद का मालिक बन जाता है । राजधानी की नरेला विधानसभा सीट से बीजेपी के उम्मीदवार की चुनाव आयोग को दी गई संपत्ति की जानकारी और उनके राजनीतिक सफ़र को मिलाकर देखने पर कुछ ऎसी ही सच्चाई नज़र आती है ।

अखबारों में छपे हर्फ़ों पर यकीन करें तो नामांकन पत्र के साथ अपनी सम्पत्ति की जानकारी देते हुए ’ गरीब बीडी मजदूर’ विश्वास सारंग ने जो शपथ-पत्र प्रस्तुत किया उसके अनुसार वे करोड़ों के कारोबार के स्वामी हैं । भोपाल, सीहोर व रायसेन में लाखों की जमीन है । भोपाल की निशात कालोनी में लगभग दो करोड़ साठ लाख की कीमत के आवासीय व व्यावसायिक भवन , अरण्यावली गृह निर्माण सहकारी समिति में ३२ लाख रुपए की जमीन, तीन गाँवों में सवा छह लाख की कृषि भूमि, मण्डीदीप स्थित विशाल पैकवेल इण्डस्ट्रीज में भागीदारी, कामदार काम्पलेक्स, दिल्ली के गोयला खुर्द में जमीन एग्रीमण्ट भी श्री सारंग के ही नाम पर है। नामांकन पत्र के साथ इन्होंने भोपाल नगरीय क्षेत्र की मतदाता सूची में पंजीबध्द होने के प्रमाण भी पेश किए हैं ।

अब मामले का दूसरा पहलू - विश्‍‍वास सारंग इन दिनों मध्य्प्रदेश लघु वनोपज संघ के अध्यक्ष हैं । इस पद तक पहुंचने की पहली शर्त है - किसी प्राथमिक वनोपज सहकारी समिति का नियमित सदस्य होना । इस समिति का सदस्य बनने के लिए दो शर्तें हैं । पहली - वह व्यक्ति उस सहकारी समिति के भौगोलिक क्षेत्राधिकार का स्थायी और नियमित निवासी हो । दूसरी - उस व्यक्ति के जीविकोपार्जन का आधार लघु वनोपज संग्रहण हो ।

श्री सारंग ने अध्यक्ष पद हासिल करने के लिए क्या - क्या पापड नहीं बेले । ‘प्राथमिक वनोपज सहकारी समिति, मुरियाखेड़ी’ के भौगोलिक क्षेत्राधिकार वाले ग्राम और फड़ साँकल के निवासी श्री सारंग ने वन - वन भटक कर तेंदूपत्ता इकट्ठा किया । उन्होंने वर्ष २००७ में तेंदू पत्ता की ६०० और वर्ष २००८ में १२०५ गड्डियाँ संग्रहित कर २४ हज़ार तथा ४८ हज़ार २०० रुपये कमाए ।

लगभग सभी नेताओं की कहानी कमोबेश इसी तरह की है । सामान्य परिवारों के इन होनहार खद्दरधारी नेताओं का राजनीतिक सफ़र ज़्यादा लंबा भी नहीं है और ना ही किसी बडे पद पर कभी आसीन रहे । ऎसे में सवाल उठता है कि आखिर इस छ्प्पर फ़ाड ऎश्वर्य का राज़ क्या है ? राजनीति के सिवाय देश का कोई भी हुनर या पेशा इस रफ़्तार से दौलत कमाने की गारंटी नहीं दे सकता ।

देश के मतदाताओं अपने नेताओं की दिन दोगुनी रात चौगुनी बढती आर्थिक हैसियत का राज़ जानने के लिए ही सही , अब तो नींद से जागो । देखो किसे वोट दे रहे हो ....। तुम्हारा वोट किन - किन नाकाराओं को नोट गिनने और तिजोरियां भरने की चाबी थमा रहा है । मेरी राय में यदि कोई भी प्रत्याशी चुनाव के लायक ना हो ,तो वोट को बेकार कर दो , मगर वोट ज़रुर दो ।

लहू में खौलन , ज़बीं पर पसीना
धडकती हैं नब्ज़ें , सुलगता है सीना
गरज ऎ बगावत कि तैयार हूं मैं ।

[ यह पोस्ट माननीय विष्णु बैरागी जी के ब्लाग ’एकोsहम’ के आलेख से प्रेरित होकर लिखी गयी है । कुछ तथ्य उनकी पोस्ट ’ समाचार ना छपने का समाचार ’ से लिए गये हैं । ]