रविवार, 25 जनवरी 2009

जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं...........

पिछले कई दिनों से एफ़ एम रेडियो पर बिना रुके चहकने वाली "चिडकलियां" रोज़ सुबह से ही बताने लगती हैं कि 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस आने वाला है । उनका मशविरा है कि हमें गणतंत्र दिवस धूमधाम से ’ सेलिब्रेट” करना चाहिए ,होली दीवाली की तरह । वे कहती हैं कि इस दिन जमकर आतिशबाज़ी करें , धूमधडाका मचाएं । धमाल करें और खूब नाचे गाएं । घरों को रोशनी से भर दें ।

हर रोज़ दी जा रही इस ऎलानिया समझाइश से मन में सवालों का सैलाब उमडने लगता है । क्या हो गया है इस देश को ? उत्सवधर्मी होना ज़िन्दादिली का सबूत है , लेकिन हर वक्त जश्न में डूबे रहना ही क्या हमारी संस्कृति है ? एक दौर था जब " हर फ़िक्र को धुएं में उडाता चला गया " का फ़लसफ़ा समाज में स्वीकार्य नहीं था । बुज़ुर्ग अपने बच्चों को धार्मिक त्योहारों के साथ राष्ट्रीय पर्वों का महत्व भी समझाते थे । आज तो ज़्यादातर लोगों को शायद गणतंत्र के मायने भी मालूम ना हों । बिना मशक्कत किये आपको अपने आसपास ही ऎसे लोग मिल जाएंगे जो ये भी नहीं जानते कि गणतंत्र दिवस क्यों मनाया जाता है । एक समय था जब छब्बीस जनवरी और पंद्रह अगस्त सरकारी आयोजन की बजाय पारिवारिक और सामाजिक त्योहार होते थे । तब गणतंत्र दिवस "रिपब्लिक डे" नहीं था ।

देश में हर तरफ़ तदर्थवाद का ऎसा दौर आ गया है कि हर शख्स " जो है समां कल हो ना हो " की तर्ज़ पर हर काम को तुरत फ़ुरत कर डालने की जल्दी में है । मानों कल ही दुनिया खत्म होने जा रही हो । देश इस समय एक साथ कई मोर्चों पर संकट के दौर से गुज़र रहा है । लोग सच्चाई से रुबरु होने की बजाय इतने गाफ़िल कैसे रह सकते हैं ? क्या मानव श्रृंखला बनाने ,फ़िल्मी अंदाज़ में मोमबत्तियां जलाने , सडक पर बेमकसद दौड लगाने या हवा में मुक्के लहराते हुए जुलूस निकालने भर से समस्याएं "छू मंतर" हो जाया करती हैं ?

अमेरिका के राष्ट्रपति के रुप में ओबामा की ताजपोशी का जश्न देश में यूं मनाया जा रहा है , जैसे भारत ने ही कोई इतिहास रच दिया हो । दलित को भारत का प्रधानमंत्री बनाने का ख्वाब देखने वाले देश में आज भी दलितों की क्या दुर्दशा है ये किसी से छिपा नहीं है । हाल ही में मध्यप्रदेश के छतरपुर ज़िले के करीब पौने दो सौ दलितों ने सामाजिक भेदभाव से निजात पाने के लिए कलेक्टर को पत्र लिखकर धर्म बदलने की इजाज़त मांगी । प्रदेश के बुंदेलखंड में आज भी कोई दलित दूल्हा दबंगों के खौफ़ के चलते घोडी नहीं चढ सकता । इसी इलाके की एक दलित सरपंच पिछले पांच सालों से थाने में डेरा डाले है, दबंगों के कहर से बचने के लिए ...।

इतना दूर जाने की भी ज़रुरत नहीं । मैं पिछले तेरह सालों से एक बच्चे को देखती आ रही हूं । शुरुआती दौर में अपने स्तर पर कुछ कोशिशें भी की ,उसके जीवन और हालात में बदलाव लाने की । लेकिन मुझे अफ़सोस है कि रफ़्ता - रफ़्ता "बिट्टू" पूरी तरह सफ़ाई कामगार बन गया और दलित बच्चों के लिए चलाई जा रही आश्रम स्कूल योजना धरी की धरी रह गई । कभी झाडू थामे , तो कचरे की गाडी खींचता " बिट्टू " मेरी चेतना को झकझोर कर रख देता है । मन अपराध बोध से भर जाता है । क्या फ़ायदा ऎसे ज्ञान का ,जो किसी की ज़िंदगी को उजास से ना भर सके ? अब कॉलोनी वासी अपनी सहूलियत के लिए कुछ और बिट्टू तैयार कर रहे हैं । कैसे रुकेगा ये सिलसिला ...? कौन रोकेगा इस अन्याय को ......? कब साकार होंगी कागज़ों पर बनी योजनाएं ...?
मुझे मेरे पसंदीदा शायर साहिर लुधियानवी की प्यासा फ़िल्म की लाइनें अक्सर याद आती हैं -
" ज़रा हिन्द के रहनुमा को बुलाओ ....
ये गलियां ये कूचे उनको दिखाओ ....
जिन्हे नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं ....?"

देश में सुरक्षा का संकट मुंह बाये खडा है । बिजली पानी का बेरहमी से इस्तेमाल नई तरह की मुसीबतों का सबब बनने जा रहा है । मैंने पहले भी कहा है प्रजातंत्र के सभी खंबे ऊपरी तौर पर चाहे जितने सशक्त नज़र आते हों भीतर से पूरी तरह खोखले हो चले हैं । एक दूसरे के कामकाज की निगरानी का संवैधानिक दायित्व भूलकर सब के सब एक नाव की सवारी पर आमादा हैं । लगता है देश को इस मकडजाल से निजात पाने के लिए रक्तरंजित क्रांति की सख्त ज़रुरत है ।

राजनीतिशास्त्र के बारे में मेरी जानकारी शून्य है ,लेकिन व्यवहारिक स्तर पर कई बार एक बात मेरे मन में आती है कि आखिर इस देश को इतने नेताओं की क्या ज़रुरत है । जितने ज़्यादा नेता उतना ज़्यादा कमीशन , उतना अधिक भ्रष्टाचार , उतने अपराध , उतनी गरीबी ....। ऎसा प्रजातंत्र किस काम का जिसमें आम आदमी के लिए ही कोई संभावना ना हो । आज के इस छद्म गणतंत्र से तो बेहतर है कि देश किसी तानाशाह के हवाले कर दिया जाए ....?????

बेमुरव्वत ,बेखौफ़ ,बेदर्द और अनुशासनहीन हो चुके भारतीय समाज को डंडे की भाषा ही समझ आती है । मेरी मां अक्सर कहती हैं -" लकडी के बल बंदर नाचे" । क्या करें लम्बे समय तक गुलामी की जंज़ीरों में जकडे रहने के कारण हमारी कौम में "जेनेटिक परिवर्तन" आ चुका है ....??? जब तक सिर पर डंडा ना बजाया जाए हम लोग सीधी राह पकडना जानते ही नहीं ।

आखिर में ’ ज़ब्तशुदा नज़्मों ’ के संग्रह से साहिर लुधियानवी की एक नज़्म , जो 1939 में बम्बई से निकलने वाले साप्ताहिक "अफ़गान" में छपी थी ।

हुकूमत की बुनियाद ढहाए चला जा
जवानों को बागी बनाए चला जा

बरस आग बन कर फ़िरंगी के सर पर
तकब्बुर की दुनिया को ढाए चला जा

जुनूने बगावत ना हो जिन सरों में
उन्हें ठोकरों से उडाए चला जा

गरीबों के टूटे चरागों की लौ से
अमीरों के ऎवां जलाए चला जा

शहीदाने मिल्लत की सौगंध तुझको
यह परचम यूं ही लहलहाए चला जा

परखचे उडा डाल अरबाबे - ज़र के
गरीबों को बागी बनाए चला जा

गिरा डाल कसरे -शहन्शाहियत को
अमारत के खिरमन जलाए चला जा ।

12 टिप्‍पणियां:

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ ने कहा…

बहुत ही सार्थक अभिव्यक्ति.

साहित कि नज़्म पढवाने के लिए भी आभार
.







द्विजेन्द्र द्विज

महेन्द्र मिश्र ने कहा…

गणतंत्र दिवस के पुनीत पर्व के अवसर पर आपको हार्दिक शुभकामना और बधाई .
महेंद्र मिश्र जबलपुर.

अजय कुमार झा ने कहा…

sareetha jee,
shubh abhivaadan. sachmuch bahut prabhaavpurna baat keh daalee aapne, mujhe to lagtaa hai ki yahee sabse afsosnaak hai ki deshwaasee khud in mulyon ko upekshit kar rahe hain.

विनीत कुमार ने कहा…

ये आजादी झूठी है
आधी पीढ़ी भूखी है
ऐसे दिनों पर सबसे पहले यही याद आता है

Unknown ने कहा…

तानाशाह वाले विचार से मैं पूरी तरह सहमत हूँ, लोग हिटलर की चाहे जितनी आलोचना करें, लेकिन लगभग उसी से मिलता-जुलता एक व्यक्तित्व हमारे देश में बेहद आवश्यक है, ऐसा व्यक्ति जिसके लिये देश, देशहित ही सर्वोपरि हो, जो भ्रष्टाचारियों को सरेआम गोली से उड़ाये, जो समस्या पैदा करने वाले नेताओं को जेल में अनन्तकाल के लिये ठूंस दे… अभिव्यक्ति की, बोलने-लिखने की स्वतन्त्रता की, भ्रष्ट न्याय व्यवस्था की हम भारी कीमत चुका रहे हैं… लोकतन्त्र इस देश को और अधिक टुकड़ों में बाँटता जा रहा है, खोखला करता जा रहा है…

Aadarsh Rathore ने कहा…

देश की दशा सुधारने के लिए मैं संकल्पबद्ध हूं

विष्णु बैरागी ने कहा…

आपकी बेचैनी को सलाम। ईश्‍वर इसे खूब बढाए और यह हमारे युवाओं में संक्रमण की तरह फैले। बस, विवेक को नष्‍ट मत होने दीजिएगा। आपकी यह बात 'प्रजातन्‍त्र के सभी खम्‍भे ऊपरी तौर पर चाहे जितने सशक्त नज़र आते हों भीतर से पूरी तरह खोखले हो चले हैं । एक दूसरे के कामकाज की निगरानी का सम्‍वैधानिक दायित्व भूलकर सब के सब एक नाव की सवारी पर आमादा हैं ।' साफ बताती है कि मर्ज आपको पता है। ईलाज कैसे किया जाए-यही तलाश होनी है। आपकी पीढी पर किसी और को हो न हो, मुझे आकण्‍ठ भरोसा है कि आप लोग ही तस्‍वीर बदलेंगे क्‍योंकि आप लोग ही सबसे ज्‍यादा प्रभावित और परेशान हैं।
एक बात सब कहते मिलते हैं-'मैं क्‍या कर सकता हूं?' या कि 'अकेला चना भाड नहीं फोड सकता।' ऐसे 'अकेले चने' असंख्‍य हैं और सबके सब घरों से बाहर ही हैं। इन सबको एकजुट करना ही सबसे बडा काम है। मुझे लगता है कि प्रत्‍येक चाहता है बाकी सब उससे जुड जाएं। सोच में थोडा सा बदलाव हो जाए और यदि अपने जैसे से खुद को जोड लिया जाए तो भोपाल का लाल परेड मैदान छोटा पड जाएगा।
लोगों में जागरूकता और व्‍यवस्‍था में पारदर्शिता दिन-प्रति-दिन बढ रही है। नेताओं को लोग मुंह पर ही सुनाने लगे हैं, हिसाब मांगने लगे हैं। बदलाव एक झटके में नहीं आएगा। ऐसे बदलाव बहुत ही धीमे-धीमे आते हैं। इतने धीमे कि पीढियां गुजर जाती हैं। 'बिट्टू' भी एक दिन में सफाईकर्मी नहीं बना। धीमे-धीमे ही बना।
अपने गुस्‍से को, अपनी बेचैनी को बनाए और बचाए रखिए। हमारे आने कल की धरोहर यही है। कोशिश करना और अनवरत करते रहना ही निदान तक पहुंचाएगा। बाउम्‍मीद बने रहिए। थकान आपके पास भी नहीं फटकेगी।
झनझना देने वाली सामयिक और पूर्णत: प्रासंगिक पोस्‍ट के लिए बधाइयां।
गणतन्‍त्र दिवस पर हार्दिक अभिनन्‍दन।

संगीता पुरी ने कहा…

सारे संदर्भों की चर्चा कर दी इस मौके पर ..........गणतंत्र दिवस की बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं।

बेनामी ने कहा…

हमारी यह जो आज़ादी है,किस कामकी. मूलभूत परिवर्तन की आवश्यकता है. आभार.

Aadarsh Rathore ने कहा…

आप कैसी पत्रकार हैं ?आपने बिना मेरी पोस्ट पढ़े ही कमेंट कर दिया? मैंने कब कहा कि मैं देश के लिए कुछ नहीं करूंगा? मैंने कहा है मैं किसी भी निरर्थक विवाद में नहीं फंसूंगा, मुझे निरंतर आगे बढ़ना है।
आपने कहा कि मैं सोचता हूं कि देश जाए भाड़ में...ऐसा बिलकुल नहीं। मैं देश के नाम पर महज एख पोस्ट लिखने भर तक सीमित नहीं, क्रियात्मक तौर पर भी मैं सक्रिय हूं। अगर आपको इस बात से लगा कि धनोपार्जन करूंगा तो क्षमा करें, हर कोई धनोपार्जन ही करना चाहता है। मैं नहीं चाहता कि अपनी ईमानदारी भरी मेहनत से धन न कमाकर उन लोगों की तरह देश का पैसा खाऊं जो घोटाले करते हैं। कृपया एक बार फिर से मेरी पोस्ट को पढ़ें और अपने विचार दें। मैं विचलित हूं...

Udan Tashtari ने कहा…

यह बेहतरीन नज्म पढ़वाने का आभार.

आपको एवं आपके परिवार को गणतंत्र दिवस पर हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.

latikesh ने कहा…

आप को सबसे पहले गणतंत्र दिवस की शुभकामना
. आप का लेख आज के कटु सत्य को उजागर करती है . लेकिन क्या आप की आवाज़ हमारे नेताओ तक पहुचेंगी .
लतिकेश
मुंबई