बुधवार, 12 नवंबर 2008

हर मुसाफ़िर सफ़र में तन्हा है ...........


दौडती - भागती ज़िंदगी की आपाधापी को धता बताती बैलगाडियों की लंबी कतार .........बैलों के गले में पडे घुंघरुओं की रुनझुन ........ चटख लाल , गहरे धानी , सरसों पीले और ना जाने कितने ही रंगों के लंहगे - लुगडों में सजी औरतें ,नई बुश्शर्ट - निक्कर और झबले पहने काजल का डिठौना लगाए बच्चों की किलकारियां ..... लोकगीत की सामूहिक स्वर लहरियों से रस में भीगता माहौल और जय सिया राम की जुहार ........।

ये नज़ारा है नर्मदा तीरे लगने वाले कार्तिक पूर्णिमा के मेले का , जहां उत्साह और उमंग के ऎसे काफ़िले इन दिनों आम हैं । भला कौन होगा जो इन मेलों का आमंत्रण ठुकरा सके । लोक परंपराओं को ज़िंदा रखने वाले मेलों का लुभावना नज़ारा बरसों तक यूं ही आंखॊं में बसा रहता है । जो भी इन मेलों का एक बार भी हिस्सा बना है वो जानता है कि मन ना जाने कब फ़ुर्र से उडकर मेलों में पहुंच जाता है ।

मेले विभिन्न धर्मों और संप्रदायों को एक सूत्र में पिरोने का अनूठा माध्यम हैं । कई मेले धार्मिक आस्था और विश्वास पर केंद्रित हैं , तो कुछ मेलों के पीछे ऎतिहासिक , सामाजिक और राजनीतिक यादों की धरोहर संजोई गई है ।

नदियों का इन मेलों से बडा गहरा और आत्मीय रिश्ता है । मध्यप्रदेश में नदियों के किनारे लगने वाले महत्वपूर्ण मेलों की कडी है । पुण्य सलिला नर्मदा के किनारे भरने वाले माटी की सोंधी गंध से लबरेज़ तमाम मेलों का लोगों को साल भर इंतज़ार रहता है । मेल -मिलाप के इन ठिकानों का अपना मौलिक आनंद है । इन के मूल में कोई अंर्तकथा है , संवेदना है और आदि लोक परंपरा है । यही कारण है ,जो मेलों से जुडी लोक आस्था आज तक बरकरार है ।

ऎसे ही एक मेले का अंश बनने का मुझे भी कुछ साल पहले मौका मिला था । होशंगाबाद जिले का छोटा सा गांव है - बांद्राभान । धार्मिक महत्व के इस स्थान पर नर्मदा का तवा नदी से मिलन होता है. । होशंगाबाद नगर के पूर्व में करीब आठ किमी पर सांगाखेडा के नजदीक बांद्राभान है । तवा - नर्मदा के संगम के नजदीक हर साल कार्तिक पूर्णिमा पर तीन दिन मेला भरता है ।

मेला क्या , बस यूं समझिए चारों तरफ़ जन सैलाब । जहां तक नज़र जाती है ,लोग ही लोग । लोगों का ऎसा रेला इससे पहले मैंने केवल कुंभ में ही देखा था । बिना किसी आमंत्रण ,बिना मुनादी , बगैर डोंडी पीटे स्फ़ूर्त प्रेरणा से लाखों लोगों का एकत्र होना मेरे लिए अचंभे की बात थी । इतना बडा मेला हर साल लगता है और करीब सौ - सवा सौ किलोमीटर की दूरी पर बसे भोपाल में इसकी कोई चर्चा नहीं ।

नदी किनारे असंख्य लोग अपने कुनबों के साथ सत्यनारायण की कथा की यजमानी करते दिखाई देते हैं । कदम - कदम पर छोटे - बडे झुंडों के बीच पंडित - पुरोहित कथा बांचते ,श्रद्धालुओं से पल -पल में नवग्रहों की प्रसन्नता के लिए दान का संकल्प दोहराने की मनुहार करते पंडे - पुजारियों के प्रति श्रद्धा से नतमस्तक ग्रामीण दिखते हैं । घंटे - घडियाल और शंखनाद के साथ भजन - आरती करते हुऎ भक्ति भावमय वातावरण में आमोदित - प्रफ़ुल्लित होते लोग इन्हीं मेलों में ही नज़र आते हैं ।

टेंट तंबुओं में सजी ग्रामीण सौंदर्य प्रसाधन - रिबन , महावर , टिकुली ,बिंदी की खरीददारी में मशगूल युवतियों की बेलौस हंसी - ठिठौली मन में ईर्ष्या भाव पैदा कर देती है । आखिर क्या है इनके इस निश्छल आनंद का राज़ ......? मन सवाल करने लगता है खुद से ......? ये खुशी , ये उल्हास , ये उमंग हम शहरियों के चेहरों से क्यों कर गायब हो चला है । ग्रामीणों का बेबाक ,बिंदास अंदाज़ मेलों की आत्मा है ।

लकडी मिट्टी के खिलौनों की दुकानों पर भाव ताव में मशगू्ल लोगों को ताकने का अपना ही मज़ा है । हर छोटी - बडी दुकानों में जाकर बस यूं ही मोलभाव करने , दुकानदार को छकाने वालों की भी कोई कमी नहीं । चटखारे लेकर मिठाई और चाट - पकौडी उडाने वालों को कच्ची सडक के किनारे रखे थालों की धूल सनी रंग बिरंगी मिठाइयों से भी कोई गुरेज़ नहीं । रेत पर कंडों के ढेरों से उठते धुएं के गुबार के साथ बाटी की सोंधी - सोंधी महक मन ललचाती है । जी चाहता है कोई बस यूं ही मुंह छुलाने को ही कह दे और हम लपक कर चूरमा बाटी के ज़ायके का लुत्फ़ लेने बैठ जाएं ।

पालकी वाले झूले की चरमराहट और गुब्बारे वाले की चिल्लपौं वातावरण को अजीब सी रौनक से भर देते हैं । ठेठ गंवई अंदाज़ के इन मेलों में चाट पकौडे औए आइसक्रीम बेचने वालों की तीखी आवाज़ें माहौल में रस घोल देती हैं । ग्रामीण युवकों के अलगोजे से निकलती मादक आवाज़ और लोकगीतों की टेर लगाते महिला स्वर मेले की खनक में इज़ाफ़ा कर देते हैं ।

कार्तिक मास धर्म- कर्म के लिहाज़ से काफ़ी महत्वपूर्ण माना गया है । दान पुण्य के लिए मोक्श्दायिनी रेवा के सानिध्य से बेहतर और कौन सी जगह हो सकती है । लोग रात में नर्मदा की अविरल धारा में असंख्य दीपों का दान करते हैं । प्रवाह के साथ निरंतर आगे बढते ये ज्योति पुंज हमें जीवन को प्रकाशवान बनाने और संसार को रोशनी से भर देने की सीख देते हैं । कहते हैं आग पानी एक दूसरे के पूरक ना सही , अपने - अपने दायरे में रहकर भी बहुत कुछ सकारात्मक करने की गुंजाइश हर हाल में हो सकती है । नदी का प्रवाह और देदीप्यमान दीपमाला यही कहती है ..............।

देखिए तो है कारवां वर्ना.
हर मुसाफ़िर सफ़र में तन्हा है ।

3 टिप्‍पणियां:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बढिया पोस्ट।अच्छी जानकारी ।आभार।

अजय कुमार झा ने कहा…

sareetha jee,
saadar abhivaadan. aapkaa andaaje bayan kamaal hai, aaj anokhe mele kee sair karke maja aa gaya, behad dilchasp jaankaaree milee dhanyavaad.

Dr. Ashok Kumar Mishra ने कहा…

अच्छा लिखा है.
http://www.ashokvichar.blogspot.com