रविवार, 30 नवंबर 2008

हमलों पर उर्दू अखबारों का नज़रिया

मुम्बई के आतंकी हमले पर एक नज़रिया ये भी ........। देश को सावधान और एकजुट रहने की सख्त ज़रुरत है ।



हमलों पर क्या कहते हैं उर्दू अख़बार?

अविनाश दत्त बीबीसी संवाददाता, दिल्ली
उर्दू अख़बारों ने हमलों से उठ रहे कुछ अनसुलझे सवालों पर टिप्पणियाँ की हैं
भारत के हिंदी और अंग्रेज़ी अख़बारों की तरह उर्दू के तमाम दैनिक अख़बार भी केवल मुंबई में हुए हमलों की ख़बर से भरे हैं.
दिल्ली से छपने वाले राष्ट्रीय सहारा उर्दू में पहले पन्ने पर दिल्ली चुनावों के विज्ञापनों के अतिरिक्त केवल एक ही ख़बर है.. " मुंबई पर आग और खून की बारिश"
हैदराबाद से छपने वाले दैनिक अखबार 'मुंसिफ़' की पहली सुर्खी रही," मुंबई में दहशतगर्दों के साथ कमांडो की खूनी जंग जारी. "
इसी शहर से निकलने वाले उर्दू के दूसरे अख़बार 'सियासत' की पहली हेड लाइन है मुंबई के दो होटलों पर आतंकवादियों का कब्जा बरक़रार.'
इस ख़बर के साथ एक कथित चरमपंथी की तस्वीर छपी है जिस पर उसके एक हाथ पर बंधे लाल धागों पर गोला लगाया गया है, ठीक उसी तरह जिस तरह दिल्ली से छपने वाले अंग्रेज़ी के अख़बार मेल टुडे ने एक दिन पहले लगाया था.
'मुल्क़ भर में हाहाकार'
मुंबई से प्रकाशित अख़बार 'इंकलाब' की हेडलाइन है, 'ताज होटल के हमलावर ढेर ऑबराय होटल में ऑपरेशन जारी , मुल्क भर में हाहाकार."
अगर संपादकीयों पर नज़र डालें तो मुंसिफ़ ने इस घटना से सख्ती से निपटने की ज़रूरत पर बल दिया है.
इस तरह की घटना के पीछे जिस डेकन मुजाहिदीन का नाम आ रहा है वो शंका पैदा करने वाला है. अगर इस तरह की घटना मोसाद, सीआईए या आईएसआई द्वारा अंज़ाम दी गई होती तो सोचा जा सकता था. पर जिस संस्था का नाम किसी ने सुना नहीं वो कैसे इतना बड़ा आतंकवादी हमला करने में सफल हुई

इस अख़बार के संपादकीय की हेडलाइन है " मुंबई में दहशतगर्दी का नज़ारा". नीचे विस्तार से पूरी घटना के बारे में बताने के साथ ही बीते दिनों में "हिंदू दहशतगर्दों" के पकड़े जाने की बात पर पलट कर देखा है.
अख़बार ने ध्यान दिलाया है की मारे गए सभी अफसर ऐटीएस के थे.
अख़बार कहता है कि मालेगाँव बम धमाकों के सिलसिले में यह भी पता चला था की लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित के अलावा कुछ और पूर्व फौजी अफसरों ने 'हिंदू चरमपंथियों' को ख़ास ट्रेनिंग दी थी.
फ़िर आरएसएस, शिव सेना और अन्य हिंदूवादी संगठनों द्वारा साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को बचने के लिए एकजुट होने की बात है.
अख़बार का कहना है की ऐसे कुछ तत्व मुंबई के हमलों के पीछे हो सकते हैं और अख़बार इस पक्ष पर गौर करने को भी कहता है.
ख़ुफ़िया विफलता
अख़बार ये भी कहता है की इंटेलिजेंस एजेंसियों की विफलता पर ध्यान दिया जाना चाहिए और अगर इन हमलों के पीछे अगर बाहरी हाथ है तो उससे सख्ती से निपटना चाहिए.
दिल्ली से छपने वाले उर्दू के बड़े अखबार राष्ट्रीय सहारा उर्दू के संपादक अज़ीज़ बरनी ने लिखा है, "इस तरह की घटना के पीछे जिस डेकन मुजाहिदीन का नाम आ रहा है वो शंका पैदा करने वाला है. अगर इस तरह की घटना मोसाद, सीआईए या आईएसआई द्वारा अंज़ाम दी गई होती तो सोचा जा सकता था. पर जिस संस्था का नाम किसी ने सुना नहीं वो कैसे इतना बड़ा आतंकवादी हमला करने में सफल हुई".
संपादक इस आलेख में ये भी कह रहे हैं की कोई मुसलमान ऐटीएस के प्रमुख हेमंत करकरे को क्यों मारेगा.
वो कहते हैं, "सोचना होगा की इस आतंकवादी घटना से किसको लाभ होगा और अगर ऐटीएस की जाँच में कोई रुकावट पैदा होती है, जिसकी संभावनाए पैदा हो गई हैं तो किसको क्षति होगी".
हैदराबाद के एक और बड़े अख़बार सियासत ने अपने संपादकीय ने एक संघीय गुप्तचर एजेंसी कायम करने की ज़रूरत पर बल दिया है.
बीबीसी डाट्काम से साभार

इस्तीफ़ों से नाकाम सरकार बचाने की कोशिश

मुम्बई में हुए युद्ध ने देश के लोगों को हिला कर रख दिया है । बरसों से दबे कुचले लोगों का खून एकाएक उबाल मारने लगा । ऎसा मोबाइल एसएमएस और समाचार चैनलों का कहना है । श्मशान वैराग्य की तरह जागे इस सतही जोश की सूचना ने सरकार चला रहे कांग्रेसी खॆमे में खलबली मचा दी है ।

सता से उखाड फ़ेंकने की निरीह जनता की गीदड भभकी ने सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह को परेशान कर दिया है । सो सरकार ने आनन फ़ानन में अंगुली कटा कर शहीद होने का फ़ार्मूला तलाश ही लिया । साढे चार साल से ज़्यादा वक्त तक देश को आतंक की भट्टी में झोंकने का दुष्कर्म करने के बाद शिवराज पाटिल से इस्तीफ़ा लिखवा लिया गया । चोरी और सीनाज़ोरी का आलम ये कि अपनी कारगुज़ारियों पर शर्मिंदा होने की बजाय नेता बेहूदा बयानबाज़ी से बाज़ नहीं आ रहे ।

आर आर पाटिल की मानें तो बडे-बडे शहरों में ऎसे छॊटॆ- छोटे हादसे तो होते ही रहते हैं । राजीव शुक्ला साहब अपनी गिरेबान में झांकने की बजाय संकट के इस दौर में भी बीजेपी की गल्तियां ढूंढने में वक्त ज़ाया कर रहे हैं । असलियत तो ये है कि इस्तीफ़ा देकर ये कोई मिसाल कायम नहीं कर रहे बल्कि इस्तीफ़े की राजनीति का घिनौना खेल खेलकर देश की जनता को मूर्ख बनाना चाहते हैं ।

जब केन्द्र सरकार की कुल जमा उम्र ही गिनती की बची हो ,तब इस्तीफ़े के इस नाटक का औचित्य क्या है ...? वैसे भी सरकार का ये गुनाह काबिले माफ़ी कतई नहीं । राजनेताओं की आपसी खींचतान और ढुलमुल रवैए से जनता आज़िज़ आ चुकी है ।

लोगों के सडकों पर आने की सुगबुगाह्ट से नेताओं के हाथ पांव फ़ूल रहे हैं और वे अपनी मक्कारी भरी चालों से जनता को बरगलाने ,बहलाने फ़ुसलाने की कोशिश में लग गये हैं । लेकिन अब देश की अवाम किसी झांसे में ना आने पाए , इसके पुख्ता इंतज़ाम की ज़रुरत है ।

एक कहावत है - ’पीसन वाली पीस गई ,सकेलन वाली जस ले गई ।’ सेना , आरएएफ़ और एनएसजी के संयुक्त प्रयासों की बदौलत मिली कामयाबी का सेहरा महाराष्ट्र सरकार खुद अपने सिर बांध लेना चाहती है । बात होती है आतंकवाद से लडने की और नवाज़े जाते हैं बेइमान ,भ्रष्टाचारी और देश के गद्दार । और तो और आमने सामने की लडाई में शहीद हुए जांबाज़ों की बजाय हादसे के शिकार अफ़सरान को मीडिया की मदद से अभियान का हीरो बना कर पेश किया जा रहा है । ऎसा लगता है बचे खुचे देशभक्तों के मनोबल को तोडकर देश को खोखला करने की कोई गहरी साज़िश रची जा रही है । देश मे ऎसे ही हालात रहे , तो कौन लडेगा भारत मां की हिफ़ाज़त की लडाई ।

इक बात और , हाल के दिनों के घटनाक्रम ने मेरा सामान्य ज्ञान गडबडा दिया है । सब कुछ गड्डमड्ड सा लगता है । आप सभी महानुभाव मेरी मदद करें । मैं शहादत की परिभाषा जानना चाहती हूं । भारत में शहीदों की पहचान का मापदंड क्या है और क्या होना चाहिए ?

क्यों हिंन्द का ज़िन्दा कांप रहा है , गूंज रही हैं तकबीरें
उकताए हैं शायद कुछ कैदी , और तोड रहे हैं जंज़ीरें

शनिवार, 29 नवंबर 2008

अमीरी - गरीबी के खांचे में बंटा आतंकवाद


समझ नहीं आ रहा कि इस वक्त ये कहना ठीक है या नहीं , लेकिन चुप रहकर अकेले घुटने से तो यही बेहतर है कि कह कर अपना मन हल्का कर लिया जाए । फ़िर भले ही लोग चाहे जितना गरिया लें । वैसे भी देश में सभी लोग सिर्फ़ अपने लिए ही तो जी रहे हैं । उनमें एक मैं भी शामिल हो जाऊं तो हर्ज़ ही क्या है ?
देश की सडकों पर बहने वाले खून की कीमत टेंकर के पानी से भी सस्ती है । लेकिन पहली मर्तबा अमीरों को भी एहसास हुआ है कि लहू का रंग सिर्फ़ लाल ही होता है फ़िर चाहे वो गरीबों का ही क्यों ना हो ।
इसमें कोई शक नहीं कि पांच सितारा होटलों में हुए आतंकी हमले बेहद वीभत्स थे । लेकिन क्या ऎसे धमाके देश में पहले कभी नहीं हुए । २६ नवंबर को ही ठीक उसी वक्त सीएसटी में भी लोगों ने अपने परिजनों को खोया ,लेकिन उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं था । मारे गये लोगों की लाश लेने के लिए भटकते परिजनों को सांत्वना देना तो दूर की बात मदद करने वाला तक कोई नहीं था ।
अमीरों की मौत पर स्यापा करने के लिए इलेक्ट्रानिक मीडिया के अंग्रेजीदां पत्रकार भी छातियां पीटने लगते हैं । मगर गरीब की मौत का कैसा मातम ......? वह तो पैदा ही मरने के लिए होता है । चाहे फ़िर वह मौत तिल तिल कर आए या धमाके की शक्ल में ।
हमें उम्मीद करना चाहिए कि जल्दी ही सरकार आतंकियों से निपटने के लिए ठोस कदम उठाएगी ,क्योंकि अब की बार अमेरिका ,ब्रिटेन सरीखे आकाओं के नागरिकों का जीवन भारत में खतरे में पडा है । सदी के महानायक अमिताभ बच्चन की रातों की नींद में खलल पडने लगा है । रुपहले पर्दे पर गरीबों के मसीहा का किरदार निबाहने वाले इस महानायक ने बरसों लोगों की जेबें खाली कर अपनी तिजोरियां भरीं हैं । लेकिन इनकी आंखें आम आदमी के आतंक के शिकार होने पर कभी भी नम नहीं हुईं ।
दिल्ली के धमाकों में अपने बेटे के बच जाने {हालांकि वो घटना स्थल से मीलों दूर थे] पर खुशी का इज़हार करने वाले बिग बी को हादसे के शिकार लोगों की याद तक नहीं आई । धिक्कार है ऎसे स्वार्थी लोगों पर , जो देश के आम लोगों के जज़्बात से खेलते हैं और विदेशों में साम्राज्य खडा करते हैं ।
अमीरों की फ़िक्रमंद सरकारों को अपनी अहमियत का एहसास कराना कब सीखेगा भारत का आम आदमी ? वह सडकों पर रौंदा जाता है । अस्पतालों में कीडे - मकौडों सी ज़िल्लत झेलता है । धमाकों में कागज़ के पुर्ज़ों की मानिंद चीथडों में तब्दील हो जाता है । लेकिन कब वह जानेगा कि उसमें भी जान है , वह भी एक इंसान है ,खास ना सही आम ही सही ....।
बिठा रखे हैं पहरे बेकसी ने
खज़ानों के फ़टे जाते हैं सीने
ज़मीं दहली , उभर आये दफ़ीने
दफ़ीनों को हवा ठुकरा रही है
उठो , देखो वो आंधी आ रही है ।

शुक्रवार, 28 नवंबर 2008

दक्केन मुजाहिद्दीन की हकीकत

आतंकी ग्रुप रिवेंज ही दक्केन मुजाहिद्दीन के नए नाम के साथ दुनिया के सामने है । जाने इसकी हकीकत -


नाकारा रहनुमाओं ने देश को किया शर्मसार

कभी ना थमने वाली मुम्बई की रफ़्तार पर २६ नवंबर की रात से लगा ब्रेक राष्ट्रीय शर्म का प्रतीक है । मुम्बई के आतंकी हमलों ने देश के सुरक्षा इंतज़ामात और खुफ़िया तंत्र के कामकाज की पोल खोलकर रख दी है । हर आतंकी हमले के बाद अगली मर्तबा कडा रुख अपनाने का रटा रटाया जुमला फ़ेंकने के बाद केंन्द्र भी फ़ारिग हो गया ।

आतंक से लडने की बजाय नेता फ़िर एक दूसरे पर कीचड उछालने में मसरुफ़ हो गये हैं । प्रधानमंत्री देश को मुश्किल घडी में एकजुट करने और जोश - जज़्बे से भरने की बजाय भविष्य की योजनाओं का पुलिंदा खोल कर क्या साबित करना चाहते थे । पोची बातों को सुनते - सुनते देश ने पिछले आठ महीनों में पैंसठ से ज़्यादा हमले अपने सीने पर झेले हैं ।

गृह मंत्री का तो कहना ही क्या । अपनी पोषाकों के प्रति सजग रहने वाले पाटिल साहब देश की सुरक्षा को लेकर भी इतने ही संजीदा होते ,तो शायद आज हालात कुछ और ही होते । गृह राज्य मंत्रियों को संकट की घडी में भी राजनीति करने की सूझ रही है । बयानबाज़ी के तीर एक दूसरे पर छोडने वाले नेताओं के लिए ये हमला वोटों के खज़ाने से ज़्यादा कुछ नहीं ।

सेना के तीनों अंगों ने नेशनल सिक्योरिटी गार्ड और रैपिड एक्शन फ़ोर्स की मदद से पूरे आपरेशन को अंजाम दिया और बयानबाज़ी करके वाहवाही लूट रहे हैं आर आर पाटिल । महाराष्ट्र पुलिस के मुखिया ए. एन राय तो इस मीडिया को ब्रीफ़ करते रहे , मानो सारा अभियान पुलिस ने ही सफ़लता से अंजाम दिया हो ।

सुना था कि मुसीबत के वक्त ही अपने पराए की पहचान होती है । लेकिन भारत मां को तो निश्चित ही अपने लाडले सपूतों [ नेताओं ] की करतूत पर शर्मिंदा ही होना पडा होगा । आतंकियों के गोला बारुद ने जितने ज़ख्म नहीं दिए उससे ज़्यादा तो इन कमज़र्फ़ों की कारगुज़ारियों ने सीना छलनी कर दिया ।

रही सही कसर कुछ छद्म देशप्रेमी पत्रकार और उनके भोंपू [चैनल] पूरी कर रहे हैं । सरकार से मिले सम्मानों का कर्ज़ उतारने के लिए खबरची किसी का कद और स्तर नापने की कोशिश में खुद किस हद तक गिर जाते हैं , उन्हें शायद खुद भी पता नहीं होता । दूसरे को बेनकाब कर वाहवाही लूटने की फ़िराक में ये खबरची अपने घिनौने चेहरे से लोगों को रुबरु करा बैठते हैं । इन्हें भी नेताओं की ही तरह देश की कोई फ़िक्र नहीं है । इन्हें बस चिंता है अपने रुतबे और रसूख की ।

प्रजातंत्र के नाम पर देश को खोखला कर रहे इन ढोंगियों को अब लोग बखुबी पहचान चुके हैं । इस हमले ने रहे सहे मुगालते भी दूर कर दिए हैं । नेताओं की असलियत भी खुलकर सामने आ चुकी है और सेना की मुस्तैदी को भी सारी दुनिया ने देखा है ।

ऎसा लगता है देश के सड गल चुके सिस्टम को बदलने के लिए अब लोगों को सडकों पर आना ही होगा । रक्त पिपासु नेताओं के चंगुल से भारत मां को आज़ाद कराने के लिए अब ठोस कार्रवाई का वक्त आ चुका है । इनके हाथ से सत्ता छीन कर नया रहनुमा तलाशना होगा , नई राह चुनना होगी , नई व्यवस्था लाना होगी । इस संकल्प के साथ हम सभी को एक साथ आगे बढना होगा ।

आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है
आज की रात ना फ़ुटपाथ पे नींद आएगी
सब उठो , मैं भी उठूं , तुम भी उठो ,तुम भी उठो
कोई खिडकी इसी दीवार में खुल जाएगी ।

मंगलवार, 25 नवंबर 2008

हिंदू आतंकवाद के दांव पर सियासत जीती देश हारा

मालेगांव धमाके की गूंज थमने का नाम ही नहीं ले रही । मामला जितना खुलता है , उतना ही उलझता जा रहा है । हर उगते सूरज के साथ नई कहानी । कभी आरोपी खेमे का पलडा भारी होता है ,तो कभी एटीएस के बहाने कांग्रेस ,लालू और मुलायम खेमे की बांछें खिल जाती हैं ।
जितने मुंह उतनी बातें । खोजी पत्रकार बंधुओं ने अब साध्वी के गांव की खाक छानना शुरु कर दी है । सुनने में आया है कि तेज़तर्रार साध्वी के छात्र जीवन को खंगालकर मालेगांव धमाके के सूत्र तलाशे जा रहे हैं ।
एटीएस तो अच्छी स्क्रिप्ट बनाने में फ़िलहाल नाकाम रही ,लेकिन अपने खबरिया चैनलों ने ज़रुर टेक्निशियन की हडताल के चलते बेरोज़गार घूम रहे स्क्रिप्ट राइटरों को काम पर लगा दिया है । डमी साध्वी बेहतरीन संवाद अदायगी से लोगों तक ’ आधी हकीकत आधा फ़साना ’ पहुंचा रही है ।
खैर खबरें हैं , तो चैनल हैं ,चैनल हैं तो दर्शक हैं , और दर्शक फ़ुरस्तिया हैं , तो चैनलों पर बकवास भी है । यानी सब एक दूसरे के पूरक , पोषक और ग्राहक । बहरहाल मेरे लिए ये कोई मुद्दा नहीं है । मुझे तो चिंता है इस पूरे मसले में सिर्फ़ दो ही बातों की ........। पहली तो ये कि मालेगांव मामले में एटीएस के बयानों ने भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदनाम करने का मौका पाकिस्तान को बैठे बिठाए दे दिया है । दूसरी - ज़मींदोज़ हो चुके पीयूसीएल और तीस्ता सीतलवाड सरीखे मानव अधिकारवादियों की ।
सुनने में आया है कि एटीएस के धमाकेदार खुलासों ने भारत सरकार की बेचैनी बढा दी है । विदेश और ग्रह मंत्रालय भी एटीएस द्वारा जुटाए गए तथाकथित बयानों और सबूतों को लेकर पसोपेश में है । उनकी चिंता ये है कि अब एटीएस के इन्हीं सबूतों की बिना पर पाकिस्तान सरकार अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत के खिलाफ़ माहौल तैयार करेगी ।
सेना और आईबी में भी एटीएस की जांच को लेकर चिंता है । विदेश मंत्रालय ने राष्ट्रीय सुरक्शा सलाहकार तक अपनी चिंता पहुंचा दी है । साथ ही हिंदू आतंकवाद के जुमले से परहेज़ बरतते हुए इसे एक नए रुप में देखने का मशविरा भी दिया है । विदेश मंत्रालय और खुफ़िया एजेंसियां भी मान रही हैं कि भले ही घरेलू राजनीति में इस मामले ने बीजेपी के आतंकवाद के मुद्दे की हवा निकाल दी हो , लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंन्दू आतंकवाद के इस नए चेहरे से देश की छबि को बट्टा लगा है ।
आतंकवाद से निपटने के साझा प्रयास की सहमति बनने के बाद भारत और पाकिस्तान ने अक्टूबर २००६ में एंटी टेरेरिज़्म मैकेनिज़्म [एटीएम] तैयार किया था । हाल ही में इस्लामाबाद में हुई एटीएम की बैठक मे पाकिस्तान ने समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट की जांच की मांग उठाकर न केवल दबाव बढाया , बल्कि अपने इरादों का संकेत भी दे दिया ।
हिंदू आतंकवाद के तार जिस तरह समझौता एक्सप्रेस मामले से जुडते बताए जा रहे हैं , उनसे पाकिस्तान बेहद उत्साहित है । गौर तलब है कि ब्लास्ट में मरने वाले ज़्यादातर लोग पाकिस्तानी थे । अब तक भारत में होने वाली आतंकवादी वारदातों के लिए पाकिस्तान की खुफ़िया एजेंसी आईएसआई को ही ज़िम्मेदार ठहराकर अंतरराष्ट्रीय मंच पर पाकिस्तान को घेरा जाता रहा है । ये पहला मौका है जब भारत को उसी के देश की एक जांच एजेंसी की रिपोर्ट के हवाले से घेरने का सुनहरा मौका पाकिस्तान को चलते फ़िरते मिल गया ।
दुनिया छोड चुकी महिलाओं के हितों की लडाई लडने वाला राष्ट्रीय महिला आयोग ज़िंदा औरत की ओर अपने फ़र्ज़ शायद भूल चुका है । मानव अधिकार भी लगता है कुछ खास किस्म के लोगों के ही होते हैं । उन खास लोगों की फ़िक्रमंदी में ही सारे एनजीओ अपनी ऊर्जा ज़ाया करके ही परमार्थ सेवा का पुण्य लाभ अर्जित करते हैं ।
सामान्य से नज़र आने वाले मामले ने बातों ही बातों में देश को मुश्किल मोड पर ला खडा किया है । अब भी देर नहीं हुई है , ओछी राजनीति के लिए देश की साख को दांव पर लगाने की कोशिशों को नाकाम किया जा सकता है संजीदगी और मज़बूत राजनीतिक इच्छाशक्ति के बूते ।
इक तरफ़ ज़ोर है ,हुकूमत है माल है, मुल्क है , सियासत है ।
इक तरफ़ वलवले हैं मेहनत है शोर है , जोश है , बगावत है ।

शनिवार, 22 नवंबर 2008

शास्त्रार्थ करते जेहादी ,मगर हम चुप रहेंगे.......!



इंसान और इंसानियत की मौत पर मुझे बहुत कुछ कहना है , मगर मैं चुप रहूंगी ........।




शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

सियासी मैदान में ज़मीन तलाशती औरतें


आधी आबादी की भागीदारी में इज़ाफ़े के दावों - वादों के बीच सच्चाई मुंह बाये खडी है । हाशिए पर ढकेल दिया गया महिला वर्ग अपनी आवाज़ बुलंद करने के लिए आज भी राजनीतिक ज़मीन तलाश रहा है ।

भारतीय राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढाने को लेकर लंबे चौडे भाषण दिये जाते हैं । सियासत में महिलाओं की नुमाइंदगी बढाने को लेकर गंभीर विचार विमर्श के दौर भी खूब चलते हैं । इस मसले पर मंचों से चिंता ज़ाहिर कर वाहवाही बटोरने वाले नेताओं की भी कोई कमी नहीं । लेकिन चुनावी मौसम में टिकिट बांटने के विभिन्न दलों के आंकडों पर नज़र डालें , तो महिलाओं को राजनीति में तवज्जोह मिलना दूर की कौडी लगता है । किसी भी राजनीतिक दल ने टिकट बाँटने में महिलाओं को प्राथमिकता सूची में नहीं रखा है ।

दो प्रमुख राजनीतिक दल कांग्रेस और भाजपा हमेशा से महिलाओं को ३३ प्रतिशत आरक्षण का समर्थन करते आए हैं लेकिन उम्मीदवारों की सूची में उनकी यह इच्छा ज़ाहिर नहीं होती ।
राजनीति में महिलाओं को ३३ प्रतिशत आरक्षण देने की ज़ोरदार वकालत करने वाले राजनीतिक दल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के मध्यप्रदेश में २७ नवंबर को होने वाले चुनाव के टिकट वितरण में इसे भूल गए ।

मध्यप्रदेश में हुए टिकिट वितरण पर निगाह डालें , तो यही तस्वीर सामने आती है कि बीजेपी, कांग्रेस ,बसपा से लेकर प्रांतीय दलों की कसौटी पर भी महिलाएं खरी नहीं उतर सकी हैं ।किसी भी दल ने १३ फ़ीसदी से ज़्यादा महिला उम्मीदवारों में भरोसा नहीं जताया है । यह हालत तब है जब तीन प्रमुख दलों की अगुवाई महिलाएं कर रही हैं ।

भारतीय जनता पार्टी ने महिला प्रत्याशियों को मौका देने में कंजूसी बरती है । पार्टी ने १० फ़ीसदी यानी २३ प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारा है , जबकि प्रदेश संगठन का दावा था कि ३३ प्रतिशत टिकिट नहीं दे पाने की हालत में कम से कम हर ज़िले में एक सीट महिलाओं को दी जाएगी । लेकिन आंकडे बीजेपी के दावे को खोखला करार देते हैं ।

कांग्रेस ने इस मामले में कुछ दरियादिली दिखाई है ,मगर यहां भी गिनती २९ पर आकर खत्म हो जाती है । कुछ कद्दावर नेताओं के विरोध के बावजूद पार्टी ने १२.६० प्रतिशत महिला नेताओं पर जीत का दांव खेला है ।

मायावती की अगुवाई वाली बहुजन समाज पार्टी की महिलाओं के प्रति बेरुखी साफ़ दिखती है । २३० सीटों में से महज़ १३ यानी ५,२२ फ़ीसदी को ही बसपा ने अपना नुमाइंदा बनाया है । हालांकि सोशल इंजीनियरिंग के नए फ़ार्मूले के साथ राजनीति का रुख बदलने में जुटी मायावती से महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढाने को लेकर काफ़ी उम्मीदें थीं ।

उमा भारती की भारतीय जनशक्ति में भी पुरुषों का ही बोलबाला है । तंगदिली का आलम ये है कि २१६ सीटों में से १८ पर ही महिला उम्मीदवारों को मौ्का दिया गया है । समाजवादी पार्टी का हाल तो और भी बुरा है । सपा ने २२५ प्रत्याशी खडॆ किए हैं , जिनमें सिर्फ़ १६ महिलाएं हैं । इस तरह कुल तीन हज़ार एक सौ उन्यासी उम्मीदवारों में से केवल दो सौ बीस महिलाएं हैं ।

हालांकि पिछले चुनाव में १९ महिलाओं को विधानसभा में दाखिल होने का अवसर मिला था । इनमें से १५ बीजेपी की नुमाइंदगी कर रही थीं । ताज्जुब की बात यह थी कि ८ को मुख्यमंत्री और मंत्री पद से नवाज़ा गया । ये अलग बात है कि चार महिलाओं को अलग - अलग कारणों से मुख्यमंत्री और मंत्री पद गंवाना पडा । ये हैं - उमा भारती , अर्चना चिटनीस , अलका जैन और विधायक से सांसद बनीं यशोधरा राजे ।

दरअसल राजनीतिक दलों को लगता है कि महिला उम्मीदवारों के जीतने की संभावना कम होती है , लेकिन एक सर्वेक्षण के बाद सेंटर फॉर सोशल रिसर्च ने कहा है कि यह धारणा सही नहीं है. । सेंटर का कहना है कि १९७२ के बाद के आंकड़े बताते हैं कि महिला उम्मीदवारों के जीतने का औसत पुरुषों की तुलना में बहुत अच्छा रहा है ।

इस मुद्दे पर राजनीतिक दल सिर्फ़ ज़बानी जमा खर्च करते हैं । हकीकतन महिलाओं के साथ सत्ता में भागीदारी की उनकी कोई इच्छा नहीं है । महिलाओं की भागीदारी भले ही सीमित संख्या में बढ़ रही है लेकिन जो महिलाएँ राजनीति में आ रही हैं , उन्होंने महिला राजनीतिज्ञों के प्रति लोगों की राय बदलने का महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । गौर तलब है कि अब जो महिलाएँ चुनाव लड़ रही हैं उनमें से कम ही किसी राजनीतिज्ञ की पत्नी, बेटी या बहू हैं ।

भारत में आम तौर पर राजनीति शुरू से पुरुषों का क्षेत्र माना गया है और आज भी पुरुषों का वर्चस्व कायम है शायद कहीं न कहीं पुरुष राजनेता नहीं चाहते कि वो अपनी जगह छोड़ दें , लेकिन धीरे - धीरे ही सही वक्त करवट ले रहा है ।

व्यक्तिगत तौर पर मेरा मानना है कि महिलाओं को आगे बढने के लिए किसी सहारे की ज़रुरत नहीं । महिलाओं में आगे बढने का जज़्बा भी है और हौसला भी । योग्यता बढाने के लिए अनुकूल माहौल की दरकार है । पर्याप्त मौके मिलते ही इन परवाज़ों को पंख मिल जाएंगे ऊंचे आसमान में लंबी उडान भरने के लिए ....। औरत किसी के रहमोकरम की मोहताज कतई नहीं ...। जिस भी दिन औरत ने अपने हिस्से का ज़मीन और आसमान हासिल करने का ठान लिया उस दिन राजनीति का नज़ारा कुछ और ही होगा ।

कद्र अब तक तेरी तारीख ने जानी ही नहीं
तुझमें शोले भी हैं ,बस अश्कफ़िशानी ही नहीं
तू ह्कीकत भी है , दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं
अपनी तारीख का उनवान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे ।

मंगलवार, 18 नवंबर 2008

एटीएस - एक कदम आगे दो कदम पीछे .......?

महाराष्ट्र एंटी टेरेरिस्ट स्क्वाड-एटीएस की हिन्दू आतंकवाद की सनसनीखेज़ कहानी में एकता कपूर के अंतहीन धारावाहिक ’क्योंकि सास ...’ की तरह हर रोज़ नए किरदार जुडते जा रहे हैं । कहानी में हर गुज़रते दिन के साथ नया टविस्ट आ रहा है । अब तो हालत ये है कि एटीएस को खुद पता नहीं कि मामले की शुरुआत कहां से की गई थी । अपने आकाओं के इशारे पर रोज़ ब रोज़ नए खुलासों का दम भरने वाली एटीएस खुद नहीं जानती कि उसका अगला कदम क्या होगा ।

कल तक समझौता ब्लास्ट मामले में आरडीएक्स का नामो निशान नहीं था । एफ़एसएल की रिपोर्ट को दरकिनार कर अचानक धमाके में आरडीएक्स के इस्तेमाल का शिगूफ़ा छोडने वाली जांच एजेंसी को पोल खुलते ही बैक फ़ुट पर जाना पडा । लेकिन हद तो तब हो गई ,जब हरियाणा पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी की बात को झुठलाते हुए कल एकाएक रेलवे पुलिस की महिला अधिकारी खबरिया चैनल पर समझौता एक्सप्रेस में हुए ब्लास्ट में आरडीएक्स के उपयोग की बात कहती नज़र आईं । लगता है लालू यादव रेल महकमे का इस्तेमाल राजनीतिक रोटियां सेंकने में कर रहे हैं । जांच की तेज़ रफ़्तार और नित नए विस्फ़ोटक खुलासों ने और कुछ किया हो या ना किया हो , मगर एटीएस की मंशा का पर्दाफ़ाश ज़रुर कर दिया ।

और कुछ करते या नहीं , कम से कम कहानी की स्क्रिप्ट तो कसी हुई बनाते । किसी फ़िल्मी स्क्रिप्ट राइटर से संपर्क करते , तो हर रोज़ फ़जीहत तो नहीं होती । मेरा दस साल का बेटा मुझसे दिन में कई मर्तबा पूछता है कि साठ किलो आरडीएक्स तो बहुत सारा होता है । अंकल सेना से छुपाकर कब और कैसे ले गये ..? क्या उन्हें किसी ने देखा नहीं ? उधर सेना में आरडीएक्स का उपयोग ही नहीं होने की बात ने लोगों को उलझन में डाल दिया है ।

हर रोज़ नया मोड लेती कहानी ने लोगों को भ्रमित कर दिया है । आम जनता हकीकत जानने को बेताब है । लेकिन सच्चाई पर झूठ के मुलम्मे इस कदर चढ चुके हैं कि लोगों का यकीन डगमगाने लगा है ।

मेरी एक रिश्तेदार ने ऎसा सवाल किया , जिससे मैं भी हैरत में पड गई । उन्होंने कहा कि साध्वी निश्चित ही धमाकों की साज़िश में शामिल है , लेकिन अपनी योग साधना के बूते वे चार -चार बार हुए नार्को टेस्ट को चकमा देने में कामयाब हो गई । ये बानगी है , उस जनता की जिसे राजनेता अपनी धूर्तता से आसानी से छलने में कामयाब हो जाते हैं ।

इस बीच खबर ये भी है कि एटीएस ने हिंदू आतंकवाद की कहानी को और आगे तक ले जाने की ठान ली है। उसकी सूची में कॉर्पोरेट क्षेत्र में काम कर रहे कई कश्मीरी पंडित, पत्रकार, फिल्मकार और कुछ रिटायर्ड अधिकारी शामिल हैं जिन्हें पूछताछ के लिए हिरासत में लेने की अनुमति उसने मुंबई पुलिस के कमिश्नर से मांगी हैं ।

एटीएस अपने ही रचे जाल में बुरी तरह फंस गई है । ले. कर्नल श्रीकांत पुरोहित और साध्वी प्रज्ञा से हुई पूछताछ में उसे अब तक कोई ऐसी जानकारी हाथ नहीं लगी है जिसके आधार पर वह मामला आगे बढ़ा सके।

उधर कर्नल पुरोहित का नार्को टेस्ट भी विवादों में घिर गया है । सेना के अधिकारियों ने पुरोहित के नार्को टेस्ट की वीडियोग्राफ़ी के लिए अपना कैमरा लगाने की मांग की थी लेकिन इसे स्वीकार नहीं किया गया । एटीएस अधिकारियों ने दावा किया कि परीक्षण का वीडियो बनाने का इंतजाम किया गया है , लेकिन बाद में पता चला कि वीडियो कैमरे में कुछ खराबी आ गई , जिससे रिकार्डिंग नहीं हो सकी । वैसे भी कर्नल पुरोहित पर जितने आरोप लगाए गए हैं, विस्फोटों के मामले में सिमी और दूसरे संगठनों के कार्यकर्ताओं के परीक्षण और बयानों से उन आरोपों की पुष्टि होने की कोई संभावना नहीं हैं ।


देश के अमन चैन के दुश्मन बन कर सत्ता हासिल करने की जुगाड में लगे राजनेताओं को अपने फ़ायदे के सिवाय कुछ नज़र नहीं आ रहा । असली देशद्रोही ये सेक्युलर नेता हैं , जो तुष्टिकरण का ज़हर बोकर देश की फ़िज़ा बिगाडने पर आमादा हैं । खबर है कि कल मस्ज़िद बचाओ तहरीक के नुमाइंदों ने हैदराबाद में साध्वी और ले. कर्नल पुरोहित का पुतला फ़ूंखा । देश के रहनुमाओं की हालत तो उस ऎय्याश ज़मींदार जैसी है , जो शराबखोरी और अय्याशी में सब कुछ गंवा देने के बाद भी बाज़ नहीं आता और अपनी रंगीन तबियत के चलते आने बच्चों को भी कर्ज़दार बना जाता है । कहते हैं - लम्हों ने खता की थी ,सदियों ने सज़ा पाई । ’

अपने सियासी नफ़े के लिए देश की अस्मिता से खिलवाड करने वाले इन रक्त बीजों को महज़ चुनाव में मज़ा चखाने का संकल्प लेना नाकाफ़ी है । इन्हें तो हर वक्त हर मोर्चे पर मुंह तोड जवाब देने की ज़रुरत है । ना जाने मेरे देश के लोग कब जागेंगे , कब आएगा उनमें इतना साहस कि वे इनसे हिसाब मांगें .........?

इसको मज़हब कहो , या सियासत कहो
खुदकुशी का हुनर तुम सिखा तो चले
बेलचे लाओ , खोलो ज़मीं की तहें
मैं कहां दफ़्न हूं , कुछ पता तो चले ।

शनिवार, 15 नवंबर 2008

गदहा मलाई सूंत गया ..............


उज्जैन को खबरों में बने रहने का बडा चस्का है । मज़े की बात ये कि उज्जैनियों को खबरें बनाने के गुर भी बखूबी आते हैं । माधव और सुदामा , महाकवि कालिदास और विक्र्म बेताल की किस्सागोई अब तक लोगों के ज़ेहन में ताज़ा हैं । सिंहासन बत्तीसी की पुतलियों ने भी कोई कसर नहीं छोडी शहर को ख्याति दिलाने में ।

महाकाल की तो शान ही निराली है । मदिरापान करने वाले काल भैरव के उपासकों के लिए उज्जैन से बडा शायद ही कोई सिद्ध पीठ हो । तंत्र साधकों के पसंदीदा साधना स्थलों में उज्जयिनी का नाम सबसे ऊपर आता है । यहां के टेपा सम्मेलन की भी देश में खासी धूम है । टेपा समागम में महामूर्ख के खिताब से नवाज़ा जाना किसी बडे सम्मान से कम नहीं । सिंहस्थ की निराली छ्टा को निहारने के लिए देश - विदेश के सैलानियों का जमावडा अपने आप में अद्भुत अनुभव है ।

इन सब के बीच उज्जैन में गदहों के मेले का ज़िक्र ना करना नाइंसाफ़ी होगी । सारी दुनिया मंदी की मार झेल रही है , लेकिन गदहों के भाव आसमान छू रहे हैं । हैरत है कि हर साल लगने वाले गदर्भराज मेले में इस मर्तबा राजा नाम के गदहे के दाम १५ से २० हज़ार रुपए तक बोले गये ,जबकि चेतन राजा नाम के घोडे की कीमत भी इतनी ही आंकी गई ।

क्या ज़माना आ गया । पहले मेरे साथ कहीं भी नाइंसाफ़ी होती थी , तो मुंह से यक ब यक जुमला निकलता था कि गदहे घोडों में कुछ तो फ़र्क समझिए । लेकिन अब गदहों की पूछ परख ही नहीं बढी उनके दाम भी सातवें आसमान पर पहुंचने की तैयारी में हैं ।

घोडों को पूछने वाला कोई नहीं है । गदहे की तलाश सभी को है । कोई सवाल नहीं , कोई तर्क - वितर्क नहीं । सदैव मालिक के प्रति आभार का भाव । कोई शिकायत भी नहीं । हो भी क्यों ...? मालिक की जी हुज़ूरी बजा लाने का ईनाम भी तो भरपूर पाता है गदहा । मुझ मूर्ख को ये ब्रह्म ग्यान अब जा कर प्राप्त हुआ । हाल ही में घोडे होने की कीमत चुकाने के बाद अब जाना कि गदहा होना आज के वक्त में कितने फ़ायदे का सौदा है ।

अब तो गदहों के मलाई सूंतने का ही दौर है । कबीरदास जी कह गये हैं - माटी कहे कुम्हार को ,तू क्या रौंदे मोहे इक दिन ऎसा होएगा मैं रौंदूंगी तोहे । तो जनाब घोडों के दिन पूरे हुए , अब तो गदहों की ही चलेगी । गदहे हुक्म चलाएंगे और घोडॆ बोझा ढोते नज़र आएंगे .......। कलियुग है भई घोर कलियुग .....। नाम के फ़ेर में पड कर हिचकना -झिझकना छोडकर तय कर लीजिए किस जमात में शामिल होना है .......।

किसी से खुश भी नहीं है कोई खफ़ा भी नहीं ,
किसी का हाल कोई मुड के पूछता भी नहीं ।

गुरुवार, 13 नवंबर 2008

देशप्रेम ही है हिन्दू आतंकवाद की जड



हिन्दुओं को राष्ट्र भक्ति का पाठ पढाने वालों खबरदार ....। मैडम सोनिया की रहनुमाई में देश में हिन्दू लफ़्ज़ आतंकवाद का पर्याय बन गया है । कल तक आर एस एस ,बजरंग दल , शिव सेना जैसे संगठनों को तिरछी निगाह से देखा जाता था । अब ये दायरा बढ चुका है ।

खबरिया चैनल चिल्ला - चिल्ला कर बता रहे हैं भगवे की हकीकत । खबरों के हथौडों से ठोक - ठोक कर दिमाग में ठूंसा जा रहा है हिन्दू आतंकवाद का जुमला । मोह माया त्याग जोगिया ओढने वाले संन्यासी देश को तोडने की साज़िश रचने वाले मास्टर माइंड बन गये हैं । ये लोग एकाएक ही साधु से शैतान बन गये हैं ।

देश की विडंबना भी देखिए , लुटेरे , फ़रेबी , बलात्कारी नामी गिरामी संत बन बैठे हैं । दूसरों का माल हज़म करने वाले ये संत टी वी के ज़रिए लोगों को सब कुछ त्याग देने की राह दिखाते हैं । दूसरी ओर राष्ट्र उत्थान का आह्वान करने वाले देशभक्त संन्यासी अतिवादी बताए जा रहे हैं ।

जूनापीठाधीश स्वामी अवधेशानंद गिरिजी महाराज ऎसे संन्यासी हैं , जिन्होंने राम कथा ,श्रीमद भागवत कथा और दुर्गा सप्तशती के माध्यम से केवल धर्म की नहीं राष्ट्र् के विकास की बात भी की है । वे हमेशा सकारात्मक सोच के साथ समाज और देश को दुनिया का सिरमौर बनाने की बात कहते हैं । साध्वी प्रज्ञा को दीक्षा देने मात्र को लेकर स्वामीजी का नाम इस पूरे पचडे में जिस तरीके से घसीटा गया , वह संगीन अपराध से कमतर नहीं ।

सवाल ज़ेहन में उठता है कि महज़ साध्वी प्रज्ञा को दीक्षा देने से या उन्हें एक - दो बार मिलने से स्वामीजी पर संदेह किया जा सकता है , तो फ़िर एटीएस को जांच का दायरा फ़ौरन से पेशतर बढा देना चाहिए । मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह और उनके पुत्र अजय सिंह से भी कडी पूछ्ताछ की जाना चाहिए । इसी बिना पर कई मंत्री , नेता , अधिकारी और उद्योगपतियों को हिन्दू अतिवाद का हिमायती ठहराया जा सकता है । इतना ही नहीं स्वामीजी के लाखों शिष्यों , उनमें मैं खुद भी शामिल हूं , हम सभी का नार्को और अन्य साइंटिफ़िक टेस्ट कराए जाना चाहिए ।

वक्त की चाल बदल गई है । देश हित की चिंता करना देशद्रोह और राष्ट्र् को बेज़ा लूटना - खसोटना देशप्रेम । देश के लोगों को जगाने की कोशिश - जुर्म , लेकिन हिन्दुस्तान का खंड - खंड विखंडन करने की साज़िश रचने वाले महापुरुष । देश को बेचने , गिरवी रखने के लिए इसका कमज़ोर होना ज़रुरी है । इसी के इंतज़ाम में जुटा है बिका हुआ मीडिया , मौकापरस्त नेता और ज़मीर बेच चुके आला अफ़सरान ।
मेरा मशविरा है , सभी राष्ट्रवादियों कर दो खुद को एटीएस के हवाले । जत्थे बनाकर महाराष्ट्र के लिए कूच करो । कहो कि प्रस्तुत हैं हम सब बार -बार नार्को टेस्ट के लिए । आखिर हम अपराधी हैं , अपराध अपने देश से प्रेम करने का ............।
ऎसी ललकार कि तलवार भी पानी मांगे
ऎसी रफ़्तार कि दरिया भी रवानी मांगे ।

[ कार्तिक पूर्णिमा का पर्व गुरुदेव का अवतरण दिवस भी है । स्वामीजी का राष्ट्र उत्थान का संकल्प हम सभी अनुयायियों को प्रेरित करता रहे ,यही कामना है ।]

दुनिया का मेला , मेले की दुनिया

होशंगाबाद जिले का छोटा सा गांव है - बांद्राभान । धार्मिक महत्व के इस स्थान पर नर्मदा का तवा नदी से मिलन होता है. । होशंगाबाद नगर के पूर्व में करीब आठ किमी पर सांगाखेडा के नजदीक बांद्राभान है । तवा - नर्मदा के संगम के नजदीक हर साल कार्तिक पूर्णिमा पर तीन दिन मेला भरता है ।

इस मेले का अंश बनने का मुझे भी कुछ साल पहले मौका मिला था । मेला क्या , बस यूं समझिए चारों तरफ़ जन सैलाब । जहां तक नज़र जाती है ,लोग ही लोग । लोगों का ऎसा रेला इससे पहले मैंने केवल कुंभ में ही देखा था । बिना किसी आमंत्रण ,बिना मुनादी , बगैर डोंडी पीटॆ स्वत स्फ़ूर्त प्रेरणा से लाखों लोगों का एकत्र होना मेरे लिए अचंभे की बात थी । इतना बडा मेला हर साल लगता है और करीब सौ - सवा सौ किलोमीटर की दूरी पर बसे भोपाल में इसकी कोई चर्चा नहीं ।

दौडती - भागती ज़िंदगी की आपाधापी को धता बताती बैलगाडियों की लंबी कतार .........बैलों के गले में पडे घुंघरुओं की रुनझुन ........ चटख लाल , गहरे धानी , सरसों पीले और ना जाने कितने ही रंगों के लंहगे - लुगडों में सजी औरतें ,नई बुश्शर्ट - निक्कर और झबले पहने काजल का डिठौना लगाए बच्चों की किलकारियां ..... लोकगीत की सामूहिक स्वर लहरियों से रस में भीगता माहौल और जय सिया राम की जुहार ........।

ये नज़ारा है नर्मदा तीरे लगने वाले कार्तिक पूर्णिमा के मेले का , जहां उत्साह और उमंग के ऎसे काफ़िले इन दिनों आम हैं । भला कौन होगा जो इन मेलों का आमंत्रण ठुकरा सके । लोक परंपराओं को ज़िंदा रखने वाले मेलों का लुभावना नज़ारा बरसों तक यूं ही आंखॊं में बसा रहता है । जो भी इन मेलों का एक बार भी हिस्सा बना है वो जानता है कि मन ना जाने कब फ़ुर्र से उडकर मेलों में पहुंच जाता है ।

नदियों का इन मेलों से बडा गहरा और आत्मीय रिश्ता है । मध्यप्रदेश में नदियों के किनारे लगने वाले महत्वपूर्ण मेलों की कडी है । पुण्य सलिला नर्मदा के किनारे भरने वाले माटी की सोंधी गंध से लबरेज़ तमाम मेलों का लोगों को साल भर इंतज़ार रहता है । मेल -मिलाप के इन ठिकानों का अपना मौलिक आनंद है । इन के मूल में कोई अंर्तकथा है , संवेदना है और आदि लोक परंपरा है । यही कारण है ,जो मेलों से जुडी लोक आस्था आज तक बरकरार है ।

नदी किनारे असंख्य लोग अपने कुनबों के साथ सत्यनारायण की कथा की यजमानी करते दिखाई देते हैं । कदम - कदम पर छोटे - बडे झुंडों के बीच पंडित - पुरोहित कथा बांचते ,श्रद्धालुओं से पल -पल में नवग्रहों की प्रसन्नता के लिए दान का संकल्प दोहराने की मनुहार करते पंडे - पुजारियों के प्रति श्रद्धा से नतमस्तक ग्रामीण दिखते हैं । घंटे - घडियाल और शंखनाद के साथ भजन - आरती करते हुऎ भक्ति भावमय वातावरण में आमोदित - प्रफ़ुल्लित होते लोग इन्हीं मेलों में ही नज़र आते हैं ।

टेंट तंबुओं में सजी ग्रामीण सौंदर्य प्रसाधन - रिबन , महावर , टिकुली ,बिंदी की खरीददारी में मशगूल युवतियों की बेलौस हंसी - ठिठौली मन में ईर्ष्या भाव पैदा कर देती है । आखिर क्या है इनके इस निश्छल आनंद का राज़ ......? मन सवाल करने लगता है खुद से ......? ये खुशी , ये उल्हास , ये उमंग हम शहरियों के चेहरों से क्यों कर गायब हो चला है । ग्रामीणों का बेबाक ,बिंदास अंदाज़ मेलों की आत्मा है ।

लकडी मिट्टी के खिलौनों की दुकानों पर भाव ताव में मशगू्ल लोगों को ताकने का अपना ही मज़ा है । हर छोटी - बडी दुकानों में जाकर बस यूं ही मोलभाव करने , दुकानदार को छकाने वालों की भी कोई कमी नहीं । चटखारे लेकर मिठाई और चाट - पकौडी उडाने वालों को कच्ची सडक के किनारे रखे थालों की धूल सनी रंग बिरंगी मिठाइयों से भी कोई गुरेज़ नहीं । रेत पर कंडों के ढेरों से उठते धुएं के गुबार के साथ बाटी की सोंधी - सोंधी महक मन ललचाती है । जी चाहता है कोई बस यूं ही मुंह छुलाने को ही कह दे और हम लपक कर चूरमा बाटी के ज़ायके का लुत्फ़ लेने बैठ जाएं ।

पालकी वाले झूले की चरमराहट और गुब्बारे वाले की चिल्लपौं वातावरण को एक अजीब सी रौनक से भर देते हैं । ठेठ गंवई अंदाज़ के इन मेलों में चाट पकौडे औए आइसक्रीम बेचने वालों की तीखी आवाज़ें माहौल में रस घोल देती हैं । ग्रामीण युवकों के अलगोजे से निकलती मादक आवाज़ और लोकगीतों की टेर लगाते महिला स्वर मेले की खनक में इज़ाफ़ा कर देते हैं ।

कार्तिक मास धर्म- कर्म के लिहाज़ से काफ़ी महत्वपूर्ण माना गया है । दान पुण्य के लिए मोक्श्दायिनी रेवा के सानिध्य से बेहतर और कौन सी जगह हो सकती है । लोग रात में नर्मदा की अविरल धारा में असंख्य दीपों का दान करते हैं । प्रवाह के साथ निरंतर आगे बढते ये ज्योति पुंज हमें जीवन को प्रकाशवान बनाने और संसार को रोशनी से भर देने की सीख देते हैं । कहते हैं आग पानी एक दूसरे के पूरक ना सही , अपने - अपने दायरे में रहकर भी बहुत कुछ सकारात्मक करने की गुंजाइश हर हाल में हो सकती है । नदी का प्रवाह और देदीप्यमान दीपमाला यही कहती है ..............।

मेले विभिन्न धर्मों और संप्रदायों को एक सूत्र में पिरोने का अनूठा माध्यम हैं । कई मेले धार्मिक आस्था और विश्वास पर केंद्रित हैं , तो कुछ मेलों के पीछे ऎतिहासिक , सामाजिक और राजनीतिक यादों की धरोहर संजोई गई है । मेले होते हैं - मेल मुलाकात के ठिए । मेला यानी खुद को खो कर सबको पा लेने का ठिकाना । मेला मानी अपने बाहरी व्यक्तित्व से छूटकर अपने अंतस में झांकने का स्थान । चारों ओर शोर शराबा , भीड - भडक्का ,मगर फ़िर भी आप बिल्कुल अकेले सबसे अंजान ...........।

देखिए तो है कारवां वर्ना.
हर मुसाफ़िर सफ़र में तन्हा है ।

बुधवार, 12 नवंबर 2008

हर मुसाफ़िर सफ़र में तन्हा है ...........


दौडती - भागती ज़िंदगी की आपाधापी को धता बताती बैलगाडियों की लंबी कतार .........बैलों के गले में पडे घुंघरुओं की रुनझुन ........ चटख लाल , गहरे धानी , सरसों पीले और ना जाने कितने ही रंगों के लंहगे - लुगडों में सजी औरतें ,नई बुश्शर्ट - निक्कर और झबले पहने काजल का डिठौना लगाए बच्चों की किलकारियां ..... लोकगीत की सामूहिक स्वर लहरियों से रस में भीगता माहौल और जय सिया राम की जुहार ........।

ये नज़ारा है नर्मदा तीरे लगने वाले कार्तिक पूर्णिमा के मेले का , जहां उत्साह और उमंग के ऎसे काफ़िले इन दिनों आम हैं । भला कौन होगा जो इन मेलों का आमंत्रण ठुकरा सके । लोक परंपराओं को ज़िंदा रखने वाले मेलों का लुभावना नज़ारा बरसों तक यूं ही आंखॊं में बसा रहता है । जो भी इन मेलों का एक बार भी हिस्सा बना है वो जानता है कि मन ना जाने कब फ़ुर्र से उडकर मेलों में पहुंच जाता है ।

मेले विभिन्न धर्मों और संप्रदायों को एक सूत्र में पिरोने का अनूठा माध्यम हैं । कई मेले धार्मिक आस्था और विश्वास पर केंद्रित हैं , तो कुछ मेलों के पीछे ऎतिहासिक , सामाजिक और राजनीतिक यादों की धरोहर संजोई गई है ।

नदियों का इन मेलों से बडा गहरा और आत्मीय रिश्ता है । मध्यप्रदेश में नदियों के किनारे लगने वाले महत्वपूर्ण मेलों की कडी है । पुण्य सलिला नर्मदा के किनारे भरने वाले माटी की सोंधी गंध से लबरेज़ तमाम मेलों का लोगों को साल भर इंतज़ार रहता है । मेल -मिलाप के इन ठिकानों का अपना मौलिक आनंद है । इन के मूल में कोई अंर्तकथा है , संवेदना है और आदि लोक परंपरा है । यही कारण है ,जो मेलों से जुडी लोक आस्था आज तक बरकरार है ।

ऎसे ही एक मेले का अंश बनने का मुझे भी कुछ साल पहले मौका मिला था । होशंगाबाद जिले का छोटा सा गांव है - बांद्राभान । धार्मिक महत्व के इस स्थान पर नर्मदा का तवा नदी से मिलन होता है. । होशंगाबाद नगर के पूर्व में करीब आठ किमी पर सांगाखेडा के नजदीक बांद्राभान है । तवा - नर्मदा के संगम के नजदीक हर साल कार्तिक पूर्णिमा पर तीन दिन मेला भरता है ।

मेला क्या , बस यूं समझिए चारों तरफ़ जन सैलाब । जहां तक नज़र जाती है ,लोग ही लोग । लोगों का ऎसा रेला इससे पहले मैंने केवल कुंभ में ही देखा था । बिना किसी आमंत्रण ,बिना मुनादी , बगैर डोंडी पीटे स्फ़ूर्त प्रेरणा से लाखों लोगों का एकत्र होना मेरे लिए अचंभे की बात थी । इतना बडा मेला हर साल लगता है और करीब सौ - सवा सौ किलोमीटर की दूरी पर बसे भोपाल में इसकी कोई चर्चा नहीं ।

नदी किनारे असंख्य लोग अपने कुनबों के साथ सत्यनारायण की कथा की यजमानी करते दिखाई देते हैं । कदम - कदम पर छोटे - बडे झुंडों के बीच पंडित - पुरोहित कथा बांचते ,श्रद्धालुओं से पल -पल में नवग्रहों की प्रसन्नता के लिए दान का संकल्प दोहराने की मनुहार करते पंडे - पुजारियों के प्रति श्रद्धा से नतमस्तक ग्रामीण दिखते हैं । घंटे - घडियाल और शंखनाद के साथ भजन - आरती करते हुऎ भक्ति भावमय वातावरण में आमोदित - प्रफ़ुल्लित होते लोग इन्हीं मेलों में ही नज़र आते हैं ।

टेंट तंबुओं में सजी ग्रामीण सौंदर्य प्रसाधन - रिबन , महावर , टिकुली ,बिंदी की खरीददारी में मशगूल युवतियों की बेलौस हंसी - ठिठौली मन में ईर्ष्या भाव पैदा कर देती है । आखिर क्या है इनके इस निश्छल आनंद का राज़ ......? मन सवाल करने लगता है खुद से ......? ये खुशी , ये उल्हास , ये उमंग हम शहरियों के चेहरों से क्यों कर गायब हो चला है । ग्रामीणों का बेबाक ,बिंदास अंदाज़ मेलों की आत्मा है ।

लकडी मिट्टी के खिलौनों की दुकानों पर भाव ताव में मशगू्ल लोगों को ताकने का अपना ही मज़ा है । हर छोटी - बडी दुकानों में जाकर बस यूं ही मोलभाव करने , दुकानदार को छकाने वालों की भी कोई कमी नहीं । चटखारे लेकर मिठाई और चाट - पकौडी उडाने वालों को कच्ची सडक के किनारे रखे थालों की धूल सनी रंग बिरंगी मिठाइयों से भी कोई गुरेज़ नहीं । रेत पर कंडों के ढेरों से उठते धुएं के गुबार के साथ बाटी की सोंधी - सोंधी महक मन ललचाती है । जी चाहता है कोई बस यूं ही मुंह छुलाने को ही कह दे और हम लपक कर चूरमा बाटी के ज़ायके का लुत्फ़ लेने बैठ जाएं ।

पालकी वाले झूले की चरमराहट और गुब्बारे वाले की चिल्लपौं वातावरण को अजीब सी रौनक से भर देते हैं । ठेठ गंवई अंदाज़ के इन मेलों में चाट पकौडे औए आइसक्रीम बेचने वालों की तीखी आवाज़ें माहौल में रस घोल देती हैं । ग्रामीण युवकों के अलगोजे से निकलती मादक आवाज़ और लोकगीतों की टेर लगाते महिला स्वर मेले की खनक में इज़ाफ़ा कर देते हैं ।

कार्तिक मास धर्म- कर्म के लिहाज़ से काफ़ी महत्वपूर्ण माना गया है । दान पुण्य के लिए मोक्श्दायिनी रेवा के सानिध्य से बेहतर और कौन सी जगह हो सकती है । लोग रात में नर्मदा की अविरल धारा में असंख्य दीपों का दान करते हैं । प्रवाह के साथ निरंतर आगे बढते ये ज्योति पुंज हमें जीवन को प्रकाशवान बनाने और संसार को रोशनी से भर देने की सीख देते हैं । कहते हैं आग पानी एक दूसरे के पूरक ना सही , अपने - अपने दायरे में रहकर भी बहुत कुछ सकारात्मक करने की गुंजाइश हर हाल में हो सकती है । नदी का प्रवाह और देदीप्यमान दीपमाला यही कहती है ..............।

देखिए तो है कारवां वर्ना.
हर मुसाफ़िर सफ़र में तन्हा है ।

रविवार, 9 नवंबर 2008

करोडपति बीडी मजदूर का राजनीतिक सफ़र

जनता की सेवकायी के लिए प्रदेश के धन कुबेर चुनावी मैदान में उतरे हैं । नामांकन दाखिल करते वक्त संपत्ति का ब्यौरा देने की मजबूरी ने जनसेवकों की माली हालत की जो तस्वीर पेश की है वह आंखें चुंधियाने के लिए काफ़ी है । ज़्यादातर नेता करोडपति हैं । कुछ तो ऎसे हैं , जो महज़ ५ - ७ साल पहले रोडपति थे अब करोडपति हैं । बचपन से सुनते आए हैं "सेवा करो , तो मेवा मिलेगा ।” शायद जनता की सेवकाई के वरदान स्वरुप ही नेताओं की माली हालत में रातों रात चमत्कारिक बदलाव आ जाता है ।

संपत्ति के खुलासे ने लोगों को चौंकाया है । कई नौजवान मुनाफ़े के इस व्यवसाय की ओर खिंचे चले आ रहे हैं । जनसेवा से मुनाफ़े की एक बानगी -
मुरियाखेडी में तेंदूपत्ता इकट्ठा करने वाला एक मजदूर महज़ दो साल में इतना पैसा कमा लेता है कि वह भोपाल में करोडों की जायदाद का मालिक बन जाता है । राजधानी की नरेला विधानसभा सीट से बीजेपी के उम्मीदवार की चुनाव आयोग को दी गई संपत्ति की जानकारी और उनके राजनीतिक सफ़र को मिलाकर देखने पर कुछ ऎसी ही सच्चाई नज़र आती है ।

अखबारों में छपे हर्फ़ों पर यकीन करें तो नामांकन पत्र के साथ अपनी सम्पत्ति की जानकारी देते हुए ’ गरीब बीडी मजदूर’ विश्वास सारंग ने जो शपथ-पत्र प्रस्तुत किया उसके अनुसार वे करोड़ों के कारोबार के स्वामी हैं । भोपाल, सीहोर व रायसेन में लाखों की जमीन है । भोपाल की निशात कालोनी में लगभग दो करोड़ साठ लाख की कीमत के आवासीय व व्यावसायिक भवन , अरण्यावली गृह निर्माण सहकारी समिति में ३२ लाख रुपए की जमीन, तीन गाँवों में सवा छह लाख की कृषि भूमि, मण्डीदीप स्थित विशाल पैकवेल इण्डस्ट्रीज में भागीदारी, कामदार काम्पलेक्स, दिल्ली के गोयला खुर्द में जमीन एग्रीमण्ट भी श्री सारंग के ही नाम पर है। नामांकन पत्र के साथ इन्होंने भोपाल नगरीय क्षेत्र की मतदाता सूची में पंजीबध्द होने के प्रमाण भी पेश किए हैं ।

अब मामले का दूसरा पहलू - विश्‍‍वास सारंग इन दिनों मध्य्प्रदेश लघु वनोपज संघ के अध्यक्ष हैं । इस पद तक पहुंचने की पहली शर्त है - किसी प्राथमिक वनोपज सहकारी समिति का नियमित सदस्य होना । इस समिति का सदस्य बनने के लिए दो शर्तें हैं । पहली - वह व्यक्ति उस सहकारी समिति के भौगोलिक क्षेत्राधिकार का स्थायी और नियमित निवासी हो । दूसरी - उस व्यक्ति के जीविकोपार्जन का आधार लघु वनोपज संग्रहण हो ।

श्री सारंग ने अध्यक्ष पद हासिल करने के लिए क्या - क्या पापड नहीं बेले । ‘प्राथमिक वनोपज सहकारी समिति, मुरियाखेड़ी’ के भौगोलिक क्षेत्राधिकार वाले ग्राम और फड़ साँकल के निवासी श्री सारंग ने वन - वन भटक कर तेंदूपत्ता इकट्ठा किया । उन्होंने वर्ष २००७ में तेंदू पत्ता की ६०० और वर्ष २००८ में १२०५ गड्डियाँ संग्रहित कर २४ हज़ार तथा ४८ हज़ार २०० रुपये कमाए ।

लगभग सभी नेताओं की कहानी कमोबेश इसी तरह की है । सामान्य परिवारों के इन होनहार खद्दरधारी नेताओं का राजनीतिक सफ़र ज़्यादा लंबा भी नहीं है और ना ही किसी बडे पद पर कभी आसीन रहे । ऎसे में सवाल उठता है कि आखिर इस छ्प्पर फ़ाड ऎश्वर्य का राज़ क्या है ? राजनीति के सिवाय देश का कोई भी हुनर या पेशा इस रफ़्तार से दौलत कमाने की गारंटी नहीं दे सकता ।

देश के मतदाताओं अपने नेताओं की दिन दोगुनी रात चौगुनी बढती आर्थिक हैसियत का राज़ जानने के लिए ही सही , अब तो नींद से जागो । देखो किसे वोट दे रहे हो ....। तुम्हारा वोट किन - किन नाकाराओं को नोट गिनने और तिजोरियां भरने की चाबी थमा रहा है । मेरी राय में यदि कोई भी प्रत्याशी चुनाव के लायक ना हो ,तो वोट को बेकार कर दो , मगर वोट ज़रुर दो ।

लहू में खौलन , ज़बीं पर पसीना
धडकती हैं नब्ज़ें , सुलगता है सीना
गरज ऎ बगावत कि तैयार हूं मैं ।

[ यह पोस्ट माननीय विष्णु बैरागी जी के ब्लाग ’एकोsहम’ के आलेख से प्रेरित होकर लिखी गयी है । कुछ तथ्य उनकी पोस्ट ’ समाचार ना छपने का समाचार ’ से लिए गये हैं । ]

शुक्रवार, 7 नवंबर 2008

नारों- वादों के शोर में मुद्दे हुए नदारद

मध्य प्रदेश में चुनाव सर पर हैं और प्रमुख पार्टियों में टिकट को लेकर मचे घमासान का नज़ारा जनता खूब चाव से देख रही है । हफ़्ते भर पहले तक उमा के तेवरों और कांग्रेस से कडी टक्कर मिलने की आशंका ने बीजेपी की बैचेनी बढा दी थी । मगर कांग्रेस ने चुके हुए नेताओं को टिकट देकर सत्तारुढ दल की मुश्किलें आसान कर दी हैं । रही बात उमा भारती की , तो वे अपनी दुश्मन खुद हैं । ह्फ़्ते भर पहले तक साध्वी मामले में खुलकर सामने आने के कारण उमा लीड लेती लग रही थीं ,लेकिन छिंदवाडा में पार्टी पदाधिकारी की सरेआम पिटाई ने किए कराए पर पानी फ़ेर दिया । उमा ने भगवा चोला भले ही धारण कर लिया हो ,मगर अब तक अपने स्वभाव को भी ठीक तरह से नहीं साध सकीं हैं।

मतदान को लगभग २० दिन बचे हैं । चुनावी माहौल ज़ोर पकडने लगा है । लेकिन इस बार के चुनाव कुछ अलग हैं । मैंने पहले भी चुनाव देखे हैं , रिर्पोटिंग भी की है । प्रदेश में पहली बार शायद ऎसा मौका आया है ,जब पार्टियों के पास जनता के बीच जाने के लिए कोई मुद्दा नहीं । प्रजातंत्र में इससे बुरा दौर और क्या हो सकता है ? मुद्दों का अकाल यानी लोकतंत्र के लिए संकट का काल । जनता रोज़मर्रा की दिक्कतों से बेज़ार है लेकिन नेता बेखबर । मुद्दाविहीन राजनीति नेताओं क्के लिए फ़ायदे का सौदा हो सकती है ,लेकिन लोकतंत्र के हित में ये संकेत शुभ नहीं ।

झंडे ,बैनर ,पोस्टर सज गये हैं । सडकों पर वाहन रैलियों और नारों का शोर है । मगर पिछले पांच सालों के कामकाज का लेखा जोखा मांगने की ना तो किसी को सुध है और ना ही हिसाब देने वालों को कोई परवाह । राजनीतिक दीवालिएपन का आलम ये है कि कांग्रेस और बीजेपी अब तक चुनावी घोषणा पत्र भी जनता के सामने नहीं रख सके हैं ।

मुझे लगता है कि प्रदेश की अवाम भी भ्रम की स्थिति में है । काग्रेसी उम्मीदवारों से किसी तरह की उम्मीद करना बेमानी है और बीजेपी की ओर से दागी मंत्रियों की लंबी फ़ेहरिस्त दोबारा चुनावी दंगल में भेजी गई है । टिकटों की खरीद फ़रोख्त की खबरें ज़ोरों पर रहीं । हर कोई विधायक पद का प्रबल दावेदार है । कोई धन के बूते , कोई धर्म के नाम पर । अब तो राजनीति कइयों के लिए खानदानी पेशा बन गया है । जातिगत गणित भी खूब काम कर रहा है । हमें चुनना है खराब में से कम खराब । यानी इधर नागनाथ , तो उधर सांपनाथ ।

मेरा नज़र में इस चुनाव में मुद्दों के साथ - साथ विकल्प का भी अकाल है ।, छोटे दलों के प्रत्याशी भी कुछ उम्मीद नहीं जगाते । टिकट ना मिलने से नाराज़ कई नेताओं ने बागी तेवर अपनाकर इन द्लों का रुख कर लिया है । ऎसे में प्रदेश के विकास की बात कौन करे ? राजनीति में धन बल , बाहुबल और जात -पांत के समीकरणों का तोड ढूंढने के की शुरुआत कब होगी और कैसे ? यह बुनियादी सवाल हर पांच साल बाद आ खडा होता है ...... जवाब की तलाश में....... ?

मुंह खुला है उधर खज़ाने का , मुड रहा है वरक ज़माने का
और इधर कहत दाने - दाने का , कस्द [निश्चय] फ़िर भी पहाड ढहाने का ।

बुधवार, 5 नवंबर 2008

भोपाल की मुस्लिम औरतें और तलाक

लगातार चार पीढ़ियों तक बेगमों की हुकूमत देख चुके भोपाल में मुसलमान महिलाओं के मिज़ाज बदल रहे हैं और इसका असर यह है कि इस समाज में अब मर्दों के मुकाबले औरतें आगे बढ़कर अपने शौहर से तलाक़ ले रही हैं आंकड़ों के मुताबिक़ वर्ष २००४ में तलाक़ के जितने मामले दर्ज हुए उनमें से तीन चौथाई यानी ७५ प्रतिशत से ज़्यादा औरतों की ओर से लिए गए तलाक़ थे ।

भोपाल और आसपास के इलाकों में मुस्लिम समुदाय में तलाक के बढते मामलों ने समाज के रहनुमाओं को भी चिंता में डाल रखा है । २००६ -२००७ में ४९८८ निकाह रजिस्टर्ड हुए और इसी साल ३२० तलाक हुए । इसी तरह साल २००७ - ८ में ५४१२निकाह पढे गये और शादी से बाहर आने वालों की तादाद रही - ३३२ । इस साल अक्टूबर आते तक २५३ जोडों ने अपनी राह जुदा कर लेने का फ़ैसला कर लिया , जबकि इस दौरान निकाह हुए ४५२५ । तलाक के ये आंकडॆ किसी भी लिहाज़ से काफ़ी चौंकाने वाले हैं ।

इस्लाम में इजाज़त दी गई चीज़ों में तलाक़ सबसे ज़्यादा नापसंद बताया गया है । इसके बावजूद तलाक का सिलसिला कहीं थमता दिखाई नहीं देता । लगता है लंबे समय से एकतरफा तलाक़ की तकलीफ सह रही महिलाएँ अब आज़िज़ आ चुकी हैं । भोपाल के कज़ीयात में मौजूद रिकॉर्ड पर नज़र डालें तो लगता है औरतें अब मर्दों के जुल्म सहने के लिए तैयार नहीं । आँकड़ों के मुताबिक़ २००४ में हुए २४१ तलाक़ में से १८५ में महिलाओं ने अपनी मर्ज़ी से वैवाहिक रिश्ते को ख़त्म किया । यानी ७७ फ़ीसदी तलाक़ महिलाओं ने लिए । समाज में आया ये बदलाव मज़हबी गुरू, महिलाओं और मनोवैज्ञानिकों को भी हैरान करने वाला है । मुसलमान महिलाओं का बदलता स्वरूप इन सबकी निगाह में किसी भी तरह से अच्छा नहीं है ।

ज़्यादातर बुज़ुर्गों का मानना है कि परिवार टूटने का सबसे ज़्यादा खमियाज़ा बच्चे उठाते हैं । परिवारों के बिखराव को देखने का हर शख़्स का अपना नज़रिया है । किसी की निगाह में इसके लिए नैतिक मूल्यों में आई गिरावट ज़िम्मेदार है , तो कोई इसके पीछे महिलाओं की आर्थिक रुप से खुद मुख्तियारी देख रहा है । महिलाओँ के हक़ की लडाई लड़ने वाले संगठन भी महिलाओं में तलाक़ लेने की प्रव्रत्ति पर नाखुशी ज़ाहिर करते हैं । मुस्लिम बुद्धिजीवियों का कहना है कि इस्लाम तलाक़ को मान्यता और इजाज़त देता है. मगर अभी तक उसे एक हथियार के तौर पर ही आदमी अपनी ताकत दिखाने के लिए इस्तेमाल करता रहा है ।

कुछ लोग इसे सामाजिक मूल्यों में आ रहे बदलाव और भोपाल में १२० साल तक औरतों की हुकूमत से जोड कर भी देखते हैं । भोपाल में नवाब शाहजहाँ बेगम, सिकंदरजहाँ बेगम और सुल्तानजहाँ बेगम ने समाज में भारी बदलाव किया और औरत को वो मुकाम दिया जो मुल्क में दूसरी जगह उन्हें हासिल नहीं था ।

सामाजिक और आर्थिक असमानता भी बहुत सी औरतों को अपने शौहर से अलग होने के लिए मजबूर कर रही है । कई मामलों में आर्थिक मज़बूती औरतों को दमघोटू रिश्ते को ख़त्म करने का हौसला दे रही है । आर्थिक मज़बूती और आत्मनिर्भरता का असर सिर्फ़ भोपाल में ही इस तरह दिखाई दे रहा है या फिर दूसरी जगह भी इसका असर वैसा ही है , इसका पता लगाना बेहद ज़रुरी है । तलाक के मामले में पहल मर्द करे या फ़िर औरत , टूटता हर हाल में परिवार ही है , जो ना उस घर सदस्यों के लिए अच्छा है और ना ही पूरे समाज के लिए ...... ।

झुक गयी होगी जवां - साल उमंगों की ज़बीं
मिट गयी होगी ललक , डूब गया होगा यकीं
छा गया होगा धुआं , घूम गयी होगी ज़मीं
अपने पहले ही घरौंदे को जो ढहाया होगा ।

मंगलवार, 4 नवंबर 2008

सियासी दांव पेंचों में गुम अवाम की आवाज़

साध्वी प्रज्ञा सिंह की गिरफ़्तारी को लेकर उठ रहे सवालों की फ़ेहरिस्त हर गुज़रते दिन के साथ लंबी होती जा रही है । आज कैलाश सोलंकी ने इंदौर में मीडिया के सामने आकर बयान दिया कि उसने कोर्ट में कोई हलफ़नामा नहीं दिया है । उसने मामले के मोस्ट वांटेड आरोपी रामजी को जानने की बात त्तो मानी लेकिन साध्वी से जान पहचान की बात को सिरे से नकार दिया । कैलाश के मुताबिक प्रज्ञा सिंह और रामजी के बीच फ़ोन पर हुई बातचीत के बारे में उससे कुछ पूछा ही नहीं गया और ना ही वो इस बारे में कुछ जानता है ।

दूसरी तरफ़ मालेगांव धमाकों को लेकर एटीएस द्वारा हिरासत में लिए गए शिवनारायण और फ़रार रामजी के पिता गोपाल सिंह ने इंदैर में पत्रकारों के सामने अपने गायब होने की खबरों की हकीकत बयान कर एटीएस के दावों की हवा निकाल दी । उनका दावा है कि उनका परिवार अब भी शाजापुर ज़िले के गोपीपुर गांव में ही रहता है । ऎसे में पूरे मामले पर सवाल उठना लाज़मी है । पुलिस के आला अफ़सरान भी मानते हैं कि साध्वी प्रज्ञा सिंह के खिलाफ़ फ़िलहाल कोई ठोस सबूत नहीं । यही वजह है कि आरोप को पुख्ता बनाने के लिए नार्को टेस्ट का सहारा लेना पड रहा है ।

इस पूरे वाकये को कई दिन से टीवी चैनलों पर देखने के बाद एक बात जो मुझे लगातार परेशान कर रही है , वो है साध्वी के चेहरे का नकाब । हालांकि मेरे इस सवाल से की लोग इत्तेफ़ाक नहीं रखते हों । मगर मुझे लगता है कि प्रज्ञा सिंह बेकसूर हैं , तो चेहरा छुपाने की ज़रुरत उन्हें तो कतई नहीं । और अगर उन्होंने अपनी राष्ट्रवादी विचारधारा के कारण इस घटना को वाकई अंजाम दिया है , तब भी यह मुंह छिपाने की नहीं गर्वोन्नत होने का मौका है । उनका इस तरह लोगों के बीच चेहरा ढंक कर आना क्या संकेत देता है , फ़िलहाल कह पाना बडा ही मुश्किल है ।

बहरहाल सवाल घूम फ़िर कर वही ? कहीं आतंकवाद का मुद्दा खत्म करने की रणनीति तो नहीं ? लेकिन क्या इसके नतीजों पर भी गौर किया गया है ? हिन्दुओं और मुसलमानों में खाई बढा देगी ये साज़िश । और अगर यह सच नहीं तो क्या सचमुच हिन्दुओं के सब्र का पैमाना छलकने लगा है ? क्या सीमा की हिफ़ाज़त के लिए कुर्बानी की कसम से बंधे जांबाज़ फ़ौजी सचमुच आतंकवादियों के प्रति सरकार के नरम रवैए से हताश हैं ? सेना से रिटायर अधिकारी क्या किसी नौसीखिए कथित राष्ट्र्वादी का साथ दे सकते हैं ? अगर पुलिस की थ्योरी में वाकई दम है तो ये साफ़ संकेत है देश के हुक्मरानों के लिए कि जनता का शासकों पर भ्ररोसा दिन ब दिन कम होता जा रहा है । सियासी दांव - पेंचों में अवाम की आवाज़ और दर्द कहीं पीछे छूटता जा रहा है

लेकिन अकेले सरकार को ही कसूरवार ठहराना काफ़ी नहीं । दरअसल आतंकवाद को मज़हबी चश्मे से देखना भी आतंकवाद से कम खतरनाक नहीं है । बल्कि एक तरह से दहशतगर्दी को खाद - पानी देने जैसा है । आतंकवाद संवेदनशील मुद्दा है । ये देश की इस दौर की सबसे गंभीर समस्याओं में से एक है । इस संजीदा मसले को फ़िरकापरस्ती का रंग देकर हल्का करना देश पर भारी पड सकता है । मज़हबी नज़रिए से जहां ये मुद्दा पेचीदा होता जा रहा है , वहीं कांग्रेस और समाजवादी पार्टी जैसे मध्यमार्गी दलों की तुष्टिकरण की नीति के चलते बेहद खतरनाक मोड पर आ पहुंचा है । इसे कानून व्यवस्था, शांति और सुरक्षा की समस्या मानकर ईमानदारी से हल करने की कोशिश होना चाहिए , क्योंकि आंतरिक सुरक्षा का मसला देश के विकास से सीधे तौर पर जुडा है ।

मेरे कांधे पे बैठा कोई
पढता रहता है इंजीलो-कुरानो-वेद
मक्खियां कान में भनभनाती हैं
ज़ख्मी हैं कान
अपनी आवाज़ कैसे सुनूं ।

सोमवार, 3 नवंबर 2008

.............. झील की मौत पर गिद्ध भोज की तैयारी !

ताल - तलैयों के शहर के तौर पर मशहूर भोपाल की पहचान खतरे में है । यहां की बडी झील शायद पूरे भारत की एकमात्र मानव निर्मित विशालकाय जल संरचना होगी । मुझे याद है वो दिन जब हम गर्मी की छुट्टियां बिताने इंदौर जाया करते थे और अप्रैल - मई की तपते दिनों में भी भोपाल से ४० किलोमीटर दूर सीहोर से कुछ किलोमीटर पहले तक बडा तालाब हमें बिदाई देने आया करता था । हिलोरें लेता तालाब बालमन में अथाह समुद्र की छबि साकार कर देता ।

बूंद - बूंद पानी के लिए जद्दोजहद करते इंदौरियों के बीच " हमारा बडा तालाब " हमें अजीब सी ठसक और फ़्ख्र से भर देता । लेकिन हमारा वही गुमान अब अंतिम सांसे गिन रहा है । तालाब दम तोड रहा है । लेकिन झील की मौत पर सोगवार होने वाले लोग ढूंढे से नहीं मिल रहे । हां ,जगह - जगह चील गिद्ध मृतयुभोज की तैयारियों में मसरुफ़ हैं । लोगों ने पोस्टर बैनर झाड - पोंछकर तैयार कर लिए हैं । मंहगा पेट्रोल फ़ूंक कर सडकों पर गाडियां दौडाते हुए पानी बचाने की सीख दी जा रही है ।

इस बीच एक बडे समूह को भी पानी की कीमत का एहसास हो ही गया । सो ’ जल है ,तो कल है ’ के नारे के साथ शहर में जल सैनिक बनाने की मुहिम छेड दी गई है । जल सत्याग्रह की ये कोशिश कितनी ईमानदार है , इसका खुलासा तो वक्त ही करेगा । भोज वेटलैंड परियोजना के नाम पर विदेशी मदद के अरबों रुपए पानी में बह गये ,मगर बडी झील का पानी नहीं बचाया जा सका ।

बेशर्मी का आलम ये है कि सूखी झील पर फ़सलें लहलहाने लगीं , तब कहीं प्रशासन को होश आया । यूं तो बडा तालाब ३१ वर्ग किलोमीटर में फ़ैला था लेकिन इस साल बारिश की कमी के कारण अब सिर्फ़ १० वर्ग किलोमीटर दायरे में सिमट कर रह गया है । भू माफ़िया ने १५० एकड से ज़्यादा हिस्से में खेती शुरु कर दी । बहरहाल देर से ही सही प्रशासन को होश तो आया । फ़िलहाल ज़मीन का बेज़ा कब्ज़ा हटा दिया गया है । आगे भगवान मालिक ........।

झील की लाश पर मौज उडाने वाले ये भूल बैठे हैं कि पानी कारखानों में बनने वाला प्राडक्ट नहीं है । कुदरत की इस नायाब नियामत की नाकद्री मंहगी पडेगी हमें भी और आने वाली नस्लों को भी । लोग पैसा बचा रहे हैं और पानी बहा रहे हैं । नल की टोंटी खोलते ही आसानी से मिल जाने वाला पानी आने वाले वक्त में इस लापरवाही की क्या कीमत वसूलेगा । इसके महज़ एहसास से रुह कांप उठती है ।

राजधानी के पुराने इलाके में नवाबी दौर की करीब २५० बावडियां और कुएं बदहाली के शिकार हैं । किसी ज़माने में ये पारंपरिक जल स्त्रोत लोगों की प्यास बुझाते थे । साथ ही उनके रोज़मर्रा के कामों के लिए भी भरपूर पानी मुहैया कराते थे । हैरानी है कि भारी उपेक्षा के बावजूद १०० से ज़्यादा बावडियों का वजूद अब भी कायम है । हम सभी को समझना होगा कि जल है तो जीवन है या जल है तो कल है जैसे लोक लुभावन नारों के उदघोष से काम नहीं बनने वाला । पानी की मित्तव्ययिता का संस्कार पैदा करना होगा । एक बार फ़िर लौटना होगा अपनी परंपराओं की ओर जो हमें प्रकृति से लेना ही नहीं वापस लौटाना और संरक्षण की सीख भी देती हैं । पानी की अहमियत को समझाने के लिए ये दोहा है -

रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून ,
पानी गये ना उबरे मोती , मानस , चून ।

रविवार, 2 नवंबर 2008

लोक परंपराओं और वन संपदा के सौदागर

हमारे पौराणिक ग्रंथों में पाताललोक का ज़िक्र अक्सर आता है । पाताल कहते ही ज़ेहन में एक चित्र उभरता है , जो हमें धरती के नीचे सात पातालों की कल्पना में पहुंचा देते हैं । देश के ह्र्दय कहलाने वाले मध्य प्रदेश की धरती पर एक यथार्थ लोक है - पातालकोट । छिंदवाडा ज़िले के उत्तर में सतपुडा के पठार पर स्थित पातालकोट कुदरत की अदभुत रचना है । ८९ वर्ग किलोमीटर में फ़ैली पातालकोट की धरा को नज़दीक से निहारना अपने आप में कौतूहल से भरा अनूठा अनुभव है ।

यहां के किसी भी गांव तक पहुंचने के लिए १२०० से १५०० फ़ीट की गहराई तक उतरना पडता है । घाटियां इतनी नीचे चली गई हैं कि उनमें झांक कर देखना भी मुश्किल है । ऎसा लगता है यहां शिखरों और घाटियों में होड लगी है , कौन कितना गौरव के साथ ऊंचा जाता है और कौन कितना विनम्रता के साथ झुकता हुआ धरती के अंतिम छोर को छू सकता है । इस कोशिश के गवाह हैं तरह - तरह के पेड - पौधे , जो घाटियों के गर्भ में और शिखरों की फ़ुनगियों पर बिना किसी भेदभाव के फ़ैले हुए हैं । निर्मल झरने , झिरियों और सरिताओं ने पातालकोट को नया जीवन दिया है ।

राजाखोह , दूधी और गायनी नदियों के उदगम की गहरी खाइयों में सूरज की किरणें अलसाती हुईं दोपहर बारह बजे तक दस्तक देने पहुंचती हैं और किसी प्रेयसी की तरह जल्द से जल्द मुलाकात खत्म कर लौट जाने की फ़िराक में रहती हैं । शाम चार बजने तक अंधियारा पांव पसारने लगता है । पातालकोट में भारिया जनजाति के लोग सदियों से रहते हैं । बाहरी दुनिया से अनजान इन लोगों की ज़िन्दगी में देश - दुनिया की विकास की गौरव गाथा का भी कोई पहलू शामिल नज़र नहीं आता । यहां दो - ढाई हज़ार लोग अजूबे की ज़िंदगी जी रहे हैं ।

वन संपदा के धनी इस इलाके के विकास के लिए सरकार अब तक अरबों रुपए फ़ूंक चुकी है । भारिया जनजाति के विकास और उसकी संस्क्रति को सहेजने के लिए विशेष पैकेज बनाए गये लेकिन नताजा वही - ढाक के तीन पात । न तो भारिया अब तक समाज की मुख्यधारा में शामिल हो सके और न ही आदिवासियों का पारंपारिक औषधीय ग्यान बाहरी लोगों तक पहुंच सका है ।

यहां के लोग भुमका और गुनिया पर सबसे ज़्यादा विश्वास करते हैं । गुनिया जडी - बूटी का अच्छा जानकार होता है , जबकि भुमका मारक - तारक तंत्र - मंत्र में माहिर माना जाता है । भुमका नाडी देखकर बीमारी का निदान करते हैं । उनका कहना है कि हम बगैर पढे - लिखे लोग दिल पढना जानते हैं और वही पढकर रोग की जड का पता लगा लेते हैं । भुमका कहते हैं - " नाडी देखकर भगवान के नाम पर पानी छोड देते हैं । इससे बीमारी ठीक हो जाती है ।" उनके मुताबिक दिल की गहराइयों से बोले गये मंत्र असर करते हैं । दी गई जडी - बूटियां फ़ौरन फ़ायदा पहुंचाती हैं ।

पातालकोट में ऎसी जडी - बूटियां पाई जाती हैं , जो भारत में कहीं और मिलना नामुमकिन है । शायद इसीलिए कई निजी कंपनियों ने विदेशी कंपनियों से हाथ मिलाकर यहां डेरा डाल दिया है । इंटरनेट के ज़रिए यहां की दुर्लभ जडी - बूटियां विदेशों में बेची जा रही है । वन संपदा के बेतरह दोहन से सरकार अनजान बनी हुई है । इलाके में एकाएक व्यापारिक गतिविधियां बढ जाने से बाहरी लोगों की आवाजाही भी तेज़ी से बढी है । अनमोल जडी बूटियों को बाज़ार में बेचकर तिजोरी भर रहे व्यापारियों ने कुदरत के बेशकीमती खज़ाने में सेंध लगा दी है । कई जडी बूटियां विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गई हैं । लेकिन वन विभाग इससे बेखबर है ।

बाहरी लोगों का भारिया जनजाति के रहन - सहन पर भी खासा असर साफ़ दिखाई देने लगा है । ढोल और मांदल की थाप पर थिरकने वाले ये वनवासी अब पाश्चात्य संगीत पर झूम रहे हैं । नई पीढी लोकगीत और लोकधुनों को बिसरा चुकी है । फ़िल्मी गीतों की दीवानगी इस कदर बढी कि अब ढोल - नगाडॆ नौजवानों के लिए गुज़रे ज़माने की बात हो चले हैं ।

बाहरी चमक दमक का असर इस हद तक बढ गया है कि भारिया जनजाति की लोक संस्क्रति और परंपराओं के अस्तित्व पर ही खतरा मंडराने लगा है । भोले भाले आदिवासियों को सस्ते म्यूज़िक प्लेयर थमाकर व्यापारी अनमोल जडी - बूटियों पर हाथ साफ़ कर रहे हैं । अब तो बुज़ुर्ग भारिया भी मानने लगे हैं कि पातालकोट की पहचान बचाने के लिए दुर्लभ जडी - बूटियों के बेजा इस्तेमाल पर पाबंदी लगाना ज़रुरी है । वे आदिवासी परंपराओं के शहरीकरण को लेकर भी चिंतित हैं ।

दुआ है दुश्मनों को , जो सरे आम बुरा करते हैं
उन दोस्तों से तौबा ,जो दोस्ती में क्त्लेआम करते हैं ।