लगातार चार पीढ़ियों तक बेगमों की हुकूमत देख चुके भोपाल में मुसलमान महिलाओं के मिज़ाज बदल रहे हैं और इसका असर यह है कि इस समाज में अब मर्दों के मुकाबले औरतें आगे बढ़कर अपने शौहर से तलाक़ ले रही हैं आंकड़ों के मुताबिक़ वर्ष २००४ में तलाक़ के जितने मामले दर्ज हुए उनमें से तीन चौथाई यानी ७५ प्रतिशत से ज़्यादा औरतों की ओर से लिए गए तलाक़ थे ।
भोपाल और आसपास के इलाकों में मुस्लिम समुदाय में तलाक के बढते मामलों ने समाज के रहनुमाओं को भी चिंता में डाल रखा है । २००६ -२००७ में ४९८८ निकाह रजिस्टर्ड हुए और इसी साल ३२० तलाक हुए । इसी तरह साल २००७ - ८ में ५४१२निकाह पढे गये और शादी से बाहर आने वालों की तादाद रही - ३३२ । इस साल अक्टूबर आते तक २५३ जोडों ने अपनी राह जुदा कर लेने का फ़ैसला कर लिया , जबकि इस दौरान निकाह हुए ४५२५ । तलाक के ये आंकडॆ किसी भी लिहाज़ से काफ़ी चौंकाने वाले हैं ।
इस्लाम में इजाज़त दी गई चीज़ों में तलाक़ सबसे ज़्यादा नापसंद बताया गया है । इसके बावजूद तलाक का सिलसिला कहीं थमता दिखाई नहीं देता । लगता है लंबे समय से एकतरफा तलाक़ की तकलीफ सह रही महिलाएँ अब आज़िज़ आ चुकी हैं । भोपाल के कज़ीयात में मौजूद रिकॉर्ड पर नज़र डालें तो लगता है औरतें अब मर्दों के जुल्म सहने के लिए तैयार नहीं । आँकड़ों के मुताबिक़ २००४ में हुए २४१ तलाक़ में से १८५ में महिलाओं ने अपनी मर्ज़ी से वैवाहिक रिश्ते को ख़त्म किया । यानी ७७ फ़ीसदी तलाक़ महिलाओं ने लिए । समाज में आया ये बदलाव मज़हबी गुरू, महिलाओं और मनोवैज्ञानिकों को भी हैरान करने वाला है । मुसलमान महिलाओं का बदलता स्वरूप इन सबकी निगाह में किसी भी तरह से अच्छा नहीं है ।
ज़्यादातर बुज़ुर्गों का मानना है कि परिवार टूटने का सबसे ज़्यादा खमियाज़ा बच्चे उठाते हैं । परिवारों के बिखराव को देखने का हर शख़्स का अपना नज़रिया है । किसी की निगाह में इसके लिए नैतिक मूल्यों में आई गिरावट ज़िम्मेदार है , तो कोई इसके पीछे महिलाओं की आर्थिक रुप से खुद मुख्तियारी देख रहा है । महिलाओँ के हक़ की लडाई लड़ने वाले संगठन भी महिलाओं में तलाक़ लेने की प्रव्रत्ति पर नाखुशी ज़ाहिर करते हैं । मुस्लिम बुद्धिजीवियों का कहना है कि इस्लाम तलाक़ को मान्यता और इजाज़त देता है. मगर अभी तक उसे एक हथियार के तौर पर ही आदमी अपनी ताकत दिखाने के लिए इस्तेमाल करता रहा है ।
कुछ लोग इसे सामाजिक मूल्यों में आ रहे बदलाव और भोपाल में १२० साल तक औरतों की हुकूमत से जोड कर भी देखते हैं । भोपाल में नवाब शाहजहाँ बेगम, सिकंदरजहाँ बेगम और सुल्तानजहाँ बेगम ने समाज में भारी बदलाव किया और औरत को वो मुकाम दिया जो मुल्क में दूसरी जगह उन्हें हासिल नहीं था ।
सामाजिक और आर्थिक असमानता भी बहुत सी औरतों को अपने शौहर से अलग होने के लिए मजबूर कर रही है । कई मामलों में आर्थिक मज़बूती औरतों को दमघोटू रिश्ते को ख़त्म करने का हौसला दे रही है । आर्थिक मज़बूती और आत्मनिर्भरता का असर सिर्फ़ भोपाल में ही इस तरह दिखाई दे रहा है या फिर दूसरी जगह भी इसका असर वैसा ही है , इसका पता लगाना बेहद ज़रुरी है । तलाक के मामले में पहल मर्द करे या फ़िर औरत , टूटता हर हाल में परिवार ही है , जो ना उस घर सदस्यों के लिए अच्छा है और ना ही पूरे समाज के लिए ...... ।
झुक गयी होगी जवां - साल उमंगों की ज़बीं
मिट गयी होगी ललक , डूब गया होगा यकीं
छा गया होगा धुआं , घूम गयी होगी ज़मीं
अपने पहले ही घरौंदे को जो ढहाया होगा ।
5 टिप्पणियां:
जहाँ परस्पर प्रेम और आदर ख़त्म होगा वहां तलाक की बात उठेगी.
मेरे पास आने वाली हर दूसरी या तीसरी मुस्लिम मरीज अपने ससुराल वालों और पति से प्रताङित होती है...पर किससे कहें...क्यों कि पुरूषों की अति प्रधानता वाले समाज मैं कोइ सुनने को तैयार नहीं उनकी सिसकियां...हमारी धर्म निरपेक्ष सरकार भी नहीं ....क्या प्रत्येक नागरिक को समान अधिकार का दावा करने वाला हमारा संविधान सिर्फ एक ढकोसला मात्र नहीं
मैंने पहले भी आपका लिखा पढ़ा है। आप हमेशा ही बहुत तथ्यपरक पोस्ट लिखा करती हैं। ज़ाहिर है ब्लॉग पर कुछ लिखने से पहले अच्छी-खासी मेहनत भी करती हैं। इसके लिए साधुवाद। बहरहाल, मुस्लिम औरतों की दिलचस्पी अगर तलाक में बढ़ रही है, तो मोटे तौर पर इसके दो मायने हो सकते हैं। अव्वल तो अब मुस्लिम औरतें मर्दों का ज़ुल्म और सहने को तैयार नहीं हैं और दूसरा ये कि तलाक के रास्ते परिवारों के टूटने से सामाजिक मूल्यों का ह्वास भी हो रहा है।
accha lekh appka
pr talak shayad personnaly i feel
neither hindu or muslim
its some what not desirable
but happens in some circumstances
अच्छा लिखा है !
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