शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2008

मध्यप्रदेश के चुनावी दंगल में ’उमा फ़ेक्टर’ की दह्शत

उमा भारती ने चुनावी समर में हुंकार भर कर बीजेपी की नींद उडा दी है । साध्वी प्रज्ञा सिंह को भारतीय जन शक्ति पार्टी से चुनाव लडने का न्यौता देकर उन्होंने बीजेपी की जान सांसत में डाल दी है । उमा ने साध्वी के ज़रिए भारतीय जनता पार्टी पर निशाना साधा है और उसे उसी के हिन्दू कार्ड से मात देने की पूरी बिसात बिछा दी है । प्रज्ञा सिंह के मामले से कुछ दिन पहले तक पल्ला झाडती नज़र आ रही बीजेपी को मजबूरी में ही सही इस मसले पर सामने आना पडा है ।

उमा भारती के राजनीतिक भविष्य पर विराम की संभावनाएं तलाशते भाजपाई नेता दोबारा गद्दीनशीं होने का रास्ता सीधा - सपाट मान बैठे थे । मध्य प्रदेश कांग्रेस की आपसी सर फ़ुटौव्वल के कारण उनका ये खवाब हकीकत में बदलने की गुंजाइश भी साफ़ - साफ़ नज़र आ रही थी ,लेकिन हाशिए पर जा चुकी उमा ने प्रहलाद पटेल के साथ सुलह करके बीजेपी की राह में कांटे बिछा दिए हैं । बिखराव की राजनीति के सहारे आगे बढना नामुमकिन है , इस हकीकत से वाकिफ़ होने के बाद दोनों नेताओं ने समय रहते गिले - शिकवे भुलाकर ऎक साथ आने में ही भलाई समझी । दोनों का मकसद एक है और मंज़िल भी एक ही ।

भाजपा को कांग्रेस से कडी चुनौती तो मिलना तय है ,लेकिन चुनाव में उमा फ़ेक्टर को भी नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता । उमा भी बीजेपी को हर हाल में सत्ता से बाहर रखने की जुगत भिडाने में लगी हैं । छोटे - छोटे दल भी सत्तारुढ पार्टी का सिरदर्द बन गये हैं । इस मर्तबा प्रदेश के चुनावी जंग में प्रमुख दलों के अलावा छोटी पार्टियां भी निर्णायक भूमिका निबाहेंगी ।

मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने प्रदेश में अपने पैर मज़बूती से जमा लिए हैं । इसके अलावा राष्ट्रीय जनता दल , गोंडवाना गणतंत्र पार्टी , लोक जनशक्ति पार्टी और वामपंथी दलों ने भी अपने स्तर पर बीजेपी और कांग्रेस को घेरने की तैयारी कर ली है । मुखतलिफ़ राजनीतिक विचारधारा के बावजूद सीटों के तालमेल पर उमा की प्रांतीय दलों से पटरी बैठ सकती है । ऎसे में मायावती का साथ यदि उमा को मिल गया , तो प्रदेश में नए राजनीतिक समीकरण बनेंगे । सत्ता की आस लगाए बैठी कांग्रेस तथा बीजेपी को नाकों चने चबाना होंगे ।

लगता है उमा का चुनावी मोटो है - हम तो डूबेंगे सनम ,तुम को भी ले डूबेंगे .......।

गुरुवार, 30 अक्तूबर 2008

हिन्दू अतिवाद की सियासत में सेना बनी मोहरा

’ ये तेरा सच ,ये मेरा सच , किसी को देखना है गर
तो पहले आकर मांग ले मेरी नज़र ,तेरी नज़र । ’
देश में इन दिनों हालात कुछ ऎसे ही हैं । हर शख्स हरेक घटना को अपने नज़रिए से देखने का आदी हो चुका है । हिन्दू आतंकवाद के नए चेहरे के खुलासे के बाद से तथाकथित सेक्युलर दलों की बांछें खिलीं हुईं हैं । फ़िज़ा में चारों तरफ़ हिन्दू कट्टरवाद के दिल दहला देने सच के बेनकाब होने की किस्सागोई फ़ैली हुई है । समाचार चैनलों ने साध्वी प्रज्ञा सिंह और सेना के पूर्व अधिकारियों को जिस अंदाज़ में पेश किया है , लगता है मानो पूरा देश इनकी ही बदौलत बारुद के ढेर पर बैठा हो ।

राजनीतिक नफ़े नुकसान को ध्यान में रखकर गढी गई शाब्दिक परिभाषाओं का सच अब खुद- ब-खुद सामने आने लगा है । बहुसंख्यकों की बात करने वाले को शक की निगाह से देखा जाता है । अब अल्पसंख्यकों की चिंता में घडियाली आंसू बहाना धर्म निरपेक्श्ता और बहुसंख्यकों के बुनियादी मसलों की चर्चा सांप्रदायिकता है । हालात इतने बिगड चुके हैं कि ८० करोड लोगों के बारे में बोलना कट्टरवादी या सांप्रदायिक होने का लेबल लगाने का पर्याप्त आधार बन गया है ।

महाराष्ट्र एटीएस जांच के बहाने मीडिया ने प्रज्ञा सिंह को रातों रात हिन्दू अतिवादी बना दिया है । इसमें साज़िश की बू आती है । मालेगांव और मोडासा बम धमाकों का आरोप मढने के पीछे मकसद देश की बडी समस्याओं से लोगों का ध्यान हटाना है । ज्वलंत समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए रची गई इस राजनीतिक साज़िश के नतीजे खतरनाक होने वाले हैं । ओछी राजनीति ने देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्शा को भी दांव पर लगा दिया है ।

बटला हाउस एनकाउंटर पर मचे बवाल ने पुलिस का मनोबल तोडा है । ज़बानी युद्ध लडने वाले नेताओं ने जांबाज़ अफ़सर की कुर्बानी पर सवाल खडॆ कर सियासी फ़ायदा भले ही ले लिया हो ,लेकिन देश की आंतरिक हिफ़ाज़त में जुटे तबके को निराशा से भर दिया है । लगता है इन घर फ़ूंक तमाशबीनों की तबियत इससे भी नहीं भरी । अब ये सैन्य अधिकारियों को आतंकी साज़िश का हिस्सा बताने पर तुले हैं । सेना के पूर्व अधिकारियों के साथ सेवारत अफ़सरों को भी लपेटे में लिया जा रहा है । हिन्दू अतिवादियों का मददगार बता कर सेना के खिलाफ़ मीडिया पर दिन - दिन भर चलाई जा रही खबरों का असर कहां - कहां तक और कितना गंभीर होगा ,इस पर सोचा है किसी ने ?

देश की सीमाओं की हिफ़ाज़त करने वाले जांबाज़ों की ओर उठने वाली शक भारी निगाहें क्या गुल खिलाएंगी । इसकी कल्पना मात्र से मन चिंता और डर से भर जाता है । अब तो सेना में मज़हब आधारित सर्वे का शिगूफ़ा भी इसी साज़िश का हिस्सा नज़र आता है । जब केंद्र में कमज़ोर शासक होता है , सूबे के सियासतदान अपने फ़ौरी फ़ायदों के लिए सिर उठाने लगते हैं । मज़हब , प्रांत , भाषा की लडाइयां इसी का नतीजा हैं । देश में लंबे समय से वैसे ही आपसी संघर्ष के हालात हैं । ऎसे में इस नई चुनौती का सामना करने की कुव्वत क्या देश में बाकी है ?

हादिसा कितना कडा है कि सरे - मंज़िले - शौक
काफ़िला चंद गिरोहों में बंटा जाता है
एक पत्थर से तराशी थी जो तुमने दीवार
इक खतरनाक शिगाफ़ उसमें नज़र आता है

सोमवार, 27 अक्तूबर 2008

आह को चाहिए इक उम्र ......

मलिका - ए - गज़ल को गुज़रे ३४ साल बीत चुके हैं ,लेकिन उनकी दिलकश आवाज़ अब भी फ़िज़ा में गूंजती है । जब कभी भी बेगम अख्तर की पुरनम आवाज़ कानों में पड जाती है ,ऎसा मालूम होता है मानो वक्त ठहर गया हो । उनकी खनकती आवाज़ की कशिश अपनी ओर खींचती है ।

बेगम ने मीर , गालिब , दाग और मोमिन जैसे नामचीन शायरों के अशारों को खास बंदिशों में पेश कर कमाल कर दिया । अगर कहा जाए कि बेगम अख्तर ने गालिब को हर दिल अज़ीज़ बनाने का काम किया ,तो कुछ गलत नहीं होगा । गालिब की गज़ल - ’आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक , कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक ’ और ’कोई उम्मीद बर नहीं आती ,कोई सूरत नज़र नहीं आती ,मौत का एक दिन मुअय्यिन है नींद क्यों रात भर नहीं आती , को श्रोताओं ने खूब पसंद किया ।

उन्होंने नए दौर के शायरों के कलाम को भी बडी सादगी से , मगर बेहद अलग अंदाज़ में पेश किया । शकील बदायुंनी की गज़ल ’ ए मुहब्बत तेरे अंजाम पर रोना आया / जाने क्यों आज सरे शाम से रोना आया ’ तो आज तक हर दिल में जवां है । उन्होंने कैफ़ी आज़मी , जिगर मुरादाबादी , हसरत जयपुरी के कलाम को भी सुरों की शक्ल में बखूबी ढाला । सुदर्शन फ़ाकिर की गज़ल - हम तो समझे थे कि बरसात में बरसेगी शराब / आई बरसात तो बरसात ने दिल तोड दिया ’ अब तक लोगों की ज़बां पर है ।

गज़ल को लोकप्रिय बनाने और आम आदमी तक पहुंचाने में बेगम अख्तर का अहम किरदार रहाहै । हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के प्रति समर्पित होने की वजह से जब वो गज़ल गाती , तो वह शास्त्रीय रागों से सजी होती थी । एक ही गज़ल को कई मर्तबा वो अलग - अलग रागों में तैयार करती थीं । उनकी गायकी में लखनवी नज़ाकत और नफ़ासत का मुज़ाहिरा होता है । गज़ल के साथ उनकी गायी होली , खयाल , ठुमरी , दादरा भी खूब पसंद किए गये ।

पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान में हुए कंसर्ट काफ़ी मकबूल हुए । २६ अक्टूबर १९७४ को अहमदाबाद में स्टेज पर गाते हुए उन्हें दिल का दौरा पडा । वे उस वक्त - ’ऎ मुहब्बत तेरे अंजाम पर रोना आया ’ गज़ल गा रही थीं । इन लाइनों को गाने के दौरान ही वे गिर पडीं । चार दिन बाद ३० अक्टूबर को बेगम अख्तर फ़ानी दुनिया से रुखसत हो गईं । लेकिन उनकी आवाज़ का नशा अब भी लोगों को दीवाना बना देता है । उनके खनकती आवाज़ के मुरीद अब भी गुनगुनाते हैं - ज़रा धीरे से बोलो कोई सुन लेगा , ज़रा धीरे ,तुम धीरे ........।

शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2008

बिहार में मचे बवाल पर सुलगते सवाल


बिहार में पिछले तीन दिनों से चल रहे बवाल का मकसद समझ से बाहर है । इम्तेहान देने गये बिहारी युवकों की मुम्बई में पिटाई पर भी इतना हंगामा नहीं हुआ । यहां तक कि राज की गिरफ़्तारी और ज़मानत पर छूटने के स्क्रिप्टेड ड्रामे पर भी खामोशी का आलम रहा । फ़िर एकाएक ऎसा क्या गुज़्रर गया , जो बिहार में ट्रेनें जलाने , रेलगाडियां रद्द करने या मारपीट की नौबत आ गई । राज का गुस्सा अपने ही प्रदेश में अपने ही लोगों पर निकाल कर आखिर क्या साबित करने की कोशिश हो रही है ?

बिहार के युवाओं का ये गुस्सा आखिर किस पर है - राज ठाकरे , शिव सेना , लालू यादव या फ़िर अपने आप पर । राज ठाकरे के आग उगलते बयानों ने दफ़न हो चुके बुनियादी मुद्दों को सतह पर ला दिया है । मेरी नज़र में लंबे समय से बदहाली का जीवन गुज़ार रहे बिहार के युवाओं को राज ने एक मौका दिया है सूबे के रहनुमाओं से जवाब तलब करने का । बिहार में बेवजह हो रहे इस फ़साद के मकसद को समझना बेहद ज़रुरी है । कहीं ऎसा तो नहीं कि युवा जोश को सियासी फ़ायदे के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है ।

वैसे तो राजनीतिक समझ के मामले में बिहार का आम आदमी भी होशियार माना जाता है । हिन्दी अखबारों के दफ़्तरों में आज भी धुरंधर पत्रकारों की फ़ेहरिस्त में ज़्यादातर नाम बिहारी ही मिलेंगे । ऎसे में ये समझ पाना बडा ही मुश्किल है कि राज को गुंडा , आतंकवादी और देशद्रोही करार देने वाले लोग अपने प्रदेश के नेताओं से राज्य के हालात का लेखा जोखा क्यों नहीं मांगते ?

देश - दुनिया के राजनीतिक हालात , और तो और दफ़्तर की उठापटक में घंटॊं सिर खपाने वाले ये धुरंधर आखिर अपने राज्य के दिनोंदिन बदतर होते हालात पर क्यों खामोशी अख्तियार किए हैं । ट्रेनें रद्द करने का यकबयक लिया गया फ़ैसला भी हैरानी में डालने वाला है । राजस्थान के गुर्जर आंदोलन के दौरान भी तब तक रेल सेवा जारी रही , जब तक हालात हिंसक होकर बेकाबू नहीं हो गये । रोज़ी की जुगाड में अन्य राज्यों में बसे बिहारियों को ऎन दीपावली पर घर लौटने से रोककर आखिर कौन सी सियासती चाल चली जा रही है ।

अगर ये ट्रेनों के ज़रिए राजनीति चमकाने की बेहूदा कोशिश हो रही है , तो इसे पहचान कर तुरंत रोकने की ज़रुरत है ,क्योंकि आखिर में ये बिहार को ही नुकसान पहुंचाने वाला कदम साबित होगा । अगर ये बिहार की बदहाली के लिए ज़िम्मेदार नेताओं के खिलाफ़ फ़ूटा गुस्सा है , तो काबिले गौर है । बिहार के युवाओं को सियासतदानों से हिसाब मांगना ही होगा अपने भविष्य और अपने अतीत का भी ........।
हम वो राही हैं जो मंज़िल की खबर रखते हैं
पांव कांटों पे , शिगूफ़ो पे नज़र रखते हैं
कितनी रातों से निचोडा है उजाला हमने
रात की कब्र पे बुनियादे सहर रखते हैं

गुरुवार, 23 अक्तूबर 2008

इठलाती , बल खाती , गुनगुनाती .......


पूर्ब से पश्चिम की तरफ़ जाने वाली नर्मदा देश की एकमात्र ऎसी नदी है जिसकी परिक्रमा की जाती है । नर्मदा परिक्रमा के अनुष्ठान की परंपरा कब शुरु हुई ये कह पाना तो ज़रा मुश्किल होगा । लेकिन हर साल करीब पांच लाख से ज़्यादा श्रद्धालु नर्मदा की परिक्रमा पर निकलते है । आमतौर पर अमरकंटक से यात्री अपना सफ़र शुरु करते हैं और रेवा सागर संगम तक करीब १३३५ किलोमीटर का रास्ता तय कर पहले चरण को अंजाम तक पहुंचाते हैं । दूसरे चरण में उत्तर तट से अमरकंटक तक १८३६ किलोमीटर की यात्रा होती है ।
सरदार सरोवर , ओंकारेश्वर और रानी अवंतिबाई बांध बनने से परिक्रमा मार्ग का बडा हिस्सा डूब चुका है । बची खुची कसर प्रस्तावित महेश्वर बांध पूरी कर देगा । नर्मदा में आस्था रखने वालों के लिए राज्य सरकार ने बडे ज़ोर शोर से सर्वे कराया । परिक्रमा मार्ग को व्यवस्थित और सुविधाओं भरा बनाने के लिये नामचीन हस्तियों की कमेटी का एलान हुआ और भारी - भरकम कार्य योजना का खाका तैयार किया गया । मगर हमेशा की तरह नतीजा सिफ़र ।
नर्मदा के भक्त तो तमाम मुश्किलात के बावजूद अपनी मंज़िल तक पहुंच ही जाते हैं लेकिन राज्य सरकार के कामकाज के लिए बस यही कहा जा सकता है - नौ दिन चले अढाई कोस । दरअसल सरकार ने नर्मदा के तीरे जगह - जगह होटल , ढाबे और यात्री निवास बनाने के साथ पक्का परिक्र्मा मार्ग तैयार करने का प्रस्ताव बनाया है । यानी लोग तीर्थाटन के बहाने पर्यटन का लुत्फ़ भी ले सकेंगे । लेकिन परिक्रमा मार्ग तय करने में नौकरशाही का अडंगा श्रद्धालुओं की परेशानी का सबब बन गया है । सरकारी मशीनरी की कछुआ चाल के चलते लोगों को अपनी तीर्थयात्रा को सुगम बनाने के लिए लंबा इंतज़ार करना पड सकता है ।
नदियों से हमारे जीवन का आध्यात्मिक पहलू भी जुडा है । हालांकि बदलते वक्त में पाप - पुण्य की परिभाषा भी उलट गई है । ऎसे में ये कह पाना बडा ही मुश्किल है कि नर्मदा में डुबकी लगाते ही पाप नष्ट होते हैं या नहीं । हां ,इतना ज़रुर है कि सतत प्रवाहिणी रेवा की जलधारा जीवन की कठिनाइयों से बैचेन मन का ताप हर लेती है । रेवा तट पर प्राक्रतिक सौंदर्य से लबरेज़ कई जगहें हैं जहां सुकून मिलने के अलावा कुदरत के साथ एकाकार होने का एहसास होता है । पवित्र धार्मिक ग्रंथों में आता है कि गंगा में स्नान करने से पापों का नाश होता है , जबकि नर्मदा का दर्शन मात्र ही जन्म - मरण के चक्र से मुक्ति देता है । किंवदंती है कि गंगा भी साल में एक बार काली गाय के रुप में नर्मदा में स्नान करने आती है ।
क़रीब तेरह सौ किलोमीटर के सफ़र में नर्मदा मध्य प्रदेश , गुजरात और महाराष्ट्र के बडे हिस्से में प्रवाहित होती है । भडौंच के नज़दीक खंबात की खाडी में अपने अस्तित्व को अथाह सागर में समाहित करने वाली नर्मदा वन अंचलों से लेकर ग्रामीण इलाकों तक समान रुप से वंदनीय है । गायन और संगीत प्रधान सामवेद में नर्मदा की महिमा का बखान किया गया है । नर्मदा भी सागर तक की अपनी यात्रा गाते - गुनगुनाते हुए करती है । कहते हैं गंगा कनखल और सरस्वती कुरुख्शेत्र में सबसे अधिक पवित्र मानी जाती है । परंतु नर्मदा की महिमा का कोई पार नहीं । वो तो गांव - गांव और डगर - डगर , सब जगह हर रुप में पवित्र हैं ।
मैदानी इलाकों में शांत और गंभीर नज़र आने वाली ये पुण्य सलिला वनांचलों के बीच कहीं चट्टानों से टकराकर उन्हें शिकस्त देने के मद में इठलाती हुई आगे बढती है । अपनी मंज़िल तक पहुंचने की बेताबी में कुंलाचे भरती रेवा ऊंची चट्टानों की परवाह भी नहीं करती । यहीं देखा जा सकता है जल प्रपातों का अदभुत सौंदर्य । चट्टानों से टकराकर ,उछल - उछल कर ’ रव ’ यानी ’ध्वनि’ करती है , इसीलिए तो रेवा कहलायी ।
कभी नज़र से नज़र मिलाकर , कभी नज़र से नज़र बचाकर
डुबो रही थी , मिटा रही थी , पिला रही थी , छका रही थी ।

बुधवार, 22 अक्तूबर 2008

राज की सियासत और बिहार की ज़मीनी हकीकत

महाराष्ट्र सरकार के लचर रवैए ने पूरी मुंबई और कई बडे शहरों को आग में झोंक दिया । एक खत्म हो चुके नेता को इतना बडा हो जाने दिया कि अब हालात बेकाबू हो चले हैं । महाराष्ट्र में राज समर्थक और बिहार में राज विरोधियों का उत्पात लोगों के लिए परेशानी का सबब बन गया है । कहते हैं समझदार बागबान वही होता है जो बगीचे की खूबसूरती में खलल डालने वाले जंगली पौधों को शुरुआत में ही जड से उखाड फ़ेंके । लेकिन राज के मामले में तो बीज को खाद - पानी देकर दरख्त बनने का मौका दिया गया । पेड के तने को काटने की ज़हमत अब उठाई है ,जब उस पर फ़लों की आमद हो चुकी है ।
इस बीच बिहार के कई शहरों में राज के खिलाफ़ नफ़रत की आग ज़ोर पकडने लगी है । लेकिन बुनियादी सवाल अब भी वहीं का वहीं है । आखिर क्यों बिहार से दूसरे राज्यों को जाने वाली ट्रेनें खचाखच भरी रहती हैं ? गंगा किनारे की उपजाऊ ज़मीन जो पूरे देश का पेट भर सकती है , वहां लोगों को भूखे पेट सोना पडता है । बहुमूल्य खनिज संपदा से जिस इलाके को कुदरत ने नवाज़ा हो , वहां का आम आदमी अपनी पहचान और दो जून की रोटी की तलाश में भटकता है ।
नेपाल की सडकें हों या मुम्बई या फ़िर चैन्नई हर जगह मायूसी और बेचारगी से भरे कुछ चेहरे आपको दिख जाएंगे । उबले चनों की चाट या सब्ज़ी का ठेला चलाते ये लोग किसी बडॆ हसीन खवाब की तलाश में घर से दूर नहीं आते । वो क्या कारण हैं कि ये लोग इतने छोटे - छोटे कामों की तलाश में हज़ारों किलोमीटर का सफ़र तय करने को मजबूर हैं ।
मौर्य और नंद वंश के वैभवशाली इतिहास के गवाह बने इस इलाके के मौजूदा हालात के लिए यहां के नेता सीधे तौर पर ज़िम्मेदार हैं । धाकड नेताओं की लंबी फ़ेहरिस्त देने वाला बिहार इन्हीं नेताओं की बेरुखी की सज़ा भुगत रहा है । नैसर्गिक संपदा के अथाह भंडार का प्रदेश की जनता के हित में यदि सदुपयोग नहीं हो सका ,तो इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है ?
लालू यादव जब तक प्रदेश में राज करते रहे उन्हें कभी बिहारियों की सुध नहीं आई । रेल मंत्री बनते ही बिहार के बेरोज़गार युवाओं के उद्धार के इस जनसेवी कदम की हकीकत कुछ और ही है । छन - छनकर आने वाली खबरें बताती हैं कि रेलवे में अपना भविष्य तलाशने वाले युवाओं को खेत , ज़मीन और मकान के रुप में कीमत चुकाना पडी है । बिहार में नेताओं और अफ़सरों के गठजोड ने आम आदमी को पलायन के लिए मजबूर किया है । बिहार ने देश को कई प्रतिभावान पत्रकार दिए हैं लेकिन बेहद अफ़सोसनाक पहलू ये भी है कि यहां के हालात में रद्दो बदल पर ईमानदारी से अब तक किसी ने कलम नहीं चलाई ।
और अब कुछ तथ्य आंकडों की ज़ुबानी -
१ . २००१ की जनगणना के मुताबिक़ दिल्ली की आबादी १ करोड़ ३७ लाख के क़रीब , इसमें २७ लाख से अधिक बिहारी ।
२ २००१ में बिहार की आबादी ८ करोड़ २८ लाख ७८ हजार ।
३. मोटे तौर बिहार के साढ़े तीन फीसदी लोग अकेले दिल्ली में आ बसे ।
४. अनुमान के मुताबिक हर साल बिहार से दो से तीन लाख लोग बिहार से बाहर जाते हैं
५। फ़िलहाल कम से कम एक करोड़ बिहारी बिहार से बाहर हैं ।
जिस बात का खतरा , सोचो कि वो कल होगी
ज़रखेज़ ज़मीनों में बीमार फ़सल होगी
स्याही से इरादों की तस्वीर बनाते हो
गर खून से बनाओ , तो तस्वीर असल होगी ।

मंगलवार, 21 अक्तूबर 2008

अकेले राज ही तो कसूरवार नहीं ..........

आखिरकर राज की गिरफ़्तारी को लेकर चल रही कश्मकश का फ़िलहाल तो खात्मा हो गया लगता है । गैर मराठियों को महाराष्ट्र के रंग में रंगने की चाहत के साथ सियासी जंग में किस्मत आज़माने निकले राज ठाकरे की राजनीतिक हैसियत बढाने में मीडिया , कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का खास रोल है । अपने सियासी नफ़े नुकसान को मद्देनज़र रखकर इन द्लों ने बयानबाज़ी की । राज्य सरकार ने शुतुरमुर्गी रवैया अख्तियार कर मामले को हवा दी । शिव सेना सुप्रीमो बाल ठाकरे की राजनीतिक विरासत को हासिल करने के लिए शुरु हुई वर्चस्व की लडाई को दूसरे द्लों ने अपने - अपने फ़ायदे के लिए तूल दिया । हालांकि यह पहली बार नहीं है कि मुंबई में बिहार और उत्तरप्रदेश के लोगों को ऐसे हालात का सामना करना पडा हो । इससे पहले शिवसेना ऐसा कहती और बहुत कुछ करती रही है ।देश की वाणिज्यिक राजधानी की जीवनशैली पश्चिमी जीवनशैली के खुलेपन से ख़ासी प्रभावित है । इस शहर में ऐसा कौन सा प्रदेश है जहाँ के लोग न रह रहे हों और इसे अपना शहर न मानते हों । यह और बात है कि बिहार और उत्तरप्रदेश के लोगों की संख्या बाक़ी प्रदेश के लोगों से कुछ ज़्यादा है । इस बात से न शिवसेना इनकार कर सकती है और न महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना कि मुंबई की कई ऐसी मूलभूत सेवाएँ हैं जो इन्हीं बिहार और उत्तरप्रदेश से आए लोगों के भरोसे चलती हैं । निश्चित तौर पर बाल ठाकरे और राज ठाकरे इस आबादी को अपने वोट बैंक का हिस्सा नहीं मानते और उन्हें यह डर सताता रहता है कि कहीं इस आबादी की अपनी राजनीति मुंबई में इतनी हावी न हो जाए कि वे ही दरकिनार कर दिए जाएँ । आश्चर्य होता है कि उसी प्रदेश में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी जैसे दूसरे राजनीतिक दल भी इस तरह की राजनीति का वैसा विरोध नहीं करते जैसा कि राष्ट्रीय पार्टी को करना चाहिए । विरोध का स्वर उठाने वाले लालू यादव , मुलायम सिंह और नीतिश कुमार जैसे नेता हैं , जो खुद सवालों के घेरे में हैं । केवल दिखावे के लिए विरोध करने वाले इन नेताओं ने क्या कभी ईमानदारी से सोचा कि बिहार और उत्तरप्रदेश के ही लोगों को इतनी बड़ी संख्या में क्यों पलायन करके मुंबई जाना पड़ता है । क्यों उन्हें जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों की विषम परिस्थितियों में जीते हुए जान जोख़िम में डालकर रहना पड़ता है । क्या कभी इस तरह की राजनीति करने वालों ने विचार किया है कि जम्मू-कश्मीर और बस्तर के अबूझमाड़ जैसे सघन आदिवासी इलाके में देश के दूसरे हिस्सों से आने वाले नागरिकों के लिए नियम क़ायदे कुछ अलग हैं , लेकिन वे फिर भी वैसे नहीं हैं जिसका पाठ ये दोनों दल मिलकर पढ़ाना चाहते हैं । गनीमत है कि ब्रिटेन में अभी ठाकरे जैसे राजनीतिज्ञ नहीं हैं जो दीवाली और लोहड़ी मनाने वाले भारतीयों को वापस भारत भेजने की बात कहें या अमरीका में कोई फ़तवा जारी नहीं कर रहा है कि नियमित रुप से चर्च न जाने वाले भारतीय सॉफ़्टवेयर इंजीनियरों के वीज़ा रद्द कर दिए जाएँ । बिहार और उत्तर प्रदेश से लाखों लोग आजीविका की तलाश में पलायन कर गए हैं । भारत के नागरिकों को मिले मूलभूत अधिकारों का हिस्सा है कि वह देश के किसी भी हिस्से में जाए वहाँ रहें रोज़गार तलाश करे और ज़मीन जायदाद ख़रीदकर वहाँ बस जाएं । तो ये कौन लोग हैं जो आज़ादी के इकसठ साल और संविधान लागू होने के ५९ साल बाद नागरिकों से उनके मूलभूत अधिकार छीनने की धमकी दे रहे हैं । कौन दे रहा है उन्हें यह अधिकार ....? उन्हें क्या हक़ पहुँचता है कि वे महाराष्ट्र के भीतर अपना राष्ट्र स्थापित करने की कोशिश करें ? कभी श्रीनगर में गिलानी ग़ैर-कश्मीरियों को निकालने की बात करते हैं और कभी असम में हिंदीभाषी लोगों को मार दिया जाता है । अगर किसी को अपने गाँव अपने शहर और अपने राज्य में रोज़गार के पर्याप्त और अच्छे अवसर मिलेंगे तो कोई क्यों इस तरह अपमानित होने और अपनी जान से हाथ धोने जाएगा ।भारत के कुछ राज्यों में उठने वाले ये सवाल जटिल नहीं हैं और न उनके जवाब कठिन हैं लेकिन इस पूरे मसले को राजनीति और वोट बैंक से अलग होकर देखना होगा जिसकी गुंजाइश फिलहाल भारतीय राजनीति में थोड़ी कम नज़र आती है । चुनावों में बिहार का पलायन कोई मुद्दा ही नहीं बनता । किस्तों में विस्थापित हो रहे इन लोगों की न तो बिहार के चुनाव में कोई सीधी भागीदारी है और न ही वहां के नेताओं को उनकी फ़िक्र । मुम्बई के अलावा दिल्ली और कोलकाता के साथ ही पंजाब और हरियाणा में भी बड़ी संख्या में बिहारी रोज़ी रोटी की तलाश में जा बसे हैं । वे रिक्शा चलाने और खोमचे-ठेले पर सब्जियां बेचने से लेकर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दफ्तरों तक में छाए हुए हैं । आँकड़े गवाही दे रहे हैं कि दस से पंद्रह सालों में पलायन बढ़ा है। । वैसे १९७० के दशक में पंजाब और हरियाणा में हरित क्रांति के दौर में बिहार , उत्तर प्रदेश , उड़ीसा और मध्यप्रदेश से जमकर पलायन हुआ । इनमें भी उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग ज्यादा थे । वजह ये सस्ते खेतिहर मजदूर थे । बाद के दशकों में हसीन सपने लेकर दिल्ली और मुंबई जाने वाले युवकों की संख्या बढ़ गई । बेशक इनमें से कई ऊंचों पदों पर बैठे हैं । लेकिन ऊंचे सपने लेकर दिल्ली और मुंबई जैसे महानगर की राह पकड़ने वाले न जाने कितने लोग बिहारी और भइया बनकर रह गए । बरसों पहले बिहार से बाहर जा बसे लोग मानते हैं कि बिहार की बदहाली ने लोगों को बाहर निकलने के लिए मजबूर कर दिया । अनुमान के मुताबिक हर साल बिहार से दो से तीन लाख लोग रोजी रोटी की तलाश में बिहार से बाहर चले जाते हैं । आंकडों की ज़बान का यकीन करें तो अभी कम से कम एक करोड़ बिहारी बिहार से बाहर हैं । यह आंकड़े नहीं महत्वपूर्ण सूचनाएँ हैं कि बिहार देश का सबसे पिछड़ा राज्य है । वहां प्रति व्यक्ति आय सबसे कम है ४२।३ फ़ीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं । लेकिन क्या बिहार के राजनीतिक क्या इन आँकड़ों को सुन-पढ़ रहे हैं । राज ठाकरे को कोसने की बजाय उस मुद्दे पर गौर किया जाए , जो बिहार के लोगों को सतरंगी सपने पूरे करने के लिए नहीं महज़ दो वक्त की रोटी की जुगाड में अपना घरबार छोडकर बाहर निकलने पर मजबूर करता है ।
हैरत की बात है कि वहां जी रहे थे लोग
गो शहर में कहीं भी हवा का गुज़र न था ।

सोमवार, 20 अक्तूबर 2008

उन्हीं को जाम मिलता है जिन्हें पीना नहीं आता

राज ठाकरे ने एक बार फ़िर आग उगलाना शुरु कर दिया है । लेकिन उसके इस रवैए के लिए जितने राज ज़िम्मेदार हैं उससे कहीं ज़्यादा मीडिया की भूमिका है । राज के तमाशे को मीडिया हवा देता है । टीआर पी के जंजाल में उलझा मीडिया हर रोज़ चटपटी खबरों की तलाश में रहता है और राज मीडिया की इस कमज़ोरी का जमकर फ़ायदा लेना बखूबी जानता है । झटपटिया कामयाबी का नुस्खा कब तक काम आयेगा ये तो वक्त ही बताएगा , लेकिन इतना तय है कि नफ़रत की चिन्गारी लोगों के दिलों को छलनी ज़रुर कर देंगी ।
गौर से देखें तो राज जो बात कहना चाह रहे हैं , वो गलत नहीं है । अंदाज़े बयां पर सवाल उठाए जा सकते हैं ,लेकिन मुद्दे पर नहीं । किसी ने कहा था ” मैं तुम्हारी बात से बिल्कुल भी सहमत नहीं पर तुम्हें अपनी बात कहने का पूरा अधिकार हो । इसके लिए जी जान से लड़ूँगा ।” हम सब को अपनी बात कहने का अधिकार है । शर्त केवल इतनी है कि आप अपनी बातों से हिंसा को न भड़काइये । अलग सोच रखने और अपनी बात कहने का हक मानव अधिकारों का अभिन्न अंग है । इसी अधिकार का हिस्सा है कि आप अपनी बात किसी भी भाषा या माध्यम से कहिये । चाहे वह गीत हो या कला या फ़िर लेखन ।
सत्ता संघर्ष में जुटे नेता कभी धर्म - कभी जाति तो कभी रंग के आधार पर लोगों के बीच फ़ासले पैदा करते हैं । ऎसे में वे आम जनता को सोचने- समझने या बोलने का कोई मौका नहीं देना चाहते । अलगाव की आंच पर राजनीतिक रोटियां सेंकने वाले कट्टरपंथियों को लोगों को खुलकर बोलने का मौका देना रास नहीं आता । अभिव्यक्ति के इस अधिकार पर उनकी सहमति नहीं होती । तुमने यह कैसे लिखा या बनाया या सोचा वे पूछते हैं ? वे अपनी बात को तलवार और डंडे के साथ कहते हैं क्योंकि खुल कर बोलने वाले को चुप कराने के लिए सजा देना भी वे अपना जन्मजात हक समझते हैं । उनके हिसाब से उनका धर्म इसकी आज्ञा नहीं देता । मानव अधिकार उनकी नज़र में धर्म से नीचे है । यदि आप किसी मुद्दॆ पर असहमत हैं तो उस पर बहस कर सकते हैं । पर किसी का मुँह बंद करने की और उसे डराने धमकाने की कोशिश करना बेगुनाह लोगों को बेरहमी से मारना पीटना कारें और दुकानें जलाना तोड़ फोड़ करना मेरे विचार में केवल आत्मविश्वास की कमी से जन्मी गुँडागर्दी है । धर्म के नाम पर शुरु हुई राजनीति आज इतने निचले स्तर तक आ चुकी है कि अब भारत में प्रांत और भाषा की दीवारें खडी होने लगी हैं ।
सरकार के लचर रवैये ने एक खत्म होते नेता को न सिर्फ़ उडने के लिए खुला आसमान दिया बल्कि उसे ऊंची उडान भरने के लिए परवाज़ के पंख भी तोहफ़े में दे दिए । इस पूरे घटनाक्रम को देखने के बाद तो यही लगता है कि सत्तासीन कांग्रेस ने अपने राजनीतिक फ़ायदे के लिए मामले को इस हद तक बढ जाने दिया । राजनीतिक लाभ के लिए फ़ेंकी गई चिंगारी ने पूरे महाराष्ट्र में आग लगा दी है । वर्चस्व की इस लडाई में एक बार फ़िर पिस रहा है आम आदमी --------- ? मराठी मानुष के नारे के ज़रिए अलगाव की जो आग लगाई गई है यदि राजनीतिक दल इस पर इसी तरह रोटियां सेंकते रहे तो कहीं ऎसा न हो कि जिस तरह कश्मीरी पंडितों को अपनी सरज़मीं से दूर होकर अपने ही वतन में बेगाना हो जाने पर मज़बूर होना पडा उसी तरह पीढ़ियों से महाराष्ट्र में जा बसे हिंदी भाषियों को शिवाजी की इस धरती से बलपूर्वक बाहर खदेड दिया जाए । चिंता इस बात की है कि कहीं मूल प्रांतियों का ये शोशा महाराष्ट्र को एक और कश्मीर में तब्दील न कर दे .............?
निज़ामे मयकदा इस कदर बिगडा है साकी .
उन्हीं को जाम मिलता है , जिन्हें पीना नहीं आता ।

रविवार, 19 अक्तूबर 2008

शराबियों का डाक्टर

घर , परिवार , समाज , देश और दुनिया में भले ही अलहदा वजूहात से निराशा और मायूसी का माहौल छाया हो , लेकिन कुदरत की नाइंसाफ़ी झेल रहे लोगों का हौसला जीने का सबब देता है । हर वक्त अपनी नाकामियों के लिए हालात और किस्मत को कोसने वाले तो अक्सर मिल जाते हैं ,मगर अपने जज़्बे से पथरीले उजाड रेगिस्तान में चमन खिलाने का हुनर चंद ही लोग जानते हैं ।
इरादे नेक हों और दिल में कुछ कर गुज़रने की चाहत हो , तो मुश्किलों को रास्ता बदलना ही पडता है । दोनों आंखॊं से देखने वाले दुनिया में छाये अंधियारे पर बहस करते या फ़िर निराशा में डूबते - उतराते हर तरफ़ नज़र आ जाएंगे । मगर उत्तर प्रदेश में सोनभद्र ज़िले के नंदलाल ने रोशनी की नई इबारत लिख डाली है ।
जन्म से ही दुनिया के रंगों से महरुम नंदलाल नहीं जानता कि सूरज की रोशनी कैसी होती है । लेकिन उसने सबको बता दिया कि दूसरों की ज़िंदगी में रंग कैसे भरे जाते हैं , कैसे कभी ना खत्म होने वाले तमस में असंख्य सूर्य किरणों का उजास फ़ैलाया जा सकता है ।
राम के नाम पर देश को बांटने वाले तो चारों तरफ़ फ़ैले हैं लेकिन नंदलाल ने राम नाम के ज़रिए लोगों को नशामुक्ति की राह दिखाई है । वो आदिवासी इलाकों में राम चरितमानस की चौपाइयों और दोहों को आधार बना कर लोगों को नशाखोरी से निजात पाने का मशविरा देते हैं।
शराब के कारण परिवारों को तबाह होने से बचाने के लिए वो शराब के अड्डे पर जा कर लोगों को समझाते हैं । मयखाने में शराब के नशे में झूमने वालों को वे रामधुन पर झूमने के लिए मजबूर करना वे बखूबी जानते हैं । बात बनती नहीं देख , नंदलाल शराबखाने के बाहर गाहे बगाहे अखंड रामायण पाठ शुरु कर देते हैं ।
नए अंदाज़ में कहे तो उन्होंने अपने अंदाज़ में गांधीगिरी का सहारा लिया है । इस मुहिम की कामयाबी से प्रभावित लोगों ने तो अब उन्हें नाम दे दिया है - शराबियों का डाक्टर । नंदलाल मिसाल है इस बात की कि जंग हौसलों से जीती जाती है हथियारों से नहीं । उसके इसी जज़्बे को सलाम ।
सदाकत [सच्चाई] हो तो दिल सीनों से खिंचने लगते हैं वाइज़
हकीकत खुद को मनवा लेती है , मानी नहीं जाती ।

शनिवार, 18 अक्तूबर 2008

देश के हालात पर वक्त का फ़रमान

लगता है दुनिया भर में बुरी खबरों का दौर चल पडा है । अमेरिकी मंदी के ज़लज़ले ने विश्व के तमाम छोटे - बडे देशों को अपनी गिरफ़्त में ले लिया है । कल तक सुनहरे भविष्य के ख्वाब संजोने वाले युवाओं के सामने रोज़ी - रोटी का संकट खडा हो गया है । स्टाक मार्केट की धोबी पछाड ने अच्छे - अच्छे धुरंधरों की चूलें हिला कर रख दी हैं । इस अफ़रा - तफ़री के माहौल में फ़ंडामेंटल और टेक्निकल एक्सपर्टस की सुनने वाला कोई नहीं बचा । बाज़ार की दुर्दशा से बेज़ार लोगों को हाल में आया एक सर्वे बेहाल करने पर आमादा है ।
खबरों पर यकीन करें तो भारत भीषण खाद्यान्न संकट से जूझ रहा है । इसमें भी सबसे चिंताजनक हालात मध्य प्रदेश में बताए जा रहे हैं । अंतर्राष्ट्रीय खाद्यान्न नीति अनुसंधान संस्थान की ओर से पहली मर्तबा जारी रिपोर्ट में बारह राज्यों को अति गंभीर श्रेणी में शामिल किया है । संस्थान ने हाल के विश्व व्यापी खाद्यान्न सर्वे की ८८ विकासशील देशों की सूची में भारत को ६६ ववें पायदान पर रखा है ।
महानगरों की चकाचौंध के पीछे के भारत की स्याह हकीकत तरक्की और विकास के तमाम दावों की पोल खोलते नज़र आते हैं । विका़स के बावजूद भारत पच्चीस अफ़्रीकी देशों और बांगलादेश को छोड तमाम साउथ एशियाई देशों से नीचे है । शिशु म्रत्यु दर और कुपोषण के मामले में देश के हालात बांगलादेश से भी बदतर बताए गए हैं ।व्यक्तिगत तौर पर मेरे लिए मायूसी की बात ये है कि मध्य प्रदेश का हाल बेहाल है । लेकिन सरकार इस सबसे बेखबर बनी हुई है । समस्या का निदान तो तब हो ना जब ह्म उसे मानें या समझें । मगर की मद मस्ती का आलम ये है कि उसे सूबे में दूर - दूर तक कोई समस्या दिखाई ही नहीं देती । पूरे राज्य में सुख -शांति और अमन चैन की बयार बह रही है ,क्या हुआ जो चार -पांच सौ नौनिहालों की असमय ही मौत हो गई ।
कुदरत अपने साथ हुई नाइंसाफ़ी का बदला अपने ही अंदाज़ में ले रही है । कहीं बूंद -बूंद पानी को तरसते लोग , तो कहीं सैलाब से तबाही । खेती को घाटे का सौदा मान कर शहरों का रुख करने वाले ग्रामीणों की तादाद दिनोदिन रफ़्तार पकड रही है । आबादी के बढते दबाव ने शहरॊं का विस्तार किया है और इस फ़ैलाव की कीमत चुकाई है उपजाऊ ज़मीन ने । शहरों के आसपास की ज़मीनें अब अनाज नहीं कांक्रीट के जंगल पैदा कर रही हैं ।
खाद्यान्न और पानी के बढते संकट की भयावह्ता को समझ कर अभी से कोई ठोस कदम नहीं उठाए , तो ज़मीनें और भोग विलासिता के ज़रिए तिजोरियां भरने वालों को सोना - चांदी चबाकर ही पेट भरना होगा । वक्त तो अपना फ़रमान सुना चुका है ,और अब बारी हमारी ............
इक कहानी वक्त
लिखेगा नए मज़मून की
जिसकी सुर्खी को ज़रुरत है
तुम्हारे खून की
वक्त का फ़रमान
अपना रुख बदल सकता नहीं
मौत टल सकती है ,
अब फ़रमान टल सकता नहीं ।

शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2008

छलिया चांद और छलनी का राज़ .........!

शेयर बाज़ार की गिरावट का असर इतना तगडा है कि सरकार को हर रोज़ आकर सफ़ाई देना पड रही है । बाज़ार को सम्हालने के लिए तरह - तरह के टेके लगाने पड रहे हैं । इस बीच खबर आ रही है कि वित्त मंत्री ने भी अपनी नाकामी को मान लिया है । २३ हज़ार के करिश्माई आंकडे को देश की मज़बूत अर्थ व्यवस्था का प्रतीक बताने वाले अब बगलें झांक रहे हैं । मंदी की मार से चारों तरफ़ हाहाकार मच गया है , लेकिन सब एक दूसरे पर आरोप लगा कर खुद पाक - साफ़ बच निकलने का रास्ता तलाश रहे हैं ।
ना था कुछ तो खुदा था ,कुछ ना होता तो खुदा होता ।
डुबोया मुझको होने ने ,जो फ़िर ना होता तो क्या होता ।
लाचारगी के इस दौर में मेरा भी मन किया क्यों छलनी में दूध लेकर किस्मत को दोष देकर देखॆं , आखिर अपनी खामियों की तोहमत किसी और के सिर मढने का मज़ा ही कुछ और है । उदारीकरण के दौर में हर चीज़ रेडिमेड लाने की आदत कुछ ऎसी बन गई कि पीढियों से चले आ रहे रसोई के कुघ ज़रुरी उपकरण गैर ज़रुरी लगने लगे और ना जाने कब कबाडी के ठेले पर लद कर रवाना हो गये । खैर तय कर ही लिया था ,सो चल पडे नई छलनी की तलाश में । लेकिन ये क्या जहां कन्ज़्यूमर प्राडक्ट के शोरुम्स पर सन्नाटा पसरा था , वहीं छलनी बेचने वाले को बात करने तक की फ़ुर्सत नहीं थी । मुंहमांगे दामों पर छलनी की पूछ परख ने हमें हैरानी में डाल दिया । तभी ब्यूटी पार्लर से सज संवर कर आई एक सुहागन ने छलनी के भाव एकाएक आसमान छूने का राज़ फ़ाश किया ।बातचीत में पता चला कर्क चतुर्थी का चांद छलनी की ओट से देखने का खास महत्व है।
ज़ेहन ने सवाल उठाया कि छलनी की गवाही के बगैर पति परमेश्वर का पूरा प्यार में कोई संदेह रहता है । घर आकर कई ग्रंथ खंगालें , लोगों से पडताल की ,लेकिन इस बात का खुलासा अब तक नहीं हो सका । लोकोक्तियों में बेचारी चलनी को तरह - तरह से कोसा गया फ़िर ऎसा क्या गुज़रा की वो सुहागिनों की नज़दीकी हमजोली बन बैठी । लोकाचार में सूपे को जो दर्ज़ा हासिल है , वो बहत्तर छेदों वाली इस चलनी को कभी नहीं मिल सका । सूपे को अपनी राय रखने का हक मिला लेकिन चलनी ......., उसकी बात का कोई मोल नहीं ? कहावत है -सूपा बोले तो बोले चलनी भी बोले ,जिसमें खुद ही बहत्तर छेद ।
बहरहाल इस बात को लेकर मेरी उत्सुकता काफ़ी बढ गई है । आखिर वो कौन सी वजह रही होगी , जो रसोई का ये गुमनाम हो चुका उपकरण बज़रिए बाज़ार महिलाओं के बीच सर्वाधिक लोकप्रिय त्योहार का सबसे ज़रुरी तत्व ब न गया ।
क्या है छलिया चांद और छलनी का राज़ .........!

गुरुवार, 16 अक्तूबर 2008

करवा चौथ के बहाने -१


मेरी पिछली पोस्ट करवा चौथ के बहाने पर मिलीं प्रतिक्रियाओं के मद्देनज़र चाहे अनचाहे महिला मुद्दे पर बात करना ज़रुरी लगने लगा इस पोस्ट को पढने के बाद कई लोगों ने मुझे जमकर लानत भेजी साथ ही ये भी हिदायत दे डाली कि परंपराओं का मज़ाक बनाना अच्छा बात नहीं किसी की आस्थाओं को चोट पहुंचाना मेरा मकसद बिलकुल नहीं था वैसे भी मैंने आलेख में ऎसी कोई गैर वाजिब बात कही भी नहीं सिर्फ़ वही लिखा ,जो दिखा बल्कि समाज के अलग - अलग वर्गों में औरतों की हालिया स्थिति को एक साथ रखने की छोटी सी कोशिश की
मेरा अब भी यही मानना है कि परंपराओं को त्यागने की नहीं , समय के मुताबिक ज़रुरी तब्दीली की ज़रुरत है देश के जिन प्रांतों में करवा चौथ और हरतालिका तीज का सबसे ज़्यादा महिमा मंडन है ,उन्हीं इलाकों की कडवी हकीकत ये भी है कि वहां महिलाओं के प्रति नज़रिया अब भी मध्ययुगीन ही है कन्या भ्रूण हत्या , बलात्कार , दहेज हत्या , अपहरण , छेड्छाड , मानसिक और शारीरिक उत्पीडन , और भी कई अनाम तरह की हिंसा का सबसे अधिक प्रतिशत वाला इलाका साल में दो बार महिलाओं को देवी का दर्ज़ा देकर पूजता है , लेकिन साल के बाकी दिन महिलाओं के अस्तित्व को नकारता नज़र आता है।
मैं कभी महिला स्वातंत्र्य की हिमायती नहीं रही आज़ादी किससे और क्यों ? मेरी राय में जब भी हम आज़ादी की बात कहते हैं तो कहीं ना कहीं इस मान्यता की पुष्टि करते हैं कि महिलाओं का मालिक पुरुष है दरअसल किसी और को दोषी करार देने या आज़ादी के लिए गिडगिडाने की बजाय महिलाओं को अपने अस्तित्व को भीतर तक जानने की ज़रुरत है किसी शायर ने क्या खूब कहा है ---
मैं इक उम्र के बाद खुद को समझा हूं ,
रुकूं तो किनारा , बहूं तो दरिया हूं
कई महिला पत्रिकाओं और अखबारों में महिला पाठकों के लिए परोसे जा रहे मसौदों पर भी मुझे सख्त एतराज़ है कब तक औरतें बनाव - श्रंगार , बुनाई - कढाई या सास - ननद के किस्सों में उलझी रहेंगी महिलाओं का एक समूह स्त्री विमर्श के नाम पर महिलाओं के नैसर्गिक गुणों पर अजीबोगरीब चर्चा कर खुद को धन्य मान बैठा है वहीं दूसरा बडा तबका सदियों से चली रही परंपराओं के निर्वहन में ही अपने जीवन की सार्थकता तलाश रहा है महिलाओं की तरक्की का रास्ता इन दोनों भूलभुलैयाओं के बीच से होकर गुज़रता है उम्मीद है पति, पिता ,भाई और बेटों की सलामती और तरक्की के लिए भूख प्यास भूलकर कठिन व्रत करने वाली भारत की नारी अपने अस्तित्व को पहचानने के लिए जल्द ही कोई रास्ता ढूंढ निकालेगी

बुधवार, 15 अक्तूबर 2008

करवा चौथ के बहाने


कर्क चतुर्थी यानी करवा चौथ का व्रत को पूरे ग्लैमर के साथ मनाने के लिए हर तरफ़ ज़ोर -शोर से तैयारियां चल रही हैं । कहीं महिलाएं खुद को खूबसूरत दिखाने के लिए नए - नए नुस्खे आज़मा रही हैं , तो कहीं ब्यूटी पार्लर की ओर से मिलने वाले आकर्षक पैकेज का फ़ायदा लेकर रुप लावण्य को निखारा जा रहा है।
पति की लंबी उम्र की याचना हर रोज़ रुप बदलते चांद से करना भी बडा अजीब इत्तेफ़ाक है । कभी फ़िल्मों के ज़रिए प्रसिद्धि पाने वाले करवा चौथ की पापुलरिटी दिनोदिन तेज़ी से बढ रही है । एक तरफ़ तो देश में अलगाव और तलाक के मामलों का ग्राफ़ तेज़ी से ऊपर चढ रहा है । दूसरी ओर कर्क चतुर्थी पर अन्न जल त्याग कर चांद से पति परमेश्वर के दीर्घायु होने की कामना करने वाली पतिव्रता नारियों की तादाद भी कम नहीं । यह सामाजिक विरोधाभास कई सवालात को जन्म देता है।
वैसे इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि व्रत - त्योहारों का सामाजिक महत्व होता है । तीज - त्योहारों की गहमा गहमी जीवन की एकरसता को भंग कर उत्साह - उमंग का नया संचार करती है । बहरहाल समय के तेज़ी से घूमते चक्र के साथ परिस्थितियां भी बदली हैं । सामाजिक और घरेलू मोर्चे पर महिलाओं की भूमिका और दायित्वों में भी बदलाव आया है । रीति रिवाजों की डॊर से बंधी महिलाएं अजीब सी कशमकश में नज़र आती हैं । बकौल गालिब - इमां मुझे रोके है ,जो खींचे है मुझे कुफ़्र
काबा मेरे पीछे है , कलीसा मेरे आगे ।
दरअसल बदलते वक्त के साथ परंपराओं के स्वरुप में बदलाव लाना बेहद ज़रुरी है । आज के दौर में त्योहारों के मर्म को जानने समझने की बजाय हम परंपराओं के नाम पर पीढियों से चली आ रहे रीति रिवाजों को जस का तस निबाहे जा रहे हैं । संस्क्रति को ज़िन्दा रखने के लिए ज़रुरी है कि समय समय पर उसका पुनरावलोकन हो , गैर ज़रुरी मान्यताओं को छोडकर समय की मांग को समझ कर रद्दो बदल किए जाएं ।
इस बीच एक दिलचस्प खबर उन पति -पत्नियों के लिए जो जन्म -जन्म के साथ या फ़िर पुनर्जन्म की अवधारणा को सिरे से खारिज करते हैं । ऎसी महिलाएं जिन्हें घरेलू काम काज के लिए पतिनुमा नौकर की तलाश है ,उन्हें अब शादी के बंधन में बंधने की हरगिज़ ज़रुरत नहीं । अब आप काम काज के लिए घंटों के हिसाब से किराए पर पति ले सकते हैं । जी हैं ,अब पति की सेवाएं भी किराए पर उपलब्ध हैं । अर्जेंटीना की हसबैंड फ़ार सेल नाम की कंपनी साढे पंद्रह डालर प्रति घंटे के हिसाब से पति उपलब्ध करा रही है ।कंपनी का दावा है कि उसने अब तक दो हज़ार से ज़्यादा ग्राहक जोड लिए हैं और महिलाओं को ये सुविधा खूब पसंद आ रही है।

करवा चौथ पर खुद को वीआईपी ट्रीटमेंट का हकदार समझने वालों ,होशियार ..........

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2008

अजगर करे ना चाकरी ....!

अजगर करे ना चाकरी , पंछी करे ना काम ।
दास मलूका कह गये , सबके दाता राम ।
मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री की खातिरदारी का लुत्फ़ उठाने के बाद पंद्रह फ़ुटा अजगर निश्चित ही ये लाइनें गुनगुना रहा होगा । ८५ किलो वज़नी इन महाशय ने सिक्योरिटी के तमाम इंतज़ामात को धता बताते हुए श्यामला हिल्स स्थित मुख्यमंत्री निवास में घुसपैठ कर ली थी । और तो और वहां एक पालतू कुत्ते की दावत उडाने की भी कोशिश की । अजगर की भूख शांत करने के लिए उसे मुर्गों का ज़ायका लेने का मौका भी मिला ।
अखबार की सुर्खियों में रहे इस आराम तलब जीव ने चुनावी माहौल में कई दिग्गज नेताओं को बहुत कुछ संकेत दे दिए हैं । सीधे -सादे नज़र आने वाले शिवराज सिंह को जब सत्ता सौंपी गई थी , तब उन्हें रबर स्टैंप मानते हुए घाघ नेताओं ने भी खास तवज्जो नहीं दी थी । कमज़ोर माने जाने वाले इस नेता ने धीरे धीरे कई धुरंधरों को उनकी हैसियत बता दी है ।
राजधानी में काफ़ी चर्चा है इस वाकये की । लोगों का कहना है कि शिव के घर नाग आया , लेकिन अब तक के शिवराज के राजनीतिक सफ़र को देखते हुए इसे दो दोस्तों की सौजन्य भेंट का नाम दिया जाए तो गलत ना होगा । ये अलग बात है कि पूर्व निर्धारित नहीं होने के कारण अजगर महाशय मुख्यमंत्री से मुलाकात नहीं कर पाए ।
वैसे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री निवास में इससे पहले भी जंगल के कई नुमाइंदे अलग -अलग काल में मुख्यमंत्रियों से मेल मुलाकात का ख्वाब संजोये हुए ज़बरिया प्रवेश करते रहे हैं । मोतीलाल वोरा के शासनकाल में मगरमच्छ का आना चर्चा का मुद्दा बना ,तो एक तेंदुए ने दिग्विजय सिंह से मुलाकात की हसरत पाली । देखना दिलचस्प होगा कि अजगर नामा आने वाले चुनावों में क्या रंग दिखाएगा ।

रविवार, 12 अक्तूबर 2008

बाज़ार की गिरावट - निवेशकों की फ़जीहत

पिछले कुछ महीनों से शेयर बाज़ार की रोलर कोस्टर राइड ने सब के होश उडा दिए हैं । खबरिया चैनलों को वक्त गुज़ारने का अच्छा बहाना मिल गया है । हर नए दिन के साथ बाज़ार गिरावट के नए रिकार्ड बनाता है और अगले ही दिन ये , धूल चाटता नज़र आता है । लेकिन निवेशकों की तबाही का मंज़र खबरची चैनलों के लिए किसी लाटरी से कम नहीं होता । १० अक्टूबर का दिन एक मर्तबा फ़िर ब्लैक फ़्राइडे के तौर पर दर्ज हो गया । गिरावट और घबराहट के सैलाब में आंकडों के सभी बांध ढह गये वहीं एक एंकर लुट पिट चुके लोगों से सवाल कर रहा था कि आप कैसा महसूस कर रहे हैं ....? दुनिया भर के शेयर दलालों का दुलारा बुल एक झटके में सबसे बडा विलेन बन गया है । बाज़ार को उछाल मारता देखकर बुल को पूजने वालों में मुम्बई स्टाक एक्सचेंज के बाहर खडे सांड को जी भर कर कोसने वालों की भी अब कमी नहीं । ।
शेयर बाज़ार पर अर्थशास्त्रियों की राय शुमारी तो न जाने कब से खत्म हो चुकी है । लेकिन अब तो लगता है मार्केट एक्सपर्टस के दिन भी लद गए । लोगों को अंधविश्वास की गर्त में धकेलने वाले खबरिया चैनल ज्योतिषियों ओर वास्तुशास्त्रियों से मश्विरा करते नज़र आते हैं कि आने वाले दिनों में बाज़ार का रुख क्या रहेगा ? क्या यह आतंकवाद का एक नया चेहरा है ...? क्या आपको ऎसा नहीं लगता कि अनियंत्रित रफ़्तार से भाग रहे बाज़ार के ज़रिए जल्द से जल्द पैसा कमा कर अमीर बन जाने का ख्वाब दिखाकर करोडों लोगों को जीतेजी मारने की साज़िश रची जा रही है । बम विस्फ़ोट में तो कुछ ही लोग मारे जाते हैं लेकिन आतंकवाद क यह हथियार दोहरी मार कर सकता है देश पर। सेंसेक्स को अर्थव्यवस्था का बैरोमीटर समझने वाले ये नेता क्या इस खतरे से अंजान है ......?
हाल के दिनों में देश में ऎसे कई मामले सामने आए हैं ,जहां स्टाक मार्केट में हाथ जला चुके लोगों ने परिवार के साथ खुदकुशी का रास्ता अखतियार कर लिया । कल ही एक चैनल पर इसी मुद्दे पर मनोचिकित्सक की राय ली जा रही थी । इसी प्रोग्राम के दौरान ये बात भी निकल कर आई कि बाज़ार की गिरावट ने कई जानें ही नहीं लीं ,बल्कि हज़ारों परिवारों को जीतेजी मार डाला है । गाढी कमाई पल भर में गवां बैठे कई लोग आने वाले कल की चिंता में सीज़ोफ़्रेनीया, डिप्रेशन आदि मनोरोगों के शिकार बन रहे हैं ।
अमेरिका की हिचकोले खाती इकानामी दुनिया भर के बाज़ारों के लिए परेशानी का सबब बनी हुई है । कल तक सेंसेक्स को परवाज़ के पंख लगाकर आसमान की बुलंदियों तक पहुंचाने वाले अब सब कुछ बेच कर बाज़ार से बाहर आने की सलाह देते नज़र आते हैं । लेकिन एक सवाल जो मेरे ज़ेहन में बार बार आता है कि कंपनियों का बाज़ार मूल्य आखिर किस आधार पर तय किया गया ..? साधारण परिस्थिति में इस तरह की बातें ठगी की श्रेणी में मानी जाती हैं । सेबी और छोटे निवेशकों के हितों के लिए काम करने वाली संस्थाएं इस मुद्दे पर खामोश क्यों रह्ती हैं ? किसी भी कंपनी के मूल्यांकन का आधार आखिर क्या है ? निवेशकों की मेहनत की कमाई क्या इसी तरह कुछ शातिर दिमाग लोग सरे आम लूटते रहेंगे । आफ़र डाक्यूमेंट में आसानी से ना पडे जा सकने वाले बेहद बारीक शब्दों में कुछ जरुरी बातों को छाप कर कानून के शिकंजे से बच निकलने वाले इन धनपतियों पर आखिर किस तरह लगाम कसी जा सकेगी ।
कब नज़र में आएगी , बेदाग सब्ज़े बहार
खून के धब्बे धुलेंगे ,कितनी बरसातों के बाद ।

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008

चुनावी मौसम में तांत्रिकों की पौ बारह

चुनावी साल में तांत्रिकों की पूछ - परख एकाएक बढ गई है । नवरात्रि में इस मर्तबा मध्य प्रदेश के कई नामी गिरामी तांत्रिकों से लेकर छोटे -मोटे गुनिया -ओझा तक सभी ने खूब चांदी काटी । प्रदेश में नवम्बर -दिसम्बर के दौरान होने वाले चुनावों के मद्देनज़र मतदाताओं को रिझाने से पहले नेता तांत्रिक क्रियाओं के ज़रिए चाक चौबंद हो जाना चाहते हैं । कोई शव साधना कर विरोधी को पटखनी देने की जुगत लगा रहा है ,तो कुछ नेता मां बगुलामुखी की आराधना में लीन होकर अपनी कुर्सी बचाना चाहते हैं ।

मतदाताओं के दिमाग फ़ेरने का ठेका तंत्र साधकों को सौंपकर नेता निश्चिंत हो गये हैं । लगता है सारा देश चंद ओझा मिलकर चला लेंगे । केन्द्र की सरकार बचाने से लेकर सरकार बनाने और सत्ता सुख हासिल करने के लिए तंत्र का इस्तेमाल इतने बडे पैमाने पर करने के बारे में पहले कभी पढा - सुना नहीं गया । उमा भारती जैसी धुरंधर नेता को कुछ वक्त पहले एक न्यूज़ चैनल पर कहते सुना कि उन्हें रास्ते से हटाने के लिए तंत्र की मदद ली जा रही है । हाल ही में जेल से चुनाव जीत कर पार्टी को बगावती तेवर दिखाने वाले एक नवोदित नेता की सूबे का मुखिया बनने की ख्वाहिश ने ऎसा ज़ोर मारा कि उन्हें भी कम समय में ज़्यादा पाने की चाहत ने इंस्टेंट मैगी नूडल फ़ार्मूला यानी तंत्र साधना की शरण में जाने के लिए मजबूर कर ही दिया ।

हम तो डूबेंगे सनम तुम को भी ले डूबेंगे की तर्ज़ पर राजनीतिक अखाडे के कई पहलवान अपने विरोधियों के तंबू उखाड फ़ेंकने पर आमादा हैं । कई महानुभाव तो ऎसे हैं जो खुद की जीत से ज़्यादा प्रतिद्वंद्वी की हार के लिए महाकाल और पीताम्बरा शक्तिपीठों में अपनी अर्ज़ी लगा चुके हैं । हालात यही रहे तो वो दिन भी दूर नहीं जब पर्यटन के नज़रिए से पिछडे माने जाने वाले इस प्रदेश को तंत्र पर्यटन केलिए देश विदेश में पहचाना जाए ।

महाकाल की नगरी उज्जैन ,दतिया का पीताम्बरा शक्तिपीठ ,नलखॆडा का द्वापर कालीन बगुलामुखी मंदिर ,मैहर का शारदापीठ आदि को पर्यटन मानचित्र पर नई पहचान दिलाकर पर्यटन विकास निगम को घाटे से उबारने की कवायद में भी कोई बुराई नहीं है । मेरी राय में राजस्थान राजे रजवाडों , केरल आयुर्वेदिक चिकित्सा और गोवा अपनी पुर्तगी पहचान के कारण सैलानियों को लुभा सकता है तो पराभौतिक विद्या के ज़रिए पर्यटकों को खींचने की कोशिश तो की ही जा सकती है ।

किरन है खाइफ़ [भयभीत ]

सियाही गालिब [शक्तिशाली ]

न जाने कब तीरगी कटेगी [अंधकार ]

न जाने कब रोशनी मिलेगी ।

गुरुवार, 9 अक्तूबर 2008

रावण के बढे भाव ........ हे राम .... !

बधाई , दशानन के अनुयायियों को ।
रावण इन दिनों डिमांड में है । सुना है कैकसी के पुत्र और कुबेर के भाई , लंकापति की बाज़ार में खासी मांग है । शेयर बाज़ार निवेशकों को चाहे जितना रुला रहा हो , स्टाक एक्सचेंज के धन कुबेर भले ही कंगाल हो चुके हों लेकिन समाचार पत्रों की मानें तो रावण के भाव आसमान छू रहे हैं । रामलीला में राम पर लंकेश भारी पड रहे है । राम का किरदार निभाने वालों की भारी तादाद के कारण मर्यादा पुरुषोत्तम का मार्केट रेट नीचे आ गया है ।ये और बात है कि देश में ईमानदार चिराग लेकर ढूंढने से ही मिलें । खबर है कि रावण का किरदार निभाने वाले कलाकार बीस हज़ार रुपए में भी नहीं मिल रहे ।
रावण का बढता कद अखबारों और इलेक्ट्रानिक मीडिया की सुर्खियां बटोर रहा है । भोपाल के नामी गिरामी मठाधीश रावण की मार्केटिंग कर लोगों को पुतला फ़ूंक जलसे में खींचने की जुगाड में लगे हैं । लंकाधिपति रावण की पैकेजिंग से लेकर उसके दहन से निकलने वाले आतिशी शोलों तक की पत्रकारों की जमात को एक्सक्लूसिव खबर मुहैया कराई जा रही है ।
कहीं पचपन फ़ुटा रावण भीड जुटाएगा , कहीं अस्सी फ़ुटे दशानन का दहन आयोजन की सफ़लता की गारंटी बनेगा , तो कहीं उसकी आंखों और भेजे से निकलने वाली आतिशबाज़ी मजमा लगायेगी । होर्डिंग और लुभावने इश्तेहारों के ज़रिए भीड का रुख अपनी ओर खींचने की कवायद की जा रही है । अपने -अपने खेमे , अपना - अपना रावण । कहीं बेशकीमती ज़मीन पर हाथ साफ़ करने की मंशा है , तो कहीं विजयादशमी के बहाने राजनीति चमकाने की कोशिश ।
वैसे तो विजयादशमी बुराई पर अच्छाई और असत्य पर सत्य की जीत के तौर पर देखा जाता है ,लेकिन हर तरफ़ धूम तो रावण की ही है । इस जलसे की सालाना रस्म अदायगी के बाद हम इस खुशफ़हमी में जीते हैं कि पुतला फ़ूंकते ही बुराइयां काफ़ूर हो गईं ।
समाज में रावण की बढती हैसियत कई कैफ़ियत चाहती है । क्या रावण की लोकप्रियता सामाजिक मूल्यों के बदलाव का इशारा है .....? हाल ही में इस मुद्दे पर बहस के दौरान एक नए नज़रिए या यूं कहें , फ़लसफ़े ने चौंका दिया । लोग अब मानने लगे हैं किस अच्छाई की अपनी कोई हैसियत ही नहीं । मेहरबानी बुराई की कि उसकी वजह से आज भी अच्छाई सांसे ले पा रही है । कहा तो यहां तक जाने लगा है कि राम का वजूद ही रावण से है । एक बडा तबका ऎसा भी तैयार हो चुका है , जो मानता है कि रावण के एक अवगुण को रेखांकित करके समाज में राम को मर्यादा पुरु्षोत्तम के तौर पर प्रतिष्ठित कर दिया गया ।
चिंता इस बात की भी है कि रावण की पापुलरिटी समाज का बुनियादी ढांचा ही तहस - नहस ना कर दे .... ? दाउद , अबु सलेम , राज ठाकरे ,अमर सिंह , राखी सावंत , मोनिका बेदी जैसे किरदार यक ब यक कामयाबी की पायदान चढते हुए समाज के रहनुमा बनते नज़र आते हैं । ज़हीन तबका गाल बजाता है और पुराणों की बातों को मानते हुए इस उम्मीद पर ज़िंदा है कि कलि के पापों से निजात दिलाने के लिए जल्दी ही कल्कि का अवतरण होगा । बहरहाल फ़िलहाल तो आलम ये है ..........
गलत कामों का अब माहौल आदी हो गया शायद
किसी भी बात पर कोई हंगामा नहीं होता ।

मंगलवार, 7 अक्तूबर 2008

शायरी का सफ़र - फ़क्कड मिजाज़ , अलमस्त अंदाज़


भोपाल की शुरु से ही इल्म - अदब और शायरी के मैदानों मे खास हैसियत रही है । इस शहर ने कई बडे शायर पैदा किए और उर्दू शायरी की दुनिया में अपना अलग मकाम बनाया । यही वजह है कि भोपाल की शायरी को लखनऊ और दिल्ली की शायरी से बेहतर माना जाता है ।
" शहरे गज़ल " के नाम से मशाहूर इस शहर को शायरी से ही पहचाना गया । यहां शायरी का दौर गज़ल से ही शुरु हुआ । दरअसल भोपाल में कसीदा , मसनवी और मर्सिया वगैरह का रिवाज़ कभी रहा ही नहीं । भोपाल की मिट्टी से पैदा हुए मशहूर शायर सिराज मीर खां सहर भी गज़ल से ही पहचाने गयॆ । उनकी गज़ल का शेर - सीने में दिल है , दिल में दाग ;दाग में सोज़ो-साज़े इश्क ।पर्दा ब पर्दा निहां,पर्दानशीं का राज़े इश्क । पूरे देश में भोपाल की पहली शिनाख्त था ।
खैर भोपाल की शायरी पर तफ़सील स्र चर्चा फ़िर कभी । मरहूम अख्तर सईद खां कहा करते थे कि इस शहर का मिजाज़ और मौसम ही कुछ ऎसा है जो यहां आया वो यहीं का होकर रह गया । फ़िर गज़ल की परवरिश के लिए जिस शोले की तपिश और शबनम की ठन्डक चाहिए वो यहां के खुशगवार मौसम में भी मौजूद है । मौसम की कैफ़ियत कुछ ऎसी थी कि ना ज़्यादा गर्मी ,ना ज़्यादा सर्दी और शहर के बाशिंदों के मिजाज़ में भी मौसम की यही रुमानियत घुलमिल गयी ।
शायरों से जुडा एक दिलचस्प किस्सा भी उस दौर के भोपाल की खुशमिजाज़ तबियत की दास्तान बयां करता है । शहर के उर्दू अदब का कारवां अल्लामा इकबाल और जिगर मुरादाबादी के ज़िक्र के बगैर अधूरा है । जिगर साहब कुछ फ़क्कड और अलमस्त तबियत के शख्स थे । जिगर साह्ब का मानना था कि बेहतर शायर होने के लिए अच्छा इंसान होना ज़रुरी है । १९२८ - २९ में वो पहली मर्तबा हामिद सईद खां के बुलावे पर भोपाल आए और फ़िर तो वो अक्सर आने लगे । उसी दौर में फ़क्कड शायरों का एक अनोखा क्लब बना नाम रखा गया - दारुल काहिला
मज़े की बात ये थी कि चुनिदा शायरों की इस जमात ने क्लब के मेम्बरान के लिए कुछ कास किस्म के कायदे तय किए थे । मसलन - सबसे ज़रुरी शर्त तो ये कि हरेक सदस्य को अपना तकिया साथ लेकर आना होगा । नियमों में एक ये भी था कि लेटा हुआ बैठे हुए को ,बैठा हुआ खडे हुए को और खडा हुआ चलते हुए को हुक्म दे सकता था । इसका नतीजा ये हुआ कि काहिला क्लब का हरेक सदस्य लेटकर ही क्लब में दाखिल होने लगा ताकि उसे किसी का हुक्म बजाने की नौबत ही ना आ सके ।
और आखिर में जिगर साहब का ही इक शेर -
साकी की हर निगाह पे बल खा के पी गया ,
लहरों पे खेलता हुआ , लहरा के पी गया ।

शनिवार, 4 अक्तूबर 2008

रहम नज़र करो अब मोरे सांईं

कल अचानक नए युग की एक धार्मिक पुस्तक हाथ लगी । कालोनी की किटियों { किटी पार्टी की मेम्बरान } के नए शगल का पता चला । मोहल्ले भर के बच्चों को दक्शिणा के तौर पर सांई बाबा के चमत्कारिक व्रत की पुस्तक बांटी गई । इस किताब में सांई बाबा के जीवन चरेत्र के बारे मॆं आगे से पीछे तक कुछ भी नहीं दिया । हां ये ज़रुर कहा गया है कि कोकिला बहन नौ गुरुवार व्रत रखकर अपने बिगडैल पति को रास्ते पर लाने में कामयाब हुई । पुस्तक मेंदी गई बातों पर यकीन करें तो ट्रांस्फ़र रुकवाने , नौकरी लगवाने और बिना पढे अच्छे नम्बरों से परीख्शा पास करने के लिए किसी छुटभैए नेता का दामन थामने की बजाय व्रत रखकर उद्यापन करं ,खासतौर पर इस बात का ध्यान रखें कि दान ज़रुर दें और इसके लिए सांई चरित्र की ५ , ११ और २१ पुस्तकें विशेष रुप से रिकमंड की गई हैं ।
भक्ति का ये गणित भी बडा निराला है । पहले एक पोस्टकार्ड डाक से आता था ,जिसमें लिखा होता था कि पढने वाले ने ऎसे ११ कार्ड नहीं डाले ,तो उस पर भगवान का कोप होगा । फ़िर आया ज़माना प्रीटिंग का ,सो आस्थावानों को डराकर भक्ति के मार्ग पर ठेलने के लिए पर्चों का सहारा लिया गया । सुबह -सुबह आने वाले अखबार के साथ चुपके से घर में आकर लोगों को धमकाने लगे पेमफ़लेट । जो बताते थे कि फ़लां ने इतने छपवाए , तो बंगला , गाडी , धन संपत्ति से लेकर इहलोक के सभी सुख पाए और अलां ने पर्चा फ़ाड कर फ़ेंक दिया तो अला ,बला बीमारी ,दुख ,पीडा ने उसे चुटकियों में घेर लिया । यानी पर्चा ना हुआ साक्षात शिवशंकर हो गए जो प्रसन्न हुए तो स्वर्ग का राजपाट यानी इंद्रलोक भी पल भर में आपका , वर्ना रुद्रदेव की तीसरी आंख खुलते ही सब कुछ स्वाहा ।
कौन कहता है कि ब्रहमा ही सृष्टि के रचयिता हैं । सृजन के मामले में भारतीय दिमाग किसी चतुरानन से कमतर नहीं । इसी उर्वरक दिमाग की उपज है - माता संतोषी । खट्टॆ से परहेज़ करने वाली इन देवीजी की एक दौर में बडी धूम थी । शोले की नामी गिरामी फ़िल्मी हस्तियों से बाज़ी मार कर संतोषी मां ने भक्तों को ये बता दिया कि भगवत सत्ता को चुनौती देना ठीक नहीं ,फ़िर चाहे वो देवी काल्पनिक ही क्यों ना हो ।
वक्त बदला ,भक्त बदले ,ज़रुरत बदली , तो भगवत सत्ता में तब्दीली आना भी लाज़मी हो गया । अब सत्ता की बागडोर संभाली वैभव लक्षमी ने । लोग मालामाल हुए या नही , मगर पुस्तक छापने वाले की समद्धि को लेकर मन में कोई शको शुबह नहीं है । हे देवी मां जैसे उस प्रकाशक के दिन फ़िरे ऎसे सबके फ़िरें ।
समय ने एक बार फ़िर करवट ली है और इलेक्ट्रानिक युग में सांई बाबा के चमत्कार योजनाबद्ध रुप से समाचार बुलेटिन की सुर्खियों में जगह पाने लगे हैं । ऎसे में निस्वार्थ भाव से मानव सेवा में
लगे लोग जीवन के कष्टों से निजात पाने का सीधा ,सस्ता और सरल उपाय ढूंढ लाते हैं ,तो इसमें हर्ज़ ही क्या है ..? मन करता है कि शनि महाराज को पटखनी देने के लिए मैं भी कोई नए देवता को भारत की पावन भूमि पर अवतरित कर ही दूं ।
{ टीका - इस पोस्ट को पढने के बाद कम से कम १०१ लोगों को पढाएं ,तो शेयर बाज़ार वारेन बफ़ेट की तरह आप पर भी मेहरबान होगा , इसे पढकर नज़रंदाज़ करने वालों ....... सावधान ...। }










बुधवार, 1 अक्तूबर 2008

बेतकल्लुफ़ी का शहर

भोपाल शायद देश का ऎसा इकलौता शहर होगा , जिसकी ढेरो लेकिन परस्पर विरोधी छवियां एक साथ उभरती हैं । पटिएबाज़ों का ये शहर अपनी लतीफ़ेबाज़ी और बतोलेबाज़ी के लिए भी हमेशा चर्चा में रहा है । आज भी ठेठ भोपाली अपने बातूनीपन के लिए ही जाना जाता है । अरे खां मियां -हमारा नाम सूरमा भोपाली ऎसे ही थोडे ही है ।
भोपाल फ़िरकापरस्तों की नहीं , फ़िकरापरस्तों की नगरी है । फ़िकरापरस्ती यानी बेवजह की बातों पर बतियाना ,वाणी विलासिता । फ़िकराकशी में भोपालियों का कोई सानी नहीं । बेलौस तरीके से अपनी बात कहने का भोपा्ली अंदाज़ निराला है । लोगों के बातूनी मिजाज़ के पीछे फ़ुर्सत और बेफ़िक्री की वो संस्क्रति है , जो मुस्लिम शासनकाल में उपजी, पली और परवान चढी । पर्दा ,गर्दा , ज़र्दा और नामर्दा के लिए मशहूर इस शहर को आज भले ही गैस त्रासदी के लिए पहचाना जाने लगा हो ,लेकिन अपने हर अनूठे अंदाज़ की भोपाली पहचान यहां की झीलों की तरह कभी सूख नहीं सकती । झील धीरे - धीरे सिमट रही है , भोपाल की तस्वीर बदल रही है , लोगों के मिजाज़ बदल रहे हैं , लेकिन उम्मीद करना चाहिए कि शहर का पाक - साफ़ मिजाज़ सदियों तक यूं ही बरकरार रहेगा ....।
आमीन ........... ।