यकीन करना थोड़ा मुश्किल है लेकिन हक़ीक़त यही है कि पूरी दुनिया महज़ 6000 लोगों की मर्ज़ी की ग़ुलाम है । दूसरे शब्दों में सारी दुनिया इनकी मुट्ठी में है । ये ही वो लोग हैं जो तय करते हैं दुनिया की तकदीर । आजकल एक नई किताब ’सुपर क्लास’ चर्चा में है । डेविड रॉथ कॉफ़ की इस किताब में कहा गया है कि विश्व भर में अतिविशिष्ट व्यक्तियों का ऎसा वर्ग है जो तय करता है कि दुनिया कैसे चलेगी ।
श्री कॉफ़ का मानना है कि हर दस लाख लोगों में से एक में वो काबीलियत होती है जो उसे इस अतिविशिष्ट वर्ग का सदस्य बनने में मदद देती है । लगातार बदलते ’ पॉवर सर्किल ’ में कुछ साल रहने के बाद लोग खुद ही इससे दूर हो जाते हैं । हालाँकि अपवाद स्वरुप कुछ लोग ऎसे भी हैं जो कई दशकों तक उतने ही ताकतवर बने रहते हैं ।
इस पुस्तक के मुताबिक राजनीति , उद्योग जगत , वित्तीय संस्थाएँ , सैन्य उपक्रम , लेखन और सिनेमा से जुड़े लोगों का सुपर क्लास में दबदबा देखा गया है । दुनिया की रीति- नीति तय करने में पैसा और सेना का ’ हार्ड पॉवर ’ काम करता है । नई संस्कृति गढ़ने और नई जीवन शैली तैयार करने में नामीगिरामी लेखकों और चमत्कारिक व्यक्तित्व के मालिक लोकप्रिय सिनेमाई कलाकारों का प्रभाव काम करता है ।
कुछ धार्मिक नेता भी इसी श्रेणी में आते हैं , जिनकी बात करोड़ों लोगों का दिलो दिमाग बदल डालने की ताकत रखती है । ये भी आम लोगों की सोच - समझ पर खासा असर डालते हैं । लोग अपने निजी फ़ैसलों से लेकर सामूहिक मामलों से जुड़े फ़ैसले भी इन्हीं से प्रभावित होकर लेते हैं । ऎसे लोगों की फ़ेहरिस्त में रोमन कैथोलिक पोप और ईरान के धार्मिक नेता मरहूम अयातुल्लाह खुमैनी और उनके बेटे अयातुल्लाह अली खुमैनी का नाम शामिल है ।
इन मुट्ठी भर लोगों में पूरी दुनिया को मुट्ठी में कर लेने की शक्ति है । बल्कि इसे यूँ कहें कि दुनिया जंग के ज़रिये तबाही के रास्ते पर आगे बढेगी या अमन के फ़ूल खिलाकर धरती पर चमन सजाएगी , इसका फ़ैसला लेने का अख्तियार इन छह हज़ार लोगों को ही है । अतिविशिष्ट वर्ग के हाथ में इतना कुछ है कि इनकी मर्ज़ी के बग़ैर पत्ता भी नहीं खड़कता । अगर ये ना चाहें , तो बड़े से बड़ा युद्ध टाला जा सकता है । लेकिन इन्होंने ठान ली तो जंग होने से कोई रोक भी नहीं सकता । कुछ मामलों में इन्हीं के हितों की रक्षा के लिए लड़ाइयाँ लड़ी गईं ।
देशों के कानून भी वास्तव में इन्हीं प्रभावी लोगों के फ़ायदे को ध्यान में रखकर बनाये जाते हैं । ये और बात है कि आम लोगों का भरोसा वोट के रुप में पाकर ही ये लोग संसदों में पहुँचते हैं । लेखक का दावा है कि देश की व्यवस्था पर ही नहीं इस वर्ग का दबदबा विदेशी सरकारों पर भी रहता है ।
कई बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मालिक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी भी सरकारी मामलों में ना सिर्फ़ दिलचस्पी लेते हैं , बल्कि सरकारी फ़ैसलों पर भी अप्रत्यक्ष्र रुप से असर डालते हैं । यूरोपीय और अमरीकी लोगों का दबदबा समूचे विश्व में कायम है । बहरहाल मुकेश अंबानी और रतन टाटा भी सुपर क्लास का हिस्सा हैं । ये भी यूरोप और अमरीका के शक्तिशाली लोगों के बीच उठते - बैठते हैं । यानी लाख दावे किये जाएँ लेकिन हकीकतन देश कोई हो , सरकार किसी की भी बने, होंगी महज़ कठपुतलियाँ ही..........। दुनिया को चलाने वाले छह हज़ार बाज़ीगरों के हाथ का खिलौना .....!!!!!!!! इन सर्वशक्ति संपन्न बाज़ीगरों का एक ही नारा है - कर लो दुनिया मुट्ठी में !
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शनिवार, 28 फ़रवरी 2009
रविवार, 25 जनवरी 2009
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं...........
पिछले कई दिनों से एफ़ एम रेडियो पर बिना रुके चहकने वाली "चिडकलियां" रोज़ सुबह से ही बताने लगती हैं कि 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस आने वाला है । उनका मशविरा है कि हमें गणतंत्र दिवस धूमधाम से ’ सेलिब्रेट” करना चाहिए ,होली दीवाली की तरह । वे कहती हैं कि इस दिन जमकर आतिशबाज़ी करें , धूमधडाका मचाएं । धमाल करें और खूब नाचे गाएं । घरों को रोशनी से भर दें ।
हर रोज़ दी जा रही इस ऎलानिया समझाइश से मन में सवालों का सैलाब उमडने लगता है । क्या हो गया है इस देश को ? उत्सवधर्मी होना ज़िन्दादिली का सबूत है , लेकिन हर वक्त जश्न में डूबे रहना ही क्या हमारी संस्कृति है ? एक दौर था जब " हर फ़िक्र को धुएं में उडाता चला गया " का फ़लसफ़ा समाज में स्वीकार्य नहीं था । बुज़ुर्ग अपने बच्चों को धार्मिक त्योहारों के साथ राष्ट्रीय पर्वों का महत्व भी समझाते थे । आज तो ज़्यादातर लोगों को शायद गणतंत्र के मायने भी मालूम ना हों । बिना मशक्कत किये आपको अपने आसपास ही ऎसे लोग मिल जाएंगे जो ये भी नहीं जानते कि गणतंत्र दिवस क्यों मनाया जाता है । एक समय था जब छब्बीस जनवरी और पंद्रह अगस्त सरकारी आयोजन की बजाय पारिवारिक और सामाजिक त्योहार होते थे । तब गणतंत्र दिवस "रिपब्लिक डे" नहीं था ।
देश में हर तरफ़ तदर्थवाद का ऎसा दौर आ गया है कि हर शख्स " जो है समां कल हो ना हो " की तर्ज़ पर हर काम को तुरत फ़ुरत कर डालने की जल्दी में है । मानों कल ही दुनिया खत्म होने जा रही हो । देश इस समय एक साथ कई मोर्चों पर संकट के दौर से गुज़र रहा है । लोग सच्चाई से रुबरु होने की बजाय इतने गाफ़िल कैसे रह सकते हैं ? क्या मानव श्रृंखला बनाने ,फ़िल्मी अंदाज़ में मोमबत्तियां जलाने , सडक पर बेमकसद दौड लगाने या हवा में मुक्के लहराते हुए जुलूस निकालने भर से समस्याएं "छू मंतर" हो जाया करती हैं ?
अमेरिका के राष्ट्रपति के रुप में ओबामा की ताजपोशी का जश्न देश में यूं मनाया जा रहा है , जैसे भारत ने ही कोई इतिहास रच दिया हो । दलित को भारत का प्रधानमंत्री बनाने का ख्वाब देखने वाले देश में आज भी दलितों की क्या दुर्दशा है ये किसी से छिपा नहीं है । हाल ही में मध्यप्रदेश के छतरपुर ज़िले के करीब पौने दो सौ दलितों ने सामाजिक भेदभाव से निजात पाने के लिए कलेक्टर को पत्र लिखकर धर्म बदलने की इजाज़त मांगी । प्रदेश के बुंदेलखंड में आज भी कोई दलित दूल्हा दबंगों के खौफ़ के चलते घोडी नहीं चढ सकता । इसी इलाके की एक दलित सरपंच पिछले पांच सालों से थाने में डेरा डाले है, दबंगों के कहर से बचने के लिए ...।
इतना दूर जाने की भी ज़रुरत नहीं । मैं पिछले तेरह सालों से एक बच्चे को देखती आ रही हूं । शुरुआती दौर में अपने स्तर पर कुछ कोशिशें भी की ,उसके जीवन और हालात में बदलाव लाने की । लेकिन मुझे अफ़सोस है कि रफ़्ता - रफ़्ता "बिट्टू" पूरी तरह सफ़ाई कामगार बन गया और दलित बच्चों के लिए चलाई जा रही आश्रम स्कूल योजना धरी की धरी रह गई । कभी झाडू थामे , तो कचरे की गाडी खींचता " बिट्टू " मेरी चेतना को झकझोर कर रख देता है । मन अपराध बोध से भर जाता है । क्या फ़ायदा ऎसे ज्ञान का ,जो किसी की ज़िंदगी को उजास से ना भर सके ? अब कॉलोनी वासी अपनी सहूलियत के लिए कुछ और बिट्टू तैयार कर रहे हैं । कैसे रुकेगा ये सिलसिला ...? कौन रोकेगा इस अन्याय को ......? कब साकार होंगी कागज़ों पर बनी योजनाएं ...?
मुझे मेरे पसंदीदा शायर साहिर लुधियानवी की प्यासा फ़िल्म की लाइनें अक्सर याद आती हैं -
" ज़रा हिन्द के रहनुमा को बुलाओ ....
ये गलियां ये कूचे उनको दिखाओ ....
जिन्हे नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं ....?"
देश में सुरक्षा का संकट मुंह बाये खडा है । बिजली पानी का बेरहमी से इस्तेमाल नई तरह की मुसीबतों का सबब बनने जा रहा है । मैंने पहले भी कहा है प्रजातंत्र के सभी खंबे ऊपरी तौर पर चाहे जितने सशक्त नज़र आते हों भीतर से पूरी तरह खोखले हो चले हैं । एक दूसरे के कामकाज की निगरानी का संवैधानिक दायित्व भूलकर सब के सब एक नाव की सवारी पर आमादा हैं । लगता है देश को इस मकडजाल से निजात पाने के लिए रक्तरंजित क्रांति की सख्त ज़रुरत है ।
राजनीतिशास्त्र के बारे में मेरी जानकारी शून्य है ,लेकिन व्यवहारिक स्तर पर कई बार एक बात मेरे मन में आती है कि आखिर इस देश को इतने नेताओं की क्या ज़रुरत है । जितने ज़्यादा नेता उतना ज़्यादा कमीशन , उतना अधिक भ्रष्टाचार , उतने अपराध , उतनी गरीबी ....। ऎसा प्रजातंत्र किस काम का जिसमें आम आदमी के लिए ही कोई संभावना ना हो । आज के इस छद्म गणतंत्र से तो बेहतर है कि देश किसी तानाशाह के हवाले कर दिया जाए ....?????
बेमुरव्वत ,बेखौफ़ ,बेदर्द और अनुशासनहीन हो चुके भारतीय समाज को डंडे की भाषा ही समझ आती है । मेरी मां अक्सर कहती हैं -" लकडी के बल बंदर नाचे" । क्या करें लम्बे समय तक गुलामी की जंज़ीरों में जकडे रहने के कारण हमारी कौम में "जेनेटिक परिवर्तन" आ चुका है ....??? जब तक सिर पर डंडा ना बजाया जाए हम लोग सीधी राह पकडना जानते ही नहीं ।
आखिर में ’ ज़ब्तशुदा नज़्मों ’ के संग्रह से साहिर लुधियानवी की एक नज़्म , जो 1939 में बम्बई से निकलने वाले साप्ताहिक "अफ़गान" में छपी थी ।
हुकूमत की बुनियाद ढहाए चला जा
जवानों को बागी बनाए चला जा
बरस आग बन कर फ़िरंगी के सर पर
तकब्बुर की दुनिया को ढाए चला जा
जुनूने बगावत ना हो जिन सरों में
उन्हें ठोकरों से उडाए चला जा
गरीबों के टूटे चरागों की लौ से
अमीरों के ऎवां जलाए चला जा
शहीदाने मिल्लत की सौगंध तुझको
यह परचम यूं ही लहलहाए चला जा
परखचे उडा डाल अरबाबे - ज़र के
गरीबों को बागी बनाए चला जा
गिरा डाल कसरे -शहन्शाहियत को
अमारत के खिरमन जलाए चला जा ।
हर रोज़ दी जा रही इस ऎलानिया समझाइश से मन में सवालों का सैलाब उमडने लगता है । क्या हो गया है इस देश को ? उत्सवधर्मी होना ज़िन्दादिली का सबूत है , लेकिन हर वक्त जश्न में डूबे रहना ही क्या हमारी संस्कृति है ? एक दौर था जब " हर फ़िक्र को धुएं में उडाता चला गया " का फ़लसफ़ा समाज में स्वीकार्य नहीं था । बुज़ुर्ग अपने बच्चों को धार्मिक त्योहारों के साथ राष्ट्रीय पर्वों का महत्व भी समझाते थे । आज तो ज़्यादातर लोगों को शायद गणतंत्र के मायने भी मालूम ना हों । बिना मशक्कत किये आपको अपने आसपास ही ऎसे लोग मिल जाएंगे जो ये भी नहीं जानते कि गणतंत्र दिवस क्यों मनाया जाता है । एक समय था जब छब्बीस जनवरी और पंद्रह अगस्त सरकारी आयोजन की बजाय पारिवारिक और सामाजिक त्योहार होते थे । तब गणतंत्र दिवस "रिपब्लिक डे" नहीं था ।
देश में हर तरफ़ तदर्थवाद का ऎसा दौर आ गया है कि हर शख्स " जो है समां कल हो ना हो " की तर्ज़ पर हर काम को तुरत फ़ुरत कर डालने की जल्दी में है । मानों कल ही दुनिया खत्म होने जा रही हो । देश इस समय एक साथ कई मोर्चों पर संकट के दौर से गुज़र रहा है । लोग सच्चाई से रुबरु होने की बजाय इतने गाफ़िल कैसे रह सकते हैं ? क्या मानव श्रृंखला बनाने ,फ़िल्मी अंदाज़ में मोमबत्तियां जलाने , सडक पर बेमकसद दौड लगाने या हवा में मुक्के लहराते हुए जुलूस निकालने भर से समस्याएं "छू मंतर" हो जाया करती हैं ?
अमेरिका के राष्ट्रपति के रुप में ओबामा की ताजपोशी का जश्न देश में यूं मनाया जा रहा है , जैसे भारत ने ही कोई इतिहास रच दिया हो । दलित को भारत का प्रधानमंत्री बनाने का ख्वाब देखने वाले देश में आज भी दलितों की क्या दुर्दशा है ये किसी से छिपा नहीं है । हाल ही में मध्यप्रदेश के छतरपुर ज़िले के करीब पौने दो सौ दलितों ने सामाजिक भेदभाव से निजात पाने के लिए कलेक्टर को पत्र लिखकर धर्म बदलने की इजाज़त मांगी । प्रदेश के बुंदेलखंड में आज भी कोई दलित दूल्हा दबंगों के खौफ़ के चलते घोडी नहीं चढ सकता । इसी इलाके की एक दलित सरपंच पिछले पांच सालों से थाने में डेरा डाले है, दबंगों के कहर से बचने के लिए ...।
इतना दूर जाने की भी ज़रुरत नहीं । मैं पिछले तेरह सालों से एक बच्चे को देखती आ रही हूं । शुरुआती दौर में अपने स्तर पर कुछ कोशिशें भी की ,उसके जीवन और हालात में बदलाव लाने की । लेकिन मुझे अफ़सोस है कि रफ़्ता - रफ़्ता "बिट्टू" पूरी तरह सफ़ाई कामगार बन गया और दलित बच्चों के लिए चलाई जा रही आश्रम स्कूल योजना धरी की धरी रह गई । कभी झाडू थामे , तो कचरे की गाडी खींचता " बिट्टू " मेरी चेतना को झकझोर कर रख देता है । मन अपराध बोध से भर जाता है । क्या फ़ायदा ऎसे ज्ञान का ,जो किसी की ज़िंदगी को उजास से ना भर सके ? अब कॉलोनी वासी अपनी सहूलियत के लिए कुछ और बिट्टू तैयार कर रहे हैं । कैसे रुकेगा ये सिलसिला ...? कौन रोकेगा इस अन्याय को ......? कब साकार होंगी कागज़ों पर बनी योजनाएं ...?
मुझे मेरे पसंदीदा शायर साहिर लुधियानवी की प्यासा फ़िल्म की लाइनें अक्सर याद आती हैं -
" ज़रा हिन्द के रहनुमा को बुलाओ ....
ये गलियां ये कूचे उनको दिखाओ ....
जिन्हे नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं ....?"
देश में सुरक्षा का संकट मुंह बाये खडा है । बिजली पानी का बेरहमी से इस्तेमाल नई तरह की मुसीबतों का सबब बनने जा रहा है । मैंने पहले भी कहा है प्रजातंत्र के सभी खंबे ऊपरी तौर पर चाहे जितने सशक्त नज़र आते हों भीतर से पूरी तरह खोखले हो चले हैं । एक दूसरे के कामकाज की निगरानी का संवैधानिक दायित्व भूलकर सब के सब एक नाव की सवारी पर आमादा हैं । लगता है देश को इस मकडजाल से निजात पाने के लिए रक्तरंजित क्रांति की सख्त ज़रुरत है ।
राजनीतिशास्त्र के बारे में मेरी जानकारी शून्य है ,लेकिन व्यवहारिक स्तर पर कई बार एक बात मेरे मन में आती है कि आखिर इस देश को इतने नेताओं की क्या ज़रुरत है । जितने ज़्यादा नेता उतना ज़्यादा कमीशन , उतना अधिक भ्रष्टाचार , उतने अपराध , उतनी गरीबी ....। ऎसा प्रजातंत्र किस काम का जिसमें आम आदमी के लिए ही कोई संभावना ना हो । आज के इस छद्म गणतंत्र से तो बेहतर है कि देश किसी तानाशाह के हवाले कर दिया जाए ....?????
बेमुरव्वत ,बेखौफ़ ,बेदर्द और अनुशासनहीन हो चुके भारतीय समाज को डंडे की भाषा ही समझ आती है । मेरी मां अक्सर कहती हैं -" लकडी के बल बंदर नाचे" । क्या करें लम्बे समय तक गुलामी की जंज़ीरों में जकडे रहने के कारण हमारी कौम में "जेनेटिक परिवर्तन" आ चुका है ....??? जब तक सिर पर डंडा ना बजाया जाए हम लोग सीधी राह पकडना जानते ही नहीं ।
आखिर में ’ ज़ब्तशुदा नज़्मों ’ के संग्रह से साहिर लुधियानवी की एक नज़्म , जो 1939 में बम्बई से निकलने वाले साप्ताहिक "अफ़गान" में छपी थी ।
हुकूमत की बुनियाद ढहाए चला जा
जवानों को बागी बनाए चला जा
बरस आग बन कर फ़िरंगी के सर पर
तकब्बुर की दुनिया को ढाए चला जा
जुनूने बगावत ना हो जिन सरों में
उन्हें ठोकरों से उडाए चला जा
गरीबों के टूटे चरागों की लौ से
अमीरों के ऎवां जलाए चला जा
शहीदाने मिल्लत की सौगंध तुझको
यह परचम यूं ही लहलहाए चला जा
परखचे उडा डाल अरबाबे - ज़र के
गरीबों को बागी बनाए चला जा
गिरा डाल कसरे -शहन्शाहियत को
अमारत के खिरमन जलाए चला जा ।
शुक्रवार, 28 नवंबर 2008
नाकारा रहनुमाओं ने देश को किया शर्मसार
कभी ना थमने वाली मुम्बई की रफ़्तार पर २६ नवंबर की रात से लगा ब्रेक राष्ट्रीय शर्म का प्रतीक है । मुम्बई के आतंकी हमलों ने देश के सुरक्षा इंतज़ामात और खुफ़िया तंत्र के कामकाज की पोल खोलकर रख दी है । हर आतंकी हमले के बाद अगली मर्तबा कडा रुख अपनाने का रटा रटाया जुमला फ़ेंकने के बाद केंन्द्र भी फ़ारिग हो गया ।
आतंक से लडने की बजाय नेता फ़िर एक दूसरे पर कीचड उछालने में मसरुफ़ हो गये हैं । प्रधानमंत्री देश को मुश्किल घडी में एकजुट करने और जोश - जज़्बे से भरने की बजाय भविष्य की योजनाओं का पुलिंदा खोल कर क्या साबित करना चाहते थे । पोची बातों को सुनते - सुनते देश ने पिछले आठ महीनों में पैंसठ से ज़्यादा हमले अपने सीने पर झेले हैं ।
गृह मंत्री का तो कहना ही क्या । अपनी पोषाकों के प्रति सजग रहने वाले पाटिल साहब देश की सुरक्षा को लेकर भी इतने ही संजीदा होते ,तो शायद आज हालात कुछ और ही होते । गृह राज्य मंत्रियों को संकट की घडी में भी राजनीति करने की सूझ रही है । बयानबाज़ी के तीर एक दूसरे पर छोडने वाले नेताओं के लिए ये हमला वोटों के खज़ाने से ज़्यादा कुछ नहीं ।
सेना के तीनों अंगों ने नेशनल सिक्योरिटी गार्ड और रैपिड एक्शन फ़ोर्स की मदद से पूरे आपरेशन को अंजाम दिया और बयानबाज़ी करके वाहवाही लूट रहे हैं आर आर पाटिल । महाराष्ट्र पुलिस के मुखिया ए. एन राय तो इस मीडिया को ब्रीफ़ करते रहे , मानो सारा अभियान पुलिस ने ही सफ़लता से अंजाम दिया हो ।
सुना था कि मुसीबत के वक्त ही अपने पराए की पहचान होती है । लेकिन भारत मां को तो निश्चित ही अपने लाडले सपूतों [ नेताओं ] की करतूत पर शर्मिंदा ही होना पडा होगा । आतंकियों के गोला बारुद ने जितने ज़ख्म नहीं दिए उससे ज़्यादा तो इन कमज़र्फ़ों की कारगुज़ारियों ने सीना छलनी कर दिया ।
रही सही कसर कुछ छद्म देशप्रेमी पत्रकार और उनके भोंपू [चैनल] पूरी कर रहे हैं । सरकार से मिले सम्मानों का कर्ज़ उतारने के लिए खबरची किसी का कद और स्तर नापने की कोशिश में खुद किस हद तक गिर जाते हैं , उन्हें शायद खुद भी पता नहीं होता । दूसरे को बेनकाब कर वाहवाही लूटने की फ़िराक में ये खबरची अपने घिनौने चेहरे से लोगों को रुबरु करा बैठते हैं । इन्हें भी नेताओं की ही तरह देश की कोई फ़िक्र नहीं है । इन्हें बस चिंता है अपने रुतबे और रसूख की ।
प्रजातंत्र के नाम पर देश को खोखला कर रहे इन ढोंगियों को अब लोग बखुबी पहचान चुके हैं । इस हमले ने रहे सहे मुगालते भी दूर कर दिए हैं । नेताओं की असलियत भी खुलकर सामने आ चुकी है और सेना की मुस्तैदी को भी सारी दुनिया ने देखा है ।
ऎसा लगता है देश के सड गल चुके सिस्टम को बदलने के लिए अब लोगों को सडकों पर आना ही होगा । रक्त पिपासु नेताओं के चंगुल से भारत मां को आज़ाद कराने के लिए अब ठोस कार्रवाई का वक्त आ चुका है । इनके हाथ से सत्ता छीन कर नया रहनुमा तलाशना होगा , नई राह चुनना होगी , नई व्यवस्था लाना होगी । इस संकल्प के साथ हम सभी को एक साथ आगे बढना होगा ।
आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है
आज की रात ना फ़ुटपाथ पे नींद आएगी
सब उठो , मैं भी उठूं , तुम भी उठो ,तुम भी उठो
कोई खिडकी इसी दीवार में खुल जाएगी ।
आतंक से लडने की बजाय नेता फ़िर एक दूसरे पर कीचड उछालने में मसरुफ़ हो गये हैं । प्रधानमंत्री देश को मुश्किल घडी में एकजुट करने और जोश - जज़्बे से भरने की बजाय भविष्य की योजनाओं का पुलिंदा खोल कर क्या साबित करना चाहते थे । पोची बातों को सुनते - सुनते देश ने पिछले आठ महीनों में पैंसठ से ज़्यादा हमले अपने सीने पर झेले हैं ।
गृह मंत्री का तो कहना ही क्या । अपनी पोषाकों के प्रति सजग रहने वाले पाटिल साहब देश की सुरक्षा को लेकर भी इतने ही संजीदा होते ,तो शायद आज हालात कुछ और ही होते । गृह राज्य मंत्रियों को संकट की घडी में भी राजनीति करने की सूझ रही है । बयानबाज़ी के तीर एक दूसरे पर छोडने वाले नेताओं के लिए ये हमला वोटों के खज़ाने से ज़्यादा कुछ नहीं ।
सेना के तीनों अंगों ने नेशनल सिक्योरिटी गार्ड और रैपिड एक्शन फ़ोर्स की मदद से पूरे आपरेशन को अंजाम दिया और बयानबाज़ी करके वाहवाही लूट रहे हैं आर आर पाटिल । महाराष्ट्र पुलिस के मुखिया ए. एन राय तो इस मीडिया को ब्रीफ़ करते रहे , मानो सारा अभियान पुलिस ने ही सफ़लता से अंजाम दिया हो ।
सुना था कि मुसीबत के वक्त ही अपने पराए की पहचान होती है । लेकिन भारत मां को तो निश्चित ही अपने लाडले सपूतों [ नेताओं ] की करतूत पर शर्मिंदा ही होना पडा होगा । आतंकियों के गोला बारुद ने जितने ज़ख्म नहीं दिए उससे ज़्यादा तो इन कमज़र्फ़ों की कारगुज़ारियों ने सीना छलनी कर दिया ।
रही सही कसर कुछ छद्म देशप्रेमी पत्रकार और उनके भोंपू [चैनल] पूरी कर रहे हैं । सरकार से मिले सम्मानों का कर्ज़ उतारने के लिए खबरची किसी का कद और स्तर नापने की कोशिश में खुद किस हद तक गिर जाते हैं , उन्हें शायद खुद भी पता नहीं होता । दूसरे को बेनकाब कर वाहवाही लूटने की फ़िराक में ये खबरची अपने घिनौने चेहरे से लोगों को रुबरु करा बैठते हैं । इन्हें भी नेताओं की ही तरह देश की कोई फ़िक्र नहीं है । इन्हें बस चिंता है अपने रुतबे और रसूख की ।
प्रजातंत्र के नाम पर देश को खोखला कर रहे इन ढोंगियों को अब लोग बखुबी पहचान चुके हैं । इस हमले ने रहे सहे मुगालते भी दूर कर दिए हैं । नेताओं की असलियत भी खुलकर सामने आ चुकी है और सेना की मुस्तैदी को भी सारी दुनिया ने देखा है ।
ऎसा लगता है देश के सड गल चुके सिस्टम को बदलने के लिए अब लोगों को सडकों पर आना ही होगा । रक्त पिपासु नेताओं के चंगुल से भारत मां को आज़ाद कराने के लिए अब ठोस कार्रवाई का वक्त आ चुका है । इनके हाथ से सत्ता छीन कर नया रहनुमा तलाशना होगा , नई राह चुनना होगी , नई व्यवस्था लाना होगी । इस संकल्प के साथ हम सभी को एक साथ आगे बढना होगा ।
आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है
आज की रात ना फ़ुटपाथ पे नींद आएगी
सब उठो , मैं भी उठूं , तुम भी उठो ,तुम भी उठो
कोई खिडकी इसी दीवार में खुल जाएगी ।
रविवार, 9 नवंबर 2008
करोडपति बीडी मजदूर का राजनीतिक सफ़र
जनता की सेवकायी के लिए प्रदेश के धन कुबेर चुनावी मैदान में उतरे हैं । नामांकन दाखिल करते वक्त संपत्ति का ब्यौरा देने की मजबूरी ने जनसेवकों की माली हालत की जो तस्वीर पेश की है वह आंखें चुंधियाने के लिए काफ़ी है । ज़्यादातर नेता करोडपति हैं । कुछ तो ऎसे हैं , जो महज़ ५ - ७ साल पहले रोडपति थे अब करोडपति हैं । बचपन से सुनते आए हैं "सेवा करो , तो मेवा मिलेगा ।” शायद जनता की सेवकाई के वरदान स्वरुप ही नेताओं की माली हालत में रातों रात चमत्कारिक बदलाव आ जाता है ।
संपत्ति के खुलासे ने लोगों को चौंकाया है । कई नौजवान मुनाफ़े के इस व्यवसाय की ओर खिंचे चले आ रहे हैं । जनसेवा से मुनाफ़े की एक बानगी -
मुरियाखेडी में तेंदूपत्ता इकट्ठा करने वाला एक मजदूर महज़ दो साल में इतना पैसा कमा लेता है कि वह भोपाल में करोडों की जायदाद का मालिक बन जाता है । राजधानी की नरेला विधानसभा सीट से बीजेपी के उम्मीदवार की चुनाव आयोग को दी गई संपत्ति की जानकारी और उनके राजनीतिक सफ़र को मिलाकर देखने पर कुछ ऎसी ही सच्चाई नज़र आती है ।
अखबारों में छपे हर्फ़ों पर यकीन करें तो नामांकन पत्र के साथ अपनी सम्पत्ति की जानकारी देते हुए ’ गरीब बीडी मजदूर’ विश्वास सारंग ने जो शपथ-पत्र प्रस्तुत किया उसके अनुसार वे करोड़ों के कारोबार के स्वामी हैं । भोपाल, सीहोर व रायसेन में लाखों की जमीन है । भोपाल की निशात कालोनी में लगभग दो करोड़ साठ लाख की कीमत के आवासीय व व्यावसायिक भवन , अरण्यावली गृह निर्माण सहकारी समिति में ३२ लाख रुपए की जमीन, तीन गाँवों में सवा छह लाख की कृषि भूमि, मण्डीदीप स्थित विशाल पैकवेल इण्डस्ट्रीज में भागीदारी, कामदार काम्पलेक्स, दिल्ली के गोयला खुर्द में जमीन एग्रीमण्ट भी श्री सारंग के ही नाम पर है। नामांकन पत्र के साथ इन्होंने भोपाल नगरीय क्षेत्र की मतदाता सूची में पंजीबध्द होने के प्रमाण भी पेश किए हैं ।
अब मामले का दूसरा पहलू - विश्वास सारंग इन दिनों मध्य्प्रदेश लघु वनोपज संघ के अध्यक्ष हैं । इस पद तक पहुंचने की पहली शर्त है - किसी प्राथमिक वनोपज सहकारी समिति का नियमित सदस्य होना । इस समिति का सदस्य बनने के लिए दो शर्तें हैं । पहली - वह व्यक्ति उस सहकारी समिति के भौगोलिक क्षेत्राधिकार का स्थायी और नियमित निवासी हो । दूसरी - उस व्यक्ति के जीविकोपार्जन का आधार लघु वनोपज संग्रहण हो ।
श्री सारंग ने अध्यक्ष पद हासिल करने के लिए क्या - क्या पापड नहीं बेले । ‘प्राथमिक वनोपज सहकारी समिति, मुरियाखेड़ी’ के भौगोलिक क्षेत्राधिकार वाले ग्राम और फड़ साँकल के निवासी श्री सारंग ने वन - वन भटक कर तेंदूपत्ता इकट्ठा किया । उन्होंने वर्ष २००७ में तेंदू पत्ता की ६०० और वर्ष २००८ में १२०५ गड्डियाँ संग्रहित कर २४ हज़ार तथा ४८ हज़ार २०० रुपये कमाए ।
लगभग सभी नेताओं की कहानी कमोबेश इसी तरह की है । सामान्य परिवारों के इन होनहार खद्दरधारी नेताओं का राजनीतिक सफ़र ज़्यादा लंबा भी नहीं है और ना ही किसी बडे पद पर कभी आसीन रहे । ऎसे में सवाल उठता है कि आखिर इस छ्प्पर फ़ाड ऎश्वर्य का राज़ क्या है ? राजनीति के सिवाय देश का कोई भी हुनर या पेशा इस रफ़्तार से दौलत कमाने की गारंटी नहीं दे सकता ।
देश के मतदाताओं अपने नेताओं की दिन दोगुनी रात चौगुनी बढती आर्थिक हैसियत का राज़ जानने के लिए ही सही , अब तो नींद से जागो । देखो किसे वोट दे रहे हो ....। तुम्हारा वोट किन - किन नाकाराओं को नोट गिनने और तिजोरियां भरने की चाबी थमा रहा है । मेरी राय में यदि कोई भी प्रत्याशी चुनाव के लायक ना हो ,तो वोट को बेकार कर दो , मगर वोट ज़रुर दो ।
लहू में खौलन , ज़बीं पर पसीना
धडकती हैं नब्ज़ें , सुलगता है सीना
गरज ऎ बगावत कि तैयार हूं मैं ।
[ यह पोस्ट माननीय विष्णु बैरागी जी के ब्लाग ’एकोsहम’ के आलेख से प्रेरित होकर लिखी गयी है । कुछ तथ्य उनकी पोस्ट ’ समाचार ना छपने का समाचार ’ से लिए गये हैं । ]
संपत्ति के खुलासे ने लोगों को चौंकाया है । कई नौजवान मुनाफ़े के इस व्यवसाय की ओर खिंचे चले आ रहे हैं । जनसेवा से मुनाफ़े की एक बानगी -
मुरियाखेडी में तेंदूपत्ता इकट्ठा करने वाला एक मजदूर महज़ दो साल में इतना पैसा कमा लेता है कि वह भोपाल में करोडों की जायदाद का मालिक बन जाता है । राजधानी की नरेला विधानसभा सीट से बीजेपी के उम्मीदवार की चुनाव आयोग को दी गई संपत्ति की जानकारी और उनके राजनीतिक सफ़र को मिलाकर देखने पर कुछ ऎसी ही सच्चाई नज़र आती है ।
अखबारों में छपे हर्फ़ों पर यकीन करें तो नामांकन पत्र के साथ अपनी सम्पत्ति की जानकारी देते हुए ’ गरीब बीडी मजदूर’ विश्वास सारंग ने जो शपथ-पत्र प्रस्तुत किया उसके अनुसार वे करोड़ों के कारोबार के स्वामी हैं । भोपाल, सीहोर व रायसेन में लाखों की जमीन है । भोपाल की निशात कालोनी में लगभग दो करोड़ साठ लाख की कीमत के आवासीय व व्यावसायिक भवन , अरण्यावली गृह निर्माण सहकारी समिति में ३२ लाख रुपए की जमीन, तीन गाँवों में सवा छह लाख की कृषि भूमि, मण्डीदीप स्थित विशाल पैकवेल इण्डस्ट्रीज में भागीदारी, कामदार काम्पलेक्स, दिल्ली के गोयला खुर्द में जमीन एग्रीमण्ट भी श्री सारंग के ही नाम पर है। नामांकन पत्र के साथ इन्होंने भोपाल नगरीय क्षेत्र की मतदाता सूची में पंजीबध्द होने के प्रमाण भी पेश किए हैं ।
अब मामले का दूसरा पहलू - विश्वास सारंग इन दिनों मध्य्प्रदेश लघु वनोपज संघ के अध्यक्ष हैं । इस पद तक पहुंचने की पहली शर्त है - किसी प्राथमिक वनोपज सहकारी समिति का नियमित सदस्य होना । इस समिति का सदस्य बनने के लिए दो शर्तें हैं । पहली - वह व्यक्ति उस सहकारी समिति के भौगोलिक क्षेत्राधिकार का स्थायी और नियमित निवासी हो । दूसरी - उस व्यक्ति के जीविकोपार्जन का आधार लघु वनोपज संग्रहण हो ।
श्री सारंग ने अध्यक्ष पद हासिल करने के लिए क्या - क्या पापड नहीं बेले । ‘प्राथमिक वनोपज सहकारी समिति, मुरियाखेड़ी’ के भौगोलिक क्षेत्राधिकार वाले ग्राम और फड़ साँकल के निवासी श्री सारंग ने वन - वन भटक कर तेंदूपत्ता इकट्ठा किया । उन्होंने वर्ष २००७ में तेंदू पत्ता की ६०० और वर्ष २००८ में १२०५ गड्डियाँ संग्रहित कर २४ हज़ार तथा ४८ हज़ार २०० रुपये कमाए ।
लगभग सभी नेताओं की कहानी कमोबेश इसी तरह की है । सामान्य परिवारों के इन होनहार खद्दरधारी नेताओं का राजनीतिक सफ़र ज़्यादा लंबा भी नहीं है और ना ही किसी बडे पद पर कभी आसीन रहे । ऎसे में सवाल उठता है कि आखिर इस छ्प्पर फ़ाड ऎश्वर्य का राज़ क्या है ? राजनीति के सिवाय देश का कोई भी हुनर या पेशा इस रफ़्तार से दौलत कमाने की गारंटी नहीं दे सकता ।
देश के मतदाताओं अपने नेताओं की दिन दोगुनी रात चौगुनी बढती आर्थिक हैसियत का राज़ जानने के लिए ही सही , अब तो नींद से जागो । देखो किसे वोट दे रहे हो ....। तुम्हारा वोट किन - किन नाकाराओं को नोट गिनने और तिजोरियां भरने की चाबी थमा रहा है । मेरी राय में यदि कोई भी प्रत्याशी चुनाव के लायक ना हो ,तो वोट को बेकार कर दो , मगर वोट ज़रुर दो ।
लहू में खौलन , ज़बीं पर पसीना
धडकती हैं नब्ज़ें , सुलगता है सीना
गरज ऎ बगावत कि तैयार हूं मैं ।
[ यह पोस्ट माननीय विष्णु बैरागी जी के ब्लाग ’एकोsहम’ के आलेख से प्रेरित होकर लिखी गयी है । कुछ तथ्य उनकी पोस्ट ’ समाचार ना छपने का समाचार ’ से लिए गये हैं । ]
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मंगलवार, 14 अक्तूबर 2008
अजगर करे ना चाकरी ....!
अजगर करे ना चाकरी , पंछी करे ना काम ।
दास मलूका कह गये , सबके दाता राम ।
मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री की खातिरदारी का लुत्फ़ उठाने के बाद पंद्रह फ़ुटा अजगर निश्चित ही ये लाइनें गुनगुना रहा होगा । ८५ किलो वज़नी इन महाशय ने सिक्योरिटी के तमाम इंतज़ामात को धता बताते हुए श्यामला हिल्स स्थित मुख्यमंत्री निवास में घुसपैठ कर ली थी । और तो और वहां एक पालतू कुत्ते की दावत उडाने की भी कोशिश की । अजगर की भूख शांत करने के लिए उसे मुर्गों का ज़ायका लेने का मौका भी मिला ।
अखबार की सुर्खियों में रहे इस आराम तलब जीव ने चुनावी माहौल में कई दिग्गज नेताओं को बहुत कुछ संकेत दे दिए हैं । सीधे -सादे नज़र आने वाले शिवराज सिंह को जब सत्ता सौंपी गई थी , तब उन्हें रबर स्टैंप मानते हुए घाघ नेताओं ने भी खास तवज्जो नहीं दी थी । कमज़ोर माने जाने वाले इस नेता ने धीरे धीरे कई धुरंधरों को उनकी हैसियत बता दी है ।
राजधानी में काफ़ी चर्चा है इस वाकये की । लोगों का कहना है कि शिव के घर नाग आया , लेकिन अब तक के शिवराज के राजनीतिक सफ़र को देखते हुए इसे दो दोस्तों की सौजन्य भेंट का नाम दिया जाए तो गलत ना होगा । ये अलग बात है कि पूर्व निर्धारित नहीं होने के कारण अजगर महाशय मुख्यमंत्री से मुलाकात नहीं कर पाए ।
वैसे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री निवास में इससे पहले भी जंगल के कई नुमाइंदे अलग -अलग काल में मुख्यमंत्रियों से मेल मुलाकात का ख्वाब संजोये हुए ज़बरिया प्रवेश करते रहे हैं । मोतीलाल वोरा के शासनकाल में मगरमच्छ का आना चर्चा का मुद्दा बना ,तो एक तेंदुए ने दिग्विजय सिंह से मुलाकात की हसरत पाली । देखना दिलचस्प होगा कि अजगर नामा आने वाले चुनावों में क्या रंग दिखाएगा ।
दास मलूका कह गये , सबके दाता राम ।
मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री की खातिरदारी का लुत्फ़ उठाने के बाद पंद्रह फ़ुटा अजगर निश्चित ही ये लाइनें गुनगुना रहा होगा । ८५ किलो वज़नी इन महाशय ने सिक्योरिटी के तमाम इंतज़ामात को धता बताते हुए श्यामला हिल्स स्थित मुख्यमंत्री निवास में घुसपैठ कर ली थी । और तो और वहां एक पालतू कुत्ते की दावत उडाने की भी कोशिश की । अजगर की भूख शांत करने के लिए उसे मुर्गों का ज़ायका लेने का मौका भी मिला ।
अखबार की सुर्खियों में रहे इस आराम तलब जीव ने चुनावी माहौल में कई दिग्गज नेताओं को बहुत कुछ संकेत दे दिए हैं । सीधे -सादे नज़र आने वाले शिवराज सिंह को जब सत्ता सौंपी गई थी , तब उन्हें रबर स्टैंप मानते हुए घाघ नेताओं ने भी खास तवज्जो नहीं दी थी । कमज़ोर माने जाने वाले इस नेता ने धीरे धीरे कई धुरंधरों को उनकी हैसियत बता दी है ।
राजधानी में काफ़ी चर्चा है इस वाकये की । लोगों का कहना है कि शिव के घर नाग आया , लेकिन अब तक के शिवराज के राजनीतिक सफ़र को देखते हुए इसे दो दोस्तों की सौजन्य भेंट का नाम दिया जाए तो गलत ना होगा । ये अलग बात है कि पूर्व निर्धारित नहीं होने के कारण अजगर महाशय मुख्यमंत्री से मुलाकात नहीं कर पाए ।
वैसे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री निवास में इससे पहले भी जंगल के कई नुमाइंदे अलग -अलग काल में मुख्यमंत्रियों से मेल मुलाकात का ख्वाब संजोये हुए ज़बरिया प्रवेश करते रहे हैं । मोतीलाल वोरा के शासनकाल में मगरमच्छ का आना चर्चा का मुद्दा बना ,तो एक तेंदुए ने दिग्विजय सिंह से मुलाकात की हसरत पाली । देखना दिलचस्प होगा कि अजगर नामा आने वाले चुनावों में क्या रंग दिखाएगा ।
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