पिछले कई दिनों से एफ़ एम रेडियो पर बिना रुके चहकने वाली "चिडकलियां" रोज़ सुबह से ही बताने लगती हैं कि 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस आने वाला है । उनका मशविरा है कि हमें गणतंत्र दिवस धूमधाम से ’ सेलिब्रेट” करना चाहिए ,होली दीवाली की तरह । वे कहती हैं कि इस दिन जमकर आतिशबाज़ी करें , धूमधडाका मचाएं । धमाल करें और खूब नाचे गाएं । घरों को रोशनी से भर दें ।
हर रोज़ दी जा रही इस ऎलानिया समझाइश से मन में सवालों का सैलाब उमडने लगता है । क्या हो गया है इस देश को ? उत्सवधर्मी होना ज़िन्दादिली का सबूत है , लेकिन हर वक्त जश्न में डूबे रहना ही क्या हमारी संस्कृति है ? एक दौर था जब " हर फ़िक्र को धुएं में उडाता चला गया " का फ़लसफ़ा समाज में स्वीकार्य नहीं था । बुज़ुर्ग अपने बच्चों को धार्मिक त्योहारों के साथ राष्ट्रीय पर्वों का महत्व भी समझाते थे । आज तो ज़्यादातर लोगों को शायद गणतंत्र के मायने भी मालूम ना हों । बिना मशक्कत किये आपको अपने आसपास ही ऎसे लोग मिल जाएंगे जो ये भी नहीं जानते कि गणतंत्र दिवस क्यों मनाया जाता है । एक समय था जब छब्बीस जनवरी और पंद्रह अगस्त सरकारी आयोजन की बजाय पारिवारिक और सामाजिक त्योहार होते थे । तब गणतंत्र दिवस "रिपब्लिक डे" नहीं था ।
देश में हर तरफ़ तदर्थवाद का ऎसा दौर आ गया है कि हर शख्स " जो है समां कल हो ना हो " की तर्ज़ पर हर काम को तुरत फ़ुरत कर डालने की जल्दी में है । मानों कल ही दुनिया खत्म होने जा रही हो । देश इस समय एक साथ कई मोर्चों पर संकट के दौर से गुज़र रहा है । लोग सच्चाई से रुबरु होने की बजाय इतने गाफ़िल कैसे रह सकते हैं ? क्या मानव श्रृंखला बनाने ,फ़िल्मी अंदाज़ में मोमबत्तियां जलाने , सडक पर बेमकसद दौड लगाने या हवा में मुक्के लहराते हुए जुलूस निकालने भर से समस्याएं "छू मंतर" हो जाया करती हैं ?
अमेरिका के राष्ट्रपति के रुप में ओबामा की ताजपोशी का जश्न देश में यूं मनाया जा रहा है , जैसे भारत ने ही कोई इतिहास रच दिया हो । दलित को भारत का प्रधानमंत्री बनाने का ख्वाब देखने वाले देश में आज भी दलितों की क्या दुर्दशा है ये किसी से छिपा नहीं है । हाल ही में मध्यप्रदेश के छतरपुर ज़िले के करीब पौने दो सौ दलितों ने सामाजिक भेदभाव से निजात पाने के लिए कलेक्टर को पत्र लिखकर धर्म बदलने की इजाज़त मांगी । प्रदेश के बुंदेलखंड में आज भी कोई दलित दूल्हा दबंगों के खौफ़ के चलते घोडी नहीं चढ सकता । इसी इलाके की एक दलित सरपंच पिछले पांच सालों से थाने में डेरा डाले है, दबंगों के कहर से बचने के लिए ...।
इतना दूर जाने की भी ज़रुरत नहीं । मैं पिछले तेरह सालों से एक बच्चे को देखती आ रही हूं । शुरुआती दौर में अपने स्तर पर कुछ कोशिशें भी की ,उसके जीवन और हालात में बदलाव लाने की । लेकिन मुझे अफ़सोस है कि रफ़्ता - रफ़्ता "बिट्टू" पूरी तरह सफ़ाई कामगार बन गया और दलित बच्चों के लिए चलाई जा रही आश्रम स्कूल योजना धरी की धरी रह गई । कभी झाडू थामे , तो कचरे की गाडी खींचता " बिट्टू " मेरी चेतना को झकझोर कर रख देता है । मन अपराध बोध से भर जाता है । क्या फ़ायदा ऎसे ज्ञान का ,जो किसी की ज़िंदगी को उजास से ना भर सके ? अब कॉलोनी वासी अपनी सहूलियत के लिए कुछ और बिट्टू तैयार कर रहे हैं । कैसे रुकेगा ये सिलसिला ...? कौन रोकेगा इस अन्याय को ......? कब साकार होंगी कागज़ों पर बनी योजनाएं ...?
मुझे मेरे पसंदीदा शायर साहिर लुधियानवी की प्यासा फ़िल्म की लाइनें अक्सर याद आती हैं -
" ज़रा हिन्द के रहनुमा को बुलाओ ....
ये गलियां ये कूचे उनको दिखाओ ....
जिन्हे नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं ....?"
देश में सुरक्षा का संकट मुंह बाये खडा है । बिजली पानी का बेरहमी से इस्तेमाल नई तरह की मुसीबतों का सबब बनने जा रहा है । मैंने पहले भी कहा है प्रजातंत्र के सभी खंबे ऊपरी तौर पर चाहे जितने सशक्त नज़र आते हों भीतर से पूरी तरह खोखले हो चले हैं । एक दूसरे के कामकाज की निगरानी का संवैधानिक दायित्व भूलकर सब के सब एक नाव की सवारी पर आमादा हैं । लगता है देश को इस मकडजाल से निजात पाने के लिए रक्तरंजित क्रांति की सख्त ज़रुरत है ।
राजनीतिशास्त्र के बारे में मेरी जानकारी शून्य है ,लेकिन व्यवहारिक स्तर पर कई बार एक बात मेरे मन में आती है कि आखिर इस देश को इतने नेताओं की क्या ज़रुरत है । जितने ज़्यादा नेता उतना ज़्यादा कमीशन , उतना अधिक भ्रष्टाचार , उतने अपराध , उतनी गरीबी ....। ऎसा प्रजातंत्र किस काम का जिसमें आम आदमी के लिए ही कोई संभावना ना हो । आज के इस छद्म गणतंत्र से तो बेहतर है कि देश किसी तानाशाह के हवाले कर दिया जाए ....?????
बेमुरव्वत ,बेखौफ़ ,बेदर्द और अनुशासनहीन हो चुके भारतीय समाज को डंडे की भाषा ही समझ आती है । मेरी मां अक्सर कहती हैं -" लकडी के बल बंदर नाचे" । क्या करें लम्बे समय तक गुलामी की जंज़ीरों में जकडे रहने के कारण हमारी कौम में "जेनेटिक परिवर्तन" आ चुका है ....??? जब तक सिर पर डंडा ना बजाया जाए हम लोग सीधी राह पकडना जानते ही नहीं ।
आखिर में ’ ज़ब्तशुदा नज़्मों ’ के संग्रह से साहिर लुधियानवी की एक नज़्म , जो 1939 में बम्बई से निकलने वाले साप्ताहिक "अफ़गान" में छपी थी ।
हुकूमत की बुनियाद ढहाए चला जा
जवानों को बागी बनाए चला जा
बरस आग बन कर फ़िरंगी के सर पर
तकब्बुर की दुनिया को ढाए चला जा
जुनूने बगावत ना हो जिन सरों में
उन्हें ठोकरों से उडाए चला जा
गरीबों के टूटे चरागों की लौ से
अमीरों के ऎवां जलाए चला जा
शहीदाने मिल्लत की सौगंध तुझको
यह परचम यूं ही लहलहाए चला जा
परखचे उडा डाल अरबाबे - ज़र के
गरीबों को बागी बनाए चला जा
गिरा डाल कसरे -शहन्शाहियत को
अमारत के खिरमन जलाए चला जा ।
हर रोज़ दी जा रही इस ऎलानिया समझाइश से मन में सवालों का सैलाब उमडने लगता है । क्या हो गया है इस देश को ? उत्सवधर्मी होना ज़िन्दादिली का सबूत है , लेकिन हर वक्त जश्न में डूबे रहना ही क्या हमारी संस्कृति है ? एक दौर था जब " हर फ़िक्र को धुएं में उडाता चला गया " का फ़लसफ़ा समाज में स्वीकार्य नहीं था । बुज़ुर्ग अपने बच्चों को धार्मिक त्योहारों के साथ राष्ट्रीय पर्वों का महत्व भी समझाते थे । आज तो ज़्यादातर लोगों को शायद गणतंत्र के मायने भी मालूम ना हों । बिना मशक्कत किये आपको अपने आसपास ही ऎसे लोग मिल जाएंगे जो ये भी नहीं जानते कि गणतंत्र दिवस क्यों मनाया जाता है । एक समय था जब छब्बीस जनवरी और पंद्रह अगस्त सरकारी आयोजन की बजाय पारिवारिक और सामाजिक त्योहार होते थे । तब गणतंत्र दिवस "रिपब्लिक डे" नहीं था ।
देश में हर तरफ़ तदर्थवाद का ऎसा दौर आ गया है कि हर शख्स " जो है समां कल हो ना हो " की तर्ज़ पर हर काम को तुरत फ़ुरत कर डालने की जल्दी में है । मानों कल ही दुनिया खत्म होने जा रही हो । देश इस समय एक साथ कई मोर्चों पर संकट के दौर से गुज़र रहा है । लोग सच्चाई से रुबरु होने की बजाय इतने गाफ़िल कैसे रह सकते हैं ? क्या मानव श्रृंखला बनाने ,फ़िल्मी अंदाज़ में मोमबत्तियां जलाने , सडक पर बेमकसद दौड लगाने या हवा में मुक्के लहराते हुए जुलूस निकालने भर से समस्याएं "छू मंतर" हो जाया करती हैं ?
अमेरिका के राष्ट्रपति के रुप में ओबामा की ताजपोशी का जश्न देश में यूं मनाया जा रहा है , जैसे भारत ने ही कोई इतिहास रच दिया हो । दलित को भारत का प्रधानमंत्री बनाने का ख्वाब देखने वाले देश में आज भी दलितों की क्या दुर्दशा है ये किसी से छिपा नहीं है । हाल ही में मध्यप्रदेश के छतरपुर ज़िले के करीब पौने दो सौ दलितों ने सामाजिक भेदभाव से निजात पाने के लिए कलेक्टर को पत्र लिखकर धर्म बदलने की इजाज़त मांगी । प्रदेश के बुंदेलखंड में आज भी कोई दलित दूल्हा दबंगों के खौफ़ के चलते घोडी नहीं चढ सकता । इसी इलाके की एक दलित सरपंच पिछले पांच सालों से थाने में डेरा डाले है, दबंगों के कहर से बचने के लिए ...।
इतना दूर जाने की भी ज़रुरत नहीं । मैं पिछले तेरह सालों से एक बच्चे को देखती आ रही हूं । शुरुआती दौर में अपने स्तर पर कुछ कोशिशें भी की ,उसके जीवन और हालात में बदलाव लाने की । लेकिन मुझे अफ़सोस है कि रफ़्ता - रफ़्ता "बिट्टू" पूरी तरह सफ़ाई कामगार बन गया और दलित बच्चों के लिए चलाई जा रही आश्रम स्कूल योजना धरी की धरी रह गई । कभी झाडू थामे , तो कचरे की गाडी खींचता " बिट्टू " मेरी चेतना को झकझोर कर रख देता है । मन अपराध बोध से भर जाता है । क्या फ़ायदा ऎसे ज्ञान का ,जो किसी की ज़िंदगी को उजास से ना भर सके ? अब कॉलोनी वासी अपनी सहूलियत के लिए कुछ और बिट्टू तैयार कर रहे हैं । कैसे रुकेगा ये सिलसिला ...? कौन रोकेगा इस अन्याय को ......? कब साकार होंगी कागज़ों पर बनी योजनाएं ...?
मुझे मेरे पसंदीदा शायर साहिर लुधियानवी की प्यासा फ़िल्म की लाइनें अक्सर याद आती हैं -
" ज़रा हिन्द के रहनुमा को बुलाओ ....
ये गलियां ये कूचे उनको दिखाओ ....
जिन्हे नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं ....?"
देश में सुरक्षा का संकट मुंह बाये खडा है । बिजली पानी का बेरहमी से इस्तेमाल नई तरह की मुसीबतों का सबब बनने जा रहा है । मैंने पहले भी कहा है प्रजातंत्र के सभी खंबे ऊपरी तौर पर चाहे जितने सशक्त नज़र आते हों भीतर से पूरी तरह खोखले हो चले हैं । एक दूसरे के कामकाज की निगरानी का संवैधानिक दायित्व भूलकर सब के सब एक नाव की सवारी पर आमादा हैं । लगता है देश को इस मकडजाल से निजात पाने के लिए रक्तरंजित क्रांति की सख्त ज़रुरत है ।
राजनीतिशास्त्र के बारे में मेरी जानकारी शून्य है ,लेकिन व्यवहारिक स्तर पर कई बार एक बात मेरे मन में आती है कि आखिर इस देश को इतने नेताओं की क्या ज़रुरत है । जितने ज़्यादा नेता उतना ज़्यादा कमीशन , उतना अधिक भ्रष्टाचार , उतने अपराध , उतनी गरीबी ....। ऎसा प्रजातंत्र किस काम का जिसमें आम आदमी के लिए ही कोई संभावना ना हो । आज के इस छद्म गणतंत्र से तो बेहतर है कि देश किसी तानाशाह के हवाले कर दिया जाए ....?????
बेमुरव्वत ,बेखौफ़ ,बेदर्द और अनुशासनहीन हो चुके भारतीय समाज को डंडे की भाषा ही समझ आती है । मेरी मां अक्सर कहती हैं -" लकडी के बल बंदर नाचे" । क्या करें लम्बे समय तक गुलामी की जंज़ीरों में जकडे रहने के कारण हमारी कौम में "जेनेटिक परिवर्तन" आ चुका है ....??? जब तक सिर पर डंडा ना बजाया जाए हम लोग सीधी राह पकडना जानते ही नहीं ।
आखिर में ’ ज़ब्तशुदा नज़्मों ’ के संग्रह से साहिर लुधियानवी की एक नज़्म , जो 1939 में बम्बई से निकलने वाले साप्ताहिक "अफ़गान" में छपी थी ।
हुकूमत की बुनियाद ढहाए चला जा
जवानों को बागी बनाए चला जा
बरस आग बन कर फ़िरंगी के सर पर
तकब्बुर की दुनिया को ढाए चला जा
जुनूने बगावत ना हो जिन सरों में
उन्हें ठोकरों से उडाए चला जा
गरीबों के टूटे चरागों की लौ से
अमीरों के ऎवां जलाए चला जा
शहीदाने मिल्लत की सौगंध तुझको
यह परचम यूं ही लहलहाए चला जा
परखचे उडा डाल अरबाबे - ज़र के
गरीबों को बागी बनाए चला जा
गिरा डाल कसरे -शहन्शाहियत को
अमारत के खिरमन जलाए चला जा ।