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शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008

भारत - पाक युद्ध पर आमादा रणबाँकुरा मीडिया

भारत लगातार युद्ध टालने की कोशिश में जुटा है । पाकिस्तान भी युद्ध की धमकी तो देता है पर बीच बीच में उसके सुर में नरमी भी नज़र आने लगती है । ये और बात है कि सीमा पार सेना की तैनाती लगातार बढ रही है , मगर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री दोनों मुल्कों के बीच शांति और बेहतर ताल्लुकात की बात भी कर रहे हैं । कुल जमा नज़ारा कुछ ऎसा समझ में आता है - मुँह में राम बगल में छुरी ।

दोनों देशों के बीच युद्ध होगा या नहीं , इसे लेकर तरह तरह के कयास लगाये जा रहे हैं । इतना तो तय है कि वाक युद्ध में दोनों ओर से जमकर गोलाबारी हो रही है । इसी ज़बानी गर्मागर्मी को भारतीय मीडिया ने भुनाने का बंदोबस्त कर लिया है । युद्ध हो चाहे न हो मगर मीडिया खासतौर पर खबरिया चैनलों ने भारत और पाकिस्तान के बीच लडाई की हवा बनाना शुरु कर दी है । नौसीखिए नौजवान छोकरे- छोकरियाँ चैनलों पर लगातार पूरी ऊर्जा के साथ चीख रहे हैं । कहीं कुछ मिनट में युद्ध छिडने का दावा हो रहा है । कहीं नाभिकीय युद्ध की रुपरेखा बताई जा रही है , तो कोई हवाई और ज़मीनी हमलों से जुडे तथ्यों को लेकर बहस में मसरुफ़ है ।

नई पीढी ने तो भारत - पाक युद्ध नहीं देखा है । चैनलों की दीवानी युवा पीढी ने भारत - पाक युद्ध की थीम पर बनी ’बॉर्डर’ जैसी फ़िल्मों के माध्यम से ही जंग को जाना - समझा है । खिलौने के तौर पर हाथ में बंदूक लेकर वक्त गुज़ारने वाले नए दौर के बच्चों के लिए युद्ध एक रोमांचक घटना है । मीडिया इसी रहस्य - रोमांच को भुनाने की फ़िराक में है । आखिर इराक युद्ध दिखाकर ही सीएनएन कामयाबी की बुलंदियों को छू सका । इसलिए मंदी के दौर में दोनों देशों की सेनाएं भिडें और ज़बरदस्त फ़ुटेज मिले यह माहौल न्यूज़्ररुम्स में बन रहा है ।

चिंता की बात यह भी है कि मीडिया की तल्खियाँ दोनों देशों के बीच तनाव बढाने का सबब भी बन सकती हैं । कई तरह के कपोल कल्पित बयानों के हवाले से माहौल को उन्मादी बनाने में भी कोई कसर नहीं छोडी जा रही है । हालात ऎसे हैं कि हो सकता है दोनों देशों के राजनेता , अफ़सर और सैन्य अधिकारी ठंडे दिमाग से बात कर रहे हों , मगर मीडिया के जोशीले जवान खबरों के प्रसारण के दौरान तीखी टिप्पणियों के ज़रिए जांबाज़ी का प्रदर्शन करने को ही अपना पेशागत धर्म मान रहे हैं । कमोबेश यही हाल सीमापार के मीडिया का भी है ।

पिछले दो दशकों में जंग के कम से कम छह मौके आए लेकिन दोनों ओर के मीडिया के ताल्लुकात इतने खराब कभी नहीं रहे । आखिर मीडिया की इस तल्खी की क्या वजह हो सकती है ? क्या मीडिया वाकई जनभावनाओं का प्रतिनिधित्व कर रहा है ? क्या मंदी की भंवर में फ़ंसा मीडिया खुद को इसकी जद से बाहर लाने की कोशिश में जुटा है ? क्या इसके पीछे टीआरपी का अर्थशास्त्र है ..? या फ़िर मीडिया पर युद्ध की नई टेक्नालॉजी के प्रयोग में सहयोग का कोई दबाव है ...? वजह चाहे जो भी हो पर मीडिया पहले समाज के प्रति जवाबदेह है । उसकी वफ़ादारी बाज़ार, सरकार और देश से भी पहले जनहित के लिए होना चाहिए , जिसकी चिंता के दावे पर ही मीडिया की विश्वसनीयता टिकी है ।

दरअसल , मीडिया वास्तविक अर्थों में तभी आज़ाद है, जब वह सरकार के अलावा मुनाफ़े के दबाव से भी मुक्त हो । मीडिया अपनी ताकत का इस्तेमाल युद्ध के विकल्प सुझाने में करे , तो शायद वह अपनी भूमिका को सार्थक कर सकेगा । युद्ध का माहौल बनाने से संभव है मीडिया का फ़ायदा बढ जाए लेकिन किस कीमत पर ...? इस वक्त सख्त ज़रुरत है दोनों देशों के बीच तनाव कम करने और मसले को शान्ति से निपटाने के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करने की ।

गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

पाकिस्तान ने फ़िर तरेरी आँखें


पाकिस्तान ने आज सारी दुनिया के सामने खुद को पाक साफ़ बताते हुए युद्ध की संभावनाओं से इंकार किया है । बेनज़ीर की मज़ार पर पाक प्रधानमंत्री युसूफ़ रज़ा गिलानी ने भारत के साथ रिश्ते सामान्य होने की बात कही । साथ ही कहा कि उनका मुल्क जंग नहीं चाहता । गिलानी ने उल्टे भारत पर तोहमत जड दी कि भारतीय प्रधानमंत्री पर युद्ध का भारी दबाव है । यानी उल्टा चोर कोतवाल को डांटे ...।

एक तरफ़ तो मीडिया के सामने शांति का राग अलापा जा रहा है । वहीं दूसरी ओर राजस्थान से सटी सीमा पर भारी तादाद में सेना का जमावडा किया जा रहा है । शांति की बात हाथ में बंदूक लेकर तो नहीं की जाती ...? पाकिस्तान से इसी तरह के दोगलेपन की उम्मीद है ।

गिलानी इतने पर ही नहीं रुके । उन्होंने तो यहां तक कह डाला कि करांची धमाके में मुम्बई हमले की बनिस्बत कहीं ज़्यादा लोग मारे गये थे । ये भी खूब रही । पाक हर चाल बडी ही चतुराई से चल रहा है और फ़ौरी तौर पर तो यही लग रहा है कि वो कामयाब भी हो रहा है । हर रोज़ नए दांव चलकर पाकिस्तान शातिराना तरीके से भारत को पीछे ठेल रहा है । मज़े की बात तो ये है कि पाकिस्तान ने आज भारत पर आर्थिक पाबंदी लगाने की धमकी तक दे डाली । लीजिए साहब, चूहे ने हाथी की चड्डी भी चुरा ली । लेकिन हाथी तो हाथी है । उसकी सहनशीलता तो देखो वो ऎसी छोटी मोटी बातों पर कुछ नहीं कहता .....।

दांव पेंच में माहिर पाकिस्तान ने एक और शिगूफ़ा छोडा है ,बल्कि यूं कहें कि नई चाल चली है । कसाब के मुद्दे पर घिरते पाकिस्तान ने नहले पर दहला जड कर दुनिया को चौंका दिया है ।
पाकिस्तानी गुप्तचर एजेंसियों ने बुधवार की देर रात एक आदमी को पकड़ा । सतीश आनंद शुक्ला उर्फ मुनीर नाम के इस शख्स के बारे में कहा गया कि वह लाहौर में हुए बड़े बम धमाके का अभियुक्त है। पाक सरकार के अनुसार कोलकाता का मूल निवासी सतीश आनंद शुक्ला उर्फ मुनीर पहले लंदन में भारतीय उच्चायोग में काम कर चुका है। ये अधिकारी दावा करते हैं कि शुक्ला उर्फ मुनीर वास्तव में रॉ का अधिकारी है और जल्दी ही भारत को उसकी पूरी शिनाख्त बता दी जाएगी। साथ ही उसके साथियों की भी सरगर्मी से बहावलपुर में तलाश करने की कवायद की जा रही है , ताकि दावे को पुख्ता किया जा सके । चारों ओर से घिरता दिखाई दे रहा पाकिस्तान आंखें तरेरने से बाज़ नहीं आ रहा ।

लगातार बढ़ते जा रहे तनाव को देखते हुए पाकिस्तान का ताज़ातरीन इल्ज़ाम स्तब्ध कर देने वाला है। पाकिस्तान बहुत पहले से आरोप लगाता रहा है कि भारत की प्रति गुप्तचर एजेंसी रॉ लगातार पाकिस्तान को अस्थिर करने की कोशिश कर रही है और दुनिया के देश इस मामले में सिर्फ पाकिस्तान को ही दोषी ठहरा रहे हैं।

पाकिस्तान मुम्बई हमले के बाद से लगातार पैंतरेबाज़ी कर भारत को उलझा रहा है । हर रोज़ नए - नए दावे ..। नए नए खुलासे ..। कभी हमलों में हिन्दू आतंकियों का हाथ होने की बात कह कर । कभी कसाब को नेपाल का कैदी बताकर । कसाब लगातार पाकिस्तान से मदद की गुहार लगा रहा है । मगर पाक सरकार उससे पल्ला झाड रही है । उसने पाक उच्चायोग को पत्र भेजा है। खत में पाक नागरिक होने के नाते उसे कानूनी मदद देने की अपील की है । उधर पाक प्रधानमंत्री के आंतरिक सुरक्षा सलाहकार रहमान मलिक ने कहा है कि जब तक कसाब का पाकिस्तानी नागरिक होना साबित नहीं हो जाता तब तक उसे कानूनी सहायता देने का सवाल ही नहीं उठता।

कल तक कसाब के पाक नागरिक होने में नवाज़ शरीफ़ को कोई संदेह नहीं था ,लेकिन अब उनके सुर भी बदल गये हैं । दूसरी तरफ़ हमारे देश के नेता अब तक ये ही तय नहीं कर पा रहे कि आखिर वे चाहते क्या हैं ....? वोट की राजनीति ने देश को गृह युद्ध की ओर धकेलने में भी कोई कोर कसर नहीं छोड रखी है ।

कालिदास को भी अक्ल आ गई थी कि जिस शाख पर बैठे हों उसे नहीं काटा जाता , मगर इन बजरबट्टुओं को तो सामने आ पडी मुसीबत भी एकजुट नहीं कर पा रही ।
हालात ऎसे ही रहे तो हो सकता है आने वाले दिनों में पाकिस्तान भारत की दादागीरी का शिकार बनकर दुनिया की नज़रों में बेचारा बन जाए और भारत को आतंकी देश घोषित कराने के लिए ज़बरदस्त लाबिंग में कामयाब रहें । सही मायनों में देखा जाए तो फ़िलहाल पाकिस्तान हर मामले में भारी पड रहा है भारत पर ...।

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

सेना पर तोहमत से पहले , मीडिया झांके अपनी गिरेबां

मुम्बई हमले के बाद सरकार गाइड लाइन बनाकर खबरिया चैनलों पर लगाम कसने की तैयारी में जुट गई है । सूचना और प्रसारण मंत्रालय की एडवायज़री को न्यूज़ चैनलों के संपादकों की संस्था ’ न्यूज़ ब्राडकास्टर्स अथारिटी ’ ने सिरे से खारिज कर दिया है । उलटा तोहमत जड दी है कि सरकार के नाकारापन और नेताओं की बददिमागी को जनता के सामने लाने से बौखला कर यह कदम उठाया जा रहा है । लेकिन बेलगाम और बेकाबू हो चुके खबरिया चैनलों का आरोप क्या सही है ?

ज़ी न्यूज़ पर नौसेना और कोस्ट गार्ड को निशाना बना कर एक ही खबर लगातार हर घंटे दिखाई जा रही है । धीर गंभीर नज़र आने वाले इन पत्रकारों में अचानक अपने पेशे के प्रति इतनी ईमानदारी कहां से पैदा हो गई ? सेना के खिलाफ़ मोर्चा खोलने का यही मौका मिला इन्हें ..? वैसे इन्हें देश की सुरक्षा एजेंसियों पर सरे आम कीचड उछालने का हक किसने दिया ? रक्षा संबधी दस्तावेज़ों को जगज़ाहिर कर महामना पुण्य प्रसून वाजपेयी पत्रकारिता के कौन से मानदंड स्थापित कर रहे है । ये तथ्य तो सभी ने मान लिया है कि केन्द्र सरकार के नाकारापन ने देश को ये दिन दिखाया है ,लेकिन चैनल देश की सेना का मनोबल तोड कर कौन से झंडे गाड रहे हैं ?

दाउद इब्राहीम ,अबू सलेम ,बबलू श्रीवास्तव जैसे लोगों की ’वीर गाथाए” गाने वालों को कोई हक नहीं बनता देश की सुरक्षा व्यवस्था के साथ खिलवाड करने का ..। राखी सावंत , मोनिका बेदी और ऎश्वर्या के प्रेम के चर्चे कर अपने खर्चे निकालने वाले बकबकिया चैनलों की देश को "घूस की तरह पोला " करने में खासी भूमिका रही है । प्रो. मटुकनाथ को ’ लव गुरु” के खिताब से नवाज़ कर सामाजिक दुराचार को प्रतिष्ठित करने वाले किस हक से सामाजिक सरोकारों का सवाल उठाते हैं ?

इलेक्ट्रानिक मीडिया को भाट - चारण भी नहीं कहा जा सकता । इन्हें मजमा लगाने वाला कहना भी ठीक नहीं होगा ,क्योंकि डुगडुगी बजा कर भीड जुटाने वाला मदारी भी तमाशबीनों के मनोरंजन के साथ - साथ बीच - बीच में सामाजिक सरोकारों से जुडी तीखी बात चुटीले अंदाज़ में कहने से नहीं चूकता । सदी के महानायक के इकलौते बेटे के विवाह समारोह में सार्वजनिक रुप से लतियाए जाने के बाद कुंईं -कुंई ..... करते हुए एक बार फ़िर उसी चौखट पर दुम हिलाने वाले ये लोग क्या वाकई देश के दुख में दुबले हो रहे हैं .........?

सबसे तेज़ होने का दम भरने वाले खबरची चैनल में काम कर चुके मेरे एक मित्र ने बताया था कि उन्हें सख्त हिदायत थी कि समाज के निचले तबके यानी रुख्रे - सूखे चेहरों से जुडे मुद्दों के लिए समाचार बुलेटिन में कोई जगह नहीं है । ये और बात है कि चैनल को नाग - नागिन के जोडे के प्रणय प्रसंग या फ़िर नाग के मानव अवतार से बातचीत का चौबीस घंटे का लाइव कवरेज दिखाने से गुरेज़ नहीं ।

क्या ये चैनल देश को भूत - प्रेत , तंत्र मंत्र , ज्योतिष , वास्तु की अफ़ीम चटाने के गुनहगार नहीं हैं ? इतना ही नहीं क्राइम और इस तरह की खबरों से परहेज़ का दावा करने वाले एक चैनल ने मानव अधिकारों और धर्म निरपेक्षता के नाम पर जहर फ़ैलाने के सिवाय कुछ नहीं किया । अमीरों और गरीबों के बीच की लकीर को गहरा करने का श्रेय भी काफ़ी हद तक इन्हीं को जाता है । इसी चैनल ने चमक - दमक भरे आधुनिक वातानुकूलित बाज़ारों में बिकने वाली चीज़ों का बखान कर मध्यम वर्ग को ललचाया । पहुंच से बाहर की चीज़ों को येन केन प्रकारेण हासिल करने की चाहत के नतीजे सबके सामने हैं । देश में ज़मीर की कीमत इतनी कम पहले कभी नहीं थी । तब भी नहीं जब लोगों के पास ना दो वक्त की रोटी थी और ना तन ढकने को कपडा ...। देश में फ़िलहाल सब कुछ बिकाऊ है ... सब कुछ .....जी हां सभी कुछ ..........।

इसका मतलब कतई ये नहीं कि सेना में अनियमितताएं नहीं हो रही । लेकिन मीडिया को अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास करना ही होगा , क्योंकि इस समय एकजुट होकर सबसे बडी समस्या का मुकाबला करने की दरकार है । मीडिया इतनी ही गंभीर है , तो ये बातें पहले क्यों नहीं उठाई या देश हित में कुछ दिन रुकने का संयम और सब्र क्यों नहीं रखा ? पहले जनता को रासरंग में डुबो कर गाफ़िल बनाया , फ़िर मुम्बई हमले के लाइव कवरेज और गैर ज़िम्मेदाराना बातों से देश की स्थिति को अंतरराष्ट्रीय स्तर कमज़ोर करने का पाप किया , इस कुकर्म को छिपाने के लिए नेताओं के खिलाफ़ बन रहे माहौल भुनाने में कोर कसर नहीं छोडी और अब किसी भी तरह के नियंत्रण से इंकार की सीनाज़ोरी ......।

बडा कनफ़्यूज़न है । चैनल देश के लिए वाकई चिंतित हैं या कमाई के लिए देश के दुश्मनों के हाथ का खिलौना बन चुके हैं कह पाना बडा ही मुश्किल है । हे भगवान [ अगर वाकई तू है तो ...] इन शाख पर बैठे उल्लुओं को सदबुद्धि दे । इन्हें बता कि देश हित में ही इनका हित है । देश में हालात माकूल होंगे तभी इनका तमाशा चमकेगा । अफ़रा तफ़री के माहौल में तो बोरिया बिस्तर सिमटते देर नहीं लगेगी । सेना देश का आत्म सम्मान और गौरव है । उसके खिलाफ़ संदेह के बीज बो कर जाने - अनजाने दुश्मनों के हाथ मज़बूत करना राष्ट्रद्रोह है........

आते - आते आएगा उनको खयाल
जाते - जाते बेखयाली जाएगी ।


चित्र - बीबीसी हिन्दी डाट काम से साभार

शुक्रवार, 28 नवंबर 2008

नाकारा रहनुमाओं ने देश को किया शर्मसार

कभी ना थमने वाली मुम्बई की रफ़्तार पर २६ नवंबर की रात से लगा ब्रेक राष्ट्रीय शर्म का प्रतीक है । मुम्बई के आतंकी हमलों ने देश के सुरक्षा इंतज़ामात और खुफ़िया तंत्र के कामकाज की पोल खोलकर रख दी है । हर आतंकी हमले के बाद अगली मर्तबा कडा रुख अपनाने का रटा रटाया जुमला फ़ेंकने के बाद केंन्द्र भी फ़ारिग हो गया ।

आतंक से लडने की बजाय नेता फ़िर एक दूसरे पर कीचड उछालने में मसरुफ़ हो गये हैं । प्रधानमंत्री देश को मुश्किल घडी में एकजुट करने और जोश - जज़्बे से भरने की बजाय भविष्य की योजनाओं का पुलिंदा खोल कर क्या साबित करना चाहते थे । पोची बातों को सुनते - सुनते देश ने पिछले आठ महीनों में पैंसठ से ज़्यादा हमले अपने सीने पर झेले हैं ।

गृह मंत्री का तो कहना ही क्या । अपनी पोषाकों के प्रति सजग रहने वाले पाटिल साहब देश की सुरक्षा को लेकर भी इतने ही संजीदा होते ,तो शायद आज हालात कुछ और ही होते । गृह राज्य मंत्रियों को संकट की घडी में भी राजनीति करने की सूझ रही है । बयानबाज़ी के तीर एक दूसरे पर छोडने वाले नेताओं के लिए ये हमला वोटों के खज़ाने से ज़्यादा कुछ नहीं ।

सेना के तीनों अंगों ने नेशनल सिक्योरिटी गार्ड और रैपिड एक्शन फ़ोर्स की मदद से पूरे आपरेशन को अंजाम दिया और बयानबाज़ी करके वाहवाही लूट रहे हैं आर आर पाटिल । महाराष्ट्र पुलिस के मुखिया ए. एन राय तो इस मीडिया को ब्रीफ़ करते रहे , मानो सारा अभियान पुलिस ने ही सफ़लता से अंजाम दिया हो ।

सुना था कि मुसीबत के वक्त ही अपने पराए की पहचान होती है । लेकिन भारत मां को तो निश्चित ही अपने लाडले सपूतों [ नेताओं ] की करतूत पर शर्मिंदा ही होना पडा होगा । आतंकियों के गोला बारुद ने जितने ज़ख्म नहीं दिए उससे ज़्यादा तो इन कमज़र्फ़ों की कारगुज़ारियों ने सीना छलनी कर दिया ।

रही सही कसर कुछ छद्म देशप्रेमी पत्रकार और उनके भोंपू [चैनल] पूरी कर रहे हैं । सरकार से मिले सम्मानों का कर्ज़ उतारने के लिए खबरची किसी का कद और स्तर नापने की कोशिश में खुद किस हद तक गिर जाते हैं , उन्हें शायद खुद भी पता नहीं होता । दूसरे को बेनकाब कर वाहवाही लूटने की फ़िराक में ये खबरची अपने घिनौने चेहरे से लोगों को रुबरु करा बैठते हैं । इन्हें भी नेताओं की ही तरह देश की कोई फ़िक्र नहीं है । इन्हें बस चिंता है अपने रुतबे और रसूख की ।

प्रजातंत्र के नाम पर देश को खोखला कर रहे इन ढोंगियों को अब लोग बखुबी पहचान चुके हैं । इस हमले ने रहे सहे मुगालते भी दूर कर दिए हैं । नेताओं की असलियत भी खुलकर सामने आ चुकी है और सेना की मुस्तैदी को भी सारी दुनिया ने देखा है ।

ऎसा लगता है देश के सड गल चुके सिस्टम को बदलने के लिए अब लोगों को सडकों पर आना ही होगा । रक्त पिपासु नेताओं के चंगुल से भारत मां को आज़ाद कराने के लिए अब ठोस कार्रवाई का वक्त आ चुका है । इनके हाथ से सत्ता छीन कर नया रहनुमा तलाशना होगा , नई राह चुनना होगी , नई व्यवस्था लाना होगी । इस संकल्प के साथ हम सभी को एक साथ आगे बढना होगा ।

आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है
आज की रात ना फ़ुटपाथ पे नींद आएगी
सब उठो , मैं भी उठूं , तुम भी उठो ,तुम भी उठो
कोई खिडकी इसी दीवार में खुल जाएगी ।

मंगलवार, 18 नवंबर 2008

एटीएस - एक कदम आगे दो कदम पीछे .......?

महाराष्ट्र एंटी टेरेरिस्ट स्क्वाड-एटीएस की हिन्दू आतंकवाद की सनसनीखेज़ कहानी में एकता कपूर के अंतहीन धारावाहिक ’क्योंकि सास ...’ की तरह हर रोज़ नए किरदार जुडते जा रहे हैं । कहानी में हर गुज़रते दिन के साथ नया टविस्ट आ रहा है । अब तो हालत ये है कि एटीएस को खुद पता नहीं कि मामले की शुरुआत कहां से की गई थी । अपने आकाओं के इशारे पर रोज़ ब रोज़ नए खुलासों का दम भरने वाली एटीएस खुद नहीं जानती कि उसका अगला कदम क्या होगा ।

कल तक समझौता ब्लास्ट मामले में आरडीएक्स का नामो निशान नहीं था । एफ़एसएल की रिपोर्ट को दरकिनार कर अचानक धमाके में आरडीएक्स के इस्तेमाल का शिगूफ़ा छोडने वाली जांच एजेंसी को पोल खुलते ही बैक फ़ुट पर जाना पडा । लेकिन हद तो तब हो गई ,जब हरियाणा पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी की बात को झुठलाते हुए कल एकाएक रेलवे पुलिस की महिला अधिकारी खबरिया चैनल पर समझौता एक्सप्रेस में हुए ब्लास्ट में आरडीएक्स के उपयोग की बात कहती नज़र आईं । लगता है लालू यादव रेल महकमे का इस्तेमाल राजनीतिक रोटियां सेंकने में कर रहे हैं । जांच की तेज़ रफ़्तार और नित नए विस्फ़ोटक खुलासों ने और कुछ किया हो या ना किया हो , मगर एटीएस की मंशा का पर्दाफ़ाश ज़रुर कर दिया ।

और कुछ करते या नहीं , कम से कम कहानी की स्क्रिप्ट तो कसी हुई बनाते । किसी फ़िल्मी स्क्रिप्ट राइटर से संपर्क करते , तो हर रोज़ फ़जीहत तो नहीं होती । मेरा दस साल का बेटा मुझसे दिन में कई मर्तबा पूछता है कि साठ किलो आरडीएक्स तो बहुत सारा होता है । अंकल सेना से छुपाकर कब और कैसे ले गये ..? क्या उन्हें किसी ने देखा नहीं ? उधर सेना में आरडीएक्स का उपयोग ही नहीं होने की बात ने लोगों को उलझन में डाल दिया है ।

हर रोज़ नया मोड लेती कहानी ने लोगों को भ्रमित कर दिया है । आम जनता हकीकत जानने को बेताब है । लेकिन सच्चाई पर झूठ के मुलम्मे इस कदर चढ चुके हैं कि लोगों का यकीन डगमगाने लगा है ।

मेरी एक रिश्तेदार ने ऎसा सवाल किया , जिससे मैं भी हैरत में पड गई । उन्होंने कहा कि साध्वी निश्चित ही धमाकों की साज़िश में शामिल है , लेकिन अपनी योग साधना के बूते वे चार -चार बार हुए नार्को टेस्ट को चकमा देने में कामयाब हो गई । ये बानगी है , उस जनता की जिसे राजनेता अपनी धूर्तता से आसानी से छलने में कामयाब हो जाते हैं ।

इस बीच खबर ये भी है कि एटीएस ने हिंदू आतंकवाद की कहानी को और आगे तक ले जाने की ठान ली है। उसकी सूची में कॉर्पोरेट क्षेत्र में काम कर रहे कई कश्मीरी पंडित, पत्रकार, फिल्मकार और कुछ रिटायर्ड अधिकारी शामिल हैं जिन्हें पूछताछ के लिए हिरासत में लेने की अनुमति उसने मुंबई पुलिस के कमिश्नर से मांगी हैं ।

एटीएस अपने ही रचे जाल में बुरी तरह फंस गई है । ले. कर्नल श्रीकांत पुरोहित और साध्वी प्रज्ञा से हुई पूछताछ में उसे अब तक कोई ऐसी जानकारी हाथ नहीं लगी है जिसके आधार पर वह मामला आगे बढ़ा सके।

उधर कर्नल पुरोहित का नार्को टेस्ट भी विवादों में घिर गया है । सेना के अधिकारियों ने पुरोहित के नार्को टेस्ट की वीडियोग्राफ़ी के लिए अपना कैमरा लगाने की मांग की थी लेकिन इसे स्वीकार नहीं किया गया । एटीएस अधिकारियों ने दावा किया कि परीक्षण का वीडियो बनाने का इंतजाम किया गया है , लेकिन बाद में पता चला कि वीडियो कैमरे में कुछ खराबी आ गई , जिससे रिकार्डिंग नहीं हो सकी । वैसे भी कर्नल पुरोहित पर जितने आरोप लगाए गए हैं, विस्फोटों के मामले में सिमी और दूसरे संगठनों के कार्यकर्ताओं के परीक्षण और बयानों से उन आरोपों की पुष्टि होने की कोई संभावना नहीं हैं ।


देश के अमन चैन के दुश्मन बन कर सत्ता हासिल करने की जुगाड में लगे राजनेताओं को अपने फ़ायदे के सिवाय कुछ नज़र नहीं आ रहा । असली देशद्रोही ये सेक्युलर नेता हैं , जो तुष्टिकरण का ज़हर बोकर देश की फ़िज़ा बिगाडने पर आमादा हैं । खबर है कि कल मस्ज़िद बचाओ तहरीक के नुमाइंदों ने हैदराबाद में साध्वी और ले. कर्नल पुरोहित का पुतला फ़ूंखा । देश के रहनुमाओं की हालत तो उस ऎय्याश ज़मींदार जैसी है , जो शराबखोरी और अय्याशी में सब कुछ गंवा देने के बाद भी बाज़ नहीं आता और अपनी रंगीन तबियत के चलते आने बच्चों को भी कर्ज़दार बना जाता है । कहते हैं - लम्हों ने खता की थी ,सदियों ने सज़ा पाई । ’

अपने सियासी नफ़े के लिए देश की अस्मिता से खिलवाड करने वाले इन रक्त बीजों को महज़ चुनाव में मज़ा चखाने का संकल्प लेना नाकाफ़ी है । इन्हें तो हर वक्त हर मोर्चे पर मुंह तोड जवाब देने की ज़रुरत है । ना जाने मेरे देश के लोग कब जागेंगे , कब आएगा उनमें इतना साहस कि वे इनसे हिसाब मांगें .........?

इसको मज़हब कहो , या सियासत कहो
खुदकुशी का हुनर तुम सिखा तो चले
बेलचे लाओ , खोलो ज़मीं की तहें
मैं कहां दफ़्न हूं , कुछ पता तो चले ।

मंगलवार, 4 नवंबर 2008

सियासी दांव पेंचों में गुम अवाम की आवाज़

साध्वी प्रज्ञा सिंह की गिरफ़्तारी को लेकर उठ रहे सवालों की फ़ेहरिस्त हर गुज़रते दिन के साथ लंबी होती जा रही है । आज कैलाश सोलंकी ने इंदौर में मीडिया के सामने आकर बयान दिया कि उसने कोर्ट में कोई हलफ़नामा नहीं दिया है । उसने मामले के मोस्ट वांटेड आरोपी रामजी को जानने की बात त्तो मानी लेकिन साध्वी से जान पहचान की बात को सिरे से नकार दिया । कैलाश के मुताबिक प्रज्ञा सिंह और रामजी के बीच फ़ोन पर हुई बातचीत के बारे में उससे कुछ पूछा ही नहीं गया और ना ही वो इस बारे में कुछ जानता है ।

दूसरी तरफ़ मालेगांव धमाकों को लेकर एटीएस द्वारा हिरासत में लिए गए शिवनारायण और फ़रार रामजी के पिता गोपाल सिंह ने इंदैर में पत्रकारों के सामने अपने गायब होने की खबरों की हकीकत बयान कर एटीएस के दावों की हवा निकाल दी । उनका दावा है कि उनका परिवार अब भी शाजापुर ज़िले के गोपीपुर गांव में ही रहता है । ऎसे में पूरे मामले पर सवाल उठना लाज़मी है । पुलिस के आला अफ़सरान भी मानते हैं कि साध्वी प्रज्ञा सिंह के खिलाफ़ फ़िलहाल कोई ठोस सबूत नहीं । यही वजह है कि आरोप को पुख्ता बनाने के लिए नार्को टेस्ट का सहारा लेना पड रहा है ।

इस पूरे वाकये को कई दिन से टीवी चैनलों पर देखने के बाद एक बात जो मुझे लगातार परेशान कर रही है , वो है साध्वी के चेहरे का नकाब । हालांकि मेरे इस सवाल से की लोग इत्तेफ़ाक नहीं रखते हों । मगर मुझे लगता है कि प्रज्ञा सिंह बेकसूर हैं , तो चेहरा छुपाने की ज़रुरत उन्हें तो कतई नहीं । और अगर उन्होंने अपनी राष्ट्रवादी विचारधारा के कारण इस घटना को वाकई अंजाम दिया है , तब भी यह मुंह छिपाने की नहीं गर्वोन्नत होने का मौका है । उनका इस तरह लोगों के बीच चेहरा ढंक कर आना क्या संकेत देता है , फ़िलहाल कह पाना बडा ही मुश्किल है ।

बहरहाल सवाल घूम फ़िर कर वही ? कहीं आतंकवाद का मुद्दा खत्म करने की रणनीति तो नहीं ? लेकिन क्या इसके नतीजों पर भी गौर किया गया है ? हिन्दुओं और मुसलमानों में खाई बढा देगी ये साज़िश । और अगर यह सच नहीं तो क्या सचमुच हिन्दुओं के सब्र का पैमाना छलकने लगा है ? क्या सीमा की हिफ़ाज़त के लिए कुर्बानी की कसम से बंधे जांबाज़ फ़ौजी सचमुच आतंकवादियों के प्रति सरकार के नरम रवैए से हताश हैं ? सेना से रिटायर अधिकारी क्या किसी नौसीखिए कथित राष्ट्र्वादी का साथ दे सकते हैं ? अगर पुलिस की थ्योरी में वाकई दम है तो ये साफ़ संकेत है देश के हुक्मरानों के लिए कि जनता का शासकों पर भ्ररोसा दिन ब दिन कम होता जा रहा है । सियासी दांव - पेंचों में अवाम की आवाज़ और दर्द कहीं पीछे छूटता जा रहा है

लेकिन अकेले सरकार को ही कसूरवार ठहराना काफ़ी नहीं । दरअसल आतंकवाद को मज़हबी चश्मे से देखना भी आतंकवाद से कम खतरनाक नहीं है । बल्कि एक तरह से दहशतगर्दी को खाद - पानी देने जैसा है । आतंकवाद संवेदनशील मुद्दा है । ये देश की इस दौर की सबसे गंभीर समस्याओं में से एक है । इस संजीदा मसले को फ़िरकापरस्ती का रंग देकर हल्का करना देश पर भारी पड सकता है । मज़हबी नज़रिए से जहां ये मुद्दा पेचीदा होता जा रहा है , वहीं कांग्रेस और समाजवादी पार्टी जैसे मध्यमार्गी दलों की तुष्टिकरण की नीति के चलते बेहद खतरनाक मोड पर आ पहुंचा है । इसे कानून व्यवस्था, शांति और सुरक्षा की समस्या मानकर ईमानदारी से हल करने की कोशिश होना चाहिए , क्योंकि आंतरिक सुरक्षा का मसला देश के विकास से सीधे तौर पर जुडा है ।

मेरे कांधे पे बैठा कोई
पढता रहता है इंजीलो-कुरानो-वेद
मक्खियां कान में भनभनाती हैं
ज़ख्मी हैं कान
अपनी आवाज़ कैसे सुनूं ।

गुरुवार, 30 अक्तूबर 2008

हिन्दू अतिवाद की सियासत में सेना बनी मोहरा

’ ये तेरा सच ,ये मेरा सच , किसी को देखना है गर
तो पहले आकर मांग ले मेरी नज़र ,तेरी नज़र । ’
देश में इन दिनों हालात कुछ ऎसे ही हैं । हर शख्स हरेक घटना को अपने नज़रिए से देखने का आदी हो चुका है । हिन्दू आतंकवाद के नए चेहरे के खुलासे के बाद से तथाकथित सेक्युलर दलों की बांछें खिलीं हुईं हैं । फ़िज़ा में चारों तरफ़ हिन्दू कट्टरवाद के दिल दहला देने सच के बेनकाब होने की किस्सागोई फ़ैली हुई है । समाचार चैनलों ने साध्वी प्रज्ञा सिंह और सेना के पूर्व अधिकारियों को जिस अंदाज़ में पेश किया है , लगता है मानो पूरा देश इनकी ही बदौलत बारुद के ढेर पर बैठा हो ।

राजनीतिक नफ़े नुकसान को ध्यान में रखकर गढी गई शाब्दिक परिभाषाओं का सच अब खुद- ब-खुद सामने आने लगा है । बहुसंख्यकों की बात करने वाले को शक की निगाह से देखा जाता है । अब अल्पसंख्यकों की चिंता में घडियाली आंसू बहाना धर्म निरपेक्श्ता और बहुसंख्यकों के बुनियादी मसलों की चर्चा सांप्रदायिकता है । हालात इतने बिगड चुके हैं कि ८० करोड लोगों के बारे में बोलना कट्टरवादी या सांप्रदायिक होने का लेबल लगाने का पर्याप्त आधार बन गया है ।

महाराष्ट्र एटीएस जांच के बहाने मीडिया ने प्रज्ञा सिंह को रातों रात हिन्दू अतिवादी बना दिया है । इसमें साज़िश की बू आती है । मालेगांव और मोडासा बम धमाकों का आरोप मढने के पीछे मकसद देश की बडी समस्याओं से लोगों का ध्यान हटाना है । ज्वलंत समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए रची गई इस राजनीतिक साज़िश के नतीजे खतरनाक होने वाले हैं । ओछी राजनीति ने देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्शा को भी दांव पर लगा दिया है ।

बटला हाउस एनकाउंटर पर मचे बवाल ने पुलिस का मनोबल तोडा है । ज़बानी युद्ध लडने वाले नेताओं ने जांबाज़ अफ़सर की कुर्बानी पर सवाल खडॆ कर सियासी फ़ायदा भले ही ले लिया हो ,लेकिन देश की आंतरिक हिफ़ाज़त में जुटे तबके को निराशा से भर दिया है । लगता है इन घर फ़ूंक तमाशबीनों की तबियत इससे भी नहीं भरी । अब ये सैन्य अधिकारियों को आतंकी साज़िश का हिस्सा बताने पर तुले हैं । सेना के पूर्व अधिकारियों के साथ सेवारत अफ़सरों को भी लपेटे में लिया जा रहा है । हिन्दू अतिवादियों का मददगार बता कर सेना के खिलाफ़ मीडिया पर दिन - दिन भर चलाई जा रही खबरों का असर कहां - कहां तक और कितना गंभीर होगा ,इस पर सोचा है किसी ने ?

देश की सीमाओं की हिफ़ाज़त करने वाले जांबाज़ों की ओर उठने वाली शक भारी निगाहें क्या गुल खिलाएंगी । इसकी कल्पना मात्र से मन चिंता और डर से भर जाता है । अब तो सेना में मज़हब आधारित सर्वे का शिगूफ़ा भी इसी साज़िश का हिस्सा नज़र आता है । जब केंद्र में कमज़ोर शासक होता है , सूबे के सियासतदान अपने फ़ौरी फ़ायदों के लिए सिर उठाने लगते हैं । मज़हब , प्रांत , भाषा की लडाइयां इसी का नतीजा हैं । देश में लंबे समय से वैसे ही आपसी संघर्ष के हालात हैं । ऎसे में इस नई चुनौती का सामना करने की कुव्वत क्या देश में बाकी है ?

हादिसा कितना कडा है कि सरे - मंज़िले - शौक
काफ़िला चंद गिरोहों में बंटा जाता है
एक पत्थर से तराशी थी जो तुमने दीवार
इक खतरनाक शिगाफ़ उसमें नज़र आता है