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सोमवार, 22 दिसंबर 2008

चुनाव जीतते ही जान के पडे लाले

मध्यप्रदेश में हाल ही में चुन कर आए विधायकों को जान का खतरा है । चंद दिन पहले तक आम जनता के बीच बेखौफ़ जाने वाले नेताओं को वोटों की गिनती में विरोधी से आगे निकलते ही जान का डर सताने लगा है । कल तक जिन नेताओं की जान जनता में बसती थी , जीत मिलते ही उनमें ज़िंदगी की हिफ़ाज़त के लिए सुरक्षा की चाहत सिर उठाने लगी है ।

इस की पुष्टि मध्यप्रदेश पुलिस मुख्यालय की इंटेलीजेंस शाखा को मिले चार दर्जन से ज़्यादा आवेदन करते हैं । क्षेत्रीय नेता के तौर पर बरसों से निडर घूमने वाले नेता एकाएक इतने असुरक्षित कैसे हो गये ..?

प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस के चालीस से अधिक विधायकों ने जान जोखिम में बताकर गनमैन की गुहार लगाई है । नए विधायकों ने गनमैन हासिल कर रौब रुतबा गालिब करने के लिए बहाने भी खूब गढे हैं । किसी को अपने इलाके के डकैतों से खतरा है ,तो कोई नक्सलियों की गोलियों से खौफ़ज़दा है । जितने नेता , उतने बहाने ......। अभी तक करीब एक दर्ज़न विधायकों को अस्थाई तौर पर गनमैन दे दिए गए हैं ।

पुलिस के आला अफ़सर भी मानते हैं कि ज़्यादातर नेताओं के लिए बंदूकधारी के साए में चलना स्टॆटस सिंबल के अलावा कुछ नहीं । एक आईपीएस की टिप्पणी काबिले गौर है ” जब जनप्रतिनिधि ही असुरक्षित हैं ,तो ऎसे में राज्य की छह करोड से अधिक जनता का भगवान ही मालिक है ।" उनका कहना है कि जहां केन्द्र सरकार वीआईपी सुरक्षा में कटौती कर रही है ,वहीं प्रदेश में जनप्रतिनिधि लगातार गनमैन की मांग उठाकर जनता में कानून व्यवस्था के प्रति संदेह पैदा कर रहे हैं ।

मुम्बई हमले के बाद नेताओं के खिलाफ़ जनता का गुस्सा फ़ूट पडा था और उनकी हिफ़ाज़त के लिए सुरक्षा बलों की तैनाती पर भी सवालिया निशान लगाए गये । लोगों ने सडकों पर आकर नेताओं की जमकर मज़म्मत की और सुरक्षा घेरे से बाहर आकर आम जनता सा जीवन जीने की हिदायत दे डाली । दो - चार दिन के शोर शराबे के बाद जनता ने अपनी राह पकड ली और नेता अपने तयशुदा रवैए के साथ एक मर्तबा फ़िर उसी रंग में नज़र आने लगे । नेताओं के प्रति जनता का गुस्सा यानि चार दिन की चांदनी फ़िर अंधेरी रात ....।

देश में कुल सेना 37 लाख 89 हजार तीन सौ है तो राजनीति करने वाले चुने हुये नुमाइन्दों की तादाद 38 लाख 67 हजार 902 है । यह तादाद सिर्फ जनता का वोट लेकर आए नेताओं की है। सांसद से लेकर ग्राम पंचायत तक मतों के ज़रिए चुन कर आने का दावा करने वालों की संख्या का ब्यौरा तैयार किया जाए , तो यह आंकडा करोड़ तक पहुंचने में वक्त नहीं लगेगा ।

किसी ज़माने में जन सेवा का दर्ज़ा हासिल करने वाली राजनीति ने अब संगठित व्यवसाय का बाना पहन लिया है । शालीनता और विनम्रता के कारण राजनेताओं के लिए आदर सम्मान का भाव हुआ करता था । लेकिन अब सियासत में कारपोरेट कल्चर के दखल के चलते रौब दाब और रसूख का बोलबाला है । देश में राजनीति एक सफ़ल उभरते उद्योग की शक्ल ले चुका है । यही वजह है कि मंदी की खौफ़नाक तस्वीर के बीच भारतीय राजनीति अब भी सबसे ज्यादा रोजगार देनी वाली संस्था कही जा सकती है ।

राजनीति परवान चढ रही है सुरक्षाकर्मियों के भरोसे । देश में मिलेट्री शासन नही लोकतंत्र है , यह कहने की जरुरत नही है। लेकिन लोकतंत्र सुरक्षा घेरे में चल रहा है यह समझने की जरुरत जरुर है। पुलिसकर्मियों में से तीस फीसदी पुलिस वालो का काम वीआईपी सुरक्षा देखना है। यानि उन नेताओं की सुरक्षा करना जिन्हें जनता ने चुना है। औसतन एक पुलिसकर्मी पर महिने में उसकी पगार , ट्रेनिग और तमाम सुविधाओ समेत पन्द्रह हजार रुपये खर्च किये जाते है। देश के साठ फीसदी पुलिसकर्मियों को दो वक्त की रोटी के इंतज़ाम जितनी ही त्तनख्वाह मिलती है ।

मंगलवार, 4 नवंबर 2008

सियासी दांव पेंचों में गुम अवाम की आवाज़

साध्वी प्रज्ञा सिंह की गिरफ़्तारी को लेकर उठ रहे सवालों की फ़ेहरिस्त हर गुज़रते दिन के साथ लंबी होती जा रही है । आज कैलाश सोलंकी ने इंदौर में मीडिया के सामने आकर बयान दिया कि उसने कोर्ट में कोई हलफ़नामा नहीं दिया है । उसने मामले के मोस्ट वांटेड आरोपी रामजी को जानने की बात त्तो मानी लेकिन साध्वी से जान पहचान की बात को सिरे से नकार दिया । कैलाश के मुताबिक प्रज्ञा सिंह और रामजी के बीच फ़ोन पर हुई बातचीत के बारे में उससे कुछ पूछा ही नहीं गया और ना ही वो इस बारे में कुछ जानता है ।

दूसरी तरफ़ मालेगांव धमाकों को लेकर एटीएस द्वारा हिरासत में लिए गए शिवनारायण और फ़रार रामजी के पिता गोपाल सिंह ने इंदैर में पत्रकारों के सामने अपने गायब होने की खबरों की हकीकत बयान कर एटीएस के दावों की हवा निकाल दी । उनका दावा है कि उनका परिवार अब भी शाजापुर ज़िले के गोपीपुर गांव में ही रहता है । ऎसे में पूरे मामले पर सवाल उठना लाज़मी है । पुलिस के आला अफ़सरान भी मानते हैं कि साध्वी प्रज्ञा सिंह के खिलाफ़ फ़िलहाल कोई ठोस सबूत नहीं । यही वजह है कि आरोप को पुख्ता बनाने के लिए नार्को टेस्ट का सहारा लेना पड रहा है ।

इस पूरे वाकये को कई दिन से टीवी चैनलों पर देखने के बाद एक बात जो मुझे लगातार परेशान कर रही है , वो है साध्वी के चेहरे का नकाब । हालांकि मेरे इस सवाल से की लोग इत्तेफ़ाक नहीं रखते हों । मगर मुझे लगता है कि प्रज्ञा सिंह बेकसूर हैं , तो चेहरा छुपाने की ज़रुरत उन्हें तो कतई नहीं । और अगर उन्होंने अपनी राष्ट्रवादी विचारधारा के कारण इस घटना को वाकई अंजाम दिया है , तब भी यह मुंह छिपाने की नहीं गर्वोन्नत होने का मौका है । उनका इस तरह लोगों के बीच चेहरा ढंक कर आना क्या संकेत देता है , फ़िलहाल कह पाना बडा ही मुश्किल है ।

बहरहाल सवाल घूम फ़िर कर वही ? कहीं आतंकवाद का मुद्दा खत्म करने की रणनीति तो नहीं ? लेकिन क्या इसके नतीजों पर भी गौर किया गया है ? हिन्दुओं और मुसलमानों में खाई बढा देगी ये साज़िश । और अगर यह सच नहीं तो क्या सचमुच हिन्दुओं के सब्र का पैमाना छलकने लगा है ? क्या सीमा की हिफ़ाज़त के लिए कुर्बानी की कसम से बंधे जांबाज़ फ़ौजी सचमुच आतंकवादियों के प्रति सरकार के नरम रवैए से हताश हैं ? सेना से रिटायर अधिकारी क्या किसी नौसीखिए कथित राष्ट्र्वादी का साथ दे सकते हैं ? अगर पुलिस की थ्योरी में वाकई दम है तो ये साफ़ संकेत है देश के हुक्मरानों के लिए कि जनता का शासकों पर भ्ररोसा दिन ब दिन कम होता जा रहा है । सियासी दांव - पेंचों में अवाम की आवाज़ और दर्द कहीं पीछे छूटता जा रहा है

लेकिन अकेले सरकार को ही कसूरवार ठहराना काफ़ी नहीं । दरअसल आतंकवाद को मज़हबी चश्मे से देखना भी आतंकवाद से कम खतरनाक नहीं है । बल्कि एक तरह से दहशतगर्दी को खाद - पानी देने जैसा है । आतंकवाद संवेदनशील मुद्दा है । ये देश की इस दौर की सबसे गंभीर समस्याओं में से एक है । इस संजीदा मसले को फ़िरकापरस्ती का रंग देकर हल्का करना देश पर भारी पड सकता है । मज़हबी नज़रिए से जहां ये मुद्दा पेचीदा होता जा रहा है , वहीं कांग्रेस और समाजवादी पार्टी जैसे मध्यमार्गी दलों की तुष्टिकरण की नीति के चलते बेहद खतरनाक मोड पर आ पहुंचा है । इसे कानून व्यवस्था, शांति और सुरक्षा की समस्या मानकर ईमानदारी से हल करने की कोशिश होना चाहिए , क्योंकि आंतरिक सुरक्षा का मसला देश के विकास से सीधे तौर पर जुडा है ।

मेरे कांधे पे बैठा कोई
पढता रहता है इंजीलो-कुरानो-वेद
मक्खियां कान में भनभनाती हैं
ज़ख्मी हैं कान
अपनी आवाज़ कैसे सुनूं ।

गुरुवार, 30 अक्तूबर 2008

हिन्दू अतिवाद की सियासत में सेना बनी मोहरा

’ ये तेरा सच ,ये मेरा सच , किसी को देखना है गर
तो पहले आकर मांग ले मेरी नज़र ,तेरी नज़र । ’
देश में इन दिनों हालात कुछ ऎसे ही हैं । हर शख्स हरेक घटना को अपने नज़रिए से देखने का आदी हो चुका है । हिन्दू आतंकवाद के नए चेहरे के खुलासे के बाद से तथाकथित सेक्युलर दलों की बांछें खिलीं हुईं हैं । फ़िज़ा में चारों तरफ़ हिन्दू कट्टरवाद के दिल दहला देने सच के बेनकाब होने की किस्सागोई फ़ैली हुई है । समाचार चैनलों ने साध्वी प्रज्ञा सिंह और सेना के पूर्व अधिकारियों को जिस अंदाज़ में पेश किया है , लगता है मानो पूरा देश इनकी ही बदौलत बारुद के ढेर पर बैठा हो ।

राजनीतिक नफ़े नुकसान को ध्यान में रखकर गढी गई शाब्दिक परिभाषाओं का सच अब खुद- ब-खुद सामने आने लगा है । बहुसंख्यकों की बात करने वाले को शक की निगाह से देखा जाता है । अब अल्पसंख्यकों की चिंता में घडियाली आंसू बहाना धर्म निरपेक्श्ता और बहुसंख्यकों के बुनियादी मसलों की चर्चा सांप्रदायिकता है । हालात इतने बिगड चुके हैं कि ८० करोड लोगों के बारे में बोलना कट्टरवादी या सांप्रदायिक होने का लेबल लगाने का पर्याप्त आधार बन गया है ।

महाराष्ट्र एटीएस जांच के बहाने मीडिया ने प्रज्ञा सिंह को रातों रात हिन्दू अतिवादी बना दिया है । इसमें साज़िश की बू आती है । मालेगांव और मोडासा बम धमाकों का आरोप मढने के पीछे मकसद देश की बडी समस्याओं से लोगों का ध्यान हटाना है । ज्वलंत समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए रची गई इस राजनीतिक साज़िश के नतीजे खतरनाक होने वाले हैं । ओछी राजनीति ने देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्शा को भी दांव पर लगा दिया है ।

बटला हाउस एनकाउंटर पर मचे बवाल ने पुलिस का मनोबल तोडा है । ज़बानी युद्ध लडने वाले नेताओं ने जांबाज़ अफ़सर की कुर्बानी पर सवाल खडॆ कर सियासी फ़ायदा भले ही ले लिया हो ,लेकिन देश की आंतरिक हिफ़ाज़त में जुटे तबके को निराशा से भर दिया है । लगता है इन घर फ़ूंक तमाशबीनों की तबियत इससे भी नहीं भरी । अब ये सैन्य अधिकारियों को आतंकी साज़िश का हिस्सा बताने पर तुले हैं । सेना के पूर्व अधिकारियों के साथ सेवारत अफ़सरों को भी लपेटे में लिया जा रहा है । हिन्दू अतिवादियों का मददगार बता कर सेना के खिलाफ़ मीडिया पर दिन - दिन भर चलाई जा रही खबरों का असर कहां - कहां तक और कितना गंभीर होगा ,इस पर सोचा है किसी ने ?

देश की सीमाओं की हिफ़ाज़त करने वाले जांबाज़ों की ओर उठने वाली शक भारी निगाहें क्या गुल खिलाएंगी । इसकी कल्पना मात्र से मन चिंता और डर से भर जाता है । अब तो सेना में मज़हब आधारित सर्वे का शिगूफ़ा भी इसी साज़िश का हिस्सा नज़र आता है । जब केंद्र में कमज़ोर शासक होता है , सूबे के सियासतदान अपने फ़ौरी फ़ायदों के लिए सिर उठाने लगते हैं । मज़हब , प्रांत , भाषा की लडाइयां इसी का नतीजा हैं । देश में लंबे समय से वैसे ही आपसी संघर्ष के हालात हैं । ऎसे में इस नई चुनौती का सामना करने की कुव्वत क्या देश में बाकी है ?

हादिसा कितना कडा है कि सरे - मंज़िले - शौक
काफ़िला चंद गिरोहों में बंटा जाता है
एक पत्थर से तराशी थी जो तुमने दीवार
इक खतरनाक शिगाफ़ उसमें नज़र आता है