बीजेपी के बुज़ुर्ग नेता जसवंत सिंह की बेतरह बिदाई ने एक बार फ़िर पार्टी की अंतर्कलह और अंतर्द्वंद्व को सरेराह ला खड़ा किया है । जिन्ना मुद्दे पर पार्टी लाइन से अलग हटकर अपनी बेबाक राय जगज़ाहिर करने का खमियाज़ा आखिरकार जसवंत सिंह को भुगतना ही पड़ा । लेकिन चिंतन बैठक के नाम पर बीजेपी की पार्लियामेंटरी कमेटी का आनन फ़ानन में लिया गया फ़ैसला हैरान करने वाला है । साथ ही यह भी बताता है कि कॉडर बेस्ड पार्टी के तमगे से नवाज़ी जाने वाली पार्टी में बौद्धिक विचार विमर्श की गुँजाइश पूरी तरह खत्म हो चुकी है । पार्टी पर चाटुकार,चापलूस और खोखा-पेटी समर्पित करने का माद्दा रखने वालों का कब्ज़ा हो चुका है ।
जसवंत सिंह की पुस्तक उनकी निजी राय है । वे खुद भी कई बार इस मुद्दे पर अपनी स्थिति स्पष्ट कर चुके हैं । ऎसे में किताब आने के बाद आनन फ़ानन में जसवंत की बिदाई और वो भी बेहद शर्मनाक तरीके से,बीजेपी के मानसिक दीवालियेपन को उजागर करती है । लगातार दो बार से केन्द्र में पराजय का मुँह देखने के बावजूद बीजेपी अपनी खामियों का पता लगाकर उनकी जड़ तक पहुँचने की बजाय शुतुरमुर्गी रवैया अख्तियार कर आत्मघात पर आमादा है । मध्यप्रदेश की ही बात की जाये तो शिवराज जैसे चिरकुट नेताओं की बन आई है,जो अपने नाकारापन को छिपाने के लिये केन्द्रीय नेतृत्व को खुश करने के तरीके आज़मा कर सरकारी खज़ाने को खाली किये दे रहे हैं ।
राष्ट्र भक्ति का दम भरने वाले आरएसएस में भी ऎसे कार्यकर्ताओं का बोलबाला हो चुका है , जो येनकेन प्रकारेण सत्तासुख में भागीदार हो जाना चाहते हैं । बरसों खून पसीना एक कर बीजेपी को इस मुकाम तक लाने वाले कार्यकर्ताओं की बजाय दलाल और गुंडा तत्वों के हावी हो जाने से वैचारिकता का संकट गहराने लगा है । विरोध के स्वर उठाने वालों को खरीद लो या तोड़ दो की नीति पर चलने वाली इस नई भाजपा का अंत सुनिश्चित जान पड़ता है । जिन्ना पर लिखी गई किताब एक संकेत मात्र है , जो बताता है कि हम सभी में "सच का सामना" करने की क्षमता आज तक विकसित नहीं हो सकी है ।
एक नागरिक और विचारवान व्यक्तित्व की हैसियत से जसवंत सिंह को अपनी बात रखने का पूरा हक है । उनके तर्कों पर सहमति-असहमति ज़ाहिर की जा सकती है , लेकिन इतिहास के पन्नों में दर्ज़ तारीख को मिटाया या बदला नहीं जा सकता । इतिहास के सटीक विश्लेषण और पुरानी गल्तियों से सबक लेकर ही आगे की राह आसान बनाई जा सकती है । किसी मसले से नज़रें चुराकर या उससे दामन बचाकर निकलने से मुश्किलें खत्म नहीं होतीं , बल्कि वो नई शक्ल में पहले से कहीं ज़्यादा खतरनाक ढ़ंग से सामने आ खड़ी होती हैं । अटल बिहारी वाजपेयी के परिदृश्य से हटने और आडवाणी के कमज़ोर पड़ने के बाद से पार्टी पर दलाल किस्म के लोग काबिज़ हैं । अपनी कुर्सी बचाने और दूसरे को निपटाने में माहिर ये नेता सियासी दाँवपेंचों की बजाय खो-खो के खेल में जुटे हैं । उमा, कल्याण और अब जसवंत सरीखे नेताओं को घसीट कर बाहर फ़ेंक देने की कवायद पार्टी में खत्म होते लोकतंत्र की हकीकत बयान करते हैं ।
बीजेपी को वाकई आगे बढ़ना है , तो कई पहलुओं पर एक साथ काम करना होगा । मौजूदा दौर का बीजेपी मार्का " हिन्दुत्व" जिन्ना के जिन्न से कमतर नहीं । अपना हित साधने के लिये गले में भगवा कपड़ा डालकर गुंडई करने वालों के हिन्दुत्व से पार्टी को निजात दिलाना पहली ज़रुरत है । ये बात सही है कि फ़ंड के बिना पार्टियाँ नहीं चलतीं , लेकिन जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा लूटने की नीयत से सत्ता में काबिज़ लोगों से भी पार्टियाँ ज़्यादा दूर तक नहीं चल सकतीं । पार्टी की दिशा और दशा तय करने वालों को इस बारे में भी सोचना होगा ।
राष्ट्र की ज़मीन, हवा,पानी, जंगल को बेरहमीं से बेच खाने पर आमादा लोग ना तो राष्ट्र भक्त हो सकते हैं और ना ही हिन्दू । इस तथ्य को सामने रख कर ही पार्टी को बचाया और बनाया जा सकता है । वरना फ़िलहाल बीजेपी की स्थिति काँग्रेस के बेहूदा और घटिया संस्करण से इतर कुछ नहीं । इन सत्ता लोलुपों की जमात पर जल्दी ही काबू नहीं पाया गया,तो "यादवी कलह" बीजेपी को पूरी तरह खत्म कर देगी ।
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बुधवार, 19 अगस्त 2009
गुरुवार, 30 अक्तूबर 2008
हिन्दू अतिवाद की सियासत में सेना बनी मोहरा
’ ये तेरा सच ,ये मेरा सच , किसी को देखना है गर
तो पहले आकर मांग ले मेरी नज़र ,तेरी नज़र । ’
देश में इन दिनों हालात कुछ ऎसे ही हैं । हर शख्स हरेक घटना को अपने नज़रिए से देखने का आदी हो चुका है । हिन्दू आतंकवाद के नए चेहरे के खुलासे के बाद से तथाकथित सेक्युलर दलों की बांछें खिलीं हुईं हैं । फ़िज़ा में चारों तरफ़ हिन्दू कट्टरवाद के दिल दहला देने सच के बेनकाब होने की किस्सागोई फ़ैली हुई है । समाचार चैनलों ने साध्वी प्रज्ञा सिंह और सेना के पूर्व अधिकारियों को जिस अंदाज़ में पेश किया है , लगता है मानो पूरा देश इनकी ही बदौलत बारुद के ढेर पर बैठा हो ।
राजनीतिक नफ़े नुकसान को ध्यान में रखकर गढी गई शाब्दिक परिभाषाओं का सच अब खुद- ब-खुद सामने आने लगा है । बहुसंख्यकों की बात करने वाले को शक की निगाह से देखा जाता है । अब अल्पसंख्यकों की चिंता में घडियाली आंसू बहाना धर्म निरपेक्श्ता और बहुसंख्यकों के बुनियादी मसलों की चर्चा सांप्रदायिकता है । हालात इतने बिगड चुके हैं कि ८० करोड लोगों के बारे में बोलना कट्टरवादी या सांप्रदायिक होने का लेबल लगाने का पर्याप्त आधार बन गया है ।
महाराष्ट्र एटीएस जांच के बहाने मीडिया ने प्रज्ञा सिंह को रातों रात हिन्दू अतिवादी बना दिया है । इसमें साज़िश की बू आती है । मालेगांव और मोडासा बम धमाकों का आरोप मढने के पीछे मकसद देश की बडी समस्याओं से लोगों का ध्यान हटाना है । ज्वलंत समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए रची गई इस राजनीतिक साज़िश के नतीजे खतरनाक होने वाले हैं । ओछी राजनीति ने देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्शा को भी दांव पर लगा दिया है ।
बटला हाउस एनकाउंटर पर मचे बवाल ने पुलिस का मनोबल तोडा है । ज़बानी युद्ध लडने वाले नेताओं ने जांबाज़ अफ़सर की कुर्बानी पर सवाल खडॆ कर सियासी फ़ायदा भले ही ले लिया हो ,लेकिन देश की आंतरिक हिफ़ाज़त में जुटे तबके को निराशा से भर दिया है । लगता है इन घर फ़ूंक तमाशबीनों की तबियत इससे भी नहीं भरी । अब ये सैन्य अधिकारियों को आतंकी साज़िश का हिस्सा बताने पर तुले हैं । सेना के पूर्व अधिकारियों के साथ सेवारत अफ़सरों को भी लपेटे में लिया जा रहा है । हिन्दू अतिवादियों का मददगार बता कर सेना के खिलाफ़ मीडिया पर दिन - दिन भर चलाई जा रही खबरों का असर कहां - कहां तक और कितना गंभीर होगा ,इस पर सोचा है किसी ने ?
देश की सीमाओं की हिफ़ाज़त करने वाले जांबाज़ों की ओर उठने वाली शक भारी निगाहें क्या गुल खिलाएंगी । इसकी कल्पना मात्र से मन चिंता और डर से भर जाता है । अब तो सेना में मज़हब आधारित सर्वे का शिगूफ़ा भी इसी साज़िश का हिस्सा नज़र आता है । जब केंद्र में कमज़ोर शासक होता है , सूबे के सियासतदान अपने फ़ौरी फ़ायदों के लिए सिर उठाने लगते हैं । मज़हब , प्रांत , भाषा की लडाइयां इसी का नतीजा हैं । देश में लंबे समय से वैसे ही आपसी संघर्ष के हालात हैं । ऎसे में इस नई चुनौती का सामना करने की कुव्वत क्या देश में बाकी है ?
हादिसा कितना कडा है कि सरे - मंज़िले - शौक
काफ़िला चंद गिरोहों में बंटा जाता है
एक पत्थर से तराशी थी जो तुमने दीवार
इक खतरनाक शिगाफ़ उसमें नज़र आता है
देश में इन दिनों हालात कुछ ऎसे ही हैं । हर शख्स हरेक घटना को अपने नज़रिए से देखने का आदी हो चुका है । हिन्दू आतंकवाद के नए चेहरे के खुलासे के बाद से तथाकथित सेक्युलर दलों की बांछें खिलीं हुईं हैं । फ़िज़ा में चारों तरफ़ हिन्दू कट्टरवाद के दिल दहला देने सच के बेनकाब होने की किस्सागोई फ़ैली हुई है । समाचार चैनलों ने साध्वी प्रज्ञा सिंह और सेना के पूर्व अधिकारियों को जिस अंदाज़ में पेश किया है , लगता है मानो पूरा देश इनकी ही बदौलत बारुद के ढेर पर बैठा हो ।
राजनीतिक नफ़े नुकसान को ध्यान में रखकर गढी गई शाब्दिक परिभाषाओं का सच अब खुद- ब-खुद सामने आने लगा है । बहुसंख्यकों की बात करने वाले को शक की निगाह से देखा जाता है । अब अल्पसंख्यकों की चिंता में घडियाली आंसू बहाना धर्म निरपेक्श्ता और बहुसंख्यकों के बुनियादी मसलों की चर्चा सांप्रदायिकता है । हालात इतने बिगड चुके हैं कि ८० करोड लोगों के बारे में बोलना कट्टरवादी या सांप्रदायिक होने का लेबल लगाने का पर्याप्त आधार बन गया है ।
महाराष्ट्र एटीएस जांच के बहाने मीडिया ने प्रज्ञा सिंह को रातों रात हिन्दू अतिवादी बना दिया है । इसमें साज़िश की बू आती है । मालेगांव और मोडासा बम धमाकों का आरोप मढने के पीछे मकसद देश की बडी समस्याओं से लोगों का ध्यान हटाना है । ज्वलंत समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए रची गई इस राजनीतिक साज़िश के नतीजे खतरनाक होने वाले हैं । ओछी राजनीति ने देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्शा को भी दांव पर लगा दिया है ।
बटला हाउस एनकाउंटर पर मचे बवाल ने पुलिस का मनोबल तोडा है । ज़बानी युद्ध लडने वाले नेताओं ने जांबाज़ अफ़सर की कुर्बानी पर सवाल खडॆ कर सियासी फ़ायदा भले ही ले लिया हो ,लेकिन देश की आंतरिक हिफ़ाज़त में जुटे तबके को निराशा से भर दिया है । लगता है इन घर फ़ूंक तमाशबीनों की तबियत इससे भी नहीं भरी । अब ये सैन्य अधिकारियों को आतंकी साज़िश का हिस्सा बताने पर तुले हैं । सेना के पूर्व अधिकारियों के साथ सेवारत अफ़सरों को भी लपेटे में लिया जा रहा है । हिन्दू अतिवादियों का मददगार बता कर सेना के खिलाफ़ मीडिया पर दिन - दिन भर चलाई जा रही खबरों का असर कहां - कहां तक और कितना गंभीर होगा ,इस पर सोचा है किसी ने ?
देश की सीमाओं की हिफ़ाज़त करने वाले जांबाज़ों की ओर उठने वाली शक भारी निगाहें क्या गुल खिलाएंगी । इसकी कल्पना मात्र से मन चिंता और डर से भर जाता है । अब तो सेना में मज़हब आधारित सर्वे का शिगूफ़ा भी इसी साज़िश का हिस्सा नज़र आता है । जब केंद्र में कमज़ोर शासक होता है , सूबे के सियासतदान अपने फ़ौरी फ़ायदों के लिए सिर उठाने लगते हैं । मज़हब , प्रांत , भाषा की लडाइयां इसी का नतीजा हैं । देश में लंबे समय से वैसे ही आपसी संघर्ष के हालात हैं । ऎसे में इस नई चुनौती का सामना करने की कुव्वत क्या देश में बाकी है ?
हादिसा कितना कडा है कि सरे - मंज़िले - शौक
काफ़िला चंद गिरोहों में बंटा जाता है
एक पत्थर से तराशी थी जो तुमने दीवार
इक खतरनाक शिगाफ़ उसमें नज़र आता है
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