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गुरुवार, 4 जून 2009

भ्रष्टाचार की गंगा में डुबकी लगाते नौकरशाह

नौतपा कभी तीखे तो कभी नरम तेवर दिखाकर बिदा हो गया । उमस भरे माहौल में अब सभी लोग आसमान की ओर टकटकी लगाकर निहारने लगे हैं कि झूमकर कब बरसेंगे काले बादल ! मानसून के मौसम के आने की आहट ने सरकारी महकमों में भी हलचल मचा दी है । विधानसभा चुनावों की भारी सफ़लता पर इतराती भाजपा को आम चुनावों में मतदाताओं ने ठेंगा दिखा दिया । अचानक मिले इस आघात को सत्तारुढ़ दल अब तक पचा नहीं पा रहा है । लेकिन हकीकत तो हकीकत ही रहेगी । सो आधे-अधूरे मन से सच्चाई को कभी स्वीकारते तो कभी नकारते हुए पार्टी आगे बढ़ चली है ।

कहावत है " कुम्हार कुम्हारिन से ना जीते,तो दौड़ गधैया के कान उमेठे ।" सो प्रदेश में भाजपा भी अपनी अँदरुनी कमियों की ओर से आँखें मूँदकर नौकरशाही और सरकारी अमले पर हार का ठीकरा फ़ोड़ने पर आमादा है । सरकारी अधिकारियों को हार के लिये ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है कि अमले ने सरकार की योजनाएँ ठीक तरह से जनता तक नहीं पहुँचाईं । ज़ाहिर है अपराध किया है तो दंड भी मिलेगा । सरकार की नाराज़गी मलाईदार पदों से हटाने की कवायद के तौर पर सामने आना लगभग तय है । एक स्थानीय चैनल मंदी के दौर में भी ’तबादला उद्योग’में एकाएक आई तेज़ी का ब्यौरा दे रहा था कि जैसा पद वैसी भेंट-पूजा । लिपिक वर्ग के लिये पच्चीस हज़ार से शुरु होने वाला आँकड़ा नौकरशाहों तक पहुँचते-पहुँचते लाखों में तब्दील हो जाता है ।

बहरहाल राजधानी में हींग लगे ना फ़िटकरी वाले इस मुनाफ़े के व्यवसाय के कर्ता-धर्ता सक्रिय हो चुके हैं । दलालों ने भी अपनी जुगाड़ लगाना शुरु कर दी है । कई छुटभैये नेता और पत्रकार तो तबादलों के मौसम में इतनी चाँदी काट लेते हैं कि उन्हें अगले कुछ साल हाथ-पैर हिलाने की कोई ज़रुरत ही नहीं । मगर हमेशा की तरह मेरी मोटी बुद्धि में यह बात नहीं घुस पाती कि तबादलों के ज़रिये प्रशासनिक सर्जरी के नाम पर हर साल तबादलों पर सरकारी खज़ाने से करोड़ों रुपए फ़ूँक दिये जाते हैं । महीने-दो महीने सारी मशीनरी ठप्प पड़ जाती है । कुछ दिन बाद पैसा ,पॉवर और संपर्कों के दम पर जहाँ था-जैसा था की स्थिति बन ही जाती है ।

ये बात गौर करने वाली है कि नौकरशाही का काम सरकार की योजनाओं का प्रचार-प्रसार करना नही,बल्कि उन्हें सही तरीके से अंजाम देना है । अगर वह अपने काम को बखूबी अंजाम देने में नाकाम रहती है तो राजनेता भी अपनी ज़िम्मेदारी से बरी नहीं हो सकते,क्योंकि घुड़सवारी का नियम कहता है कि घोड़े की क्षमता घुड़सवार की काबीलियत पर निर्भर करती है । बार- बार तबादले करने की रणनीति नेताओं की तिजोरी तो भर सकती है लेकिन सरकारी अमले के मनोबल और खज़ाने पर इसका विपरीत असर ही पड़ता है । तबादले दंडित करने के हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने की चाहत अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने के सिवाय कुछ भी नहीं ।

वैसे नौकरशाह भी कुछ कम नहीं । आमतौर पर नेताओं के भ्रष्टाचार को लेकर तो लोग खूब बातें करते हैं और गाहे बगाहे उनका गुस्सा फ़ूटते भी देखा गया है । लेकिन दीमक की तरह सरकारी खज़ाने को बरसों-बरस चट करने वाले नौकरशाहों का क्या कीजियेगा ? प्रक्रियात्मक पेचीदगियों के बूते कानून और अधिकारों को अपने कब्ज़े में रखने वाली नौकरशाही पर लगाम लगाना किसी भी सरकार के लिये आसान काम नहीं है । देश के विकास और जनकल्याण की राह में लालफ़ीताशाही सबसे बड़ा रोड़ा है ।

देश में नौकरशाहों के "नौ दिन चले अढ़ाई कोस" वाले रवैये से तो सब वाकिफ़ हैं ,लेकिन कामकाज और क्षमता के मामले में भी वे फ़िसड्डी साबित हुए हैं । दूर देश में हुए सर्वे की रिपोर्ट भी इसकी तस्दीक करती है । एशिया के 12 देशों में काम कर रहे 1275 विशेषज्ञों रायशुमारी के आधार पर तैयार सर्वे कहता है कि भारत में आम आदमी को प्रशासनिक प्रणाली के सुस्त रवैये से हर दिन रुबरु होना पड़ता है । केन्द्र और राज्य स्तर के सभी अधिकार इन्हीं के पास रहते हैं । हांगकांग की पॉलिटिकल और इकॉनॉमिक रिस्क कंसलटेंसी की ओर से कराये गये सर्वे में सिंगापुर कामकाज के मामले में लगातार तीसरी बार अव्वल रहा,वहीं भारत बारह देशों के इस सर्वे में सबसे आखिरी पायदान पर है ।

वैसे एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि हमारे यहाँ के नौकरशाह काम करने के मामले चाहे जितने फ़िसड्डी हों लेकिन भ्रष्ट आचरण के मामले में नेताओं के साथ "ताल से ताल " मिलाते नज़र आते हैं । हाल के सालों में भ्रष्टाचार के शिखर पर काबिज़ राजनेताओं का अनुसरण करने में नौकरशाह ’बेजोड़’साबित हुए हैं । बर्लिन की संस्था ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने ग्लोबल करप्शन बैरोमीटर 2009 जारी किया है ,जिसके आँकड़े बताते हैं कि भारत में राजनीतिक दल सबसे भ्रष्ट संस्था है । सर्वे में 58 फ़ीसदी लोगों ने माना कि राजनीतिज्ञ सबसे ज़्यादा भ्रष्ट हैं । 13 लोगों ने नौकरशाहों को घूसखोरी के मामले में दूसरे नम्बर पर रखा है । ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल संगठन ने ही साल 2005 में एक अध्ययन कराया था जिसमें कहा गया था कि भारत में लोग बुनियादी सेवाएँ हासिल करने के लिए चार अरब अमरीकी डॉलर के बराबर रक़म हर साल रिश्वत के रूप में देते हैं । विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में सालाना 210 अरब रुपए रिश्वत में दिए जाते हैं ।

एशिया के भ्रष्ट देशों की सूची में भारत नौवें स्थान पर है तो विश्व के 158 देशों की सूची में भारत 88वें स्थान पर है। भारत में भ्रष्टाचार की चर्चा जितनी चाहे हो चुकी हो फिर भी ये आंकड़े चौंका देते हैं । सुन कर लगता है मानो पूरे देश ने भ्रष्टाचार के सामने घुटने ही टेक दिए हों। हम इसके प्रति इतने उदासीन हो गए हैं कि भ्रष्टाचार शिष्टाचार बन गया है । मगर भ्रष्टाचार क्या देश की सांस्कृतिक सच्चाई बन गया है या इसके दूसरे कारण भी हैं ।

कई लोग कहते हैं कि देश में लोकतंत्र की परिपक्वता की कमी की वजह से भ्रष्टाचार फैल रहा है । दूसरी तरफ़ यह कड़वी सच्चाई है कि लोकतंत्र की जड़ें और कमज़ोर करने में भी भ्रष्टाचार की बड़ी भूमिका होती है । विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार 40 प्रतिशत न्यायिक मामल रिश्वत के बल पर प्रभावित किए जाते हैं और भ्रष्ट सरकारी अमलों में पुलिस सबसे ऊपर है । यह समझने के लिए किसी अर्थशास्त्री की ज़रूरत नहीं है कि ग़रीबों का सबसे बड़ा दुश्मन भ्रष्टाचार ही है जो उसे रोटी,अवसर और अधिकारों से दूर करता है । नेताओं को तो चुनाव में जनता सबक सिखा ही देती है ,लेकिन नियुक्ति के बाद चालीस-पैंतालीस साल बेखौफ़ और बेफ़िक्र होकर सरकार को चूना लगानी वाली बेलगाम नौकरशाही की नाक में नकेल कौन कसेगा और कैसे ....??????

बुधवार, 28 जनवरी 2009

गरीबों को चाहिए रोटी और रोज़गार

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि " किसी भी सुव्यवस्थित समाज में रोज़ी कमाना सबसे सुगम होना चाहिए । बेशक किसी देश की अच्छी अर्थ व्यवस्था की पहचान यह नहीं है कि उसमें कितने लखपति रहते हैं ।" विनोबा भावे ने भी पंडित नेहरु से पहली पंचवर्षीय योजना की रुपरेखा तैयार करते समय कहा था कि -"ऎसी योजनाएं बननी चाहिए ,जिनसे हर भारतीय को रोटी और रोज़गार मिले । गरीब इंतज़ार नहीं कर सकता । "

विश्व बैंक के हाल ही में उपलब्ध कराए गये आंकडों पर गौर करें , तो भारत में साल 2005 में 45.6 करोड से ज़्यादा लोग गरीबी की सूची में शामिल माने गये, जबकि 1981 में 42 करोड गरीब थे । वैश्विक निर्धनता के पैमाने के मुताबिक हर वो शख्स जो प्रतिदिन सवा डालर से कम कमाता है ,वह गरीब माना जाएगा । इस लिहाज़ से आज दुनिया के हर दस गरीबों में चार भारतीय शामिल हैं ।

देश में गरीबी से जूझने के नाम पर बडे पैमाने पर चलाए जा रहे नाटकीय अभियानों को ताज़ा आंकडे आइना दिखाते हैं । कागज़ी घोडे पर सवार हो कर अब तक करोडों लोग गरीबी की रेखा को पार कर चुके हैं लेकिन वास्तविकता के धरातल पर तस्वीर बेहद खौफ़नाक है । गरीबों के लिए चलाई जा रही योजनाओं का सारा फ़ायदा नेताओं , सरकारी मुलाज़िमों और ठेकेदारों को मिल रहा है , जबकि गरीब दो वक्त की रोटी को भी मोहताज है ।

देश में सबसे निराश करने वाली स्थिति ये है कि रुपया एक तिजोरी से दूसरी तिजोरी तक का छोटा और तयशुदा सफ़र कर रहा है । यही वजह है ,जो समाज के बडे तबके तक रुपए की पहुंच का रास्ता बंद सा है । भ्रष्टाचार के कारण गैरबराबरी की खाई दिनोंदिन चौड़ी होती जा रही है। मानव समुदायों के बीच लगातार बढती सामाजिक और आर्थिक असमानता समाज में कई विसंगतियों का सबब बन गई है । अर्थ व्यवस्था की इस खामी के कारण समाज दो वर्गों में स्पष्ट तौर पर बंट चुका है ।

मौजूदा दौर में लंबी-चौड़ी सड़कों के निर्माण और जीडीपी को ही विकास का पैमाना माना जा रहा है । सत्ता में बैठे लोग मीडिया के एक बडे वर्ग की मदद से इसी अवधारणा को सच साबित करने पर तुले हैं । अंगुली पर गिने जा सकने वाले महानगरों की चकाचौंध भरी दुनिया ही विकास का पर्याय बन गई है । लोग शेयर बाजार की उछाल और विदेशी मुद्रा भंडार के साथ-साथ शापिंग मॉल्स की बढ़ती संख्या को ही तरक्की का सूचक बताते नहीं थकते ।

मौजूदा व्यवस्था पूंजीवादियों के हित साधने में लगी है । इसके विपरीत मानव श्रम से जुडे मुद्दों को नज़र अंदाज़ किया जा रहा है । औद्योगिक क्रांति के नाम पर प्राकृतिक संपदा का ना सिर्फ़ बेरहमी से दोहन हो रहा है । कुदरत की अनमोल धरोहर को समूल नष्ट करने में भी कोई कोर कसर नहीं छोडी गई है ।

अगर सही मायने में विकास हुआ होता तो क्या देश में चारों ओर खुशहाली नहीं आई होती ? क्यों किसान आत्महत्या पर मजबूर होते ? भारतीय संदर्भ में जब भी विकास की बात होगी , तब इससे जुडी कुछ बुनियादी शर्तों को समझना भी ज़रुरी होगा । यहां वास्तविक विकास वही है , जिसमें अंतिम व्यक्ति का हित सर्वोपरि रहे ।

भारत में विकास तब तक सतही और खोखला माना जाएगा जब तक देश का अन्नदाता किसान सुखी और समृध्द नहीं है । आजादी के शुरूआती वर्षों में खेती को पटरी पर लाने के लिए कई प्रयास हुए। किसानों के पारंपरिक ज्ञान और जीवनशैली को दरकिनार करते हुए पश्चिमी तौर-तरीके अपनाने के कारण पैदावार बढी , साथ ही कई समस्याएं भी उत्पन्न हो गईं। ‘आर्थिक उदारवाद’ ने किसानों का जीवन और मुश्किल बना दिया है। अब तो संकट किसानों के अस्तित्व का ही है। वर्ष 1991 के बाद से किसानों की आत्महत्या की संख्या काफी तेजी से बढ़ी है। सरकारी बजट में कृषि को हिस्सा कम होता गया है ।

नीति निर्धारकों का पूंजीपतियों और समाज के श्रेष्ठि वर्ग के प्रति झुकाव का नतीजा है कि देश के 84 करोड़ लोग बीस रुपए रोजाना पर जीवन बसर को मजबूर हैं। एक ओर विकास के लंबे-चौडे दावे हैं , वहीं गरीबों की सुध लेने वाला कोई नहीं । यह कैसा विकास है जिसमें अमीर की अमीरी और गरीब की गरीबी बढ़ती ही जा रही है ?

पश्चिमी अवधारणा को दोहराते हुए हम भूल जाते हैं कि विकास के संदर्भ में भारत की भी एक सोच रही है। वास्तविक विकास मानव केन्द्रित न होकर पारिस्थितिकी केन्द्रित होता है । एक ऐसी व्यवस्था जिसमें जमीन, जल, जंगल, जानवर, जन का परस्पर पोषण और व्यक्ति का परिवार, पड़ोस, समाज, दुनिया, प्रकृति के साथ तालमेल बना रहे।

गांधी के ग्राम स्वराज की परिकल्पना आज के दौर में और भी प्रासंगिक हो चली है । ग्रामीण परिवेश में सार्थक औजार के रुप में इसे अपना कर नया अर्थ तंत्र रचा जा सकता है । तभी देश में पूर्ण स्वराज की अवधारणा साकार हो सकेगी , जब हर हाथ को काम और हर भूखॆ को भरपेट भोजन मिलेगा ।

मंगलवार, 30 दिसंबर 2008

हिन्दी ब्लॉगिंग पर टिड्डी दल का हमला

सावधान ब्लॉगर बंधुओं .....। हिन्दी के विकास के लिए काम करने वाले मठाधीशों के टिड्डी दल हमले की तैयारी में है । राजभाषा हिन्दी के उद्धारकों की निगाह हिन्दी ब्लॉगिंग पर पड गई है और जल्दी ही ये खेमा पूरे लाव लश्कर के साथ धावा करने वाला है । लार्वा और प्यूपा तो काफ़ी समय से नज़र आ रहे थे , लेकिन टिड्डी दल का आक्रमण हम जैसे तमाम छोटे - छोटे नौसीखिए ब्लॉगरों की नई उगती फ़सल को मिनटों में सफ़ाचट कर देगा । हिन्दी पर कृपादृष्टि बरसाने वाले पतित पावनों को अब ब्लॉग जगत के उद्धार [बंटाढार] की फ़िक्र सताने लगी है ।

कविता , व्यंग्य , निबंध और कहानी पाठ के माध्यम से हिन्दी को लोकप्रिय बनाने के हथकंडे आज़मा रहे ’चुके हुए लोग” अब हिन्दी ब्लॉग पाठ के प्रयोग को सफ़ल बनाने पर उतारु हैं । इस कवायद से हिन्दी का कितना भला हो सकेगा ये तो वक्त ही बताएगा । लेकिन इस नई पहल से हिन्दी के मठाधीशों का भला होना तय है ।

मेरा मानना है कि सरकारी अनुदान और प्रश्रय पाकर हिन्दी की चिन्दी ही हुई है । अंग्रेज़ीदां हिन्दी प्रेमियों ने हिन्दी को किताबी भाषा बनाकर रख दिया है । गोष्ठियों , चर्चाओं तक सिमट कर रह गई राजभाषा की इस दुर्दशा के लिए हिन्दी के ही स्वनामधन्य विद्वान ज़िम्मेदार हैं । "किसी देश की स्मृति ,संस्कृति और राष्ट्रीयता को भाषा ही प्रतिबिम्बित करती है ।" शैलेश मटियानी के इस कथन को यदि थोडा और विस्तार दिया जाए तो कहा जा सकता है - किसी देश की स्मृति ,संस्कृति और राष्ट्रीयता को भाषा ही संरक्षित भी रखती है ।

जिस तरह स्मृति ,संस्कृति और राष्ट्रीयता के प्रश्न किसी जाति की अस्मिता से जुडे होते हैं , उसी तरह भाषा का प्रश्न भी हमारी अस्मिता और हमारे अस्तित्व से जुडा है । लेकिन आज मुश्किल ये है कि ये सवाल चंद मुट्ठी भर लोगों के चिंतन का विषय बनकर रह गया है । इस जमात में भी कई लोग ऎसे हैं , जो खुद भी अपने कहे और सोचे पर अमल करने में नाकाम हैं । बाकी बचे वे लोग जो कुछ करने की स्थिति में हैं ,मगर निहित स्वार्थों के वशीभूत आँखें मूंद रखी हैं और देश को उसके हाल पर छोड दिया है , जबकि इस जनतंत्र में जन की तो अभी ठीक से आँखें भी पूरी तरह नहीं खुलीं हैं । मूंदने या सच को देखने या फ़िर अनदेखा करने की तो बात ही कौन कहे ...?

बहरहाल मुख्य मुद्दा ये है कि ब्लॉग पाठ के ज़रिए हिन्दी को जनप्रिय बनाने की कोशिश कितनी कारगर साबित होगी । आप मुझे कुएं का मेंढक करार दे सकते हैं ,लेकिन मैं तो भोपाल को केन्द्र में रखकर ही चीज़ों को देखने समझने की आदी हो चुकी हूं । वैसे भी जिस तरह इंदौर को मुम्बई बच्चा कहा जाता है ,उसी तरह दिल्ली और भोपाल के मिजाज़ भी कमोबेश एक से हैं । सरकारी ढर्रा दोनों राजधानियों की तस्वीर को हमजोली बना देता है । ये और बात है कि दिल्ली का इतिहास काफ़ी लम्बा है और भोपाल महज़ डेढ - दो सौ सालों की यादें अपने में समेटे है ।

भोपाल में एक हिन्दी भवन है । जूते ,चप्पल ,कपडों की महासेल और विवाह समारोह के शोर शराबे के बीच यहां हिन्दी की सेवा कितनी हो पाती है भगवान ही जाने ...। यही हाल हिन्दी साहित्य सम्मेलन का भी है । इसी तरह की कुछ और भी हिन्दी सेवी संस्थाएं हैं , जो 14 सितम्बर [हिन्दी दिवस]के आसपास सुसुप्तावस्था से बाहर आती हैं और फ़िर ’हाइबरनेश’ में चला जाता है । हिन्दी का सारा ज्ञान ’सरकारी अनुदान’ हासिल करने की लिखत - पढत में ही काम आता है ।

कहावत है -" जहं - जहं पैर पडे संतन के , तहं - तहं बंटाढार ।" उसी तरह जिस जगह सरकार की कृपावर्षा हुई , उसका तो खुदा हाफ़िज़ ...। संगीत , नाटक , ललित कला , हस्तकला और लोक कलाओं के संरक्षण के लिए चिंतातुर बडे - बडे सरकारी संस्थान ’ सफ़ेद हाथी’ बन चुके हैं और कलाएं धीरे - धीरे दम तोड रही हैं । हाल ही में राजधानी में एक लोककला समारोह हुआ था , जिसका आमंत्रण पत्र किसी धनाढ्य के बेटे की शादी की पत्रिका से किसी भी मायने में कमतर नहीं था । उस कार्ड की कीमत सुन कर तो मेरे होश ही फ़ाख्ता हो गये । चार सौ रुपए कीमत के आमंत्रण पत्र वाले आयोजन पर सरकार ने कितना खर्च किया होगा , इसका अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है , लेकिन इससे लोक कलाकारों की ज़िन्दगी में क्या बदलाव आया ..?लोक कलाकारों के लिए ये आयोजन -’चार दिन की चांदनी , फ़िर अंधियारी रात।’

इसलिए एक बार फ़िर आपको आगाह किए देते हैं कि बचा सको तो , बचा लो हिन्दी ब्लॉगिंग को ...। हिन्दी के मठाधीशों के जैविक हमले से बचने के उपाय सोचो , वरना हिन्दी ब्लॉगिंग की ’भ्रूण हत्या’ की पूरी आशंका है । जिस भी विधा में आम को ठेल कर खास लोग आते हैं , वह संग्रहालय में प्रदर्शन की वस्तु बनकर रह जाती है । जागो ब्लॉगर जागो ............

रविवार, 28 दिसंबर 2008

शनिदेव की न्यायप्रियता पर उठते सवाल

देश के श्रद्धालुओं के दिलों में इन दिनों शनि महाराज का वास है । तमाम मुश्किलात से दो चार हो चुके प्रवचन किंग आसाराम का सिंहासन बिनाका गीतमाला का सरताज बना रहने में कामयाब है । प्राणायाम और कपालभाति सिखाते - सिखाते बाबा रामदेव योग गुरु से राजनीति के गुरु घंटाल बनने की जुगत भिडाने में जुट गये हैं । राज कपूर ने राम जी को मैली होती गंगा की दुहाई दी थी ,लेकिन तब ना सरकार जागी ना ही जनता चेती । अब जब कुछ उद्योग घरानों को विलुप्त होती गंगधारा में खज़ाना नज़र आने लगा है , तो भागीरथी को बचाने के लिए सरकारी तौर पर प्रयास शुरु करने की बात कही जा रही है

इस बीच न्याय के देवता कहे जाने वाले शनिदेव के आराधकों का ग्राफ़ दिनोंदिन ऊर्ध्वगामी होता जा रहा है । ज़्यादा वक्त नहीं गुज़रा जब लोग शनि की दृष्टिपात से भी खौफ़ज़दा रहते थे । शनि का दान देते समय सावधान्र रहते थे । शनि दान लेने वाले के प्रति भी नज़रिया ज़रा तंग ही होता था । लेकिन जय हो टीवी देव की...........।

कहते हैं ना , वक्त का फ़ेर है । समय होत बलवान । सो चैनलों ,समाचार पत्रों , ज्योतिषियों और चंद स्वनाम धन्य शनि उपासकों के गठजोड ने ’छाया मार्तंड” को त्रिलोक का अधिष्ठाता बना दिया । पिछले चार - पांच सालों में भोपाल में कदम कदम पर शनि महाराज ने डेरा डाल लिया है । हर मोर्चे पर नाकाम रहे एक शख्स ने एक ज़मीन पर बलात कब्ज़ा किया , फ़िर शनि की महिमा का बखान किया । घर पर शनि का दरबार सजाया , लोगों को शनि के दंड का डर दिखाया । आज वह करोडों की ज़मीन का स्वामी है ।

न्याय के इस आधुनिक देवता ने इस उपासक पर इतनी कृपा बरसाई कि ४० हज़ार रुपए स्क्वाय्रर फ़ुट की न्यू मार्केट की ज़मीन उसकी झोली में डाल दी । यहां नगर निगम के पार्किंग स्थल पर पिछले एक साल में शनिदेव ने अपना झंडा ना सिर्फ़ गाड दिया बल्कि करीब पांच हज़ार स्क्वाय्रर फ़ुट पर देखते ही देखते शिंगनापुर के शनि महाराज का प्राकट्य हो गया । कल की शनिश्चरी अमावस्या ने भी आराधक पर खूब कृपा वर्षा की । हज़ारों भक्तों ने काले तिल , महंगे तेल और काले वस्त्रों का दान कर शनिदेव का भरपूर आशीर्वाद लिया ।

शनिदेव की बढती लोकप्रियता ने तो तैंतीस करोड देवताओं में से कुछ लोकप्रिय और सर्वव्यापी भगवानों को भी पीछे छोड दिया है । शबरी के राम और कुब्जा के कृष्ण की तो कौन कहे , हर पुलिस चौकी में पीपल के नीचे विराजमान रामभक्त पवनपुत्र हनुमान की पूछपरख भी कम हो चली है । मेरे घर के चार किलोमीटर के दायरे में सरकारी ज़मीनों पर अब तक मैं कम से कम दस शनिधाम देख चुकी हूं ।

जिस तरह बालीवुड में तीन खानों का बोलबाला है । उसी तरह आस्था के बाज़ार में शनिदेव सहित तीन देवताओं ने धूम मचा रखी है । जब से शनिदेव के साथ धन की देवी लक्ष्मी का उल्लेख किया जाने लगा है , भौतिकवाद का उपासक समाज एकाएक शनिदेव का आराधक हो गया है ।
मैंने तो शनि को न्याय के देवता के रुप में जाना - समझा । बेशर्मी से ज़मीन हथियाने और लोगों की आस्था के साथ खिलवाड करने वाले लोगों को रातों रात धनाढ्य होते देख कर मन संशय से भर उठता है ।

क्या वाकई शनि न्याय प्रिय हैं ...? अगर हैं , तो क्या धर्म और न्याय की परिभाषा बदल गई है .....? शनि गलत काम करने वालों को तत्काल दंडित करते हैं ऎसा कहा गया है । यदि ये सच है तो फ़िर ये माना जाए कि बेजा कब्ज़ा , दूसरों का माल हडपना , रिश्वतखोरी , चंदाखोरी , गुंडागर्दी और कायदे कानूनों का उल्लंघन अपराध नहीं हैं । शनि देव तो हो सकता है कुछ वक्त लगाएं ,लेकिन जिन अधिकारियों और नेताओं की नाक के नीचे ये सब काम होता है और जिसे रोकना उनकी ज़िम्मेदारी है , वो क्यों आंखें मूंदे बैठे रह्ते हैं .....? इनकी आंखें कब और कैसे खुलेंगी ....... खुलेंगी भी या नहीं .......? कह पाना बडा ही मुश्किल है .....?

शनिदेव से निराशा हाथ लगने के बाद अब तो मेरी निगाहें कल्कि अवतार पर ही टिकी हैं । हे कल्कि देव सफ़ेद घोडे पर हो कर सवार जल्दी लो अवतार ........।

रविवार, 7 दिसंबर 2008

पाठक और पत्रकार , शोषण के शिकार

आज एक ब्लॉग पर वॉयस ऑफ़ इंडिया के दफ़्तर में चल रही उठापटक की खबर ने एक बार फ़िर सोच में डाल दिया । १९९२ की अप्रैल का महीना याद आ गया , जब वीओआई के मुकेश कुमार जी दैनिक नईदुनिया भोपाल में थे और अपने हक की लडाई लडने के संगीन जुर्म में मुझे बाहर का रास्ता दिखाने की तैयारी की जा रही थी । खबर पढकर लगा कि इतने बरसों बाद भी पत्रकारॊं की दुनिया में कोई उत्साहजनक बदलाव नहीं आया ।

इस व्यावसायिक दौर में भी सबकी खबर लेने और सबको खबर देने वाले पत्रकारों की स्थिति आज भी जस की तस बनी हुई है । समाज के सभी वर्गों के शोषण को उजागर करने और उसके खिलाफ़ आवाज़ बुलंद करने वाले ज़्यादातर खबरनवीस मालिकों के आगे घुटने टेक देते हैं ।

आज़ादी की लडाई के दौर में मिशन मानी जाने वाली पत्रकारिता ने अब प्रोफ़ेशन का रुप ले लिया है । अब तो इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया उद्योग में तब्दील होने लगा है । समाचार पत्र छापने वाले प्रतिष्ठान कंपनी कहलाने लगे हैं । लेकिन बडी हैरत की बात है कि सरकारी छूट का लाभ उठाने वाले इन संस्थानों में पत्रकारों के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं । सरकारी नियम कायदों और श्रम कानूनों की धज्जियां उडाते हुए समाचार पत्र और चैनल लगातार फ़ल फ़ूल रहे हैं । पत्रकारों के नाम पर मिलने वाले फ़ायदों की बंदर बांट भी मालिकों में ही हुई है ।

ये और बात है कि समय के साथ परिपक्वता बढने की बजाय दिनों दिन यह पेशा बचकानापन अख्तियार करता जा रहा है । मालिक के चाटुकार पहले भी मौज उडाते थे और आज भी मलाई सूंत रहे हैं । लेकिन मूल्यों की वकालत करने वालों के लिए ना पहले जगह थी ,ना ही अब है ।
अखबार बाज़ार का हिस्सा बन चुके हैं । खबरों और आलेखॊं की शक्ल में तरह - तरह के प्राडक्ट के विज्ञापन दिखाई देते हैं । समझना मुश्किल है कि क्या समाचार है और क्या इश्तेहार ? सरकारी अंकुश को अपनी जेब में रखकर अखबार मालिक , पाठक और पत्रकार दोनों के ही शोषण पर आमादा हैं ।

पाठक को बेवजह वह सब पढने पर मजबूर किया जा रहा है , जिसमें उसकी कतई रुचि नहीं । लेकिन विज्ञापन दाताओं का बाज़ार बढाने के लिए ऎसी ही बेहूदा खबरें बनाई और बेची जा रही हैं । मुझे तो
कई बार लगता है कि दिन की शुरुआत में ही हम हर रोज़ ढाई से तीन रुपए की ठगी के शिकार हो जाते हैं । हम तो न्यूज़ पेपर लेते हैं खबरों के लिए , लेकिन वहां समाचार तो छोडिए कोई विचार भी नहीं होते । वहां तो होता है व्यापार .... या कोरी बकवास....... ।

कायदे से तो इन अखबार वालों से पाठकों को मासिक तौर पर नियमित पारिश्रमिक का भुगतान मिलना चाहिए । गहराई में जाएं , तो पाएंगे कि पाठक भी इस व्यवसाय का बराबर का भागीदार है । मेरी निगाह में सर्कुलेशन के आधार पर होने वाली विज्ञापन की आय का लाभांश का हकदार पाठक ही है । पाठकों को संस्थानों पर मुफ़्त में अखबार देने के लिए दबाव बनाना चाहिए या अपने शोषण के खिलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए अखबारों का बहिष्कार करना चाहिए ,ताकि समाचारों के नाम पर छपने वाले कचरे से निजात मिल सके ।

यह गुलो बुलबुल का अफ़साना कहाँ
यह हसीं ख्वाबों की नक्काशी नहीं
है अमानत कौम की मेरी कलम
मेरा फ़न लफ़्ज़ों की अय्याशी नहीं ।

रविवार, 30 नवंबर 2008

इस्तीफ़ों से नाकाम सरकार बचाने की कोशिश

मुम्बई में हुए युद्ध ने देश के लोगों को हिला कर रख दिया है । बरसों से दबे कुचले लोगों का खून एकाएक उबाल मारने लगा । ऎसा मोबाइल एसएमएस और समाचार चैनलों का कहना है । श्मशान वैराग्य की तरह जागे इस सतही जोश की सूचना ने सरकार चला रहे कांग्रेसी खॆमे में खलबली मचा दी है ।

सता से उखाड फ़ेंकने की निरीह जनता की गीदड भभकी ने सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह को परेशान कर दिया है । सो सरकार ने आनन फ़ानन में अंगुली कटा कर शहीद होने का फ़ार्मूला तलाश ही लिया । साढे चार साल से ज़्यादा वक्त तक देश को आतंक की भट्टी में झोंकने का दुष्कर्म करने के बाद शिवराज पाटिल से इस्तीफ़ा लिखवा लिया गया । चोरी और सीनाज़ोरी का आलम ये कि अपनी कारगुज़ारियों पर शर्मिंदा होने की बजाय नेता बेहूदा बयानबाज़ी से बाज़ नहीं आ रहे ।

आर आर पाटिल की मानें तो बडे-बडे शहरों में ऎसे छॊटॆ- छोटे हादसे तो होते ही रहते हैं । राजीव शुक्ला साहब अपनी गिरेबान में झांकने की बजाय संकट के इस दौर में भी बीजेपी की गल्तियां ढूंढने में वक्त ज़ाया कर रहे हैं । असलियत तो ये है कि इस्तीफ़ा देकर ये कोई मिसाल कायम नहीं कर रहे बल्कि इस्तीफ़े की राजनीति का घिनौना खेल खेलकर देश की जनता को मूर्ख बनाना चाहते हैं ।

जब केन्द्र सरकार की कुल जमा उम्र ही गिनती की बची हो ,तब इस्तीफ़े के इस नाटक का औचित्य क्या है ...? वैसे भी सरकार का ये गुनाह काबिले माफ़ी कतई नहीं । राजनेताओं की आपसी खींचतान और ढुलमुल रवैए से जनता आज़िज़ आ चुकी है ।

लोगों के सडकों पर आने की सुगबुगाह्ट से नेताओं के हाथ पांव फ़ूल रहे हैं और वे अपनी मक्कारी भरी चालों से जनता को बरगलाने ,बहलाने फ़ुसलाने की कोशिश में लग गये हैं । लेकिन अब देश की अवाम किसी झांसे में ना आने पाए , इसके पुख्ता इंतज़ाम की ज़रुरत है ।

एक कहावत है - ’पीसन वाली पीस गई ,सकेलन वाली जस ले गई ।’ सेना , आरएएफ़ और एनएसजी के संयुक्त प्रयासों की बदौलत मिली कामयाबी का सेहरा महाराष्ट्र सरकार खुद अपने सिर बांध लेना चाहती है । बात होती है आतंकवाद से लडने की और नवाज़े जाते हैं बेइमान ,भ्रष्टाचारी और देश के गद्दार । और तो और आमने सामने की लडाई में शहीद हुए जांबाज़ों की बजाय हादसे के शिकार अफ़सरान को मीडिया की मदद से अभियान का हीरो बना कर पेश किया जा रहा है । ऎसा लगता है बचे खुचे देशभक्तों के मनोबल को तोडकर देश को खोखला करने की कोई गहरी साज़िश रची जा रही है । देश मे ऎसे ही हालात रहे , तो कौन लडेगा भारत मां की हिफ़ाज़त की लडाई ।

इक बात और , हाल के दिनों के घटनाक्रम ने मेरा सामान्य ज्ञान गडबडा दिया है । सब कुछ गड्डमड्ड सा लगता है । आप सभी महानुभाव मेरी मदद करें । मैं शहादत की परिभाषा जानना चाहती हूं । भारत में शहीदों की पहचान का मापदंड क्या है और क्या होना चाहिए ?

क्यों हिंन्द का ज़िन्दा कांप रहा है , गूंज रही हैं तकबीरें
उकताए हैं शायद कुछ कैदी , और तोड रहे हैं जंज़ीरें

गुरुवार, 30 अक्तूबर 2008

हिन्दू अतिवाद की सियासत में सेना बनी मोहरा

’ ये तेरा सच ,ये मेरा सच , किसी को देखना है गर
तो पहले आकर मांग ले मेरी नज़र ,तेरी नज़र । ’
देश में इन दिनों हालात कुछ ऎसे ही हैं । हर शख्स हरेक घटना को अपने नज़रिए से देखने का आदी हो चुका है । हिन्दू आतंकवाद के नए चेहरे के खुलासे के बाद से तथाकथित सेक्युलर दलों की बांछें खिलीं हुईं हैं । फ़िज़ा में चारों तरफ़ हिन्दू कट्टरवाद के दिल दहला देने सच के बेनकाब होने की किस्सागोई फ़ैली हुई है । समाचार चैनलों ने साध्वी प्रज्ञा सिंह और सेना के पूर्व अधिकारियों को जिस अंदाज़ में पेश किया है , लगता है मानो पूरा देश इनकी ही बदौलत बारुद के ढेर पर बैठा हो ।

राजनीतिक नफ़े नुकसान को ध्यान में रखकर गढी गई शाब्दिक परिभाषाओं का सच अब खुद- ब-खुद सामने आने लगा है । बहुसंख्यकों की बात करने वाले को शक की निगाह से देखा जाता है । अब अल्पसंख्यकों की चिंता में घडियाली आंसू बहाना धर्म निरपेक्श्ता और बहुसंख्यकों के बुनियादी मसलों की चर्चा सांप्रदायिकता है । हालात इतने बिगड चुके हैं कि ८० करोड लोगों के बारे में बोलना कट्टरवादी या सांप्रदायिक होने का लेबल लगाने का पर्याप्त आधार बन गया है ।

महाराष्ट्र एटीएस जांच के बहाने मीडिया ने प्रज्ञा सिंह को रातों रात हिन्दू अतिवादी बना दिया है । इसमें साज़िश की बू आती है । मालेगांव और मोडासा बम धमाकों का आरोप मढने के पीछे मकसद देश की बडी समस्याओं से लोगों का ध्यान हटाना है । ज्वलंत समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए रची गई इस राजनीतिक साज़िश के नतीजे खतरनाक होने वाले हैं । ओछी राजनीति ने देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्शा को भी दांव पर लगा दिया है ।

बटला हाउस एनकाउंटर पर मचे बवाल ने पुलिस का मनोबल तोडा है । ज़बानी युद्ध लडने वाले नेताओं ने जांबाज़ अफ़सर की कुर्बानी पर सवाल खडॆ कर सियासी फ़ायदा भले ही ले लिया हो ,लेकिन देश की आंतरिक हिफ़ाज़त में जुटे तबके को निराशा से भर दिया है । लगता है इन घर फ़ूंक तमाशबीनों की तबियत इससे भी नहीं भरी । अब ये सैन्य अधिकारियों को आतंकी साज़िश का हिस्सा बताने पर तुले हैं । सेना के पूर्व अधिकारियों के साथ सेवारत अफ़सरों को भी लपेटे में लिया जा रहा है । हिन्दू अतिवादियों का मददगार बता कर सेना के खिलाफ़ मीडिया पर दिन - दिन भर चलाई जा रही खबरों का असर कहां - कहां तक और कितना गंभीर होगा ,इस पर सोचा है किसी ने ?

देश की सीमाओं की हिफ़ाज़त करने वाले जांबाज़ों की ओर उठने वाली शक भारी निगाहें क्या गुल खिलाएंगी । इसकी कल्पना मात्र से मन चिंता और डर से भर जाता है । अब तो सेना में मज़हब आधारित सर्वे का शिगूफ़ा भी इसी साज़िश का हिस्सा नज़र आता है । जब केंद्र में कमज़ोर शासक होता है , सूबे के सियासतदान अपने फ़ौरी फ़ायदों के लिए सिर उठाने लगते हैं । मज़हब , प्रांत , भाषा की लडाइयां इसी का नतीजा हैं । देश में लंबे समय से वैसे ही आपसी संघर्ष के हालात हैं । ऎसे में इस नई चुनौती का सामना करने की कुव्वत क्या देश में बाकी है ?

हादिसा कितना कडा है कि सरे - मंज़िले - शौक
काफ़िला चंद गिरोहों में बंटा जाता है
एक पत्थर से तराशी थी जो तुमने दीवार
इक खतरनाक शिगाफ़ उसमें नज़र आता है

शुक्रवार, 26 सितंबर 2008

शर्म हमको मगर नहीं आती




मध्य प्रदेश की सेहत इन दिनों काफ़ी खराब है इतनी ज़्यादा कि नौनिहालों का पेट भी नहीं भर पा रहा मज़बूत भविष्य का भरोसा दिला कर एक बार फ़िर सत्ता पर कब्ज़ा जमाने की जुगाड में लगी बीजेपी कार्यकर्ता महाकुंभ के ज़रिए शक्ति प्रदर्शन में लगी है वहीं दूसरे राजनीतिक दल बयानबाज़ी में मशगूल हैं



प्रदेश के सतना , छिंदवाडा , ग्वालियर ,इंदौर , धार और झाबुआ ज़िले में हालात बेकाबू हो चुके हैं पोषण आहार के अभाव में बच्चे कुपोषण का शिकार हो कर असमय ही मौत के आगोश में समा रहे हैं बच्चों को स्वस्थ रखना तो दूर सरकार इन कुपोषित बच्चों के इलाज का इंतज़ाम करने में भी नाकाम रही है

प्रदेश में बाल कल्याण और स्वास्थय सेवाओं का हाल इस कदर बिगड चुका है कि ऎन राजधानी में सरकार की नाक के नीचे ४० कुपोषित बच्चों को स्टाफ़ की कमी का रोना रोकर हमीदिया अस्पताल में दाखिल करने से इंकार कर दिया गया जब राजधानी के सूरते हाल इस कदर बिगड गये हैं तो दूर -दराज़ के इलाकों के हालात का अंदाज़ा लगा पाना कोई मुश्किल काम नहीं

इससे भी ज़्यादा गंभीर बात ये है कि सरकार ये मानने को तैयार ही नहीं कि कोई बच्चा कुपोषण का शिकार बना है अपनी खामियों पर पर्दा डालने में जुटे मंत्री इसे मौसमी बीमारी का नाम देकर अपना पल्ला झाड्ने की कोशिश में लगे है बेशर्मी की हद तो तब हो गई , जब एक मंत्री ने सतना में ४० और खंडवा में ५३ बच्चों की मौत को वायरल फ़ीवर और उल्टी - दस्त का मामला बता कर सरकार के नाकारापन को उजागर कर दिया


गरीबों की हितैषी होने का दम भरने वाली सरकार ने बच्चों की जान बचाने के लिए कोई कदम उठाने की बजाय मामले की लीपापोती की कवायद शुरु कर दी है अफ़सोसनाक है कि अपनी नाकामी छुपाने के लिए जनता के नुमाइंदों ने गरीब आदिवासियों को अंधविश्वासी बताने से भी गुरेज़ नहीं किया मंत्री जी ने राजधानी में पत्रकारों का मजमा जुटाकर फ़रमाया कि खंडवा के खालवा ब्लाक के कोरकू और सतना के कोल जनजाति के लोग इलाज के लिए आज भी झाड -फ़ूंक का सहारा लेते हैं और ये ही बच्चों की मौत की असली वजह है


ये तथ्य भी कम हैरान करने वाला नहीं कि किसी पत्रकार ने आखिर मंत्रीजी से ये जानने की ज़हमत क्यों नहीं उठाई कि बुढा चुके देश में यदि अंधविश्वास की जडें मज़बूत बनी हुई हैं , तो जवाबदेही किसकी बनती है ...? किसी खबरनवीस ने ये सवाल खडा क्यों नहीं किया कि आखिर वो आंकडे कहां हैं जो मंत्रीजी के बयान को सही ठहरा सकें मौसमी बुखार हाल के दिनों में प्रदेश में इस हद तक जानलेवा कब और कैसे हुआ और सरकार अंजान ही रही ...? ऎसे मुद्दे जब भी सामने आते हैं ,सरकार के साथ -साथ पत्रकारों की भूंमिका भी संदेह के दायरे में जाती है सरकारी कामकाज पर नकेल कसने वाला तबका ही उसके साथ गलबहियां करने लगे तो इसे क्या नाम दें ?