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शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

चोर - चोर मौसेरे भैय्या ....


राजधानी में बुधवार की सुबह हुई हृदय विदारक घटना ने झकझोर कर रख दिया । गरीबी के आगे बेबस पिता ने अपनी चार बेटियों को ज़हर देने के बाद चाकू से गला रेत दिया । उसने अपनी गर्भवती बीवी की जान लेने की कोशिश के बाद खुद के पेट में चाकू मार लिया । दो बच्चियॊ ने तो घटना स्थल पर ही दम तोड दिया । दो लडकियां गंभीर हालत में अस्पताल में हैं और कल महिला की सांसें भी थम गईं । करीब पचास साल के शफ़ीक मियां होश में आ गये हैं लेकिन सदमे के कारण फ़िलहाल कुछ बताने की हालत में नहीं हैं ।

पिंजरे बनाकर रोज़ाना करीब सत्तर रुपए कमाने वाला शफ़ीक सात बच्चों का पेट भरने में खुद को लाचार पा रहा था । मुफ़लिसी से जूझ रहे परिवार में आठवें मेहमान के आने की खबर ने भूचाल ला दिया । होश में आई एक बच्ची का बयान है कि पापा अक्सर कहते थे कि खाने - पीने का ठीक तरह से इंतज़ाम ना कर सका तो एक दिन सब को मार दूंगा । हैरानी की बात है कि उसने अपने तीनों बेटों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया ।

इस घटनाक्रम ने एक बार फ़िर कई सवालों पर पडी गर्द हटा दी है । सरकार बीपीएल कार्ड धारकों को साढे चार रुपए किलो चावल ,तीन रुपए किलो गेंहूं देती है । केवल भोपाल ज़िले में डेढ लाख कार्डधारी हैं । इसी तरह अंत्योदय योजना में दो रुपए किलो गेंहूं , तीन रुपए किलो चावल और साढे तेरह रुपए किलो शकर दी जाती है । गरीबी से बेज़ार लोगों के जान देने का सिलसिला सवाल खडा करता है कि इन योजनाओं का फ़ायदा किसे मिल रहा है ?

हालात बयान करते हैं कि महंगाई के दौर में शफ़ीक के लिए परिवार की परवरिश नामुमकिन होती जा रही थी । ऎसे में परिवार बढाने की नासमझी का औचित्य भी समझ से परे है ...? क्या परिवार का विस्तार अपने पैरों पर कुल्हाडी मारने वाला कदम नहीं कहा जाएगा ? जब पढा - लिखा तबका परिवार की तरक्की के लिए दकियानूसी उसूलों को झटक कर अलग कर सकता हैं ,तो गरीब तबका क्यों नहीं इस दलदल से बाहर निकल आता ?

एक बडा और अहम सवाल ये भी है कि सरकार ने परिवार कल्याण के कई कार्यक्रम चलाये हैं । इस तरह के मामले इन योजनाओं का कच्चा चिट्ठा खोल कर रख देते हैं । योजना की विफ़लता पर क्या उस इलाके के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र ,स्वास्थ्य कार्यकर्ता , अधिकारी और अन्य ज़िम्मेदार लोगों के खिलाफ़ सख्त कार्रवाही नहीं होना चाहिए ? गरीब भूखे पेट सोये और मजबूरन मौत को गले लगाये , तो गरीबों के लिए चलाई जा रही योजनाओं पर पुनर्विचार करने की ज़रुरत है । लोगों को दीन - ईमान और दुनियादारी का फ़र्क समझाना ज़रुरी है । ये बताना लाज़मी है कि पेट की आग बुझाने के लिए मज़हबी बातें काम नहीं आती । पेट भरने के लिए तो रोटी ही चाहिए । हकीकत से रुबरु होकर ही हालात का सामना किया जा सकता है । बात - बात पर फ़तवा जारी करने वाले धर्म गुरु इस मुद्दे पर सामने क्यों नहीं आते ...?

समाज को तरक्की पसंद बनाने के लिए उसकी आबादी बढाना ही काफ़ी नहीं होता । इंसान और जानवरों में फ़र्क होता है । पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में कदम -कदम पर पैसे की दरकार होती है। "ज़्यादा हाथ ज़्यादा काम" का गणित आज के दौर में सही नहीं कहा जा सकता । वक्त बदला है ,तो सोच भी बदलना होगी ।

सरकारी मदद से चलने वाले तमाम एनजीओ के वजूद को लेकर भी ये घटना सवाल खडे करती है । राजधानी में ऎन सरकार की नाक के नीचे इतना दिल दहलाने वला हादसा हो जाना कोई मामूली बात नहीं है । यह घटना समाज के मुंह पर झन्नाटेदार चांटे के माफ़िक है । साथ ही उन नेताओं से भी कैफ़ियत मांगती है , जो गरीबों के हिमायती होने का दम भरते हैं । वोट की राजनीति में तादाद बढाने के लिए ज़ोर देने वाले नेता चुनाव के बाद इन बस्तियों का रुख भी नहीं करते । इन गरीबों को उनके हाल पर छोड देते हैं घुट घुट कर जीने के लिए या कहे तिल - तिल कर मरने के लिए ...। कौन सुनेगा इन मज़लूमों की आवाज़ ....।

धर्मगुरु मज़हबी किताबों का हवाला देकर आबादी बढाने का नारा तो देते हैं , मगर ये नहीं बताते कि इनका पालन - पोषण कैसे हो ? नेता वोट बैंक बनाते हैं पर बदले में क्या देते हैं ? गरीबों के लिए कागज़ों पर योजनाएं कई हैं और आंकडे बताते हैं कि बढिया तरीके से अंजाम भी दी जा रही हैं । लेकिन वास्तविकता इन कागज़ी बयानबाज़ी के कोसों दूर है । मध्याह्न भोजन के नाम पर कीडे - मकौडों से भरा दलिया या पंजीरी ....?

बीपीएल कार्ड पर सस्ते अनाज का कोई ठिकाना ही नहीं । राशन की दुकानों पर ताला । राशन का अनाज गोदामों से सीधा व्यापारियों की दुकानों पर उतारा जाता है । नेता , अधिकारी और ठेकेदार एक बार फ़िर यहां भी साथ - साथ ....। बचपन में इमरजेंसी के दौरान रेडियो पर ये गाना सुना था ,शायद उस वक्त इसके बोल समझ में नहीं आते थे ,लेकिन आज के दौर में एकदम सटीक है - "चोर - चोर मौसेरे भैय्या - इनका तो भगवान रुपैय्या ....।"

बुधवार, 28 जनवरी 2009

गरीबों को चाहिए रोटी और रोज़गार

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि " किसी भी सुव्यवस्थित समाज में रोज़ी कमाना सबसे सुगम होना चाहिए । बेशक किसी देश की अच्छी अर्थ व्यवस्था की पहचान यह नहीं है कि उसमें कितने लखपति रहते हैं ।" विनोबा भावे ने भी पंडित नेहरु से पहली पंचवर्षीय योजना की रुपरेखा तैयार करते समय कहा था कि -"ऎसी योजनाएं बननी चाहिए ,जिनसे हर भारतीय को रोटी और रोज़गार मिले । गरीब इंतज़ार नहीं कर सकता । "

विश्व बैंक के हाल ही में उपलब्ध कराए गये आंकडों पर गौर करें , तो भारत में साल 2005 में 45.6 करोड से ज़्यादा लोग गरीबी की सूची में शामिल माने गये, जबकि 1981 में 42 करोड गरीब थे । वैश्विक निर्धनता के पैमाने के मुताबिक हर वो शख्स जो प्रतिदिन सवा डालर से कम कमाता है ,वह गरीब माना जाएगा । इस लिहाज़ से आज दुनिया के हर दस गरीबों में चार भारतीय शामिल हैं ।

देश में गरीबी से जूझने के नाम पर बडे पैमाने पर चलाए जा रहे नाटकीय अभियानों को ताज़ा आंकडे आइना दिखाते हैं । कागज़ी घोडे पर सवार हो कर अब तक करोडों लोग गरीबी की रेखा को पार कर चुके हैं लेकिन वास्तविकता के धरातल पर तस्वीर बेहद खौफ़नाक है । गरीबों के लिए चलाई जा रही योजनाओं का सारा फ़ायदा नेताओं , सरकारी मुलाज़िमों और ठेकेदारों को मिल रहा है , जबकि गरीब दो वक्त की रोटी को भी मोहताज है ।

देश में सबसे निराश करने वाली स्थिति ये है कि रुपया एक तिजोरी से दूसरी तिजोरी तक का छोटा और तयशुदा सफ़र कर रहा है । यही वजह है ,जो समाज के बडे तबके तक रुपए की पहुंच का रास्ता बंद सा है । भ्रष्टाचार के कारण गैरबराबरी की खाई दिनोंदिन चौड़ी होती जा रही है। मानव समुदायों के बीच लगातार बढती सामाजिक और आर्थिक असमानता समाज में कई विसंगतियों का सबब बन गई है । अर्थ व्यवस्था की इस खामी के कारण समाज दो वर्गों में स्पष्ट तौर पर बंट चुका है ।

मौजूदा दौर में लंबी-चौड़ी सड़कों के निर्माण और जीडीपी को ही विकास का पैमाना माना जा रहा है । सत्ता में बैठे लोग मीडिया के एक बडे वर्ग की मदद से इसी अवधारणा को सच साबित करने पर तुले हैं । अंगुली पर गिने जा सकने वाले महानगरों की चकाचौंध भरी दुनिया ही विकास का पर्याय बन गई है । लोग शेयर बाजार की उछाल और विदेशी मुद्रा भंडार के साथ-साथ शापिंग मॉल्स की बढ़ती संख्या को ही तरक्की का सूचक बताते नहीं थकते ।

मौजूदा व्यवस्था पूंजीवादियों के हित साधने में लगी है । इसके विपरीत मानव श्रम से जुडे मुद्दों को नज़र अंदाज़ किया जा रहा है । औद्योगिक क्रांति के नाम पर प्राकृतिक संपदा का ना सिर्फ़ बेरहमी से दोहन हो रहा है । कुदरत की अनमोल धरोहर को समूल नष्ट करने में भी कोई कोर कसर नहीं छोडी गई है ।

अगर सही मायने में विकास हुआ होता तो क्या देश में चारों ओर खुशहाली नहीं आई होती ? क्यों किसान आत्महत्या पर मजबूर होते ? भारतीय संदर्भ में जब भी विकास की बात होगी , तब इससे जुडी कुछ बुनियादी शर्तों को समझना भी ज़रुरी होगा । यहां वास्तविक विकास वही है , जिसमें अंतिम व्यक्ति का हित सर्वोपरि रहे ।

भारत में विकास तब तक सतही और खोखला माना जाएगा जब तक देश का अन्नदाता किसान सुखी और समृध्द नहीं है । आजादी के शुरूआती वर्षों में खेती को पटरी पर लाने के लिए कई प्रयास हुए। किसानों के पारंपरिक ज्ञान और जीवनशैली को दरकिनार करते हुए पश्चिमी तौर-तरीके अपनाने के कारण पैदावार बढी , साथ ही कई समस्याएं भी उत्पन्न हो गईं। ‘आर्थिक उदारवाद’ ने किसानों का जीवन और मुश्किल बना दिया है। अब तो संकट किसानों के अस्तित्व का ही है। वर्ष 1991 के बाद से किसानों की आत्महत्या की संख्या काफी तेजी से बढ़ी है। सरकारी बजट में कृषि को हिस्सा कम होता गया है ।

नीति निर्धारकों का पूंजीपतियों और समाज के श्रेष्ठि वर्ग के प्रति झुकाव का नतीजा है कि देश के 84 करोड़ लोग बीस रुपए रोजाना पर जीवन बसर को मजबूर हैं। एक ओर विकास के लंबे-चौडे दावे हैं , वहीं गरीबों की सुध लेने वाला कोई नहीं । यह कैसा विकास है जिसमें अमीर की अमीरी और गरीब की गरीबी बढ़ती ही जा रही है ?

पश्चिमी अवधारणा को दोहराते हुए हम भूल जाते हैं कि विकास के संदर्भ में भारत की भी एक सोच रही है। वास्तविक विकास मानव केन्द्रित न होकर पारिस्थितिकी केन्द्रित होता है । एक ऐसी व्यवस्था जिसमें जमीन, जल, जंगल, जानवर, जन का परस्पर पोषण और व्यक्ति का परिवार, पड़ोस, समाज, दुनिया, प्रकृति के साथ तालमेल बना रहे।

गांधी के ग्राम स्वराज की परिकल्पना आज के दौर में और भी प्रासंगिक हो चली है । ग्रामीण परिवेश में सार्थक औजार के रुप में इसे अपना कर नया अर्थ तंत्र रचा जा सकता है । तभी देश में पूर्ण स्वराज की अवधारणा साकार हो सकेगी , जब हर हाथ को काम और हर भूखॆ को भरपेट भोजन मिलेगा ।

शनिवार, 29 नवंबर 2008

अमीरी - गरीबी के खांचे में बंटा आतंकवाद


समझ नहीं आ रहा कि इस वक्त ये कहना ठीक है या नहीं , लेकिन चुप रहकर अकेले घुटने से तो यही बेहतर है कि कह कर अपना मन हल्का कर लिया जाए । फ़िर भले ही लोग चाहे जितना गरिया लें । वैसे भी देश में सभी लोग सिर्फ़ अपने लिए ही तो जी रहे हैं । उनमें एक मैं भी शामिल हो जाऊं तो हर्ज़ ही क्या है ?
देश की सडकों पर बहने वाले खून की कीमत टेंकर के पानी से भी सस्ती है । लेकिन पहली मर्तबा अमीरों को भी एहसास हुआ है कि लहू का रंग सिर्फ़ लाल ही होता है फ़िर चाहे वो गरीबों का ही क्यों ना हो ।
इसमें कोई शक नहीं कि पांच सितारा होटलों में हुए आतंकी हमले बेहद वीभत्स थे । लेकिन क्या ऎसे धमाके देश में पहले कभी नहीं हुए । २६ नवंबर को ही ठीक उसी वक्त सीएसटी में भी लोगों ने अपने परिजनों को खोया ,लेकिन उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं था । मारे गये लोगों की लाश लेने के लिए भटकते परिजनों को सांत्वना देना तो दूर की बात मदद करने वाला तक कोई नहीं था ।
अमीरों की मौत पर स्यापा करने के लिए इलेक्ट्रानिक मीडिया के अंग्रेजीदां पत्रकार भी छातियां पीटने लगते हैं । मगर गरीब की मौत का कैसा मातम ......? वह तो पैदा ही मरने के लिए होता है । चाहे फ़िर वह मौत तिल तिल कर आए या धमाके की शक्ल में ।
हमें उम्मीद करना चाहिए कि जल्दी ही सरकार आतंकियों से निपटने के लिए ठोस कदम उठाएगी ,क्योंकि अब की बार अमेरिका ,ब्रिटेन सरीखे आकाओं के नागरिकों का जीवन भारत में खतरे में पडा है । सदी के महानायक अमिताभ बच्चन की रातों की नींद में खलल पडने लगा है । रुपहले पर्दे पर गरीबों के मसीहा का किरदार निबाहने वाले इस महानायक ने बरसों लोगों की जेबें खाली कर अपनी तिजोरियां भरीं हैं । लेकिन इनकी आंखें आम आदमी के आतंक के शिकार होने पर कभी भी नम नहीं हुईं ।
दिल्ली के धमाकों में अपने बेटे के बच जाने {हालांकि वो घटना स्थल से मीलों दूर थे] पर खुशी का इज़हार करने वाले बिग बी को हादसे के शिकार लोगों की याद तक नहीं आई । धिक्कार है ऎसे स्वार्थी लोगों पर , जो देश के आम लोगों के जज़्बात से खेलते हैं और विदेशों में साम्राज्य खडा करते हैं ।
अमीरों की फ़िक्रमंद सरकारों को अपनी अहमियत का एहसास कराना कब सीखेगा भारत का आम आदमी ? वह सडकों पर रौंदा जाता है । अस्पतालों में कीडे - मकौडों सी ज़िल्लत झेलता है । धमाकों में कागज़ के पुर्ज़ों की मानिंद चीथडों में तब्दील हो जाता है । लेकिन कब वह जानेगा कि उसमें भी जान है , वह भी एक इंसान है ,खास ना सही आम ही सही ....।
बिठा रखे हैं पहरे बेकसी ने
खज़ानों के फ़टे जाते हैं सीने
ज़मीं दहली , उभर आये दफ़ीने
दफ़ीनों को हवा ठुकरा रही है
उठो , देखो वो आंधी आ रही है ।