राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि " किसी भी सुव्यवस्थित समाज में रोज़ी कमाना सबसे सुगम होना चाहिए । बेशक किसी देश की अच्छी अर्थ व्यवस्था की पहचान यह नहीं है कि उसमें कितने लखपति रहते हैं ।" विनोबा भावे ने भी पंडित नेहरु से पहली पंचवर्षीय योजना की रुपरेखा तैयार करते समय कहा था कि -"ऎसी योजनाएं बननी चाहिए ,जिनसे हर भारतीय को रोटी और रोज़गार मिले । गरीब इंतज़ार नहीं कर सकता । "
विश्व बैंक के हाल ही में उपलब्ध कराए गये आंकडों पर गौर करें , तो भारत में साल 2005 में 45.6 करोड से ज़्यादा लोग गरीबी की सूची में शामिल माने गये, जबकि 1981 में 42 करोड गरीब थे । वैश्विक निर्धनता के पैमाने के मुताबिक हर वो शख्स जो प्रतिदिन सवा डालर से कम कमाता है ,वह गरीब माना जाएगा । इस लिहाज़ से आज दुनिया के हर दस गरीबों में चार भारतीय शामिल हैं ।
देश में गरीबी से जूझने के नाम पर बडे पैमाने पर चलाए जा रहे नाटकीय अभियानों को ताज़ा आंकडे आइना दिखाते हैं । कागज़ी घोडे पर सवार हो कर अब तक करोडों लोग गरीबी की रेखा को पार कर चुके हैं लेकिन वास्तविकता के धरातल पर तस्वीर बेहद खौफ़नाक है । गरीबों के लिए चलाई जा रही योजनाओं का सारा फ़ायदा नेताओं , सरकारी मुलाज़िमों और ठेकेदारों को मिल रहा है , जबकि गरीब दो वक्त की रोटी को भी मोहताज है ।
देश में सबसे निराश करने वाली स्थिति ये है कि रुपया एक तिजोरी से दूसरी तिजोरी तक का छोटा और तयशुदा सफ़र कर रहा है । यही वजह है ,जो समाज के बडे तबके तक रुपए की पहुंच का रास्ता बंद सा है । भ्रष्टाचार के कारण गैरबराबरी की खाई दिनोंदिन चौड़ी होती जा रही है। मानव समुदायों के बीच लगातार बढती सामाजिक और आर्थिक असमानता समाज में कई विसंगतियों का सबब बन गई है । अर्थ व्यवस्था की इस खामी के कारण समाज दो वर्गों में स्पष्ट तौर पर बंट चुका है ।
मौजूदा दौर में लंबी-चौड़ी सड़कों के निर्माण और जीडीपी को ही विकास का पैमाना माना जा रहा है । सत्ता में बैठे लोग मीडिया के एक बडे वर्ग की मदद से इसी अवधारणा को सच साबित करने पर तुले हैं । अंगुली पर गिने जा सकने वाले महानगरों की चकाचौंध भरी दुनिया ही विकास का पर्याय बन गई है । लोग शेयर बाजार की उछाल और विदेशी मुद्रा भंडार के साथ-साथ शापिंग मॉल्स की बढ़ती संख्या को ही तरक्की का सूचक बताते नहीं थकते ।
मौजूदा व्यवस्था पूंजीवादियों के हित साधने में लगी है । इसके विपरीत मानव श्रम से जुडे मुद्दों को नज़र अंदाज़ किया जा रहा है । औद्योगिक क्रांति के नाम पर प्राकृतिक संपदा का ना सिर्फ़ बेरहमी से दोहन हो रहा है । कुदरत की अनमोल धरोहर को समूल नष्ट करने में भी कोई कोर कसर नहीं छोडी गई है ।
अगर सही मायने में विकास हुआ होता तो क्या देश में चारों ओर खुशहाली नहीं आई होती ? क्यों किसान आत्महत्या पर मजबूर होते ? भारतीय संदर्भ में जब भी विकास की बात होगी , तब इससे जुडी कुछ बुनियादी शर्तों को समझना भी ज़रुरी होगा । यहां वास्तविक विकास वही है , जिसमें अंतिम व्यक्ति का हित सर्वोपरि रहे ।
भारत में विकास तब तक सतही और खोखला माना जाएगा जब तक देश का अन्नदाता किसान सुखी और समृध्द नहीं है । आजादी के शुरूआती वर्षों में खेती को पटरी पर लाने के लिए कई प्रयास हुए। किसानों के पारंपरिक ज्ञान और जीवनशैली को दरकिनार करते हुए पश्चिमी तौर-तरीके अपनाने के कारण पैदावार बढी , साथ ही कई समस्याएं भी उत्पन्न हो गईं। ‘आर्थिक उदारवाद’ ने किसानों का जीवन और मुश्किल बना दिया है। अब तो संकट किसानों के अस्तित्व का ही है। वर्ष 1991 के बाद से किसानों की आत्महत्या की संख्या काफी तेजी से बढ़ी है। सरकारी बजट में कृषि को हिस्सा कम होता गया है ।
नीति निर्धारकों का पूंजीपतियों और समाज के श्रेष्ठि वर्ग के प्रति झुकाव का नतीजा है कि देश के 84 करोड़ लोग बीस रुपए रोजाना पर जीवन बसर को मजबूर हैं। एक ओर विकास के लंबे-चौडे दावे हैं , वहीं गरीबों की सुध लेने वाला कोई नहीं । यह कैसा विकास है जिसमें अमीर की अमीरी और गरीब की गरीबी बढ़ती ही जा रही है ?
पश्चिमी अवधारणा को दोहराते हुए हम भूल जाते हैं कि विकास के संदर्भ में भारत की भी एक सोच रही है। वास्तविक विकास मानव केन्द्रित न होकर पारिस्थितिकी केन्द्रित होता है । एक ऐसी व्यवस्था जिसमें जमीन, जल, जंगल, जानवर, जन का परस्पर पोषण और व्यक्ति का परिवार, पड़ोस, समाज, दुनिया, प्रकृति के साथ तालमेल बना रहे।
गांधी के ग्राम स्वराज की परिकल्पना आज के दौर में और भी प्रासंगिक हो चली है । ग्रामीण परिवेश में सार्थक औजार के रुप में इसे अपना कर नया अर्थ तंत्र रचा जा सकता है । तभी देश में पूर्ण स्वराज की अवधारणा साकार हो सकेगी , जब हर हाथ को काम और हर भूखॆ को भरपेट भोजन मिलेगा ।
विश्व बैंक के हाल ही में उपलब्ध कराए गये आंकडों पर गौर करें , तो भारत में साल 2005 में 45.6 करोड से ज़्यादा लोग गरीबी की सूची में शामिल माने गये, जबकि 1981 में 42 करोड गरीब थे । वैश्विक निर्धनता के पैमाने के मुताबिक हर वो शख्स जो प्रतिदिन सवा डालर से कम कमाता है ,वह गरीब माना जाएगा । इस लिहाज़ से आज दुनिया के हर दस गरीबों में चार भारतीय शामिल हैं ।
देश में गरीबी से जूझने के नाम पर बडे पैमाने पर चलाए जा रहे नाटकीय अभियानों को ताज़ा आंकडे आइना दिखाते हैं । कागज़ी घोडे पर सवार हो कर अब तक करोडों लोग गरीबी की रेखा को पार कर चुके हैं लेकिन वास्तविकता के धरातल पर तस्वीर बेहद खौफ़नाक है । गरीबों के लिए चलाई जा रही योजनाओं का सारा फ़ायदा नेताओं , सरकारी मुलाज़िमों और ठेकेदारों को मिल रहा है , जबकि गरीब दो वक्त की रोटी को भी मोहताज है ।
देश में सबसे निराश करने वाली स्थिति ये है कि रुपया एक तिजोरी से दूसरी तिजोरी तक का छोटा और तयशुदा सफ़र कर रहा है । यही वजह है ,जो समाज के बडे तबके तक रुपए की पहुंच का रास्ता बंद सा है । भ्रष्टाचार के कारण गैरबराबरी की खाई दिनोंदिन चौड़ी होती जा रही है। मानव समुदायों के बीच लगातार बढती सामाजिक और आर्थिक असमानता समाज में कई विसंगतियों का सबब बन गई है । अर्थ व्यवस्था की इस खामी के कारण समाज दो वर्गों में स्पष्ट तौर पर बंट चुका है ।
मौजूदा दौर में लंबी-चौड़ी सड़कों के निर्माण और जीडीपी को ही विकास का पैमाना माना जा रहा है । सत्ता में बैठे लोग मीडिया के एक बडे वर्ग की मदद से इसी अवधारणा को सच साबित करने पर तुले हैं । अंगुली पर गिने जा सकने वाले महानगरों की चकाचौंध भरी दुनिया ही विकास का पर्याय बन गई है । लोग शेयर बाजार की उछाल और विदेशी मुद्रा भंडार के साथ-साथ शापिंग मॉल्स की बढ़ती संख्या को ही तरक्की का सूचक बताते नहीं थकते ।
मौजूदा व्यवस्था पूंजीवादियों के हित साधने में लगी है । इसके विपरीत मानव श्रम से जुडे मुद्दों को नज़र अंदाज़ किया जा रहा है । औद्योगिक क्रांति के नाम पर प्राकृतिक संपदा का ना सिर्फ़ बेरहमी से दोहन हो रहा है । कुदरत की अनमोल धरोहर को समूल नष्ट करने में भी कोई कोर कसर नहीं छोडी गई है ।
अगर सही मायने में विकास हुआ होता तो क्या देश में चारों ओर खुशहाली नहीं आई होती ? क्यों किसान आत्महत्या पर मजबूर होते ? भारतीय संदर्भ में जब भी विकास की बात होगी , तब इससे जुडी कुछ बुनियादी शर्तों को समझना भी ज़रुरी होगा । यहां वास्तविक विकास वही है , जिसमें अंतिम व्यक्ति का हित सर्वोपरि रहे ।
भारत में विकास तब तक सतही और खोखला माना जाएगा जब तक देश का अन्नदाता किसान सुखी और समृध्द नहीं है । आजादी के शुरूआती वर्षों में खेती को पटरी पर लाने के लिए कई प्रयास हुए। किसानों के पारंपरिक ज्ञान और जीवनशैली को दरकिनार करते हुए पश्चिमी तौर-तरीके अपनाने के कारण पैदावार बढी , साथ ही कई समस्याएं भी उत्पन्न हो गईं। ‘आर्थिक उदारवाद’ ने किसानों का जीवन और मुश्किल बना दिया है। अब तो संकट किसानों के अस्तित्व का ही है। वर्ष 1991 के बाद से किसानों की आत्महत्या की संख्या काफी तेजी से बढ़ी है। सरकारी बजट में कृषि को हिस्सा कम होता गया है ।
नीति निर्धारकों का पूंजीपतियों और समाज के श्रेष्ठि वर्ग के प्रति झुकाव का नतीजा है कि देश के 84 करोड़ लोग बीस रुपए रोजाना पर जीवन बसर को मजबूर हैं। एक ओर विकास के लंबे-चौडे दावे हैं , वहीं गरीबों की सुध लेने वाला कोई नहीं । यह कैसा विकास है जिसमें अमीर की अमीरी और गरीब की गरीबी बढ़ती ही जा रही है ?
पश्चिमी अवधारणा को दोहराते हुए हम भूल जाते हैं कि विकास के संदर्भ में भारत की भी एक सोच रही है। वास्तविक विकास मानव केन्द्रित न होकर पारिस्थितिकी केन्द्रित होता है । एक ऐसी व्यवस्था जिसमें जमीन, जल, जंगल, जानवर, जन का परस्पर पोषण और व्यक्ति का परिवार, पड़ोस, समाज, दुनिया, प्रकृति के साथ तालमेल बना रहे।
गांधी के ग्राम स्वराज की परिकल्पना आज के दौर में और भी प्रासंगिक हो चली है । ग्रामीण परिवेश में सार्थक औजार के रुप में इसे अपना कर नया अर्थ तंत्र रचा जा सकता है । तभी देश में पूर्ण स्वराज की अवधारणा साकार हो सकेगी , जब हर हाथ को काम और हर भूखॆ को भरपेट भोजन मिलेगा ।