नौतपा कभी तीखे तो कभी नरम तेवर दिखाकर बिदा हो गया । उमस भरे माहौल में अब सभी लोग आसमान की ओर टकटकी लगाकर निहारने लगे हैं कि झूमकर कब बरसेंगे काले बादल ! मानसून के मौसम के आने की आहट ने सरकारी महकमों में भी हलचल मचा दी है । विधानसभा चुनावों की भारी सफ़लता पर इतराती भाजपा को आम चुनावों में मतदाताओं ने ठेंगा दिखा दिया । अचानक मिले इस आघात को सत्तारुढ़ दल अब तक पचा नहीं पा रहा है । लेकिन हकीकत तो हकीकत ही रहेगी । सो आधे-अधूरे मन से सच्चाई को कभी स्वीकारते तो कभी नकारते हुए पार्टी आगे बढ़ चली है ।
कहावत है " कुम्हार कुम्हारिन से ना जीते,तो दौड़ गधैया के कान उमेठे ।" सो प्रदेश में भाजपा भी अपनी अँदरुनी कमियों की ओर से आँखें मूँदकर नौकरशाही और सरकारी अमले पर हार का ठीकरा फ़ोड़ने पर आमादा है । सरकारी अधिकारियों को हार के लिये ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है कि अमले ने सरकार की योजनाएँ ठीक तरह से जनता तक नहीं पहुँचाईं । ज़ाहिर है अपराध किया है तो दंड भी मिलेगा । सरकार की नाराज़गी मलाईदार पदों से हटाने की कवायद के तौर पर सामने आना लगभग तय है । एक स्थानीय चैनल मंदी के दौर में भी ’तबादला उद्योग’में एकाएक आई तेज़ी का ब्यौरा दे रहा था कि जैसा पद वैसी भेंट-पूजा । लिपिक वर्ग के लिये पच्चीस हज़ार से शुरु होने वाला आँकड़ा नौकरशाहों तक पहुँचते-पहुँचते लाखों में तब्दील हो जाता है ।
बहरहाल राजधानी में हींग लगे ना फ़िटकरी वाले इस मुनाफ़े के व्यवसाय के कर्ता-धर्ता सक्रिय हो चुके हैं । दलालों ने भी अपनी जुगाड़ लगाना शुरु कर दी है । कई छुटभैये नेता और पत्रकार तो तबादलों के मौसम में इतनी चाँदी काट लेते हैं कि उन्हें अगले कुछ साल हाथ-पैर हिलाने की कोई ज़रुरत ही नहीं । मगर हमेशा की तरह मेरी मोटी बुद्धि में यह बात नहीं घुस पाती कि तबादलों के ज़रिये प्रशासनिक सर्जरी के नाम पर हर साल तबादलों पर सरकारी खज़ाने से करोड़ों रुपए फ़ूँक दिये जाते हैं । महीने-दो महीने सारी मशीनरी ठप्प पड़ जाती है । कुछ दिन बाद पैसा ,पॉवर और संपर्कों के दम पर जहाँ था-जैसा था की स्थिति बन ही जाती है ।
ये बात गौर करने वाली है कि नौकरशाही का काम सरकार की योजनाओं का प्रचार-प्रसार करना नही,बल्कि उन्हें सही तरीके से अंजाम देना है । अगर वह अपने काम को बखूबी अंजाम देने में नाकाम रहती है तो राजनेता भी अपनी ज़िम्मेदारी से बरी नहीं हो सकते,क्योंकि घुड़सवारी का नियम कहता है कि घोड़े की क्षमता घुड़सवार की काबीलियत पर निर्भर करती है । बार- बार तबादले करने की रणनीति नेताओं की तिजोरी तो भर सकती है लेकिन सरकारी अमले के मनोबल और खज़ाने पर इसका विपरीत असर ही पड़ता है । तबादले दंडित करने के हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने की चाहत अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने के सिवाय कुछ भी नहीं ।
वैसे नौकरशाह भी कुछ कम नहीं । आमतौर पर नेताओं के भ्रष्टाचार को लेकर तो लोग खूब बातें करते हैं और गाहे बगाहे उनका गुस्सा फ़ूटते भी देखा गया है । लेकिन दीमक की तरह सरकारी खज़ाने को बरसों-बरस चट करने वाले नौकरशाहों का क्या कीजियेगा ? प्रक्रियात्मक पेचीदगियों के बूते कानून और अधिकारों को अपने कब्ज़े में रखने वाली नौकरशाही पर लगाम लगाना किसी भी सरकार के लिये आसान काम नहीं है । देश के विकास और जनकल्याण की राह में लालफ़ीताशाही सबसे बड़ा रोड़ा है ।
देश में नौकरशाहों के "नौ दिन चले अढ़ाई कोस" वाले रवैये से तो सब वाकिफ़ हैं ,लेकिन कामकाज और क्षमता के मामले में भी वे फ़िसड्डी साबित हुए हैं । दूर देश में हुए सर्वे की रिपोर्ट भी इसकी तस्दीक करती है । एशिया के 12 देशों में काम कर रहे 1275 विशेषज्ञों रायशुमारी के आधार पर तैयार सर्वे कहता है कि भारत में आम आदमी को प्रशासनिक प्रणाली के सुस्त रवैये से हर दिन रुबरु होना पड़ता है । केन्द्र और राज्य स्तर के सभी अधिकार इन्हीं के पास रहते हैं । हांगकांग की पॉलिटिकल और इकॉनॉमिक रिस्क कंसलटेंसी की ओर से कराये गये सर्वे में सिंगापुर कामकाज के मामले में लगातार तीसरी बार अव्वल रहा,वहीं भारत बारह देशों के इस सर्वे में सबसे आखिरी पायदान पर है ।
वैसे एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि हमारे यहाँ के नौकरशाह काम करने के मामले चाहे जितने फ़िसड्डी हों लेकिन भ्रष्ट आचरण के मामले में नेताओं के साथ "ताल से ताल " मिलाते नज़र आते हैं । हाल के सालों में भ्रष्टाचार के शिखर पर काबिज़ राजनेताओं का अनुसरण करने में नौकरशाह ’बेजोड़’साबित हुए हैं । बर्लिन की संस्था ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने ग्लोबल करप्शन बैरोमीटर 2009 जारी किया है ,जिसके आँकड़े बताते हैं कि भारत में राजनीतिक दल सबसे भ्रष्ट संस्था है । सर्वे में 58 फ़ीसदी लोगों ने माना कि राजनीतिज्ञ सबसे ज़्यादा भ्रष्ट हैं । 13 लोगों ने नौकरशाहों को घूसखोरी के मामले में दूसरे नम्बर पर रखा है । ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल संगठन ने ही साल 2005 में एक अध्ययन कराया था जिसमें कहा गया था कि भारत में लोग बुनियादी सेवाएँ हासिल करने के लिए चार अरब अमरीकी डॉलर के बराबर रक़म हर साल रिश्वत के रूप में देते हैं । विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में सालाना 210 अरब रुपए रिश्वत में दिए जाते हैं ।
एशिया के भ्रष्ट देशों की सूची में भारत नौवें स्थान पर है तो विश्व के 158 देशों की सूची में भारत 88वें स्थान पर है। भारत में भ्रष्टाचार की चर्चा जितनी चाहे हो चुकी हो फिर भी ये आंकड़े चौंका देते हैं । सुन कर लगता है मानो पूरे देश ने भ्रष्टाचार के सामने घुटने ही टेक दिए हों। हम इसके प्रति इतने उदासीन हो गए हैं कि भ्रष्टाचार शिष्टाचार बन गया है । मगर भ्रष्टाचार क्या देश की सांस्कृतिक सच्चाई बन गया है या इसके दूसरे कारण भी हैं ।
कई लोग कहते हैं कि देश में लोकतंत्र की परिपक्वता की कमी की वजह से भ्रष्टाचार फैल रहा है । दूसरी तरफ़ यह कड़वी सच्चाई है कि लोकतंत्र की जड़ें और कमज़ोर करने में भी भ्रष्टाचार की बड़ी भूमिका होती है । विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार 40 प्रतिशत न्यायिक मामल रिश्वत के बल पर प्रभावित किए जाते हैं और भ्रष्ट सरकारी अमलों में पुलिस सबसे ऊपर है । यह समझने के लिए किसी अर्थशास्त्री की ज़रूरत नहीं है कि ग़रीबों का सबसे बड़ा दुश्मन भ्रष्टाचार ही है जो उसे रोटी,अवसर और अधिकारों से दूर करता है । नेताओं को तो चुनाव में जनता सबक सिखा ही देती है ,लेकिन नियुक्ति के बाद चालीस-पैंतालीस साल बेखौफ़ और बेफ़िक्र होकर सरकार को चूना लगानी वाली बेलगाम नौकरशाही की नाक में नकेल कौन कसेगा और कैसे ....??????
4 टिप्पणियां:
सरिता जी,
जहाँ तक मेरा अनुभव है अपने देश में आज भ्रष्टाचार उस हद तक पहुँच चुका है जहां उसे एक उसे अघोषित मान्यता मिल चुकी है...मुश्किल ये है की ये एक माला का रूप ले चुकी है जिसका सिरा कहाँ है पता नहीं चल रहा ...अब तो कोई बड़ा जनांदोलन ही इससे मुक्ति दिला सकता है......आलेख बेहद विश्लेषणात्मक है.....
गंगा भ्रष्टाचार की लगता यहाँ अथाह।
सही जागरण हो अगर सुधरे नौकरशाह।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.
अजय झा से सहमत, अब एक "बड़ी सर्जरी" ही इस कैंसर को ठीक कर सकती है…
nice post
http://www.ashokvichar.blogspot.com
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