सावधान ब्लॉगर बंधुओं .....। हिन्दी के विकास के लिए काम करने वाले मठाधीशों के टिड्डी दल हमले की तैयारी में है । राजभाषा हिन्दी के उद्धारकों की निगाह हिन्दी ब्लॉगिंग पर पड गई है और जल्दी ही ये खेमा पूरे लाव लश्कर के साथ धावा करने वाला है । लार्वा और प्यूपा तो काफ़ी समय से नज़र आ रहे थे , लेकिन टिड्डी दल का आक्रमण हम जैसे तमाम छोटे - छोटे नौसीखिए ब्लॉगरों की नई उगती फ़सल को मिनटों में सफ़ाचट कर देगा । हिन्दी पर कृपादृष्टि बरसाने वाले पतित पावनों को अब ब्लॉग जगत के उद्धार [बंटाढार] की फ़िक्र सताने लगी है ।
कविता , व्यंग्य , निबंध और कहानी पाठ के माध्यम से हिन्दी को लोकप्रिय बनाने के हथकंडे आज़मा रहे ’चुके हुए लोग” अब हिन्दी ब्लॉग पाठ के प्रयोग को सफ़ल बनाने पर उतारु हैं । इस कवायद से हिन्दी का कितना भला हो सकेगा ये तो वक्त ही बताएगा । लेकिन इस नई पहल से हिन्दी के मठाधीशों का भला होना तय है ।
मेरा मानना है कि सरकारी अनुदान और प्रश्रय पाकर हिन्दी की चिन्दी ही हुई है । अंग्रेज़ीदां हिन्दी प्रेमियों ने हिन्दी को किताबी भाषा बनाकर रख दिया है । गोष्ठियों , चर्चाओं तक सिमट कर रह गई राजभाषा की इस दुर्दशा के लिए हिन्दी के ही स्वनामधन्य विद्वान ज़िम्मेदार हैं । "किसी देश की स्मृति ,संस्कृति और राष्ट्रीयता को भाषा ही प्रतिबिम्बित करती है ।" शैलेश मटियानी के इस कथन को यदि थोडा और विस्तार दिया जाए तो कहा जा सकता है - किसी देश की स्मृति ,संस्कृति और राष्ट्रीयता को भाषा ही संरक्षित भी रखती है ।
जिस तरह स्मृति ,संस्कृति और राष्ट्रीयता के प्रश्न किसी जाति की अस्मिता से जुडे होते हैं , उसी तरह भाषा का प्रश्न भी हमारी अस्मिता और हमारे अस्तित्व से जुडा है । लेकिन आज मुश्किल ये है कि ये सवाल चंद मुट्ठी भर लोगों के चिंतन का विषय बनकर रह गया है । इस जमात में भी कई लोग ऎसे हैं , जो खुद भी अपने कहे और सोचे पर अमल करने में नाकाम हैं । बाकी बचे वे लोग जो कुछ करने की स्थिति में हैं ,मगर निहित स्वार्थों के वशीभूत आँखें मूंद रखी हैं और देश को उसके हाल पर छोड दिया है , जबकि इस जनतंत्र में जन की तो अभी ठीक से आँखें भी पूरी तरह नहीं खुलीं हैं । मूंदने या सच को देखने या फ़िर अनदेखा करने की तो बात ही कौन कहे ...?
बहरहाल मुख्य मुद्दा ये है कि ब्लॉग पाठ के ज़रिए हिन्दी को जनप्रिय बनाने की कोशिश कितनी कारगर साबित होगी । आप मुझे कुएं का मेंढक करार दे सकते हैं ,लेकिन मैं तो भोपाल को केन्द्र में रखकर ही चीज़ों को देखने समझने की आदी हो चुकी हूं । वैसे भी जिस तरह इंदौर को मुम्बई बच्चा कहा जाता है ,उसी तरह दिल्ली और भोपाल के मिजाज़ भी कमोबेश एक से हैं । सरकारी ढर्रा दोनों राजधानियों की तस्वीर को हमजोली बना देता है । ये और बात है कि दिल्ली का इतिहास काफ़ी लम्बा है और भोपाल महज़ डेढ - दो सौ सालों की यादें अपने में समेटे है ।
भोपाल में एक हिन्दी भवन है । जूते ,चप्पल ,कपडों की महासेल और विवाह समारोह के शोर शराबे के बीच यहां हिन्दी की सेवा कितनी हो पाती है भगवान ही जाने ...। यही हाल हिन्दी साहित्य सम्मेलन का भी है । इसी तरह की कुछ और भी हिन्दी सेवी संस्थाएं हैं , जो 14 सितम्बर [हिन्दी दिवस]के आसपास सुसुप्तावस्था से बाहर आती हैं और फ़िर ’हाइबरनेश’ में चला जाता है । हिन्दी का सारा ज्ञान ’सरकारी अनुदान’ हासिल करने की लिखत - पढत में ही काम आता है ।
कहावत है -" जहं - जहं पैर पडे संतन के , तहं - तहं बंटाढार ।" उसी तरह जिस जगह सरकार की कृपावर्षा हुई , उसका तो खुदा हाफ़िज़ ...। संगीत , नाटक , ललित कला , हस्तकला और लोक कलाओं के संरक्षण के लिए चिंतातुर बडे - बडे सरकारी संस्थान ’ सफ़ेद हाथी’ बन चुके हैं और कलाएं धीरे - धीरे दम तोड रही हैं । हाल ही में राजधानी में एक लोककला समारोह हुआ था , जिसका आमंत्रण पत्र किसी धनाढ्य के बेटे की शादी की पत्रिका से किसी भी मायने में कमतर नहीं था । उस कार्ड की कीमत सुन कर तो मेरे होश ही फ़ाख्ता हो गये । चार सौ रुपए कीमत के आमंत्रण पत्र वाले आयोजन पर सरकार ने कितना खर्च किया होगा , इसका अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है , लेकिन इससे लोक कलाकारों की ज़िन्दगी में क्या बदलाव आया ..?लोक कलाकारों के लिए ये आयोजन -’चार दिन की चांदनी , फ़िर अंधियारी रात।’
इसलिए एक बार फ़िर आपको आगाह किए देते हैं कि बचा सको तो , बचा लो हिन्दी ब्लॉगिंग को ...। हिन्दी के मठाधीशों के जैविक हमले से बचने के उपाय सोचो , वरना हिन्दी ब्लॉगिंग की ’भ्रूण हत्या’ की पूरी आशंका है । जिस भी विधा में आम को ठेल कर खास लोग आते हैं , वह संग्रहालय में प्रदर्शन की वस्तु बनकर रह जाती है । जागो ब्लॉगर जागो ............।