भोपाल की शुरु से ही इल्म - अदब और शायरी के मैदानों मे खास हैसियत रही है । इस शहर ने कई बडे शायर पैदा किए और उर्दू शायरी की दुनिया में अपना अलग मकाम बनाया । यही वजह है कि भोपाल की शायरी को लखनऊ और दिल्ली की शायरी से बेहतर माना जाता है ।
" शहरे गज़ल " के नाम से मशाहूर इस शहर को शायरी से ही पहचाना गया । यहां शायरी का दौर गज़ल से ही शुरु हुआ । दरअसल भोपाल में कसीदा , मसनवी और मर्सिया वगैरह का रिवाज़ कभी रहा ही नहीं । भोपाल की मिट्टी से पैदा हुए मशहूर शायर सिराज मीर खां सहर भी गज़ल से ही पहचाने गयॆ । उनकी गज़ल का शेर - सीने में दिल है , दिल में दाग ;दाग में सोज़ो-साज़े इश्क ।पर्दा ब पर्दा निहां,पर्दानशीं का राज़े इश्क । पूरे देश में भोपाल की पहली शिनाख्त था ।
खैर भोपाल की शायरी पर तफ़सील स्र चर्चा फ़िर कभी । मरहूम अख्तर सईद खां कहा करते थे कि इस शहर का मिजाज़ और मौसम ही कुछ ऎसा है जो यहां आया वो यहीं का होकर रह गया । फ़िर गज़ल की परवरिश के लिए जिस शोले की तपिश और शबनम की ठन्डक चाहिए वो यहां के खुशगवार मौसम में भी मौजूद है । मौसम की कैफ़ियत कुछ ऎसी थी कि ना ज़्यादा गर्मी ,ना ज़्यादा सर्दी और शहर के बाशिंदों के मिजाज़ में भी मौसम की यही रुमानियत घुलमिल गयी ।
शायरों से जुडा एक दिलचस्प किस्सा भी उस दौर के भोपाल की खुशमिजाज़ तबियत की दास्तान बयां करता है । शहर के उर्दू अदब का कारवां अल्लामा इकबाल और जिगर मुरादाबादी के ज़िक्र के बगैर अधूरा है । जिगर साहब कुछ फ़क्कड और अलमस्त तबियत के शख्स थे । जिगर साह्ब का मानना था कि बेहतर शायर होने के लिए अच्छा इंसान होना ज़रुरी है । १९२८ - २९ में वो पहली मर्तबा हामिद सईद खां के बुलावे पर भोपाल आए और फ़िर तो वो अक्सर आने लगे । उसी दौर में फ़क्कड शायरों का एक अनोखा क्लब बना नाम रखा गया - दारुल काहिला ।
मज़े की बात ये थी कि चुनिदा शायरों की इस जमात ने क्लब के मेम्बरान के लिए कुछ कास किस्म के कायदे तय किए थे । मसलन - सबसे ज़रुरी शर्त तो ये कि हरेक सदस्य को अपना तकिया साथ लेकर आना होगा । नियमों में एक ये भी था कि लेटा हुआ बैठे हुए को ,बैठा हुआ खडे हुए को और खडा हुआ चलते हुए को हुक्म दे सकता था । इसका नतीजा ये हुआ कि काहिला क्लब का हरेक सदस्य लेटकर ही क्लब में दाखिल होने लगा ताकि उसे किसी का हुक्म बजाने की नौबत ही ना आ सके ।
और आखिर में जिगर साहब का ही इक शेर -
साकी की हर निगाह पे बल खा के पी गया ,
लहरों पे खेलता हुआ , लहरा के पी गया ।
" शहरे गज़ल " के नाम से मशाहूर इस शहर को शायरी से ही पहचाना गया । यहां शायरी का दौर गज़ल से ही शुरु हुआ । दरअसल भोपाल में कसीदा , मसनवी और मर्सिया वगैरह का रिवाज़ कभी रहा ही नहीं । भोपाल की मिट्टी से पैदा हुए मशहूर शायर सिराज मीर खां सहर भी गज़ल से ही पहचाने गयॆ । उनकी गज़ल का शेर - सीने में दिल है , दिल में दाग ;दाग में सोज़ो-साज़े इश्क ।पर्दा ब पर्दा निहां,पर्दानशीं का राज़े इश्क । पूरे देश में भोपाल की पहली शिनाख्त था ।
खैर भोपाल की शायरी पर तफ़सील स्र चर्चा फ़िर कभी । मरहूम अख्तर सईद खां कहा करते थे कि इस शहर का मिजाज़ और मौसम ही कुछ ऎसा है जो यहां आया वो यहीं का होकर रह गया । फ़िर गज़ल की परवरिश के लिए जिस शोले की तपिश और शबनम की ठन्डक चाहिए वो यहां के खुशगवार मौसम में भी मौजूद है । मौसम की कैफ़ियत कुछ ऎसी थी कि ना ज़्यादा गर्मी ,ना ज़्यादा सर्दी और शहर के बाशिंदों के मिजाज़ में भी मौसम की यही रुमानियत घुलमिल गयी ।
शायरों से जुडा एक दिलचस्प किस्सा भी उस दौर के भोपाल की खुशमिजाज़ तबियत की दास्तान बयां करता है । शहर के उर्दू अदब का कारवां अल्लामा इकबाल और जिगर मुरादाबादी के ज़िक्र के बगैर अधूरा है । जिगर साहब कुछ फ़क्कड और अलमस्त तबियत के शख्स थे । जिगर साह्ब का मानना था कि बेहतर शायर होने के लिए अच्छा इंसान होना ज़रुरी है । १९२८ - २९ में वो पहली मर्तबा हामिद सईद खां के बुलावे पर भोपाल आए और फ़िर तो वो अक्सर आने लगे । उसी दौर में फ़क्कड शायरों का एक अनोखा क्लब बना नाम रखा गया - दारुल काहिला ।
मज़े की बात ये थी कि चुनिदा शायरों की इस जमात ने क्लब के मेम्बरान के लिए कुछ कास किस्म के कायदे तय किए थे । मसलन - सबसे ज़रुरी शर्त तो ये कि हरेक सदस्य को अपना तकिया साथ लेकर आना होगा । नियमों में एक ये भी था कि लेटा हुआ बैठे हुए को ,बैठा हुआ खडे हुए को और खडा हुआ चलते हुए को हुक्म दे सकता था । इसका नतीजा ये हुआ कि काहिला क्लब का हरेक सदस्य लेटकर ही क्लब में दाखिल होने लगा ताकि उसे किसी का हुक्म बजाने की नौबत ही ना आ सके ।
और आखिर में जिगर साहब का ही इक शेर -
साकी की हर निगाह पे बल खा के पी गया ,
लहरों पे खेलता हुआ , लहरा के पी गया ।
3 टिप्पणियां:
साकी की हर निगाह पे बल खा के पी गया ,
लहरों पे खेलता हुआ , लहरा के पी गया ।
bahut umda lines
regards
bahut khobsoorat sa lekh
भोपाल के बारे में आपने बड़ी अच्छी जानकारी दी है। आपके भोपाल में मेरठ शहर से गए मशहूर शायर बशीर बद्र ने भी डेरा जमाया है । उनका तो आपने िजक्र ही नहीं िकया । मेरठ को लेकर कहा गया उनका एक शेर है जो शायद भोपाल के िलए भी उतना ही मौजू है-
कोई हाथ भी न िमलाएगा जो गले िमलोगे तपाक से,
ये नए िमजाज का शहर है जरा फासले से िमला करो ।
खैर आपने अच्छी जानकारी दी , शुिक्रया।
maine apney blog per ek lekh -kitni ladaiyein ladeingi ladkiyan-likha hai.aapki rai mere liye badi mahatavpurn hogi.
http://www.ashokvichar.blogspot.com
आपकी लेखनी किसी को भी कायल और घायल कर सकती है। वाकई आप इतने सरल शब्दों और कम शब्दों में वह लिख जाती है तो पोथे पढ़ने से भी समझ में नहीं आता। इस सफर को जारी रखें।
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