मेरी पिछली पोस्ट करवा चौथ के बहाने पर मिलीं प्रतिक्रियाओं के मद्देनज़र चाहे अनचाहे महिला मुद्दे पर बात करना ज़रुरी लगने लगा । इस पोस्ट को पढने के बाद कई लोगों ने मुझे जमकर लानत भेजी । साथ ही ये भी हिदायत दे डाली कि परंपराओं का मज़ाक बनाना अच्छा बात नहीं । किसी की आस्थाओं को चोट पहुंचाना मेरा मकसद बिलकुल नहीं था । वैसे भी मैंने आलेख में ऎसी कोई गैर वाजिब बात कही भी नहीं । सिर्फ़ वही लिखा ,जो दिखा । बल्कि समाज के अलग - अलग वर्गों में औरतों की हालिया स्थिति को एक साथ रखने की छोटी सी कोशिश की ।
मेरा अब भी यही मानना है कि परंपराओं को त्यागने की नहीं , समय के मुताबिक ज़रुरी तब्दीली की ज़रुरत है । देश के जिन प्रांतों में करवा चौथ और हरतालिका तीज का सबसे ज़्यादा महिमा मंडन है ,उन्हीं इलाकों की कडवी हकीकत ये भी है कि वहां महिलाओं के प्रति नज़रिया अब भी मध्ययुगीन ही है । कन्या भ्रूण हत्या , बलात्कार , दहेज हत्या , अपहरण , छेड्छाड , मानसिक और शारीरिक उत्पीडन , और भी कई अनाम तरह की हिंसा का सबसे अधिक प्रतिशत वाला इलाका साल में दो बार महिलाओं को देवी का दर्ज़ा देकर पूजता है , लेकिन साल के बाकी दिन महिलाओं के अस्तित्व को नकारता नज़र आता है।
मैं कभी महिला स्वातंत्र्य की हिमायती नहीं रही । आज़ादी किससे और क्यों ? मेरी राय में जब भी हम आज़ादी की बात कहते हैं तो कहीं ना कहीं इस मान्यता की पुष्टि करते हैं कि महिलाओं का मालिक पुरुष है । दरअसल किसी और को दोषी करार देने या आज़ादी के लिए गिडगिडाने की बजाय महिलाओं को अपने अस्तित्व को भीतर तक जानने की ज़रुरत है । किसी शायर ने क्या खूब कहा है ---
मैं इक उम्र के बाद खुद को समझा हूं ,
रुकूं तो किनारा , बहूं तो दरिया हूं ।
कई महिला पत्रिकाओं और अखबारों में महिला पाठकों के लिए परोसे जा रहे मसौदों पर भी मुझे सख्त एतराज़ है । कब तक औरतें बनाव - श्रंगार , बुनाई - कढाई या सास - ननद के किस्सों में उलझी रहेंगी । महिलाओं का एक समूह स्त्री विमर्श के नाम पर महिलाओं के नैसर्गिक गुणों पर अजीबोगरीब चर्चा कर खुद को धन्य मान बैठा है । वहीं दूसरा बडा तबका सदियों से चली आ रही परंपराओं के निर्वहन में ही अपने जीवन की सार्थकता तलाश रहा है । महिलाओं की तरक्की का रास्ता इन दोनों भूलभुलैयाओं के बीच से होकर गुज़रता है । उम्मीद है पति, पिता ,भाई और बेटों की सलामती और तरक्की के लिए भूख प्यास भूलकर कठिन व्रत करने वाली भारत की नारी अपने अस्तित्व को पहचानने के लिए जल्द ही कोई रास्ता ढूंढ निकालेगी ।
6 टिप्पणियां:
जिन लोगों को आपके करवा चौथ वाले लेख पर एतराज है कि आप इसका मजाक बना रही हैं, वे खुद यह बताएं कि क्या उन्होंने बेटे और बेटी, बेटी या बहू में अंतर नहीं किया, जवाब पूरी ईमानदारी के साथ आना चाहिए। आपने अपनी रिपोर्ट में ऐसी कोई बात नहीं कही जिस पर एतराज या लानतें आनी चाहिए। जिस देश में कन्या बचाओं आंदोलन चल रहा हो, वहां आत्मचिंतन की जरुरत है कि हमारे देश में महिलाओं की क्या स्थिति है। कन्या बचाओं आंदोलन की सारी दयनीय स्थिति का गवाह है। औरतों को केवल बेटे पैदा करने की मशीन समझ ली है लोगों ने, बेटी पैदा करे तो उसके जिंदा रहने पर ही सवाल लग जाता है यहां। एक पुरुष की समृद्धशाली का ठेका सौंप दिया गया है स्त्री को। जबकि खुद पुरुष क्यों नहीं स्त्री को अपने से बेहतर बनाना चाहता।
sareetha jee,
aaj pehlee hee baar padh kar ye to jaan gaya ki aap spashtvaadee hain aur likhne kee shailee aisee hai ki seedhaa dil par lagegee baat. magar itnaa main yakeenee taur par keh saktaa hoon ki aisa kam log hee kar paate hai. jaaree rakhein , hum hain na padhne ke liye.
मैने आपके दोनो लेखों के साथ साथ दोनो लेखों पर मिली टिप्पणियां भी पढ़ीं। न तो आपके पिछले लेख में ही कोई ऐसी बात है और न ही टिप्पणियों में , जिसपर कि ऐतराज किया जाना चाहिए। अब लोगो के अपने सोंच की बात है कि वे परंपराओं को किस दृष्टि से देखते हैं। वास्तव में हमारे देश की हर परंपरा के माध्यम से कोई न कोई सीख मिलती है , जिसे सबने भूला दिया है और वर्तमान में कुछ लोग परंपरा को आस्था के नाम से ढोते हैं और कुछ इसका विरोध करते हैं ।
यदि कोई भावना से यह व्रत करता है तो उस का स्वागत है। लेकिन नव ब्याहता को कैसे यह व्रत करना पड़ता है? यह उसी से पूछें कि क्या वह स्वेच्छा या भावना से करती है या फिर सामाजिक दबाव और समाज में स्वयं को कलंकिनी साबित होने से बचने के लिए। कल आप की पोस्ट पर टिप्पणी थी कि कोई महिला न करना चाहे तो न करे करवा चौथ।
लेकिन जरा किसी महिला से पूछें कि इस के पारिवारिक और सामाजिक परिणाम क्या होंगे?
करवा चौथ का व्रत वस्तुतः विवाहित महिलाओं के दिमाग की सामाजिक मूल्यों के हिसाब से कंडीशनिंग के लिए है। जिस से वे समझती रहें कि पति के बिना एक औरत का कोई मूल्य समाज में नहीं।
करवा चौथ का व्रत वस्तुतः विवाहित महिलाओं के दिमाग की सामाजिक मूल्यों के हिसाब से कंडीशनिंग के लिए है। जिस से वे समझती रहें कि पति के बिना एक औरत का कोई मूल्य समाज में नहीं।
दिनेशराय द्धिवेदी जी की टिप्पणी की इस पंक्ति पर अपने को कहने से रोक नहीं पा रहा हूं। दिनेश जी आप मेरे से काफी बड़े हैं और आपने दुनिया ज्यादा देखी है लेकिन यदि पति के बिना एक औरत का कोई मूल्य समाज में नहीं है....तो एक पति का भी औरत के बगैर कोई मूल्य नहीं है। हमें जन्म देने वाली औरत ही है ना कि कोई मर्द। हमारी मां औरत है ना कि मर्द लिंग कोई प्राणी। स्त्री और पुरुष दोनो समान हैं। औरतों के बगेर समाज की रचना असंभव है तो पुरुष की वहां बड़ी भूमिका है। हमारा समाज स्त्री प्रधान नहीं है अन्यथा आज जो यह टिप्प्णी की लाइन है वह इसके विपरीत होती। पुरुष क्यों स्त्री महान क्यों नहीं है।
करवा चौथ तो उन स्त्रियों के लिये है जिन्हे अपने पति को जाली में से देखकर छांटना होता है...अरे एक पति को क्या छन्ने से छानना...!!!
यह मेरे एक मित्र जयदीप डांगी की टिप्पणी है। लो जी पढ़ो
एक टिप्पणी भेजें