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बुधवार, 11 नवंबर 2009

गैस पीड़ितों की कब्रगाह पर खिलेगा चमन

मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में 25 साल पहले हुए दुनिया के सबसे बड़े औद्योगिक हादसे को लोग अभी तक नहीं भूल पाए हैं लेकिन गैस त्रासदी पर राजनीति का रंग कुछ इस कदर चढ़ चुका है कि अब प्रभावितों की ज़िन्दगी की दुश्वारियों का चर्चा भी नहीं होता । प्रदेश सरकार केन्द्र और केन्द्र सरकार राज्य के पाले में गेंद डालकर अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेने की कवायद में जुटे रहते हैं । तीन दिसम्बर को भोपाल में सरकारी और गैर सरकारी तौर पर साल दर साल बड़े-बड़े आयोजन होते हैं । बहुराष्ट्रीय कंपनियों और सरकार की नाइंसाफ़ी को जी भर कर लानतें भेजी जाती हैं । गैस कांड की बरसी पर यूनियन कार्बाइड , वॉरेन एंडरसन और अब डाउ केमिकल को जी भरकर कोसने का दस्तूर सा बन गया है । आगामी 3 दिसंबर को भोपाल गैस त्रासदी को 25 साल पूरे हो जाएंगे। गैस पीड़ितों के बीच काम करने वाले संगठन और राज्य सरकार दुर्घटना की पच्चीसवीं बरसी बड़े पैमाने पर मनाने की तैयारी में जुट गये हैं । बरसों से वीरान पड़े कारखाने में चहल-पहल बढ़ाने के लिये राज्य सरकार ने इसे बीस नवम्बर से आम जनता के लिये खोलने का अजीबो गरीब फ़ैसला लिया है । त्रासदी के 25 साल पूरे होने के मौके पर यूनियन कार्बाइड कारखाने को आम लोगों के लिए खोला जा रहा है।

हैरत की बात है कि पिछले महीने ही केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश के कारखाने में ज़हरीले रसायन मौजूद होने की बात को सिरे से खारिज करने वाले बयान पर गैस राहत मंत्री बाबूलाल गौर ने कड़ी आपत्ति दर्ज़ कराई थी , लेकिन अब गौर का कहना है कि कारखाने को आम लोगों के लिए खोलने के पीछे मकसद यह है कि लोग जान सकें कि कारखाने में खतरनाक रासायनिक कचरा नहीं है। उन्होंने स्पष्ट किया कि विभिन्न वैज्ञानिक संगठन कचरे का परीक्षण कर स्पष्ट कर चुके हैं कि कारखाने में मौजूद अपशिष्ट खतरनाक नहीं है। इतना ही नहीं कारखाने परिसर में लगे वृक्ष और घास-फूस भी अपशिष्ट के खतरनाक नहीं होने की पुष्टि करते हैं। गैस राहत मंत्री का कहना है कि अब आम लोग उस यूनियन कार्बाइड कारखाने को करीब से देख सकेंगे, जिससे हुए गैस रिसाव से हज़ारों लोग मारे गए थे। यह कारखाना कैसा है ? हादसे के वक्त कहां से गैस रिसी थी ? मौत का वह कुआं कौन सा है,जिसमें से कई शव निकाले गए थे । इसे आम लोगों ने अब तक देखा नहीं है।

जानकार राज्य सरकार के फ़ैसले और बदले पैंतरे पर हैरानी जता रहे हैं । गैस पीड़ितों के हक की लड़ाई लड़ रहे,भोपाल गैस पीडित महिला उद्योग संगठन के संयोजक अब्दुल जब्बार इसे मूल मुद्दों से ध्यान हटाने की कवायद बताते हैं । उनका कहना है कि इंसाफ़ की आस लगाये गैस पीड़ित एक-एक कर दुनिया से कूच करते जा रहे हैं । इनके इलाज के कोई कारगर इंतज़ाम नहीं हैं । उखड़ती साँसों, छलनी हो चुके सीनों और कमज़ोर हो चुके जिस्मों के सहारे मौत से बदतर ज़िदगी गुज़ार रहे पीड़ितों के रोज़गार और पुनर्वास की ओर अब तक किसी का ध्यान ही नहीं गया है । वे कहते हैं कि हादसे के शिकार ज़्यादातर लोग ग़रीब तबके के हैं । लिहाज़ा उनकी किसी भी स्तर पर कोई सुनवाई नहीं हो रही है ।

कारखाना खोलने का कदम राज्य सरकार की नीयत पर सवाल खड़े करता है । यदि कचरा ज़हरीला नहीं है, तो अपनी ही पार्टी के एक वरिष्ठ नेता के रिश्तेदार की कंपनी को कचरा हटाने का ठेका क्यों दिया गया ? यदि रासायनिक कचरा नुकसानदेह नहीं है ,तो फ़िर धार की अदालत ने पीथमपुर में कचरा खुले में फ़ेंकने और नदी के पानी को प्रदूषित करने के मामले में इस कंपनी को दोषी करार क्यों दिया ? अगर वास्तव में कचरा इलाके के लोगों की सेहत के लिये खतरनाक नहीं है, तो एक महीने पहले गौर साहब ने जयराम रमेश के इसी तरह के बयान का विरोध क्यों किया ? और इसे हटाने के लिये अभी एक करोड़ रुपए और खर्च करने की आखिर क्या ज़रुरत है ?

सरकार भोपाल गैस पीडितों के साथ भद्दा मजाक करती दिख रही है। पीडितों को मुआवजे और पुनर्वास कार्यक्रम के तहत राहत देना हो, सम्बन्धित कंपनी और दोषी अघिकारियों पर कार्रवाई हो या फिर यूनियन कार्बाइड को डंप करने की बात हो, सभी में सरकार ने अब तक के क्रियान्वयन में केवल आंकड़ों की बाजीगरी ही दिखाई है। जमीनी स्तर पर सच्चाई इसके विपरीत है। पुनर्वास कार्यक्रम के नाम पर ऊंट के मुंह में जीरा वाली कहावत चरितार्थ होती दिख रही है। कुछ मकान बनाकर वितरित किए गए जो आवश्यकता से काफी कम है। स्वच्छ जल आपूर्ति की व्यवस्था नहीं हो सकी है। सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार से इस कार्यक्रम को नुकसान ही हुआ है। गैस कांड के पीड़ित विभिन्न गंभीर बीमारियों से जूझ रहे हैं। कोई कैंसर से तो कोई अपंगता से। इनके इलाज के लिए जो चिकित्सकीय सुविधाएं और चिकित्सक उपलब्ध कराए गए हैं वे भी नाकाफी हैं। पर्याप्त उपकरण तक नहीं हैं, जिससे मरीजों का ठीक से चेकअप हो सके। अस्पतालों में अव्यवस्थाएं हैं। विधवा पेंशन मे भी गड़बडियां हैं।

हादसे के प्रति सरकारों की गंभीरता का अंदाज़ा लगाने के लिये ये जान लेना ही काफ़ी होगा कि सड़क और रेल हादसों , प्राकृतिक आपदाओं में मरने वालों और ज़ख्मी होने वालों को लाखों रुपए का मुआवज़ा दिया जाता है लेकिन गैस हादसे के पीड़ितों के लिये ना तो केन्द्र और ना ही राज्य सरकार ने आज तक एक धेला खर्च किया है । बल्कि हो यह रहा है कि यूनियन कार्बाइड से समझौते के तहत मिले पैसे से सरकारें अपने खर्च निकालती रही हैं ।

इतनी बड़ी त्रासदी पर सरकार का जो रूख है वह सरकारी असंवेदनशीलता और उदासीनता को दर्शाता है। ऎसा शर्मनाक उदाहरण शायद ही कहीं और देखने को मिले। मंत्री की घोषणा के अनुसार पीड़ितों के लिए स्मारक बनाया जा रहा है, जिस पर 110 करोड़ रूपए की राशि खर्च की जा रही है। यह राशि जरूरत से कहीं ज्यादा है। इसके बजाय पीड़ितों को राहत के लिए जो योजनाएं बनी हैं उनका क्रियान्वयन हो, इसके लिए पर्याप्त बजट दिया जाए। बेगैरत हो चुके राजनेताओं के बयान गैस पीड़ितों के ज़ख्मों पर मरहम की बजाय तेज़ाब छिड़कने का काम करते हैं । पीड़ित कहते हैं कि गैस पीड़ितों का दर्द राजनेताओं को आखिर यह समझ में क्यों नहीं आता कि हमारी लड़ाई एक ऎसी अमेरिकन कंपनी के खिलाफ है , जिसने लाखों लोगों को तबाह कर दिया। उनका यह कहना कि मलबा जहरीला नहीं है, बहुत शर्मनाक है। न्याय देने के बजाय समय-समय पर नेताओं के इस तरह के बयानों से हम गैस पीडितों को ठेस पहुंचती है। सरकार संवेदनशील और सकारात्मक रवैया अपनाते हुए हमारे साथ न्याय करे, न कि हमारा मजाक बनाए।

गुरुवार, 23 अक्तूबर 2008

इठलाती , बल खाती , गुनगुनाती .......


पूर्ब से पश्चिम की तरफ़ जाने वाली नर्मदा देश की एकमात्र ऎसी नदी है जिसकी परिक्रमा की जाती है । नर्मदा परिक्रमा के अनुष्ठान की परंपरा कब शुरु हुई ये कह पाना तो ज़रा मुश्किल होगा । लेकिन हर साल करीब पांच लाख से ज़्यादा श्रद्धालु नर्मदा की परिक्रमा पर निकलते है । आमतौर पर अमरकंटक से यात्री अपना सफ़र शुरु करते हैं और रेवा सागर संगम तक करीब १३३५ किलोमीटर का रास्ता तय कर पहले चरण को अंजाम तक पहुंचाते हैं । दूसरे चरण में उत्तर तट से अमरकंटक तक १८३६ किलोमीटर की यात्रा होती है ।
सरदार सरोवर , ओंकारेश्वर और रानी अवंतिबाई बांध बनने से परिक्रमा मार्ग का बडा हिस्सा डूब चुका है । बची खुची कसर प्रस्तावित महेश्वर बांध पूरी कर देगा । नर्मदा में आस्था रखने वालों के लिए राज्य सरकार ने बडे ज़ोर शोर से सर्वे कराया । परिक्रमा मार्ग को व्यवस्थित और सुविधाओं भरा बनाने के लिये नामचीन हस्तियों की कमेटी का एलान हुआ और भारी - भरकम कार्य योजना का खाका तैयार किया गया । मगर हमेशा की तरह नतीजा सिफ़र ।
नर्मदा के भक्त तो तमाम मुश्किलात के बावजूद अपनी मंज़िल तक पहुंच ही जाते हैं लेकिन राज्य सरकार के कामकाज के लिए बस यही कहा जा सकता है - नौ दिन चले अढाई कोस । दरअसल सरकार ने नर्मदा के तीरे जगह - जगह होटल , ढाबे और यात्री निवास बनाने के साथ पक्का परिक्र्मा मार्ग तैयार करने का प्रस्ताव बनाया है । यानी लोग तीर्थाटन के बहाने पर्यटन का लुत्फ़ भी ले सकेंगे । लेकिन परिक्रमा मार्ग तय करने में नौकरशाही का अडंगा श्रद्धालुओं की परेशानी का सबब बन गया है । सरकारी मशीनरी की कछुआ चाल के चलते लोगों को अपनी तीर्थयात्रा को सुगम बनाने के लिए लंबा इंतज़ार करना पड सकता है ।
नदियों से हमारे जीवन का आध्यात्मिक पहलू भी जुडा है । हालांकि बदलते वक्त में पाप - पुण्य की परिभाषा भी उलट गई है । ऎसे में ये कह पाना बडा ही मुश्किल है कि नर्मदा में डुबकी लगाते ही पाप नष्ट होते हैं या नहीं । हां ,इतना ज़रुर है कि सतत प्रवाहिणी रेवा की जलधारा जीवन की कठिनाइयों से बैचेन मन का ताप हर लेती है । रेवा तट पर प्राक्रतिक सौंदर्य से लबरेज़ कई जगहें हैं जहां सुकून मिलने के अलावा कुदरत के साथ एकाकार होने का एहसास होता है । पवित्र धार्मिक ग्रंथों में आता है कि गंगा में स्नान करने से पापों का नाश होता है , जबकि नर्मदा का दर्शन मात्र ही जन्म - मरण के चक्र से मुक्ति देता है । किंवदंती है कि गंगा भी साल में एक बार काली गाय के रुप में नर्मदा में स्नान करने आती है ।
क़रीब तेरह सौ किलोमीटर के सफ़र में नर्मदा मध्य प्रदेश , गुजरात और महाराष्ट्र के बडे हिस्से में प्रवाहित होती है । भडौंच के नज़दीक खंबात की खाडी में अपने अस्तित्व को अथाह सागर में समाहित करने वाली नर्मदा वन अंचलों से लेकर ग्रामीण इलाकों तक समान रुप से वंदनीय है । गायन और संगीत प्रधान सामवेद में नर्मदा की महिमा का बखान किया गया है । नर्मदा भी सागर तक की अपनी यात्रा गाते - गुनगुनाते हुए करती है । कहते हैं गंगा कनखल और सरस्वती कुरुख्शेत्र में सबसे अधिक पवित्र मानी जाती है । परंतु नर्मदा की महिमा का कोई पार नहीं । वो तो गांव - गांव और डगर - डगर , सब जगह हर रुप में पवित्र हैं ।
मैदानी इलाकों में शांत और गंभीर नज़र आने वाली ये पुण्य सलिला वनांचलों के बीच कहीं चट्टानों से टकराकर उन्हें शिकस्त देने के मद में इठलाती हुई आगे बढती है । अपनी मंज़िल तक पहुंचने की बेताबी में कुंलाचे भरती रेवा ऊंची चट्टानों की परवाह भी नहीं करती । यहीं देखा जा सकता है जल प्रपातों का अदभुत सौंदर्य । चट्टानों से टकराकर ,उछल - उछल कर ’ रव ’ यानी ’ध्वनि’ करती है , इसीलिए तो रेवा कहलायी ।
कभी नज़र से नज़र मिलाकर , कभी नज़र से नज़र बचाकर
डुबो रही थी , मिटा रही थी , पिला रही थी , छका रही थी ।