स्वाधीनता दिवस पर मन उदास है या बेचैन कह पाना बड़ा ही मुश्किल है । ख्याल आ रहा है कि राष्ट्रीय त्यौहार के मौके पर मन में उत्साह की गैर मौजूदगी कहीं नकारात्मकता और निरुत्साह का संकेत तो नहीं । सड़क पर सैकड़ों चौपहिया वाहनों की रैली में "सरफ़रोशी की तमन्ना लिये बाज़ू ए कातिल" को ललकारते आज के रणबाँकुरों का मजमा लगा है , मगर उनका यह राष्ट्रप्रेम मन में उम्मीद जगाने की बजाय खिन्नता क्यों भर रहा है ? खुली आर्थिक नीतियों और सामाजिक खुलेपन के बावजूद पिछले कुछ सालों से चारों तरफ़ जकड़न क्यों महसूस होने लगी है ? क्या यह वहीं देश है जिसे आज़ाद देखने के लिये हमारे पुरखों ने जान की बाज़ी लगा दी ? क्या हम सचमुच आज़ादी के मायने समझ सके हैं ? क्या हम आज़ाद कहलाने के काबिल रह गये हैं ?
लोकसभा में तीन सौ से ज़्यादा सांसद करोड़पति हैं और तमाम कोशिशों के बावजूद अपराधियों का संसद तथा विधानसभाओं की दहलीज़ में प्रवेश पाने का सिलसिला थमता नज़र नहीं आ रहा । देश का कृषि मंत्री क्रिकेट की अंतरराष्ट्रीय संस्था का प्रमुख बनने के लिये पैसा जुटाने की हवस में देश की ग़रीब जनता के मुँह से निवाला छीन लेने पर आमादा है । शरद पवार ने जब से विभाग संभाला है,तब से बारी-बारी रोज़मर्रा की ज़रुरत की चीज़ों के दामों में बेतहाशा उछाल आया है । एक बार कीमतें ऊपर जाने के बाद नीचे फ़िर कभी नहीं आ सकीं । जिस देश में अस्सी फ़ीसदी से ज़्यादा लोग बीस रुपए रोज़ से कम में गुज़ारा करने को मजबूर हैं,वहाँ दाल-रोटी तो दूर की बात चटनी-रोटी, नमक-रोटी या फ़िर प्याज़-रोटी की बात भी बेमानी हो चली है ।
नेता दिन - दूनी रात- चौगुनी रफ़्तार से अमीरी की पायदान पर फ़र्राटा भर रहे हैं और आम जनता जो संविधान के मुताबिक देश की ज़मीन , जंगल और प्राकृतिक संसाधनों की असली मालिक है,छोटी-छोटी ज़रुरतों से महरुम है । सरकारी ज़मीनों पर मंदिरों और झुग्गियों के नाम पर नेताओं का ही कब्ज़ा है । हम सब मुँह बाये कारवाँ गुज़रता देख रहे है । सरकारी खज़ाने की बँदरबाँट का सिलसिला दिनोंदिन तेज़ होता जा रहा है,मगर हम चुप हैं । बदलाव की आग सबके सीने में है,शुरुआत कब कौन और कैसे करे,ये सवाल सभी के कदम रोके हुए है ।
हाल ही में यात्रा के दौरान ट्रेन में 88 वर्षीय श्री झूमरलाल टावरीजी से बातचीत का मौका मिला । गौसेवा को अपना मिशन बना चुके टावरी जी गाँधी के ग्रामीण भारत के सपने को टूटता देखकर काफ़ी खिन्न हैं । आज के हालात पर चर्चा के ज़ार- ज़ार रोते टावरी जी ने माना कि ये वो देश नहीं जिसके लिये लोगों ने अपने प्राणों की आहूति दे दी । इसी दौरान महाराष्ट्र पुलिस और जीआरपी के जवानों का ट्रुप,जो छत्तीसगढ़ के घने जंगलों में नक्सलियों की तलाश में बीस दिन गुज़ारने के बाद नेताओं के निर्देश पर खाली हाथ लौटने की छटपटाहट बयान कर रहे थे । वे बता रहे थे कि किस तरह नक्सलियों के करीब पहुँचते ही उन्हें वापसी का हुक्म सुना दिया जाता है । नेताओं की साँठगाँठ का नतीजा है नक्सलवाद और बिगड़ती कानून व्यवस्था ।
क्या इसी का नाम आज़ादी है । मीडिया चिल्ला रहा है कि चीन भारत के टुकड़े- टुकड़े करने की साज़िश रच रहा है । क्या वाकई......??? चीन को इतनी ज़हमत उठाने की ज़रुरत ही क्या है । ये देश तो यहाँ के नेताओं ने कई हिस्सों में कब से तकसीम कर दिया है । अखबार और समाचार चैनल इस बात की पुष्टि करते हैं । राज्यों के बाद अब छॊटे राज्यों का सवाल उठ खड़ा हुआ ।
भाषा के नाम पर हम वैसे ही अलग हैं । धर्म की बात तो कौन कहे । अब तो वर्ग,उपवर्गों पर भी संगठन बनाने का भूत सवार है । अगड़ों के कई संगठनों के साथ ही अग्रसेन,वाल्मिकी,आम्बेडकर,रविदास,सतनामी जैसे असंख्य वर्ग और उनकी राजनीति .....। देश है ही कहाँ ...??? लगता है आज़ादी हमारे लिये अभिशाप बन गई है । हे प्रभु ( यदि तू सचमुच है तो ) या तो किसी दिन पूरी उपस्थिति वाली संसद और विधान सभाओं पर आकाशीय बिजली गिरा दे या समाज से नेता की नस्ल का सफ़ाया ही कर दे । अगर ऎसा करने में तेरी हिम्मत भी जवाब दे जाती हो,तो हमें वो रहनुमा दे जो देश को इन काले अँग्रेज़ों से मुक्ति दिला सके ।
क्यों हर फूल अपनी
गंध के लिए चिंतित है यहां,
क्यों अपने स्वाद के लिए
नदी का पानी चिंतित है,
मछलियां चिंतित हैं
रसायनों की मार से,
चिंतित हैं मोर अपने मधुवनों के लिए,
वन खुद चिंतित हैं कि गायब
हो रही है उनकी हरियाली,
खेत भी कम चिंतित नहीं हैं
अपनी फसलों के लिए ।
सबके चेहरे उतरे हुए हैं,
डबडबाई हुई है सबकी आंख,
होंठ सूखे और बानी अवाक ।
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शनिवार, 15 अगस्त 2009
सोमवार, 20 अक्तूबर 2008
उन्हीं को जाम मिलता है जिन्हें पीना नहीं आता
राज ठाकरे ने एक बार फ़िर आग उगलाना शुरु कर दिया है । लेकिन उसके इस रवैए के लिए जितने राज ज़िम्मेदार हैं उससे कहीं ज़्यादा मीडिया की भूमिका है । राज के तमाशे को मीडिया हवा देता है । टीआर पी के जंजाल में उलझा मीडिया हर रोज़ चटपटी खबरों की तलाश में रहता है और राज मीडिया की इस कमज़ोरी का जमकर फ़ायदा लेना बखूबी जानता है । झटपटिया कामयाबी का नुस्खा कब तक काम आयेगा ये तो वक्त ही बताएगा , लेकिन इतना तय है कि नफ़रत की चिन्गारी लोगों के दिलों को छलनी ज़रुर कर देंगी ।
गौर से देखें तो राज जो बात कहना चाह रहे हैं , वो गलत नहीं है । अंदाज़े बयां पर सवाल उठाए जा सकते हैं ,लेकिन मुद्दे पर नहीं । किसी ने कहा था ” मैं तुम्हारी बात से बिल्कुल भी सहमत नहीं पर तुम्हें अपनी बात कहने का पूरा अधिकार हो । इसके लिए जी जान से लड़ूँगा ।” हम सब को अपनी बात कहने का अधिकार है । शर्त केवल इतनी है कि आप अपनी बातों से हिंसा को न भड़काइये । अलग सोच रखने और अपनी बात कहने का हक मानव अधिकारों का अभिन्न अंग है । इसी अधिकार का हिस्सा है कि आप अपनी बात किसी भी भाषा या माध्यम से कहिये । चाहे वह गीत हो या कला या फ़िर लेखन ।
सत्ता संघर्ष में जुटे नेता कभी धर्म - कभी जाति तो कभी रंग के आधार पर लोगों के बीच फ़ासले पैदा करते हैं । ऎसे में वे आम जनता को सोचने- समझने या बोलने का कोई मौका नहीं देना चाहते । अलगाव की आंच पर राजनीतिक रोटियां सेंकने वाले कट्टरपंथियों को लोगों को खुलकर बोलने का मौका देना रास नहीं आता । अभिव्यक्ति के इस अधिकार पर उनकी सहमति नहीं होती । तुमने यह कैसे लिखा या बनाया या सोचा वे पूछते हैं ? वे अपनी बात को तलवार और डंडे के साथ कहते हैं क्योंकि खुल कर बोलने वाले को चुप कराने के लिए सजा देना भी वे अपना जन्मजात हक समझते हैं । उनके हिसाब से उनका धर्म इसकी आज्ञा नहीं देता । मानव अधिकार उनकी नज़र में धर्म से नीचे है । यदि आप किसी मुद्दॆ पर असहमत हैं तो उस पर बहस कर सकते हैं । पर किसी का मुँह बंद करने की और उसे डराने धमकाने की कोशिश करना बेगुनाह लोगों को बेरहमी से मारना पीटना कारें और दुकानें जलाना तोड़ फोड़ करना मेरे विचार में केवल आत्मविश्वास की कमी से जन्मी गुँडागर्दी है । धर्म के नाम पर शुरु हुई राजनीति आज इतने निचले स्तर तक आ चुकी है कि अब भारत में प्रांत और भाषा की दीवारें खडी होने लगी हैं ।
सरकार के लचर रवैये ने एक खत्म होते नेता को न सिर्फ़ उडने के लिए खुला आसमान दिया बल्कि उसे ऊंची उडान भरने के लिए परवाज़ के पंख भी तोहफ़े में दे दिए । इस पूरे घटनाक्रम को देखने के बाद तो यही लगता है कि सत्तासीन कांग्रेस ने अपने राजनीतिक फ़ायदे के लिए मामले को इस हद तक बढ जाने दिया । राजनीतिक लाभ के लिए फ़ेंकी गई चिंगारी ने पूरे महाराष्ट्र में आग लगा दी है । वर्चस्व की इस लडाई में एक बार फ़िर पिस रहा है आम आदमी --------- ? मराठी मानुष के नारे के ज़रिए अलगाव की जो आग लगाई गई है यदि राजनीतिक दल इस पर इसी तरह रोटियां सेंकते रहे तो कहीं ऎसा न हो कि जिस तरह कश्मीरी पंडितों को अपनी सरज़मीं से दूर होकर अपने ही वतन में बेगाना हो जाने पर मज़बूर होना पडा उसी तरह पीढ़ियों से महाराष्ट्र में जा बसे हिंदी भाषियों को शिवाजी की इस धरती से बलपूर्वक बाहर खदेड दिया जाए । चिंता इस बात की है कि कहीं मूल प्रांतियों का ये शोशा महाराष्ट्र को एक और कश्मीर में तब्दील न कर दे .............?
निज़ामे मयकदा इस कदर बिगडा है साकी .
उन्हीं को जाम मिलता है , जिन्हें पीना नहीं आता ।
गौर से देखें तो राज जो बात कहना चाह रहे हैं , वो गलत नहीं है । अंदाज़े बयां पर सवाल उठाए जा सकते हैं ,लेकिन मुद्दे पर नहीं । किसी ने कहा था ” मैं तुम्हारी बात से बिल्कुल भी सहमत नहीं पर तुम्हें अपनी बात कहने का पूरा अधिकार हो । इसके लिए जी जान से लड़ूँगा ।” हम सब को अपनी बात कहने का अधिकार है । शर्त केवल इतनी है कि आप अपनी बातों से हिंसा को न भड़काइये । अलग सोच रखने और अपनी बात कहने का हक मानव अधिकारों का अभिन्न अंग है । इसी अधिकार का हिस्सा है कि आप अपनी बात किसी भी भाषा या माध्यम से कहिये । चाहे वह गीत हो या कला या फ़िर लेखन ।
सत्ता संघर्ष में जुटे नेता कभी धर्म - कभी जाति तो कभी रंग के आधार पर लोगों के बीच फ़ासले पैदा करते हैं । ऎसे में वे आम जनता को सोचने- समझने या बोलने का कोई मौका नहीं देना चाहते । अलगाव की आंच पर राजनीतिक रोटियां सेंकने वाले कट्टरपंथियों को लोगों को खुलकर बोलने का मौका देना रास नहीं आता । अभिव्यक्ति के इस अधिकार पर उनकी सहमति नहीं होती । तुमने यह कैसे लिखा या बनाया या सोचा वे पूछते हैं ? वे अपनी बात को तलवार और डंडे के साथ कहते हैं क्योंकि खुल कर बोलने वाले को चुप कराने के लिए सजा देना भी वे अपना जन्मजात हक समझते हैं । उनके हिसाब से उनका धर्म इसकी आज्ञा नहीं देता । मानव अधिकार उनकी नज़र में धर्म से नीचे है । यदि आप किसी मुद्दॆ पर असहमत हैं तो उस पर बहस कर सकते हैं । पर किसी का मुँह बंद करने की और उसे डराने धमकाने की कोशिश करना बेगुनाह लोगों को बेरहमी से मारना पीटना कारें और दुकानें जलाना तोड़ फोड़ करना मेरे विचार में केवल आत्मविश्वास की कमी से जन्मी गुँडागर्दी है । धर्म के नाम पर शुरु हुई राजनीति आज इतने निचले स्तर तक आ चुकी है कि अब भारत में प्रांत और भाषा की दीवारें खडी होने लगी हैं ।
सरकार के लचर रवैये ने एक खत्म होते नेता को न सिर्फ़ उडने के लिए खुला आसमान दिया बल्कि उसे ऊंची उडान भरने के लिए परवाज़ के पंख भी तोहफ़े में दे दिए । इस पूरे घटनाक्रम को देखने के बाद तो यही लगता है कि सत्तासीन कांग्रेस ने अपने राजनीतिक फ़ायदे के लिए मामले को इस हद तक बढ जाने दिया । राजनीतिक लाभ के लिए फ़ेंकी गई चिंगारी ने पूरे महाराष्ट्र में आग लगा दी है । वर्चस्व की इस लडाई में एक बार फ़िर पिस रहा है आम आदमी --------- ? मराठी मानुष के नारे के ज़रिए अलगाव की जो आग लगाई गई है यदि राजनीतिक दल इस पर इसी तरह रोटियां सेंकते रहे तो कहीं ऎसा न हो कि जिस तरह कश्मीरी पंडितों को अपनी सरज़मीं से दूर होकर अपने ही वतन में बेगाना हो जाने पर मज़बूर होना पडा उसी तरह पीढ़ियों से महाराष्ट्र में जा बसे हिंदी भाषियों को शिवाजी की इस धरती से बलपूर्वक बाहर खदेड दिया जाए । चिंता इस बात की है कि कहीं मूल प्रांतियों का ये शोशा महाराष्ट्र को एक और कश्मीर में तब्दील न कर दे .............?
निज़ामे मयकदा इस कदर बिगडा है साकी .
उन्हीं को जाम मिलता है , जिन्हें पीना नहीं आता ।
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