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शनिवार, 15 अगस्त 2009

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे

स्वाधीनता दिवस पर मन उदास है या बेचैन कह पाना बड़ा ही मुश्किल है । ख्याल आ रहा है कि राष्ट्रीय त्यौहार के मौके पर मन में उत्साह की गैर मौजूदगी कहीं नकारात्मकता और निरुत्साह का संकेत तो नहीं । सड़क पर सैकड़ों चौपहिया वाहनों की रैली में "सरफ़रोशी की तमन्ना लिये बाज़ू ए कातिल" को ललकारते आज के रणबाँकुरों का मजमा लगा है , मगर उनका यह राष्ट्रप्रेम मन में उम्मीद जगाने की बजाय खिन्नता क्यों भर रहा है ? खुली आर्थिक नीतियों और सामाजिक खुलेपन के बावजूद पिछले कुछ सालों से चारों तरफ़ जकड़न क्यों महसूस होने लगी है ? क्या यह वहीं देश है जिसे आज़ाद देखने के लिये हमारे पुरखों ने जान की बाज़ी लगा दी ? क्या हम सचमुच आज़ादी के मायने समझ सके हैं ? क्या हम आज़ाद कहलाने के काबिल रह गये हैं ?

लोकसभा में तीन सौ से ज़्यादा सांसद करोड़पति हैं और तमाम कोशिशों के बावजूद अपराधियों का संसद तथा विधानसभाओं की दहलीज़ में प्रवेश पाने का सिलसिला थमता नज़र नहीं आ रहा । देश का कृषि मंत्री क्रिकेट की अंतरराष्ट्रीय संस्था का प्रमुख बनने के लिये पैसा जुटाने की हवस में देश की ग़रीब जनता के मुँह से निवाला छीन लेने पर आमादा है । शरद पवार ने जब से विभाग संभाला है,तब से बारी-बारी रोज़मर्रा की ज़रुरत की चीज़ों के दामों में बेतहाशा उछाल आया है । एक बार कीमतें ऊपर जाने के बाद नीचे फ़िर कभी नहीं आ सकीं । जिस देश में अस्सी फ़ीसदी से ज़्यादा लोग बीस रुपए रोज़ से कम में गुज़ारा करने को मजबूर हैं,वहाँ दाल-रोटी तो दूर की बात चटनी-रोटी, नमक-रोटी या फ़िर प्याज़-रोटी की बात भी बेमानी हो चली है ।

नेता दिन - दूनी रात- चौगुनी रफ़्तार से अमीरी की पायदान पर फ़र्राटा भर रहे हैं और आम जनता जो संविधान के मुताबिक देश की ज़मीन , जंगल और प्राकृतिक संसाधनों की असली मालिक है,छोटी-छोटी ज़रुरतों से महरुम है । सरकारी ज़मीनों पर मंदिरों और झुग्गियों के नाम पर नेताओं का ही कब्ज़ा है । हम सब मुँह बाये कारवाँ गुज़रता देख रहे है । सरकारी खज़ाने की बँदरबाँट का सिलसिला दिनोंदिन तेज़ होता जा रहा है,मगर हम चुप हैं । बदलाव की आग सबके सीने में है,शुरुआत कब कौन और कैसे करे,ये सवाल सभी के कदम रोके हुए है ।

हाल ही में यात्रा के दौरान ट्रेन में 88 वर्षीय श्री झूमरलाल टावरीजी से बातचीत का मौका मिला । गौसेवा को अपना मिशन बना चुके टावरी जी गाँधी के ग्रामीण भारत के सपने को टूटता देखकर काफ़ी खिन्न हैं । आज के हालात पर चर्चा के ज़ार- ज़ार रोते टावरी जी ने माना कि ये वो देश नहीं जिसके लिये लोगों ने अपने प्राणों की आहूति दे दी । इसी दौरान महाराष्ट्र पुलिस और जीआरपी के जवानों का ट्रुप,जो छत्तीसगढ़ के घने जंगलों में नक्सलियों की तलाश में बीस दिन गुज़ारने के बाद नेताओं के निर्देश पर खाली हाथ लौटने की छटपटाहट बयान कर रहे थे । वे बता रहे थे कि किस तरह नक्सलियों के करीब पहुँचते ही उन्हें वापसी का हुक्म सुना दिया जाता है । नेताओं की साँठगाँठ का नतीजा है नक्सलवाद और बिगड़ती कानून व्यवस्था ।

क्या इसी का नाम आज़ादी है । मीडिया चिल्ला रहा है कि चीन भारत के टुकड़े- टुकड़े करने की साज़िश रच रहा है । क्या वाकई......??? चीन को इतनी ज़हमत उठाने की ज़रुरत ही क्या है । ये देश तो यहाँ के नेताओं ने कई हिस्सों में कब से तकसीम कर दिया है । अखबार और समाचार चैनल इस बात की पुष्टि करते हैं । राज्यों के बाद अब छॊटे राज्यों का सवाल उठ खड़ा हुआ ।

भाषा के नाम पर हम वैसे ही अलग हैं । धर्म की बात तो कौन कहे । अब तो वर्ग,उपवर्गों पर भी संगठन बनाने का भूत सवार है । अगड़ों के कई संगठनों के साथ ही अग्रसेन,वाल्मिकी,आम्बेडकर,रविदास,सतनामी जैसे असंख्य वर्ग और उनकी राजनीति .....। देश है ही कहाँ ...??? लगता है आज़ादी हमारे लिये अभिशाप बन गई है । हे प्रभु ( यदि तू सचमुच है तो ) या तो किसी दिन पूरी उपस्थिति वाली संसद और विधान सभाओं पर आकाशीय बिजली गिरा दे या समाज से नेता की नस्ल का सफ़ाया ही कर दे । अगर ऎसा करने में तेरी हिम्मत भी जवाब दे जाती हो,तो हमें वो रहनुमा दे जो देश को इन काले अँग्रेज़ों से मुक्ति दिला सके ।

क्यों हर फूल अपनी

गंध के लिए चिंतित है यहां,

क्यों अपने स्वाद के लिए

नदी का पानी चिंतित है,

मछलियां चिंतित हैं

रसायनों की मार से,



चिंतित हैं मोर अपने मधुवनों के लिए,

वन खुद चिंतित हैं कि गायब

हो रही है उनकी हरियाली,

खेत भी कम चिंतित नहीं हैं

अपनी फसलों के लिए ।



सबके चेहरे उतरे हुए हैं,

डबडबाई हुई है सबकी आंख,

होंठ सूखे और बानी अवाक ।

गुरुवार, 8 जनवरी 2009

या इलाही ये माजरा क्या है ............

गणेश शंकर विद्यार्थी , माखनलाल चतुर्वेदी जैसे पत्रकारों ने कलम की खातिर नैतिकता के नए नए प्रतिमान स्थापित किए ।
खींचों ना तलवार ना कमान निकालो
जब तोप हो मुकाबिल तो अखबार निकालो ।
संभवतः ऎसा ही कोई शेर है ,जो पत्रकारों को नैतिकता के साथ व्यवस्था के गुण दोष सामने लाने का हौंसला और जज़्बा देता है । पत्रकारिता आज़ादी के पहले तक , बल्कि आज़ादी के कुछ साल बाद तक मिशन हुआ करती थी । अब पत्रकारिता मशीन बन गई है , उगाही करने की मशीन ....। सबसे ज़्यादा चिंता की बात ये है कि अब मालिक ही अखबार के फ़ैसले लेते हैं और हर खबर को अपने नफ़े नुकसान के मुताबिक ना सिर्फ़ तोडते मरोडते हैं , बल्कि छापने या ना छापने का गणित भी लगाते हैं ।
भोपाल से निकलने वाले एक अखबार ने नए साल में पत्रकारिता के नए मानदंड स्थापित किए हैं । अपनी तरह का शायद ये पहला और शर्मनाक
मामला होगा । अपने आपको समाज का हित चिंतक बताने वाले इस अखबार ने दो जनवरी को एक समाचार दिया और फ़िर चार जनवरी को इसी समाचार पर U टर्न मार लिया । संभव है कि आने वाले सालों में पत्रकारिता जगत में आने वाले छात्र इसे कोर्स की किताबों में भी पाएं। कहानी पूरी फ़िल्मी है । आप ही तय करें ये सच है या वो सच था .........
दो जनवरी को प्रकाशित चार जनवरी को प्रकाशित



































































रविवार, 30 नवंबर 2008

हमलों पर उर्दू अखबारों का नज़रिया

मुम्बई के आतंकी हमले पर एक नज़रिया ये भी ........। देश को सावधान और एकजुट रहने की सख्त ज़रुरत है ।



हमलों पर क्या कहते हैं उर्दू अख़बार?

अविनाश दत्त बीबीसी संवाददाता, दिल्ली
उर्दू अख़बारों ने हमलों से उठ रहे कुछ अनसुलझे सवालों पर टिप्पणियाँ की हैं
भारत के हिंदी और अंग्रेज़ी अख़बारों की तरह उर्दू के तमाम दैनिक अख़बार भी केवल मुंबई में हुए हमलों की ख़बर से भरे हैं.
दिल्ली से छपने वाले राष्ट्रीय सहारा उर्दू में पहले पन्ने पर दिल्ली चुनावों के विज्ञापनों के अतिरिक्त केवल एक ही ख़बर है.. " मुंबई पर आग और खून की बारिश"
हैदराबाद से छपने वाले दैनिक अखबार 'मुंसिफ़' की पहली सुर्खी रही," मुंबई में दहशतगर्दों के साथ कमांडो की खूनी जंग जारी. "
इसी शहर से निकलने वाले उर्दू के दूसरे अख़बार 'सियासत' की पहली हेड लाइन है मुंबई के दो होटलों पर आतंकवादियों का कब्जा बरक़रार.'
इस ख़बर के साथ एक कथित चरमपंथी की तस्वीर छपी है जिस पर उसके एक हाथ पर बंधे लाल धागों पर गोला लगाया गया है, ठीक उसी तरह जिस तरह दिल्ली से छपने वाले अंग्रेज़ी के अख़बार मेल टुडे ने एक दिन पहले लगाया था.
'मुल्क़ भर में हाहाकार'
मुंबई से प्रकाशित अख़बार 'इंकलाब' की हेडलाइन है, 'ताज होटल के हमलावर ढेर ऑबराय होटल में ऑपरेशन जारी , मुल्क भर में हाहाकार."
अगर संपादकीयों पर नज़र डालें तो मुंसिफ़ ने इस घटना से सख्ती से निपटने की ज़रूरत पर बल दिया है.
इस तरह की घटना के पीछे जिस डेकन मुजाहिदीन का नाम आ रहा है वो शंका पैदा करने वाला है. अगर इस तरह की घटना मोसाद, सीआईए या आईएसआई द्वारा अंज़ाम दी गई होती तो सोचा जा सकता था. पर जिस संस्था का नाम किसी ने सुना नहीं वो कैसे इतना बड़ा आतंकवादी हमला करने में सफल हुई

इस अख़बार के संपादकीय की हेडलाइन है " मुंबई में दहशतगर्दी का नज़ारा". नीचे विस्तार से पूरी घटना के बारे में बताने के साथ ही बीते दिनों में "हिंदू दहशतगर्दों" के पकड़े जाने की बात पर पलट कर देखा है.
अख़बार ने ध्यान दिलाया है की मारे गए सभी अफसर ऐटीएस के थे.
अख़बार कहता है कि मालेगाँव बम धमाकों के सिलसिले में यह भी पता चला था की लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित के अलावा कुछ और पूर्व फौजी अफसरों ने 'हिंदू चरमपंथियों' को ख़ास ट्रेनिंग दी थी.
फ़िर आरएसएस, शिव सेना और अन्य हिंदूवादी संगठनों द्वारा साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को बचने के लिए एकजुट होने की बात है.
अख़बार का कहना है की ऐसे कुछ तत्व मुंबई के हमलों के पीछे हो सकते हैं और अख़बार इस पक्ष पर गौर करने को भी कहता है.
ख़ुफ़िया विफलता
अख़बार ये भी कहता है की इंटेलिजेंस एजेंसियों की विफलता पर ध्यान दिया जाना चाहिए और अगर इन हमलों के पीछे अगर बाहरी हाथ है तो उससे सख्ती से निपटना चाहिए.
दिल्ली से छपने वाले उर्दू के बड़े अखबार राष्ट्रीय सहारा उर्दू के संपादक अज़ीज़ बरनी ने लिखा है, "इस तरह की घटना के पीछे जिस डेकन मुजाहिदीन का नाम आ रहा है वो शंका पैदा करने वाला है. अगर इस तरह की घटना मोसाद, सीआईए या आईएसआई द्वारा अंज़ाम दी गई होती तो सोचा जा सकता था. पर जिस संस्था का नाम किसी ने सुना नहीं वो कैसे इतना बड़ा आतंकवादी हमला करने में सफल हुई".
संपादक इस आलेख में ये भी कह रहे हैं की कोई मुसलमान ऐटीएस के प्रमुख हेमंत करकरे को क्यों मारेगा.
वो कहते हैं, "सोचना होगा की इस आतंकवादी घटना से किसको लाभ होगा और अगर ऐटीएस की जाँच में कोई रुकावट पैदा होती है, जिसकी संभावनाए पैदा हो गई हैं तो किसको क्षति होगी".
हैदराबाद के एक और बड़े अख़बार सियासत ने अपने संपादकीय ने एक संघीय गुप्तचर एजेंसी कायम करने की ज़रूरत पर बल दिया है.
बीबीसी डाट्काम से साभार