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गुरुवार, 29 जनवरी 2009

धोती- टीके वाले भी होते हैं तालिबानी

हरियाणा के पूर्व उप मुख्यमंत्री की नव विवाहिता पत्नी ने नींद की गोलियां खा कर खुदकुशी की कोशिश क्या की , मीडिया को बैठे ठाले हफ़्ते भर का मसाला मिल गया । कल तक चांद की जगमगाती रोशनी में फ़िज़ा खुशनुमा थी , लेकिन तंगहाली के ग्रहण ने चांद को अपनी ओट में ले लिया । साथ जीने - मरने की कसमे टूटने की आशंका ने फ़िज़ा कुछ ऎसी बिगाडी कि अनुराधा बाली उर्फ़ फ़िज़ा को अस्पताल का रुख करना पड गया ।

न्यूज़ चैनलों को लंबे समय बाद इतना चटपटा और धमाकेदार मसाला मिला है । चांद मोहम्मद के घर से गायब होने की खबर आते ही लंबे समय से सूखॆ की मार झेल रहे खबरचियों ने डेरा डाल लिया और पल - पल की एक्सक्लूसिव तस्वीरें और खबर अपने दर्शकों तक पहुंचाने में जुट गये । अभी ज़्यादा वक्त नहीं बीता ,जब सरकारी नियंत्रण को मीडिया जगत पर हमला बताया था और आत्म नियंत्रण का भरोसा भी दिया था । लेकिन ये क्या ...? कल तक जो चैनल तालिबानी वीडियो दिखाने वाले चैनलों की पोल खोल रहा था , आज वो भी फ़िज़ा और चांद से जुडी खबरों को फ़िल्मी गानों की चाशनी में "पाग" कर दर्शकों को परोस रहा था । समाचार जानने के उत्सुक लोगों को वो टेबलेट्स दिखाई जा रही थी , जिनको खाकर फ़िज़ा ने मीडिया को इतनी ज़बरदस्त स्टोरी तैयार करने का मौका दिया ।

इस शोरशराबे में लेकिन एक अहम सवाल कहीं गुम हो गया है । औरत के अस्तित्व का सवाल । पूरा देश "शरीया कानून" की आड में मज़हब का मखौल उडाने का तमाशा देखता रहा । कहीं कोई आवाज़ नहीं , कोई चिंता नहीं । चार दिन बीते नहीं कि प्रेम का बुखार उतर गया ।

कानून की जानकार और अपने हक को बखूबी समझने वाली एक ऎसी औरत ,जो अपने प्यार को पाने के लिए हरियाणा जैसे रुढिवादी समाज से भी नहीं हारी ,अगर मौत को गले लगाने का फ़ैसला लेती है , तो क्या औरतों के हक के लिए लडने वालों के लिए चुनौती पेश नहीं करती । इस मामले के साथ देश में बडे पैमाने पर महिलाओं के हक से जुडे मुद्दों पर नई बहस होना चाहिए । साथ ही सभी को एक ही कानून के दायरे में लाने की बात भी होना चाहिए । " एक मुल्क - एक कानून " के ज़रिए ही देश को एकता के सूत्र में बांध कर रखा जा सकता है और कानून की आड में महिलाओं के जज़्बातों से खिलवाड करने वालों पर शिकंजा कसा जा सकता है ।

मंदी से उपजे संकट के दौर में लगता है एनडीटीवी ने नई सोच के साथ नई पहल की है । इसी कडी में मतदाताओं को सिखाने - पढाने के लिए रवीश कुमार के सौजन्य से प्रोग्राम बनाया गया । उनकी पेशकश की तारीफ़ करने को मन हो ही रहा था , तभी देश के मतदाताओं को पूजा - पाठ और धर्म के नाम पर ठगने वाले हिन्दुस्तानी तालिबानियों का ज़िक्र छेड दिया रवीश जी ने । लेकिन ये तालिबानी धोती - टीके वाले ही थे । टोपी और दाढी वालों का कोई ज़िक्र तक नहीं ....। आजकल मंदी के कारण नौकरी पर भारी पड रहे सर्कुलरों से खिसियाए खबरची क्या नया कहना चाहते हैं ....? आखिर क्या सिखाना चाहते हैं ...? "धोती - टीके वाले तालिबानी" का जुमला गढकर एक तबके को गरियाने से ही इस देश में सेक्यूलर कहलाया जा सकता है ? इन चैनलों ने जिस ढंग से हिन्दुओं की छबि गढ दी है , अब हिन्दू कहलाना किसी गाली से कम नहीं .....।

आज आज़मगढ के करीब एक हज़ार लोग एक ट्रेन में सवार होकर दिल्ली क्या पहुंचे , देश की राजनीति में उफ़ान आ गया । आईबीएन और सहारा समय लगातार ट्रेन और रेलवे प्लेटफ़ार्म की फ़ुटेज दिखा दिखा कर माहौल गर्माते रहे । गौर करने की बात है कि ट्रेन को उलेमा एक्सप्रेस का नाम तक दे दिया गया बैनर लगाकर । उस पर भी तुर्रा ये कि रेल प्रशासन और पुलिस पर प्रताडना का आरोप जड दिया । शिकायत थी कि ट्रेन जगह- जगह रोकी क्यों नहीं गई ।

बाटला हाउस एनकाउंटर मामले में आतंकवादियों की कारगुज़ारियों पर पर्दा डालने के लिए मौलाना अमर सिंह और अर्जुन सिंह के बोये बीज अब पनपने लगे हैं । उलेमाओं का जत्था दिल्ली पहुंचकर मामले की एक महीने में न्यायिक जांच का दबाव बना रहा है । उन्होंने सरकार को आगाह भी कर दिया है कि जल्दी जांच रिपोर्ट नहीं आने पर मुसलमान कांग्रेस को एक भी वोट नहीं देंगे । ये लोग कौन हैं ...? क्या ये वाकई इस देश के नागरिक हैं ...? अगर जवाब हां है , तो कैसे नागरिक हैं ,जिन्हें अपने शहर के लडके तो बेगुनाह और मासूम नज़र आते हैं , मगर दहशतगर्दी के शिकार लोगों के लिए इनके दिल में ज़रा भी हमदर्दी नहीं ? कल को मुल्क में कहीं भी आतंकी पकडे या मारे जाएंगे , तो हर मर्तबा यही सवाल खडे होंगे । पाकिस्तान या बांगला देश के रास्ते भारत आकर दहशत फ़ैलाने वाले ज़ाहिर सी बात है मुसलमान ही होंगे , तो क्या उनकी हिमायत में उठने वाली आवाज़ों के बूते उन्हें बेगुनाह मान लिया जाना चाहिए ?

एक न्यूज़ चैनल के जाने माने क्राइम रिपोर्टर के ब्लॉग पर बाटला हाउस मामले के आरोपी के घर की बदहाली का सजीव चित्रण देखा था । उनकी दलील को मान लिया जाए तो कोई भी गरीब अपराधी या दहशतगर्द नहीं हो सकता । लगभग वैसी ही परिस्थिति कसाब के परिवार की भी है , लिहाज़ा ये माना जा सकता है कि मोहम्मद अजमल कसाब भी मासूम है ?????? उस बेगुनाह का गुनाह है , तो महज़ इतना कि वो गरीब मुसलमान है ...?

वोट की खातिर नेता किस हद तक गिरेंगे , अंदाज़ा लगा पाना बडा ही मुश्किल है । लेकिन अपने फ़ायदे के लिए लोग सियासी दलों के साथ किस तरह का मोल भाव करेंगे ये चुनावी आहट मिलते साफ़ होने लगा है । देश के तथाकथित अल्पसंख्यक , जो कई हिस्सों में बहुसंख्यक हो चुके हैं , वे ही राजनीतिक दलों की नकेल कस रहे हैं । वोटों के गणित और सियासी नफ़े - नुकसान के चलते मुसलमान मतदाताओं को भेडों की तरफ़ हकालने का चलन देश के अंदरुनी हालात के लिए विस्फ़ोटक हो चला है । लालू ,मुलायम ,पासवान , मायावती ,कांग्रेस और कुछ हद तक अब बीजेपी भी मुसलमानों वोटों की खातिर तुष्टिकरण का भस्मासुर तैयार कर रही है , जो समूचे देश को ले डूबेगा ।

ये सभी घटनाएं देश में व्याप्त अराजकता और अव्यवस्था की ओर इशारा करती हैं । संविधान और कानून के प्रति लोगों की आस्था कहीं दिखाई नहीं देती । राजनीति के कंधे पर सवार होकर लोग मनचाहे ढंग से कानून तोड मरोड रहे हैं । लोगों की उम्मीद भरी निगाहें कभी न्याय की चौखट पर जाकर टिक जाती है , तो कभी संसद के गलियारों में भटक कर रह जाती है । मीडिया को आम लोगों की परवाह ही कहां रही । प्रशासन इन सबकी चाकरी बजाये या जनता की सुने ।

गुरुवार, 8 जनवरी 2009

या इलाही ये माजरा क्या है ............

गणेश शंकर विद्यार्थी , माखनलाल चतुर्वेदी जैसे पत्रकारों ने कलम की खातिर नैतिकता के नए नए प्रतिमान स्थापित किए ।
खींचों ना तलवार ना कमान निकालो
जब तोप हो मुकाबिल तो अखबार निकालो ।
संभवतः ऎसा ही कोई शेर है ,जो पत्रकारों को नैतिकता के साथ व्यवस्था के गुण दोष सामने लाने का हौंसला और जज़्बा देता है । पत्रकारिता आज़ादी के पहले तक , बल्कि आज़ादी के कुछ साल बाद तक मिशन हुआ करती थी । अब पत्रकारिता मशीन बन गई है , उगाही करने की मशीन ....। सबसे ज़्यादा चिंता की बात ये है कि अब मालिक ही अखबार के फ़ैसले लेते हैं और हर खबर को अपने नफ़े नुकसान के मुताबिक ना सिर्फ़ तोडते मरोडते हैं , बल्कि छापने या ना छापने का गणित भी लगाते हैं ।
भोपाल से निकलने वाले एक अखबार ने नए साल में पत्रकारिता के नए मानदंड स्थापित किए हैं । अपनी तरह का शायद ये पहला और शर्मनाक
मामला होगा । अपने आपको समाज का हित चिंतक बताने वाले इस अखबार ने दो जनवरी को एक समाचार दिया और फ़िर चार जनवरी को इसी समाचार पर U टर्न मार लिया । संभव है कि आने वाले सालों में पत्रकारिता जगत में आने वाले छात्र इसे कोर्स की किताबों में भी पाएं। कहानी पूरी फ़िल्मी है । आप ही तय करें ये सच है या वो सच था .........
दो जनवरी को प्रकाशित चार जनवरी को प्रकाशित



































































रविवार, 30 नवंबर 2008

हमलों पर उर्दू अखबारों का नज़रिया

मुम्बई के आतंकी हमले पर एक नज़रिया ये भी ........। देश को सावधान और एकजुट रहने की सख्त ज़रुरत है ।



हमलों पर क्या कहते हैं उर्दू अख़बार?

अविनाश दत्त बीबीसी संवाददाता, दिल्ली
उर्दू अख़बारों ने हमलों से उठ रहे कुछ अनसुलझे सवालों पर टिप्पणियाँ की हैं
भारत के हिंदी और अंग्रेज़ी अख़बारों की तरह उर्दू के तमाम दैनिक अख़बार भी केवल मुंबई में हुए हमलों की ख़बर से भरे हैं.
दिल्ली से छपने वाले राष्ट्रीय सहारा उर्दू में पहले पन्ने पर दिल्ली चुनावों के विज्ञापनों के अतिरिक्त केवल एक ही ख़बर है.. " मुंबई पर आग और खून की बारिश"
हैदराबाद से छपने वाले दैनिक अखबार 'मुंसिफ़' की पहली सुर्खी रही," मुंबई में दहशतगर्दों के साथ कमांडो की खूनी जंग जारी. "
इसी शहर से निकलने वाले उर्दू के दूसरे अख़बार 'सियासत' की पहली हेड लाइन है मुंबई के दो होटलों पर आतंकवादियों का कब्जा बरक़रार.'
इस ख़बर के साथ एक कथित चरमपंथी की तस्वीर छपी है जिस पर उसके एक हाथ पर बंधे लाल धागों पर गोला लगाया गया है, ठीक उसी तरह जिस तरह दिल्ली से छपने वाले अंग्रेज़ी के अख़बार मेल टुडे ने एक दिन पहले लगाया था.
'मुल्क़ भर में हाहाकार'
मुंबई से प्रकाशित अख़बार 'इंकलाब' की हेडलाइन है, 'ताज होटल के हमलावर ढेर ऑबराय होटल में ऑपरेशन जारी , मुल्क भर में हाहाकार."
अगर संपादकीयों पर नज़र डालें तो मुंसिफ़ ने इस घटना से सख्ती से निपटने की ज़रूरत पर बल दिया है.
इस तरह की घटना के पीछे जिस डेकन मुजाहिदीन का नाम आ रहा है वो शंका पैदा करने वाला है. अगर इस तरह की घटना मोसाद, सीआईए या आईएसआई द्वारा अंज़ाम दी गई होती तो सोचा जा सकता था. पर जिस संस्था का नाम किसी ने सुना नहीं वो कैसे इतना बड़ा आतंकवादी हमला करने में सफल हुई

इस अख़बार के संपादकीय की हेडलाइन है " मुंबई में दहशतगर्दी का नज़ारा". नीचे विस्तार से पूरी घटना के बारे में बताने के साथ ही बीते दिनों में "हिंदू दहशतगर्दों" के पकड़े जाने की बात पर पलट कर देखा है.
अख़बार ने ध्यान दिलाया है की मारे गए सभी अफसर ऐटीएस के थे.
अख़बार कहता है कि मालेगाँव बम धमाकों के सिलसिले में यह भी पता चला था की लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित के अलावा कुछ और पूर्व फौजी अफसरों ने 'हिंदू चरमपंथियों' को ख़ास ट्रेनिंग दी थी.
फ़िर आरएसएस, शिव सेना और अन्य हिंदूवादी संगठनों द्वारा साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को बचने के लिए एकजुट होने की बात है.
अख़बार का कहना है की ऐसे कुछ तत्व मुंबई के हमलों के पीछे हो सकते हैं और अख़बार इस पक्ष पर गौर करने को भी कहता है.
ख़ुफ़िया विफलता
अख़बार ये भी कहता है की इंटेलिजेंस एजेंसियों की विफलता पर ध्यान दिया जाना चाहिए और अगर इन हमलों के पीछे अगर बाहरी हाथ है तो उससे सख्ती से निपटना चाहिए.
दिल्ली से छपने वाले उर्दू के बड़े अखबार राष्ट्रीय सहारा उर्दू के संपादक अज़ीज़ बरनी ने लिखा है, "इस तरह की घटना के पीछे जिस डेकन मुजाहिदीन का नाम आ रहा है वो शंका पैदा करने वाला है. अगर इस तरह की घटना मोसाद, सीआईए या आईएसआई द्वारा अंज़ाम दी गई होती तो सोचा जा सकता था. पर जिस संस्था का नाम किसी ने सुना नहीं वो कैसे इतना बड़ा आतंकवादी हमला करने में सफल हुई".
संपादक इस आलेख में ये भी कह रहे हैं की कोई मुसलमान ऐटीएस के प्रमुख हेमंत करकरे को क्यों मारेगा.
वो कहते हैं, "सोचना होगा की इस आतंकवादी घटना से किसको लाभ होगा और अगर ऐटीएस की जाँच में कोई रुकावट पैदा होती है, जिसकी संभावनाए पैदा हो गई हैं तो किसको क्षति होगी".
हैदराबाद के एक और बड़े अख़बार सियासत ने अपने संपादकीय ने एक संघीय गुप्तचर एजेंसी कायम करने की ज़रूरत पर बल दिया है.
बीबीसी डाट्काम से साभार