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गुरुवार, 5 मार्च 2009

भगोरिया की मस्ती में जीवन का उल्हास

ंगारों से दहकते टेसू के फूलों और रंग-गुलाल के बीच मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी इलाकों में इन दिनों प्रणय पर्व भगोरिया की धूम है झाबुआ , आलीराजपुर , खरगोन और धार ज़िलों के हाट-बाजार में आदिवासी युवक-युवतियाँ जिंदगी का एक नया रंग तलाशते नजर आते हैं



भगोरिया नाम है उस प्रेम पर्व का , जो मूल आदिवासी समाज की अनोखी और विशिष्ट संस्कृति से रुबरु होने का मौका देता है भगोरिया आदिवासियों की पारंपरिक संस्कृति का आईना है। होली के सात दिन पहले से सभी हाट-बाज़ार मेले का रुप ले लेते हैं और हर तरफ बिखरा नजर आता है फागुन की मस्ती और प्यार का रंग

भगोरिया पर्व चार मार्च से शुरु हो चुका है होलिका दहन (दस मार्च) तक चलने वाले इस सांस्कृतिक उत्सव के लिए झाबुआ और आलीराजपुर क्षेत्र में 52 से अधिक स्थानों पर धूम मची रहेगी। वालपुर , बखतगढ़ और छकतला के मेलों में मध्यप्रदेश के अलावा गुजरात और राजस्थान के सीमावर्ती गाँवों से भी लोग पहुँचते हैं झाबुआ और आलीराजपुर के अलावा सौण्डवा , जोबट , कट्ठीवाड़ा , नानपुर उमराली , भाबरा और आम्बुआ की भगोरिया हाट में स्थानीय ही नहीं, देशी - विदेशी सैलानियों का जमावड़ा भी लगता है

भगोरिया पर लिखी कुछ किताबों के अनुसार राजा भोज के समय लगने वाले हाटों को भगोरिया कहा जाता था। उस समय दो भील राजाओं कासूमार औऱ बालून ने अपनी राजधानी भगोर में विशाल मेले औऱ हाट का आयोजन करना शुरू किया धीरे-धीरे आस-पास के भील राजाओं ने भी इन्हीं का अनुसरण करना शुरू किया जिससे हाट और मेलों को भगोरिया कहने का चलन बन गया हालाँकि , इस बारे में लोग एकमत नहीं हैं




ऎसी भी मान्यता है कि क्षेत्र का भगोर नाम का गाँव देवी माँ के श्राप के कारण उजड़ गया था वहाँ के राजा ने देवी की प्रसन्नता के लिए गाँव के नाम पर वार्षिक मेले का आयोजन शुरु कर दिया। चूँकि यह मेला भगोर से शुरू हुआ, इसलिए इसका नाम भगोरिया रख दिया गया। वैसे इसे गुलालिया हाट यानी गुलाल फेंकने वालों का हाट भी कहा जाता है।


भील, भिलाला एवं पटलिया जनजाति अपनी परंपरा के अनुसार उत्साह से नाचते-गाते हुए भगोरिया हाट में आते हैं इस पर्व की खास बात ये भी है कि आदिवासी अपनी जन्मभूमि , अपने गाँव से कितनी ही दूर क्यों हो, लेकिन भगोरिया के रुप में माटी की पुकार पर वो "अपने देस" दौड़ा चला आता है पलायन कर चुके आदिवासी इस पर्व का आनंद लेने के लिए अपने घर लौट आते हैं

इसके साथ ही भगोरिया हाट भीलों की जीवन रेखा भी है कहते हैं भील साल भर हाड़ तोड़ मेहनत - मजदूरी करते हैं और भगोरिया में अपना जमा धन लुटाते हैं। यहाँ से ही वे अनाज और कई तरह का सौदा - सुलफ़ लेते हैं यहीं गीत-संगीत और नृत्य में शामिल हो मनोरंजन करते हैं।

भगोरिया प्राचीन समय में होने वाले स्वयंवर का जनजातीय स्वरूप है इन हाट-बाजारों में युवक-युवती बेहद सजधज कर जीवनसाथी ढूँढने आते हैं देवता की पूजा-अर्चना के साथ शुरू होता है उत्सव पूजा के बाद बुजुर्ग पेड़ के नीचे बैठकर विश्राम करते हैं और युवाओं की निगाहें भीड़ में मनपसंद जीवनसाथी तलाशती हैं फिर होता है प्रेम के इजहार का सिलसिला......

युवतियों का श्रृंगार तो दर्शनीय होता ही है, युवक भी उनसे पीछे नहीं रहते लाल-गुलाबी, हरे-पीले रंग के फेटे, कानों में चाँदी की लड़ें, कलाइयों और कमर में कंदोरे, आँखों पर काला चश्मा और पैरों में चाँदी के मोटे कड़े पहने नौजवानों की टोलियाँ हाट की रंगीनी बढाती हैं वहीं जामुनी, कत्थई, काले, नीले, नारंगी आदि चटख-शोख रंग में भिलोंडी लहँगे और ओढ़नी पहने, सिर से पाँव तक चाँदी के गहनों से सजी अल्हड़-बालाओं की शोखियाँ भगोरिया की मस्ती को सुरुर में तब्दील कर देती हैं

आपसी रजामंदी जाहिर करने का तरीका भी बेहद निराला होता है नाच-गाने और मेले में घूमने के दौरान बात बन जाने पर लड़का पहल करता है पान की गिलौरी देकर....... लड़की पान का बीड़ा चबा कर प्रणय निवेदन को स्वीकृति देती है और फ़िर दोनों भाग कर शादी कर लेते हैं।

पहले इस रस्म को निभाने में काफी खून-खराबा होता था लेकिन अब प्रशासन की चुस्त व्यवस्था से पिछले कुछ सालों में कोई भी अप्रिय घटना नहीं हुई। मेलों में अब सशस्त्र बल और घुड़सवार पुलिस की तैनाती से अब मामला हिंसक नहीं हो पाता

इसी तरह यदि लड़का लड़की के गाल पर गुलाबी रंग लगा दे और जवाब में लड़की भी लड़के के गाल पर गुलाबी रंग मल दे तो भी रिश्ता तय माना जाता है। कुछ जनजातियों में चोली और तीर बदलने का रिवाज है। वर पक्ष लड़की को चोली भेजता है। यदि लड़की चोली स्वीकार कर बदले में तीर भेज दे तब भी रिश्ता तय माना जाता है। इस तरह भगोरिया भीलों के लिए विवाह बंधन में बँधने का अनूठा त्योहार भी है।


हाथ में रंगीन रुमाल और तीर - कमान थामे ढोल- मांदल की थाप और ठेठ आदिवासी गीतों पर थिरकते कदम माहौल में मस्ती घोल देते हैं गुड़ की जलेबी और बिजली से चलने वाले झूलों से लेकर लकड़ी के हिंडोले तक दूर-दूर तक बिखरी शोखी पहचान है भगोरिया की


पूरे वर्ष हाड़-तोड़ मेहनत करने वाले आदिवासी युवक-युवती इंतजार करते हैं इस उत्सव का जब वे झूमेंगे नाचेंगे गाएँगे, मौसम की मदमाती ताल पर बौरा जाएँगे। फिर उनके पास 'भगौरिया' भी तो है , निःसंकोच जीवनसंगी चुनने और इस चुनाव का बेलौस इज़हार करने का मौका इस अवसर को उन्होंने मदमाते मौसम में ही मनाना तय किया जो अपने आपमें उत्सव की प्रासंगिकता को और भी बढ़ा देता है।

भगोरिया हाटों में अब परंपरा की जगह आधुनिकता हावी होती दिखाई देने लगी है। चाँदी के गहनों के साथ-साथ अब मोबाइल चमकाते भील जगह-जगह दिखते हैं। ताड़ी और महुए की शराब की जगह अब अंग्रेजी शराब का सुरूर सिर चढ़कर बोलता है। वहीं छाछ-नींबू पानी की जगह कोला पसंद किया जा रहा है। आदिवासी युवक नृत्य करते समय काले चश्मे लगाना पसंद कर रहे हैं वहीं युवतियाँ भी आधुनिकता के रंग में रंगती जा रही हैं।पढ़े-लिखे नौजवान अब भगोरिया में शामिल नहीं होना चाहते वहीं अब वे केवल एक उत्सव के समय अपने जीवनसाथी को चुनने से परहेज भी कर रहे हैं इस दौरान होने वाली शादियों में कमी रही है।

भगोरिया के आदर्शों, गरिमाओं और भव्यता के आगे योरप और अमेरिका के प्रेम पर्वों की संस्कृतियाँ भी फीकी हैं, क्योंकि भगोरिया अपनी पवित्रता, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों की धरोहर से ओत-प्रोत है। इसलिए यह सारे विश्व में अनूठा और पवित्र पर्व है।

आदिवासियों को विकास की मुख्य धारा से पिछड़ा मानने वाले हम लोग यदि इनकी परंपराओं पर बारीकी से नजर डालें तो पाएँगे कि जिन परंपराओं के अभाव में हमारा समाज तनावग्रस्त है वे ही इन वनवासियों ने बखूबी से विकसित की हैं। तथाकथित सभ्य और पढे - लिखे समाज के लिए सोचने का विषय है कि हमारे पास अपनी युवा पीढ़ी को देने के लिए क्या है ? क्या हमारे पास हैं ऐसे कुछ उत्सव जो सिर्फ और सिर्फ प्रणय-परिणय से संबंधित हों ? आदिवासी इस मामले में भी हमसे अधिक समृद्ध हैं।

रविवार, 2 नवंबर 2008

लोक परंपराओं और वन संपदा के सौदागर

हमारे पौराणिक ग्रंथों में पाताललोक का ज़िक्र अक्सर आता है । पाताल कहते ही ज़ेहन में एक चित्र उभरता है , जो हमें धरती के नीचे सात पातालों की कल्पना में पहुंचा देते हैं । देश के ह्र्दय कहलाने वाले मध्य प्रदेश की धरती पर एक यथार्थ लोक है - पातालकोट । छिंदवाडा ज़िले के उत्तर में सतपुडा के पठार पर स्थित पातालकोट कुदरत की अदभुत रचना है । ८९ वर्ग किलोमीटर में फ़ैली पातालकोट की धरा को नज़दीक से निहारना अपने आप में कौतूहल से भरा अनूठा अनुभव है ।

यहां के किसी भी गांव तक पहुंचने के लिए १२०० से १५०० फ़ीट की गहराई तक उतरना पडता है । घाटियां इतनी नीचे चली गई हैं कि उनमें झांक कर देखना भी मुश्किल है । ऎसा लगता है यहां शिखरों और घाटियों में होड लगी है , कौन कितना गौरव के साथ ऊंचा जाता है और कौन कितना विनम्रता के साथ झुकता हुआ धरती के अंतिम छोर को छू सकता है । इस कोशिश के गवाह हैं तरह - तरह के पेड - पौधे , जो घाटियों के गर्भ में और शिखरों की फ़ुनगियों पर बिना किसी भेदभाव के फ़ैले हुए हैं । निर्मल झरने , झिरियों और सरिताओं ने पातालकोट को नया जीवन दिया है ।

राजाखोह , दूधी और गायनी नदियों के उदगम की गहरी खाइयों में सूरज की किरणें अलसाती हुईं दोपहर बारह बजे तक दस्तक देने पहुंचती हैं और किसी प्रेयसी की तरह जल्द से जल्द मुलाकात खत्म कर लौट जाने की फ़िराक में रहती हैं । शाम चार बजने तक अंधियारा पांव पसारने लगता है । पातालकोट में भारिया जनजाति के लोग सदियों से रहते हैं । बाहरी दुनिया से अनजान इन लोगों की ज़िन्दगी में देश - दुनिया की विकास की गौरव गाथा का भी कोई पहलू शामिल नज़र नहीं आता । यहां दो - ढाई हज़ार लोग अजूबे की ज़िंदगी जी रहे हैं ।

वन संपदा के धनी इस इलाके के विकास के लिए सरकार अब तक अरबों रुपए फ़ूंक चुकी है । भारिया जनजाति के विकास और उसकी संस्क्रति को सहेजने के लिए विशेष पैकेज बनाए गये लेकिन नताजा वही - ढाक के तीन पात । न तो भारिया अब तक समाज की मुख्यधारा में शामिल हो सके और न ही आदिवासियों का पारंपारिक औषधीय ग्यान बाहरी लोगों तक पहुंच सका है ।

यहां के लोग भुमका और गुनिया पर सबसे ज़्यादा विश्वास करते हैं । गुनिया जडी - बूटी का अच्छा जानकार होता है , जबकि भुमका मारक - तारक तंत्र - मंत्र में माहिर माना जाता है । भुमका नाडी देखकर बीमारी का निदान करते हैं । उनका कहना है कि हम बगैर पढे - लिखे लोग दिल पढना जानते हैं और वही पढकर रोग की जड का पता लगा लेते हैं । भुमका कहते हैं - " नाडी देखकर भगवान के नाम पर पानी छोड देते हैं । इससे बीमारी ठीक हो जाती है ।" उनके मुताबिक दिल की गहराइयों से बोले गये मंत्र असर करते हैं । दी गई जडी - बूटियां फ़ौरन फ़ायदा पहुंचाती हैं ।

पातालकोट में ऎसी जडी - बूटियां पाई जाती हैं , जो भारत में कहीं और मिलना नामुमकिन है । शायद इसीलिए कई निजी कंपनियों ने विदेशी कंपनियों से हाथ मिलाकर यहां डेरा डाल दिया है । इंटरनेट के ज़रिए यहां की दुर्लभ जडी - बूटियां विदेशों में बेची जा रही है । वन संपदा के बेतरह दोहन से सरकार अनजान बनी हुई है । इलाके में एकाएक व्यापारिक गतिविधियां बढ जाने से बाहरी लोगों की आवाजाही भी तेज़ी से बढी है । अनमोल जडी बूटियों को बाज़ार में बेचकर तिजोरी भर रहे व्यापारियों ने कुदरत के बेशकीमती खज़ाने में सेंध लगा दी है । कई जडी बूटियां विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गई हैं । लेकिन वन विभाग इससे बेखबर है ।

बाहरी लोगों का भारिया जनजाति के रहन - सहन पर भी खासा असर साफ़ दिखाई देने लगा है । ढोल और मांदल की थाप पर थिरकने वाले ये वनवासी अब पाश्चात्य संगीत पर झूम रहे हैं । नई पीढी लोकगीत और लोकधुनों को बिसरा चुकी है । फ़िल्मी गीतों की दीवानगी इस कदर बढी कि अब ढोल - नगाडॆ नौजवानों के लिए गुज़रे ज़माने की बात हो चले हैं ।

बाहरी चमक दमक का असर इस हद तक बढ गया है कि भारिया जनजाति की लोक संस्क्रति और परंपराओं के अस्तित्व पर ही खतरा मंडराने लगा है । भोले भाले आदिवासियों को सस्ते म्यूज़िक प्लेयर थमाकर व्यापारी अनमोल जडी - बूटियों पर हाथ साफ़ कर रहे हैं । अब तो बुज़ुर्ग भारिया भी मानने लगे हैं कि पातालकोट की पहचान बचाने के लिए दुर्लभ जडी - बूटियों के बेजा इस्तेमाल पर पाबंदी लगाना ज़रुरी है । वे आदिवासी परंपराओं के शहरीकरण को लेकर भी चिंतित हैं ।

दुआ है दुश्मनों को , जो सरे आम बुरा करते हैं
उन दोस्तों से तौबा ,जो दोस्ती में क्त्लेआम करते हैं ।