गुरुवार, 29 जनवरी 2009
धोती- टीके वाले भी होते हैं तालिबानी
न्यूज़ चैनलों को लंबे समय बाद इतना चटपटा और धमाकेदार मसाला मिला है । चांद मोहम्मद के घर से गायब होने की खबर आते ही लंबे समय से सूखॆ की मार झेल रहे खबरचियों ने डेरा डाल लिया और पल - पल की एक्सक्लूसिव तस्वीरें और खबर अपने दर्शकों तक पहुंचाने में जुट गये । अभी ज़्यादा वक्त नहीं बीता ,जब सरकारी नियंत्रण को मीडिया जगत पर हमला बताया था और आत्म नियंत्रण का भरोसा भी दिया था । लेकिन ये क्या ...? कल तक जो चैनल तालिबानी वीडियो दिखाने वाले चैनलों की पोल खोल रहा था , आज वो भी फ़िज़ा और चांद से जुडी खबरों को फ़िल्मी गानों की चाशनी में "पाग" कर दर्शकों को परोस रहा था । समाचार जानने के उत्सुक लोगों को वो टेबलेट्स दिखाई जा रही थी , जिनको खाकर फ़िज़ा ने मीडिया को इतनी ज़बरदस्त स्टोरी तैयार करने का मौका दिया ।
इस शोरशराबे में लेकिन एक अहम सवाल कहीं गुम हो गया है । औरत के अस्तित्व का सवाल । पूरा देश "शरीया कानून" की आड में मज़हब का मखौल उडाने का तमाशा देखता रहा । कहीं कोई आवाज़ नहीं , कोई चिंता नहीं । चार दिन बीते नहीं कि प्रेम का बुखार उतर गया ।
कानून की जानकार और अपने हक को बखूबी समझने वाली एक ऎसी औरत ,जो अपने प्यार को पाने के लिए हरियाणा जैसे रुढिवादी समाज से भी नहीं हारी ,अगर मौत को गले लगाने का फ़ैसला लेती है , तो क्या औरतों के हक के लिए लडने वालों के लिए चुनौती पेश नहीं करती । इस मामले के साथ देश में बडे पैमाने पर महिलाओं के हक से जुडे मुद्दों पर नई बहस होना चाहिए । साथ ही सभी को एक ही कानून के दायरे में लाने की बात भी होना चाहिए । " एक मुल्क - एक कानून " के ज़रिए ही देश को एकता के सूत्र में बांध कर रखा जा सकता है और कानून की आड में महिलाओं के जज़्बातों से खिलवाड करने वालों पर शिकंजा कसा जा सकता है ।
मंदी से उपजे संकट के दौर में लगता है एनडीटीवी ने नई सोच के साथ नई पहल की है । इसी कडी में मतदाताओं को सिखाने - पढाने के लिए रवीश कुमार के सौजन्य से प्रोग्राम बनाया गया । उनकी पेशकश की तारीफ़ करने को मन हो ही रहा था , तभी देश के मतदाताओं को पूजा - पाठ और धर्म के नाम पर ठगने वाले हिन्दुस्तानी तालिबानियों का ज़िक्र छेड दिया रवीश जी ने । लेकिन ये तालिबानी धोती - टीके वाले ही थे । टोपी और दाढी वालों का कोई ज़िक्र तक नहीं ....। आजकल मंदी के कारण नौकरी पर भारी पड रहे सर्कुलरों से खिसियाए खबरची क्या नया कहना चाहते हैं ....? आखिर क्या सिखाना चाहते हैं ...? "धोती - टीके वाले तालिबानी" का जुमला गढकर एक तबके को गरियाने से ही इस देश में सेक्यूलर कहलाया जा सकता है ? इन चैनलों ने जिस ढंग से हिन्दुओं की छबि गढ दी है , अब हिन्दू कहलाना किसी गाली से कम नहीं .....।
आज आज़मगढ के करीब एक हज़ार लोग एक ट्रेन में सवार होकर दिल्ली क्या पहुंचे , देश की राजनीति में उफ़ान आ गया । आईबीएन और सहारा समय लगातार ट्रेन और रेलवे प्लेटफ़ार्म की फ़ुटेज दिखा दिखा कर माहौल गर्माते रहे । गौर करने की बात है कि ट्रेन को उलेमा एक्सप्रेस का नाम तक दे दिया गया बैनर लगाकर । उस पर भी तुर्रा ये कि रेल प्रशासन और पुलिस पर प्रताडना का आरोप जड दिया । शिकायत थी कि ट्रेन जगह- जगह रोकी क्यों नहीं गई ।
बाटला हाउस एनकाउंटर मामले में आतंकवादियों की कारगुज़ारियों पर पर्दा डालने के लिए मौलाना अमर सिंह और अर्जुन सिंह के बोये बीज अब पनपने लगे हैं । उलेमाओं का जत्था दिल्ली पहुंचकर मामले की एक महीने में न्यायिक जांच का दबाव बना रहा है । उन्होंने सरकार को आगाह भी कर दिया है कि जल्दी जांच रिपोर्ट नहीं आने पर मुसलमान कांग्रेस को एक भी वोट नहीं देंगे । ये लोग कौन हैं ...? क्या ये वाकई इस देश के नागरिक हैं ...? अगर जवाब हां है , तो कैसे नागरिक हैं ,जिन्हें अपने शहर के लडके तो बेगुनाह और मासूम नज़र आते हैं , मगर दहशतगर्दी के शिकार लोगों के लिए इनके दिल में ज़रा भी हमदर्दी नहीं ? कल को मुल्क में कहीं भी आतंकी पकडे या मारे जाएंगे , तो हर मर्तबा यही सवाल खडे होंगे । पाकिस्तान या बांगला देश के रास्ते भारत आकर दहशत फ़ैलाने वाले ज़ाहिर सी बात है मुसलमान ही होंगे , तो क्या उनकी हिमायत में उठने वाली आवाज़ों के बूते उन्हें बेगुनाह मान लिया जाना चाहिए ?
एक न्यूज़ चैनल के जाने माने क्राइम रिपोर्टर के ब्लॉग पर बाटला हाउस मामले के आरोपी के घर की बदहाली का सजीव चित्रण देखा था । उनकी दलील को मान लिया जाए तो कोई भी गरीब अपराधी या दहशतगर्द नहीं हो सकता । लगभग वैसी ही परिस्थिति कसाब के परिवार की भी है , लिहाज़ा ये माना जा सकता है कि मोहम्मद अजमल कसाब भी मासूम है ?????? उस बेगुनाह का गुनाह है , तो महज़ इतना कि वो गरीब मुसलमान है ...?
वोट की खातिर नेता किस हद तक गिरेंगे , अंदाज़ा लगा पाना बडा ही मुश्किल है । लेकिन अपने फ़ायदे के लिए लोग सियासी दलों के साथ किस तरह का मोल भाव करेंगे ये चुनावी आहट मिलते साफ़ होने लगा है । देश के तथाकथित अल्पसंख्यक , जो कई हिस्सों में बहुसंख्यक हो चुके हैं , वे ही राजनीतिक दलों की नकेल कस रहे हैं । वोटों के गणित और सियासी नफ़े - नुकसान के चलते मुसलमान मतदाताओं को भेडों की तरफ़ हकालने का चलन देश के अंदरुनी हालात के लिए विस्फ़ोटक हो चला है । लालू ,मुलायम ,पासवान , मायावती ,कांग्रेस और कुछ हद तक अब बीजेपी भी मुसलमानों वोटों की खातिर तुष्टिकरण का भस्मासुर तैयार कर रही है , जो समूचे देश को ले डूबेगा ।
ये सभी घटनाएं देश में व्याप्त अराजकता और अव्यवस्था की ओर इशारा करती हैं । संविधान और कानून के प्रति लोगों की आस्था कहीं दिखाई नहीं देती । राजनीति के कंधे पर सवार होकर लोग मनचाहे ढंग से कानून तोड मरोड रहे हैं । लोगों की उम्मीद भरी निगाहें कभी न्याय की चौखट पर जाकर टिक जाती है , तो कभी संसद के गलियारों में भटक कर रह जाती है । मीडिया को आम लोगों की परवाह ही कहां रही । प्रशासन इन सबकी चाकरी बजाये या जनता की सुने ।
बुधवार, 28 जनवरी 2009
गरीबों को चाहिए रोटी और रोज़गार
विश्व बैंक के हाल ही में उपलब्ध कराए गये आंकडों पर गौर करें , तो भारत में साल 2005 में 45.6 करोड से ज़्यादा लोग गरीबी की सूची में शामिल माने गये, जबकि 1981 में 42 करोड गरीब थे । वैश्विक निर्धनता के पैमाने के मुताबिक हर वो शख्स जो प्रतिदिन सवा डालर से कम कमाता है ,वह गरीब माना जाएगा । इस लिहाज़ से आज दुनिया के हर दस गरीबों में चार भारतीय शामिल हैं ।
देश में गरीबी से जूझने के नाम पर बडे पैमाने पर चलाए जा रहे नाटकीय अभियानों को ताज़ा आंकडे आइना दिखाते हैं । कागज़ी घोडे पर सवार हो कर अब तक करोडों लोग गरीबी की रेखा को पार कर चुके हैं लेकिन वास्तविकता के धरातल पर तस्वीर बेहद खौफ़नाक है । गरीबों के लिए चलाई जा रही योजनाओं का सारा फ़ायदा नेताओं , सरकारी मुलाज़िमों और ठेकेदारों को मिल रहा है , जबकि गरीब दो वक्त की रोटी को भी मोहताज है ।
देश में सबसे निराश करने वाली स्थिति ये है कि रुपया एक तिजोरी से दूसरी तिजोरी तक का छोटा और तयशुदा सफ़र कर रहा है । यही वजह है ,जो समाज के बडे तबके तक रुपए की पहुंच का रास्ता बंद सा है । भ्रष्टाचार के कारण गैरबराबरी की खाई दिनोंदिन चौड़ी होती जा रही है। मानव समुदायों के बीच लगातार बढती सामाजिक और आर्थिक असमानता समाज में कई विसंगतियों का सबब बन गई है । अर्थ व्यवस्था की इस खामी के कारण समाज दो वर्गों में स्पष्ट तौर पर बंट चुका है ।
मौजूदा दौर में लंबी-चौड़ी सड़कों के निर्माण और जीडीपी को ही विकास का पैमाना माना जा रहा है । सत्ता में बैठे लोग मीडिया के एक बडे वर्ग की मदद से इसी अवधारणा को सच साबित करने पर तुले हैं । अंगुली पर गिने जा सकने वाले महानगरों की चकाचौंध भरी दुनिया ही विकास का पर्याय बन गई है । लोग शेयर बाजार की उछाल और विदेशी मुद्रा भंडार के साथ-साथ शापिंग मॉल्स की बढ़ती संख्या को ही तरक्की का सूचक बताते नहीं थकते ।
मौजूदा व्यवस्था पूंजीवादियों के हित साधने में लगी है । इसके विपरीत मानव श्रम से जुडे मुद्दों को नज़र अंदाज़ किया जा रहा है । औद्योगिक क्रांति के नाम पर प्राकृतिक संपदा का ना सिर्फ़ बेरहमी से दोहन हो रहा है । कुदरत की अनमोल धरोहर को समूल नष्ट करने में भी कोई कोर कसर नहीं छोडी गई है ।
अगर सही मायने में विकास हुआ होता तो क्या देश में चारों ओर खुशहाली नहीं आई होती ? क्यों किसान आत्महत्या पर मजबूर होते ? भारतीय संदर्भ में जब भी विकास की बात होगी , तब इससे जुडी कुछ बुनियादी शर्तों को समझना भी ज़रुरी होगा । यहां वास्तविक विकास वही है , जिसमें अंतिम व्यक्ति का हित सर्वोपरि रहे ।
भारत में विकास तब तक सतही और खोखला माना जाएगा जब तक देश का अन्नदाता किसान सुखी और समृध्द नहीं है । आजादी के शुरूआती वर्षों में खेती को पटरी पर लाने के लिए कई प्रयास हुए। किसानों के पारंपरिक ज्ञान और जीवनशैली को दरकिनार करते हुए पश्चिमी तौर-तरीके अपनाने के कारण पैदावार बढी , साथ ही कई समस्याएं भी उत्पन्न हो गईं। ‘आर्थिक उदारवाद’ ने किसानों का जीवन और मुश्किल बना दिया है। अब तो संकट किसानों के अस्तित्व का ही है। वर्ष 1991 के बाद से किसानों की आत्महत्या की संख्या काफी तेजी से बढ़ी है। सरकारी बजट में कृषि को हिस्सा कम होता गया है ।
नीति निर्धारकों का पूंजीपतियों और समाज के श्रेष्ठि वर्ग के प्रति झुकाव का नतीजा है कि देश के 84 करोड़ लोग बीस रुपए रोजाना पर जीवन बसर को मजबूर हैं। एक ओर विकास के लंबे-चौडे दावे हैं , वहीं गरीबों की सुध लेने वाला कोई नहीं । यह कैसा विकास है जिसमें अमीर की अमीरी और गरीब की गरीबी बढ़ती ही जा रही है ?
पश्चिमी अवधारणा को दोहराते हुए हम भूल जाते हैं कि विकास के संदर्भ में भारत की भी एक सोच रही है। वास्तविक विकास मानव केन्द्रित न होकर पारिस्थितिकी केन्द्रित होता है । एक ऐसी व्यवस्था जिसमें जमीन, जल, जंगल, जानवर, जन का परस्पर पोषण और व्यक्ति का परिवार, पड़ोस, समाज, दुनिया, प्रकृति के साथ तालमेल बना रहे।
गांधी के ग्राम स्वराज की परिकल्पना आज के दौर में और भी प्रासंगिक हो चली है । ग्रामीण परिवेश में सार्थक औजार के रुप में इसे अपना कर नया अर्थ तंत्र रचा जा सकता है । तभी देश में पूर्ण स्वराज की अवधारणा साकार हो सकेगी , जब हर हाथ को काम और हर भूखॆ को भरपेट भोजन मिलेगा ।
मंगलवार, 27 जनवरी 2009
सम्मान की राजनीति - राजनीति के सम्मान
देश के शीर्ष सम्मानों को लेकर कभी कभार नाराज़गी और कभी असंतोष के स्वर सुनाई पडते रहे हैं । मगर इन सम्मानों पर भी एक दिन सियासत का रंग चढ जाएगा ये किसी ने सोचा नहीं था । गणतंत्र दिवस के मौके पर विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय योगदान के लिए मशहूर हस्तियों को पद्म सम्मानों से नवाज़ने की परंपरा रही है । इस बार फ़िल्म जगत के जिन पांच कलाकारों को पद्मश्री दिया गया है , उनमें ऐश्वर्या राय बच्चन, अक्षय कुमार, उदित नारायण, कुमार सानू और हेलेन शामिल हैं । बहू को सम्मान मिलने से बच्चन परिवार काफी खुश है।
कजरारे - कजरारे की "धूम" मचाकर इश्क को कमीना बताने वाली ऐश्वर्या ने अभिनय के क्षेत्र में कौन से झंडे गाडे हैं ये समझ से परे है ? आखिर विश्व सुंदरी का खिताब जीतने वाली ऐश्वर्या ने अभिनय के ऎसे कौन से प्रतिमान स्थापित किये हैं ? पिछले कुछ सालों में तन उघाडू फ़िल्मों की फ़ेहरिस्त के अलावा एक ही बडी बात उनके खाते में है - बच्चन परिवार के चश्मे चिराग अभिषेक से विवाह । नर्गिस , अमिताभ ,जया , दिलीप कुमार जैसे कलाकारों को जब पद्म पुरस्कार दिया गया तो सम्मान हासिल करने वाले के साथ उस सम्मान की गरिमा भी बढी । खबरों का बाज़ार गर्म है कि अमिताभ बच्चन के पारिवारिक सदस्य माने जाने वाले अमर सिंह ने अभिषेक बच्चन और ऐश्वर्या राय दोनों के लिए पद्म पुरस्कार की चाहा था । लेकिन सोनिया गांधी के दखल के बाद सौदा ऐश्वर्या को पद्मश्री पर पटा ।
उत्तर प्रदेश में सीट बंटवारे को लेकर सपा से तकरार के बावजूद कांग्रेस दोस्ती बरकरार रखने की हर मुमकिन कोशिश कर रही है। ऐश्वर्या राय बच्चन को पद्मश्री से सम्मानित करने का केन्द्र सरकार का फ़ैसला इसी से जोडकर देखा जा रहा है।
आज कल कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच तनातनी का ही सही लेकिन तालमेल का रिश्ता चल रहा है। पद्म सम्मान के तौर पर सियासत की दलाली करने वाले अमरसिंह ने एक बार फ़िर कांग्रेस को दोस्ती की कीमत चुकाने का फ़रमान जारी कर डाला । वैसे भी सरकार बचाने के इनायतनामे के तौर पर कांग्रेस लगातार राजनीतिक अडीबाज़ अमरसिंह की ब्लैकमेलिंग का शिकार होती आ रही है । सरकार बचाने की इतनी भारी कीमत अदा करना होगी ये तो मैडम ने कभी ख्वाब में भी नहीं सोचा होगा ।
उत्तरप्रदेश में मायावती से खौफ़ज़दा कांग्रेस लोकसभा चुनावों के लिए साथी की तलाश में है । अमर सिंह इसी मजबूरी का जमकर फ़ायदा लेने में जुटे हैं । समाजवादी पार्टी अपनी ओर से इस रिश्ते को अपनी शर्तों पर निभाने की पहल में लगी है जबकि कांग्रेस कुछ भी कर के यह तालमेल बनाए रखने के लिए प्रतिबद्व है।
आज अमरसिंह अपना तिरेपनवां जन्मदिन मना भी रहे हैं और नहीं भी । उनके फ़ैन क्लब तिरेपन किलो का केक काट कर उन्हें मुकुट पहना जोश दिखा रहा है ,लेकिन बर्थ डे ब्वाय {मैन} रोष दिखा रहे हैं । वे मुंह फ़ुलाये बैठे हैं । उनकी शिकायत है कि सोनिया ,प्रियंका या राहुल में से किसी ने अब तक उन्हें ’"विश” नहीं किया । शुभकामना संदेश नहीं भेजने का यूपीए को ना जाने क्या खमियाज़ा उठाना पडेगा ये तो भगवान ही जानें या फ़िर अमरसिंह ...। वैसे कोई सोनिया को संदेश भिजवाओ कि वे देशहित में तुरंत देश के कर्णधार की नाराज़गी दूर करें । अमरसिंह के मिजाज़ को समझ पाना बडा ही मुश्किल है । सोनिया का संदेशा ना आने से "कुपित " अमर बाबू को अपने पुराने साथी और अब कांग्रेसी राज बब्बर के भेजे फ़ूलों में भी कांटों की चुभन का एहसास हो रहा है । "अमर चरित्रम यूपीए भाग्यम , देवो ना जानापि कुतो मनुष्यम "
एक अदना सा व्यक्ति मजबूरी की राजनीति में एकाएक कितना ताकतवर हो सकता है , इसका ’क्लासिक’ उदाहरण है अमरसिंह । मुलायम और अमर सिंह के खिलाफ़ सीबीआई जांच खत्म करने का मामला हो या संजय - प्रिया दत्त से जुडा विवाद , अमर सिंह ने कांग्रेस की हालत उस तरह कर दी है , जो सज़ा के तौर पर सौ जूतों या सौ प्याज़ में से किसी एक को आसान विकल्प के रुप में चुनने के चक्कर में सौ जूते भी खा रही है और सौ प्याज़ भी ....।
सोमवार, 26 जनवरी 2009
अभावों को समृद्धि में बदलना सीखें इज़राइल से
चिंतक और विश्लेषक घनश्याम सक्सेना ने अपनी यूरोप यात्रा के दौरान इज़राइली विद्वान नेटेनल लार्च से हुई बातचीत का हवाला देते हुए हाल ही में मुझे इज़राइलियों के संघर्षशील स्वभाव के बारे में बताया । लार्च के मुताबिक इज़राइल की हर मोर्चे पर सफ़लता का एकमात्र सूत्र वाक्य है - विपरीत परिस्थितियों में भी संघर्ष का जज़्बा कायम रखना और बेहतर के लिए सतत प्रयासरत रहना । इज़राइली किसी भी काम को छोटा - बडा समझने की बजाय उसे अपना कर्तव्य मानकर निभाते हैं ।
अरब देशों ने जब जार्डन नदी पर बांध बनाकर इज़राइल को पानी मिलने की सभी संभावनाओं पर रोक लगा दी , तो संघर्षों में रास्ता तलाशने वालों ने समुद्र के खारे पानी को अपनी तासीर बदलने पर मजबूर कर दिया । आज इज़राइल की ड्रिप इरीगेशन तकनीक खेती के लिए मिसाल बन चुकी है । वे रेगिस्तान में भी रसीली नारंगी का भरपूर उत्पादन लेते हैं । हम पानी को खेतों में बेतहाशा बहा कर उर्वरा भूमि को बंजर में तब्दील कर देते हैं । "टपक विधि" अपनाकर भरपूर पैदावार लेने वाले इज़राइली सबक हैं भारतीय किसानों के लिए ।
नेपाल में रहने वाले मेरे पारिवारिक मित्र "पानी की खेती" की तकनीक का प्रशिक्षण लेने के लिए इज़राइल गये थे । वे इज़राइलियों की तकनीकी सूझबूझ से चमत्कृत थे । उन्होंने बताया कि किस तरह महज़ दो- चार फ़ीसदी बरसात के पानी का वे खूबसूरती से इस्तेमाल करते हैं । वहां घरों में तीन तरह के नलों से पानी पहुंचाया जाता है और हरेक पानी का उपयोग भी तयशुदा होता है । दूसरी तरफ़ हम हैं । प्रकृति ने हमें सैकडों नदियों का वरदान दिया । हज़ारों तालाबों की दौलत से नवाज़ा और अनगिनत कुएं- बावडियों की सौगात भी बख्शी । बादलों की मेहरबानी भी जमकर बरसती है , लेकिन हमने कुदरत की इस बख्शीश की कीमत ही नहीं जानी । नतीजतन आज देश में पानी के लिए त्राहि - त्राहि मची है ।
लार्च ने हिब्रू भाषा में लिखी अपनी किताब ’मेज़ेल टोव’ यानी ’गुड लक” का हवाला देते हुए बताया कि जिस ब्रिटिश कूटनीति के फ़लस्वरुप 15 अगस्त 1947 को भारतीय उपमहाद्वीप का बंटवारा हुआ उसी वजह से अरब देशों के बीच शत्रुता के माहौल में 14 मई 1948 को इज़राइल का जन्म हुआ । आज़ादी के कुछ ही महीनों बाद जिस तरह कश्मीर पर पाकिस्तानी कबायलियों ने हमला किया था ,उसी तरह इज़राइल पर सात अरब देशों ने हमला बोल दिया ।
आतंकवाद से निपटने के मामले में भारत और इज़राइल के सामर्थ्य की चर्चा के दौरान लार्च ने श्री सक्सेना को कई असमानताएं गिनाईं । लार्च मानते हैं "हमें अभावों का वरदान मिला है ,जबकि भारत को समृद्धि का अभिशाप । इसलिए इज़राइल ने अभावों को समृद्धि में बदलने का हुनर सीखा । दूसरी ओर समृद्ध भारत ’सब चलता है’ के नज़रिए के साथ आगे बढा ।"
इज़राइली विद्वान लार्च भारत को शॉक एब्ज़ार्वर करार देते हुए कहते हैं कि " हम एक आतंकी हमला चुपचाप सह लें तो खत्म हो जाएंगे । हम शत्रु राष्ट्रों को धमकी नहीं देते ,बल्कि सीधे वार करते हैं । इधर भारत लगातार चेतावनी तो देता है मगर कार्रवाही कुछ नहीं करता । इज़राइल आतंकवादियों को ईंट का जवाब पत्थर से देता है ।"
मेरे परिचितों की ज़ुबानी इन वृतांतों को सुनने के बाद से मेरा मन सवाल कर रहा है कि क्या भारत अपने हमउम्र साथी राष्ट्र से कभी कोई सबक सीख पाएगा ? क्या कुदरत की नियामतों को सहेजने की सलाहियत हम लोगों में कभी आ पाएगी ..? क्या ऎसा भी कोई दिन आएगा जब कोई दुश्मन आंख उठाकर देखने की हिमाकत करे तो हम उसकी आंखें निकाल लें ...? कब मेरे देश का हर खेत हरियाली से लहलहाएगा और हर शख्स भरपेट भोजन कर चैन की नींद सो सकेगा अपनी छत के नीचे ...? मुझे उम्मीद ही नहीं पूरा यकीन है कि आज भी हम सब हालात बदलने की ताकत रखते हैं । अपनी हिकमत और हिम्मत से हर तूफ़ान का रुख बदल सकते हैं ।
हम बचाएंगे , सजायेंगे, संवारेंगे तुझे
हर मिटे नक्श को चमका के उभारेंगे तुझे
अपनी शह - रग का लहू दे के निखारेंगे तुझे
दार पे चढ के फ़िर इक बार पुकारेंगे तुझे
राह इमदाद की देखें ये भले तौर नहीं
हम भगत सिंह के साथी हैं कोई और नहीं
रविवार, 25 जनवरी 2009
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं...........
हर रोज़ दी जा रही इस ऎलानिया समझाइश से मन में सवालों का सैलाब उमडने लगता है । क्या हो गया है इस देश को ? उत्सवधर्मी होना ज़िन्दादिली का सबूत है , लेकिन हर वक्त जश्न में डूबे रहना ही क्या हमारी संस्कृति है ? एक दौर था जब " हर फ़िक्र को धुएं में उडाता चला गया " का फ़लसफ़ा समाज में स्वीकार्य नहीं था । बुज़ुर्ग अपने बच्चों को धार्मिक त्योहारों के साथ राष्ट्रीय पर्वों का महत्व भी समझाते थे । आज तो ज़्यादातर लोगों को शायद गणतंत्र के मायने भी मालूम ना हों । बिना मशक्कत किये आपको अपने आसपास ही ऎसे लोग मिल जाएंगे जो ये भी नहीं जानते कि गणतंत्र दिवस क्यों मनाया जाता है । एक समय था जब छब्बीस जनवरी और पंद्रह अगस्त सरकारी आयोजन की बजाय पारिवारिक और सामाजिक त्योहार होते थे । तब गणतंत्र दिवस "रिपब्लिक डे" नहीं था ।
देश में हर तरफ़ तदर्थवाद का ऎसा दौर आ गया है कि हर शख्स " जो है समां कल हो ना हो " की तर्ज़ पर हर काम को तुरत फ़ुरत कर डालने की जल्दी में है । मानों कल ही दुनिया खत्म होने जा रही हो । देश इस समय एक साथ कई मोर्चों पर संकट के दौर से गुज़र रहा है । लोग सच्चाई से रुबरु होने की बजाय इतने गाफ़िल कैसे रह सकते हैं ? क्या मानव श्रृंखला बनाने ,फ़िल्मी अंदाज़ में मोमबत्तियां जलाने , सडक पर बेमकसद दौड लगाने या हवा में मुक्के लहराते हुए जुलूस निकालने भर से समस्याएं "छू मंतर" हो जाया करती हैं ?
अमेरिका के राष्ट्रपति के रुप में ओबामा की ताजपोशी का जश्न देश में यूं मनाया जा रहा है , जैसे भारत ने ही कोई इतिहास रच दिया हो । दलित को भारत का प्रधानमंत्री बनाने का ख्वाब देखने वाले देश में आज भी दलितों की क्या दुर्दशा है ये किसी से छिपा नहीं है । हाल ही में मध्यप्रदेश के छतरपुर ज़िले के करीब पौने दो सौ दलितों ने सामाजिक भेदभाव से निजात पाने के लिए कलेक्टर को पत्र लिखकर धर्म बदलने की इजाज़त मांगी । प्रदेश के बुंदेलखंड में आज भी कोई दलित दूल्हा दबंगों के खौफ़ के चलते घोडी नहीं चढ सकता । इसी इलाके की एक दलित सरपंच पिछले पांच सालों से थाने में डेरा डाले है, दबंगों के कहर से बचने के लिए ...।
इतना दूर जाने की भी ज़रुरत नहीं । मैं पिछले तेरह सालों से एक बच्चे को देखती आ रही हूं । शुरुआती दौर में अपने स्तर पर कुछ कोशिशें भी की ,उसके जीवन और हालात में बदलाव लाने की । लेकिन मुझे अफ़सोस है कि रफ़्ता - रफ़्ता "बिट्टू" पूरी तरह सफ़ाई कामगार बन गया और दलित बच्चों के लिए चलाई जा रही आश्रम स्कूल योजना धरी की धरी रह गई । कभी झाडू थामे , तो कचरे की गाडी खींचता " बिट्टू " मेरी चेतना को झकझोर कर रख देता है । मन अपराध बोध से भर जाता है । क्या फ़ायदा ऎसे ज्ञान का ,जो किसी की ज़िंदगी को उजास से ना भर सके ? अब कॉलोनी वासी अपनी सहूलियत के लिए कुछ और बिट्टू तैयार कर रहे हैं । कैसे रुकेगा ये सिलसिला ...? कौन रोकेगा इस अन्याय को ......? कब साकार होंगी कागज़ों पर बनी योजनाएं ...?
मुझे मेरे पसंदीदा शायर साहिर लुधियानवी की प्यासा फ़िल्म की लाइनें अक्सर याद आती हैं -
" ज़रा हिन्द के रहनुमा को बुलाओ ....
ये गलियां ये कूचे उनको दिखाओ ....
जिन्हे नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं ....?"
देश में सुरक्षा का संकट मुंह बाये खडा है । बिजली पानी का बेरहमी से इस्तेमाल नई तरह की मुसीबतों का सबब बनने जा रहा है । मैंने पहले भी कहा है प्रजातंत्र के सभी खंबे ऊपरी तौर पर चाहे जितने सशक्त नज़र आते हों भीतर से पूरी तरह खोखले हो चले हैं । एक दूसरे के कामकाज की निगरानी का संवैधानिक दायित्व भूलकर सब के सब एक नाव की सवारी पर आमादा हैं । लगता है देश को इस मकडजाल से निजात पाने के लिए रक्तरंजित क्रांति की सख्त ज़रुरत है ।
राजनीतिशास्त्र के बारे में मेरी जानकारी शून्य है ,लेकिन व्यवहारिक स्तर पर कई बार एक बात मेरे मन में आती है कि आखिर इस देश को इतने नेताओं की क्या ज़रुरत है । जितने ज़्यादा नेता उतना ज़्यादा कमीशन , उतना अधिक भ्रष्टाचार , उतने अपराध , उतनी गरीबी ....। ऎसा प्रजातंत्र किस काम का जिसमें आम आदमी के लिए ही कोई संभावना ना हो । आज के इस छद्म गणतंत्र से तो बेहतर है कि देश किसी तानाशाह के हवाले कर दिया जाए ....?????
बेमुरव्वत ,बेखौफ़ ,बेदर्द और अनुशासनहीन हो चुके भारतीय समाज को डंडे की भाषा ही समझ आती है । मेरी मां अक्सर कहती हैं -" लकडी के बल बंदर नाचे" । क्या करें लम्बे समय तक गुलामी की जंज़ीरों में जकडे रहने के कारण हमारी कौम में "जेनेटिक परिवर्तन" आ चुका है ....??? जब तक सिर पर डंडा ना बजाया जाए हम लोग सीधी राह पकडना जानते ही नहीं ।
आखिर में ’ ज़ब्तशुदा नज़्मों ’ के संग्रह से साहिर लुधियानवी की एक नज़्म , जो 1939 में बम्बई से निकलने वाले साप्ताहिक "अफ़गान" में छपी थी ।
हुकूमत की बुनियाद ढहाए चला जा
जवानों को बागी बनाए चला जा
बरस आग बन कर फ़िरंगी के सर पर
तकब्बुर की दुनिया को ढाए चला जा
जुनूने बगावत ना हो जिन सरों में
उन्हें ठोकरों से उडाए चला जा
गरीबों के टूटे चरागों की लौ से
अमीरों के ऎवां जलाए चला जा
शहीदाने मिल्लत की सौगंध तुझको
यह परचम यूं ही लहलहाए चला जा
परखचे उडा डाल अरबाबे - ज़र के
गरीबों को बागी बनाए चला जा
गिरा डाल कसरे -शहन्शाहियत को
अमारत के खिरमन जलाए चला जा ।
शनिवार, 24 जनवरी 2009
कर्मचारियों के बहाने गौर ने साधा निशाना
उनके इस बयान से भडके कर्मचारी लामबंद हो गये हैं । कर्मचारी संगठनों ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया ज़ाहिर की है । कर्मचारियों का कहना है कि नेता और मंत्री तो महज़ घोषणाएं करके वाहवाही लूटते हैं । सरकारी कामकाज तो कर्मचारियों के बूते ही होता है । लेकिन कर्मचारियों की नाराज़गी से बेपरवाह श्री गौर अब भी अपनी बात पर अडे हैं । उनकी निगाह में सरकारी मुलाज़िम अलाल और मुफ़्तखोरी के आदी हैं ।
जिन लोगों का सरकारी दफ़्तरों से साबका पडा है उन्हें गौर के बयान में शब्दशः सच्चाई दिखाई दे सकती है । ये भी सही है कि कार्यालयों में टेबलों पर पडी फ़ाइलों की महीनों धूल तक नहीं झडती । चाय - पान के ठेलों पर कर्मचारियों का मजमा जमा रहता है । ऑफ़िस का माहौल बोझिल और उनींदा सा बना रहता है । ऊंघते से लोग हर काम को बोझ की मानिंद बेमन से करते नज़र आते हैं । मगर इस सब के बावजूद सरकार का कामकाज चल रहा है तो आखिर कैसे ..?
गौर जैसे तज़ुर्बेकार और बुज़ुर्गवार नेता से इस तरह के गैर ज़िम्मेदाराना बयान की उम्मीद नहीं की जा सकती । हो सकता है ज़्यादातर कर्मचारी अपने काम में कोताही बरतते हों । उनकी लापरवाही से कामकाज पर असर पडता हो । लेकिन कुछ लोग ऎसे भी तो होंगे जो अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदार हों और अपने काम को पूरी मेहनत और लगन से बखूबी अंजाम देते हों । ऎसे में सभी को एक ही तराज़ू में तौलना कहां तक जायज़ है ? क्या ये ठीक माना जा सकता है कि सभी कर्मचारियों को निकम्मा और कामचोर करार दिया जाए ?
चलिए कुछ देर के लिए मान लिया जाए कि गौर जो कह रहे हैं वो हकीकतन बिल्कुल सही है , तो ऎसे में सवाल उठता है कि इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है ? क्या उस सरकार की कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती जिसमें गौर खुद शामिल हैं ? क्या सरकारी मुलाज़िम निठल्ले होने के साथ - साथ इतने ताकतवर हो चुके हैं कि वे मंत्रियों पर भारी पडने लगे हैं ? बकौल गौर कर्मचारी प्रदेश के विकास में बाधक हैं , तो क्या जिस विकास के दावे पर जनता ने भाजपा को दोबारा सत्ता सौंपी ,वो खोखला था ? और अगर विकास हुआ तो आखिर किसके बूते पर ....?
दरअसल इस मसले को बारीकी से देखा जाए तो इसके पीछे कहानी कुछ और ही जान पडती है । लगता है गौर की राजनीतिक महत्वाकांक्षा एक बार फ़िर बलवती होने लगी है । छठा वेतनमान मिलने में हो रही देरी से प्रदेश के कर्मचारी बौखलाए हुए हैं । ऎसे समय में गौर के भडकाऊ बयान ने आग में घी का काम किया है । प्रदेश में शिवराज सिंह के विकास के नारे को जिस तरह से जनता ने वोट में तब्दील किया उससे पार्टी में उनका कद अप्रत्याशित रुप से एकाएक काफ़ी तेज़ी से बढा है । दिग्विजय सिंह के दस साल के कार्यकाल से निराश हो चुके कर्मचारियों की समस्याओं को ना सिर्फ़ शिवराज ने सुना - समझा और उनकी वेतन संबंधी विसंगतियों को दूर करने के अलावा सेवा शर्तों में भी बदलाव किया । दिग्विजय सिंह भी स्वीकारते हैं कि शिवराज कर्मचारियों के लाडले हैं और उन्हीं की बदौलत वापस सत्ता हासिल कर सके हैं ।
गौर की बयानबाज़ी शिवराज की उडान को थामने की कोशिश से जोड कर भी देखी जाना चाहिए । इसे लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र कर्मचारियों में असंतोष की चिंगारी को हवा देकर दावानल में बदलने की कवायद भी माना जा सकता है । यदि लोकसभा चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन मनमाफ़िक नहीं रहा , तो शिवराज का विरोधी खेमा इस मौके को भुनाने से नहीं चूकेगा । मुख्यमंत्री पद की शोभा बढा चुके गौर वैसे तो "सूबे के मुखिया" होने के ’हैंग ओवर’ से अब तक बाहर नहीं आ पाए हैं । पिछली सरकार में वाणिज्य कर मंत्री रहते हुए वे गाहे बगाहे दूसरे महकमों के कामकाज में भी दखल देते रहे हैं ।
शिगूफ़ेबाज़ी कर मीडिया की सुर्खियां बटोरना उनका शगल है । कभी भोपाल को स्विटज़रलैंड बनाने का ख्वाब दिखा कर , कभी बुलडोज़र चलाकर , तो कभी इंदौर और भोपाल में मेट्रो ट्रेन चलाने की लफ़्फ़ाज़ी कर लोगों को लुभाने की कोशिश करने वाले गौर ने 2006 में प्रदेश को पॉलिथीन से पूरी तरह निजात दिलाने का शोशा छोडा था । कुछ दिन बाद पॉलिथीन निर्माता कंपनियों का प्रतिनिधिमंडल गौर से मिला । इसके बाद ना जाने क्या हुआ ....?????? प्रदेश में पॉलिथीन का कचरा दिनोंदिन पहाड खडे कर रहा है ।
मंगलवार, 20 जनवरी 2009
डॉक्टरों के नहले पर जब पडा दहला ......!!!
इस खबर को पढ कर ज़रा सोचिए कौन सी कहावत सबसे सटीक बैठती है :
* सेर को सवा सेर
* नहले पर दहला
* चोर के घर चोरी
* तू डाल डाल मैं पात - पात
किस्से अभी और भी हैं जाइएगा नहीं ..................
भोपाल के निजी नर्सिंग होम्स में मरीज़ों की सेहत के साथ खिलवाड के मामले आम हैं । मनमानी वसूली और मरीज़ के शरीर पर जमकर प्रयोग करने की शिकायतें भी अक्सर सुनने मिलती रहती हैं । जनता की सेवा के लिए सरकार से सस्ती दरों पर ली गई बेशकीमती ज़मीनों पर आलीशान होटल की मानिंद अस्पताल खडे कर दिये गये हैं , जिनमें नौसीखिए डॉक्टर अपना चिकित्सकीय ज्ञानार्जन कर रहे हैं ।
कुछ समय पहले मेरे छोटे बेटे कार्तिकेय के कारण जे पी अस्पताल का चक्कर लगाना पड गया । वहां के अनुभव ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया । हम सरकारी अस्पताल को हमेशा ही हिकारत भरी नज़रों से देखते हैं । छोटी - छोटी बातों के लिए नर्सों - डॉक्टरों को कोसने लगते हैं । लेकिन मैंने पाया कि कम सुविधा साधनों के बावजूद इन कर्मचारियों का स्नेहिल बर्ताव मरीज़ों और उनके परिजनों के लिए मानसिक संबल का काम करता है ।
वार्ड में दमोह से अपने पचपन साल के जीजा को इलाज के लिए भोपाल लाए एक व्यक्ति से बातचीत के दौरान पता चला कि वे शहर के मशहूर हार्ट अस्पताल में एक हफ़्ता गंवाने के बाद हार कर सरकारी अस्पताल की शरण में आए हैं । निजी अस्पताल प्रबंधन ने उन्हें 30-35 हज़ार रुपए का बिल थमा दिया जबकि रोगी हालत में सुधार आना तो दूर दिनबदिन गिरावट ही आती जा रही थी । आखिर में उन्होंने किसी तरह अस्पताल से छुटकारा पाया । बिना मांगे ही मुफ़्त सलाह देना , दूसरे के दुख में दुबला होना और गलत के खिलाफ़ आवाज़ उठाना मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है , इसलिए मैंने उन्हें बताया कि ये केस न्यूरोलॉजी से संबंधित है ना कि हृदय रोग से ।
इसी तरह पिछले दिनों एक और वाकया मेरे साथ ही गुज़रा । मेरी माताजी को भूख ना लगने की शिकायत के चलते और भी कई पाचन संबंधी दिक्कतों ने घेर लिया । दो - तीन दिन घरेलू उपचार के बाद हमने डॉक्टर से परामर्श का मन बनाया । घर के सबसे नज़दीक होने के कारण हम भी इसी अस्पताल पहुंचे । हमॆ रिसेपशनिस्ट ने लॉबी में बैठने को कहा । साथ ही इत्तला दी कि डॉक्टर करीब एक - दो घंटॆ बाद आएंगे । हम सभी इंतज़ार कर ही रहे थे कि एक वार्ड बॉय व्हील चेयर लेकर आ गया और पूछने लगा कि मरीज़ कौन है ? हम चौंके ...। बताया कि रोगी की हालत इतनी गंभीर नहीं है कि वो चल फ़िर भी नहीं सके । तब उसने कहा कि डॉक्टर साहब को आने में वक्त लगेगा और उन्होंने मरीज़ को आईसीयू में दाखिल करने का इंस्ट्रक्शन दिया है । ये सुनने के बाद तो हम सब हक्के बक्के रह गये और वहां से भाग निकलने में ही अपनी खैरियत समझी ।
बाद में हम तुरंत ही एक क्लीनिक पहुंचे , जहां केवल सौ रुपए फ़ीस लेकर एक दो दवाएं लिखीं और खानपान का खास ध्यान रखने की हिदायत देते हुए कहा कि बढती उम्र के साथ रेशेदार फ़ल - सब्ज़ियां खाएं , चिंता की कोई बात नहीं । कहना ना होगा कि तीसरे दिन ही मेरी माताजी चुस्त - स्फ़ूर्त हो गईं ...।
पिछले महीने कार्तिकेय को निजी अस्पताल में दिखाने की सज़ा भी हमने खूब पाई । छोटा सी दिक्कत के चलते डॉक्टर ने सोनोग्राफ़ी तक करा डाली । दवा के नाम पर ना जाने क्या लिख डाला कि रात होते तक मेरा दुबला पतला बेटा सूमो पहलवान हो गया । पूरी रात रोते-रोते बिताई उसने । सुबह डॉक्टर का पता ठिकाना तलाशते उनके घर पहुंचे ।
डॉक्टर दंपति का गैर पेशेवराना रवैया देखकर गुस्सा भी आया और हैरानगी भी । दवा के रिएक्शन से पूरे शरीर पर आई सूजन देख लेने के बावजूद उनका कहना - " हम घर पर मरीज़ को नहीं देखेंगे और क्लीनिक दस बजे खुलेगा ।" काफ़ी बहस के बाद उन्होंने बच्चे को देखा और कहा कि ये तो किसी गंभीर बीमारी का शिकार है , दवा के रिएक्शन का असर नहीं ।
सारा माजरा समझते ही हमने उसे रेडक्रास अस्पताल में दिखाया और दिक्कतों से छुटकारा पाया । डॉक्टर ने सभी दवाएं देखने के बाद बताया कि इनमें से एक दवा ऎसी है , जो अक्सर रिएक्शन करती है । उन्होंने पुरानी दवा बंद करके एंटी एलर्जिक दे दी और बच्चा दो दिन में ही उछलने कूदने लगा । नर्सिंग हो्म्स की कहानियां यानी हरि अनंत हरि कथा अनंता , बहु विधि कहहिं सुनहिं सब संता .......।