मध्यप्रदेश के नगरीय प्रशासन मंत्री बाबूलाल गौर के एक बयान पर बवाल मचा गया है । प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके श्री गौर ने पिछले हफ़्ते कहा था कि " जिसे काम नहीं करना होता ,वह सरकारी नौकरी में आता है ।" उन्होंने ये भी कहा कि सरकारी कर्मचारी सुस्त हैं और प्रदेश के विकास में बाधक भी ।
उनके इस बयान से भडके कर्मचारी लामबंद हो गये हैं । कर्मचारी संगठनों ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया ज़ाहिर की है । कर्मचारियों का कहना है कि नेता और मंत्री तो महज़ घोषणाएं करके वाहवाही लूटते हैं । सरकारी कामकाज तो कर्मचारियों के बूते ही होता है । लेकिन कर्मचारियों की नाराज़गी से बेपरवाह श्री गौर अब भी अपनी बात पर अडे हैं । उनकी निगाह में सरकारी मुलाज़िम अलाल और मुफ़्तखोरी के आदी हैं ।
जिन लोगों का सरकारी दफ़्तरों से साबका पडा है उन्हें गौर के बयान में शब्दशः सच्चाई दिखाई दे सकती है । ये भी सही है कि कार्यालयों में टेबलों पर पडी फ़ाइलों की महीनों धूल तक नहीं झडती । चाय - पान के ठेलों पर कर्मचारियों का मजमा जमा रहता है । ऑफ़िस का माहौल बोझिल और उनींदा सा बना रहता है । ऊंघते से लोग हर काम को बोझ की मानिंद बेमन से करते नज़र आते हैं । मगर इस सब के बावजूद सरकार का कामकाज चल रहा है तो आखिर कैसे ..?
गौर जैसे तज़ुर्बेकार और बुज़ुर्गवार नेता से इस तरह के गैर ज़िम्मेदाराना बयान की उम्मीद नहीं की जा सकती । हो सकता है ज़्यादातर कर्मचारी अपने काम में कोताही बरतते हों । उनकी लापरवाही से कामकाज पर असर पडता हो । लेकिन कुछ लोग ऎसे भी तो होंगे जो अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदार हों और अपने काम को पूरी मेहनत और लगन से बखूबी अंजाम देते हों । ऎसे में सभी को एक ही तराज़ू में तौलना कहां तक जायज़ है ? क्या ये ठीक माना जा सकता है कि सभी कर्मचारियों को निकम्मा और कामचोर करार दिया जाए ?
चलिए कुछ देर के लिए मान लिया जाए कि गौर जो कह रहे हैं वो हकीकतन बिल्कुल सही है , तो ऎसे में सवाल उठता है कि इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है ? क्या उस सरकार की कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती जिसमें गौर खुद शामिल हैं ? क्या सरकारी मुलाज़िम निठल्ले होने के साथ - साथ इतने ताकतवर हो चुके हैं कि वे मंत्रियों पर भारी पडने लगे हैं ? बकौल गौर कर्मचारी प्रदेश के विकास में बाधक हैं , तो क्या जिस विकास के दावे पर जनता ने भाजपा को दोबारा सत्ता सौंपी ,वो खोखला था ? और अगर विकास हुआ तो आखिर किसके बूते पर ....?
दरअसल इस मसले को बारीकी से देखा जाए तो इसके पीछे कहानी कुछ और ही जान पडती है । लगता है गौर की राजनीतिक महत्वाकांक्षा एक बार फ़िर बलवती होने लगी है । छठा वेतनमान मिलने में हो रही देरी से प्रदेश के कर्मचारी बौखलाए हुए हैं । ऎसे समय में गौर के भडकाऊ बयान ने आग में घी का काम किया है । प्रदेश में शिवराज सिंह के विकास के नारे को जिस तरह से जनता ने वोट में तब्दील किया उससे पार्टी में उनका कद अप्रत्याशित रुप से एकाएक काफ़ी तेज़ी से बढा है । दिग्विजय सिंह के दस साल के कार्यकाल से निराश हो चुके कर्मचारियों की समस्याओं को ना सिर्फ़ शिवराज ने सुना - समझा और उनकी वेतन संबंधी विसंगतियों को दूर करने के अलावा सेवा शर्तों में भी बदलाव किया । दिग्विजय सिंह भी स्वीकारते हैं कि शिवराज कर्मचारियों के लाडले हैं और उन्हीं की बदौलत वापस सत्ता हासिल कर सके हैं ।
गौर की बयानबाज़ी शिवराज की उडान को थामने की कोशिश से जोड कर भी देखी जाना चाहिए । इसे लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र कर्मचारियों में असंतोष की चिंगारी को हवा देकर दावानल में बदलने की कवायद भी माना जा सकता है । यदि लोकसभा चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन मनमाफ़िक नहीं रहा , तो शिवराज का विरोधी खेमा इस मौके को भुनाने से नहीं चूकेगा । मुख्यमंत्री पद की शोभा बढा चुके गौर वैसे तो "सूबे के मुखिया" होने के ’हैंग ओवर’ से अब तक बाहर नहीं आ पाए हैं । पिछली सरकार में वाणिज्य कर मंत्री रहते हुए वे गाहे बगाहे दूसरे महकमों के कामकाज में भी दखल देते रहे हैं ।
शिगूफ़ेबाज़ी कर मीडिया की सुर्खियां बटोरना उनका शगल है । कभी भोपाल को स्विटज़रलैंड बनाने का ख्वाब दिखा कर , कभी बुलडोज़र चलाकर , तो कभी इंदौर और भोपाल में मेट्रो ट्रेन चलाने की लफ़्फ़ाज़ी कर लोगों को लुभाने की कोशिश करने वाले गौर ने 2006 में प्रदेश को पॉलिथीन से पूरी तरह निजात दिलाने का शोशा छोडा था । कुछ दिन बाद पॉलिथीन निर्माता कंपनियों का प्रतिनिधिमंडल गौर से मिला । इसके बाद ना जाने क्या हुआ ....?????? प्रदेश में पॉलिथीन का कचरा दिनोंदिन पहाड खडे कर रहा है ।
6 टिप्पणियां:
बिल्कुल सटीक लिखा है आपने।
बहुत ही शानदार और सटीक विश्लेषण। आपसे असहमत होने का कोई कारण नहीं। बाबूलाल गौर भी अकेले में आपकी बातों से सहमत होंगे और आत्म स्वीकृती देंगे।
इसके बावजूद कुछ बातें-
1. दो परस्पर अनिवार्य पूरक बुराइयां एक दूसरे
कपडे उतार रही हैं।
2. सन्तों देखहु जग बौराना,
सांच कहें तो मारन दौडें,
झूठे जग पतियाना।
3. जिन कर्मचारियों के कारण सब कर्मचारियों को
एक घाट पापी पिलाया जा रहा है, उन 'काली
भेडों' को चिह्नित कर उनसे मुक्ति पाने का श्रम
उन कर्मचारियों को ही करना पडेगा जो
निकम्मे, कामचोर और अलाल नहीं हैं।
काश! हम आपको किसी ऐसे अखबार में देख रहे होते जिससे सरकार की नींद हराम होती।
ऐसी पारदर्शी दृष्टि के लिए साधुवाद और अभिनन्दन।
वैसे गौर की बातों में 90% तो सच्चाई है ही, वाकई में सरकार का कामकाज 10% काम करने वाले कर्मचारियों के भरोसे ही चल रहा है…
सरकार का जो भी काम होता है , वह कर्मचारियों की बदौलत ही होता है.....सच्चाई तो है इस बात में.....और अगर कर्मचारी काम नहीं करते हैं तो वह भी नेताओं और अफसरों का ही निकम्मापन है।
आपके आलेख से मैं भी सहमत हूँ.
नेता पहले अपने गिरेबान में झाँककर देखे कि वे कितना देश का भला करते हैं और कितना अपना,
ये किसी को बताने कि जरूरत नहीं कि सांसद, विधायक और मंत्री बनने के पहले और बाद की रईशी में कितना फर्क होता है, इनको पैसों की खान कहाँ से मिल जाती है.ये काम कितना और किस प्रकार का करते हैं, आम जनता जानती है.
वैसे वकील साहब को कानूनन भी ऐसा नहीं बोलना चाहिए था .
बाबूलाल गौर का कथन लगभग सौ प्रतिशत सत्य है। इसका जबाब यह कत्तई नहीं होना चाहिये कि नेता भी तो भ्रष्ट हैं? नेता भ्रष्ट है को कर्मचारी उस पर उंगली उठाएँ और कर्मचारी भ्रष्ट है तो नेता। इसी में तो इस बुराई को ठीक करने का हल छिपा हुआ है।
एक टिप्पणी भेजें