आजकल अखबार समाचारों की बजाय रोचक जानकारियों से भरे रहते हैं । कल तक हर आम खास बन कर जीने के ख्वाब देखा करता था , लेकिन अब देश के अति विशिष्ट व्यक्तियों को आम बनने या कहें खुद को आमजन सा दिखाने का चस्का लग गया है । नए ज़माने के राजा भोज किसी गरीब की झोपडी में रात बिताकर किसी दलित के साथ खाना खाकर ना सिर्फ़ उसे बल्कि पूरे देश को निहाल कर रहे हैं ।
चुनावों से पहले मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री महोदय को मोटर साइकल की सवारी ऎसी भाई कि वे गाहे बगाहे किसी भी गांव में पहुंच कर किसी की भी बाइक पर बैठ कर निकल पडते थे - जनता का हालचाल जानने । शिवराज सिंह चौहान ने सरकारी लवाज़मे को दरकिनार कर मोटर साइकल से नाता जोडा । लेकिन दोबारा गद्दीनशीन होने के बाद ग्रामीण जनता को शिवराज सिंह के करीब फ़टकने का मौका फ़िलहाल तो मिलता नज़र नहीं आता ।
इसी तरह पेट्रोल की कीमतें बढने पर शिवराज ने हफ़्ते में एक दिन साइकल की सवारी का इरादा किया । देखा देखी कई मंत्रियों ने भी साइकल के हैंडल पकडने की मशक्कत शुरु कर दी । लेकिन अखबारों में फ़ोटो सेशन होते ही "शान की सवारी" को कहीं अटाले में डाल दिया गया । गाडियों के काफ़िले में बेतहाशा फ़ूंके जा रहे ईंधन और राजकोष की बर्बादी से परेशान होकर शर्माशर्मी में मुरली देवडा को ही किस्तों में ही सही पेट्रोल की कीमतों में कटौती करना ही पडा ।
सिलसिला यहीं नहीं थमता । देश के लाडले युवराज राहुल गांधी जब सिर पर तगारी रखकर मिट्टी उठाते हैं और दलित के घर खाना खाकर उसका जीवन धन्य करते हैं तो ये भी बडी भारी और ऎतिहासिक घटना होती है ।
कल यानी रविवार का दिन भारतीय इतिहास के पन्नों में सुनहरे हर्फ़ों में दर्ज़ किया जाएगा । प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सादगी की मिसाल कायम कर जनता का तो मालूम नहीं , मगर मीडिया का "मन -मोह” लिया । ड्राइविंग लाइसेंस के नवीनीकरण के लिए श्री सिंह आरटीओ कार्यालय पहुंचे । उन्होंने सभी औपचारिकताओं को भी हमारी आपकी तरह ही पूरा किया ।
दिलचस्प बात ये रही कि सरकारी महकमे में इस " आम नागरिक" का काम महज़ आधे घंटे में हो गया । देश के सरकारी कार्यालय वाकई मुस्तैद हो चुके हैं .......? शायद छठा वेतनमान लागू होने के बाद से कर्मचारियों में कार्पोरेट कल्चर पैदा हो गया है । पैसे की गर्मी ने उनके काम काज में चुस्ती फ़ुर्ती ला दी है । ऊंघते हुए दफ़्तरों में अब ज़िंदादिली और कर्मठता का नज़ारा देखने मिले इससे ज़्यादा सुखद भला क्या हो सकता है ?
खास लोगों का आमजनों से जुडाव कोई नई बात नहीं है । इंदिरा गांधी भी आदिवासियों के साथ लोक नृत्य कर उनके करीब जाने का कोई भी अवसर चूकती नहीं थीं । राजीव गांधी ने भी उसी परंपरा को आगे बढाया । पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ेल सिंह और एपीजे अब्दुल कलाम भी लोगों के बीच जाते थे और उनसे संवाद का सिलसिला बरकरार रखते थे ।
आज के दौर के राजनेताओं के लिए जनता के करीब जाने के ये मौके केवल खबरी दुनिया तक ही सिमट कर रह गये हैं । समाचारों में चर्चा और मुस्कराते हुए फ़ोटो सेशन कराकर ही ज़्यादातर नेता मान लेते हैं कि वे जनप्रिय हो चुके हैं । जनता लोकतंत्र की सूत्रधार है । शायद यही सोचकर नेता जनता के करीब जाने का आधा अधूरा प्रयास करते हैं लेकिन फ़िल वक्त जनता का रहनुमा कहलाने की इस कोशिश में ईमानदारी कम और शोशेबाज़ी ज़्यादा नज़र आती है । पब्लिक है , ये सब जानती है ............., अंदर क्या है , अजी बाहर क्या है , ये सब कुछ पहचानती है .....!
चुनावों से पहले मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री महोदय को मोटर साइकल की सवारी ऎसी भाई कि वे गाहे बगाहे किसी भी गांव में पहुंच कर किसी की भी बाइक पर बैठ कर निकल पडते थे - जनता का हालचाल जानने । शिवराज सिंह चौहान ने सरकारी लवाज़मे को दरकिनार कर मोटर साइकल से नाता जोडा । लेकिन दोबारा गद्दीनशीन होने के बाद ग्रामीण जनता को शिवराज सिंह के करीब फ़टकने का मौका फ़िलहाल तो मिलता नज़र नहीं आता ।
इसी तरह पेट्रोल की कीमतें बढने पर शिवराज ने हफ़्ते में एक दिन साइकल की सवारी का इरादा किया । देखा देखी कई मंत्रियों ने भी साइकल के हैंडल पकडने की मशक्कत शुरु कर दी । लेकिन अखबारों में फ़ोटो सेशन होते ही "शान की सवारी" को कहीं अटाले में डाल दिया गया । गाडियों के काफ़िले में बेतहाशा फ़ूंके जा रहे ईंधन और राजकोष की बर्बादी से परेशान होकर शर्माशर्मी में मुरली देवडा को ही किस्तों में ही सही पेट्रोल की कीमतों में कटौती करना ही पडा ।
सिलसिला यहीं नहीं थमता । देश के लाडले युवराज राहुल गांधी जब सिर पर तगारी रखकर मिट्टी उठाते हैं और दलित के घर खाना खाकर उसका जीवन धन्य करते हैं तो ये भी बडी भारी और ऎतिहासिक घटना होती है ।
कल यानी रविवार का दिन भारतीय इतिहास के पन्नों में सुनहरे हर्फ़ों में दर्ज़ किया जाएगा । प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सादगी की मिसाल कायम कर जनता का तो मालूम नहीं , मगर मीडिया का "मन -मोह” लिया । ड्राइविंग लाइसेंस के नवीनीकरण के लिए श्री सिंह आरटीओ कार्यालय पहुंचे । उन्होंने सभी औपचारिकताओं को भी हमारी आपकी तरह ही पूरा किया ।
दिलचस्प बात ये रही कि सरकारी महकमे में इस " आम नागरिक" का काम महज़ आधे घंटे में हो गया । देश के सरकारी कार्यालय वाकई मुस्तैद हो चुके हैं .......? शायद छठा वेतनमान लागू होने के बाद से कर्मचारियों में कार्पोरेट कल्चर पैदा हो गया है । पैसे की गर्मी ने उनके काम काज में चुस्ती फ़ुर्ती ला दी है । ऊंघते हुए दफ़्तरों में अब ज़िंदादिली और कर्मठता का नज़ारा देखने मिले इससे ज़्यादा सुखद भला क्या हो सकता है ?
खास लोगों का आमजनों से जुडाव कोई नई बात नहीं है । इंदिरा गांधी भी आदिवासियों के साथ लोक नृत्य कर उनके करीब जाने का कोई भी अवसर चूकती नहीं थीं । राजीव गांधी ने भी उसी परंपरा को आगे बढाया । पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ेल सिंह और एपीजे अब्दुल कलाम भी लोगों के बीच जाते थे और उनसे संवाद का सिलसिला बरकरार रखते थे ।
आज के दौर के राजनेताओं के लिए जनता के करीब जाने के ये मौके केवल खबरी दुनिया तक ही सिमट कर रह गये हैं । समाचारों में चर्चा और मुस्कराते हुए फ़ोटो सेशन कराकर ही ज़्यादातर नेता मान लेते हैं कि वे जनप्रिय हो चुके हैं । जनता लोकतंत्र की सूत्रधार है । शायद यही सोचकर नेता जनता के करीब जाने का आधा अधूरा प्रयास करते हैं लेकिन फ़िल वक्त जनता का रहनुमा कहलाने की इस कोशिश में ईमानदारी कम और शोशेबाज़ी ज़्यादा नज़र आती है । पब्लिक है , ये सब जानती है ............., अंदर क्या है , अजी बाहर क्या है , ये सब कुछ पहचानती है .....!
2 टिप्पणियां:
sahi likha hai aapne..ye public sab jaanti hai...
neta ko janta ke kareeb hone hi chaaiye...
लेकिन फिर भी सब तो पब्लिक की ही गलती होती है।
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