वक्त के साथ ही साथ भगवान के मुंह का ज़ायका भी बदल रहा है । हाल ही में एक भक्त ने मंदिर में आरती के बाद मेरे हाथ पर पारले जी बिस्किट और पेठे का प्रसाद रखा । आज कल देवी - देवताओं को भी तरह - तरह के भोग का चस्का लग गया है । चना - चिरौंजी और मुरमुरे अब गुज़रे ज़माने की बात हो गई है । कुछ साल पहले जोबट के पास एक आश्रम में जाने का मौका मिला था ,वहां चाय का प्रसाद पाया । उज्जैन के भैरु बाबा मदिरा पान करके ही प्रसन्न होते हैं और आराधक की मुराद भी पूरी करते हैं । भोले भंडारी महादेव भी जम कर घोंटी गई हरी हरी भांग का भोग लगाकर ही प्रसन्न होते हैं
दुनिया के सबसे अमीर या यूं कहें कि अमीरों के भगवान तिरुपति बालाजी के लड्डू तो जग प्रसिद्ध हैं । उनके प्रसाद की पब्लिक डिमांड भी खूब रहती है । वहीं माता वैष्णो देवी भक्ति भाव से अर्पित सूखॆ सेब और अखरोट भी स्वीकारती हैं । कहते हैं ना कि भगवान भक्त की भावना देखते हैं चढावे के भाव [दाम] नहीं .....। इसी लिए कई जगह तो भक्त सेव - चूडा जैसे नमकीन भी भगवान को समर्पित करते देखे जाते हैं ।
बच्चों से लेकर बूढॊं तक में समान रुप से लोकप्रिय नटखट कन्हैया रुप चाहे जितने धरें ,पसंद वही करते हैं ,जो दुनियादारी के चलन में है । अरे अब तक आप नहीं समझे ...? वही माखन मिश्री ...। आप किसी को भी नर्म नर्म मक्खन लगाकर तो देखिए उसकी चिकनाहट आपका काम ना बना दे तो कहिए ....। कान्हा तो भाव के भूखॆ हैं । वे अपनी पसंद के ज़रिए हमें सीख देते हैं मक्खन सी स्निग्धता और मिश्री की मिठास व्यवहार में लाओ । और फ़िर भी नाकामी ही हाथ लगे , तो मक्खन का इस्तेमाल दूसरे तरीके से भी किया जा सकता है यानी मक्खन पालिश । और ये रामबाण नुस्खा अचूक ही नही सौ फ़ीसदी कारगर भी है ।
कल ही एक खबर पढी । आखिर एक भक्त ने पता लगा ही लिया कि सांईं बाबा को कौन सा फ़ल सबसे ज़्यादा पसंद था । गहन शोध के बाद पता चला है कि अमरुद सांईं बाबा का मनपसंद फ़ल था । सांईं संस्थान के अध्यक्ष जयंत ससाने का कहना है कि शिर्डी और आसपास के इलाके में अमरुद के भारी उत्पादन को देखते हुए श्रद्धालुओं को दिए जाने वाले प्रसाद में अमरुद की बर्फ़ी को भी शामिल किया जाएगा । प्रसाद के लिए अमरुद की बर्फ़ी संस्थान में ही तैयार की जाएगी । इसके लिए प्रसिद्ध मिठाई निर्माता हल्दीराम और पुणे के चितले भंडार से बातचीत चल रही है । माना जा रहा है कि इससे करीब पाँच सौ लोगों को रोज़गार मिलेगा और अमरुद उत्पादक जमकर लाभ कमायेंगे ।
ऎसा ही एक और वाकया है । हमारे घर पूजा कराने दक्षिण भारतीय पुजारी आते हैं । पूजा के दौरान फ़लों का पैकेट तलाशना शुरु किया गया ,तो पता चला कि सेब का पैकेट नदारद ...। लेकिन पुजारी जी ने हमारी परेशानी को दूर करते हुए कहा कि कोई बात नहीं पूजा में सेब वैसे भी उपयोग में नहीं लाना चाहिए । मन की जिज्ञासा का समाधान करते हुए उन्होंने बताया कि सेब विदेशी फ़ल है ,इसीलिए भगवान को पसंद नहीं ...!
खैर , भगवान तो भगवान ही हैं उन्हें क्या पसंद है और क्या नहीं ...। ये तो वो जानें या उनका पी ए यानी पुजारी .......। लेकिन अब इस घट - घट के वासी अंतर्यामी के मन की बात बिज़नेस मैनेजमेंट वाले भी बखूबी समझने लगे हैं ।
अब तो सभी भगवान की लोकप्रियता का ग्राफ़ बढाने का जिम्मा भी मैनेजमेंट गुरुओं के हवाले है। जितना क्वालिफ़ाइड गुरु संस्थान की प्रसिद्धि की गुंजाइश भी उतनी ज़्यादा । अब तक अमरुद गरीबों का सेब था लेकिन जल्दी ही ये भी उनकी पहुंच से बाहर होने जा रहा है ।
शनिवार, 10 जनवरी 2009
शुक्रवार, 9 जनवरी 2009
मुन्नाभाई की साइकल सवारी, गाँधीगिरी गाँधीवाद पर भारी
अपने मुन्ना भाई भले ही एमबीबीएस ना कर पाए हों मगर अब साइकल की सवारी कर संसद भवन में एंट्री की पूरी तैयारी में हैं । समाजवादी पार्टी सत्ता हासिल करने के लिए किस स्तर तक जा सकती है ये तो अमर सिंह का अगला बयान ही बताएगा । लेकिन एक सवाल - टाडा के तहत दोषी करार दिये गये संजय दत्त को क्या सिर्फ़ इस लिये संसद में पहुंचने का हक मिल जाना चाहिए क्योंकि वे एक फ़िल्म में गाँधीगिरी के पक्ष में खडे दिखाई देते हैं । किसी फ़िल्म का हिट होना और उसका कोई जुमला लोगों की ज़ुबान पर चढ जाना ही सांसद बनने की योग्यता का पैमाना कैसे बन सकता है ?
माननीय अमरुद्दीन बाटला हाउस एनकाउंटर को फ़र्ज़ी करार देने में नहीं हिचकते , हिलेरी क्लिंटन की समाजसेवी संस्था को मोटा चंदा देने की बात पर चुप लगा जाते हैं । एकाएक संजय दत्त की उम्मीदवारी को जायज़ ठहराने के लिए एक फ़िल्म का हवाला देते हैं । अमर वाणी है कि संजय दत्त ने युवाओं के बीच अपनी फ़िल्म के माध्यम से गाँधी को दोबारा लोकप्रिय बनाने का सराहनीय काम किया है । गोया कि गाँधी जी भारत में अपनी पहचान के लिए संजय दत्त के मोहताज हों ....।
मज़े की बात है कि अमर सिंह गाँधीजी के नाम पर संजय दत्त को राजनीति की सीढियों पर ऊपर चढाने की जुगत लगा रहे हैं । उधर मुम्बई हमले के बाद मीडिया को बुलाकर कैमरे के सामने अपनी पीडा बताते हुए संजय दत्त खुद मानते हैं कि गाँधीगिरी करके आतंकियों से नहीं निपटा जा सकता ।
अमर सिंह आखिर देश को कहां ले जाना चाहते हैं .....? सारे भांड - मिरासियों , अपराधी तत्वों की फ़ौज संसद में पहुंचा कर ही दम लेंगे क्या ...?अमर सिंह जी ज़रा इन नामों पर भी गौर करें : अबु सलेम , बबलू श्रीवास्तव, मोनिका बेदी भी खासे लोकप्रिय हैं , इन्हें भी टिकट की दरकार है । ऎसा ही चलता रहा तो शोले का गब्बर सिंह वाला डायलाग चलन में लौटेगा संसद सदस्यों के लिए - ठाकुर ने .........की फ़ौज तैयार की है ।
लेकिन एक बात गौर करने वाली है कि गांधी के देश में गाँधी को पूछने वाला कोई नहीं । युवाओं में गाँधीगिरी का क्रेज़ है लेकिन गाँधीवाद दम तोड चुका है । गाँधी दर्शन लोगों के आचार , विचार और व्यवहार से गुम हो चुका है । इसका सबसे बडा उदाहरण है गाँवों की पहचान का खत्म होना । ग्रामीण अर्थव्यवस्था का तार तार हो जाना । एक वक्त था जब शहर गाँवों पर निर्भर थे लेकिन अब गाँव शहरों के मोहताज होकर रह गये हैं । बहरहाल गाँधीजी के दर्शन पर चर्चा फ़िर कभी ।
वैसे एक दिलचस्प खबर और भी .....। अपराधी तत्व संवैधानिक संस्थानों में पूरी ठसक से प्रवेश पा रहे हैं , जनता की सहमति लेकर .....???????? मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री , तमाम मंत्रियों और आला अफ़सरों की सुरक्षा में लगे 1000 अंगरक्षकों के चरित्र का गोपनीय सत्यापन कराया जा रहा है । वीआईपी सुरक्षा में तैनात किए जाने वाले अंगरक्षकों की कार गुज़ारियों को जानने के लिए उनके पिछले तीन सालों का रिकॉर्ड खंगाला जा रहा है । इसमें उनकी दिनचर्या ,लत और संगत का लेखा जोखा तैयार किया जाना है ।
वैसे बता दें कि एक गैर सरकारी संगठन नेशनल इलेक्शन वॉच की रिपोर्ट के मुताबिक मध्यप्रदेश ,राजस्थान , दिल्ली ,छत्तीसगढ मिज़ोरम में हाल ही में चुने गये 549 विधायकों में से 124 का आपराधिक रिकॉर्ड है । यानी हर पाँच में से एक ...। आप ही तय करें सुरक्षा की ज़रुरत किसे है ...?
माननीय अमरुद्दीन बाटला हाउस एनकाउंटर को फ़र्ज़ी करार देने में नहीं हिचकते , हिलेरी क्लिंटन की समाजसेवी संस्था को मोटा चंदा देने की बात पर चुप लगा जाते हैं । एकाएक संजय दत्त की उम्मीदवारी को जायज़ ठहराने के लिए एक फ़िल्म का हवाला देते हैं । अमर वाणी है कि संजय दत्त ने युवाओं के बीच अपनी फ़िल्म के माध्यम से गाँधी को दोबारा लोकप्रिय बनाने का सराहनीय काम किया है । गोया कि गाँधी जी भारत में अपनी पहचान के लिए संजय दत्त के मोहताज हों ....।
मज़े की बात है कि अमर सिंह गाँधीजी के नाम पर संजय दत्त को राजनीति की सीढियों पर ऊपर चढाने की जुगत लगा रहे हैं । उधर मुम्बई हमले के बाद मीडिया को बुलाकर कैमरे के सामने अपनी पीडा बताते हुए संजय दत्त खुद मानते हैं कि गाँधीगिरी करके आतंकियों से नहीं निपटा जा सकता ।
अमर सिंह आखिर देश को कहां ले जाना चाहते हैं .....? सारे भांड - मिरासियों , अपराधी तत्वों की फ़ौज संसद में पहुंचा कर ही दम लेंगे क्या ...?अमर सिंह जी ज़रा इन नामों पर भी गौर करें : अबु सलेम , बबलू श्रीवास्तव, मोनिका बेदी भी खासे लोकप्रिय हैं , इन्हें भी टिकट की दरकार है । ऎसा ही चलता रहा तो शोले का गब्बर सिंह वाला डायलाग चलन में लौटेगा संसद सदस्यों के लिए - ठाकुर ने .........की फ़ौज तैयार की है ।
लेकिन एक बात गौर करने वाली है कि गांधी के देश में गाँधी को पूछने वाला कोई नहीं । युवाओं में गाँधीगिरी का क्रेज़ है लेकिन गाँधीवाद दम तोड चुका है । गाँधी दर्शन लोगों के आचार , विचार और व्यवहार से गुम हो चुका है । इसका सबसे बडा उदाहरण है गाँवों की पहचान का खत्म होना । ग्रामीण अर्थव्यवस्था का तार तार हो जाना । एक वक्त था जब शहर गाँवों पर निर्भर थे लेकिन अब गाँव शहरों के मोहताज होकर रह गये हैं । बहरहाल गाँधीजी के दर्शन पर चर्चा फ़िर कभी ।
वैसे एक दिलचस्प खबर और भी .....। अपराधी तत्व संवैधानिक संस्थानों में पूरी ठसक से प्रवेश पा रहे हैं , जनता की सहमति लेकर .....???????? मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री , तमाम मंत्रियों और आला अफ़सरों की सुरक्षा में लगे 1000 अंगरक्षकों के चरित्र का गोपनीय सत्यापन कराया जा रहा है । वीआईपी सुरक्षा में तैनात किए जाने वाले अंगरक्षकों की कार गुज़ारियों को जानने के लिए उनके पिछले तीन सालों का रिकॉर्ड खंगाला जा रहा है । इसमें उनकी दिनचर्या ,लत और संगत का लेखा जोखा तैयार किया जाना है ।
वैसे बता दें कि एक गैर सरकारी संगठन नेशनल इलेक्शन वॉच की रिपोर्ट के मुताबिक मध्यप्रदेश ,राजस्थान , दिल्ली ,छत्तीसगढ मिज़ोरम में हाल ही में चुने गये 549 विधायकों में से 124 का आपराधिक रिकॉर्ड है । यानी हर पाँच में से एक ...। आप ही तय करें सुरक्षा की ज़रुरत किसे है ...?
गुरुवार, 8 जनवरी 2009
या इलाही ये माजरा क्या है ............
गणेश शंकर विद्यार्थी , माखनलाल चतुर्वेदी जैसे पत्रकारों ने कलम की खातिर नैतिकता के नए नए प्रतिमान स्थापित किए ।
खींचों ना तलवार ना कमान निकालो
जब तोप हो मुकाबिल तो अखबार निकालो ।
संभवतः ऎसा ही कोई शेर है ,जो पत्रकारों को नैतिकता के साथ व्यवस्था के गुण दोष सामने लाने का हौंसला और जज़्बा देता है । पत्रकारिता आज़ादी के पहले तक , बल्कि आज़ादी के कुछ साल बाद तक
मिशन हुआ करती थी । अब पत्रकारिता मशीन बन गई है , उगाही करने की मशीन ....। सबसे ज़्यादा चिंता की बात ये है कि अब मालिक ही अखबार के फ़ैसले लेते हैं और हर खबर को अपने नफ़े नुकसान के मुताबिक ना सिर्फ़ तोडते मरोडते हैं , बल्कि छापने या ना छापने का गणित भी लगाते हैं ।
भोपाल से निकलने वाले एक अखबार ने नए साल में पत्रकारिता के नए मानदंड स्थापित किए हैं । अपनी तरह का शायद ये पहला और शर्मनाक
मामला होगा । अपने आपको समाज का हित चिंतक बताने वाले इस अखबार ने दो जनवरी को एक समाचार दिया और फ़िर चार जनवरी को इसी समाचार पर U टर्न मार लिया । संभव है कि आने वाले सालों में पत्रकारिता जगत में आने वाले छात्र इसे कोर्स की किताबों में भी पाएं। कहानी पूरी फ़िल्मी है । आप ही तय करें ये सच है या वो सच था .........
दो जनवरी को प्रकाशित
चार जनवरी को
प्रकाशित

खींचों ना तलवार ना कमान निकालो
जब तोप हो मुकाबिल तो अखबार निकालो ।
संभवतः ऎसा ही कोई शेर है ,जो पत्रकारों को नैतिकता के साथ व्यवस्था के गुण दोष सामने लाने का हौंसला और जज़्बा देता है । पत्रकारिता आज़ादी के पहले तक , बल्कि आज़ादी के कुछ साल बाद तक

भोपाल से निकलने वाले एक अखबार ने नए साल में पत्रकारिता के नए मानदंड स्थापित किए हैं । अपनी तरह का शायद ये पहला और शर्मनाक
मामला होगा । अपने आपको समाज का हित चिंतक बताने वाले इस अखबार ने दो जनवरी को एक समाचार दिया और फ़िर चार जनवरी को इसी समाचार पर U टर्न मार लिया । संभव है कि आने वाले सालों में पत्रकारिता जगत में आने वाले छात्र इसे कोर्स की किताबों में भी पाएं। कहानी पूरी फ़िल्मी है । आप ही तय करें ये सच है या वो सच था .........
दो जनवरी को प्रकाशित




लेबल:
अखबार,
दैनिक भास्कर,
पत्रकार,
भोपाल,
समाचार
रविवार, 4 जनवरी 2009
इंसानों के बाद जानवरों को गोद लेने की परंपरा........
भोपाल के राष्ट्रीय उद्यान वन विहार ने वन्यप्राणियों के संरक्षण के लिए अनूठी पहल की है -जानवरों को गोद लेने की । इस योजना में अब कोई भी संस्था या व्यक्ति प्राणियों के रखरखाव की ज़िम्मेदारी ले सकेगा । योजना में बाघ ,शेर , तेंदुआ से लेकर मगरमच्छ ,घडियाल और रीछ - भालू भी शामिल किए गये हैं । शेर को गोद लेने के लिए एक लाख ग्यारह हज़ार रुपए खर्च करना हों गे , जबकि बाघ की ज़िम्मेदारी उठाने के लिए सवा लाख रुपए जमा कराने पडेंगे ।
अगर आप पशु प्रेमी तो हैं लेकिन ये खर्च आपके बजट से बाहर की बात है , तो भी चिंता की कोई बात नहीं क्योंकि वन विभाग ने मध्यम वर्ग का ख्याल रखते हुए जेब पर भारी ना पडने वाले जानवरों को भी फ़ेहरिस्त में जगह दी है । अजगर छह हज़ार रुपए के खर्च में आपका हो सकता है । अगर यह फ़ीस भी ज़्यादा है , तो भी निराश होने की ज़रुरत नहीं है । सालाना दो हज़ार रुपए में साँप पालना भी बुरा सौदा नहीं है । वैसे भी शहरी ज़िंदगी में लोगों का आए दिन अजगरों से साबका पडता है । चाहे अनचाहे "आस्तीन के साँप" पल ही जाते हैं । ऎसे में घोषित तौर पर होर्डिंग पर नाम दर्ज कराकर साँप-अजगर , घडियाल ,मगरमच्छ पालने में बुराई भी क्या है ...?
खबर है कि एक छात्रा ने अजगर पालने का फ़ैसला लेकर योजना का श्रीगणेश भी कर दिया है । मेरे जैसे शख्स के लिए तो साँप भी बजट से बाहर है । लेकिन इस मुहिम में भागीदार नहीं बन पाना आगे चलकर कई लोगों के लिए फ़्रस्ट्रेशन का सबब भी बन सकता है । समाज में , अपने सर्किल में क्या मुंह दिखाएंगे ..? किस तरह लोगों की हिकारत भरी निगाहों का सामना कर पाएंगे....? उम्मीद है वन विभाग हम जैसों का ख्याल भी ज़रुर रखेगा । मुझे तो लगता है कि केन्द्र सरकार ने जिस तरह मध्यम वर्ग का खयाल रखकर घर ,कार वगैरह के लिए सस्ता कर्ज़ देने की मुहिम छेडी है । उसी तर्ज़ पर वन विभाग को भी आम जनता की माँग पर बिच्छू , केंचुए, सेही , मॆढक , गिरगिट जैसे सस्ते जीव - जन्तुओं के पालनहार ढूंढना होंगे ।
कुछ साल पहले भोपाल में इतनी बारिश हुई थी कि बाढ के हालात बन गए थे । नाले की ज़मीन पर कब्ज़ा कर घर बना कर रहने वालों के घर पूरी तरह तबाह हो गए थे । तब मैंने पढा था कि पानी के घर में घुसोगे तो पानी एक दिन तुम्हारे घर में घुसेगा । इंसानी गल्ती के लिए पानी को कोसना बेतुका और बेमानी है । दो तीन दिन पहले धार के रिहाइशी इलाके में घुस आए तेंदुए को लोगों ने बेरहमी से पीट - पीट कर मार डाला । भोपाल के नज़दीक नाले पर पानी पीने आए भालू को भी लोगों ने अधमरा कर दिया ।
ऎसी ही दर्दनाक घटनाएं देश के अलग अलग इलाकों से आए दिन सुनने मिलती हैं । अपने लालच के चलते खेतों - जंगलों का सफ़ाया करके शहरों का विस्तार करने वाले इंसान ने वन्य प्राणियों को उनके ही घर से बेदखल कर दिया है । अब इन्हीं जानवरों को गोद लेने की नायाब तरकीब का हवाला देकर कौन सी अनोखी बात होने जा रही है देखना होगा ।
जंगल कट रहे हैं , जानवर बेघर हो रहे हैं । वन विभाग के अपने तर्क हैं ,कभी बजट ,कभी अमला ,तो कभी संसाधनों की कमी का रोना । साल दर साल कांक्रीट का जंगल विस्तार पा रहा है और हरा भरा नैसर्गिक जंगल अस्तित्व खो रहा है । मध्यप्रदेश में 1960- 61 में 173 हज़ार वर्ग किलोमीटर जंगल था ,जो 1980- 81 के आने तक सिकुड कर 155 हज़ार वर्ग किलोमीटर रह गया । मौजूदा आंकडों के मुताबिक राज्य में जंगल अब महज़ 95 हज़ार 221वर्ग किलोमीटर है ।
एक समय था जब प्रदेश यह दावा करता था कि देश का लगभग एक चौथाई वनक्षेत्र होने के कारण वन आधारित उद्योग इसी अनुपात में प्रदेश को दिए जाना चाहिए । लेकिन अब तस्वीर रफ़्ता रफ़्ता बदल रही है । सरकारी आंकडों के मुताबिक प्रदेश में 31 फ़ीसदी वन भूमि है लेकिन वन आच्छादित क्षेत्र अब 25 प्रतिशत ही है । वास्तविक वनक्षेत्र अब बमुश्किल 15 से 18 फ़ीसदी के बीच रह गया है ।
मेरे पिताजी मुझसे अक्सर कहा करते हैं कि जिस भी इलाके में नया थाना खुलता है ,वहां एकाएक अपराधों की तादाद में इज़ाफ़ा देखा जाता है । कमोबेश यही स्थिति वन अमले के साथ भी है । वन विभाग में अफ़सरों की तादाद जैसे जैसे बढती गई ,जंगल भी उसी रफ़्तार से गायब होते गये ।
इस बीच दिल को सुकून देने वाली खबर है कि खरबों रुपए खर्च करके भी जो काम सरकारी अमला नहीं कर सका । उसे एक शख्स की दृढइच्छा शक्ति और मज़बूत इरादों ने हकीकत में बदल दिया । भोपाल के उमर अलीम ने राजधानी के नज़दीक अपने पैतृक गांव हिनौतिया जागीर की बंजर पहाडी पर हरियाली की चादर बिछा दी । पैंसठ एकड की सूखी पहाडी के पन्द्रह एकड हिस्से में उमर अलीम ने चौबीस साल पसीना बहाकर सागौन के बारह हज़ार पेड जवान कर दिए । दस लाख रुपए की लागत और खुद की मेहनत के बूते जंगल खडा कर उमर अलीम ने तमाम सरकारी अमले के मुंह पर करारा तमाचा जडा है और किन्तु - परन्तु के फ़ेर में बहाने बनाने वालों के लिए मिसाल कायम की है ।
पचास के दशक में प्रकाशित पुस्तक "द वाइल्ड लाइफ़ ऑफ़ इंडिया" की प्रस्तावना में देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने लिखा था - "वन्यप्राणी - यह नाम हमने वनों के उन वन्यपशुओं और पक्षियों को दिया है जिनके बिना जीवन अधूरा है और जंगल सूने हैं । काश ! यदि यह प्राणी बोल पाते और हम इनकी भाषा समझ पाते तो हमें पता चल जाता कि इनके विचार हमारे बारे में बहुत अच्छे नहीं हैं ।"
नेहरु जी की ये टिप्पणी आज भी उतनी ही सटीक है । वन्यप्राणियों के विचार प्रश्न बन गए हैं । प्रश्न जो मरणासन्न श्रवण कुमार ने दशरथ से किया था , जो आज हर शिकार अपने शिकारी से करता है । सदियों से ये सवाल आकाश में गूंज रहा है लेकिन आज तक कोई जवाब धरती पर नहीं उतरा है । शब्दबेधी बाण का नतीजा तो दशरथ ने पुत्र वियोग में प्राण देकर भोगा । लेकिन उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में जो भीषण वन और वन्यप्राणी संहार हुआ उसका परिणाम कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि हमारी आने वाली कई नस्लें भयावह पर्यावरण असंतुलन से उपजी प्राकृतिक आपदाओं के रुप में भुगतेंगी ।
अगर आप पशु प्रेमी तो हैं लेकिन ये खर्च आपके बजट से बाहर की बात है , तो भी चिंता की कोई बात नहीं क्योंकि वन विभाग ने मध्यम वर्ग का ख्याल रखते हुए जेब पर भारी ना पडने वाले जानवरों को भी फ़ेहरिस्त में जगह दी है । अजगर छह हज़ार रुपए के खर्च में आपका हो सकता है । अगर यह फ़ीस भी ज़्यादा है , तो भी निराश होने की ज़रुरत नहीं है । सालाना दो हज़ार रुपए में साँप पालना भी बुरा सौदा नहीं है । वैसे भी शहरी ज़िंदगी में लोगों का आए दिन अजगरों से साबका पडता है । चाहे अनचाहे "आस्तीन के साँप" पल ही जाते हैं । ऎसे में घोषित तौर पर होर्डिंग पर नाम दर्ज कराकर साँप-अजगर , घडियाल ,मगरमच्छ पालने में बुराई भी क्या है ...?
खबर है कि एक छात्रा ने अजगर पालने का फ़ैसला लेकर योजना का श्रीगणेश भी कर दिया है । मेरे जैसे शख्स के लिए तो साँप भी बजट से बाहर है । लेकिन इस मुहिम में भागीदार नहीं बन पाना आगे चलकर कई लोगों के लिए फ़्रस्ट्रेशन का सबब भी बन सकता है । समाज में , अपने सर्किल में क्या मुंह दिखाएंगे ..? किस तरह लोगों की हिकारत भरी निगाहों का सामना कर पाएंगे....? उम्मीद है वन विभाग हम जैसों का ख्याल भी ज़रुर रखेगा । मुझे तो लगता है कि केन्द्र सरकार ने जिस तरह मध्यम वर्ग का खयाल रखकर घर ,कार वगैरह के लिए सस्ता कर्ज़ देने की मुहिम छेडी है । उसी तर्ज़ पर वन विभाग को भी आम जनता की माँग पर बिच्छू , केंचुए, सेही , मॆढक , गिरगिट जैसे सस्ते जीव - जन्तुओं के पालनहार ढूंढना होंगे ।
कुछ साल पहले भोपाल में इतनी बारिश हुई थी कि बाढ के हालात बन गए थे । नाले की ज़मीन पर कब्ज़ा कर घर बना कर रहने वालों के घर पूरी तरह तबाह हो गए थे । तब मैंने पढा था कि पानी के घर में घुसोगे तो पानी एक दिन तुम्हारे घर में घुसेगा । इंसानी गल्ती के लिए पानी को कोसना बेतुका और बेमानी है । दो तीन दिन पहले धार के रिहाइशी इलाके में घुस आए तेंदुए को लोगों ने बेरहमी से पीट - पीट कर मार डाला । भोपाल के नज़दीक नाले पर पानी पीने आए भालू को भी लोगों ने अधमरा कर दिया ।
ऎसी ही दर्दनाक घटनाएं देश के अलग अलग इलाकों से आए दिन सुनने मिलती हैं । अपने लालच के चलते खेतों - जंगलों का सफ़ाया करके शहरों का विस्तार करने वाले इंसान ने वन्य प्राणियों को उनके ही घर से बेदखल कर दिया है । अब इन्हीं जानवरों को गोद लेने की नायाब तरकीब का हवाला देकर कौन सी अनोखी बात होने जा रही है देखना होगा ।
जंगल कट रहे हैं , जानवर बेघर हो रहे हैं । वन विभाग के अपने तर्क हैं ,कभी बजट ,कभी अमला ,तो कभी संसाधनों की कमी का रोना । साल दर साल कांक्रीट का जंगल विस्तार पा रहा है और हरा भरा नैसर्गिक जंगल अस्तित्व खो रहा है । मध्यप्रदेश में 1960- 61 में 173 हज़ार वर्ग किलोमीटर जंगल था ,जो 1980- 81 के आने तक सिकुड कर 155 हज़ार वर्ग किलोमीटर रह गया । मौजूदा आंकडों के मुताबिक राज्य में जंगल अब महज़ 95 हज़ार 221वर्ग किलोमीटर है ।
एक समय था जब प्रदेश यह दावा करता था कि देश का लगभग एक चौथाई वनक्षेत्र होने के कारण वन आधारित उद्योग इसी अनुपात में प्रदेश को दिए जाना चाहिए । लेकिन अब तस्वीर रफ़्ता रफ़्ता बदल रही है । सरकारी आंकडों के मुताबिक प्रदेश में 31 फ़ीसदी वन भूमि है लेकिन वन आच्छादित क्षेत्र अब 25 प्रतिशत ही है । वास्तविक वनक्षेत्र अब बमुश्किल 15 से 18 फ़ीसदी के बीच रह गया है ।
मेरे पिताजी मुझसे अक्सर कहा करते हैं कि जिस भी इलाके में नया थाना खुलता है ,वहां एकाएक अपराधों की तादाद में इज़ाफ़ा देखा जाता है । कमोबेश यही स्थिति वन अमले के साथ भी है । वन विभाग में अफ़सरों की तादाद जैसे जैसे बढती गई ,जंगल भी उसी रफ़्तार से गायब होते गये ।
इस बीच दिल को सुकून देने वाली खबर है कि खरबों रुपए खर्च करके भी जो काम सरकारी अमला नहीं कर सका । उसे एक शख्स की दृढइच्छा शक्ति और मज़बूत इरादों ने हकीकत में बदल दिया । भोपाल के उमर अलीम ने राजधानी के नज़दीक अपने पैतृक गांव हिनौतिया जागीर की बंजर पहाडी पर हरियाली की चादर बिछा दी । पैंसठ एकड की सूखी पहाडी के पन्द्रह एकड हिस्से में उमर अलीम ने चौबीस साल पसीना बहाकर सागौन के बारह हज़ार पेड जवान कर दिए । दस लाख रुपए की लागत और खुद की मेहनत के बूते जंगल खडा कर उमर अलीम ने तमाम सरकारी अमले के मुंह पर करारा तमाचा जडा है और किन्तु - परन्तु के फ़ेर में बहाने बनाने वालों के लिए मिसाल कायम की है ।
पचास के दशक में प्रकाशित पुस्तक "द वाइल्ड लाइफ़ ऑफ़ इंडिया" की प्रस्तावना में देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने लिखा था - "वन्यप्राणी - यह नाम हमने वनों के उन वन्यपशुओं और पक्षियों को दिया है जिनके बिना जीवन अधूरा है और जंगल सूने हैं । काश ! यदि यह प्राणी बोल पाते और हम इनकी भाषा समझ पाते तो हमें पता चल जाता कि इनके विचार हमारे बारे में बहुत अच्छे नहीं हैं ।"
नेहरु जी की ये टिप्पणी आज भी उतनी ही सटीक है । वन्यप्राणियों के विचार प्रश्न बन गए हैं । प्रश्न जो मरणासन्न श्रवण कुमार ने दशरथ से किया था , जो आज हर शिकार अपने शिकारी से करता है । सदियों से ये सवाल आकाश में गूंज रहा है लेकिन आज तक कोई जवाब धरती पर नहीं उतरा है । शब्दबेधी बाण का नतीजा तो दशरथ ने पुत्र वियोग में प्राण देकर भोगा । लेकिन उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में जो भीषण वन और वन्यप्राणी संहार हुआ उसका परिणाम कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि हमारी आने वाली कई नस्लें भयावह पर्यावरण असंतुलन से उपजी प्राकृतिक आपदाओं के रुप में भुगतेंगी ।
लेबल:
भोपाल,
मध्यप्रदेश,
वन विभाग,
वन्यप्राणी,
शेर
शनिवार, 3 जनवरी 2009
क्या काँधे पर बैठा बेताल बनने देगा " बी पॉज़ीटिव "
दीवार पर टंगा कैलेंडर बदलने को ही यदि बदलाव माना जाए , तो वाकई तब्दीली आ चुकी है । दिसम्बर खत्म होने पर जनवरी माह का आना तय है । उत्सवधर्मिता के चलते इसे नया मान लिया जाए , तो यकीनन सब कुछ नया - नया है । मेरी निगाह में हर दिन नया दिन , हर शाम नई शाम ...। 
इसके लिए किसी खास दिन को नया दिन ; नया साल मान लेना ही काफ़ी नहीं । बहरहाल जहां बहुमत , वहां जनमत .....। सो चाहें ना चाहें मानें ना मानें । शामिल हों या चुपचाप दूर बैठे तमाशा देखें....... । मगर सब कह रहे हैं तो सुन [ मानते नहीं} लेते हैं कि नया साल आ गया । सुना है नए साल पर रिज़ोल्यूशन "संकल्प" लेने की परंपरा भी है । साल नया सो संकल्प भी नया । सब लेते हैं तो हम भी ले लेते हैं ।
अक्सर लोग मुझे "बी पॉज़ीटिव " रहने की सलाह देते हैं । मगर मैं समझ नहीं पाती कि "ओ नेगेटिव" भला किस साइंटिफ़िक तरीके से बी पॉज़ीटिव हो सकता है । नैसर्गिक रुप से मिली कुछ चीज़ें शायद ज़िन्दगी में कभी बदली नहीं जा सकती । हां कोई "स्टेम सेल" इसे बदल सके ,तो बात और है । वैज्ञानिक जब तकनीक ईजाद करेंगे ,तब करेंगे ,लोगों के संतोष के लिए ही सही मुझे कुछ तो बदलना ही होगा ।
खैर ..., सवाल संकल्प का । इसलिए मेरा संकल्प है कि अब से दुनिया में चारों तरफ़ खुशहाली , हरियाली देखी जाएगी । बदहाली ,तंगहाली ,फ़टेहाली जैसे मुद्दों की ओर से पूरी तरह आंखें मूंद लेने पर ही तो चारों तरफ़ उजियारा नज़र आ सकेगा ....।
लेकिन एक बात और भी है जो मेरे लिए परेशानी का सबब बना हुआ है । मेरे काँधे पर बैठा बेताल ....। जब तक ये मौन रहेगा तब तक मैं भी चुप ..। मगर इसने सवालात की झडी लगाई , कब , कहां ,क्यों ,कैसे पूछने का , कान में फ़ुसफ़ुसाने का सिलसिला जारी रखा ,तो मजबूरन मुझे इसके यक्ष प्रश्नों का उत्तर देने के लिए मुंह खोलना ही पडेगा । देखें ये बेताल कितने दिन यूं ही चुपचाप काँधे पर सवार रहकर सफ़र तय करता है......। ये बोला, मैंने मुंह खोला और संकल्प ......????????
निराली जस्त {छलांग] करना है , नए रस्ते पे चलना है
नए शोलों में तपना है , नए सांचे में ढलना है
यही दो चार सांसें , जो अभी मुझको सम्हाले हैं
इन्हीं दो चार सांसों , में ज़माने को बदलना है ।

इसके लिए किसी खास दिन को नया दिन ; नया साल मान लेना ही काफ़ी नहीं । बहरहाल जहां बहुमत , वहां जनमत .....। सो चाहें ना चाहें मानें ना मानें । शामिल हों या चुपचाप दूर बैठे तमाशा देखें....... । मगर सब कह रहे हैं तो सुन [ मानते नहीं} लेते हैं कि नया साल आ गया । सुना है नए साल पर रिज़ोल्यूशन "संकल्प" लेने की परंपरा भी है । साल नया सो संकल्प भी नया । सब लेते हैं तो हम भी ले लेते हैं ।
अक्सर लोग मुझे "बी पॉज़ीटिव " रहने की सलाह देते हैं । मगर मैं समझ नहीं पाती कि "ओ नेगेटिव" भला किस साइंटिफ़िक तरीके से बी पॉज़ीटिव हो सकता है । नैसर्गिक रुप से मिली कुछ चीज़ें शायद ज़िन्दगी में कभी बदली नहीं जा सकती । हां कोई "स्टेम सेल" इसे बदल सके ,तो बात और है । वैज्ञानिक जब तकनीक ईजाद करेंगे ,तब करेंगे ,लोगों के संतोष के लिए ही सही मुझे कुछ तो बदलना ही होगा ।
खैर ..., सवाल संकल्प का । इसलिए मेरा संकल्प है कि अब से दुनिया में चारों तरफ़ खुशहाली , हरियाली देखी जाएगी । बदहाली ,तंगहाली ,फ़टेहाली जैसे मुद्दों की ओर से पूरी तरह आंखें मूंद लेने पर ही तो चारों तरफ़ उजियारा नज़र आ सकेगा ....।
लेकिन एक बात और भी है जो मेरे लिए परेशानी का सबब बना हुआ है । मेरे काँधे पर बैठा बेताल ....। जब तक ये मौन रहेगा तब तक मैं भी चुप ..। मगर इसने सवालात की झडी लगाई , कब , कहां ,क्यों ,कैसे पूछने का , कान में फ़ुसफ़ुसाने का सिलसिला जारी रखा ,तो मजबूरन मुझे इसके यक्ष प्रश्नों का उत्तर देने के लिए मुंह खोलना ही पडेगा । देखें ये बेताल कितने दिन यूं ही चुपचाप काँधे पर सवार रहकर सफ़र तय करता है......। ये बोला, मैंने मुंह खोला और संकल्प ......????????
निराली जस्त {छलांग] करना है , नए रस्ते पे चलना है
नए शोलों में तपना है , नए सांचे में ढलना है
यही दो चार सांसें , जो अभी मुझको सम्हाले हैं
इन्हीं दो चार सांसों , में ज़माने को बदलना है ।
मंगलवार, 30 दिसंबर 2008
हिन्दी ब्लॉगिंग पर टिड्डी दल का हमला
सावधान ब्लॉगर बंधुओं .....। हिन्दी के विकास के लिए काम करने वाले मठाधीशों के टिड्डी दल हमले की तैयारी में है । राजभाषा हिन्दी के उद्धारकों की निगाह हिन्दी ब्लॉगिंग पर पड गई है और जल्दी ही ये खेमा पूरे लाव लश्कर के साथ धावा करने वाला है । लार्वा और प्यूपा तो काफ़ी समय से नज़र आ रहे थे , लेकिन टिड्डी दल का आक्रमण हम जैसे तमाम छोटे - छोटे नौसीखिए ब्लॉगरों की नई उगती फ़सल को मिनटों में सफ़ाचट कर देगा । हिन्दी पर कृपादृष्टि बरसाने वाले पतित पावनों को अब ब्लॉग जगत के उद्धार [बंटाढार] की फ़िक्र सताने लगी है ।
कविता , व्यंग्य , निबंध और कहानी पाठ के माध्यम से हिन्दी को लोकप्रिय बनाने के हथकंडे आज़मा रहे ’चुके हुए लोग” अब हिन्दी ब्लॉग पाठ के प्रयोग को सफ़ल बनाने पर उतारु हैं । इस कवायद से हिन्दी का कितना भला हो सकेगा ये तो वक्त ही बताएगा । लेकिन इस नई पहल से हिन्दी के मठाधीशों का भला होना तय है ।
मेरा मानना है कि सरकारी अनुदान और प्रश्रय पाकर हिन्दी की चिन्दी ही हुई है । अंग्रेज़ीदां हिन्दी प्रेमियों ने हिन्दी को किताबी भाषा बनाकर रख दिया है । गोष्ठियों , चर्चाओं तक सिमट कर रह गई राजभाषा की इस दुर्दशा के लिए हिन्दी के ही स्वनामधन्य विद्वान ज़िम्मेदार हैं । "किसी देश की स्मृति ,संस्कृति और राष्ट्रीयता को भाषा ही प्रतिबिम्बित करती है ।" शैलेश मटियानी के इस कथन को यदि थोडा और विस्तार दिया जाए तो कहा जा सकता है - किसी देश की स्मृति ,संस्कृति और राष्ट्रीयता को भाषा ही संरक्षित भी रखती है ।
जिस तरह स्मृति ,संस्कृति और राष्ट्रीयता के प्रश्न किसी जाति की अस्मिता से जुडे होते हैं , उसी तरह भाषा का प्रश्न भी हमारी अस्मिता और हमारे अस्तित्व से जुडा है । लेकिन आज मुश्किल ये है कि ये सवाल चंद मुट्ठी भर लोगों के चिंतन का विषय बनकर रह गया है । इस जमात में भी कई लोग ऎसे हैं , जो खुद भी अपने कहे और सोचे पर अमल करने में नाकाम हैं । बाकी बचे वे लोग जो कुछ करने की स्थिति में हैं ,मगर निहित स्वार्थों के वशीभूत आँखें मूंद रखी हैं और देश को उसके हाल पर छोड दिया है , जबकि इस जनतंत्र में जन की तो अभी ठीक से आँखें भी पूरी तरह नहीं खुलीं हैं । मूंदने या सच को देखने या फ़िर अनदेखा करने की तो बात ही कौन कहे ...?
बहरहाल मुख्य मुद्दा ये है कि ब्लॉग पाठ के ज़रिए हिन्दी को जनप्रिय बनाने की कोशिश कितनी कारगर साबित होगी । आप मुझे कुएं का मेंढक करार दे सकते हैं ,लेकिन मैं तो भोपाल को केन्द्र में रखकर ही चीज़ों को देखने समझने की आदी हो चुकी हूं । वैसे भी जिस तरह इंदौर को मुम्बई बच्चा कहा जाता है ,उसी तरह दिल्ली और भोपाल के मिजाज़ भी कमोबेश एक से हैं । सरकारी ढर्रा दोनों राजधानियों की तस्वीर को हमजोली बना देता है । ये और बात है कि दिल्ली का इतिहास काफ़ी लम्बा है और भोपाल महज़ डेढ - दो सौ सालों की यादें अपने में समेटे है ।
भोपाल में एक हिन्दी भवन है । जूते ,चप्पल ,कपडों की महासेल और विवाह समारोह के शोर शराबे के बीच यहां हिन्दी की सेवा कितनी हो पाती है भगवान ही जाने ...। यही हाल हिन्दी साहित्य सम्मेलन का भी है । इसी तरह की कुछ और भी हिन्दी सेवी संस्थाएं हैं , जो 14 सितम्बर [हिन्दी दिवस]के आसपास सुसुप्तावस्था से बाहर आती हैं और फ़िर ’हाइबरनेश’ में चला जाता है । हिन्दी का सारा ज्ञान ’सरकारी अनुदान’ हासिल करने की लिखत - पढत में ही काम आता है ।
कहावत है -" जहं - जहं पैर पडे संतन के , तहं - तहं बंटाढार ।" उसी तरह जिस जगह सरकार की कृपावर्षा हुई , उसका तो खुदा हाफ़िज़ ...। संगीत , नाटक , ललित कला , हस्तकला और लोक कलाओं के संरक्षण के लिए चिंतातुर बडे - बडे सरकारी संस्थान ’ सफ़ेद हाथी’ बन चुके हैं और कलाएं धीरे - धीरे दम तोड रही हैं । हाल ही में राजधानी में एक लोककला समारोह हुआ था , जिसका आमंत्रण पत्र किसी धनाढ्य के बेटे की शादी की पत्रिका से किसी भी मायने में कमतर नहीं था । उस कार्ड की कीमत सुन कर तो मेरे होश ही फ़ाख्ता हो गये । चार सौ रुपए कीमत के आमंत्रण पत्र वाले आयोजन पर सरकार ने कितना खर्च किया होगा , इसका अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है , लेकिन इससे लोक कलाकारों की ज़िन्दगी में क्या बदलाव आया ..?लोक कलाकारों के लिए ये आयोजन -’चार दिन की चांदनी , फ़िर अंधियारी रात।’
इसलिए एक बार फ़िर आपको आगाह किए देते हैं कि बचा सको तो , बचा लो हिन्दी ब्लॉगिंग को ...। हिन्दी के मठाधीशों के जैविक हमले से बचने के उपाय सोचो , वरना हिन्दी ब्लॉगिंग की ’भ्रूण हत्या’ की पूरी आशंका है । जिस भी विधा में आम को ठेल कर खास लोग आते हैं , वह संग्रहालय में प्रदर्शन की वस्तु बनकर रह जाती है । जागो ब्लॉगर जागो ............।
कविता , व्यंग्य , निबंध और कहानी पाठ के माध्यम से हिन्दी को लोकप्रिय बनाने के हथकंडे आज़मा रहे ’चुके हुए लोग” अब हिन्दी ब्लॉग पाठ के प्रयोग को सफ़ल बनाने पर उतारु हैं । इस कवायद से हिन्दी का कितना भला हो सकेगा ये तो वक्त ही बताएगा । लेकिन इस नई पहल से हिन्दी के मठाधीशों का भला होना तय है ।
मेरा मानना है कि सरकारी अनुदान और प्रश्रय पाकर हिन्दी की चिन्दी ही हुई है । अंग्रेज़ीदां हिन्दी प्रेमियों ने हिन्दी को किताबी भाषा बनाकर रख दिया है । गोष्ठियों , चर्चाओं तक सिमट कर रह गई राजभाषा की इस दुर्दशा के लिए हिन्दी के ही स्वनामधन्य विद्वान ज़िम्मेदार हैं । "किसी देश की स्मृति ,संस्कृति और राष्ट्रीयता को भाषा ही प्रतिबिम्बित करती है ।" शैलेश मटियानी के इस कथन को यदि थोडा और विस्तार दिया जाए तो कहा जा सकता है - किसी देश की स्मृति ,संस्कृति और राष्ट्रीयता को भाषा ही संरक्षित भी रखती है ।
जिस तरह स्मृति ,संस्कृति और राष्ट्रीयता के प्रश्न किसी जाति की अस्मिता से जुडे होते हैं , उसी तरह भाषा का प्रश्न भी हमारी अस्मिता और हमारे अस्तित्व से जुडा है । लेकिन आज मुश्किल ये है कि ये सवाल चंद मुट्ठी भर लोगों के चिंतन का विषय बनकर रह गया है । इस जमात में भी कई लोग ऎसे हैं , जो खुद भी अपने कहे और सोचे पर अमल करने में नाकाम हैं । बाकी बचे वे लोग जो कुछ करने की स्थिति में हैं ,मगर निहित स्वार्थों के वशीभूत आँखें मूंद रखी हैं और देश को उसके हाल पर छोड दिया है , जबकि इस जनतंत्र में जन की तो अभी ठीक से आँखें भी पूरी तरह नहीं खुलीं हैं । मूंदने या सच को देखने या फ़िर अनदेखा करने की तो बात ही कौन कहे ...?
बहरहाल मुख्य मुद्दा ये है कि ब्लॉग पाठ के ज़रिए हिन्दी को जनप्रिय बनाने की कोशिश कितनी कारगर साबित होगी । आप मुझे कुएं का मेंढक करार दे सकते हैं ,लेकिन मैं तो भोपाल को केन्द्र में रखकर ही चीज़ों को देखने समझने की आदी हो चुकी हूं । वैसे भी जिस तरह इंदौर को मुम्बई बच्चा कहा जाता है ,उसी तरह दिल्ली और भोपाल के मिजाज़ भी कमोबेश एक से हैं । सरकारी ढर्रा दोनों राजधानियों की तस्वीर को हमजोली बना देता है । ये और बात है कि दिल्ली का इतिहास काफ़ी लम्बा है और भोपाल महज़ डेढ - दो सौ सालों की यादें अपने में समेटे है ।
भोपाल में एक हिन्दी भवन है । जूते ,चप्पल ,कपडों की महासेल और विवाह समारोह के शोर शराबे के बीच यहां हिन्दी की सेवा कितनी हो पाती है भगवान ही जाने ...। यही हाल हिन्दी साहित्य सम्मेलन का भी है । इसी तरह की कुछ और भी हिन्दी सेवी संस्थाएं हैं , जो 14 सितम्बर [हिन्दी दिवस]के आसपास सुसुप्तावस्था से बाहर आती हैं और फ़िर ’हाइबरनेश’ में चला जाता है । हिन्दी का सारा ज्ञान ’सरकारी अनुदान’ हासिल करने की लिखत - पढत में ही काम आता है ।
कहावत है -" जहं - जहं पैर पडे संतन के , तहं - तहं बंटाढार ।" उसी तरह जिस जगह सरकार की कृपावर्षा हुई , उसका तो खुदा हाफ़िज़ ...। संगीत , नाटक , ललित कला , हस्तकला और लोक कलाओं के संरक्षण के लिए चिंतातुर बडे - बडे सरकारी संस्थान ’ सफ़ेद हाथी’ बन चुके हैं और कलाएं धीरे - धीरे दम तोड रही हैं । हाल ही में राजधानी में एक लोककला समारोह हुआ था , जिसका आमंत्रण पत्र किसी धनाढ्य के बेटे की शादी की पत्रिका से किसी भी मायने में कमतर नहीं था । उस कार्ड की कीमत सुन कर तो मेरे होश ही फ़ाख्ता हो गये । चार सौ रुपए कीमत के आमंत्रण पत्र वाले आयोजन पर सरकार ने कितना खर्च किया होगा , इसका अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है , लेकिन इससे लोक कलाकारों की ज़िन्दगी में क्या बदलाव आया ..?लोक कलाकारों के लिए ये आयोजन -’चार दिन की चांदनी , फ़िर अंधियारी रात।’
इसलिए एक बार फ़िर आपको आगाह किए देते हैं कि बचा सको तो , बचा लो हिन्दी ब्लॉगिंग को ...। हिन्दी के मठाधीशों के जैविक हमले से बचने के उपाय सोचो , वरना हिन्दी ब्लॉगिंग की ’भ्रूण हत्या’ की पूरी आशंका है । जिस भी विधा में आम को ठेल कर खास लोग आते हैं , वह संग्रहालय में प्रदर्शन की वस्तु बनकर रह जाती है । जागो ब्लॉगर जागो ............।
लेबल:
भोपाल,
लोककला,
सरकार,
हिन्दी,
हिन्दी ब्लॉगिंग
रविवार, 28 दिसंबर 2008
शनिदेव की न्यायप्रियता पर उठते सवाल
देश के श्रद्धालुओं के दिलों में इन दिनों शनि महाराज का वास है । तमाम मुश्किलात से दो चार हो चुके प्रवचन किंग आसाराम का सिंहासन बिनाका गीतमाला का सरताज बना रहने में कामयाब है । प्राणायाम और कपालभाति सिखाते - सिखाते बाबा रामदेव योग गुरु से राजनीति के गुरु घंटाल बनने की जुगत भिडाने में जुट गये हैं । राज कपूर ने राम जी को मैली होती गंगा की दुहाई दी थी ,लेकिन तब ना सरकार जागी ना ही जनता चेती । अब जब कुछ उद्योग घरा
नों को विलुप्त होती गंगधारा में खज़ाना नज़र आने लगा है , तो भागीरथी को बचाने के लिए सरकारी तौर पर प्रयास शुरु करने की बात कही जा रही है
इस बीच न्याय के देवता कहे जाने वाले शनिदेव के आराधकों का ग्राफ़ दिनोंदिन ऊर्ध्वगामी होता जा रहा है । ज़्यादा वक्त नहीं गुज़रा जब लोग शनि की दृष्टिपात से भी खौफ़ज़दा रहते थे । शनि का दान देते समय सावधान्र रहते थे । शनि दान लेने वाले के प्रति भी नज़रिया ज़रा तंग ही होता था । लेकिन जय हो टीवी देव की...........।
कहते हैं ना , वक्त का फ़ेर है । समय होत बलवान । सो चैनलों ,समाचार पत्रों , ज्योतिषियों और चंद स्वनाम धन्य शनि उपासकों के गठजोड ने ’छाया मार्तंड” को त्रिलोक का अधिष्ठाता बना दिया । पिछले चार - पांच सालों में भोपाल में कदम कदम पर शनि महाराज ने डेरा डाल लिया है । हर मोर्चे पर नाकाम रहे एक शख्स ने एक ज़मीन पर बलात कब्ज़ा किया , फ़िर शनि की महिमा का बखान किया । घर पर शनि का दरबार सजाया , लोगों को शनि के दंड का डर दिखाया । आज वह करोडों की ज़मीन का स्वामी है ।
न्याय के इस आधुनिक देवता ने इस उपासक पर इतनी कृपा बरसाई कि ४० हज़ार रुपए स्क्वाय्रर फ़ुट की न्यू मार्केट की ज़मीन उसकी झोली में डाल दी । यहां नगर निगम के पार्किंग स्थल पर पिछले एक साल में शनिदेव ने अपना झंडा ना सिर्फ़ गाड दिया बल्कि करीब पांच हज़ार स्क्वाय्रर फ़ुट पर देखते ही देखते शिंगनापुर के शनि महाराज का प्राकट्य हो गया । कल की शनिश्चरी अमावस्या ने भी आराधक पर खूब कृपा वर्षा की । हज़ारों भक्तों ने काले तिल , महंगे तेल और काले वस्त्रों का दान कर शनिदेव का भरपूर आशीर्वाद लिया ।
शनिदेव की बढती लोकप्रियता ने तो तैंतीस करोड देवताओं में से कुछ लोकप्रिय और सर्वव्यापी भगवानों को भी पीछे छोड दिया है । शबरी के राम और कुब्जा के कृष्ण की तो कौन कहे , हर पुलिस चौकी में पीपल के नीचे विराजमान रामभक्त पवनपुत्र हनुमान की पूछपरख भी कम हो चली है । मेरे घर के चार किलोमीटर के दायरे में सरकारी ज़मीनों पर अब तक मैं कम से कम दस शनिधाम देख चुकी हूं ।
जिस तरह बालीवुड में तीन खानों का बोलबाला है । उसी तरह आस्था के बाज़ार में शनिदेव सहित तीन देवताओं ने धूम मचा रखी है । जब से शनिदेव के साथ धन की देवी लक्ष्मी का उल्लेख किया जाने लगा है , भौतिकवाद का उपासक समाज एकाएक शनिदेव का आराधक हो गया है ।
मैंने तो शनि को न्याय के देवता के रुप में जाना - समझा । बेशर्मी से ज़मीन हथियाने और लोगों की आस्था के साथ खिलवाड करने वाले लोगों को रातों रात धनाढ्य होते देख कर मन संशय से भर उठता है ।
क्या वाकई शनि न्याय प्रिय हैं ...? अगर हैं , तो क्या धर्म और न्याय की परिभाषा बदल गई है .....? शनि गलत काम करने वालों को तत्काल दंडित करते हैं ऎसा कहा गया है । यदि ये सच है तो फ़िर ये माना जाए कि बेजा कब्ज़ा , दूसरों का माल हडपना , रिश्वतखोरी , चंदाखोरी , गुंडागर्दी और कायदे कानूनों का उल्लंघन अपराध नहीं हैं । शनि देव तो हो सकता है कुछ वक्त लगाएं ,लेकिन जिन अधिकारियों और नेताओं की नाक के नीचे ये सब काम होता है और जिसे रोकना उनकी ज़िम्मेदारी है , वो क्यों आंखें मूंदे बैठे रह्ते हैं .....? इनकी आंखें कब और कैसे खुलेंगी ....... खुलेंगी भी या नहीं .......? कह पाना बडा ही मुश्किल है .....?
शनिदेव से निराशा हाथ लगने के बाद अब तो मेरी निगाहें कल्कि अवतार पर ही टिकी हैं । हे कल्कि देव सफ़ेद घोडे पर हो कर सवार जल्दी लो अवतार ........।

इस बीच न्याय के देवता कहे जाने वाले शनिदेव के आराधकों का ग्राफ़ दिनोंदिन ऊर्ध्वगामी होता जा रहा है । ज़्यादा वक्त नहीं गुज़रा जब लोग शनि की दृष्टिपात से भी खौफ़ज़दा रहते थे । शनि का दान देते समय सावधान्र रहते थे । शनि दान लेने वाले के प्रति भी नज़रिया ज़रा तंग ही होता था । लेकिन जय हो टीवी देव की...........।
कहते हैं ना , वक्त का फ़ेर है । समय होत बलवान । सो चैनलों ,समाचार पत्रों , ज्योतिषियों और चंद स्वनाम धन्य शनि उपासकों के गठजोड ने ’छाया मार्तंड” को त्रिलोक का अधिष्ठाता बना दिया । पिछले चार - पांच सालों में भोपाल में कदम कदम पर शनि महाराज ने डेरा डाल लिया है । हर मोर्चे पर नाकाम रहे एक शख्स ने एक ज़मीन पर बलात कब्ज़ा किया , फ़िर शनि की महिमा का बखान किया । घर पर शनि का दरबार सजाया , लोगों को शनि के दंड का डर दिखाया । आज वह करोडों की ज़मीन का स्वामी है ।
न्याय के इस आधुनिक देवता ने इस उपासक पर इतनी कृपा बरसाई कि ४० हज़ार रुपए स्क्वाय्रर फ़ुट की न्यू मार्केट की ज़मीन उसकी झोली में डाल दी । यहां नगर निगम के पार्किंग स्थल पर पिछले एक साल में शनिदेव ने अपना झंडा ना सिर्फ़ गाड दिया बल्कि करीब पांच हज़ार स्क्वाय्रर फ़ुट पर देखते ही देखते शिंगनापुर के शनि महाराज का प्राकट्य हो गया । कल की शनिश्चरी अमावस्या ने भी आराधक पर खूब कृपा वर्षा की । हज़ारों भक्तों ने काले तिल , महंगे तेल और काले वस्त्रों का दान कर शनिदेव का भरपूर आशीर्वाद लिया ।
शनिदेव की बढती लोकप्रियता ने तो तैंतीस करोड देवताओं में से कुछ लोकप्रिय और सर्वव्यापी भगवानों को भी पीछे छोड दिया है । शबरी के राम और कुब्जा के कृष्ण की तो कौन कहे , हर पुलिस चौकी में पीपल के नीचे विराजमान रामभक्त पवनपुत्र हनुमान की पूछपरख भी कम हो चली है । मेरे घर के चार किलोमीटर के दायरे में सरकारी ज़मीनों पर अब तक मैं कम से कम दस शनिधाम देख चुकी हूं ।
जिस तरह बालीवुड में तीन खानों का बोलबाला है । उसी तरह आस्था के बाज़ार में शनिदेव सहित तीन देवताओं ने धूम मचा रखी है । जब से शनिदेव के साथ धन की देवी लक्ष्मी का उल्लेख किया जाने लगा है , भौतिकवाद का उपासक समाज एकाएक शनिदेव का आराधक हो गया है ।
मैंने तो शनि को न्याय के देवता के रुप में जाना - समझा । बेशर्मी से ज़मीन हथियाने और लोगों की आस्था के साथ खिलवाड करने वाले लोगों को रातों रात धनाढ्य होते देख कर मन संशय से भर उठता है ।
क्या वाकई शनि न्याय प्रिय हैं ...? अगर हैं , तो क्या धर्म और न्याय की परिभाषा बदल गई है .....? शनि गलत काम करने वालों को तत्काल दंडित करते हैं ऎसा कहा गया है । यदि ये सच है तो फ़िर ये माना जाए कि बेजा कब्ज़ा , दूसरों का माल हडपना , रिश्वतखोरी , चंदाखोरी , गुंडागर्दी और कायदे कानूनों का उल्लंघन अपराध नहीं हैं । शनि देव तो हो सकता है कुछ वक्त लगाएं ,लेकिन जिन अधिकारियों और नेताओं की नाक के नीचे ये सब काम होता है और जिसे रोकना उनकी ज़िम्मेदारी है , वो क्यों आंखें मूंदे बैठे रह्ते हैं .....? इनकी आंखें कब और कैसे खुलेंगी ....... खुलेंगी भी या नहीं .......? कह पाना बडा ही मुश्किल है .....?
शनिदेव से निराशा हाथ लगने के बाद अब तो मेरी निगाहें कल्कि अवतार पर ही टिकी हैं । हे कल्कि देव सफ़ेद घोडे पर हो कर सवार जल्दी लो अवतार ........।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)