भोपाल के राष्ट्रीय उद्यान वन विहार ने वन्यप्राणियों के संरक्षण के लिए अनूठी पहल की है -जानवरों को गोद लेने की । इस योजना में अब कोई भी संस्था या व्यक्ति प्राणियों के रखरखाव की ज़िम्मेदारी ले सकेगा । योजना में बाघ ,शेर , तेंदुआ से लेकर मगरमच्छ ,घडियाल और रीछ - भालू भी शामिल किए गये हैं । शेर को गोद लेने के लिए एक लाख ग्यारह हज़ार रुपए खर्च करना हों गे , जबकि बाघ की ज़िम्मेदारी उठाने के लिए सवा लाख रुपए जमा कराने पडेंगे ।
अगर आप पशु प्रेमी तो हैं लेकिन ये खर्च आपके बजट से बाहर की बात है , तो भी चिंता की कोई बात नहीं क्योंकि वन विभाग ने मध्यम वर्ग का ख्याल रखते हुए जेब पर भारी ना पडने वाले जानवरों को भी फ़ेहरिस्त में जगह दी है । अजगर छह हज़ार रुपए के खर्च में आपका हो सकता है । अगर यह फ़ीस भी ज़्यादा है , तो भी निराश होने की ज़रुरत नहीं है । सालाना दो हज़ार रुपए में साँप पालना भी बुरा सौदा नहीं है । वैसे भी शहरी ज़िंदगी में लोगों का आए दिन अजगरों से साबका पडता है । चाहे अनचाहे "आस्तीन के साँप" पल ही जाते हैं । ऎसे में घोषित तौर पर होर्डिंग पर नाम दर्ज कराकर साँप-अजगर , घडियाल ,मगरमच्छ पालने में बुराई भी क्या है ...?
खबर है कि एक छात्रा ने अजगर पालने का फ़ैसला लेकर योजना का श्रीगणेश भी कर दिया है । मेरे जैसे शख्स के लिए तो साँप भी बजट से बाहर है । लेकिन इस मुहिम में भागीदार नहीं बन पाना आगे चलकर कई लोगों के लिए फ़्रस्ट्रेशन का सबब भी बन सकता है । समाज में , अपने सर्किल में क्या मुंह दिखाएंगे ..? किस तरह लोगों की हिकारत भरी निगाहों का सामना कर पाएंगे....? उम्मीद है वन विभाग हम जैसों का ख्याल भी ज़रुर रखेगा । मुझे तो लगता है कि केन्द्र सरकार ने जिस तरह मध्यम वर्ग का खयाल रखकर घर ,कार वगैरह के लिए सस्ता कर्ज़ देने की मुहिम छेडी है । उसी तर्ज़ पर वन विभाग को भी आम जनता की माँग पर बिच्छू , केंचुए, सेही , मॆढक , गिरगिट जैसे सस्ते जीव - जन्तुओं के पालनहार ढूंढना होंगे ।
कुछ साल पहले भोपाल में इतनी बारिश हुई थी कि बाढ के हालात बन गए थे । नाले की ज़मीन पर कब्ज़ा कर घर बना कर रहने वालों के घर पूरी तरह तबाह हो गए थे । तब मैंने पढा था कि पानी के घर में घुसोगे तो पानी एक दिन तुम्हारे घर में घुसेगा । इंसानी गल्ती के लिए पानी को कोसना बेतुका और बेमानी है । दो तीन दिन पहले धार के रिहाइशी इलाके में घुस आए तेंदुए को लोगों ने बेरहमी से पीट - पीट कर मार डाला । भोपाल के नज़दीक नाले पर पानी पीने आए भालू को भी लोगों ने अधमरा कर दिया ।
ऎसी ही दर्दनाक घटनाएं देश के अलग अलग इलाकों से आए दिन सुनने मिलती हैं । अपने लालच के चलते खेतों - जंगलों का सफ़ाया करके शहरों का विस्तार करने वाले इंसान ने वन्य प्राणियों को उनके ही घर से बेदखल कर दिया है । अब इन्हीं जानवरों को गोद लेने की नायाब तरकीब का हवाला देकर कौन सी अनोखी बात होने जा रही है देखना होगा ।
जंगल कट रहे हैं , जानवर बेघर हो रहे हैं । वन विभाग के अपने तर्क हैं ,कभी बजट ,कभी अमला ,तो कभी संसाधनों की कमी का रोना । साल दर साल कांक्रीट का जंगल विस्तार पा रहा है और हरा भरा नैसर्गिक जंगल अस्तित्व खो रहा है । मध्यप्रदेश में 1960- 61 में 173 हज़ार वर्ग किलोमीटर जंगल था ,जो 1980- 81 के आने तक सिकुड कर 155 हज़ार वर्ग किलोमीटर रह गया । मौजूदा आंकडों के मुताबिक राज्य में जंगल अब महज़ 95 हज़ार 221वर्ग किलोमीटर है ।
एक समय था जब प्रदेश यह दावा करता था कि देश का लगभग एक चौथाई वनक्षेत्र होने के कारण वन आधारित उद्योग इसी अनुपात में प्रदेश को दिए जाना चाहिए । लेकिन अब तस्वीर रफ़्ता रफ़्ता बदल रही है । सरकारी आंकडों के मुताबिक प्रदेश में 31 फ़ीसदी वन भूमि है लेकिन वन आच्छादित क्षेत्र अब 25 प्रतिशत ही है । वास्तविक वनक्षेत्र अब बमुश्किल 15 से 18 फ़ीसदी के बीच रह गया है ।
मेरे पिताजी मुझसे अक्सर कहा करते हैं कि जिस भी इलाके में नया थाना खुलता है ,वहां एकाएक अपराधों की तादाद में इज़ाफ़ा देखा जाता है । कमोबेश यही स्थिति वन अमले के साथ भी है । वन विभाग में अफ़सरों की तादाद जैसे जैसे बढती गई ,जंगल भी उसी रफ़्तार से गायब होते गये ।
इस बीच दिल को सुकून देने वाली खबर है कि खरबों रुपए खर्च करके भी जो काम सरकारी अमला नहीं कर सका । उसे एक शख्स की दृढइच्छा शक्ति और मज़बूत इरादों ने हकीकत में बदल दिया । भोपाल के उमर अलीम ने राजधानी के नज़दीक अपने पैतृक गांव हिनौतिया जागीर की बंजर पहाडी पर हरियाली की चादर बिछा दी । पैंसठ एकड की सूखी पहाडी के पन्द्रह एकड हिस्से में उमर अलीम ने चौबीस साल पसीना बहाकर सागौन के बारह हज़ार पेड जवान कर दिए । दस लाख रुपए की लागत और खुद की मेहनत के बूते जंगल खडा कर उमर अलीम ने तमाम सरकारी अमले के मुंह पर करारा तमाचा जडा है और किन्तु - परन्तु के फ़ेर में बहाने बनाने वालों के लिए मिसाल कायम की है ।
पचास के दशक में प्रकाशित पुस्तक "द वाइल्ड लाइफ़ ऑफ़ इंडिया" की प्रस्तावना में देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने लिखा था - "वन्यप्राणी - यह नाम हमने वनों के उन वन्यपशुओं और पक्षियों को दिया है जिनके बिना जीवन अधूरा है और जंगल सूने हैं । काश ! यदि यह प्राणी बोल पाते और हम इनकी भाषा समझ पाते तो हमें पता चल जाता कि इनके विचार हमारे बारे में बहुत अच्छे नहीं हैं ।"
नेहरु जी की ये टिप्पणी आज भी उतनी ही सटीक है । वन्यप्राणियों के विचार प्रश्न बन गए हैं । प्रश्न जो मरणासन्न श्रवण कुमार ने दशरथ से किया था , जो आज हर शिकार अपने शिकारी से करता है । सदियों से ये सवाल आकाश में गूंज रहा है लेकिन आज तक कोई जवाब धरती पर नहीं उतरा है । शब्दबेधी बाण का नतीजा तो दशरथ ने पुत्र वियोग में प्राण देकर भोगा । लेकिन उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में जो भीषण वन और वन्यप्राणी संहार हुआ उसका परिणाम कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि हमारी आने वाली कई नस्लें भयावह पर्यावरण असंतुलन से उपजी प्राकृतिक आपदाओं के रुप में भुगतेंगी ।