शुक्रवार, 6 मार्च 2009

औरत को दया नहीं अधिकार की दरकार

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का ज़िक्र आते ही पता नहीं क्यों विश्व हिंदी दिवस की याद आ ही जाती है । महिला दिवस के बहाने साल में एक दिन ही सही, क़म से क़म महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर कुछ रोशनी तो पड़ती है । कुछ अलग की तलाश में भटकते मीडिया में भी महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर चर्चा होती है ।

महिला दिवस जहाँ एक मौका है महिला शक्ति को सलाम करने का, वहीं रुककर उन महिलाओं के बारे में सोचने का भी मौका है जो बुरी स्थिति में हैं । ये मौका है उन असमानताओं के बारे में सोचने का , जो आज भी समाज में है और हम उसके लिए क्या कर सकते हैं ?

समाज में कहने को क़ायदे-क़ानून ज़रूर हैं लेकिन जब तक महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध करने वालों पर शिकंजा नहीं कसेगा , लोगों की ये मानसिकता नहीं बदलेगी कि आप अपराध कर सकते हैं और फिर बच कर निकल सकते हैं । मानसिकता बदलने के लिए क़ानून, राजनीतिक इच्छाशक्ति, घर का माहौल,मीडिया, फ़िल्म... , हर स्तर पर प्रयास ज़रुरी हैं ।

मैं दुनिया भर की सभी महिलाओं की प्रतिनिधि तो नहीं हूँ लेकिन मेरे आत्मसम्मान को ठेस पहुँचती है जब स्त्री पर 'दुखिया' 'बेचारी' 'वंचित' या फ़िर 'अबला' का ठप्पा लगाया जाता है । मन सवाल कर उठता है , आखिर क्यों मनाते हैं ये दिवस? क्यों नहीं 'अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस' या 'विश्व अंग्रेज़ी दिवस' मनाए जाते ? क्या आज भी महिला और हिंदी "इतनी बेचारी" हैं कि उनकी तरफ़ ध्यान दिलाने के लिए खास मशक्कत की ज़रूरत है ? इसमें शक नहीं है कि आज भी अनगिनत महिलाएँ जीवन की मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं । लेकिन दुखियारे पुरुषों की भी समाज में कमी नहीं । ग़रीबी और अशिक्षा सबसे बड़े अभिशाप हैं और वे लिंगभेद के अनुपात में नहीं उलझते ।

साल में एक बार महिला दिवस मनाने से बेहतर है कि साल के 365 दिन समाज के उन उपेक्षित वर्गों को समर्पित किए जाएँ जिनकी ओर न समाज का ध्यान जाता है और न ही व्यवस्था का । अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की उपलब्धि क्या है? जगह-जगह समारोह, भाषणबाज़ी, बड़े-बड़े संकल्प और वायदे.. ......आखिर में फिर स्थिति जस की तस ।

महिलाओं की स्थिति सुधारने में दो सबसे बड़ी बाधाएँ हैं - कन्या भ्रूण हत्या और दहेज प्रताड़ना । शुरुआत कन्या भ्रूण से की जाना चाहिए । पहले तो उसे जन्म लेने का, जीने का, साँस लेने का अधिकार हो । फिर उसे कुपोषण से बचाया जाए । इसके अलावा उसकी शिक्षा का पूरा इंतज़ाम हो ।

लड़कियों की शिक्षा पर बहुत ज़्यादा ध्यान न दिए जाने के बावजूद आँकड़े बताते हैं कि भारत में महिला डॉक्टरों, सर्जनों, वैज्ञानिकों और प्रोफ़ेसरों की तादाद अमरीका से ज़्यादा है । ज़रा सोच कर देखिए थोड़ा सा सहारा या सहायता महिला को किन ऊँचाइयों तक ले जा सकती है । लेकिन यह सहारा अंतरराष्ट्रीय दिवस मनाने से नहीं मिलेगा । यह मिलेगा आसपास के परिवेश से. घर-परिवार से.....।

भारत की पहली महिला पुलिस अधिकारी और जुझारूपन की मिसाल किरण बेदी ने समाज की कुछ वंचित महिलाओं के बारे में अपने एक लेख में ऐसी ही एक सलाह दी थी वे कहती हैं, "मैने उन तमाम स्त्रियों को समझाया कि जो चीज़ें उन्हें इतनी कोशिशों के बाद मिली हैं, मुझे वे सब मेरे माता-पिता ने जन्म से ही दिया था... इसलिए बेटियाँ वही बनती हैं जो उनके माता-पिता उन्हें बनाना चाहते हैं, और अगर उन महिलाओं के माता-पिता चाहते तो उन्हें भी ये सब मिल सकता था। "

महिलाओं को आरक्षण के खांचे में रखने की कतई ज़रुरत नहीं । उन्हें सामाजिक समानता चाहिए । देश और समाज में हर स्तर पर संतुलन कायम रखने के लिए स्त्रियों को दया की नहीं अधिकार की दरकार है । कन्या भ्रूण हत्या रोकने में भी स्त्रियों को ही दृढता दिखाना होगी । माँ के मज़बूत इरादों से टकराकर कोई भी बेटी की नन्हीं जान को धड़कने से नहीं रोक सकता । औरतों के वजूद को समझने और उन्हें आगे बढने के पर्याप्त अवसर देकर ही महिला दिवस को सार्थक बनाया जा सकता है ।

क़ैफ़ी आज़मी साहब की नज़्म ’औरत’ के कुछ हिस्से -

तू फ़लातूनो-अरस्तू है तू ज़ुहरा परवीं
तेरे क़ब्ज़े में है गर्दूं , तेरी ठोकर में ज़मीं
हाँ उठा ,जल्द उठा पाए - मुकद्दर से ज़बीं
मैं भी रुकने का नहीं ,वक्त भी रुकने का नहीं
लड़खड़ाएगी कहाँ तक कि सम्हलना है तुझे
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे।

गुरुवार, 5 मार्च 2009

भगोरिया की मस्ती में जीवन का उल्हास

ंगारों से दहकते टेसू के फूलों और रंग-गुलाल के बीच मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी इलाकों में इन दिनों प्रणय पर्व भगोरिया की धूम है झाबुआ , आलीराजपुर , खरगोन और धार ज़िलों के हाट-बाजार में आदिवासी युवक-युवतियाँ जिंदगी का एक नया रंग तलाशते नजर आते हैं



भगोरिया नाम है उस प्रेम पर्व का , जो मूल आदिवासी समाज की अनोखी और विशिष्ट संस्कृति से रुबरु होने का मौका देता है भगोरिया आदिवासियों की पारंपरिक संस्कृति का आईना है। होली के सात दिन पहले से सभी हाट-बाज़ार मेले का रुप ले लेते हैं और हर तरफ बिखरा नजर आता है फागुन की मस्ती और प्यार का रंग

भगोरिया पर्व चार मार्च से शुरु हो चुका है होलिका दहन (दस मार्च) तक चलने वाले इस सांस्कृतिक उत्सव के लिए झाबुआ और आलीराजपुर क्षेत्र में 52 से अधिक स्थानों पर धूम मची रहेगी। वालपुर , बखतगढ़ और छकतला के मेलों में मध्यप्रदेश के अलावा गुजरात और राजस्थान के सीमावर्ती गाँवों से भी लोग पहुँचते हैं झाबुआ और आलीराजपुर के अलावा सौण्डवा , जोबट , कट्ठीवाड़ा , नानपुर उमराली , भाबरा और आम्बुआ की भगोरिया हाट में स्थानीय ही नहीं, देशी - विदेशी सैलानियों का जमावड़ा भी लगता है

भगोरिया पर लिखी कुछ किताबों के अनुसार राजा भोज के समय लगने वाले हाटों को भगोरिया कहा जाता था। उस समय दो भील राजाओं कासूमार औऱ बालून ने अपनी राजधानी भगोर में विशाल मेले औऱ हाट का आयोजन करना शुरू किया धीरे-धीरे आस-पास के भील राजाओं ने भी इन्हीं का अनुसरण करना शुरू किया जिससे हाट और मेलों को भगोरिया कहने का चलन बन गया हालाँकि , इस बारे में लोग एकमत नहीं हैं




ऎसी भी मान्यता है कि क्षेत्र का भगोर नाम का गाँव देवी माँ के श्राप के कारण उजड़ गया था वहाँ के राजा ने देवी की प्रसन्नता के लिए गाँव के नाम पर वार्षिक मेले का आयोजन शुरु कर दिया। चूँकि यह मेला भगोर से शुरू हुआ, इसलिए इसका नाम भगोरिया रख दिया गया। वैसे इसे गुलालिया हाट यानी गुलाल फेंकने वालों का हाट भी कहा जाता है।


भील, भिलाला एवं पटलिया जनजाति अपनी परंपरा के अनुसार उत्साह से नाचते-गाते हुए भगोरिया हाट में आते हैं इस पर्व की खास बात ये भी है कि आदिवासी अपनी जन्मभूमि , अपने गाँव से कितनी ही दूर क्यों हो, लेकिन भगोरिया के रुप में माटी की पुकार पर वो "अपने देस" दौड़ा चला आता है पलायन कर चुके आदिवासी इस पर्व का आनंद लेने के लिए अपने घर लौट आते हैं

इसके साथ ही भगोरिया हाट भीलों की जीवन रेखा भी है कहते हैं भील साल भर हाड़ तोड़ मेहनत - मजदूरी करते हैं और भगोरिया में अपना जमा धन लुटाते हैं। यहाँ से ही वे अनाज और कई तरह का सौदा - सुलफ़ लेते हैं यहीं गीत-संगीत और नृत्य में शामिल हो मनोरंजन करते हैं।

भगोरिया प्राचीन समय में होने वाले स्वयंवर का जनजातीय स्वरूप है इन हाट-बाजारों में युवक-युवती बेहद सजधज कर जीवनसाथी ढूँढने आते हैं देवता की पूजा-अर्चना के साथ शुरू होता है उत्सव पूजा के बाद बुजुर्ग पेड़ के नीचे बैठकर विश्राम करते हैं और युवाओं की निगाहें भीड़ में मनपसंद जीवनसाथी तलाशती हैं फिर होता है प्रेम के इजहार का सिलसिला......

युवतियों का श्रृंगार तो दर्शनीय होता ही है, युवक भी उनसे पीछे नहीं रहते लाल-गुलाबी, हरे-पीले रंग के फेटे, कानों में चाँदी की लड़ें, कलाइयों और कमर में कंदोरे, आँखों पर काला चश्मा और पैरों में चाँदी के मोटे कड़े पहने नौजवानों की टोलियाँ हाट की रंगीनी बढाती हैं वहीं जामुनी, कत्थई, काले, नीले, नारंगी आदि चटख-शोख रंग में भिलोंडी लहँगे और ओढ़नी पहने, सिर से पाँव तक चाँदी के गहनों से सजी अल्हड़-बालाओं की शोखियाँ भगोरिया की मस्ती को सुरुर में तब्दील कर देती हैं

आपसी रजामंदी जाहिर करने का तरीका भी बेहद निराला होता है नाच-गाने और मेले में घूमने के दौरान बात बन जाने पर लड़का पहल करता है पान की गिलौरी देकर....... लड़की पान का बीड़ा चबा कर प्रणय निवेदन को स्वीकृति देती है और फ़िर दोनों भाग कर शादी कर लेते हैं।

पहले इस रस्म को निभाने में काफी खून-खराबा होता था लेकिन अब प्रशासन की चुस्त व्यवस्था से पिछले कुछ सालों में कोई भी अप्रिय घटना नहीं हुई। मेलों में अब सशस्त्र बल और घुड़सवार पुलिस की तैनाती से अब मामला हिंसक नहीं हो पाता

इसी तरह यदि लड़का लड़की के गाल पर गुलाबी रंग लगा दे और जवाब में लड़की भी लड़के के गाल पर गुलाबी रंग मल दे तो भी रिश्ता तय माना जाता है। कुछ जनजातियों में चोली और तीर बदलने का रिवाज है। वर पक्ष लड़की को चोली भेजता है। यदि लड़की चोली स्वीकार कर बदले में तीर भेज दे तब भी रिश्ता तय माना जाता है। इस तरह भगोरिया भीलों के लिए विवाह बंधन में बँधने का अनूठा त्योहार भी है।


हाथ में रंगीन रुमाल और तीर - कमान थामे ढोल- मांदल की थाप और ठेठ आदिवासी गीतों पर थिरकते कदम माहौल में मस्ती घोल देते हैं गुड़ की जलेबी और बिजली से चलने वाले झूलों से लेकर लकड़ी के हिंडोले तक दूर-दूर तक बिखरी शोखी पहचान है भगोरिया की


पूरे वर्ष हाड़-तोड़ मेहनत करने वाले आदिवासी युवक-युवती इंतजार करते हैं इस उत्सव का जब वे झूमेंगे नाचेंगे गाएँगे, मौसम की मदमाती ताल पर बौरा जाएँगे। फिर उनके पास 'भगौरिया' भी तो है , निःसंकोच जीवनसंगी चुनने और इस चुनाव का बेलौस इज़हार करने का मौका इस अवसर को उन्होंने मदमाते मौसम में ही मनाना तय किया जो अपने आपमें उत्सव की प्रासंगिकता को और भी बढ़ा देता है।

भगोरिया हाटों में अब परंपरा की जगह आधुनिकता हावी होती दिखाई देने लगी है। चाँदी के गहनों के साथ-साथ अब मोबाइल चमकाते भील जगह-जगह दिखते हैं। ताड़ी और महुए की शराब की जगह अब अंग्रेजी शराब का सुरूर सिर चढ़कर बोलता है। वहीं छाछ-नींबू पानी की जगह कोला पसंद किया जा रहा है। आदिवासी युवक नृत्य करते समय काले चश्मे लगाना पसंद कर रहे हैं वहीं युवतियाँ भी आधुनिकता के रंग में रंगती जा रही हैं।पढ़े-लिखे नौजवान अब भगोरिया में शामिल नहीं होना चाहते वहीं अब वे केवल एक उत्सव के समय अपने जीवनसाथी को चुनने से परहेज भी कर रहे हैं इस दौरान होने वाली शादियों में कमी रही है।

भगोरिया के आदर्शों, गरिमाओं और भव्यता के आगे योरप और अमेरिका के प्रेम पर्वों की संस्कृतियाँ भी फीकी हैं, क्योंकि भगोरिया अपनी पवित्रता, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों की धरोहर से ओत-प्रोत है। इसलिए यह सारे विश्व में अनूठा और पवित्र पर्व है।

आदिवासियों को विकास की मुख्य धारा से पिछड़ा मानने वाले हम लोग यदि इनकी परंपराओं पर बारीकी से नजर डालें तो पाएँगे कि जिन परंपराओं के अभाव में हमारा समाज तनावग्रस्त है वे ही इन वनवासियों ने बखूबी से विकसित की हैं। तथाकथित सभ्य और पढे - लिखे समाज के लिए सोचने का विषय है कि हमारे पास अपनी युवा पीढ़ी को देने के लिए क्या है ? क्या हमारे पास हैं ऐसे कुछ उत्सव जो सिर्फ और सिर्फ प्रणय-परिणय से संबंधित हों ? आदिवासी इस मामले में भी हमसे अधिक समृद्ध हैं।

मंगलवार, 3 मार्च 2009

धूमधाम से मनेगा शिवराज का "प्रकटोत्सव"

सामंती युग में राज परिवारों में सालगिरह मनाने का रिवाज़ था । लोग तोहफ़े - नज़राने देकर राजा के प्रति अपनी निष्ठा का मुज़ाहिरा पेश करते थे । अब ज़माना कुछ और है । कहते - कहते ज़ुबान थक गई है , फ़िर भी याद बताना ज़रुरी है कि भारत में अब भी लोकतंत्र बरकरार है । मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री तो इतने विनम्र और सेवाभावी हैं कि वे खुद को हमेशा जनता का सेवक बताते नहीं थकते । उनकी निगाह में जनता ही उनकी भगवान है और वे उस के सच्चे सेवक.....??????

बहरहाल , इस तरह की विनम्रता सिर्फ़ शिवराजजी को ही शोभा देती है । कहते हैं ना कि जिसमें जितनी गुरुता वो उतना विनम्र ..। सो पाँव - पाँव भैया भले ही उड़न खटोला खरीदने की हैसियत वाले हो गये हैं लेकिन विनम्रता का लबादा ओढे रहने में भी वे बेमिसाल हैं ।

अब आते हैं मूल मुद्दे पर । वन - वन भटकने वाले श्रीराम की तुलना में माखन चोर , चितचोर नटखट नटवर नागर , कन्हैया का जन्मदिन बड़े पैमाने पर धूमधाम से मनाने की प्राचीन परंपरा रही है । जय हो .. मीडिया की , जिसकी मेहरबानी से भोलेशंकर के विवाह उत्सव भी पूरे तामझाम के साथ धूमधड़ाके से मनाने की परंपरा भी अब ज़ोर पकड़ने लगी है । लेकिन फ़िर भी थोड़ी कसर तो रह ही गई , शिवशंकर का जन्मदिन धूमधाम से मनाने की । मगर मध्यप्रदेश के शिवराज भी किसी "भोले भंडारी" से कम नहीं । इसलिए पाँच मार्च को प्रदेश के उत्साही भाजपाइयों ने उनका पचासवाँ जन्मदिन हर्षोल्लास से मनाने की तैयारी कर ली है ।

राजसी ठाट बाट से शपथ ग्रहण के बाद अब भाजपा सरकार के मुखिया का जन्मदिन भी शानोशौकत से मनाने के लिए राजधानी के व्यापारियों से सहयोग की गुज़ारिश की गई है । हो सकता है ऎसा ही सहयोग हर छोटे बड़े शहर के व्यापारियों से भी माँगा जा रहा हो । पाँच मार्च को पूरा भोपाल शिवराज का जन्मदिन मनाता दिखे , इसके लिए जगह - जगह होर्डिंग- बैनर लगाने की योजना है । भाजपाइयों ने महाभोज की तैयारी भी की है ।

’ जिसकी जितनी श्रद्धा , उसका उतना चढावा और बदले में उतनी ही परसादी ’ की तर्ज़ पर व्यापारियों से कहा गया है कि वे शकर ,आटा ,चावल सहित अन्य ज़रुरी सामग्री पहुँचायें ।शिवराज के मुख्यमंत्री बनने से पहले तक पाँच मार्च एक गुमनाम तारीख थी लेकिन पिछले तीन सालों से जन्मदिन मनाने की भव्यता के साथ ही इसकी व्यापकता भी विस्तार पा रही है । पिछले साल तीन हज़ार भाजपाई ही " शिवराज जन्मोत्सव " के छप्पन भोग का रसास्वादन कर पाये थे । लेकिन " बर्थ डे ब्वाय " इस मर्तबा चाहे जितनी ना नुकुर कर लें , दस हज़ार कार्यकर्ताओं को "जिमाने" के लिए रसद पानी का इंतज़ाम तो जनता को करना ही होगा ।

जुम्मा - जुम्मा चार दिन नहीं बीते जब शिवराज तामझाम नहीं काम की सीख देते घूम रहे थे । सार्वजनिक मंचों पर फ़ूलमालाओं से होने वाले स्वागत - सत्कार से भी परहेज़ की बात करने वाले शिवराज का इस जन्मोत्सव के बारे में क्या खयाल है ? भई हम तो कुछ नहीं कहेंगे । चुप ही रहेंगे । मन ही मन गुनगुनाएँगे - भये प्रकट कृपाला दीनदयाला , कौसल्या (भाजपा) हितकारी , हर्षित महतारी मुनि मन हारी अदभुत रुप बिचारी ।

शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

सारी दुनिया छह हज़ार लोगों की मुट्ठी में...........

यकीन करना थोड़ा मुश्किल है लेकिन हक़ीक़त यही है कि पूरी दुनिया महज़ 6000 लोगों की मर्ज़ी की ग़ुलाम है । दूसरे शब्दों में सारी दुनिया इनकी मुट्ठी में है । ये ही वो लोग हैं जो तय करते हैं दुनिया की तकदीर । आजकल एक नई किताब ’सुपर क्लास’ चर्चा में है । डेविड रॉथ कॉफ़ की इस किताब में कहा गया है कि विश्व भर में अतिविशिष्ट व्यक्तियों का ऎसा वर्ग है जो तय करता है कि दुनिया कैसे चलेगी ।

श्री कॉफ़ का मानना है कि हर दस लाख लोगों में से एक में वो काबीलियत होती है जो उसे इस अतिविशिष्ट वर्ग का सदस्य बनने में मदद देती है । लगातार बदलते ’ पॉवर सर्किल ’ में कुछ साल रहने के बाद लोग खुद ही इससे दूर हो जाते हैं । हालाँकि अपवाद स्वरुप कुछ लोग ऎसे भी हैं जो कई दशकों तक उतने ही ताकतवर बने रहते हैं ।

इस पुस्तक के मुताबिक राजनीति , उद्योग जगत , वित्तीय संस्थाएँ , सैन्य उपक्रम , लेखन और सिनेमा से जुड़े लोगों का सुपर क्लास में दबदबा देखा गया है । दुनिया की रीति- नीति तय करने में पैसा और सेना का ’ हार्ड पॉवर ’ काम करता है । नई संस्कृति गढ़ने और नई जीवन शैली तैयार करने में नामीगिरामी लेखकों और चमत्कारिक व्यक्तित्व के मालिक लोकप्रिय सिनेमाई कलाकारों का प्रभाव काम करता है ।

कुछ धार्मिक नेता भी इसी श्रेणी में आते हैं , जिनकी बात करोड़ों लोगों का दिलो दिमाग बदल डालने की ताकत रखती है । ये भी आम लोगों की सोच - समझ पर खासा असर डालते हैं । लोग अपने निजी फ़ैसलों से लेकर सामूहिक मामलों से जुड़े फ़ैसले भी इन्हीं से प्रभावित होकर लेते हैं । ऎसे लोगों की फ़ेहरिस्त में रोमन कैथोलिक पोप और ईरान के धार्मिक नेता मरहूम अयातुल्लाह खुमैनी और उनके बेटे अयातुल्लाह अली खुमैनी का नाम शामिल है ।

इन मुट्ठी भर लोगों में पूरी दुनिया को मुट्ठी में कर लेने की शक्ति है । बल्कि इसे यूँ कहें कि दुनिया जंग के ज़रिये तबाही के रास्ते पर आगे बढेगी या अमन के फ़ूल खिलाकर धरती पर चमन सजाएगी , इसका फ़ैसला लेने का अख्तियार इन छह हज़ार लोगों को ही है । अतिविशिष्ट वर्ग के हाथ में इतना कुछ है कि इनकी मर्ज़ी के बग़ैर पत्ता भी नहीं खड़कता । अगर ये ना चाहें , तो बड़े से बड़ा युद्ध टाला जा सकता है । लेकिन इन्होंने ठान ली तो जंग होने से कोई रोक भी नहीं सकता । कुछ मामलों में इन्हीं के हितों की रक्षा के लिए लड़ाइयाँ लड़ी गईं ।

देशों के कानून भी वास्तव में इन्हीं प्रभावी लोगों के फ़ायदे को ध्यान में रखकर बनाये जाते हैं । ये और बात है कि आम लोगों का भरोसा वोट के रुप में पाकर ही ये लोग संसदों में पहुँचते हैं । लेखक का दावा है कि देश की व्यवस्था पर ही नहीं इस वर्ग का दबदबा विदेशी सरकारों पर भी रहता है ।

कई बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मालिक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी भी सरकारी मामलों में ना सिर्फ़ दिलचस्पी लेते हैं , बल्कि सरकारी फ़ैसलों पर भी अप्रत्यक्ष्र रुप से असर डालते हैं । यूरोपीय और अमरीकी लोगों का दबदबा समूचे विश्व में कायम है । बहरहाल मुकेश अंबानी और रतन टाटा भी सुपर क्लास का हिस्सा हैं । ये भी यूरोप और अमरीका के शक्तिशाली लोगों के बीच उठते - बैठते हैं । यानी लाख दावे किये जाएँ लेकिन हकीकतन देश कोई हो , सरकार किसी की भी बने, होंगी महज़ कठपुतलियाँ ही..........। दुनिया को चलाने वाले छह हज़ार बाज़ीगरों के हाथ का खिलौना .....!!!!!!!! इन सर्वशक्ति संपन्न बाज़ीगरों का एक ही नारा है - कर लो दुनिया मुट्ठी में !

शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

देश में फ़िर हो सकता है आतंकी हमला

देश अब भी बारुद के मुहाने पर बैठा है । जल्दी ही आम चुनावों की घोषणा हो जाएगी और पूरा देश लोकतंत्र के जश्‍न में डूब जाएगा । मंदी की मार के चलते नौकरी से हाथ धो बैठे कई युवाओं को काम मिल जाएगा और बचे खुचे लोग इस उत्सवी माहौल में अपना ग़म ग़लत करते नज़र आएँगे । ऎसे ही किसी शानदार मौके की राह तक रहे हैं -दहशतगर्द । जब पूरा देश चुनावी रंग में सराबोर होकर बेखबर होगा , तब आईएसआई के आतंकी रंग में भंग डालने का साज़ो सामान लेकर टूट पडे़गे कई ठिकानों पर ।

खुफ़िया एजेंसियों की रिपोर्ट कहती है कि आईएसअआई की शह पर भारत में अफ़रा-तफ़री फ़ैलाने की साज़िश को अंजाम देने की पूरी तैयारी है । हालाँकि पहले भी इस तरह की सूचनाएँ मिलती रही हैं ,लेकिन हर बार चेतावनियों को अनदेखा कर देने का खमियाज़ा आम नागरिक ने उठाया है । सरकार ने 26 / 11 के मुम्बई हमले पर अब तक "नौ दिन चले अढ़ाई कोस" का रवैया अपना रखा है । ऎसे में दहशतगर्दों के हौंसले बुलंद हों , तो कोई आश्‍चर्य की बात नहीं होगी ।

इधर खबर ये भी है कि ओबामा का अमेरिका पाकिस्तान को तालिबानियों की गिरफ़्त में फ़ँसा "बेचारा" मानने की तैयारी कर चुका है । इस लाचारगी से बाहर लाने के लिए जल्दी ही करोंड़ों डॉलर की इमदाद भी पहुँचाई जाएगी , ताकि पाकिस्तान इस "मुसीबत" से उबर सके । "शरीफ़ पाक" ज़्यादा कुछ नहीं थोड़े आतंकी और थोड़ा रसद पानी खरीदेगा इस पैसे से और ज़ाहिर तौर पर इसका इस्तेमाल होगा भारत के भीतर घुसकर भारत के लोगों को गाजर - मूली की तरह काटने में ।

खुफिया एजेंसियों को अल कायदा के आतंकी अबू जार के फोन इंटरसेप्ट के ज़रिए साजिश का पता चला है। इस साजिश में अल कायदा, जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा समेत कई आतंकी संगठन भागीदार हैं। इनका मकसद केवल भारत में धमाके करना ही नहीं है । वैसे तो भारत-पाक रिश्तों में अब पहले सी गर्मी नहीं रही लेकिन आतंकी रिश्तों के तनाव की चिन्गारी को भभकती लपटों की शक्ल देना चाहते हैं । संदेश को पकड़ने के बाद सुरक्षा एजेंसियों की नींद उड़ गई है।

यह हमला कार बम के जरिए करने की बात कही गई है। देश की सभी गुप्तचर एजेंसियों ने एक ही संकेत दिया हैं कि आईएसआई के आतंकवादी भारत में कई सुरक्षित ठिकानों पर मौजूद हैं और किसी बड़े शहर पर किसी बड़े हादसे के लिए सही वक्त की टोह ले रहे हैं। इनमें से कई के नाम पते और शिनाख्त भी खुफ़िया तंत्र के पास हैं। संदेश में अबू जार ने अपने साथियों से दिल्ली पर हमले करने के लिए तैयारियाँ शुरू करने को कहा है।

सुरक्षा एजेंसियों के मुताबिक अबू जार का मकसद कश्मीर घाटी समेत समूचे भारत में आतंकी वारदात करने का है। अल कायदा आतंकी अबू जार पर 2001 में जम्मू विधानसभा में बम विस्फोट, 6 सितंबर 2003 में जम्मू के एक इलाके में बम विस्फोट और 16 नवंबर 2006 को जम्मू-कश्मीर के एक बैंक में बम विस्फोट कर कई लोगों की जान लेने का आरोप है।

कश्मीर के कांजीकोला इलाके में सक्रिय अबू जार कार बम के इस्तेमाल में माहिर माना जाता है। वह कश्मीर के आतंकियों के छोटे -छोटे गुटों को इकट्ठा कर देश में हमले कराने की फिराक में है। अल-कायदा आतंकी का मकसद दोनों देशों में युद्ध जैसे हालात पैदा करने का है।

पाकिस्तान की भारत के प्रति खुन्नस किसी से छिपी नहीं है । दरअसल वह हज़ार घावों से लहूलुहान हिन्दुस्तान देखना चाहता है , लेकिन अमेरिका की ख्वाहिश भी कुछ अलग नहीं । पूरा देश बराक ओबामा के चुने जाने पर बौरा रहा था लेकिन जिस तरह से आउट सोर्सिंग पर रोक लगाने का फ़रमान सामने आया है , मालूम होता है भारत का दुनिया में बढता रसूख अमेरिका की आँख की किरकिरी बन गया है । मंदी ने पूरी दुनिया में ज़लज़ला ला दिया है । इसमें तीस लाख से ज़्यादा भारतीय रोज़गार गवाँ बैठे हैं , लेकिन नेता ’ओम शांति, शांति ,शांति......... जपते हुए चुनावी रणभेरी फ़ूँकने की कवायद में मशगूल हैं ।

( चुनाव पूर्व चेतावनी - नीम बेहोशी से जागो । अब भी नहीं तो कभी नहीं । मोमबत्तियाँ जलाने वालों , गुलाबी चड्डियों के गिफ़्ट बाँटने वालों ,बेवजह सड़क पर दौड़ लगाने वालों ,हवा में मुक्के लहराने वालों , हस्ताक्षर के ज़रिए व्यवस्था बदलने का दावा करने वालों कोई तो रास्ता सोचो । छोटे - बड़े अपराधी में से चुनाव की भूल मत दोहराओ । देश बचाओ ,लोकतंत्र बचाओ )